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Thursday 23 March 2017

नई पहल: अपने इलाके को रखिए साफ और पाइये मुफ्त इलाज


भला आज के जमाने में ऐसा हो सकता है कि आप किसी डॉक्टर के पास इलाज कराने जाएं और वो फीस के बदले पैसे नहीं बल्कि कचरा ले। जी हां, इस दुनिया में एक डॉक्टर ऐसा भी है जो इलाज के बदले पैसे नहीं बल्कि कचरा लेता है। इंडोनेशिया के 26 वर्षीय गमाल अलबिनसईद ऐसे ही डॉक्टर है जिनके इस सोच ने पर्यावरण और स्वास्थ्य के क्षेत्र में नई क्रांति ला दी है। जरा सोचिए अपने इलाके की सफाई के बदले अगर आपको मुफ्त में इलाज मिले तो आप क्या करेंगे। आप क्या कोई भी होगा अगर उसे ये सुविधा मिलेगी तो वह अपने इलाके को
साफ रखेगा। इंडोनेशिया के डॉक्टर गमाल अलबिनसईद ने इसकी पहल की है। उनकी इस सोच से दो बड़ी समस्याओं का समाधान हो रहा है। इंडोनेशिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो गरीबी के कारण अपना सही इलाज नहीं करवा सकते। वहीं दूसरी ओर अलबिनसईद की योजना साफ-सफाई भी करने में मदद करेगी।



दो किलो कचरा लाएं और 10 हजार का इंश्योरेंस पाएं:

इस सुविधा को पाने के लिए लोगों को रिसाइकिल करने योग्य कचरा क्लीनिक में जमा करवाना होता है। कचरे में आने वाली प्लास्टिक की बोतलों और कार्डबोर्ड को उन कंपनियों को बेच दिया जाता है जो इन्हें रिसाइकिल
करके उत्पाद बनाती हैं। साथ ही अन्य उपयुक्त कचरे को उर्वरक और खाद बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। जैसे करीब 2 किलो प्लास्टिक के बदले 10,000 इंडोनेशियाई रुपया जितना इंश्योरेंस मिलता है। जीसीआई की
सदस्य बनीं एक घरेलू महिला एनी पुरवंती के मुताबिक, ‘‘कचरे और स्वास्थ्य का यह कार्यक्रम बेहद मददगार है। मुझे ब्लडप्रेशर की समस्या है। मैं कचरा इकट्ठा करके इलाज की रकम चुकाती हूं. इस कार्यक्रम से मेरे स्वास्थ्य बजट पर फर्क पड़ा है.ष्अलबिनसईद का माइक्रो हेल्थ इंश्योरेंस कार्यक्रम तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। छोटे से कैंपस से लेकर पूरे देश तक इसकी चर्चा है। जीसीआई के अब तक पांच क्लीनिक हैं और यहां 3500 से ज्यादा मरीजों का इलाज हो रहा है।



ये कहना है डॉ. अलबिनसईद का:

अलबिनसईद ने का कहना है कि “हमने लोगों की कचरे क लेकर आदतों के बारे में सोच को बदला है”। लोग इन्श्योरेंस वाले इन कचरे के डिब्बों को अहमियत दे रहे हैं। अब लोग अपने कूड़े
करकट के  साथ ज्यादा जिम्मेदारी दिखा रहे हैं। इससे ना सिर्फ गरीबों तक इलाज की सुविधा पहुंच रही है बल्कि यह कचरे की समस्या से निपटने का भी अच्छा उपाय साबित हो रहा है। अलबिनसईद ने बताया कि उनका मकसद बेहद सरल है। घर में पैदा होने वाले कचरे से लोग इलाज के लिए पैसे जुटा सकते हैं। अलबिनसईद कहते हैं कि उनका मकसद बेहद सरल है। घर में पैदा होने वाले कचरे से लोग इलाज के लिए पैसे जुटा सकते हैं।

कई बार हो चुके हैं सम्मानित

भारत की ही तरह इंडोनेशिया में भी कचरे से निपटने की समस्या है। वहां हर साल समुद्र के आसपास के इलाकों में पैदा होने वाला करीब 32 लाख टन कचरा समुद्र में पहुंचता है। वॉल स्ट्रीट जर्नल अखबार के मुताबिक यह दुनियाभर के महासागरों में जाने वाले कचरे का 10 फीसदी हिस्सा है। ऐसे में इस डॉक्टर का माइक्रो हेल्थ इंश्योरेंस कार्यक्रम तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। इनके बारे में छोटे से कैंपस से लेकर पूरे देश तक में चर्चा है।अलबिनसईद का मकसद इ कार्यक्रम को दुनिया भर में पहुंचाना है। उनके पास अब तक
पांच क्लीनिक हैं और जहां 3500 से ज्यादा मरीजों का इलाज हो रहा है। डाॅ. गमाल जी की इस सोच के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई बार सम्मानित किया जा चुका है। इतना ही नहीं बल्कि उनके इस काम के लिए उन्हे 2014 में ब्रिटेन के प्रिंस चार्लस भी सम्मानित कर चुके हैं।

भविष्य की योजना:

वर्ल्ड बैंक के मुताबिक इंडोनेशिया में 63 लाख लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा की सुविधा नहीं है. जीसीआई के पास उपलब्ध डाटा के मुताबिक कुल आबादी के 60 फीसदी लोगों के पास हेल्थ इंश्योरेंस नहीं है। सरकारी स्वास्थ्य
केंद्रों में चिकित्सा कर्मचारियों की कमी बड़ी समस्या है। वह इस कार्यक्रम को दुनिया भर में पहुंचान चाहते हैं। वह कहते हैं, ‘‘हमारा मकसद है अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी संसाधनों का उचित इस्तेमाल करना।’’ अलबिनसईद कहते हैं कि उनका मकसद बेहद सरल हैं।  घर  में पैदा होने वाले कचरे से लोग इलाज के लिए पैसे जुटा सकते हैं।

सरकारी नौकरी से इस्तिफा देकर एलोवेरा की खेती से करोड़पति बने हरीश धनदेव की प्रेरक कहानी

हरीश धनदेव के लिए नगरपालिका में जुनियर इंजीनियर की नौकरी छोड़ना मुश्किल काम नहीं था, लेकिन नौकरी छोड़कर किसान बनना और अपने आपको साबित करना सबसे बड़ी चुनौती थी और इस चुनौती में वे खरे उतरे। कभी जो किसान उन्हें ऐसा न करने के लिए सचेत करते थे, आज वही किसान शून्य से करोड़पति बने इस इंजीनियर किसान से प्रेरणा लेकर खुद भी एलोवेरा की खेती कर रहे हैं।

भारत का एक ऐसा किसान जो पढ़ा-लिखा है,इंजीनियर है और फर्राटेदार अंग्रेजी भी बोलता है। इतना ही नहीं उन्होंने तो एमबीए की पढ़ाई के लिए दिल्ली के एक कॉलेज में दाखिला भी लिया था, लेकिन शायद उनकी मंजिल कहीं औरही थी। यह जैसलमेर के हरीश धनदेव है जिन्होंने 2012 में जयपुर से बीटेक करने के बाद दिल्ली से एमबीए करने के लिए एक कॉलेज में दाखिला लिया,लेकिन पढ़ाई के बीच में ही उन्हें 2013 में सरकारी नौकरी मिलगई सो वो दो साल की एमबीए की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए। तब हरीश जी जैसलमेर की नगर पालिका में जूनियर इंजीनियर के पद पर तैनात हुए।यहां महज दो महीने की नौकरी करने के बाद उनका मन नौकरी से हट गया। हरीश दिन-रातइस नौकरी से अलग कुछ करने की सोचने लगे। कुछ अलग करने की चाहत इतनी बढ़ गई थी कि वो नौकरी छोड़कर अपने लिए क्या कर सकते हैं इस पर उन्होंने रिसर्च करना शुरु कर दिया।एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी ने दी दिशा अपने लिए कुछ करने की तलाश में हरीश की मुलाकात बीकानेर एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में एक व्यक्ति से हुई। हरीश राजस्थान की पारंपरिक खेती ज्वार याबाजरा से अलग कुछ करना चाह रहे थे। इसलिए जब उनकी मुलाकात बीकानेर एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में एक व्यक्ति से हुई तो चर्चा के दौरान हरीश को उन्होंने एलोवेरा की खेती के बारे में सलाह दी। अपने लिए कुछ करने की तलाश में हरीश आगे बढ़े और एक बार फिर दिल्ली पहुंचे जहां उन्होंने खेती-किसानी पर आयोजित एक एक्सपो में नई तकनीक और नए जमाने की खेती के बारे में जानकारी हासिल की। 

एक्सपो में एलोवेरा की खेती की जानकारी हासिल करने के बाद हरीश ने तयकि याकि वो एलोवेरा उगाएंगे। यहीं से उनके जीवन में हुई नई शुरुआत को एक दिशा मिल गई। दिल्ली से लौटकर हरीश बीकानेर गए और एलोवेरा के 25 हजार प्लांटलेकर जैसलमेर लौटे।जब बीकानेर से एलोवेराका प्लांट आ गया, तब इनप्लांटों को खेत में लगाया जाने लगा तो कुछ लोगों ने कहा कि जैसलमेर में कुछ लोग इससे पहले भी एलोवेरा की खेती कर चुके हैं, लेकिन उन सभी को सफलता नहीं मिली। लोगों ने कहा कि उनकी फसल को खरीदने कोई नहीं आया इसलिए उन किसानों ने अपने एलोवेरा के पौधों को खेत से निकाल दूसरी फसलें लगा दी। हरिश को इस बात से थोड़ी आशंका तो हुई लेकिन जब उन्होंने पता लगाया तो पता करने पर जानकारी मिली कि खेती तो लगाई गई थी, लेकिन किसान खरीददार से सम्पर्क नहीं कर पाए इसलिए कोई खरीददार नहीं आया।इसके बाद हरीश को ये समझते देर नहीं लगी कि यहां उनकी मार्केटिंग स्किल से काम बन सकता है।कैसे हुई एलोवेरा की खेती की शुरुआत हरीश ने बताया कि घर मेंइस बात को लेकर कोई दिक्कत नहीं थी कि उन्होंने ने नौकरी छोड़ दी, लेकिन उनके सामने खुद को साबित करने की चुनौती जरूर थी। काफी खोज-बीन केबाद 2013 के आखिर में एलोवेरा की खेती की शुरुआत की।बीकानेर कृषि विश्वविद्यालय से 25 हजार प्लांट लाए गए और करीब 10 बीघे में उसे लगाया गया। 

आज की तारीख में हरीश 700 सौ बीघे में एलोवेरा उगाते हैं, जिसमें कुछ उनकी अपनी जमीन है और बाकी ठेके पर ली गई है। मार्केटिंग स्किल काम आया हरीश ने बताया कि उम्रकम होने की वजह से उनमें अनुभव की कमी थी, लेकिन कुछ अलग करने का जुनून था और उसी जुनून ने उन्हें यहां पहुंचा दिया। खेती की शुरुआत होते ही जयपुर से कुछ एजेंसियों से बातचीत हुई और अप्रोच करने के बाद हमारे उनके एलोवेरा के पत्तों की बिक्री का एग्रीमेंट इनकंपनियों से हो गया। इसके कुछ दिनों बाद कुछ दोस्तों से इस काम को और आगे बढ़ाने के बार में उन्होंने बात की। हरीश ने बताया कि इसके बाद उन्होंने अपने सेंटर पर ही एलोवेरा लीव्ससे निकलने वाला पहला प्रोडक्टजो कि पल्प होता है निकालना शुरु कर दिया। शुरुआत के कुछ दिनों बाद राजस्थान के ही कुछ खरीददारों को उन्होंने ये पल्प बेचना शुरु कर दिया। हरीश ने बताया कि घर में इस बात को लेकर कोई दिक्कत नहीं थी कि उन्होंने ने नौकरी छोड़ दी, लेकिन उनके सामने खुद को साबित करने की चुनौती जरूर थी। काफी खोज-बीन के बाद 2013 के आखिर में एलोवेराकी खेती की शुरुआत की।बीकानेर कृषि विश्वविद्यालय से 25 हजार प्लांट लाए गए और करीब 10 बीघे में उसे लगाया गया। आज की तारीख में हरीश 700 सौ बीघे में एलोवेरा उगातेहैं, जिसमें कुछ उनकी अपनी जमीन है और बाकी ठेके पर लीगई है। मार्केटिंग स्किल काम आया हरीश ने बताया कि उम्रकम होने की वजह से उनमें अनुभव की कमी थी, लेकिन कुछ अलग करने का जुनून था और उसी जुनून ने उन्हें यहां पहुंचा दिया। खेती की शुरुआत होते ही जयपुर से कुछ एजेंसियों से बातचीत हुई और अप्रोच करने के बाद हमारे उनके एलोवेरा के पत्तों की बिक्री का एग्रीमेंट इनकंपनियों से हो गया। इसके कुछ दिनों बाद कुछ दोस्तों से इस काम को और आगे बढ़ाने के बार में उन्होंने बात की। हरीश ने बताया कि इसके बाद उन्होंने अपने सेंटर पर ही एलोवेरा लीव्ससे निकलने वाला पहला प्रोडक्टजो कि पल्प होता है निकालना शुरु कर दिया। शुरुआत के कुछ दिनों बाद राजस्थान के ही कुछ खरीददारों को उन्होंने ये पल्प बेचना शुरु कर दिया।टर्निंग प्वाइंटये सब चल ही रहा था कि एक दिन वह ऑनलाइन सर्च सेये देखने की कोशिश कर रहे थे कि कौन-कौन बड़े प्लेयर हैं जो एलोवेरा का पल्प बड़े पैमाने पर खपाते हैं। उन्हें बड़े खरीददारों की तलाश थी क्यों कि खेती कादायरा बढ़ चुका था और उत्पाद भी अधिक मात्रा में आने लगा था। इसी दौरान उन्हें पतंजलिके बारे में पता चला, भारत में पतंजलि एलोवेरा का एक बड़ा खरीददार है। बस फिर क्या था उन्होंने पतंजलि को मेल भेज कर अपने बारे में बताया। पतंजलि का जवाब आया और फिर उनसे मिलने उनके प्रतिनिधी भी आए। हरीश ने बताया कि यहीं से इस सफर का टर्निंग प्वाइंट शुरु  हुआ।पतंचलि के आने से चीजें बदली और उनकी आमदनी भी। करीब डेढ़ साल से हरीश एलोवेरा पल्प की सप्लाई बाबा रामदेव द्वारा संचालित पतंजलीआयुर्वेद को करते हैं। हरीश ने बताया कि शुरु में कई बार  उन्होंने ये आशंका घेर लेती थी कि इसे आगे कैसे ले जाउंगा...कैसे इसे और बड़ा करुंगा?
 
लेकिन उन्होंने कहा कि धीरे-धीरे समय के साथ काम की समझ बढ़ने लगी। आज ना सिर्फ हरीश की कंपनी ‘नेचरे लो एग्रो’ की आमदनी बढ़ी है बल्कि उनके साथकाम करने वालों की आमदनी भी बढ़ी है। हरीश ने बताया कि पतंजलिके आने से काम करने के तौर-तरीके में भी बदलाव आया और वह अब पहले से ज्यादा प्रोफेशनल तरीके से काम करने लगे हैं।क्वालिटी पर रहता है खास जोर हरीश ने कहा कि उनके यहां उत्पाद में क्वालिटी कंट्रोल का खास ध्यान रखा जाता है। वे अपने उत्पादको लेकर कोई शिकायत नहीं चाहते सरकारी नौकरी से इस्तिफा देकर एलोवेरा की खेती से करोड़पति बनेहरीश धनदेव की प्रेरक कहानी इसलिए प्रत्येक स्तर में उन्हें इसकाखास ध्यान रखना होता है कि वे जो पल्प बना रहे हैं उसमें किसी प्रकार की कोई मिलावट या गड़बड़ी ना हो।

 एलोवेरा की खेती से करोड़पति बनने वाले हरीश आज लाखों लोगों की प्रेरणा बन चुके हैं। हरीश धन देवमूल रुप से जैसलमेर के रहने वाले हैं। यहीं से उनकी आरंभिक शिक्षा हुई, इसके बाद वो उच्च शिक्षा के लिए जयपुर गए और फिर दिल्ली पहुंचे। दिल्ली से एमबीए की पढ़ाई के बीच सरकारी नौकरी मिली और जैसलमेर नगर पालिका में जूनियर इंजिनीयर बने। जैसलमेर नगर पालिका से इस्तिफे के बाद एलोवेरा की खेती ने हरीश को करोड़पति किसान बना दिया।

मशरूम की खेती के लिये नया अविष्कार कम्पोस्ट तैयार करने वाली मशीन |

हरियाणा के पानीपत जिले का सींख गांव | इसके बारे में सोचने से पहले आपके मस्तिष्क में कोई और चित्र भले ही हो , परन्तु यहाँ के खेत , खेती और यहाँ के किसान के बारे में जान कर आपकी धारणा पूरे तरीके से बदल सकती है | इस गांव में स्थित है जितेंदर मलिक का माडल कृषि फार्म जो उनके अथक प्रयासों एवं प्रयोगधर्मिता की कहानी खुद सुनाता है | उनकी किसानी के कई ऐसे पहलू हैं , जिनके बारे में आम किसान सोचता भी नहीं |


37 वर्षीय यह किसान एक संयुक्त परिवार में रहता है | इनके पिता का नाम श्री शीशराम और माता का नाम प्रेम कौर है | इनके तीन भाई है , जिनका नाम– जसवंत सिंह , नरेश सिंह और रमेश सिंह है | भाइयों में ये सबसे छोटे हैं | इनकी पत्नी तुनकी देवी है, इनके दो बच्चे है – बेटी का नाम – हिमांशी व बेटे का नाम अभिषेक है | इनकी माता जी का कहना है कि बचपन से ही जीतेन्दर को पढाई में रुचि नहीं थी , उनका ज्यादा ध्यान खेल – कूद में ही रहता था | बचपन में उन्हें जो भी खिलौने दिये जाते थे वे तोड़ दिया करते थे क्योंकि इन्हें यह जानने की इच्छा रहती थी कि यह चीज़े कैसे काम करती है | पढाई में रुचि न होने के कारण इन्होने मैट्रिक स्तर पर ही पढाई छोड़ दी और खेती में लग गए | 

इस साधारण से दिखने वाले किसान ने अच्छी खेती करने के लिए बहुत से प्रयास किये हैं | बात सन् 1996 की है जब जीतेन्दर ने अपने मामा के घर हिमाचल प्रदेश में मशरूम की खेती को देखा | वहां से लौटकर उन्होंने अपने खेतों में मशरूम की खेती करने की सोची | उन्होंने 100 क्विंटल खाद की क्षमता वाला एक मशरूम शेड तैयार किया | इस मशरूम शेड को तैयार करने के लिए 80 छेद करके उनमें बांस के पिलर लगाये गए जिसे बनाने में दो मजदूरों का पूरा दिन लग गया और फिर भी मजदूरों द्वारा बनाये गए उन शेड व छप्पर की गुणवत्ता स्थिर नहीं थी | यही कारण था की सन् 2002 में उन्हें मशरूम की खेती के अच्छे परिणाम नहीं मिले क्योंकि बांस के छप्पर की लाठियां ठीक ढंग से नहीं लगायी गयी थी | 

जीतेन्दर जी के समक्ष एक समस्या यह थी की उन्हें मशरूम शेड तैयार करने और कम्पोस्ट तैयार करने में अधिक मजदूरों की जरूरत पड़ती जिससे लागत अधिक लगती थी | दूसरी समस्या यह थी कि मशरूम की खेती के लिए जब कम्पोस्ट तैयार किया जाता था तब कई बार मजदूर नहीं मिल पाते थे जिससे कम्पोस्ट के खराब होने का डर रहता था और उसमें गांठें बनने से मशरूम में रोग लगने का डर भी अधिक रहता था | 

इन सभी समस्याओं से जूझने पर उन्होंने सन् 2008 में सोचा कि उसे कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे स्वस्थ कम्पोस्ट तैयार हो जाये और उसे किसी पर आश्रित भी न होना पड़े | फिर उन्होंने अपने भाई से कुछ रुपये उधार लिए और दो सप्ताह के अंदर एक ऐसी मशीन तैयार की जो मशरूम की खेती के लिए कम्पोस्ट तैयार करने में सहायक है जिससे उन्हें मजदूरों पर आश्रित होने की जरूरत नहीं है और वह स्वयं उसे संचालित कर सकते हैं | 


यह एक बिजली से चलने वाली मशीन है जो सीधे चलती हुई कम्पोस्ट के ढेरों को काटती , पलटती है और सभी पदार्थों को आपस में मिश्रित कर देती है जिससे आवश्यकतानुसार उसमें नमी मिल जाती है और दोबारा भी उस खाद को लाइन में लगा देती है | जीतेन्दर जी अपने खेतों में सिर्फ सर्दी के मौसम में ही मशरूम की सफ़ेद बटन किस्म उगाते हैं | कम्पोस्ट बनाने का काम और शेड बनाने की तैयारी साथ – साथ चलती रहती है | कम्पोस्ट बनाने के लिए तैयार किये गए पदार्थ(स्पान) को खेत में 4 लाइनों में फैलाना और मिलाना होता है व प्रत्येक लाइन 4 फीट की होती है | इसे लगातार मिलाया जाता है जिससे नमी बनी रहे और ये सूखे नहीं | प्रत्येक लाइन को 2 दिन के अंतर पर पलटने या मिश्रित करने की आवश्यकता पड़ती है | इस प्रकार इस पूरी प्रक्रिया में 28 – 30 दिन लग जाते हैं | उन्होंने बताया कि कम्पोस्ट को हम सातवीं बार पलटने पर तैयार मान सकते हैं | तैयार किये हुए कम्पोस्ट में नमी होनी चाहिए लेकिन वह चिपचिपा नहीं होना चाहिए |

कम्पोस्ट तैयार करने वाली मशीन की 2 मोटर है, एक मोटर 10hp की है जो ब्लेडों को घूमने में मदद करती है और दूसरी 2hp की है जो पीछे के पहियों को घुमाने में सहायक है | इस मशीन का वजन 10 क्विंटल है | यह मशीन 7 फीट ऊंची , 7 फीट चौड़ी व 15 फीट लम्बी है | यह मशीन 200 फीट लम्बे, 4 फीट ऊंचे व 4 फीट चौड़े ढेर को 25 मिनट में उलट – पलट करके अच्छी तरह मिला देती है | इस मशीन की सबसे बड़ी बात यह है कि इसे चलाने के लिए केवल एक व्यक्ति की जरूरत पड़ती है | जीतेन्दर जी ने बताया कि इस मशीन के इस्तेमाल से उन्हें मशरूम के उत्पादन में अधिक लाभ हुआ है |

इस मशीन के अनेको फायदें है , क्योंकि यह कम्पोस्ट को अच्छी तरह से पलट और मिला सकती है जिससे खाद में कोई भी गांठें नहीं रहती और मशरूम में रोग लगने की भी सम्भावना कम रहती है | इस मशीन के इस्तेमाल से न केवल लागत कम आती है बल्कि कम्पोस्ट तैयार करने में समय भी कम लगता है | इस मशीन को बनाने में उन्होंने 35,000 से 40,000 रूपए तक की लागत लगाई है | जीतेन्दर जी ने फ़िलहाल यह मशीन सिर्फ अपने लिए बनाई है लेकिन वह आगे भी इस मशीन में कुछ सुधार करना चाहते है ताकि यह मशीन उनके और अन्य किसानों के लिए और अधिक फायदे मंद हो सके | 

जीतेन्दर जी ने अपनी इस कम्पोस्ट बनाने वाली मशीन को 2015 में ही पेटेंट करवाने के लिए आवेदन किया है | देश और हरियाणा में विशेष रूप से मशरूम उद्योग में उनके योगदान को देखते हुए ‘मशरूम अनुसंधान निदेशालय’ सोलन , ने उन्हें ‘प्रगतिशील मशरूम उत्पादक पुरस्कार – 2013’ से सोलन में आयोजित ‘राष्ट्रीय मशरूम मेले’ के दौरान सम्मानित किया |

इस अविष्कार के विषय में अधिक जानकारी के लिए आप हमारे कार्यलय के टेलीफ़ोन नंबर पर जीरो सत्तरह बासठ दौ सौ सत्तर दौ सौ पांच एक बार फिर सुनिये जीरो सत्तरह बासठ दौ सौ सत्तर दौ सौ पांच पर सोमवार से शनिवार सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक बात करके जानकारी प्राप्त कर सकते है | आप हमें अपने विचार ईमेल भी कर सकते हैं | हमारा ईमेल पता है sakshamlive@gmail.com हैं |

लक्कड़बाबा की कहानी

श्री ज्वाला प्रसाद ग्राम पिपरौला, पो. वजाही, चन्दन चौकी, जिला लखीमपुर खीरी, उत्तरप्रदेश ने बताया कि थारू आदिवासी क्षेत्र की महिलायें जंगल में काफी दूर तक आती जाती है । लकड़ी और फूस दो ऐसी चीजे़ं हैं जिनका उपयोग दिन प्रति दिन के कामों में होता है। जंगल में हर चैराहे पर एक लकड़ी का ढेर पड़ा मिलता है जिसे लक्कड़ बाबा कहा जाता है । 

जंगल से बाहर निकलते वक्त बीनी हुई लकड़ी के ढेर में से एक सबसे अच्छी लकड़ी इस ढेर पर डाल दी जाती है और लक्कड़ बाबा की जय बोल कर महिला आगे बढ़ जाती है । इस ढेर से कोई लकड़ी नहीं चुराता है। लकड़ी का यह ढेर दीमक और अन्य कीट पतंगों का निवास एवं भोजन बन जाता है । यह जंगल का नियम है । इस ढेर का आकार देख कर आसानी से यह पता चलता है कि कितनी लकड़ी और फूस जंगल से बीना जा चुका है ।

जंगलों के दोहन पर नियंत्रण की यह प्रथा अनूठी है । महिलायें जब गठरी बांध लेती हैं तो गठरी को उठा कर सिर पर रखने के लिये बोलती हैं कि हे लक्कड़ बाबा तेरा ही सहारा है । बस इतना कहने से उनका बोझा हल्का हो जाता है । लकड़ी बांधने के लिये महिलायें रंगोई की बेल का इस्तेमाल करती है । रंगोई एक बहुत मज़बूत बेल होती है। लक्कड़ बाबा का सम्मान व उनकी कृपा इस क्षेत्र में सदियों से बरकरार है ।

पिंजौर के गुरविन्द्र सिंह ने किये मोबाईल से जुड़े अनेकों आविष्कार

पिंजौर शहर के रहने वाले गुरविन्द्र सिंह का जन्म 6 अक्टूबर 1980 में हुआ । इनके पिता जी का नाम बलदेव सिंह व माता जी का नाम स्वर्गीय सुरेन्द्र कौर है । इनके भाई का नाम विक्रमजीत व बहन का नाम मनजीत कौर है । इनके अपने छोटे से परिवार में पत्नी अन्जु, बेटी जसविन्द्र कौर व बेटा समीर है । गुरविन्द्र जी ने कालका के सरकारी कालेज से बी.ए. की है तथा उन्होंने कम्पयूटर इंजीनियरिंग की शिक्षा भी ग्रहण की है । उन्हें बचपन से ही इलेक्ट्रानिक्स की चीज़े बनाने का शौक रहा है । जब वह आठवीं कक्षा में थे तो उन्होंने अपने बड़े भाई(जो उस समय इलेक्ट्रानिक्स में आई.टी.आई. कर रहे थे) की किताब से पढ़कर एक रेडियो तैयार किया। इसके बाद इनके आविष्कारों का दौर शुरू हो गया । 

गुरविन्द्र जी का कहना है कि उन्हें अपने किसी भी नवप्रर्वतन में कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता क्योंकि इनका मानना है कि अगर हम पहले से ही मन और मस्तिष्क में यह बैठा लें कि हमें क्या और कैसे करना है तथा फिर उस कार्य को पूरे आत्मविश्वास के साथ करें तो हमें कभी भी किसी मुसीबत का सामना नही करना पड़ेगा अर्थात हम हर समस्या को आसानी से हल कर पायेंगे । क्या आप सोच सकते हैं कि एक हेलमेट की मदद से स्वचालित रूप से फोन कॉल प्राप्त की जा सकती है ? 10 जुलाई सन् 2008 में गुरविन्द्र सिंह जी ने एक ऐसा ही आविष्कार किया जिसके इस्तेमाल से एक साथ दो कार्य हो सकते हैं - एक तो वाहन चलाते समय हेलमेट पहनने से चोट का बचाव हो सकता है व ड्राइविंग करते समय स्वचालित रूप से कॉल भी प्राप्त की जा सकती है । उन्होंने इस हेलमेट-कम-मोबाईल फोन का आविष्कार दो हफ्तों में किया और इसे बनाने में 1000रूपये तक की कुल लागत आई है ।

गुरविन्द्र जी ने बताया कि उन्हें इस प्रकार का हेलमेट बनाने का ख्याल तब आया जब एक बार मोटरसाइकिल चलाते समय मोबाइल फोन पर बात करते हुए उनका फोन गिर गया। तब उन्हें लगा कि इस प्रकार के असंतुलन के कारण कई बार लोगों को बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ता है । उन्हें महसूस हुआ कि कुछ ऐसी चीज़ बनाई जानी चाहिए जिससे फोन कॉल को बिना मोबाइल उठाए ही सुन सकें । तब इन्होंने हेलमेट-कम-मोबाइल फोन का आविष्कार किया । 

इस हेलमेट में सिम कार्ड डाल कर, बिना बटन दबाए बात की जा सकती है । इस हेलमेट में कोई भी जी एस एम सिम कार्ड डल सकता है व कॉल आने पर निश्चित अवधि के बाद स्वचालित रूप से कॉल प्राप्त कर सकते हैं । कॉल का जवाब स्वयं भी एक बटन दबा कर दिया जा सकता है । इसके अलावा ड्राइविंग करते समय आई मिस्ड कॉल को हेलमेट के साइड में लगाया गया एक बटन दबाकर कॉल दोबारा डॉयल कर सकते हैं । इस हेलमेट-कम-मोबाइल का बैटरी बैकअप सात दिन का है । इस हेलमेट-कम-मोबाइल में कोई भी साधारण सी बैटरी डल सकती है । यह आविष्कार आज कल के व्यस्त लोगों के लिए लाभप्रद है। इस हेलमेट-कम-मोबाइल को बनाने में उन्हें स्पीकर, रिंगर, सील्ड वायर, सिम जैक, बैटरी, मोबाइल पी.सी.बी. आदि की जरूरत पड़ी। उन्होंने बताया कि उन्हें यह सब पदार्थ आसानी से प्राप्त भी हो गए थे । उन्होंने यह भी बताया कि हेलमेट को तैयार करने में अपशिष्ट अर्थात बेकार पदार्थों का भी इस्तेमाल किया है। उनके इस आविष्कार में उनके परिवार व उनके मित्रों ने उनका पूरा सहयोग दिया है । उनके मित्रों का कहना है कि गुरूविन्द्र जी ने ‘वन मैन आर्मी’ की कहावत को सिद्ध कर दिखाया है तथा पेशेवर डिग्री न होते हुए भी उन्होंने अनेकों नवीन उपकरण बनाए हैं । उनके मित्र का कहना है कि गुरविन्द्र सिंह को सिर्फ प्रोत्साहन की ज़रूरत है। 

हेलमेट-कम-मोबाइल आविष्कार के अलावा उन्होंने बहुत से और आविष्कार भी किए हैं जैसे, वॉटर प्रूफ मोबाइल, 24 फुट लंबा हेलीकॉप्टर जो कि थ्रीव्हीलर के इंजन से बनाया गया है, वायरलैस लैंडलाइन फोन बनाने के बाद उन्होंने जूते में मोबाइल फोन बनाया । यह मोबाइल फोन जूते की एड़ी में लगाया गया है तथा इसमें एड़ी के बाहर से सिम कार्ड डाला जा सकता है। इस फोन में विभिन्न कंपनियों के फोनों के पुर्जे लगाए गए हैं । गुरविन्द्र जी ने इसके अलावा पानी की बोतल में मोबाइल फोन लगाया है । फोन की बैटरी व अन्य उपकरण पानी की बोतल के भीतर ही फिट किए गए हैं । इस मोबाइल में पानी भरा होने के बावजूद भी आसानी से बात कर सकते हैं । हेलमेट-कम-मोबाइल नवप्रवर्तन के लिए ‘लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड्स ' में अपना नाम दर्ज करवाने के लिए इन्हें बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । फिर तकरीबन एक साल की कड़ी मेहनत के बाद वह अपना और अपने इस नवप्रर्वतन का नाम ‘लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड्स ' में दर्ज कराने में सफल रहे । 

गुरविन्द्र सिंह, 94674548
जल शुद्धिकरण यंत्र (Water Purifier) , आज हर घर की जरूरत है। परंतु इस जरूरी चीज की कीमत इतनी ज्यादा है कि ये अक्सर आम लोगों की पहुँच के बाहर होती है। इसके अलावा वैज्ञानिक रूप से भी अभी तक यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि विपरीत परासरण (Reverse Osmosis) जैसी प्रणाली पानी में मैजूद आवश्यक खनिज पदार्थो को नष्ट किये बिना उसे शुद्ध कर रही है। ऐसे ही कारणों से कई घरो में आज भी दुकानों से पानी की बोतले पहुंचाई जाती है जिसकी विश्वसनीयता पर और भी अधिक सवाल खड़े होते हैं। 

बी एम एस कॉलेज, बंगलुरु से एम टेक (ड.जमबी) कर रहे छात्र, रक्षित प्रभाकरन ने इस समस्या का हल ढूंढ निकाला है। बचपन से ही जिज्ञासु रहे रक्षित ने छठी कक्षा से ही नए यंत्रो और उपकरणों का आविष्कार करना शुरू कर दिया था। इस बार उन्होंनेसोचा कि कोई ऐसी चीजबनायी जाए जिससे आम लोगोको भी फायदा हो। बंगलूरूआजकल खास तौर पर दो समस्याओं से जूझ रहा है -एक पानी की समस्या और दूसरा कचरे की। रक्षित ने दोनों का उपाय खोजने का सोचा। रक्षित ने बंगलुरु के विभिन्न हिस्सों में पानी की जांच की।


दक्षित ने बताया कि पानीमें तीन तरह के प्रदूषक हैं दृरंग, भारी धातु और सूक्ष्म जीव। उन्होंने सोचा कि एक ऐसा प्यूरीफायर बनाया जाए जो इनप्रदूषको को हटाने के साथ-साथ पानी में मौजूद आवश्यक खनिज को बना रहने दे। रक्षितके लिए इस प्यूरीफायर कीकीमत को कम रखना सबसेजरूरी पहलु था। वे एक औरमहंगा यंत्र नहीं बनाना चाहते थे क्यूंकि उनका मकसद ही आमजनता तक साफ पानी पहुँचाना था। इसके लिए रक्षित ने ऐसीचीजों को ढूँढना शुरू किया जोआसानी से मिलने के साथ हीसस्ती भी हों। अपने शोध के आधार पर इनकी खोज दोवस्तुओं पर आ कर रुकी -गन्ने की खोयी और नारियल -जटा या काथी।

गन्ने की खोयी बेकार होनेके कारण मुफ्त में मिल जाती हैऔर नारियल जटा को भी कम दाम में आसानी से खरीदा जा सकता है। रक्षित ने इन्ही दो चीजों का उपयोग करके एकजल थोड़ी मेहनत, थोड़ा शोध और आम लोगो के लिए इस छात्र ने बनाया सिर्फ रु.1500का वाटर प्यूरीफायर शुद्धिकरण यन्त्र का निर्माण किया। इस प्यूरीफायर को बनाने के लिए बाकि जरूरी भाग भी सस्ते में मिल गए । इन सब को जोड़कर रक्षित ने सिर्फ रु.1500 में ऐसा प्यूरीफायर बनाया जिसकीकीमत आम तौर पर दुकानों में रु.8000 से भी ज्यादा होती है!अलग अलग पानी को इसप्यूरीफायर द्वारा जांचा गया। इसके द्वारा साफ किये हुए पानी को बड़े लैब में भी जांचा गया। हर प्रकार से इसके द्वारा शुद्ध किया गया पानी स्वस्थ एवं स्वच्छ पाया गया।

रक्षित ने इस प्यूरीफायर का नाम ‘जल समाधान’ रखाहै। वे चाहते हैं कि पूरे देश केलोगो को इसका लाभ मिले। 24 वर्षीय रक्षित ने बताया कि ऐसे कई लोग हैं जो वाटरप्यूरीफायर खरीदने में अक्षम है। अगर जल समाधान को गाँवों तक पहुँचाया जाए तो यहबहुत उपयोगी सिद्ध होगा।बंगलुरु की दूसरी समस्या कचरेकी है और इस पर भी रक्षित काम कर रहे है। इन्होंने एकऐसा यंत्र तैयार किया है जिससे घर-घर से निकल रहे कूड़ेको जमा करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इनका यंत्र रसोईघर मेंनिकलने वाले कूड़े को बायोगैस में बदल देगा। विज्ञान में रूचि रखने वाले रक्षित केदिमाग में ऐसे ही और भी कई विचार हैं जिसे वे लोगो तकपहुंचाना चाहते हैं। यदि आप रक्षित से संपर्क करना चाहते हैं तो उन्हें rakshit1383@gmail.com पर मेल कर सकते हैं !

भारत के रचनात्मक, कल्पनात्मक और कुछ नया करने को आतुर बच्चे ही राष्ट्र की बेहद कीमती संपत्ति है

एक राष्ट्र की सबसे कीमती संपत्ति राष्ट्र के रचनाशील, कल्पनाशील और कुछ नया करने को आतुर बच्चे हैं। उनकी अंतरआत्मा की संवेदनशीलता, सृजनशीलता और सहयोग ने उन्हें भारत के अच्छे नागरिक ही नहीं बल्कि देश के अच्छे कर्णधार भी बनाया है। नेशनल इनोवेशन फाउण्डेशन ने हर साल की तरह 15 अक्टूबर 2015 को ही Ignite प्रतियोगिता के पुरस्कारों की घोषणा की क्योंकि 15 अक्टूबर को स्व. डाॅ ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का जन्मदिवस है और नेशनल इनोवेशन फाउण्डेशन द्वारा इस दिन को बच्चों के बीच रचनात्मकता और मौलिकता को बढ़ावा देने के लिए प्रति वर्ष आयोजित किया जाता है। स्व. डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जी के जन्मदिवस को एन. आई. एफ. द्वारा अभिनव दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष 27 जिले और 18 राज्यों में से
40  छात्रों द्वारा दिए गए 31 विचारों को सम्मानित किया गया कुल मिलाकर देश के लिए सभी विचारों को सम्मानित किया गया कुल मिलाकर देश के सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के 425 जिलों से 28,1106 छात्रों ने इस प्रतियोगिता में भाग लिया था और वह प्रस्तुति पुरस्कार वितरण सामारोह 30 नवंबर को आयोजित किया गया। जिसमें माननीय राष्ट्रपति महोदय द्वारा अहमदाबाद में पुरस्कार दिए गए।

बच्चों के रचनात्मक विचार ही हमारे देश की विकास यात्रा को एक वैज्ञानिक गति प्रदान कर सकते हैं। जैसे जम्मू कश्मीर के मोहम्मद तवसीफ जो पिछले शैक्षणिक सत्र के दौरान नियमित रूप से स्कूल नहीं जा पाये क्योंकि उनकी पिछले वर्ष 15 सर्जरियां हुई थी। इतने दर्द से गुजरने के बाद भी लोगों के जीवन को बदलने अर्थात कुछ नया करने की सोच के आगे उनका शारीरिक दर्द भी रूकावट नहीं बन सका। तब उन्होंने एक ऐसा कुकर विकसित करने का विचारा आया जो चावल, दाल आदि की अशुद्धियों का पता लग सकता है और उन अशुद्धियों को नष्ट भी कर सकता है।

Pebble indicating system for cooking vessel

16 वर्षीय मोहम्मद तवसीफ ठोकर राजकीय उच्च विद्यालय, कुलगम, जम्मू-कश्मीर के 10वीं कक्षा के छात्र हैं। सन् 2011 में एक दुर्घटना में उनकी टांग बुरी तरह से जख्मी हो गई थी, जिस कारण उन्हें अब तक 15 सर्जरियों से गुज़रना पड़ा है। यहां तक कि इस कारण वे नियमित रूप से स्कूल भी नहीं जा सके और इस वर्ष इन्हें अपनी अंतिम सर्जरी के लिए शैक्षिणक सत्र छोड़ना पड़ा। उन्होंने बताया कि उन्हें स्कूल जाना बहुत अच्छा लगता है लेकिन जब सर्जरी के कारण वे स्कूल नहीं जा पाते थे तो उनके मित्र घर आकर उनका हौंसला बढ़ाते थे। तवसीफ को क्रिकेट, चेस और कैरम खेलना बहुत अच्छा लगता है और वह बड़े होकर सोफ्टवेयर इन्जीनीयर बनना चाहते हैं। उनके पिता जी खेती करते हैं व माता जी गृहिणी हैं। उनके दो भाई हैं, एक उनसे बड़ा
और एक उनसे छोटा है।

कई बार दाल, चावल या अन्य कुछ पकाते समय बहुत बार बीनने और धोने के बावजूद भी कुछ अशुद्धियां या कंकड़ रह जाते हैं। जो खाते समय दांत के नीचे आने से पता लगता है कि कंकड़ है। इस समस्या का समाधान करने के लिए तवसीफ ने एक विचार सुझाया है कि यदि कूकर में सैंसर लगा दिया जाये जो कुकर गर्म होते ही अशुद्धियों के बारे में संकेत दे सके और उसे नष्ट कर सके। यह विचार खाने में आने वाली अशुद्धियों को दूर कर सकता है और यह हमारे स्वास्थय के लिए बहुत लाभदायक भी साबित हो सकता है। तवसीफ ने बताया कि यह कुकर घर से दूर रहने वाले छात्रों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध हो सकता है जो स्वयं अपना खाना बनाते हैं और जिनके पास समय का अभाव है।

Gas Lighter with Gas Leak Alarm

बिहार राज्य के पटना जिले के निलेश राय डी.ए.वी. स्कूल में कक्षा 9वीं में पढ़ते हैं। निलेश जी बताते हैं कि वे एक गरीब परिवार से संबंध रखते हैं लेकिन वे अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान देते हैं। वे स्व. डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की ज़िंदगी से बहुत प्रेरित हैं। वे बताते हैं कि पहले वे पढ़ाई में ज्यादा अच्छे नहीं थें।
लेकिन एक हादसे ने उन्हें पूरी तरह बदल कर रख दिया। वे बताते हैं कि एक बार वह और उनके दोस्त चुपके से स्कूल के समय फिल्म देखने गए थे। लेकिन बाद में जब उनके पिता को इसके बारे में पता लगा तो उन्होंने निलेश को बहुत डांटा। उस दिन के बाद, निलेश ने यह निर्णय लिया कि अब के बाद से वह अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान केन्द्रित करेंगे और फिज़ूल में अपना समय बर्बाद नहीं करेंगे। उन्होंने बताया कि आज उनके माता-पिता को उन पर गर्व है कि उन्होंने यह आवार्ड जीता है।

गैस लीकेज की समस्या बहुत बड़ी है, कई बार गैस लीकेज के कारण बहुत बड़ी-बड़ी दुर्घटनायें हो जाती हैं। ऐसे ही एक बार निलेश के पड़ोसी के घर में कुकिंग गैस लीक होने के कारण आग लग गई थी और उनका बहुत नुकसान हुआ था। तब निलेश को विचार आया कि कितना अच्छा हो यदि गैस लीकेज होने पर चूल्हा चलाने से पहले ही हमें कुछ ऐसे संकेत हो जाये कि गैस लीक हो रही है। तब उन्होंने सोचा कि जिस लाइटर को हम गैस चलाने के लिए प्रयोग करते हैं यदि वो ही हमें गैस लीकेज के बारे में संकेत दे तो बहुत अच्छा होगा और गैस लीकेज के कारण दुर्घटनाओं से बचा जा सकेगा है। उनका यह विचार है कि यदि गैस लाइटर में सैंसर और साइरन लगा दिया जाये तो गैस लीकेज होने पर गैस स्टोव चलाने से पहले ही साइरन संकेत दे देगा और
लाइटर चलेगा ही नहीं। निलेश जी ने बताया कि वे एक मकैनिकल इंजिनीयर बनना चाहते हैं और ऐसी ही उपयोगी वस्तुएँ बनाना चाहते हैं। उनके इस  विचार के लिए राष्ट्रपति महोदय द्वारा निलेश राय को सम्मानित करने पर उनके माता-पिता को उनपर बहुत गर्व है।

Seed Container that indicates growth of Germs

दीप्ती मंजरी दकुआ ठींकरीवसम ळपतसेए भ्पही ैबीववसए छंलंहतंीए व्कपेीं में 10वीं कक्षा की छात्रा हैं। दीप्ती के पिता शारीरिक रूप से विकलांग हैं और गांव में एक छोटा-सा होटल चलाते हैं तथा उनकी माँ गृहिणी है। दिप्ती का एक बड़ा भाई है जो पढ़ाई करता है। दीप्ती का कहना है कि वह बड़ी होकर बैंकर बनना चाहती है जिससे वे अपने परिवार की आर्थिक स्थिति सुधार सके। उन्होंने बताया कि वह खेल-कूद से ज्यादा अपनी पढ़ाई पर ध्यान देती हैं और समाचार-पत्रों में नए आविष्कारों और मशीनों की जानकारी पूर्ण कटिंग करना उनकी आदत है।
दीप्ती ने बताया कि जब भी उनकी माँ अनाज को संग्रहीत करके रखती हैं तो सूक्ष्म जीव और कीड़े अनाज पर हमला करके अनाज को नष्ट कर देते थे और यह पता नहीं लग पाता था कि क्या संग्रहीत अनाज कीटों से प्रभावित है या नहीं। इस समस्या को सुलझाने के लिए दीप्ती ने सोचा कि क्यों न संग्रहित अनाज में कीटों के विकास की दर जांचने के तरीके को निर्धारित किया जाये। तब दिप्ती ने तापमान बढ़ने पर कीटों की गतिविधियों का अध्ययन करना शुरू किया। उन्हें विचार आया कि मैटाबोलिज्म से हीट उत्पन्न होती है। इससे उन्हें ऐसा सीड कंटेनर बनाने का विचार आया जो कंटेनर के तापमान को जांच कर उसमें भरे अनाज में कीटाणुओं और कीटों के विकास की दर का संकेत मिल सके।

Printed Paper Reclaiming Machine

अरविन्द गोपालकृष्णन, चेन्नई के श्रीमति नर्बदा देवी जे. अग्रवाल विवेकानन्द विद्यालय में 12वीं कक्षा के छात्र हैं। अरविन्द एक आॅटोमोबाइल इन्जीनीयर बनना चाहते हैं और वे अब तक कई साइंस प्रोजैक्ट, पेपर प्रस्तुतिकरण और डिबेट कांटेस्ट भी जीत चुके हैं। उन्होंने बताया कि उनकी स्कूल मैगजीन में उनके कई लेख भी आते हैं। अरविन्द जी को फोटोग्राफी कवितायें लिखने और नई जगहों पर जाने का बहुत शौक है। वे कहते हैं कि उनकी माँ जो अध्यापक है उनके लिए आदर्श हैं, मां के अलावा उनके परिवार में उनके पिता जो बीमा एजेंट हैं, उनके दादा-दादी व उनका बड़ा भाई है जो इन्जीनीयरिंग कर रहा है।

12वीं के छात्र अरविन्द ने एक ऐसे प्रिंटर के बारे में सुझाया है जो प्रिंट हो चुके पेपर को साफ कर सकता है जिससे इस्तेमाल हो चुके पेपर को दोबारा प्रयोग किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि एक बार वे स्कूल में कम्पयूटर लैब में प्रिंट आउट निकाल रहे थे तो प्रिंटिंग की हीटिंग क्वायल के ठीक से काम न करने के कारण प्रिंट निकालने पर प्लेन पेपर ही निकल कर आ रहा था। तब अरविन्द को विचार आया कि दफ्तरों में रोज़ाना कितने पेपर खराब होते होंगे यदि प्रिंटिड पेपर को प्लेन कर दिया जाये तो पेपर को दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यदि ऐसा संभव हो पाता है तो पेपर के लिए जो हज़ारों पेड़ काटे जाते हैं वे भी बच जायेंगे और इससे हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित रह पायेगा।

A Solar thresher to end harvesting woes

अण्डमान-निकोबार महाद्वीप के कक्ष 12वीं के दिपांकर दास जो दिगलीपुर के सरकारी सीनियर सकैण्डरी स्कूल के छात्र हैं। उनका मनपसंदविषय शारीरिक शिक्षा है। जब वह पढ़ाई नहीं करते तो वह अपने माता-पिता की  में मदद करते हैं या उस समय को वह विज्ञान के विभिन्न प्रकार के माॅडल बनाने में लगाते हैं। वह बताते हैं कि जब वह रात को मशीन बना रहे होते हैं तो उनकी माँ सुबह 3 बजे उठती तो उन्हें माॅडल पर काम करते देख थोड़ी देर सो जाने के लिए कहती और उन्हें देर तक जागने के लिए डांटती थी। लेकिन आज वह बहुत खुश हैं कि उनकी सारी कड़ी मेहनत वसूल हो गई है। दिपांकर का कहना है कि वह मकैनिकल इंजिनीयर बनना चाहता है और कम दाम वाली मशीनें तैयार करना चाहता है।

अपने माता-पिता को हाथ से दाल की फसल की कटाई करते देख उन्हें अच्छा लगता था और न ही वे थ्रैशिंग मशीन खरीद सकते और न ह किराये पर बिजली ही जुटा सकते हैं। इन्हीं सब चीज़ों ने उन्हें सौर थ्रैशर बनाने के लिए प्रेरित किया ताकि वे दाल, चना जैसी फसलों की कटाई बिना बिजली और ईंधन का प्रयोग कर सकें। सन् 2013 में दिपांकर ने एक पैडी ड्रायर विकसित किया जिसे राज्य स्तर पर एक प्रदर्शनी के लिए चुना गया। उन्होंने बताया कि वे एक साल से सौर थ्रैशर के प्रोटोटाइप पर काम कर रहे थे। वे अपने परिवार के लिए बहुत सारे कृषि
उपकरण बनाना चाहते हैं, जिससे उनकी ज़िंदगी आसान हो सके। 18 वर्षीय दिपांकर रोज़ाना शाम 7 से 11 बजे तक पढते हैं और उसके बाद रात को अपने प्रोटोटाइप पर काम करते हैं।

Smart walking stick

नई दिल्ली के सिद्धांत खन्ना जो संस्कृति स्कूल में कक्षा ग्यारहवीं में पढ़ते हैं जिन्हें पढ़ाई के अलावा पियानो बजाना, फोटोग्राफी करना, रोबोट बनाना और अन्य साइंस प्रोजैक्ट बनाना अच्छा लगता है। सिद्धांत के पिता
भारतीय राजस्व सेवा में अतिरिक्त आयुक्त हैं और उनकी माता जी एक रोगविज्ञानी है। उनकी एक छोटी
बहन है जो छठी कक्षा में पढ़ती है।

 सिद्धांत ने एक ऐसी छड़ी विकसित की है जिसकी अनेकों विशेषतायें हैं जैसे कदम गिनना, एमरजैंसी अलार्म, स्वचालित होने वाली टाॅर्च और यहां तक दवाइयां याद दिलाने वाला रिमाइंडर भी है। सिद्धांत को यह विचार तब आया जब उसके 76 वर्षीय नाना जी को बिना किसी सहारे के घर के आस-पास भी चलना कितना मुश्किल होता था। उन्होंने यह भी बताया कि वह अकसर बिमार भी रहते थे और उस समय में उन्हें हमेशा किसी न किसी की मदद की जरूरत होती थी।

Loom for Physically Challenged

पवित्रा और एलाकिया दो बहने हैं और वे तमिलनाडू राज्य के इरोड जिले में रहती हैं। पवित्रा ैत्ब् मैमोरियल मैट्रिकुलेशन स्कूल की 10वीं कक्षा में पढ़ती है और एलकिया भी उसी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती है। पवित्रा के गणित और विज्ञान मनपसंद विषय हैं और वह नेत्र विशेषज्ञ बनना चाहती है जबकि उनकी बहन एलकिया बड़े होकर वैज्ञानिक बनना चाहती है। दोनो ही बहने डाॅ. अब्दुल कलाम जी से बहुत प्रेरित हैं।

पवित्रा ने बनाया कि वह सन् 2013 में IGNITE आवार्ड के दौरान डाॅ. अब्दुल कलाम से मिली थी। वह भरतनाट्यम में माहिर हैं और पढ़ाई के अलावा उन्हें नवप्रर्वतनों के बारे में सोचना अच्छा लगता है। उन्होंने देश भर में विभिन्न विज्ञान प्रदर्शनियों मंे भाग लिया है और कई सम्मान भी जीते हैं। एलकिया चेस प्लेयर और डांसर है और उनका कहना है कि उनकी मां ही आविष्कारों को विकसित करने में उनका साहस बढ़ाती है। दोनों बहनें उनके जिले में विज्ञान और नवप्रर्वतन केन्द्र खोलकर ज्यादा से ज्यादा नवप्रर्वतकों का साहस बढ़ाकर पिता का सपना पूरा करना चाहती है। तमिलनाडु का इरोड जिला हथकरघे की बुनाई के लिए जाना जाता है। पवित्रा और एलकिया के पड़ोस में हथकरघे की बुनाई करने वाला रहता है जो पिछले 30 सालों से हथकरघे की बुनाई का काम करता था लेकिन टांग में दर्द बढ़ने के कारण वह पहले की भांति उतनी कुशलता से काम नहीं कर पा रहा था। इस वजह से दोनों बहनों के ज़हन मे एक नए प्रकार का हथकरघा डिजाइन करने का ख्याल आया।
तब दोनों बहनों न एक ऐसा हथकरघा तैयार किया जिसे शारीरिक रूप से विकलांग लोग आसानी से चला सकते हैं। इस चरखे में उन्होंने पैडल से चालित करने की जगह मोटर और गियर बाॅक्स लगाया है जिसे चरखी तंत्र से जोड़ा गया है।

अपने पड़ोसी की मदद करने के लिए दोनों बहनों ने वर्कशाॅप से जरूरत का समान इक्कठा किया और अपने इस विचार पर काम करना शुरू कर दिया। दोनों बहनों ने सफल होने तक बहुत सारी कठिनाइयों का समान किया। बड़ी बहन पवित्रा ने कहा कि उनका यह आविष्कार उन सभी शारीरिक रूप से विकलांग लोगों को आत्मनिर्भर बनाने में मदद करेगा।

A Punching Machine with hole Reinforcement mechanism

तनमय तकाले श्री महलसाकांत विद्यालय के बारहवीं कक्षा के छात्र हैं और महाराष्ट्र में पुणे जिले के निवासी है। तनमय को फुटबाल खेलना, स्कैचिंग करना और किताबें पढ़ना अच्छा लगता है। तनमय ने बताया कि वह हमेशा कुछ न कुछ नवप्रर्वतनशील वस्तुएं बनाना चाहते हैं जिससे लोगों की जिंदगी आसान हो सके। तनमय का कहना है कि हर एक को बड़े सपने देखने चाहिए और कड़ी मेहनत करनी चाहिए और मेहनत का फल हमेशा मिलता है जो रात भर जाग कर अपने अपने आविष्कारों पर काम करते हैं।

तनमय के पिता एक विनिर्माण कंपनी में काम करते हैं और उनकी माता जी एक बीमा एजेंट है और उनकी एक छोटी बहन है। तनमय ने बताया कि वे 10वीं कक्षा में थे तो उन्हें अपनी परीक्षा से पहले पढ़ाई के लिए बहुत सारे पेपरों को फाइल करना पड़ता था और बार-बार पेपर फाइल से निकालने और डालने के कारण पंच किये हुए पेपर छेद के आस-पास से फट जाते थे और उन्हें दोबारा फाइल में लगाना कठिन था। तब उन्हें विचार आया कि यदि पंच मशीन में पेपर को पंच करने के साथ-साथ छेद के ऊपर एक रिंग जैसा छल्ला लगाने वाली सुविधा हो जाये तो पेपर छेद के आगे से नहीं फटेंगे और पेपरों को बार-बार निकालना और डालना भी आसान हो जायेगा।

A Colour coded thermometer

एक पारंपरिक थर्मामीटर को चेक करना कई बार बच्चों, बूढ़ों और अनपढ़ लोगों के लिए मुश्किल हो जाता है। इस समस्या के समाधान के लिए विभिन्न राज्यों के दो विद्यार्थियों ने एक जैसा ही सुझाव दिया है। जन्मेजय जो कि कर्नाटक के बैंगलोर शहर में रहते हैं और जसप्रीत कौर जो पंजाब के जलंधर जिले में रहती है। जन्मेजय 12वीं कक्षा में पढ़ते हैं और जसप्रीत कौर 10वीं कक्षा में पढ़ती है। उन दोनों ने एक ऐसे थर्मामीटर का विचार खोजा है जो तापमान को रंग के आधार पर बता सकता है, जैसे कि अधिक तापमान होने पर लाल रंग, कम तापमान होने
पर नीला रंग और सामान्य तापमान होने पर हरा रंग यह थर्मामीटर दर्शाता है।

जन्मेजय ने बताया कि यह थर्मामीटर केवल शरीर का तापमान ही नहीं बताता बल्कि विभिन्न रंगों द्वारा शरीर की स्थिति बताने के साथ-साथ सावधानियों की जानकारी भी दे सकता है तथा अपातकालीन स्थिति में ऐबुलैंस को भी बुला सकता है। उन्होंने बताया कि इस थर्मामीटर में एक स्पीकर भी लगा है जो नेत्रहीन या आंखो से न देख पाने वालों को तापमान आवाज़ संदेश के माध्यम से दे सकता है। यह थर्मामीटर सिर्फ मनुष्यों के लिए ही नहीं बल्कि डायरी और पोल्ट्री फार्म वाले पशुओं के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। जसप्रीत ने बताया कि कुछ महीने पहले उनके पिता को टाॅयफायड हो गया था तब परंपरागत थर्मामीटर से तापमान चेक करते समया उन्हें समझने में बहुत मुश्किल हुई थी। तब उन्हें यह थर्मामीटर विकसित करने का विचार आया जिस थर्मामीटर में लाल रंग उच्च तापमान के लिए, नीला रंग कम तापमान के लिए और हरा रंग सामान्य तापमान के लिए होने पर तापमान बच्चों, बुढ़ों और अनपढ़ लोगों के लिए जांचना आसान हो जाएगा।
मध्यप्रदेश राज्य के सीहोर जिले के भोजपुरा गांव में रहने वाले बुजुर्ग कारीगर दिलीप सिंह मालवीय ने अपने अनूठे प्रयास से पूरे गांव की तस्वीर ही बदलकर रख दी। उन्होंने सरकार से बगैर मेहताना लिए गांव के सैंकड़ों घरों में शौचालय बनाए हैं। दरसअल, जिले के इछावर इलाके के भोजपुरा गांव में झुग्गी में रहने वाले दिलीप सिंह मालवीय पेशे से मकान कारीगर हैं। दूसरे के घरों का निर्माण करने वाले बुजुर्ग दिलीप सिंह ने खुद के घर में आज तक शौचालय नहीं बना पाये थे। दिलीप की पत्नी बिंदा जी ने इसका विरोध करना शुरू किया। पहले तो पत्नी की बात को दलीप ने गंभीरता से नहीं लिया लेकिन जब वह जिद पर अड़ गईं तो उन्हें भी झुकना ही पड़ा। दिलीप ने शौचालय बनाने के लिए कुछ पैसे इकठ्ठे किए और 7 दिन के भीतर शौचालय बना दिया। इस बात पर उनकी पत्नी बिंदा जी लंबे समय से उनका विरोध कर रही थी।

पत्नी की जिद के चलते कारीगर दिलीप ने अपने घर में शौचालय का निर्माण कराया तथा अन्य लोगों को भी जागरूक करना शुरू किया। साथ ही गांव के 100 घरों में तीन महीने के भीतर बिना मेहताना के शौचालय बना दिए। ग्रामीणों को शौच के लिए एक किलोमीटर दूर जंगल में जाना पड़ता था। खासकर महिलाओं को काफी मुशिकलें होती थी। कारीगर दिलीप सिंह की मानें तो गांव की महिलाओं और पुरुषों को सर्दी, गर्मी और बरसात के मौसम में खुले में शौच के लिए जाना पड़ता था। जिससे चारों तरफ गंदगी का माहौल था। इसके बाद दिलीप ने ठाना कि वह अब पूरे गांव में खुले में शौच का विरोध करेंगे। इसके लिए उन्होंने सरपंच और ग्राम विकास प्रस्फुटन समिति के साथ चर्चा की। 


गांव के सरपंच सुरेन्द्र सिंह जी ने भी दिलीप जी की बात को गंभीरता से लिया लेकिन शौचालय के लिए सरकार से राशि न मिलने के कारण वे संकोच कर रहे थे। इस बीच गांव वालों की एक बैठक बुलाई गई, जिसमें दलीप जी ने ही प्रस्ताव रखा कि यदि आप लोग निर्माण सामग्री का इंतजाम कर लें तो मैं बगैर मेहनताना लिए शौचालय का निर्माण कर सकता हूं। गांव के लोग राजी हो गए। दिलीप जी ने भी वादे के मुताबिक वैसा ही किया और बगैर मेहनताना लिए काम करने की हामी भर दी। तीन महीने पहले तक गांव के सरपंच सुरेन्द्र सिंह समेत पूरा गांव खुले में शौच जाने को मजबूर था, लेकिन अब यही गांव इस कलंक से मुक्ति पा चुका है।

ग्रामीणों और सरपंच की पहल पर कारीगर दिलीप सिंह मालवीय दिन-रात मेहनत करके बिना मेहताना लिए तीन महीनों के भीतर पूरे गांव में करीब 100 शौचालयों का निर्माण कर दिया। गांव को खुले में शौच से मुक्त बनाने के बाद कारीगर दिलीप सिंह जी प्रशंसा के पात्र बन गए हैं। वहीं, गांव की महिलाओं-पुरुषों समेत उनकी पत्नी भी अब उनसे काफी खुश है।

पैराशूट धान

बैकांक, थाइलैंड के किसान जो छोटे-छोटे खेतों में धान की खेती करते हैं । यहां पर धान को रोपने की एक नई तकनीक विकसित हुई है जो कारगर होने के साथ-साथ रोचक भी है । इस तकनीक से बोये गये धान को पैराशूट धान कहते हैं। बैकांक के निकट फूरूइया, रूहयान, माई, पर्यटन स्थल पर काम करने वाली जिच्चानोक और उनकी माँ उबोल ने इस तकनीक से धान उगाने में महारथ हासिल कर ली है । इस तकनीक से धान उगाने के लिए धान की पौध को प्लास्टिक की ट्रे में तैयार करते हैं । लगभग 15 दिन के बाद पौध 15 सेंटीमीटर लम्बी हो जाती है और यही सही समय है पैराशूट तकनीक से धान की रोपाई करने का । 


इस तकनीक की खासियत है कि धान की रोपाई में एक व्यक्ति अकेला अपने खेत को संभाल सकता है और ज्यादा व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं पड़ती । इस तकनीक से धान की अधिक उपज होती है । यह तकनीक पूर्णतयाः मानव श्रम आधारित है और किसी प्रकार के मशीन यंत्र या टूल की आवश्यकता नहीं होती । श्रीमति उबोल और जिच्चानोक ने बताया कि खेत को अच्छी तरह से तैयार करने के बाद धान की पौध वाली ट्रे में से एक पौध का गुच्छा निकाल कर हवा में उस ओर उछाला जाता है जहां धान की रोपाई करनी है । धान की पौध हवा में लहराती हुई पैराशूट की तरह से खेत की नरम मिट्टी में बड़े ही कलात्मक तरह से लैण्ड करती है और धीरे-धीरे पौध अपनी जड़ पकड़ लेती है । 


श्रीमति उबोल का कहना है कि पुराने तरीके से धान लगाने में लगभग 15 से 20 किलो बीज की आवश्यकता होती थी और इस नई तकनीक से लगभग 4 किलो बीज से ही काम चल जाता है । हम लोग 4 किस्म का धान अपने खेतों में लगा सकते है जिनके नाम हैं ।

1. राइसबैरी (गहरे जामुनी रंग का धान)

2. खाओ होमनिम ;काले रंग का धान)

3. खाओकॉम ;काले रंग का चिपचिपा धान)

4. जैसमिन धान

कुल मिलाकर सारी उपज लगभग 5 टन हो जाती है और इसमें से आधी उपज रिजार्ट और पर्यटन स्थल ढ़ाबे वाले खरीद लेते हैं और लगभग आधी उपज उनके यहां आने वाले पर्यटक खरीद कर ले जाते हैं जिसे वे 100 भाट/किलो की दर से बेच देती हैं और प्रति वर्ष लगभग 2 लाख भाट कमाती हैं । 

(थाईलैंड की स्थानीय मुद्रा को भाट कहते हैं)

Wednesday 22 March 2017

बंदरो से अपने खेत की रक्षा के लिए किसान दिनेश पाइका ने बनाया एक नया दिलचस्प उपकरण

भारतीय किसानो की कला समय-समय पर हमारे समक्ष आती रहती हैं। इसी प्रकार 27 वर्षीय युवा किसान दिनेश पाइका ने बंदरों से खेती को बचाने के लिए एक ऐसा उपकरण बनाया है जो हानिरहित है। दिनेश पाइका जी मंगलूरू से 60 किलोमीटर दूर कनियूर गांव, पुत्तूर के निवासी हैं। वह कृषक होने के साथ-साथ बिजली मिस्त्री हैं और अपनी एक कार्यशाला चलाते हैं। वह आई.टी.आई डिप्लोमा धारक भी हैं।

तटीय इलाकों के विशेष कर सुलिया, पुत्तूर और बंतवाल के क्षेत्रों में रहने वाले किसानों कि प्रमुख समस्याओं में से एक समस्या उनकी फसलों को बंदर से पहँुचाने वाली हानि है। विशेष रूप से इन क्षेत्रों में 20-25 के समूहों में बंदर नारियल के पेड़ों पर चढ़कर पेड़ो को और नारियलों को हानि पहुँचाते हैं।

फसलों पर इस तरह हो रहे हमलों से निराश होकर दिनेश पाइका जी ने पी वी सी पाइप का इस्तेमाल करके एक बंदूक बनाई जिससे जानवरों को कोई हानि नहीं पहुंचती लेकिन इस बंदूक की आवाज़ इतनी तेज़ है कि इसकी आवाज़ से बंदर एक सप्ताह तक उस क्षेत्र तक में नहीं आते। इस बंदूक का डिज़ाइन उन्होंने अपने ज्ञान और एक बिजली मिस्त्री के रूप में काम करने अनुभव का उपयोग करके किया। उन्होंने बताया कि सबसे पहले उन्होंने बंदरों की प्रकृति पर अध्ययन किया और उन्हें पता चला कि जानवरों को शोर-शराबा और आवाज़ें पसंद नहीं हैं। जानवरों की इस कमजोरी का पता लगने पर उन्होंने उनकी इस कमज़ोरी का फायदा उठाया और पी वी ई पाइप का उपयोग किया जिससे ज़ोर की आवाज़ आ सके।


इस बंदूक को बनाने के लिए उन्हें 1 इंच चैड़े और 4 इंच लम्बे दो पाइपों के टुकड़े लिए, एक गैस लाइटर, एक रिड्यूसर और एक कार्बाइड का उपयोग किया है। इन सभी को उन्होंने इस तरह से इक्कठा किया है जिससे कार्बाइड की गैस लाइटर के साथ प्रतिक्रिया होने पर विशाल ध्वनि उत्पन्न होती है। जो बंदरों को भगाने के लिए पर्यापत है। इसके अलावा कंकड़ भी फायरिंग के लिए इस्तेमाल किया जासकता है। यह सुनिश्चित है कि इससे पशु डर पाते हैं और किसी को भी कोई शारीरिक क्षति नहीं होती।

पी वी सी पाइप बंदूक के डिज़ाइन के लिए दिनेश जी ने इंटनेट की मदद भी ली। उनकी इस बंदूक की विडियो विभिन्न किसानों के समूह में बहुत लोकप्रिय है। दिनेश जी के अनुसारन इस बंदूक को घर में डिज़ाइन करना और तैयार करना बहुत आसान है। उन्होंने बताया है कि वह हर एक को इस बंदूक के बारे में बताकर उनकी मदद करते हैं। उन्होंने बताया कि इस बंदूक को विकसित हुए अभी केवल 3 महीने ही हुए हैं और उन्होंने अब तक 75 बंदूके बेच दी हैं। उन्होंने बताया कि इस बंदूक से किसानों को बंदरों से तुरंत राहत मिलती है। माना कि यह राहत स्थाई नहीं है लेकिन किसान इस बंदूक का उपयोग सप्ताह दर सप्ताह कर सकते हैं। अब दिनेश जी एक ऐसी बंदूक बना रहे हैं जिसे रिमोट द्वारा कंट्रोल किया जा सकता है जो जी.आई. पाइप से बनाई गई है। इस बंदूक से पी वी सी बंदूक की तूलना में अधिक आवाज़ आयेगी।

दिनेश जी अपने इस उपकरण से हज़ारों किसानों की फसलों को सुरक्षित कर रहे हैं। दिनेश जी ने बताया कि बंदरों के कारण हर वर्ष किसानों को 50,000 रूपयों से भी ज्यादा हानि होती है और अब वे अपने इस अनैच्छिक घाटे से राहत पा सकते हैं क्योंकि इस बंदूक की आवाज़ 50-100 मीटर दूर तक जाती है।