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Monday 27 March 2017

दुनिया कि भेडचाल से परे

हमारी अगली कहानी एक ऐसे परिवार की कहानी है जिन्होंने आपस मे मिलकर यह तय किया है की वे शहर की तेज़ भागती-दौड़ती जिंदगी से दूर किसी गाँव मे अपनी जिंदगी बसर करेंगे। वहाँ रहकर एक तरफ जहाँ वे अपनी जड़ों को तलाशेंगे वहीं दूसरी तरफ गाँव के लोगों के साथ मिलकर उनके हुनर को एक पहचान देने की कोशिश करेंगे। इसी के साथ वे उनके लिए आय के नए स्त्रौत व विकल्प खोजेंगे।


नवीन पांगति उतराखंड राज्य के मुनसियारी क्षेत्र के मूलनिवासी है। जब उन्होने इंजीनियरिंग मे दाखिला लिया था तभी उन्हे एहसास हो गया था की कुछ गड़बड़ हो गयी है। पर उन्हे उस वक़्त कोई रास्ता दिखने वाला नहीं था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद उन्होने सोश्ल कोम्म्यूनिकेशंस की पढ़ाई की फिर,ग्राफिक डिज़ाइनिंग एवं विडियो इंडस्ट्री मे कई तरह के काम करते हुए अपने करियर को दिशा देने की कोशिश करते रहे। इसी बीच उन्होने अपनी एक कंपनी भी शुरू की। अच्छी आय होने के बावजूद उनका मन उसमे नहीं लग रहा था। कुछ समय बाद उन्होने अपनी कंपनी बंद करके फ्रीलांसिंग करने का फैसला लिया। इसी बीच उनकी पत्नी दीप्ति जी ने भी अपनी फौज की नौकरी छोड़कर अपना समय बच्चों की परवरिश मे देने का मन बना लिया था। दोनों ने मिलकर यह पहले से ही तय कर लिया था की वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजेंगे।


वे उनकी शिक्षा घर पर ही करेंगे और उन्हे शिक्षण व्यवस्था द्वारा पैदा की जा रही मानसिक गुलामी से आज़ाद रखेंगे। वे चाहते थे की उनके बच्चों को अपनेआप को खोजने की पूरी आज़ादी मिले। वे उन्हे शिक्षा व्यवस्था के दबाव और भेड़चाल से मुक्त रखना चाहते थे। जब नवीन जी फ्रीलांसिंग करने लगे थे तब उन्हे भी वही आज़ादी और वक़्त मिला जो वे अपने बच्चों को देना चाहते थे। इस वक़्त का फायदा उठाकर उन्होने जीवन को समझाने की कोशिश की और स्वयं को खोजने की यात्रा पर निकल पड़े। इसी सफर पर यात्रा करते हुए उन्हे एहसास हो गया था की उन्हे जाना तो गाँव की और ही है। वही रहकर खेती करनी है और अपनी जड़ों को भी तलाशना है। दीप्ति जी की भी यही सोच थी। पर उनके लिए सबसे बड़ी समस्या यह थी की वे अपने बच्चों पर इस निर्णय को लादना नहीं चाहते थे। इसके लिए उन्होने अपने बच्चों से चर्चा की और उसके बाद पहले वे गुड़गांव से हल्द्वानी आकर रहने लगे और कुछ समय बाद वे हल्द्वानी से अलमोरा आ गए। इससे यह हुआ की उनके बच्चे धीरे-धीरे बड़े शहर की भागती हुई जिंदगी से छोटे शहर की धीमी और सरल जिंदगी मे ढल गए। जब उनके बच्चों ने इस जीवन को पूरी तरह अपना लिया तब उन्होने गुड़गांव मे अपना घर बेचकर अलमोरा की पहाड़ियों मे बसे एक छोटे से गाँव एक जमीन खरीद ली। अब उन्होने यही पर अपना घर बना लिया है और वही पर खेती भी शुरू कर दी है। वो चाहते है वो यहाँ पर एक फार्मस्टे बनाए जहाँ लोग जमीन से जुड़कर जीवन के महत्व को समझे और अपनी जड़ों की और लौट सकें। वही दूसरी तरफ उनकी कोशिश है की वे गाँव वालों से जुड़कर सहकारी स्तर पर कुछ छोटे-छोटे उद्योग शुरू करे। जिससे गाँव के लोगों को गाँव मे ही आय के नए साधन उपलब्ध हो सकें और उनका शहरों की और पलायन रुक सकें।


वो कहते है कि “हमारी कोशिश है कि पहले हम गाँव के लोगों के साथ एक रिश्ता बना सकें। हम नहीं चाहते कि गाँव वाले हमे बाहर वाला समझे। जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे तब तक वे हमारा विश्वास नहीं कर पाएंगे। उन्हे यही लगता रहेगा कि हमारे पास तो पैसा है, हम कुछ भी कर सकते है। यह एक हद तक सही भी है इसीलिए जब आप शहर से लौटकर गाँव जाते हो तो सबसे पहले उनसे बड़ी-बड़ी बाते करना, अपना किताबी ज्ञान उन पर थोपना, आपकों उनसे और ज्यादा दूर कर देता है। सबसे पहले यह जरूरी है कि आप खुद उनके जैसे हो जाए, उनके सुख-दुख मे शामिल हो। तभी जाकर के आप वो रिश्ता बना पाएंगे, जिसका आधार विश्वास होगा। अगर हम ऐसा नहीं करते है तो एक उंच-नीच का भाव हमेशा आपके दरमियान बना रहता है और फिर आप जितना चाहे कोशिश कर ले वो आपकी बातों का भरोसा नहीं करेंगे। आज से कुछ समय बाद जब हम उनका विश्वास पाने मे सफल हो जाएगे तब हम उनसे गाँव के महत्व, पर्यावरण के संरक्षण, उनके ज्ञान को एक पहचान देने कि बात करेंगे। तब तक हमारी कोशिश यही है कि हम उनकी प्राथमिक समस्या, जैसे आय, रोजगार, स्वास्थ्य आदि पर ही काम करें।”

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