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Monday 27 March 2017

गरीब और बेसहारा लोगों के लिए “इन्साफ दिलाने वाला मसीहा” है प्रबीर दास

प्रबीर कुमार दास उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर शहर में एक कमरे वाले मकान में रहते हैं। मकान भी किराए का है। मकान में गुसलखाना भी नहीं है। गुसलखाना और शौचघर मकान के बाहर हैं और प्रबीर को दूसरे किरायदारों के साथ इन्हें ‘शेयर’ करना पड़ता हैं। यानी, गुसलखाना और शौचघर किरायेदारों के लिए ‘कॉमन’ हैं। प्रबीर का जो एक कमरे का मकान है वो भी किताबों से भरा पड़ा है। इन किताबों में ज्यादातर किताबें कानून की हैं। कमरानुमा मकान में कई सारे कानूनी कागज़ात भी हैं। सैकड़ों, शायद हजारों, मामलों से जुड़े कानूनी कागज़ात और दस्तावेजों से भरा पड़ा है प्रबीर का मकान। कमरे में एक मेज़ है और इसी मेज़ पर प्रबीर लिखाई-पढ़ाई का काम भी करते हैं और इसी पर सो भी जाते हैं। किताबें और कानूनी कागज़ात ही प्रबीर की धन-दौलत और जायजाद हैं। उनके बैंक खाते में न तगड़ी रकम है और न ही उनके नाम कोई बेशकीमती ज़मीन। प्रबीर ने ज़िंदगी में अगर कुछ कमाया है तो वो है शोहरत और इज्ज़त। लेकिन, सबसे ज्यादा अहमियत रखने वाली बात ये है कि जिस तरह से प्रबीर ने लोगों की मदद करते हुए उनके दिलोदिमाग में अपनी बेहद ख़ास और पक्की जगह बनाई है, वैसा कर पाना अच्छे-अच्छों के लिए बहुत मुश्किल होता है।प्रबीर ने गरीब, बेसहारा और अशिक्षित लोगों के लिए अपना जीवन समर्पित किया है। उन्होंने गरीबी, अशिक्षा और अज्ञानता की वजह से इन्साफ से वंचित लोगों को इन्साफ दिलवाना का बीड़ा उठाया है। पिछले कई सालों से प्रबीर दास गरीब, बेसहारा और अशिक्षित लोगों को इन्साफ दिलवाने के लिए अलग-अलग अदालतों में कानूनी लडाइयां लड़ रहे हैं। हजारों लोगों को इन्साफ दिलाने में वे कामयाब भी रहे हैं। बड़ी बात ये भी है कि इन्साफ दिलाने की जंग में अपने गरीब मुवक्किलों का वकील बनने और अदालतों में उनकी वकालत करने के लिए प्रबीर कोई फीस भी नहीं लेते। फीस लेते भी कैसे, उनके मुव्वकिल ऐसे होते हैं कि जिनके पास दो जून की रोटी जुटाने के लिए रुपये भी नहीं होते। यानी गरीबों में भी सबसे गरीब लोगों को अदालतों में इन्साफ दिलाने का काम करते हैं प्रबीर कुमार। कोई भी इंसान अगर इन्साफ से वंचित है या फिर उसके अधिकारों का हनन हुआ है, प्रबीर कुमार उसके वकील बन जाते हैं। प्रबीर ये नहीं देखते थे कि पीड़ित और शोषित का वकील बनकर उन्हें क्या मुनाफा मिलेगा, वे बस यही चाहते हैं कि हर हकदार को इन्साफ मिला और हर इंसान को उसका हक़। दिलचस्प बात तो ये भी है कि प्रबीर ने कानून की पढ़ाई भी इसी वजह से की क्योंकि वे अदालतों में गरीबों और बेसहारा लोगों की आवाज़ बनकर उन्हें इन्साफ दिलाना चाहते थे। प्रबीर कहते हैं, “मेरे लिए वकालत एक पेशा नहीं है, मेरे लिए वकालत एक मिशन है, मिशन है गरीब लोगों को इन्साफ दिलाने का। ये मिशन है -जागरूकता की कमी और संसाधनों के अभाव की वजह से नाइंसाफी का शिकार हो रहे लोगों को उनका हक़ दिलाने को।“ काफी पढ़े-लिखे और काबिल प्रबीर चाहते तो जीवन में तगड़ी तनख्वाह वाली अच्छी नौकरी हासिल कर सकते थे।अपना खुद का शिक्षा संस्थान शुरू कर सकते थे या फिर खुद की लीगल फर्म चालू कर सकते थे। कॉर्पोरेट या क्रिमिनल लॉयर बनकर करोड़ों रुपये कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने जीवन सब सुख-सुविधाओं का त्याग किया और समाज-सेवा का मार्ग अपनाया। प्रबीर ने जो मार्ग चुना उसपर चलना आसान नहीं है। रास्ते में कई सारी कठिनाईयां हैं, चुनौतियां हैं, और इन कठिनाईयों और चुनौतियों का अंत भी नहीं है। लेकिन, प्रबीर ने सबसे मुश्किल-भरा रास्ता चुना। शायद इसी रास्ते पर चलने की वजह से वे आज समाज में अपनी बेहद ख़ास पहचान रखते हैं। सभी लोग उनका सम्मान करते हैं। गरीब और बेसहारा लोगों के लिए प्रबीर “इन्साफ दिलाने वाले मसीहा” हैं। गरीबों और बेसहारा लोगों के वकील के नाम से मशहूर प्रबीर कुमार दास की कहानी अनूठी कहानियों में भी अनूठी है। प्रबीर की कामयाबी की बेहद अनूठी कहानी शुरू होती है उड़ीसा से जहाँ उनका जन्म हुआ।

प्रबीर कुमार दास का जन्म 30 दिसंबर, 1964 को उड़ीसा के एक आदिवासी बहुल इलाके में हुआ। शहर की चकाचौन्द से अछूते एक आदिवासी गाँव घुमा में जन्मे प्रबीर का परिवार गैर-आदिवासी था। प्रबीर के शुरूआती छह साल इसी गाँव में बीते। इसे बाद वे उड़ीसा में अपने पैतृक गाँव बहल्दा आ गए, जोकि आदिवासी बहुल मयूरभंज जिले में पड़ता है। पिता सोमनाथ दास शिक्षक थे और माँ अनुसया दास गृहिणी। सोमनाथ और अनुसया को कुल साथ संतानें हुईं और इन सभी में प्रबीर सबसे बड़े हैं। प्रबीर की दो छोटी बहनें और चार छोटे भाई हैं । प्रबीर के मुताबिक, उनके पिता आदर्शवादी थे और उनका जीवन सीधा-सादा था। प्रबीर बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज़ थे और उन्हें स्कूल की हर परीक्षा में अव्वल नंबर आये। चूँकि पिता शिक्षक थे और उनकी साहित्य में काफी रुची थी, जाने-अनजाने प्रबीर भी साहित्य पढ़ने लगे। इतना ही ही, बचपन में ही उन्हें आदिवासी लोगों की परेशानियों को जानने और समझने का मौका मिला। प्रबीर के पिता ने आदिवासी लोगों की हर मुमकिन मदद की और उन्हें अपने बच्चों को स्कूल भेजने और पढ़ाने-लिखाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया। प्रबीर के शिक्षक पिता ने लोगों को ये समझाने की मुहीम चलाई कि शिक्षा के ज़रिये गरीबी और पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है।

प्रबीर जिन दिनों स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे उन दिनों ज्यादातर पढ़े-लिखे लोग अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर या फिर प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहते थे। प्रबीर के मुताबिक, अल्प विकसित उड़ीसा राज्य में उन दिनों कई सारे शिक्षित अभिभावक अपने बच्चों को आईएएस या फिर आईपीएस अफसर का सपना देखते थे। प्रबीर जब दसवीं कक्षा में थे तब उड़ीसा राज्य से युवक डॉ ऋषिकेश पांडा ने आईएएस की परीक्षा में टॉप किया था। और जब प्रबीर कॉलेज में थे तब उड़ीसा राज्य के एक और युवक ने आईएएस की परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। ये युवक उड़ीसा के एक बहुत ही पिछड़े इलाके बारिपदा से था। इन दो युवकों की कामयाबी ने पिछड़े इलाकों के उड़िया विद्यार्थियों और युवाओं में एक नए उत्साह का संचार किया । लोक सेवा की परीक्षा में अव्वल आने वाले इन दो युवाओं ने कई सारे विद्यार्थियों और युवाओं के लिए जीवन का एक नया लक्ष्य दिया ... और ये लक्ष्य था - लोक सेवा की परीक्षा पास कर आईएएस या आईपीएस अफसर बनाना। अपने राज्य के इन्हीं दोनों युवाओं की नायाब कामयाबी से प्रेरित होकर प्रबीर ने भी केन्द्रीय लोक सेवा की परीक्षा की तैयारी शुरू की और आईएएस अफसर बनाने का सपना देखना शुरू किया। दिन-रात की मेहनत और ज़ोरदार तैयारी के बावजूद प्रबीर लोक सेवा की परीक्षा पास नहीं कर पाए। आईएएस अफसर बनने का उनका सपना टूट गया प्रबीर कहते हैं, “जीत मुझे धोका दे गयी।”

प्रबीर के कई साथी लोक सेवा की परीक्षा पास कर प्रशासनिक अधिकारी बनने में कामयाब हुए थे, लेकिन प्रबीर छात्र जीवन के अपने सबसे बड़े सपने को साकार नहीं कर पाए । प्रबीर निराश तो हुए, मायूसी ने भी उन्हें कई दिनों तक सताया, लेकिन उन्होंने अपने जीवन के लिए नया लक्ष्य तय कर लिया। प्रबीर ने लोक सेवा की परीक्षा के लिए कई सारी किताबें पढ़ीं थीं, इन किताबों के ज़रिये काफी सारा ज्ञान हासिल किया था। भले ही वे परीक्षा पास न कर पाए हों लेकिन उनके पास कई विषयों का असीम ज्ञान था। ऐसे में प्रबीर ने फैसला किया कि वे अपनी व्यक्तिगत नाकामी को सामूहिक कामयाबी में तब्दील करेंगे । प्रबीर ने अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा फैसला लिया । उन्होंने ठान ली कि वे अर्जित ज्ञान को युवाओं में बाटेंगे और उन्हें उनके आईएएस अफसर बनने के सपने को पूरा करने में उनकी मदद करेंगे। अपने फैसले के अनुरूप प्रबीर ने लोक सेवा की परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवाओं को पढ़ाना शुरू किया। प्रबीर ने कई छात्रों का मार्ग दर्शन किया । गरीबी और सुविधाओं के अभाव में सही तरह से परीक्षाओं की तैयारी नहीं कर पा रहे विद्यार्थियों और परीक्षार्थियों की हर मुमकिन मदद की। प्रबीर खुद तो प्रशासनिक अधिकारी नहीं बन पाए लेकिन उन्होंने अपनी शिक्षा और मार्ग-दर्शन से एक दर्जन युवाओं को आईएएस या आईपीएस अफसर बनाने में कामयाबी हासिल की। प्रबीर ने कई सारे युवाओं को राज्य स्तर पर प्राशासनिक अधिकारी बनाने में भी उनकी मदद की। प्रबीर कहते हैं, “मैंने ऐसे लोगों को चुना जो कि दिल्ली जाकर सिविल सर्विसेज की तैयारी नहीं कर सकते थे । ये लोग बहुत तेज़ थे, इनकी बौद्धिक श्रमता भी बहुत ज्यादा थी लेकिन इनके पास परीक्षा की सही तैयारी के लिए संसाधनों का अभाव था। मैं इन लोगों के लिए उनका ‘फ्रेंड, फिलोसोफेर और गाइड’ बना । इन युवाओं को प्रशासनिक अधिकारी बनाकर मैंने आईएएस अफसर न बन पाने की अपनी भड़ास मिटाई है।”

जिस तरह से कई सारे विद्यार्थियों और युवाओं के लिए प्रबीर 'फ्रेंड, फिलोसोफेर और गाइड' बन गए थे कई लोगों को लगाने लगा था कि उनका सारा जीवन शिक्षा के क्षेत्र में भी चला जाएगा। लेकिन, संयोगवश प्रबीर वकील बन गए। प्रबीर वकालत के पेशे में आना ही नहीं चाहते थे। लेकिन, कुछ घटनाएं ऐसी हुईं कि जिनके प्रभाव में वे वकील बन गए। वे कहते हैं, “मैं एक शिक्षक का बेटा हूँ और मेरे लिए जीवन में नैतिकता काफी मायने रखती हैं। जब से मैंने वकालत के बारे में जाना है तब से मेरे मन में एक पेशे को लेकर बुरा अभिमत ही रहा है। मालूम नहीं कहाँ से मेरे मन में ये ख्याल घर कर गया था कि वकील अनैतिक काम करते हैं, मुझे लगता था कि वकीलों का काम अपराधियों और बदमाशों को बचाना होता है। मुझे लगता था कि वकील लोग रुपयों के लिए कुछ भी कर सकते हैं, उनमें कोई नैतिकता नहीं होती और वे अपराधियों को बचाने में लग जाते हैं।“ लेकिन, जब प्रबीर को उड़ीसा उच्च न्यायालय जाने का मौका मिला और उनका सीधा संपर्क वकीलों से हुआ तब वकीलों को लेकर उनके मन में बनी धारणा टूट गयी । हुआ यूँ था कि उन दिनों कुछ परीक्षार्थियों ने धांधली का आरोप लगाते हुए उड़ीसा लोक सेवा आयोग के खिलाफ उड़ीसा उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। इन परीक्षार्थियों में कुछ प्रबीर के वो शिष्य भी थे जो लोक सेवा की परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे । चूँकि कोर्ट आने -जाने में काफी समय लग जाता था और इससे परीक्षा की तैयारी में दिक्कतें पेश आती थीं, प्रबीर ने कोर्ट जाने और मामले की दशा-दिशा जानने का बीड़ा उठाया । न्यायालय परिसर में जाने के बाद प्रबीर को कई सारी नई जानकारियाँ मिली। उन्हें बहुत कुछ जानने, सीखने और समझने का मौका मिला । प्रबीर के मुताबिक, जो सबसे बड़ी बात उन्होंने जानी वो ये थे कि कई लोगों को सिर्फ इस वजह से इन्साफ नहीं मिल पा रहा है क्योंकि उनके पास वकील रखने के लिए भी रुपये नहीं थे । प्रबीर की मुलाक़ात ऐसे कई लोगों से हुई जोकि गरीब थे और रुपयों की किल्लत की वजह से वकील नहीं रख पा रहे थे । वकील न रख पाने से कोर्ट में इन लोगों की आवाज़ सुनाने वाला कोई नहीं था। गरीब लोग कोर्ट में भी गरीबी की मार खा रहे थे और इन्साफ के हकदार होने के बावजूद इन्साफ से वंचित थे। हकदारों को इन्साफ न मिलने की घटानाओं और अनेकानेक उदाहरणों ने प्रबीर को हिलाकर रख दिया। कोर्ट में गरीब लोगों के साथ नाइंसाफी के बारे में जानकार उन्हें गहरा सदमा पहुंचा। कोर्ट परिसर में ही प्रबीर ने फैसला कर लिया कि वे कानून की पढ़ाई करेंगे और कोर्ट में गरीबों की आवाज़ बनेंगे। कानून की डिग्री लेने के बाद साल 2001 में प्रबीर ने कोर्ट में बतौर वकील अपना नाम दर्ज करवाया और वकालत शुरू की ।

एक दिन उत्कल विश्वविद्यालय के एक छात्र ने प्रबीर को बांका इलाके की एक ऐसी बूढ़ी औरत के बारे में बताया जोकि एक समय की रोटी को भी लाचार थी। उसी मदद करने वाला कोई नहीं था और वो दाने-दाने को मोहताज थी। हालत इतनी खराब हो गयी थी कि भूख के कारण उसकी मौत भी हो सकती थी । गुहार के बावजूद स्थानीय प्रशासन से भी उस बूढ़ी महिला को कोई मदद नहीं मिल रही थी । ऐसी हालत में प्रबीर ने इस महिला को भुखमरी की मौत का शिकार होने से बचाने के लिए न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया । हाई कोर्ट के दखल के बाद प्रशासन हरकत में आया और उसने बूढ़ी महिला को इन्साफ दिलाया। हाई कोर्ट के आदेश पर प्रशासन ने उस बूढ़ी महिला की मदद की । प्रबीर के लिए ये पहली कानूनी लड़ाई थी। लड़ाई थी प्रशासन के खिलाफ और एक बूढ़ी महिला को इन्साफ दिलाने के लिए, ताकि वो भुखमरी का शिकार न हो सके। अपनी पहली ही कानूनी लड़ाई में कामयाबी से प्रबीर बहुत ही उत्साहित हुए। उनकी ख़ुशी को कोई ठिकाना नहीं रहा। इस खुशी के मौके पर प्रबीर से संकल्प ले लिए कि वे नाइंसाफी का शिकार हुए गरीब, निस्साहय और अशिक्षित लोगों के वकील बनेंगे और उन्हें इन्साफ दिलाने के लिए अदालतों में कानूनी लड़ाई लड़ेंगे।

कुछ ही दिनों में प्रबीर ‘गरीबों का वकील’ के नाम से मशहूर हो गए। उनकी लोकप्रियता दिनबदिन बढ़ती गयी। अदालतों में वे गरीबों, नाइंसाफी का शिकार और इन्साफ से महरूम लोगों की आवाज़ बन गए। बड़ी बात तो ये है कि प्रबीर गरीब मुवक्किलों से मेहनताना और फीस भी नहीं लेते हैं। प्रबीर अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके गरीब मुवक्किलों के पास एक समय का भोजन जुटाने के लिए भी रुपये नहीं हैं, ऐसे में वे उनके क्या लेंगे। प्रबीर का मकसद और लक्ष्य था कि रुपयों की किल्लत की वजह से कोई भी गरीब इंसाफ से महरूम न रह जाए। जैसे-जैसे प्रबीर की लोकप्रियता बढ़ती गयी वैसे-वैसे मदद और इन्साफ की गुहार लेकर बड़ी संख्या में गरीब लोग उनके पास पहुँचने लगे। प्रबीर ने भी मदद करने में अपनी ओर से कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी। प्रबीर ने उड़ीसा में मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामलों को भी काफी गंभीरता से लेना शुरू किया। मानव अधिकार के उल्लंघन का जो कोई मामला उनकी नज़र में आता वे इन्साफ के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाते। मानव अधिकार कार्यकर्त्ता के रूप में भी उनकी एक अलग पहचान बन गयी।


प्रबीर ने आम लोगों, गरीब और पिछड़े जनों को इन्साफ दिलाने के लिए कई मुकदमे लड़ें हैं और इनमें से कई सारे मुकदमों की चर्चा देश-भर में हुई है। कुछ मुकदमे ऐसे भी हैं जिनकी चर्चा दुनिया-भर में हुई है। प्रबीर का जो पहला मुक़दमा जिसकी चर्चा दुनिया-भर भी हुई वो प्रताप नायक नाम के एक कैदी से जुड़ा था। प्रताप नायक की कहानी दिल को देहला देने वाली है। साल 1989 में जब 13 साल के प्रताप नायक एक दिन अपने स्कूल से वापस अपने घर लौट रहे थे तभी कुछ लोगों ने मिलकर एक शख्स ही हत्या कर दी थी। ज़मीन को लेकर दो गुटों के बीच में चल रहे विवाद और घमासान में एक शख्स ही हत्या कर दी गयी थी। पुलिस ने हत्या के इस मामले में छह लोगों को गिरफ्तार किया जिसमें 13 साल के दलित विद्यार्थी प्रताप नायक भी एक थे। प्रताप नायक ने पुलिस को ये समझाने की हर मुमकिन कोशिश की कि हत्या के इस मामले से उनका कोई लेना देना नहीं है और वे सिर्फ इस वारदात के गवाह हैं। लेकिन, पुलिस ने प्रताप नायक की एक न सूनी और 13 साल के किशोर को गिरफ्तार कर जेल भिजवा दिया। जिला अदालत में मुक़दमा चला और प्रताप नायक को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। बाकी सारे आरोपियों को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी लेकिन कुछ दिनों बाद वे सभी बेल/ज़मानत पर रिहा हो गए। प्रताप नायक बेल नहीं हासिल कर पाए। उनके माता-पिता गरीब और अशिक्षित थे और उनकी मदद करने वाला भी कोई नहीं था, ज़मानत की रकम जुटाने में वे असमर्थ थे। बेल लेने की प्रक्रिया के बारे में भी प्रताप के माता-पिता कुछ नहीं जानते थे। इसी वजह से प्रताप को स्थानीय जेल में भी रहना पड़ा। बाकी पाँचों आरोपियों ने जिला अदालत के फैसले को चुनौती देते हुए उड़ीसा उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। इस याचिका पर अंतिम फैसला साल 1994 में आया। उच्च न्यायालय ने ‘सबूतों के अभाव’ की वजह से सभी आरोपियों को बरी कर दिया। उच्च न्यायालय ने इस फैसले की जानकारी उस जेल के अधिकारियों को नहीं दी जहाँ 1989 से प्रताप नायक सलाखों के पीछे बंद थे। शायद न्यायालय के अधिकारियों को लगा कि सभी आरोपी बेल पर बाहर हैं और उन्हें लगा कि फैसला की कॉपी जेल अधिकारियों को देने की ज़रुरत नहीं हैं। बहरहाल, जेल के अधिकारियों को उच्च न्यायालय के फैसले/आदेश की कॉपी नहीं मिली और उन्होंने प्रताप नायक को कैदी बनाकर ही रखा। संतोष पाढ़ी नामक एक स्थानीय वकील को जब ये पता चला कि उच्च न्यायालय द्वारा बरी कर जिए जाने के बावजूद प्रताप नायक जेल में बंद हैं तब उन्होंने स्वतः ही उनकी रिहाई की कोशिशें शुरू कीं । संतोष की पहल की वजह से 22 जनवरी, 2003 को प्रताप नायक जेल से रिहा हुआ। लेकिन, सच्चाई यही है कि बरी हो जाने के बाद भी वे 8 साल तक जेल में रहे और उनके करीब 14 साल जेल में ही बीते। उच्च न्यायालय के अधिकारियों की लापरवाही की वजह से प्रताप नायक को 8 साल तक बिना वजह जेल में रहना पड़ा था। प्रताप के माता-पिता को भी ये पता नहीं चल पाया था कि उनका बेटा बरी हो गया है। प्रबीर दास को प्रताप नायक के साथ हुई नाइंसाफी के बारे में पता चला तब उन्होंने इस मामले को अपने हाथों में लिया और इन्साफ की लड़ाई नए सिरे से शुरू की। प्रबीर को लगा कि उच्च न्यायालय के अधिकारियों की लापरवाही की वजह से प्रताप नायक को ८ साल तक जेल में रहना पड़ा था। अगर ये अधिकारी उच्च न्यायालय के फैसले की जानकारी जेल अधिकारियों को दे देते तो प्रताप नायक रिहा हो जाते, लेकिन इन अधिकारियों द्वारा अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन न किये जाने की वजह से एक बेक़सूर व्यक्ति को अपनी जवानी के ८ महत्वपूर्ण साल जेल में बिताने के लिए मजबूर होना पड़ा था। प्रबीर को चौकाने वाली सबसे बड़ी बात ये थे कि १४ साल तक जेल में रहने की वजह से प्रताप नायक की मानसिक स्थिति बिगड़ गयी थी और वे ‘नेगेटिव सीजोफ्रेनिया’ नामक बीमारी का शिकार हो गए थे, यानी प्रताप एक तरह के पागलपन के शिकार बन गए। पहले से ही गरीबी और पिछड़ेपन की मार झेल रहे माता-पिता के लिए प्रताप नायक की देख-रेख करना और भी दिक्कतों भरा काम हो गया। प्रबीर दास ने प्रताप नायक और उनके माता-पिता को इन्साफ दिलाने का संकल्प लिया। प्रबीर ने सबसे पहले सारे सबूत जुटाये और फिर प्रताप नायक को इन्साफ दिलाने की गुहार लगते हुए उड़ीसा उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया। उड़ीसा उच्च न्यायालय ने प्रबीर की जनहित याचिका को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि प्रताप नायक से प्रबीर का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है और वे उस व्यक्ति को लेकर कोई याचिका नहीं दायर कर सकते जिनसे उनका कोई ताल्लुक नहीं है। उच्च न्यायालय से मदद न मिलने पर प्रबीर ने हिम्मत नहीं हारी और हार भी नहीं मानी, वे सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे और न्याय की गुहार लगते हुए याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने उड़ीसा उच्च न्यायालय को प्रबीर की याचिका पर सुनवाई करने और न्योचित फैसला देने का निर्देश दिया। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उच्च न्यायालय ने प्रबीर की याचिका पर सुनवाई की और अपने फैसले में प्रताप नायक को ८ लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया। उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, सारी रकम १० साल की मियादी जमा के लिए एक बैंक में रखी जाएगी और इस रकम पर बैंक से मिलने वाले मासिक ब्याज का ७५% हिस्सा प्रताप के माता-पिता को देने का प्रबंध किया गया, ताकि वे प्रताप के इलाज और दूसरी ज़रूरतों पर होने वाले खर्च का वहन कर सकें।

प्रताप नायक मामले की वजह से प्रबीर दास की ख्याति दुनिया-भर में फ़ैल गयी। इस मामले में पीड़ित को इन्साफ दिलाने के बाद प्रबीर पर काम का बोझ काफी बढ़ गया। उड़ीसा राज्य के अलग-अलग हिस्सों से लोग उनके पास मदद की गुहार लेकर आने लगे। बड़ी महत्वपूर्ण बात ये है कि जो लोग प्रबीर के पास आते वे उनकी मदद तो करते ही, वे उन लोगों की मदद भी करते जो उनके पास नहीं आते थे लेकिन प्रबीर को इन लोगों के साथ हुई नाइंसाफी का पता चल जाता था। जैसे ही प्रबीर को पता चलता कि किसी के साथ नाइंसाफी हुई है या फिर मानव अधिकार का उल्लंघन हुआ तब प्रबीर मामले को अपने हाथों में लेते और पीड़ितों को इन्साफ दिलाने के लिए कानूनी जंग लड़ते।

एक और मामले जिसने प्रबीर की लोकप्रियता और ख्याति को चार चाँद लगाये थे वो था कालाहांडी जिले में डाक्टरों की लापरवाही का एक मामला। हुआ यूँ था कि जनवरी, २००७ में कालाहांडी जिले के धरमगढ़ इलाके में एक गैर-सरकारी संस्था ने प्रशासन की देख-रेख में एक नेत्र-चिकित्सा शिविर का आयोजन किया था। नेत्र-चिकित्सा शिविर गरीबों के लिए था और लोगों से बिना फीस लिए ही डॉक्टर उनके आँखों की जांच कर रहे थे। आँखों की जांच के अलावा मोतियाबिंद के ऑपरेशन का भी प्रबंध था। कई मरीजों की आँखों को ऑपरेशन भी किया गया। लेकिन, डॉक्टरों की लापरवाही की वजह से कुछ मरीजों की आँखों की रोशनी चली गयी। जिन लोगों की आँखों की रोशनी चली गयी वे सभी उमरदराज थे और गरीब भी। जैसे ही इस घटना की जानकारी प्रबीर को मिली उन्होंने पीड़ितों को इन्साफ और मुआवजा दिलाने के लिए उड़ीसा उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर दी। याचिका दायर करने का मकसद न सिर्फ पीड़ितों को इन्साफ और मुआवजा दिलवाना था बल्कि ये भी सुनिश्चित करवाना था कि इस तरह की घटनाएं दुबारा न हों। प्रबीर की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने पीड़ितों को मुआवजा देने का निर्देश दिया और साथ ही इस तरह की घटनाएं दुबारा न हों इसके लिए सरकार को सख्त दिशा-निर्देश दिए। स्वास्थ-चिकित्सा शिविरों के आयोजन के लिए कड़े नियम-कायदे तय करने का भी आदेश दिया गया। प्रबीर ने बताया कि नेत्र-चिकित्सा शिविर में आँखों की रोशनी गवाने वाले लोगों को ये नहीं मालूम था कि अदालत में किसने उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ी है। लेकिन, जैसे ही लोगों को मालूम हुआ कि प्रबीर ने उन्हें इन्साफ दिलाया है तब सभी ने प्रबीर को आशीर्वाद दिया, दुआएं दीं। प्रबीर कहते हैं, “उन गरीब लोगों के आशीर्वाद से मुझे बहुत खुशी हुई और मेरी ताकत बढ़ी।“ प्रबीर के अनुसार, एक स्थानीय पत्रकार ने पीड़ितों को बताया था कि प्रबीर दास ने ही उन्हें मुआवजा दिलवाया है। इसके बाद पीड़ितों ने कैमरे के सामने प्रबीर को दुआएं दीं। तब एक खबरिया चैनल पर प्रबीर को पीड़ितों के दुआ देने की खबर दिखाई गयी तभी वे लोगों के आशीर्वचन सुन पाए। प्रबीर ने कहा, “तगड़ी रकम वाला मेहनताना भी उन आशीर्वचनों के सामने बेकार है।“


इसी तरह के कई मामले प्रबीर ने अपने हाथों में लिये हैं और पीड़ितों को इन्साफ दिलाया है। इन्हीं मामलों में से एक मामला है – नयागढ़ जिले में एक आंगनवाड़ी केंद्र में हुए एक हादसे का। एक भवन, जहाँ एकआंगनवाड़ी केंद्र चल रहा था, उसकी एक दीवार अचानक ढह गयी। दीवार के अचानक गिर जाने से कई बच्चे उसकी चपेट में आ गए। इस हादसे में कई बच्चे ज़ख़्मी हो गए। सात बच्चों की मौत भी हो गयी। इस हादसे की जानकारी मिलते हुई प्रबीर ने उच्च न्यायालय में एक और जनहित याचिका दायर की। इस याचिका की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने हादसे में मारे गए बच्चों के परिजनों को मुआवजा देने का आदेश दिया। इतना ही नहीं उच्च न्यायालय ने सरकार को आंगनवाड़ी केन्द्रों में बच्चों की सुरक्षा के लिए सख्त दिशा-निर्देश जारी किये और वे सारे कदम उठाने को कहा जिससे इस तरह की घटना कहीं पर भी दुबारा न हो।

और एक घटना में प्रबीर ने बलात्कार का शिकार हुई एक दलित युवती की जान बचाई थी। पीपली में कुछ बदमाशों ने एक दलित युवती का बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या करने की कोशिश की थी। किसी तरह से उस युवती की जान बच गयी थी, लेकिन उसकी हालत काफी नाजुक थी। जैसे ही प्रबीर को युवती की हालत के बारे में पता चला उन्होंने एक बार फिर से उच्च न्यायालय की चौखट पर दस्तक दी। प्रबीर की गुहार पर उच्च न्यायालय ने बलात्कार के मामले के जांच करने और दोषियों को पकड़ कर उनके खिलाफ कार्यवाही करने का आदेश दिया। इतना ही नहीं न्यायालय ने पीड़ित युवती का इलाज करवाने के भी आदेश दिए। न्यायालय के पर्यावेक्षण में डॉक्टरों की एक टीम ने उस युवती का इलाज किया था। इस इलाज की वजह से उस युवती की जान बच पायी थी। प्रबीर कहते हैं, एक बहुत ही गरीब लड़की का इलाज न्यायालय की देख-रेख में करवाया जाना राज्य के इतिहास में अपने किस्म की पहली और बहुत बड़ी घटना थी।

भारत में मानवरहित रेलवे क्रासिंग पर भी सुरक्षा के इंतज़ाम करवाने में प्रबीर दास की काफी महत्वपूर्ण भूमिका है। उड़ीसा में मानवरहित एक रेलवे क्रासिंग पर एक बार एक बहुत बड़ा हादसा हो गया। 19 महिला कृषि मजदूरों को ले जा रहा एक ऑटो रेलवे क्रासिंग पर इंटरसिटी एक्सप्रेस की चपेट में आ गया। इस हादसे में 13 महिलाओं की मौत हो गयी। प्रबीर ने एक बार फिर से जनहित याचिका का सहारा लिया और पीड़ितों के परिजनों को मुआवजा दिलवाया। इतना ही नहीं प्रबीर ने न्यायालय से मानव रहित रेलवे क्रासिंग पर लोगों की सुरक्षा के लिए फौरी तौर पर कदम उठाने के लिए रेल मंत्रालय को आदेश देने का भी आग्रह किया। प्रबीर की गुहार पर न्यायालय ने रेल मंत्रालय से सारे रेलवे क्रासिंग पर लोगों की सुरक्षा के लिए तगड़े इंतज़ाम करने और हादसों की आशंकाओं को पूरी तरह से मिटाने का काम करने का निर्देश दिया । न्यायालय के आदेश पर रेल मंत्रालय ने मानवरहित रेलवे क्रासिंग लोगों की सुरक्षा के लिए इंतज़ाम करने शुरू किये।

प्रबीर दास इस बात के लिए भी मशहूर हो चुके हैं कि वे ऐसे मामले अपने हाथों में लेते हैं जिनसे किसी भी वकील को कोई फायदा नहीं होता। प्रबीर ये नहीं देखते कि मामले को अपने हाथ में लेने से उन्हें कुछ मिलेगा या नहीं, उनका मकसद सिर्फ इतना होता है कि पीड़ित को इन्साफ मिलना चाहिए। एक बार प्रबीर ने एक ऐसा मामला अपने हाथ में लिया जहाँ सामूहिक बलात्कार का शिकार एक महिला इन्साफ के लिए सालों से तड़प रही थी। बलात्कार के इस मामले पर निचली अदालत में सुनवाई ही नहीं हो रही थी। मामला १६ सालों से खुर्दा जिले की एक अदालत में ही लंबित पड़ा हुआ था। प्रबीर ने उच्च न्यायालय से हस्तक्षेप करने और पीड़ित महिला को इन्साफ दिलाने की अर्जी दी। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत को बलात्कार के इस मामले में सुनवाई शुरू करने और न्योचित आदेश देने का निर्देश दिया। सुनवाई के बाद निचली अदालत ने आरोपियों को बलात्कार का दोषी पाया और उन्हें सज़ा सुनाई।

अति महत्वपूर्ण बात ये है कि गरीब और अशिक्षित लोगों को इन्साफ दिलवाने के लिए प्रबीर ने अपनी ज़िंदगी में कई सारे त्याग किये हैं। अदालतों में गरीबों के हक़ की लड़ाई लड़ते-लड़ते उन्हें शादी करने का समय ही नहीं मिला। न ही वे अपने लिए कोई मकान या गाड़ी खरीद पाए हैं। न उनके नाम कोई ज़मीन है ना जायजाद। उनके साथी और मित्र कहते हैं कि अगर प्रबीर कॉर्पोरेट या क्रिमिनल एडवोकेट बनते तो आज वे करोड़पति होते, लेकिन उन्होंने समाज-सेवा का रास्ता चुना। और, हकीकत भी यही है, प्रबीर के लिए धन-दौलत कोई मायने नहीं रखती। वे गरीबों, निर्धनों, अशिक्षित लोगों को इन्साफ दिलाने में ही अपनी खुशी देखते हैं।

एक सवाल के जवाब में प्रबीर ने कहा, “बहुत ही कम लोगों को मौका मिलता है लोगों की सेवा करने का, बहुत ही कम लोगों को मौका मिलता है अपनी ज़िंदगी अपने चुने सिद्धांतों और अपनी तय की हुई विचारधारा के मुताबिक जीने का। बहुत ही कम लोग ऐसे होते हैं जोकि अपनी मनमर्जी के मुताबिक जी पाते हैं। मैं खुश हूँ कि मैं वो कर रहा हूँ जो मुझे अच्छा लगता है।“ प्रबीर दास ने ये भी कहा, “मेरी ज़िंदगी कैसी होगी इसका फैसला मैंने खुद किया है। और, मुझे इस तरह की ज़िंदगी जीने में बहुत कष्ट भी हो रहा है। कई सारी तकलीफें भी हैं, लेकिन अपने सिद्धांतों के लिए तकलीफें उठाने में भी आनंद मिलता है।“ गरीबों और अशिक्षित लोगों की नज़र में ‘इन्साफ दिलाने वाला मसीहा’ बन चुके प्रबीर दास कहते हैं, “मैं अविवाहित हूँ। मेरे खर्चे भी बहुत ही कम हैं। मेरी कोशिश रहती है कि मैं कम से कम खर्चा करूं। मेरा ज्यादा खर्च किताबें खरीदने में ही होता है। मेरी माँ को पेशन मिलती है, वो भी मेरी मदद कर देती हैं। मेरा भाई भी मदद कर देता है। मैं मानव अधिकार के संरक्षण के लिए काम कर रहे कुछ गैर सरकारी संगठनों को कानूनी सलाह देता हूँ और इसे लिए मुझे फीस मिलती है। इन सब से मेरा काम चल जाता है।“ प्रबीर दास अपने आगे की ज़िंदगी भी वैसे ही जीना चाहते है जैसे कि वे अब जी रहे हैं । वे जोर देकर ये कहते हैं कि “I want to work without any ambition, without any expectation and without any designation.”

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