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Sunday 14 July 2013

चौकट, जिसने हिमालयी आपदा झेलकर भी महफूस रखा इन्सान को !

चौकट, जिसने हिमालयी आपदा झेलकर भी महफूस रखा इन्सान को !
----- वैज्ञानिकों को अब चौकटों में दिखने लगी है हिमालय के नए घरों की तकनीक!  ------विजेन्द्र रावत--------



देहरादून, उत्तराखंड में आई भीषण तबाही से पहाड़ तक दरक गए और आधुनिक इंजीनियरिंग से बने भवन भी तास के पत्तों की तरह बिखर गए पर इस तबाही के बीच यमुना घाटी और गंगा घाटी में
पुरानी भवन शैली से सैकड़ों वर्ष पहले बने चार मंजिलें मकानों (जिन्हें यहाँ की बोली में "चौकट" कहा जाता है) पर एक खरोंच तक नहीं आई।
इन मकानों का इतिहास देखें तो ये अपने जीवन काल में दर्जनों छोटे बड़े भूकंप और आसमानी आपदाएं झेल चुके हैं और इनके ऊपर कई बार बादल भी फटे हैं।
यही नहीं उत्तरकाशी में 1991में आये 6.8 रेक्टर स्केल के भीषण भूकंप में भी ये चौकट अपनी कड़ी अग्नि परीक्षा से गुजर चुके हैं और ये भूकंप जिले के हजारों चौकटों में से एक का बाल भी बांका नहीं कर पाया।
लोगों ने आधुनिकता के चक्कर में भले ही इन चौकटों को अनाथ छोड़कर अपने लिए गाँव में ही कंकरीट के घर खड़े कर लिए हैं पर हिमालय में आने वाली आपदाओं के बीच मजबूती से खड़े रहकर इन चौकटों ने साबित कर दिया है कि हिमालय में मानव के असली आशियानों का रास्ता इन्ही की चौखट से होकर गुजरता है।
एक सर्वेक्षण में पाया गया कि सैकड़ों साल पहले बसे चौकट वाले यहाँ के गाँव ख़ास भौगोलिक स्थिति को परख कर चट्टानी पहाड़ की ओंट में या फिर मजबूत पहाड़ी के ऊपर बसाए गए थे। नदी किनारे बसे गाँव भी चट्टान देखकर उनकी ओंट या उनके ऊपर बसाए गए थे ताकि गाँव को नदी का तेज प्रवाह भी काट न सके। यही कारण है कि इस आपदा में उत्तराखंड के ऐसे पुराने गाँव नुकसान से बच गए या इन्हें मामूली नुकसान हुआ है।
वैज्ञानिक अब दरकते हिमालय को जीवंत रखने के लिए इन्ही पुरानी शैली से गाँव बसाने व घर बनाने के पक्ष में हैं और वे इन्ही भवनों में भविष्य के निर्माण की तकनीक तलाशने में जुट गए हैं।
आधुनिकता की चकाचौंध में भले ही इन चौकटों को लोगों ने वीरान छोड़ दिया हो पर यमुना घाटी के कुछ उत्साही युवकों ने विदेशी पर्यटकों के लिए इन्हें सजाने संवारने का बीड़ा उठाया है, आपदा में खरे उतरने वाले इन चौकटों का महत्त्व अचानक बढ़ गया है और आधुनिक वैज्ञानिक भी इनके चमत्कार को नमस्कार करने लगे हैं।
चौकटों की बनावट-
इन भवनों को लकड़ी व पत्थरों के मजबूत जोड़ों से बनाया जाता है एक फीट की दीवार के बाद लकड़ी के जोड़ डाले जाते हैं। मकान पूरा होने के बाद इसमें चार बल्लियाँ लगाई जाती है जो पूरे मकान को जोड़ने का काम करती हैं। इन लम्बी व भारी बल्लियों को लकड़ी के खांचों में फिट करना इतना कठिन होता है कि इसके लिए सैकड़ों लोगों की जरूरत पड़ती है यही कारण है कि चौकटों का निर्माण ग्रामीण सहकारिता के आधार पर मिलजुलकर कर करते थे। इस तकनीक से पूरा चौकट लकड़ी के मजबूत जोड़ों पर टिका रहता है।

" भवन निर्माण की इस परम्परागत तकनीक के साथ अगर आधुनिक तकनीक को भी मिला दिया जाए तो यह हिमालयी क्षेत्रों के लिए बेहद कारगर सिद्ध हो सकती है। पहाड़ों में गाँव व शहर बसाने में प्राचीन तकनीक आज भी कारगर है। हिमालयी क्षेत्रों में जहां भी परम्परागत मापदंडों को तोड़ा गया है वहीं आपदा ने दस्तक दी है।"
- डा0 पियूष रौतेला, कार्यकारी निदेशक, आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र -उत्तराखंड

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