tag:blogger.com,1999:blog-71197101710433291942024-03-14T09:26:37.670+05:30Kamal JeetIdea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.comBlogger519125tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-38669586811371102752021-06-17T06:40:00.001+05:302021-06-17T06:51:36.338+05:30काला धन पीने की मशीनों के कलपुर्जेकालाधन भारत की ज्वलंत समस्या है जिसके बारे में हरेक भारतीय बात शुरू तो बड़े उत्साह जे साथ करता है लेकिन जल्द ही वो बुझ जाता है क्योंकि उसे पता है कि कुछ होना जाना नही है।<div><br></div><div>कुछ वर्ष पहले कालाधन वापसी जे नाम पर देश मे एक बड़ा आंदोलन हुआ और एक जुमला चलाया गया कि सभी भारतीयों को पंद्रह पंद्रह लाख रुपये मिल सकते हैं। </div><div><br></div><div>लोगों ने भी बस किसी एक उम्मीद में बड़ा फैंसला ले लिया और किसी के हाथ कुछ खास लगा नही है और कोई काला धन देश ।के वापिस आया नही है।</div><div><br></div><div>आखिर जस देश के लोगों को हुआ क्या है? </div><div><br></div><div>कुछ सुधार क्यों नही होता है?</div><div><br></div><div>एक दशक से भी पुरानी बात है मैं एक दफ्तर में काम किया करता था और वहां बहुत सारे डिवीजन हुआ करते थे सभी डिवीजन के डिविजनल हेड आंतरिक प्रोमोशन से आगे बढ़ कर अपने अपने विभागों को लीड किया करते थे।</div><div><br></div><div>लेकिन एक डिवीजन ऐसा था जहां प्रथा कुछ अलग थी वहां डेपुटेशन पर विभागाध्यक्ष लाने का डिज़ाइन था और इस डिवीजन का नाम था कंस्ट्रक्शन। एक मोटे लाला जी इसके हेड थे और हमेशा स्माइलिंग चेहरा और बड़ी तेज चाल से वो चला करते थे उनके चेहरे के हावभाव भी सीमेंट की तरह फिक्स रहते थे।</div><div><br></div><div>मतलब नमस्ते लेने से पहले और नमस्ते लेने के बाद भी कोई ख़ास बदलाव मैंने कभी देखा नही। सभी जानते थे कि पूरे विभाग में जबरदस्त गर्मी का माहौल रहता था। लोगों का आना जाना और देर शाम तक चलने वाली मीटिंग्स।</div><div><br></div><div>हम लोग काल्पनिक बातों के साथ वहां आने जाने वाले लोगों की शक्लें देख कर कहानियां बना लिया करते थे और बस फिर कभी लंच में और आगे पीछे वो कहानियां डिसकस करके अपना मनोरंजन किया करते थे।</div><div><br></div><div>एक दिन लंच खत्म ही हुआ था और मैं धूप सेकने के लिए दफ्तर वाली गैलरी को क्रॉस करके छज्जे की ओर गया हुआ था। हमारे दफ्तर में एक बड़ा सा स्लान्टिंग छज्जा था जहां पचास सौ आदमी भी खड़े ही जाएं तो फिर भी जगह बच जाए।</div><div><br></div><div>वहां अक्सर लोग खड़े होकर अपना मूड फ्रेश कर लिया करते थे मैं तो अक्सर कोई बड़ी नोटिंग बनाने से पहले वहीं खड़े होकर ऑक्सीजन पिया करता था और फिर प्रोपोज़ल लिखने में जुटा करता था।</div><div><br></div><div>मैं वहां खड़ा ही था कि मोटे लाला जी आये और मुझे कहा हट जा हट जा और दीवार पर चढ़े और सीधे दूसरे फ्लोर से पहले फ्लोर के छज्जे पर कूद गए। जब तक मैं नीचे झांकता तो वो पहले फ्लोर से कूद कर ग्राउंड फ्लोर और फिर ग्रिल वाली दीवार कूद कर परिसर से बाहर मुख्य सड़क पर आ गए और एक बाइक वाले से लिफ्ट लेकर आगे निकल गए।</div><div><br></div><div>सब कुछ सेकेंडों के हिसाब से हुआ और उनके पीछे पीछे दौड़ते हुए उनकी ब्रांच के एक दो लोग भी आये लेकिन तब तक वो आंखों से ओझल हो चुके थे और मैं भयंकर शॉक में था के एक टोटली अनफिट आदमी इतनी बड़ी कला भी दिखा सकता है।</div><div><br></div><div>जैसे ही मैं अपनी सीट पर जाने के लिए अंदर पहुंचा तो वहां शोर मचा हुआ था कि विजिलेंस वालों का छापा पड़ा है और लाला जी को इण्टरकॉम पर फ़ोन आ गया था कि विजिलेंस वाले गलती से एक फ्लोर आगे पीछे हो गये और गलत केबिन में घुस गए इतनी देर में वो सही जगह पहुंचते और इण्टरकॉम पर बात सही जगह पहुंच गई और सब्जेक्ट को यह पता था कि हाथ मे नही आने के लिए तूने कौन सा रुट अख्तियार करना है।</div><div><br></div><div>बस सेकंडों के हिसाब से लाला जी तो निकल गए और पीछे रह गयी बातें जब वो विजिलेंस वाले आये तो वो भी माथा पीट रहे थे क्योंकि उन्होंने ऊपर से नीचे के रास्ते हर जगह आदमी खड़े किए हुए थे बस एक वही जगह ऐसी थी जहां उन्होंने कोई बंदोबस्त नही किया था।</div><div><br></div><div>खैर वो वापिस चले गये और दफ्तर के लोग मेरे से पूछ रहे थे क्योंकि सिर्फ दो तीन लोग ही थे जिन्होंने यह करिश्मा अपनी आंखों से होते हुए देखा था। </div><div><br></div><div>मैं दिन भर यह सोचता रहा कि यदि लाला जी पकड़े जाते तो उनकी नौकरी में गधे हांड जाते और लेकिन वो कितने दिन और भागेंगे। मुझे मेरे विभाग के अनुभवी अधिकारियों ने बताया कि रंगे हाथ न द स्पॉट पकड़े जाने की बात अलग होती है। शायद कुछ न हो।</div><div><br></div><div>अगले दिन ही सुबह 11 बजे एक ऐसी खबर आई जिसने मुझे अंदर तक से हिला दिया। वो खबर यह थी कि अगले दिन सुबह ही लाला जी ने गुड़गांव में किसी सरकारी प्रोजेक्ट जो हज़ारों करोड़ कीमत का था में बतौर विभागाध्यक्ष जॉइन कर लिया है।</div><div><br></div><div>मुझे फिर अनुभवी लोगों ने बताया कि ऐसे बहादुर लोग पॉलिटिशियन्स की पहली पसंद होते है। इन्हें कमाऊ पूत कहकर ढोल ढक कर रखे जाते हैं।</div><div><br></div><div>कालेधन की मशीन के सभी पुर्जे ऐसे ही होते हैं।</div>Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-18392188325541941892021-06-15T20:42:00.010+05:302021-06-15T21:00:22.114+05:30आईडिया से एंटरप्राइज ब्लॉग <h1 style="text-align: center;"> विचार से रोजगार</h1><h2 style="text-align: left;">भूमिका </h2><div>नमस्कार साथियों, </div><div><br /></div><div>हमारे देश में विचार को रोजगार में बदलने का ईको सिस्टम थोड़ा कमजोर है , हमारे यहाँ लोग क्या कहेंगे और अनजान चार लोगो का इतना भी व्यापत है कि स्कूल में टॉप फाइव या टॉप टेन में जगह बनाने की जुगत में हम अपनी पूरी क्रिएटिविटी और पोटेंशिअल का नास कर बैठते हैं | </div><div><br /></div><div>उसके बाद कॉलेज फिर कैरियर , कहीं नौकरी में अटक गये तो ठीक अन्यथा प्राइवेट नौकरी के प्रेशर और जिन्दगी में झंझट ही झंझट | अपने मन में उठ रहे विचारों पर गौर करने और उन्हें जांचने परखने का अवसर ही नही मिलता है | </div><div><br /></div><h2 style="text-align: left;">बागी प्रवृति </h2><div>जो बालक बचपन से बागी हो जाते हैं और अपने विचारों के साथ प्रयोग करना शुरू कर देते हैं और उनके पर किसी मेंटर का सीधा हाथ या अप्रत्यक्ष सपोर्ट होती है वो बालक अपने जीवन में ज्यादा आत्मविश्वास के साथ अपने विचारों के साथ प्रयोग कर लेते हैं | हमारा स्कूलिंग सिस्टम केवल और केवल रट्टू तोते बालकों को आगे बढाता है और आगे चलकर यही अव्यवाहरिक रट्टू तोते देश समाज की बागडोर अपने हाथ में लेकर संस्थानों पर काबिज हो जाते हैं और इसी व्यवस्था के पोषण में लगे रहते हैं | जो बच्चे सवाल पूछते हैं और जिनके मन में क्युरोसिटी के कीड़े कुलबुलाते हैं उन्हें हमारी मौजूदा स्कूली और समाजिक व्यवस्था अपनी कमियों को ढकने के लिए बागी करार देकर उन्हें अपने सांचे में ढालने का प्रयास जारी रखती है | </div><div><br /></div><h2 style="text-align: left;">समस्या और समाधान</h2><div>जीवन में हरेक जगह समस्याएं पैदा होती रहती हैं कहीं तकनीकी समस्याएं होती हैं और कहीं पर समाजिक मसले होते हैं और कहीं पर आर्थिक , व्यावसायिक और कहीं पर निजी समस्याएँ होती हैं | जानकार लोग अपने अनुभव से बताते हैं कि समस्या में ही समाधान निहित होता है | उसे खोजने के लिए एक क्रिएटिव आई की आवश्यकता पडती है और यह क्रिएटिव आई समय के साथ परिपक्व होती है और एक अच्छी बात यह है कि इसे किसी भी व्यक्ति में उसके मातापिता . अध्यापक , सीनियर मित्र या मेंटर के द्वारा विकसित किया जा जा सकता है |</div><div><br /></div><div>थॉमस अल्वा एडिसन जो विश्व के महान वैज्ञानिक हुए हैं और जिन्होंने एक हज़ार से अधिक अविष्कारों के पेटेंट्स प्राप्त किये और उनके किये हुए आविष्कारों में हम आज भी कुछ को अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते हैं | जैसे बल्ब और साउंड रिकॉर्डिंग सिस्टम आदि | </div><div><br /></div><div>बचपन में एडिसन को जब स्कूल में पढने के लिए भेजा गया तो वे अच्छे से सुन नही पाते थे और उनकी सीखने की दर दुसरे बच्चों की अपेक्षा थोड़ी सी कम थी और इसीलिए उसके अध्यापक उसकी परफॉरमेंस से खुश नही थे और एक दिन एडिसन के स्कूल से स्कूल डायरी में एडिसन की माता जी के नाम एक नोट आया जिसमें यह लिखा था कि आपका बेटा महामूर्ख है इसे स्कूल से निकाल लें | </div><div><br /></div><div>एडिसन की माता जी ने उसे स्कूल से निकाल लिया और उसे घर पर ही पढ़ाने का मन बनाया, लेकिन उसने उसे सीधे कलम दवात और किताबे नहीं दी | उसने खेल खेल में उसे अक्षर ज्ञान करना शुरू किया और बस एक एक कदम बढ़ते बढ़ते एड़िसन में सीखने के प्रति एक ललक जाग गयी और जब एडिसन 13 वर्ष का था तो वो एक अखबार छाप कर बेचने लगा और फिर जीवन में बढ़ते बढ़ते एक समय ऐसा भी आया जब एडिसन के किये हुए आविष्कार औद्योगिक उत्पादन का हिस्सा बने और एडिसन ने अपने विचारों से लाखों रोजगार के अवसर पैदा किये और दुनिया को बदला | </div><div><br /></div><h2 style="text-align: left;">हमारे देश में हालत </h2><div>हमारे देश में एक उपभोक्ता संस्कृति विकसित करने के लिए एजुकेशन सिस्टम को विशेष रूप से कण्ट्रोल किया हुआ है | हमारे यहाँ पी.एच.डी. किया हुआ व्यक्ति घमंड में इतना टूटा हुआ होता है कि उसको अपने लिए बस एक नौकरी की दरकार होती है | पहले तो वो सिस्टम में टॉप लेवल पर घुसने की जुगत करता है यदि कामयाब हो जाए तो ठीक अन्यथा वो मिडल मैनेजमेंट से क्लर्क तक कहीं भी एक बार अटकने को तैयार हो जाता है | </div><div><br /></div><div>हमारे देश में जितने भी कारोबार चल रहे हैं या तो वो सर्विस इंडस्ट्री पर आधारित हैं या फिर वो किसी ट्रेडिंग चैनल का हिस्सा है जो बहार से इम्पोर्ट करके देश में डिस्ट्रीब्यूट करने की चेन की कोई कड़ी हैं | इसके अलावा बचता है खेती वहां भी एग्री इनपुट के नाम पर विदेशी कंपनियों का ही कब्जा है | </div><div><br /></div><div>कुल मिलाकर बात यह है कि देश में आज से बीस साल पहले गली गली के कोने कोने पर रिपेयर की दुकाने हुआ करती थी जहाँ एक एक पुर्जे को रिपेयर करके वापिस इस्तेमाल में लाये जाने का बंदोबस्त होता था | आज बीएस रिप्लेस का जमाना है कोई भी थोड़ी से ट्रेनिंग के बाद पुर्जे रिप्लेस करके मिस्त्री या उस्ताद जी का पद प्राप्त कर लेता है | </div><div><br /></div><h3 style="text-align: left;">फर्क क्या पड़ता है ?</h3><div>सवाल यह उठता है कि गली गली में पनप रही रिप्लेस और रिपेयर की संस्कृति से फर्क क्या पड़ता है ? जब तक देश में पुर्जों की रिपेयर करने का कल्चर था तो इनोवेशन होने के चांस बहुत ज्यादा होते थे क्यूंकि रिपेयर करने के लिए बहुत सारी स्किल्स को सीखना पड़ता है और फिर अपना दिमाग यूज करके अनरिलेटेड वस्तुओं के बीच में समबन्ध खोज कर उन्हें काम में लाया जाता है | रिप्लेस संस्कृति में बस उपभोक्ता को जल्दी से फारिग करके उससे पैसे लेने का विचार केंद्र में रहता है | रिपेयर करने वाला व्यक्ति ग्राहक के पैसे बचाने के भाव से काम करता है | </div><div><br /></div><h2 style="text-align: left;">विचार से आविष्कार </h2><div>हनी बी नेटवर्क के प्रणेता प्रोफ़ेसर अनिल गुप्ता जी कहते हैं कि केवल संवेदी व्यक्ति ही आविष्कार कर सकता है | क्यूंकि संवेदी व्यक्ति संवेदना रखता है और संवेदना के मूल में सम + वेदना होता है | प्रोफेसर गुप्ता कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की तकलीफ , दिक्कत , परेशानी को अपना समझ कर महसूस करता है तो तभी वो उसके समाधान के लिए प्रयास करता है | </div><div><br /></div><div>समाधान एक बार समझ में आ जाने पर उसे प्रोटोटाइप तक ले जाने की प्रक्रिया भी बेहद रोचक होती है और इसे अनाड़ी व्यक्ति तो बिलकुल भी अंजाम तक नहीं पौंछा सकता है | इसके अनुभव मेंटर , पीयर ग्रुप की आवश्यकता होती है जिसकी सोहबत से व्यक्ति एक पॉजिटिव माहौल में अपने विचारों में सुधार लाते लाते कम खर्चे में प्रोटोटाइप विकसित कर लेता है | </div><div><br /></div><h2 style="text-align: left;">आविष्कार से रोजगार </h2><div>आविष्कार कर लेना भी कोई मुश्किल काम नहीं है ज्यादातर संवेदी मनुष्य दूसरों की दुःख तकलीफ को आसान करने के लिए आविष्कार कर ही देता है लेकिन उस आविष्कार को यदि एक एंटरप्राइज में बदलना हो तो हमें निम्नलिखित गुणों की आवश्कयकता पड़ती है :</div><div><ol style="text-align: left;"><li>डिज़ाइन और टेक्नोलॉजी को लॉक करके उसमें सुधार की गुंजाईश को इग्नोर करके उसके कमर्शिअल उत्पादन की तैयारी करना | </li><li>हमने हनी बी नेटवर्क में आविष्कारकों के साथ काम करके यह अनुभव लिया है कि आविष्कारक अपने उत्पाद से कभी भी संतुष्ट नहीं होता है वो हमेशा उसे बेहतर से बेहतरीन बनाने के प्रयास में लगा रहता है और फिर उसका ध्यान उसकी कमर्शियल वायबिलिटी से हट जाता है और प्रोडक्ट मार्किट में उतर नहीं पाता है | </li><li>आविष्कारक के पास अपने प्रोडक्ट के उत्पादन और उसे बेचने के लिए एक स्ट्रेटेजी होनी चाहिए और हर हाल में उसका कैश फ्लो बना रहे इसके लिए उसके पास एक नीति होनी चाहिए | अक्सर मैंने यह देखा है कि या तो सारा जोर उत्पादन पर लग जाता है और प्रोडक्ट मार्किट में बेचने के लिए जो ऊर्जा और उत्साह की आवश्यकता होती है वो ना मिलपाने के कारण प्रोडक्ट फेल हो जाता है | <br /></li><li>आविष्कारक को एक अच्छा ह्यूमन रिसोर्स मैनेजर भी होना चाहिए क्यूंकि उसे हरदम हरेक स्टेज पर विभिन्न गुणों वाले मानव संसाधनों की आवश्यकता पड़ती रहती है | </li><li>सोशल मीडिया में मौजूदगी और सक्रियता भी एक बेहद जरूरी गुण है जिसके उपयोग से आविष्कारक समाज में फैले अपने अपने ग्राहकों से जुड़ा रहता है | </li><li>इन्नोवेटर के पास एक फर्म , या कम्पनी भी होनी चाहिए जो बैंकिंग व्यवस्था और टैक्स प्रणाली से जुडी हो और इन्नोवेटर को अपना उत्पाद ग्राहक तक भेजने में सबल बनाये | </li><li>इन्नोवेटर के आस पास सहयोगी इंडस्ट्रीज कितनी हैं और कितनी दूर हैं इसका भी बहुत फर्क पड़ता है जैसे प्रिंटर, पैकर्स, ट्रांसपोर्ट, स्पेयर पार्ट्स वाले, मिस्त्री , चार्टेड अकॉउंटेंट ,और अन्य प्रोफेशनल्स आदि सब आस पास यदि पंद्रह बीस किलोमीटर में हों तो इसका बड़ा फर्क और असर पड़ता है | </li></ol><h2 style="text-align: left;">उपसंहार </h2></div><div>विचार से आविष्कार और फिर रोजगार तक के ईकोसिस्टम को हमारे देश में गली गली तक इंटीग्रेट करके एक कार्यसंस्कृति का रूप देने की आवश्यकता है | पढ़ाई लिखाई के सिलेबस और स्कूल कालेजों से लेकर विश्वविधालय तक के महौल में हरेक स्टेप पर रचनातकमकता को लाने की आवश्यकता है | उदहारण के तौर पर क्या कोई अध्यापक या प्रोफेसर ऐसा पेपर सेट करने की हिम्मत रखता है कि स्टूडेंट्स को पुस्तकें खोलने की और इंटरनेट खोलने की खुली छूट हो लेकिन पेपर सोल्व करते करते छात्रों की समझ और रचनात्मकता की पूरी टेस्टिंग और इवैलुएशन हो जाये | छात्रों ने क्या सॉल्व किया सिर्फ इसी बात के नंबर ना हों उन्होंने कैसे इसे सॉल्व किया इसपर भी उनकी मार्किंग हो | </div><div><br /></div><div>हमारे देश में जनसँख्या को हरदम समस्या मान कर छाती नहीं पीटनी चाहिए हरेक व्यक्ति के पास दो हाथ और एक दिमाग है जिसका उपयोग राष्ट्र का भविष्य बनाने में किया जा सकता है | हमें इनोवेशन कल्चर पर फोकस करना चाहिए और इसके बारे में बात करनी चाहिए और ऐसे अविष्कारक जो अपने आविष्कार को रोजगार में बदलने में कामयाब हुए हैं उन्हें सबजगह आमंत्रित करना चाहिए और विधायर्थियों के साथ उन्हें बैठने और सीखने के मौके बार बार देने चाहिए | </div><div><br /></div><div><br /></div>Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-58327065185922305032017-04-16T18:45:00.002+05:302017-05-17T13:12:06.922+05:30 कम्युनिटी सपोर्टेड एग्रीकल्चर सहभागिता की एक नयी उड़ान <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-size: large;">साथियों पोषण और चिकित्सा विज्ञान हमें अपनी रौशनी में नित नये नये राज लगभग पिछली दो सदियों से लगातार बताते आ रहा है , लेकिन हमारी सेहत निरंतर गिरती जा रही है | फ़ूड टेक्नोलॉजिस्ट होने के नाते मेरे अंदर से आवाज आती है के अपने साथियों और मिलने जुलने वालों वालों को इस मुद्दे पर गहनता से विचार करने में मदद करूँ आखिर हम अपने जीवन के समस्त क्रियाकलाप करते किस लिए हैं : शांति से रोटी खाने के लिए और चैन से सोने के लिए | व्यवस्था ने हमारे और किसान के बीच में एक अपारदर्शी काले घने अंधेरों से युक्त एक प्रणाली विकसित कर दी है जिसे हम बाज़ार कहते हैं | ये रंग बिरंगे खाने के बाज़ार असल में हमारे और किसान दोनों के बीच में अज्ञानता और कन्फ्यूजन की खाई को चौड़ा करते जा रहे हैं | नतीजा किसान भी मर रहा है और लोग भी मर रहे हैं |</span></div>
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<span style="font-size: large;">उदहारण के तौर पर हम अपने हर रोज के भोज्य पदार्थों को ही लें जैसे :</span></div>
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<span style="font-size: large;">1) दूध 2 ) आटा 3) सब्जियां 4 ) फल</span></div>
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<span style="font-size: large;">दूध जो ये थैलियों वाला हम पीते हैं असल में ये दूध है ही नहीं यह रिकोंसटीटयूटीड स्टैण्डर्डडाईज्ड मिल्क होता है जिसे इम्पोर्ट किये गए पाउडर और बटरआयल को पानी में मिला कर तैयार किया जाता है इसमें शगुन के तौर पर फ्रेश मिल्क भी मिलाया जाता है और फिर थैलियों में भर कर हमें दे दिया जाता है | मेरी समझ में यह नहीं आता कि जब हमारा मुल्क 1947 में आजाद हुआ था तो हमारी जनसँख्या 30 करोड़ थी और पशुधन 43 करोड़ था आज हमारी जनसँख्या 125 करोड़ है और हमारा पशुधन 13 करोड़ फिर हम दुग्ध उत्पादन में नंबर 1 कैसे हो सकते हैं | ये रिकोंसटीटयूटीड स्टैण्डर्डडाईज्ड मिल्क ही फ्रेश मिल्क की कीमतों को कण्ट्रोल किये हुए है | देसी गाय का दूध जैसा कोई अमृत पदार्थ इस जगत में दूसरा नहीं है | यह कोई बहस का मुद्दा ही नहीं है इस बात को भारत का जन अच्छे से जानता है | आज हजारों लाखो रुपये प्रतिमाह कमाने वाले लोग भी अपने खाने के सामान को खरीदने के लिए मार्किट जाते हैं और वहां पर इंडस्ट्रियल एग्रीकल्चर से पैदा किया हुआ जेहर बुझा समान उठा कर ले आते हैं |</span></div>
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<span style="font-size: large;">मशरूम जिसका एक पैकेट लगभग 30 रुपये का मिलता है , जिस किसान के पास कम्पोस्ट को पास्छुराइज करने की सुविधा नहीं है वो अपना समय बचाने के लिए कम्पोस्ट में फ्यूराडान मिला देता है जोकि एक बहुत खतरनाक किस्म का जेहर है |मशरूम उस जेहर को अपने अंदर सोख लेती है और जहर सीधे आपकी प्लेट में आ जाता है | अब भाई बाज़ार से मशरूम लाओगे तो यह रिस्क बना ही रहेगा हमेशा | आओ बात करें गोभी की , ऑफ सीज़न गोभी चालीस से पचास रुपये किलो बिकने लगती है | प्रकृति ऑफ सीज़न गोभी को नष्ट करने के लिए कीड़े भेज देती है | बजार से पैसा मिलने की उम्मीद में किसान "कोराजन" नमक जहर गोभी पर स्प्रे करना शुरू कर देता है और किसी तरह से फसल बचा कर मंडी में ला कर दे देता है | किसान को बहुत अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं और सबसे बड़ी बात उसकी सेहत सबसे पहले रिस्क में आती है | आपकी और हमारी सेहत की चिंता करने का फर्ज़ किसान का नहीं बनता क्यूंकि हमने कभी भी किसान की चिंता नहीं की | हम बाज़ार पर ज्यादा विश्वास करने लग गये और हमारे किसान देवता हमारे प्यार को तरसते हुए सूखने लग गए |</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">आज बाज़ार ने हर एक जगह हमारा तेल निकालने का कोल्हू फिट किया हुआ | आप क्या समझते हैं चीनी खाने से शुगर की बिमारी होती है जी नहीं रासयनिक दवाओं से लदी सब्जियां खा खा कर हमारे शरीर के अंदरूनी अंग काम करना छोड़ जाते हैं और नतीजा शुगर कैंसर और पता नहीं क्या क्या |</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">हम में से जो जो बाज़ार से थैली का आटा ले कर आ रहे हैं वो चाहे कोई मोड्डा बनाओ चाहे कोई देसी या विदेशी लाला उसमें चोकर छोड़ने का ही नहीं | दोस्तों निरी गेहूं खा खा के भी हमारा नास वैसे ही हो लिया है | आटे में बहुत दिमाग लगाने की आवश्यकता है |</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">अब बात आती है के करें क्या , इसके लिए अपने आस पास लोगों से बातचीत करें और लाइक माइंडेड लोग ढूंढें और अपने शहर के आसपास खेती करने वाले किसानो से मिलें और उनसे बातचीत करके दोस्ती बढ़ाएं | फिर उन्हें सपरिवार या तो अपने घर बुलाएं या सपरिवार उनके घर जायें और उनसे बैठ कर दूध , घी आटे और सब्जियों के उत्पादन पर बात चीत करें | आपने स्कूल कोलेज में इक्नोमिक्स और कॉमर्स का ज्ञान प्राप्त किया है उसका प्रयोग करके किसान के लिए एक बिजनेस मॉडल बना कर दें | ध्यान रखें किसान के लिए तो ये सिर्फ बिजनेस मॉडल हो सकता है लेकिन यह आपके लिए और आपके बच्चों के लिए जीवन रेखा है | यदि आपको अपने परिवार के साथ बिताने के लिये दस साल और मिल जाते हैं तो बताइए आप कितने पैसे खर्च करना चाहेंगे|</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">किसानो को फलदार वृक्ष लगाने के लिए भी प्रोत्साहित कीजिये | इन्टरनेट के इस्तेमाल से किसान साथी का ज्ञान बढाने का भी प्रयास कीजिये | मैं पिछले 1 वर्ष से किसानों को कम्पनियों के तौर पर संगठित करने में जुटा हूँ अब समय आ गया है कि किसान कम्पनियों के साथ साथ उपभोक्ता भी एक मंच पर संगठित हों और किसान और उपभोक्ता मिलकर अपना अलग सिस्टम विकसित करें बाज़ार से हट कर |</span></div>
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मेरा मोबाइल नंबर 9992220655 है यदि इस विषय पर कोई साथी मुझ से चर्चा करना चाहता हो तो बातचीत के लिए स्वागत है |</div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-90751153050142132452017-04-16T10:59:00.000+05:302017-04-16T18:54:54.062+05:30सोशल मीडिया और देश निर्माण में आम आदमी की भूमिका <div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">साथियों आजकल लगभग हर कोई व्यक्ति सोशल मीडिया के बारे में एक हल्की राय रखता है , मैं भी कई बार् कुछ लोगों की पोस्ट देख कर झुंझला उठता हूँ और कह बैठता हूँ के फेसबुक से किनारा कर लेना ही बेहतर है | दोस्तों समय की गति का फल है कि आज हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ एक पल में हजारों पलों को जीने का मज़ा ले पा रहे हैं | सूचनाएँ एक पल में कहीं से कहीं पहुँच रही हैं | ऐसे में प्रकृति से प्रेम करने करने वाले और परमात्मा की मौज में रहने वाले नागरिकों के पास स्वर्णिम अवसर है के वो अपने मन की रौशनी से इस देश के माहौल को जागृत करें , इसकेलिए उन्ह सबसे पहले अपने मन के खिड़की दरवाजे खोलने पड़ेंगे | हमारे चारों और जो भी अच्छा घटित हो रहा है उसे अभिलेखित करके फोटो सहित एक दुसरे से शेयर करके हम खुशियों और ऊर्जा को एक दुसरे से बाँट सकते हैं | मैंने यह महसूस किया है कि बांटने से ऊर्जा बढ़ जाती है | मुझे ऐसा लगता है कि समय की गतिशीलता से मिले इस अनुपुम उपहार (सोशल मीडिया ) के जरिये हम एक दुसरे से जुड़ कर थोड़े थोड़े रंग आपस में बांट कर एक दुसरे के जीवन में रंग भर देंगे | सभी भस्मासुर और समाज का नाश करने वाले या तो सूख जायेंगे या फिर समय के फेर में आगे बढ़ जायेंगे | मैं लगातार परमात्मा की बनाई इस दुनिया में से जो कुछ मुझे अच्छा और प्यारा मिलेगा उसकी जानकारी आपके साथ अवश्य साँझा करूँगा | आपकी बतायी हुई जानकारियों का भी मुझे बेसब्री से इंतज़ार है |</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-79569156816151077442017-04-13T12:09:00.000+05:302017-04-16T18:55:51.280+05:30गरीबी के थपेड़े खाते हुए भी निस्सहायों की मदद कर मणिमारन ने कायम की अनोखी मिसाल<div style="text-align: justify;">
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<b><span style="font-family: "verdana" , sans-serif;">समाज-सेवा का संकल्प</span></b></h2>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">आम तौर पर कई लोगों में ये धारणा बनी हुई है कि समाज-सेवा के लिए खूब धन-दौलत की जरुरत होती है। जिनके पास रुपये हैं वे ही जरूरतमंद लोगों की मदद कर समाज-सेवा कर सकते हैं। लेकिन, इस धारणा को तोड़ा है तमिलनाडू के एक नौजवान ने। इस नौजवान का नाम मणिमारन है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">मणिमारन का जन्म तमिलनाडू में तिरुवन्नामलई जिले के थलयमपल्लम गाँव के एक किसान परिवार में हुआ। परिवार गरीब था - इतना गरीब कि उसकी गिनती गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों में होती थी। गरीबी के बावजूद घर के बड़ों ने मणिमारन को स्कूल भेजा। पिता चाहते थे कि मणिमारन खूब पढ़े और अच्छी नौकरी पर लगे। लेकिन, आगे चलकर हालात इतने खराब हो गए कि मणिमारन को बीच में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। गरीबी की वजह से मणिमारन ने नवीं कक्षा में पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और घर-परिवार चलाने में बड़ों की मदद में जुट गए। मणिमारन ने भी उसी कपड़ा मिल में नौकरी करनी शुरू की जहाँ उनके भाई नौकरी करते थे। मणिमारन को शुरूआत में एक हजार रुपये प्रति माह की तनख्वा पर काम दिया गया। मणिमारन ने अपनी मासिक कमाई का आधा हिस्सा अपने पिता को देना शुरू किया। उन्होंने आधा हिस्सा यानी 500 रुपये जरूरतमंद लोगों की मदद में लगाया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<img height="270" src="https://userfilescdn.yourstory.com/uploads/production/document_image/file/11561/full_e60b6d49d6" width="640" /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">बचपन से ही मणिमारन को जरूरतमंद और निस्सहाय लोगों की मदद करने में दिलचस्पी थी। मणिमारन का परिवार गरीब था और परिवारवालों के लिए 500 रुपये काफी मायने रखते थे। लेकिन, मणिमारन पर जरूरतमंदों की मदद करने का जूनून सवार था। मणिमारन 500 रुपये अपने लिए भी खर्च कर सकते थे। नए कपड़े, जूते और दूसरे सामान जो बच्चे अक्सर अपने लिए चाहते हैं वो सभी खरीद सकते थे। लेकिन, मणिमारन के विचार कुछ अलग ही थे। छोटी-सी उम्र में वे थोड़े से ही काम चलाना जान गए थे और उनकी मदद बेताब थे जिनके पास कुछ भी नहीं है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">अपनी मेहनत की कमाई के 500 रुपये से मणिमारन ने सड़कों, गलियों , मंदिरों और दूसरी जगहों पर निस्सहाय पड़े रहने वाले लोगों की मदद करना शुरू किया। मणिमारन ने इन लोगों में कम्बल, कपड़े और दूसरे जरूरी सामान बांटे । मणिमारन ने कई दिनों ऐसे ही अपनी कमाई की आधा हिस्सा जरूरतमंद लोगों में लगाया। गरीबी के उन हालातों में शायद ही कोई ऐसा करता। परिवारवालों ने भी मणिमारन को अपनी इच्छा के मुताबिक काम करने से नहीं रोक। मणिमारन ने ठान ली थी कि वो अपनी जिंदगी किसी अच्छे मकसद के लिए समर्पित करेंगे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">इसी दौरान एक घटना ने मणिमारन के जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल दी। एक बार मणिमारन कोयंबटूर से तिरुपुर जा रहे थे। वह यह सफर बस से कर रहे थे। बस में कुछ खराबी आने की वजह से उसे ठीक करने के लिए उसे बीच रास्ते में ही रोका गया। बस में बैठे मणिमारन ने देखा कि एक बूढ़ी महिला, जो कि कुष्ठ रोग से पीड़ित थी, लोगों से पीने के लिए पानी मांग रही थी। उसके हाव-भाव से साफ था कि वो प्यासी है। लेकिन, इस प्यासी बुढ़िया की किसी ने मदद नहीं की। उलटे, लोग बुढ़िया को दूर भगाने लगे। कोई उसे सुनने को भी तैयार नहीं था। इतने में ही मणिमारन ने देखा कि वो बुढ़िया अपनी प्यास बुझाने के लिए एक नाले के पास गयी और वहीं से गन्दा पानी उठाने लगी। ये देख कर मणिमारन उस बुढ़िया के पास दौड़ा और उसे गंदा पानी पीने से रोका।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">मणिमारन ने जब ये देखा कि बुढ़िया की शारीरिक हालत भी काफी खराब है और कुष्ठ रोग की वजह से उसके शरीर पर कई जख्म हैं तो उसका दिल पसीज गया। उसने उस बूढ़ी महिला का मुँह साफ किया और उसे साफ पानी पिलाया। इस मदद से खुश उस महिला ने मणिमारन को अपने गले लगा लिया और गुजारिश की कि वो उसे अपने साथ ले चले। मणिमारन उस महिला को अपने साथ ले जाना चाहते थे लेकिन उस समय वो ले जाने की हालत में नहीं थे। इस वजह से मणिमारन ने एक ऑटो ड्राइवर को 300 रूपए दिये और उससे दो दिन तक महिला की देखभाल करने को कहा। मणिमारन ने उस महिला को भरोसा दिलाया वो तीसरे दिन आकर उन्हें अपने साथ ले जाएगा। मणिमारन जब उस महिला को लेने उसी जगह पहुंचे तो वो वहां नहीं थी। मणिमारन ने महिला की तलाश शुरू की, लेकिन वो कई कोशिशों के बावजूद उसे नहीं मिली। मणिमारन बहुत निराश हुए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">यहीं से उनके जीवन की दिशा बदली। मणिमारन ने एक बड़ा फैसला लिया। उन्होंने फैसला लिया कि वे कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने का । फिर क्या था अपने संकल्प के मुताबिक मणिमारन ने कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की मदद करना शुरू किया। जहाँ कहीं उन्हें कुष्ठ रोग से पीड़ित लोग निस्सहाय स्थिति में दिखाई देते वे उन्हें अपने यहाँ लाकर उनकी मदद करते। मणिमारन ने इन लोगों का इलाज भी करवाना शुरू किया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">उन दिनों लोग कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को बहुत ही हीन भावना से देखते थे। कुष्ठ रोग से पीड़ित होते ही व्यक्ति को घर से बाहर निकाल दिया जाता। इतना ही नहीं एक तरह से समाज भी उनका बहिष्कार करता था। कोई भी उनकी मदद या फिर इलाज के लिए आगे नहीं आता था। कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को छूने से भी लोग कतराते थे। अक्सर ऐसे लोग सड़कों या फिर मंदिरों के पास निस्सहाय हालत में भीख मांगते नजर आते। मणिमारन ने ऐसी ही लोगों की मदद का सराहनीय और साहसी काम शुरू किया। मदर टेरेसा और सिस्टर निर्मल का भी मणिमारन के जीवन पर काफी प्रभाव रहा है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">जब भारत के जाने-माने वैज्ञानिक डॉ अब्दुल कलाम को मणिमारन की सेवा के बारे में पता चला तो उन्होंने मणिमारन को एक संस्था खोलने की सलाह दी। इस सलाह को मानते हुए मणिमारन ने अपने कुछ दोस्तों के सहयोग से साल 2009 में वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर की स्थापना की। इस संस्था की सेवाओं के बारे में जब तमिलनाडू सरकार को पता चला तब सरकार की ओर से जरूरमंदों की मदद में सहायक सिद्ध होने के लिए मणिमारन को जगह उपलब्ध कराई गयी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">मणिमारन ने वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर के जरिये जिस तरह से गरीब और जरूरतमंदों की सेवा की उसकी वजह से उनकी ख्याति देश-भर में ही नहीं बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भी होने लगी। उनके काम के बारे में जो भी सुनता वो उनकी प्रसंशा किया बिना नहीं रुकता। अपनी इस अनुपम और बड़ी समाज-सेवा की वजह से मणिमारन को कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा जा चुका है। इस बात में दो राय नहीं हैं कि गरीबी से झूझते हुए भी जिस तरह से मणिमारन ने लोगों की सेवा की है वो अपने आप में गजब की मिसाल है।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-25705615627607580602017-04-13T11:56:00.002+05:302017-04-13T11:56:21.054+05:30अब आप चम्मच, कांटे और चॉपस्टिकस को भी खा सकते हैं<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">हम कितनी बार कैंटीन या होटल जैसी जगहों पर जाते हैं जहां हमें कई बार खाना खाने के लिए प्लास्टिक की चम्मच मिलती है और हम इन प्लास्टिक की चम्मचों से आराम से खाना भी खा लेते हैं। इस बात से तो हम वाकिफ हैं कि प्लास्टिक हमारी सेहत और पर्यावरण के लिए कितना नुकसानदेह है। भारत में लगभग 120 बिलियन प्लास्टिक कटलरी को इस्तेमाल करके फेंका जाता है। प्यहां तक कि एक छोटे से प्लास्टिक के कप को भी नष्ट होने में 50 वर्ष से अधिक समय लग जाता है। ये एक ऐसा पदार्थ होता है जो कभी खत्म नहीं होता। इसे जलाने पर भी जो गैस निकलती है वो इंसानों और जानवरों दोनों के लिए ही अभिशाप है। लेकिन हमारे देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो स्वेच्छा से पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ के बारे में सोचते हैं और कुछ करते भी हैं। इसी प्रकार जब नारायण पीसापति को प्लास्टिक से होने वाले नुकासन के बारे में पता चला तो उन्होंने खुद के साथ-साथ आम लोगों के लिए भी एक ऐसी चीज़ बनाई जिसका उपयोग हम रोजमर्रा के जीवन में करते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-zNrOOYCP6s8/WO8ZZTdCJqI/AAAAAAAAQLs/H35cdZFicewwffuWg001trjArUIWOQ3-wCK4B/s1600/11753688_733557933439248_1879783695944409032_n.jpg" imageanchor="1"><img border="0" height="518" src="https://1.bp.blogspot.com/-zNrOOYCP6s8/WO8ZZTdCJqI/AAAAAAAAQLs/H35cdZFicewwffuWg001trjArUIWOQ3-wCK4B/s640/11753688_733557933439248_1879783695944409032_n.jpg" width="640" /></a></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">48 वर्षीय नारायण पीसापति जो Bakey's Food Private Limited के मैनेजिंग डायरेक्टर होने के साथ-साथ इसके संस्थापक भी हैं। आज उन्होंने प्लास्टिक कटलेरी (छुरी, कांटा, चम्मच आदि) के स्थान पर Edible (खाने योग्य) कटलेरी का विकल्प खोज लिया है। 2010 से ही Bakey's खाने योग्य कटलेरी बना रहा है, जिसमें अलग-अलग तरह के चम्मच सहित चॉप स्टिक्स शामिल हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-ef3wmuxZDMU/WO8ZqYtl62I/AAAAAAAAQL0/ZrS_tdsz3aYxeg_L-Thso9K1ZLzitCaWwCK4B/s1600/edible-spoon-e1459184521488.jpg" imageanchor="1" style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: x-large;"><img border="0" height="318" src="https://4.bp.blogspot.com/-ef3wmuxZDMU/WO8ZqYtl62I/AAAAAAAAQL0/ZrS_tdsz3aYxeg_L-Thso9K1ZLzitCaWwCK4B/s640/edible-spoon-e1459184521488.jpg" width="640" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">इन खाने योग्य कटलेरी को ज्वार, चावल और गेहूं के मिश्रण से बनाया जाता है। इन चम्मच और चॉप स्टिक्स से आप आसानी से भोजन खा सकते हैं, क्योंकि ये पानी या खाने में रखने से पिघलती नहीं है। ये 10 से 15 मिनट बाद अपने आप नरम पड़ने लगती है। आप अपना भोजन समाप्त करने के बाद इसे खा भी सकते हैं। लेकिन अगर आप ऐसा नहीं करना चाहते तो वो 5 से 6 दिन बाद अपने आप नष्ट हो जाती है। नारायण को इस तरह की कटलेरी बनाने का विचार तब आया था, जब वे अहमदाबाद से हैदराबाद जा रहे थे। फ्लाइट में उन्होंने देखा कि एक यात्री गुजराती खाखरे के एक टुकड़े का इस्तेमाल मिठाई खाने के लिए कर रहा था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">Bakey's edible cutlery ना केवल enviornment-friendly है बल्कि हमारे स्वास्थय के लिए भी अच्छा विकल्प है। पौष्टिक आटों द्वारा बनने के साथ-साथ इन कटलरी में कोई रसायनिक संरक्षक नहीं है और ये कटलरी 100 प्रतिशत प्राकृतिक है। आप इसे प्लास्टिक की चम्मच की तरह ही गर्म चाय, काॅफी या सूप पीने के लिए इस्तेमाल कर सकते </span><span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">हैं</span><span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-hoSxmRGlt7M/WO8Z9lYEE4I/AAAAAAAAQL8/kNdRsShpPBoBMQ8w0ArSOYse1mROHv8rQCK4B/s1600/yourstory-Bakeys-InsideArticle1.jpg" imageanchor="1"><img border="0" height="426" src="https://4.bp.blogspot.com/-hoSxmRGlt7M/WO8Z9lYEE4I/AAAAAAAAQL8/kNdRsShpPBoBMQ8w0ArSOYse1mROHv8rQCK4B/s640/yourstory-Bakeys-InsideArticle1.jpg" width="640" /></a></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">Bakey's Edible Cutlery की विशेषतायें:-</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">1. आप इसके साथ खाना खा सकते हैं और आप उसके बाद इस चम्मच को खा भी सकते हैं क्योंकि यह चम्मच पौष्टिक ही नहीं, स्वादिष्ट भी है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">2. यदि आप इसे नहीं खाना चाहते तो आप इसे फेंक सकते हैं और 4-5 दिन में यह अपने आप खत्म हो जायेगी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">3. नारायण पीसापति द्वारा बनाई गई कटलरी बिना इस्तेमाल करे 3 साल से ज्यादा रख सकते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">4. उनके द्वारा बनाई गई कटलरी अलग-अलग स्वादों में आती है जैसे - मीठी, अदरक-दालचीनी, अदरक और लहसुन, पुदीना और अदरक, गाजर और चुकन्दर आदि।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">5. इन कटलरी की कीमत है 300 रूपये में 100 चम्मच। चाहे वह किसी भी स्वाद की हो, सभी की कीमत 300 रूपये है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">नारायण पीसापति ने केवल एडिबल कटलरी का आविष्कार ही नहीं किया है बल्कि सन् 2016 के मध्य से उनका यह प्रयास भी रहा है कि स्वतः मशीन के विकास से एडिबल कटलरी की उत्पादन क्षमता बढ़े और यह कोशिश भी रही है कि किस प्रकार बड़े आॅर्डरों और कम सप्लाई के बीच का अंतर घट सके। नारायण पीसापति जी योग्यता के अनुसार इंजिनियर नहीं हैं। लेकिन आवश्यकता और अपनी तकनीकी शिक्षा में आनंद लेने से वे एक इंजिनियर बन पाये हैं। उन्हें विज्ञान कथा, जासूसी उपन्यास पढ़ना और अपने विचारों के साथ प्रयोग करना बहुत अच्छा लगता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">ICRISAT के पूर्व शोधकर्ता नारायण पीसापति पहले एक ऐसे व्यक्ति है जिन्हें एडिबल कटलरी का विचार आया। उन्होंने BSC(Hons) chemistry में Osmania University से की और MBA-IIFM Bhopal से की है। नारायण पीसापति ने यह कंपनी पर्यावरण की बढ़ती समस्याओं के समाधान के लिए एक अभिनव समाधान करके स्थापित की है।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-2505648343144911152017-04-13T11:41:00.001+05:302017-04-21T16:38:21.544+05:30गजब अविष्कार: घर बैठे मिस कॉल से चलेगा ट्यूबवैल<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हरियाणा के सोनीपत जिले के एक छात्र ने अपने किसान पिता की समस्या सुलझाने के लिए गजब का अविष्कार किया है। छात्र ने ऐसी डिवाइस बनाई है जिससे घर बैठे खेत की सिंचाई हो जाएगी। तकनीक के जमाने में हर मुश्किल आसान हो गई है। इसका ताजा उदाहरण सोनीपत के एक गांव में देखा जा सकता है। अपने पिता की समस्या का तकनीकी हल ढूंढ़ निकाला है गांव मुकिमपुर निवासी बीटेक कंप्यूटर साइंस के छात्र नीरज ने।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">नीरज ने ऐसी तकनीक ईजाद की है जो खेत में लगे ट्यूबवेल को घर बैठे कंट्रोल करेगी। किसान परिवार में जन्मे नीरज ने एक ऐसा डिवाइस बनाया, जिसके माध्यम से मात्र मोबाइल से मिस कॉल करके खेत में लगे ट्यूबवेल को ऑपरेट किया जा सकेगा। फिलहाल नीरज इस डिवाइस को अपने खेत में लगाकर इसका फायदा उठा रहे हैं। वह इस तकनीक को हर किसान तक पहुंचाना चाहता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-yXogWgoKCEU/WO8WbDbgg8I/AAAAAAAAQLY/REJ-OqProyocx7Zzmtf8sVUnvNCdw9yaQCK4B/s1600/24_07_2016-24irrigation.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="424" src="https://2.bp.blogspot.com/-yXogWgoKCEU/WO8WbDbgg8I/AAAAAAAAQLY/REJ-OqProyocx7Zzmtf8sVUnvNCdw9yaQCK4B/s640/24_07_2016-24irrigation.jpg" width="640" /></span></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">पिता की परेशानी देख की खोज :</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">शहर के एक निजी कॉलेज से बीटेक की पढ़ाई कर रहे नीरज बताते हैं कि उनका परिवार गन्नौर की गांधी कालोनी में रह रहा है, जबकि खेती गांव मुकिमपुर में है। पिता अक्सर पानी देने के लिए गन्नौर से जाकर पूरी रात खेत में ही रहते। सर्दी-गर्मी हर मौसम में सिंचाई की यही प्रक्रिया रहती। बिजली गुल होते ही ट्यूबवेल बंद हो जाता, जिसे दोबारा चलाने के लिए वहां रहना जरूरी था। पिता की परेशानी देख मन में ऐसी डिवाइस बनाने की प्रेरणा मिली।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">मिस कॉल से ऑपरेट होता है ट्यूबवेल :</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इस डिवाइस में एक मोबाइल ट्यूबवेल के साथ लगने वाले डिवाइस में जोड़ा गया है, जिस पर मिस कॉल करने पर ट्यूबवेल चल पड़ता है। वहीं दो बार मिस कॉल देने पर ट्यूबवेल अपने आप बंद भी हो जाता है। इसी तरह बिजली गुल होने पर खेत में लगे डिवाइस से किसान के मोबाइल पर एक और बिजली आने आने पर दो मिस कॉल आएंगी। इसके बाद वापस मिस कॉल करने पर ट्यूबवेल चलेगा व बंद होगा। आने वाले समय में नीरज के इस आइडिया से किसानों की लाइफ काफी बदल सकती है। वहीं उनके लिए सिंचाई काफी आसान होगी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-83786144409325605772017-04-13T11:36:00.003+05:302017-04-21T16:38:44.949+05:30सबसे सस्ती वॉशिंग मशीन<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">अगर आप मार्केट में वॉशिंग मशीन खरीदने जाते हैं तो उसकी क्या कीमत आपको चुकानी होगी। हमारे हिसाब से कम से कम 10 से 15 हजार रूपये। लेकिन अगर हम कहें कि सिर्फ 1500 रूपये में आप वॉशिंग मशीन पा सकते हैं तो आप क्या हम क्या कोई भी चैंक जाएगा। मगर अपनी काबिलियत से इंजीनियर पीयूष अग्रवाल ने इसे सच करके दिखाया है..पीयूष ने महज 1500 रूपये में बना दी है एक पोर्टेब वॉशिंग मशीन..और इस वॉशिंग मशीन को नाम दिया है ‘वीनस’ ...</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"> इस मशीन को इस्तेमाल करना बडा आसान है। एक दस साल का बच्चा भी इसे चला सकता है। विदेश से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद पीयूष ने भारत में टपउइंे नाव्रचना नाम से अपनी कंपनी की शुरुआत की है। श्वीनसश् इस कंपनी का सबसे प्रमुख उत्पाद है। साल 2002 तक पीयूष ने भारत में पुरुष शौचालय में लगे फ्लश सेंसर की मार्केटिंग की लेकिन कुछ खास फायदा नही होने के वजह से ये काम बंद कर दिया इसके बाद पीयूष अग्रवाल ने गुड़गांव की एक कंपनी में बिजनेस कंसलटेंसी के साथ काम किया और बाकी का अपना सारा समय अपनी कंपनी टपउइंे नाव्रचना समर्पित कर दिया। जिसका परिणाम आज सबके सामने है।</span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large; font-weight: bold;"><br /></span></div>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><div style="text-align: justify;">
<b>कैसे काम करती है ‘वीनस’ वॉशिंग मशीन ?</b></div>
</span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह मशीन काम कैसे करती है। तो सबसे पहले आप ये जान लीजिए यह मशीन आम महंगी वॉशिंग मशीनों की तरह चलती तो बिजली से ही है लेकिन बिजली खपत ना के बराबर होती है। पीयूष अग्रवाल ने बताया है कि इसे इस्तेमाल करने के लिए सबसे पहले बाल्टी में मशीन के माउंड भाग को डालें। फिर पानी और डिटर्जेंट डालकर मशीन चालू करें इसके बाद इसमें 2-4 कपड़े डालकर 5 मिनट तक मशीन चलाए फिर कपड़ों को निकालकर साफ पानी से धोएं।पीयूष का कहना है कि यह मशीन खासकर ग्रामीण महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है। आज से चालीस साल पहले बुल्गारिया में इसी तरह की मशीन का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन वो मशीन काफी भारी होती थी जो एक साथ कई कपड़ों को धोया करती थी। उसी से प्रेरणा लेते हुए पीयूष अग्रवाल ने यह हल्की और छोटी मशीन इजात की है। जो एक बाल्टी में आसानी से इस्तेमाल की जा सकती है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">‘वीनस’ बनाने के पीछे की कहानी</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">पीयूष अग्रवाल के मुताबिक आठ साल पहले उनकी मां की ब्रेन की सर्जरी हुई थी जिसके बाद उन्हें पैरालिसिस हो गया था। वो हमेशा बिस्तर पर रहती थीं। इस दौरान पीयूष के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी उनकी मां के बिस्तर की चादर और कपड़ों को धोना। वॉशिंग मशीन में कपड़े धोना स्वच्छता के लिहाज से ठीक नही था,और बाथरूम में कपड़े धोने का मतलब यह है कि हर बार बाथरूम को अच्छी तरह साफ करना,जो कभी कभी काफी मुश्किल होता था उसी दौरान पीयूष अग्रवाल के मन में एक ऐसी पोर्टेबल वॉशिंग मशीन बनाने का ख्याल आया जो आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सके,कपड़े भी साफ धोए, साथ ही टाइम और पैसे भी बचाए,उसकी का परिणाम है ‘वीनस’..</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">‘वीनस’ को बनाने में सिर्फ सात लोग शामिल हैं। पीयूष के अनुसार उनकी कंपनी अभी नई है इसलिए ज्यादा निवेश नही हो पाया। लेकिन उनके ग्रुप में जितने भी लोग हैं वो सब अपने अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ हैं इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। सबकी मिली जुली मेहनत का नतीजा है वीनस।</span></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large; font-weight: bold;"><br /></span></div>
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><div style="text-align: justify;">
<b>बनाने में क्या क्या दिक्कतें आईं?</b></div>
</span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">इसे बनाना आसान नहीं था। कई चुनौतियां सामने आई लेकिन कहते है कि अगर आप अपने सपने को साकार करने का मन बना लें तो कुछ भी मुश्किल नहीं रहता।जो लोग अपनी असफलता का जिम्मेदार समय और संसाधनों की कमी को मानते हैं वैसे लोग पीयूष को बिलकुल पसंद नहीं,बल्कि आपके पास जितने भी संसाधना है उन्हीं से अपने काम को पूरा करें। यह भी जान लें कि चुनौतियां ज्यादा समय के लिए आप पर हावी नही हो सकती। अब सबसे बड़ी चुनौती लोगों को यह समझना है कि श्वीनसश् बेहतरीन होने के साथ-साथ इसकी कीमत भी सही है।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-25704755003907630152017-04-13T11:33:00.001+05:302017-04-21T16:39:08.688+05:30सूरजदीन का इंजन देगा कोहरे को मात<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कोहरे के कारण अब ट्रेन लेटलतीफी का शिकार नहीं होंगी। इसके साथ ही दुर्घटनाओं का ग्राफ भी शून्य होगा। सुलतानपुर जिले के गुप्तारगंज के सूरजदीन यादव ने एक ऐसा इंजन बनाया है जो भीषण कोहरे में भी सामान्य गति से चलेगा। बड़ी बात यह है कि उनकी इस पूरी तकनीक को लागू करने के लिए रेलवे को मात्र आठ से दस हजार रुपये खर्च करने होंगे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">ऐसे काम करेगा यह इंजन :</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">किसी भी रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म से 1200 मीटर दूरी पर डिस्टेंस सिग्नल के आते ही इंजन में नीली बत्ती जलने लगेगी और हॉर्न बजना शुरू हो जाएगा। टेªन के होम सिग्नल यानी प्लेटफार्म पर आने से पहले इंजन में लाल व हरी लाइटें जलने लगेंगी। ड्राइवर सचेत हो जाएगा कि उसे प्लेटफार्म पर गाड़ी लेनी है। सूरजदीन का दावा है कि कोहरा होने पर स्टेशन से पहले आने वाले सभी प्रकार के सिग्नल की जानकारी इंजन में लगे उपकरणों के माध्यम से ड्राइवर को मिलती रहेगी। सिग्नल देखने के लिए ड्राइवर को कोहरे में अपना सिर इंजन के बाहर नहीं निकालना पड़ेगा और न ही ट्रेन की गति धीमी करनी पड़ेगी।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-EN2fteFxdD8/WO8U7N77BpI/AAAAAAAAQLM/37Cq9Isv-5QYm9pj5fuO0EAlNwsHJ35vgCK4B/s1600/08_05_2015-08-5_up_4.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="434" src="https://1.bp.blogspot.com/-EN2fteFxdD8/WO8U7N77BpI/AAAAAAAAQLM/37Cq9Isv-5QYm9pj5fuO0EAlNwsHJ35vgCK4B/s640/08_05_2015-08-5_up_4.jpg" width="640" /></span></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b>
<b>घर पर ही बनाया रेलवे ट्रैक :</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सूरजदीन यादव इस आधुनिक इंजन को बनाने में 13 वर्ष से अधिक समय से लगे थे। उन्होंने घर में ही पूरा टैªक लोहे के एंगल का जाल बनाकर बिछाया और इंजन का मॉडल बनाकर परीक्षण किया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">डीआरएम को सौंपी सीडी :</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सूरजदीन ने इंजन के संचालन से संबंधित सीडी व कुछ दस्तावेज उत्तर रेलवे लखनऊ मंडल के डीआरएम अनिल कुमार लाहोटी को सौंपे हैं। लोहाटी का कहना है कि सूरजदीन के इंजन में मेहनत की गई है। रेलवे के लिहाज से यह कितना सफल होगा इसके लिए फिलहाल संबंधित सीडी व कागजात सीनियर डीएसटी को दिए गए हैं। पूरा प्रयोग देखा जाएगा। सूरजदीन ने अपनी खोज की जानकारी डीवीडी के माध्यम से प्रधानमंत्री व रेलमंत्री को भी भेजी है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">अब मानव रहित फाटक पर ध्यान</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सूरजदीन अब ऐसी तकनीक पर काम कर रहे हैं जिससे मानव रहित फाटक से 500 मीटर पहले इंजन में अपने आप हाॅर्न बजने लगेगा। इससे ड्राइवर व मानव रहित पटरी से गुजरने वाले लोग भी सचेत हो जाएंगे। इसी तरह दो स्टेशनों के बीच पटरी टूटने पर दोनों स्टेशनों का पता चल जाएगा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">सिर्फ कक्षा आठ ही पास हैं सूरजदीन यादव :</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आर्थिक तंगी के कारण सूरजदीन यादव जी अपनी शैक्षिक योग्यता जारी नहीं कर पाये। उन्होंने बताया कि कक्षा आठ के बाद वह आगे नहीं पढ़े, लेकिन बचपन से ही तकनीकी कार्यों में उनकी रुचि थी। उन्होंने बताया कि खेती से होने वाली थोड़ी बहुत आय का हिस्सा भी वे अपने इसी तकनीकी खोजों पर खर्च करते रहे हैं।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-59294733237584555102017-04-13T11:28:00.004+05:302017-04-21T16:39:31.643+05:30उत्तराखंड के दीपक ने प्लास्टिक कचरे से बनाई एल<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उत्तराखंड के डॉ. दीपक पंत ने प्लास्टिक कचरे से एलपीजी बनाने में सफलता प्राप्त की है। इस कामयाबी पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनको आविष्कार अवार्ड-2017 से सम्मानित करेंगे। देहरादून, ख्जेएनएन,रू विश्व पर्यावरण के लिए गंभीर संकट बनते जा रहे प्लास्टिक कचरे को वरदान में बदलने में उत्तराखंड के डॉ. दीपक पंत को कामयाबी मिल चुकी है। उन्होंने प्लास्टिक कचरे से एलपीजी बनाने में सफलता प्राप्त की है। उनकी इस कामयाबी पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनको आविष्कार अवार्ड-2017 से सम्मानित करेंगे। अवार्ड के रूप में एक लाख रुपये व ट्रॉफी प्रदान की जाएगी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पिथौरागढ़ निवासी व वर्तमान में हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित केंद्रीय विवि में पर्यावरण विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष एवं डीन डॉ. दीपक पंत ने बताया कि प्लास्टिक हमारे दैनिक कार्यकलापों में शामिल हो चुका है। यह वरदान की तरह है, लेकिन कुप्रबंधन और शुरुआती अवस्था में इसके वेस्ट का समुचित उपयोग न होने से यह अभिशाप बन रहा है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">भारत में प्लास्टिक की प्रतिदिन घरेलू खपत 120 ग्राम प्रति व्यक्ति है। जिससे 100 ग्राम एलपीजी तैयार की जा सकती है। डॉ. पंत को विज्ञान एवं पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका के लिए अभी तक 20 से अधिक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। हरित तकनीक से बेकार वस्तुओं को उपयोग पर वह पांच पेटेंट करवा चुके हैं। उनकी 10 किताबें भी प्रकाशित हो चुकी है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">इस तरह से किया आविष्कार:</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">प्लास्टिक कचरे के डिग्रेशन के लिए आमतौर पर ठोस एसिड उत्प्रेरक विधि का प्रयोग किया जाता है। डॉ. पंत ने आरंभिक प्रयोगों में ठोस एसिड के स्थान पर एलुमिनिया की तरह कुछ अक्रिय मृदा पदार्थ व द्रव एसिड का प्रयोग किया। इसके बाद बेकार प्लास्टिक को 125-130 डिग्री सेल्सियस तापमान पर उबालने पर तेल प्राप्त हुआ। इस प्रक्रिया को फिर से एलपीजी में संशोधित किया गया।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-56907693314275588572017-04-13T11:24:00.004+05:302017-04-21T16:39:58.934+05:30खास किस्म की छतरी में लगा है पंखा और लाइट, मोबाइल भी होगा आसानी से चार्ज<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आमतौर पर हम छतरी का इस्तेमाल धूप या बारिश से बचने के लिए करते हैं। क्या आपने ऐसी छतरी के बारे में सुना है जो आपका मोबाइल भी चार्ज करे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">दरअसल ऐसी ही एक छतरी मेहरचंद पॉलीटेक्निक कॉलेज में मैकेनिकल विभाग के अंतिम वर्ष के छात्रों ने तैयार की है। इंद्रप्रीत सिंह, निखिल दत्ता, ध्रुव चडडा, गुलाब चोपड़ा और राहुल शर्मा ने स्मार्ट अंब्रेला नामक प्रोजेक्ट तैयार किया है। इसमें उन्होंने सोलर पैनल लगाया है, जोकि धूप में अपने आप चार्ज होता रहेगा। उन्होंने छतरी में एक पंखा भी लगाया है, जो कि सोलर पैनल या बैटरी की मदद से चलेगा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-MipUAjFbhk8/WO8SfcxzbJI/AAAAAAAAQLA/PLWnlqMJeMkrC7Ssfo3vgoKf-25J8_9WACK4B/s1600/05_04_2017-umbrella.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="530" src="https://2.bp.blogspot.com/-MipUAjFbhk8/WO8SfcxzbJI/AAAAAAAAQLA/PLWnlqMJeMkrC7Ssfo3vgoKf-25J8_9WACK4B/s640/05_04_2017-umbrella.jpg" width="640" /></span></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इंद्रप्रीत सिंह ने बताया कि न केवल छतरी में उन्होंने पंखा लगाया है बल्कि इसमें चार्जिग की भी सुविधा है। बड़ी ही आसानी से आप अपना मोबाइल भी चार्ज कर सकते हैं चाहे कहीं भी आप छतरी लेकर चले जाएं। गुलाब ने बताया कि अंधेरे में भी इस छतरी की मदद ले सकते हैं क्योंकि इसमें हमने लाइट्स भी लगाई हैं। इतना सब कुछ लगा होने के बावजूद छतरी आसानी से फोल्ड भी हो जाएगी क्योंकि इसमें लगे उपकरण बहुत छोटे-छोटे हैं। बस आम छतरी के मुकाबले इसका भार 200 ग्राम ज्यादा होगा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">निखिल ने बताया कि उन्हें ये आइडिया उनके प्रोफेसर सुशांत ने दिया था। इसके बाद हमने इंटरनेट पर रिसर्च की और दो दिनों में इसे तैयार किया। साइंस सिटी के टेक फेस्ट में हम तीसरे स्थान पर रहे थे। इसकी कीमत 1000 रुपये के करीब होगी। उन्होंने बताया कि जल्द ही वे इसका पेटेंट भी करवाएंगे।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-29496724332654739882017-04-13T11:18:00.000+05:302017-04-21T16:40:21.137+05:30‘लेनरो’ वो जगह जहां पर पुरानी किताब दें और बदले में लें दूसरी किताब <div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अगर आप किताब पढ़ने के शौकिन हैं और धीरे धीरे आपके पास किताबों का ढेर लग जाये तो आप क्या करेंगे। शायद आप उन किताबों को बुक शेल्फ या किसी बॉक्स में संभाल कर रख देंगे। लेकिन अगर आपको एक ऐसा प्लेटफॉर्म मिल जाये जहां पर आप अपनी पढ़ी हुई किताब ऐसे किसी व्यक्ति को दें जिसने वो किताब ना पढ़ी हो और वो व्यक्ति आपको ऐसी किताब दे जो आप पढ़ना चाहे तो कैसा हो। इससे ना सिर्फ एक दूसरे को मुफ्त में अच्छी किताब पढ़ने को मिलेगी बल्कि आपका अपना सामाजिक दायरा भी बढ़ेगा। कुछ ऐसी ही कोशिश की है दिल्ली में रहने वाले सौरव हुड्डा ने। जिन्होने ‘लेनरो’ नाम से एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार किया है जहां पर एक लाख से भी ज्यादा किताबें पढ़ने को मिल जाएंगी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-sVSKqcEgfo0/WO8RBtfHUII/AAAAAAAAQK0/8UOwsvNT_oEHWJICZOx5nG8QWJqR_R-0gCK4B/s1600/download.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="320" src="https://3.bp.blogspot.com/-sVSKqcEgfo0/WO8RBtfHUII/AAAAAAAAQK0/8UOwsvNT_oEHWJICZOx5nG8QWJqR_R-0gCK4B/s640/download.jpg" width="640" /></span></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सौरव शुरूआत से ही अपना कुछ करना चाहते थे, जब उन्हें इस प्लेटफार्म का आइडिया आया तब उन्होंने ‘इंफोसिस’ से इस्तीफा देकर अगस्त,2015 में अपनी एक कंपनी ‘लेनरो’ बनाई। सौरव ने इस काम शुरू करने से पहले द्वारिका के एक अपार्टमेंट में करीब 100 लोगों के बीच सर्वे किया। सर्वे में 75 प्रतिशत लोग आपस में किताबों का आदान प्रदान करना चाहते थे, लेकिन उनका कहना था कि अपार्टमेंट में वे किसी को जानते ही नहीं इस वजह से वे किताबों को यूं ही संभाल कर रख देते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सौरव का कहना है कि 80 प्रतिशत लोग मशहूर लेखकों की किताबें पढ़ते हैं और एक ही सोसाइटी में एक ही लेखक की किताब कई लोगों के पास होती है और इसी किताब को अगर एक दूसरे के साथ बांट कर पढ़ा जाये तो ना सिर्फ उनका पैसा बचेगा बल्कि समय की भी बचत होगी, क्योंकि पढ़ने के बाद वे किताबें एक तरीके से उनके लिए बेकार ही हो जाती हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अपने काम करने के तरीके के बारे में सौरव का कहना है कि इनकी वैवसाइट में रजिस्ट्रेशन के बाद किसी व्यक्ति को अगर किताब लेनी होती है तो वो बोरो का बटन दबाकर अपनी ओर से किताब के लिए अनुरोध कर सकता है। जिसके बाद वो किताब जिसके भी पास होगी वो उस अनुरोध को स्वीकार कर लेता है। जिसके बाद दोनों लोग मिलने का स्थान, दिन और वक्त तय कर मिलते हैं और किताबों का अदान-प्रदान करते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अभी तक ‘लेनरो’ में देशभर के करीब 4500 लोग जुड़ कर किताबों की अदला बदली कर रहे हैं। इसमें सबसे ज्यादा लोग दिल्ली और बेंगलुरू के लोग हैं जबकि हैदराबाद, चेन्नई, अहमदाबाद, कोलकाता और इंदौर ऐसे दूसरे शहर हैं जहां पर लोग इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर किताबों की अदला बदली करते हैं।सौरव की कोशिश है कि वो लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करें कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस प्लेटफॉर्म पर रजिस्टर्ड हों जिससे ज्यादा लोग के बीच किताबों का आदान प्रदान हो सके।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सौरव के मुताबिक अभी ‘लेनरो’ में 5 लोगों की टीम है। अपनी फंडिंग के बारे में उनका कहना है कि शुरूआती निवेश उन्होंने खुद किया है। अभी उनका सारा ध्यान लोगों के विचार लेने और उनकी समस्याओं को समझने पर है। उनका कहना है कि वो कुछ वक्त बाद अपने काम के विस्तार के लिए फंडिंग के विकल्प तलाशने की कोशिश करेंगे। भविष्य की योजनाओं के बारे में उनका कहना है कि फिलहाल उनका सारा ध्यान भारत में इसके विस्तार को लेकर है। उसके बाद वो चाहते हैं कि इस काम को वे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक भी ले जायें। ताकि हर देश के लोग अपने आस पास के एरिया में किताबों का आदान प्रदान कर सकें।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-ktccEizf0T8/WO8Q7FmiDUI/AAAAAAAAQKs/kFIzCfbdunEWHbKcQzdP7mz_zqnHWFp2ACK4B/s1600/download%2B%25281%2529.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="320" src="https://4.bp.blogspot.com/-ktccEizf0T8/WO8Q7FmiDUI/AAAAAAAAQKs/kFIzCfbdunEWHbKcQzdP7mz_zqnHWFp2ACK4B/s640/download%2B%25281%2529.jpg" width="640" /></span></a></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-23874605677482823412017-04-13T11:15:00.004+05:302017-04-21T16:42:23.622+05:30किसानों को बेहतर जीवन और लोगों को जैविक खाद्य पदार्थ देने की कोशिश है ’अनुबल एग्रो’<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हर किसी के जीवन में एक समय ऐसा भी आता है जब सही समय, सही स्थान और सही कारणों का एक संगम होता है। जितेंद्र सांगवान के जीवन में वह समय तब आया जब वे आईसीआईसीआई लोम्बार्ड और अवीवा जैसी कंपनियों के साथ एक बेहद सफल काॅर्पोरेट करियर के अनुभव के बावजूद अपनी मनमर्जी की नौकरी पाने में असफल रहे। बस उसी समय उन्होंने अपना कुछ काम करने के बारे में सोचा लेकिन क्या करना चाहिये इसे लेकर वे संशय में थे। हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित अपने पैत्रक गांव थोल की एक यात्रा के दौरान उन्होंने खेती को एक विकल्प के रूप में अपनाने के बारे में सोचा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-vaYn-6a9pj8/WO8Qg4oRAPI/AAAAAAAAQKk/f7l1f9MS29E9wfMxbOJnR0-qdJuc5PB9ACK4B/s1600/download.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="320" src="https://2.bp.blogspot.com/-vaYn-6a9pj8/WO8Qg4oRAPI/AAAAAAAAQKk/f7l1f9MS29E9wfMxbOJnR0-qdJuc5PB9ACK4B/s640/download.jpg" width="640" /></span></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उस समय को याद करते हुए वे कहते हैं, ‘‘जब भी मैं थोल जाता तो एक बात मेरी समझ में बिल्कुल स्पष्ट तरीके से आती कि वहां के किसान खुश नहीं हैं। वे अपने बच्चों को खेती से दूर रखने के इच्छुक रहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि इसमें एक उज्जवल भविष्य नहीं है।’’ उन्होंने जितना अधिक इस बारे में विचार किया वे खुद को उतना ही अधिक समझाने में सफल रहे कि अगर उन्हें अपने दम पर कुछ करना ही है तो उन्हें खेती से संबंधित एक वैकल्पिक मार्ग को चुनना ही होगा। और बस इसी दौरान उनके मन में जैविक खेती (आॅर्गेनिक फार्मिंग) के साथ आगे बढ़ने का विचार आया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">साथ जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिये एक बिल्कुल नया अनुभव</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उनके सामने सिर्फ एक समस्या थी और वह यह थी कि उन्हें खेती के क्षेत्र में कोई भी पुराना अनुभव नहीं था। उनके पिता भारतीय वायुसेना में एक अधिकारी के पद पर तैनात रहे थे और केंद्रीय विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने स्नातक किया। स्नातक के बाद उन्होंने सिंबायोसिस पुणे से एमबीए किया जो बाद में जाकर उनके व्यवसायिक करियर के लिये एक प्रवेश द्वार साबित हुआ। स्वाभाविक रूप से उनके माता-पिता और मित्र भी उनके इस फैसले को लेकर सशंकित थे। वे हंसते हुए कहते हैं, ‘‘मैंने न सिर्फ अपने करियर को पीछे छोड़ दिया था बल्कि मैंने एक ऐसे गांव में रहने का फैसला किया था जहां इंटरनेट तो दूर की बात है बिजली भी नहीं थी।’’ आखिरकार वे अपने समर्थकों को अपने साथ लाने में सफल रहे जिन्होंने उन्हें भावनात्मक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर मदद की क्योंकि उन्हें अपने इरादे पर पूरा भरोसा था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आखिरकार नवंबर 2012 में मात्र एक लाख रुपये की प्रारंभिक पूंजी के साथ कुरुक्षेत्र के अपने फार्म से सीधे दिल्ली और एनसीआर के घरों को जैविक खाद्य पदार्थ उपलब्ध करवाने के एकमात्र उद्देश्य के साथ अनुबल एग्रो प्रोडक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की गई। अपने तमाम अनुसंधानों के बावजूद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती जैविक खेती से संबंधित जानकारी को जुटाने की थी क्योंकि यहां पर लगभग हर कोई रसायनों और कीटनाशकों का प्रयोग करते हुए पारंपरिक खेती ही कर रहा था।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हालांकि उनका सफर प्रारंभ में काफी धीमा रहा लेकिन समय के साथ स्थितियां इनके अनुकूल होती गईं और अनुबल ने दिल्ली और एनसीआर के क्षेत्र में रहने वालों के लिये उत्पादों को उगाना और बेचना प्रारंभ कर दिया। अनुबल एग्रो का इरादा भारत में जैविक खेती को बढ़ावा देते हुए एक ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र की स्थापना करना है जहां किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरकों, विकास कारकों और कीटनाशकों जैसे कृत्रिम बाहरी तत्वों का प्रयोग किये बिना सतत उत्पादकता हासिल करने मेें मदद करने का है। ये अपने उपभोक्ताओं को प्रमाणिक जैविक खाद्य पदार्थ उपलब्ध करवाना चाहते हैं और इसी क्रम में वे किसानों को भी जैविक खेती अपनाकर आत्मनिर्भर बनने में मदद करना चाहते हैं।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">खेत से लेकर आपकी प्लेट तक सिर्फ जैविक</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पारंपरिक किसान मंडी के दामों, मौसमी कटावों और निष्क्रिय कीटनाशकों पर काफी हद तक निर्भर रहते हैं। हालांकि शहरी इलाकों में रहने वाले भारतीय अब जैविक खाद्य पदार्थों का उपयोग प्रारंभ कर रहे हैं और अब वे उच्च गुणवत्ता वाले प्राकृतिक खानों को प्राथमिकता दे रहे हैं। जितेंप्र अपने आसपास के क्षेत्र के किसानों को जैविक खेती के लिये प्रोत्साहित करना चाहते थे और उन्होंने निःशुल्क बीज, बायो इनपुट और परामर्श के माध्यम से इन किसानों की मदद में कोई कसर नहीं छोड़ी। जितेंद्र का दावा है कि प्रारंभिक दौर में कम उपज की क्षतिपूर्ति करने के लिये वे इन किसानों को अपनी जेब से बाजार दाम से 10 प्रतिशत अधिक का भुगतान करते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">‘‘हम अपने प्रतिस्पर्धियों की तुलना में अपेन उत्पादों को 20 से 30 प्रतिशत कम दरों पर बेचते हैं। चूंकि हमें किसी भी बिचैलिये या खुदरा विक्रेता को कैसा भी कोई कमीशन नहीं देना पड़ता और इसके अलावा हमारा मार्केटिंग इत्यादि का भी कोई खर्चा नहीं है ऐसे में हम उस लाभ को अपने अंत अपभोक्ता तक आसानी से पहुंचाते हैं। इस प्रकार से बचे हुए पैसे को हम किसानों के लिसे बीज और अन्य सामग्री खरीदने में प्रयोग करते हैं और उन्हें जैविक खेती प्रारंभ करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। हम रुचि दिखाने वाले किसानों के साथ 10 वर्ष का करार करते हैं और उनकी जमीनों को अपने लाईसेंस के अंतर्गत प्रमाणित करते हैं।’’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अनुबल फसलों की कई किस्मों को उगाते हैं और फिर खाद्य पदार्थों को प्रोसेस करके पैक करते हैं। इनके उत्पादों में गेहूं, होल वीट आटा, बासमती चावल, चावल का आटा, काला चना, साबुत मूंग, लाल आलू और दलिया शामिल हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अनुबल अपने उत्पाद सीधे अपने उपभोक्ताओं को बेचते हैं ओर फिलहाल ये सप्ताहांतों में विभिन्न सोसाइटियों के बाहर कियोस्क लगाकर बिक्री करते हैं। इनके पास कोई भी स्थाई कर्मचारी नहीं है क्योंकि सारा काम अस्थाई कर्मचारियों की मदद से पूरा हो जाता है। प्रति सप्ताहांत में होने वाली बिक्रीः दालेंः 2 से 3 किं्वटल, आलूः 4 से 5 किं्वटल, चावलः 2 से 3 किं्वटल, चावल का आटा 2 से 3 किं्वटल और दलियाः 50 किलो से 1 किं्वटल।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">बदलाव के वाहक</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">जितेंद्र कहते हैं, ‘‘हमनें खेती के पारंपरिक तरीके को बिल्कुल बदल दिया है और अब हम अपनी उपज को बिना किसी मध्यस्थ के एएनएम सिद्धांत के आधार पर बेचते हैं। भारतीय किसान काफी लंबे समय से ऐसे ही किसी माॅडल की तलाश में थे लेकिन बिना सरकारी या किसी काॅर्पोरेट सहायता के उनके लिये ऐसा कर पाना नामुमकिन है। इस पारिस्थितिकितंत्र से बिचैलियों को बाहर करके हमनें एक ऐसी व्यवस्था प्रारंभ की है जहां उपभोक्ता सीधे किसानों से बात कर सकते हैं और यहां तक कि अगर वे चाहें तो उनके खेतों तक भी आ सकते हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है और हमें यकीन है कि यह भारतीय खेती की दुनिया में एक बड़े परिवर्तन का वाहक बनेगा क्योंकि इसकी मदद से किसानों के रहन-सहन के स्तर में सुधार आएगा और वे दोबारा खेती को एक काम के रूप में अपनाने के लिये प्रेरित होंगे।’’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अगर भारतीय कृषि उद्योग की वर्तमान परिस्थिति पर नजर डालें तो एक ऐसे माहौल में जहां परेशानहाल किसान लगातार आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं ऐसे में बिना किसी भी प्रकार की वित्तीय मदद और सरकारी सहयोग के किसी को भी अपने ब्रांड के तहत सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिये उन्हें जैविक खाद्य पदार्थों की खेती के लिये प्रोत्साहित करना काफी मुश्किल काम है। ऐसे में अनुबल जैसे उद्यम किसानों को अधिकाधिक जैविक खाद्य पदार्थों का उत्पादन करने और उन्हें वितरित करने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा वे कई बड़े औद्योगिक घरानों को भी इस क्षेत्र में कदम बढ़ाने के लिये आमंत्रित कर रहे हैं जो सीधे किसानों के साथ डील करने के लिये निवेश करने के इच्छुक हों।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<b><span style="font-size: large;">विस्तार की योजनाएं</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इनके पास आने वाले 80 प्रतिशत से भी अधिक उपभोक्ता वे होते हैं जो पूर्व में इनके उत्पाद प्रयोग कर चुके होते हैं। अब अनुबल एग्रो अपने उत्पादों को यूरोपीय और अन्य एशियाई देशों में निर्यात करने पर भी विचार कर रहे हैं। भारतवर्ष की बात करें तो ये अपना विस्तार मुंबई, बैंगलोर, पुणे, हैदराबाद और कोलकाता जैसे मेट्रो शहरों में करने के लिये प्रयासरत हैं और इनका इरादा नूडल्स, पास्ता, जूस और मसालों के अलावा काॅर्नफ्लेक्स और नाश्ते के काम आने वाले अन्य प्रकार के जैविक प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को भी अपनी उत्पाद श्रृंखला में का हिस्सा बनाने का है। इन्हें उम्मीद है कि ये वर्ष 2016 में 50 लाख रुपये से अधिक का व्यापार करने में सफल रहेंगे।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-4594314289272124822017-04-12T16:54:00.003+05:302017-04-21T16:42:52.611+05:30देश कि मिट्टी को बचाओ<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हम लोगो मे से अधिकांश को पता है कि बिना मिट्टी के इस पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है। पिछले कुछ सालों मे हमारे द्वारा अपनायी गयी तकनीकों के कारण हमारी मिट्टी से आवश्यक पोषक तत्व नष्ट होते जा रहे है और उसकी वजह से पूरे विश्व मे अकाल और भुखमरी का दौर चल रहा है। यह बात उन लोगों को शायद समझ नहीं आएगी जिनका मिट्टी से कोई सीधा संपर्क या रिश्ता नहीं है। जिनके लिए उनका खाना रिलायंस फ्रेश जैसे बड़े स्टोर से आता है या जो रेस्टोरंट मे खाने के आदि हो चुके है पर जिसने अपने जीवन को अगर थोड़ी बहुत भी बागवानी की है वो अच्छी तरह जनता है की मिट्टी की अच्छी गुणवत्ता फसल के परिणामों को पूरी तरह बदल सकती है। वो यह भी जनता है कि मिट्टी का काम सिर्फ खाना उगाने तक ही सीमित नहीं है। यह जंगलों, झीलों, नदियों और घास के मैदानों में पायी जाने वाली अद्भुत वनस्पति और जैव विविधता के संरक्षण में अहम भूमिका निभाती है। यहीं पेड़-पौधे बड़े होकर मिट्टी को वर्षा के जल के साथ बह जाने से रोकने का काम करते है। इसके अलावा मिट्टी भू-जल संरक्षण, नदियों के पानी के संरक्षण और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने मे भी बेहद मददगार साबित होती है।</span></div>
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<a href="http://2.bp.blogspot.com/-upefSJXv2vg/WO4OFcMo7lI/AAAAAAAAQKE/RxNHUtAICNAwxN7dU6Wzlx5o3t6XwYCUACK4B/s1600/3.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="480" src="https://2.bp.blogspot.com/-upefSJXv2vg/WO4OFcMo7lI/AAAAAAAAQKE/RxNHUtAICNAwxN7dU6Wzlx5o3t6XwYCUACK4B/s640/3.jpg" width="640" /></span></a></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हमारी मिट्टी मे पृथ्वी का इतिहास छुपा हुआ है। लाखों सालों से पृथ्वी द्वारा तैयार किए गए खनिज इसी मिट्टी मे सुरक्षित है। पृथ्वी के भविष्य के लिए भी मिट्टी का जिंदा रहना बेहद आवश्यक है क्योंकि मिट्टी मे पाये जाने जैविक पदार्थ, विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म और अति-सूक्ष्म जीवाणु कार्बन के मुखी स्त्रौत है, जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। जब तक यह जीवाणु मिट्टी में मौजूद रहेंगे तब तक क्लाइमेट चेंज की समस्या से जंग जीतने की हमारी उम्मीद भी जिंदा है। परंतु जब से हमने अपने खेती के तौर तरीकों को बदलना शुरू किया है और खेती मे कई तरह के रसायनों का प्रयोग शुरू किया है, हम लगातार मिट्टी की हत्या करने की कोशिश कर रहें है पर हकीकत यह है की हम आत्महत्या कर रहें है। हम अपने ही विनाश को हँसते हुए आमंत्रित कर रहे है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इश्तियाक अहमद जो लंबे समय से किसानों के साथ देशी बीजों के संरक्षण पर काम कर रहे थे, को आधुनिक खेती के तौर-तरीकों से मिट्टी को होने वाले नुकसान का भान हुआ तब वे ग्रीनपीस नाम की संस्था के साथ जुड़कर मिट्टी की सेहत को सुधारने का काम कर रहे है।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<a href="http://1.bp.blogspot.com/-x5idiu2k5cU/WO4OMsSiZdI/AAAAAAAAQKM/-kdYbedsVo8uzWeqIWvvG2ZjjyucR-FWQCK4B/s1600/1.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="480" src="https://1.bp.blogspot.com/-x5idiu2k5cU/WO4OMsSiZdI/AAAAAAAAQKM/-kdYbedsVo8uzWeqIWvvG2ZjjyucR-FWQCK4B/s640/1.jpg" width="640" /></span></a></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इश्तियाक जी बताते है की जब वे इस काम को शुरू कर रहे थे तब उन्होने बिहार के हजारों गाँवो मे किसानो के साथ मिलकर इस बात पर चर्चा की थी। वे आगे कहते है की हर जगह से एक ही बात निकल कर आ रही थी की मिट्टी की हालत बहुत ही ज्यादा खराब है पर किसानों के पास इस समस्या का कोई समाधान नही है। किसान जानते थे की मिट्टी की खराब सेहत की वजह से केंचुए मिट्टी से गायब हो चुके थे। कई सारे कीट-पतंग और उन्हे खाने वाले पक्षी गाँव को छोड़कर जा चुके थे। रसायनिक खाद की वजह से उनके कुओं का पानी दूषित हो चुका था। फिर भी किसान देशी तरीकों की तरफ लौटना नहीं चाह रहा था क्योंकि उसे भरोसा नहीं था की उन तरीकों से उसे पर्याप्त उपज मिल पाएगी। दूसरी तरफ समस्या यह भी थी की पिछले कुछ समय मे गाँवो मे पशुओं की संख्या मे बेहद कमी आ चुकी थी जिस वजह से किसानो के पास खाद के लिए पर्याप्त गोबर भी उपलब्ध नही रहता था। जो भी गोबर किसानो के पास उपलब्ध होता था वे उसे ईंधन के रूप मे प्रयोग कर लेते थे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">तब उन्होने ग्रीनपीस के साथ मिलकर तय किया की एक गाँव को चुना जाए और वहाँ पर किसानों के साथ मिलकर सरकारी स्कीमों का प्रयोग करते हुए एक मॉडल विकसित किया जाए जिससे दूसरे गाँव के किसान प्रेरित होकर पारंपरिक खेती की पारंपरिक तकनीकों की और लौट सकें। तब उन्होने झमूई जिले के केडीया गाँव के किसानो के साथ बात कर के वहाँ पर काम करना शुरू किया। वे बताते है की किसानों के साथ काम करना इतना आसान नहीं है क्योंकि आप किसान को यह नहीं कह सकते हो की परिणामों के लिए इंतजार करे। उसके लिए तो उसकी आने वाली फसल उसकी पूरी जमा पूंजी होती है। इसलिए हमने शुरुआत मे प्रयोग के तौर पर अमरूत पानी का निर्माण किया और उसे एक खेत पर प्रयोग कर किसानो को दिखाया। जब किसानों को इसके परिणाम दिखने लगे तो वे भी धीरे-धीरे कीटनाशकों का प्रयोग कम करने लगे है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<a href="http://1.bp.blogspot.com/-LwcuuMbzAO8/WO4OY7sJ05I/AAAAAAAAQKU/akl9K4hgaJEOEXQS1oYNDHxLNP-3HBfSQCK4B/s1600/2.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="480" src="https://1.bp.blogspot.com/-LwcuuMbzAO8/WO4OY7sJ05I/AAAAAAAAQKU/akl9K4hgaJEOEXQS1oYNDHxLNP-3HBfSQCK4B/s640/2.jpg" width="640" /></span></a></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आज बीस महीनों की मेहनत के बाद हालत यह है कि पूरे गांव मे एक भी किसान कीटनाशक का प्रयोग अपने खेत मे नहीं कर रहा है। इसके बाद हमने किसानो से बात की कि अब हमे मिट्टी कि सेहत पर काम करना चाहिए। इसके लिए हमने वर्मी कम्पोस्ट तैयार करे। चूंकि अत्यधिक रसायनों कि वजह से केंचुए खेतो से पूरी तरह गायब हो चुके थे और वर्मी बेड बनाने कि लागत किसान व्यय नहीं कर सकता था तो हमने सरकारी योजनाओं का सहारा लिया। सरकारी योजनाओं कि ही मदद से हमने पालतू जानवरो के रख-रखाव के लिए छोटी-छोटी गौशालाओं का निर्माण किया और अब हम गाँव मे किसानों के लिए बायो गैस प्लांट और कम्पोस्ट टॉइलेट का निर्माण करवा रहे है। गोबर गैस कि वजह से किसानो कि ईंधन कि समस्या सुलझ गयी है और प्लांट से निकले अपशिष्ट को वो खाद के रूप मे प्रयोग कर रहा है यही कम्पोस्ट टॉइलेट कि वजह से किसान मानव विष्टा को भी खाद बनाकर उसे खेतों मे प्रयोग कर रहा है। पानी कि समस्या के लिए हमने तालाब बनवाए है। केडीया गाँव मे अब तक किसानों ने सरकारी योजनाओं का लाभ लेते हुए अबतक 282 वर्मी खाद के बेड, 11 बायो गैस प्लांट, 5 तालाब, 5 गौशालाएँ, एक कोल्ड-स्टोरेज और कई कम्पोस्ट टॉइलेट का निर्माण कर चुके है। आज केडीया गाँव का किसान आत्मनिर्भर है। उसकी लागत बेहद का कम हो चुकी है। उसे खाद बीज और पानी के लिए बाजार पर निर्भर नहीं होना पड़ रहा है। वही दूसरी तरफ उसकी उपज भी पहले बढ़ गयी है।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इश्तियाक जी आगे जोड़ते हुए कहते है कि जब यहाँ के किसानों ने प्रकृति के साथ जुड़कर फिर से जीना शुरू किया है प्रकृति ने भी अपना पूरा आशीर्वाद इनको दिया है। खेतों अब केंचुए फिर से आने लगे है, कई तरह के पक्षी और तितलियाँ जो गाँव से लुप्त हो चुकी थी वो फिर से गाँव मे अपना घर बनाने लगे है। इश्तियाक जी बताते है कि इन सब कामों के लिए किसानों ने बेहद मेहनत की है और उन्होने सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ उठाया है, पर समस्या यह है कि पर्याप्त प्रचार के अभाव मे और सरकारी अफसरों कि अरुचियों के कारण किसान इन योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाता। सरकार योजनाएँ तो खूब बनाती है पर उसे किसानों तक पहुंचाने मे असमर्थ रही है। यहाँ पर समाज के पढे-लिखे और जागरूक लोगों कि जिम्मेदारी बनती है कैसे वे सरकार और किसान के बीच की दूरी को कम कर सकें। हमने भी केडीया गाँव में यही काम किया, जिसका नतीजा आज सबके सामने है और सरकार भी आज अपनी सभाओं मे इस गाँव का उदाहरण देती है।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-38967153283748327242017-04-12T16:51:00.001+05:302017-04-21T16:43:43.770+05:305वीं फेल शख्स ने बनाया घूमने वाला घर<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आज के समय में देश का हर युवा इंजीनियर बनने सपने देखता है। अपने सपने को पूरा करने के लिए वह अपनी आधी लाइफ तो पढ़ाई में लगा देता है और लाखों रुपए फीस में भरकर भी नौकरी मिलती है कुछ हजार रुपए की। लेकिन प्रतिभा किसी कॉलेज या स्कूल में मिलने वाली शिक्षा की मोहताज नही होती है। प्रतिभा व्यक्ति के अंदर बसती है। कुछ ऐसे होते हैं। जो पढ़ाई करके भी वो हासिल नही कर पाते जो बिना पढ़े लिखे हासिल कर लेते हैं। एक ऐसे ही शख्स हैं तमिलनाडु के मेलापुदुवक्कुदी गांव मे रहने वाले 65 वर्षीय मोहम्मद सहुल हमीद। पांचवी कक्षा में फेल होने के बाद मोहम्मद सहुल हमीद ने आर्थिक तंगी की वजह से पढ़ाई छोड़ दी थी। जब ये छोटे थे तब इनके घर के हालात ठीक नहीं थे। घर खर्च चलाने के लिए जब काम ढूंढने निकले तो उन्हें काम नहीं मिला तो ये मजदूरी करने लगे। मजदूरी करते-करते मोहम्मद सहुल हमीद घर बनाने में रूचि लेने लगे। इसके बाद मोहम्मद सहुल हमीद अरब देश जाकर रहने लगे। 20 साल वहां रहने के बाद उन्होंने घर बनाने का काम सीख लिया। अरब देश में काम करने से उन्हें वहां की नई टेक्नोलॉजी का अनुभव हो गया और फिर अपने देश वापस आकर उन्होंने यह प्रण लिया की वो भी एक ऐसा घर बनाएंगे जिसे देखने के लिए दूर-दराज के लोग आएंगे।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<a href="http://3.bp.blogspot.com/-p7DLvljOYCk/WO4NsosoueI/AAAAAAAAQJ8/kmEsjX3eJx43Gql20SWYULXOeVbICKr8QCK4B/s1600/03_02_2017-invented-revolving-home.jpg" imageanchor="1"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="530" src="https://3.bp.blogspot.com/-p7DLvljOYCk/WO4NsosoueI/AAAAAAAAQJ8/kmEsjX3eJx43Gql20SWYULXOeVbICKr8QCK4B/s640/03_02_2017-invented-revolving-home.jpg" width="640" /></span></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">देखने के लिए आते हैं दूर-दूर से इजीनियर :</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">विदेश मे कई सालों तक काम सीखने के बाद अपने गांव लौट कर उन्होंने इंजीनियरिंग का एक ऐसा नमूना खड़ा किया जिसे देखने के लिए दूर-दूर से इंजीनियर आते हैं। मोहम्मद सहुल हमीद के परिवार की आर्थिक स्थिती ठीक ना होने की वजह से उन्हें अपना स्कूल कक्षा पांच में ही छोड़ना पड़ा और कुछ कर नहीं सकते थे। कुछ आता भी नहीं था तो मजदूरी करने लग गए। मजदूरी करते-करते घर बनाना अच्छा लगने लगा। कुछ ही दिनों में ये शौक बन गया। इसलिए उन्होंने कंस्ट्रेशन लाइन मे अपना कॅरियर बनाने की सोची।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">प्री फैब्रिकेटेड संरचना :</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">गांव लौटने पर हमीद ने एक ऐसा घर बनाया जो मूव कर सकता है। इसे मूविंग टाइप हाउस कहा जाता है। इसे प्री फैब्रिकेटेड संरचना भी कहा जाता है। जब हमीद ने ऐसा घर बनाने की बात अपने दोस्तों और परीवार के सामने रखी तो सब उनका मजाक उड़ाने लगे। हमीद ने इस मूविंग हाउस को बनाने के लिए राफ्ट फाउंडेशन टेक्नॉलाजी का प्रयोग किया। मोहम्मद सहुल हमीद द्वारा बनाये इस घर में ग्राउंड फ्लोर पर 3 तथा फर्स्ट फ्लोर पर 2 बेडरूम हैं। फर्स्ट फ्लोर को आयरन रोलर की मदद से किसी अन्य दिशा में भी घुमाया जा सकता है। मुहम्मद हमीद अपने इस घर के बारे में बताते हुए कहते हैं कि ” मैं कुछ नया करना चाहता था इसलिए मैंने ये मूविंग हाउस बनाकर सबको गलत साबित कर दिया। इस अनोखे निर्माण से प्रभावित होकर राज्य के विभिन्न जगहों से इंजीनियर हमीद का घर देखने आते हैं।” 25 लाख रुपये में तैयार उनका ये प्रोजेक्ट तमिलनाडु के मेलापुदुवक्कुदी गांव में 1080 स्क्वायर फीट जमीन पर खड़ा है।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-20225254454019242632017-04-12T16:49:00.000+05:302017-04-12T16:49:07.976+05:30उबाऊ होती शिक्षा को एक मजेदार अनुभव बनाने की कामयाब कोशिश 'इंफाइनाइट इंजिनियर्स'<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">क्या आप भी यह मानते हैं कि क्लास में पीछे बैठने वाले छात्र पढ़ाई में कमजोर होते हैं? क्या पीछेे बैठने वाले छात्र जिंदगी में पीछे ही रह जाते हैं? या वे कुछ नया करने के लायक नहीं होते? अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप बिल्कुल गलत हैं। क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जो हमेशा क्लास में पीछे बैठे लेकिन अपनी नवीन सोच और आइडिया ने उन्हें जिंदगी में सफल बना दिया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">एमसी जयकांत बचपन से उन बच्चों में शुमार रहे जो क्लास में हमेशा अपने लिए पीछे वाली सीट की तलाश मेें रहते हैं। क्लास में हमेशा उन्होंने औसत अंक ही पाए। स्कूल के बाद उन्होंने एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमीशन लिया। जब वे इंजीनियरिंग के तीसरे साल में थे तब छात्रों को डिज़ाइन और फ्रैब्रिकेशन के अंतर्गत प्रोजेक्ट्स दिए गए। जयकांत ने सोच क्यों न कुछ अलग बनाया जाए जो किसी ने न बनाया हो। कुछ नया करने की इच्छा मन में लेकर जयकांत ने ब्लेडलेस विंड टर्बाइन विषय को अपना प्रोजेक्ट चुना और अपना प्रोजेक्ट बनाया। कुछ समय बाद एक दिन जयकांत को उनके दोस्त ने बताया कि सेमिनार हॉल में प्रोजेक्ट की प्रेजेंटेशन चल रही है। फिर वे लोग भी सेमिनार हॉल पहुंच गए और पीछे जाकर बैठ गए ताकि उनका समय एक एसी हॉल की ठंडक में आसानी से कट सके और उन पर किसी का ध्यान भी न जाए। लेकिन एक स्टाफ कर्मचारी ने उन्हें वहां देख लिया और फिर जयकांत ने उन्हें बताया कि उनका प्रेजेंटेशन भी तैयार है और वे पे्रजेंटेशन देने आए हैं। जयकांत ने सोचा कि वे उनकी बात को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेंगे लेकिन थोड़ी ही देर बाद जब जयकांत का नाम पुकारा गया तो वे हैरान रह गए और थोड़ा घबरा भी गए। फिर किसी तरह उन्होंने खुद को बैलेंस किया और स्टेज पर आ गए। जहां उन्होंने पांच मिनट में अपना प्रेजेंटेशन दिया। लगभग एक सप्ताह बाद जयकांत को पता चला कि उस दिन के सभी प्रेजेंटेशन्स में जयकांत के प्रेजेंटेशन को सबसे अधिक अंक मिले हैं। यह खबर सुनकर जयकांत बहुत हैरान हो गए। जयकांत ने इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। बार-बार वे खुद से यही सवाल कर रहे थे कि यह कैसे हो गया? जयकांत की इस हैरानी की एक वजह यह भी थी कि जिंदगी में पहली बार वे किसी परीक्षा में प्रथम आए थे। बेशक किसी प्रेजेंटेशन में पहले स्थान पर आना कोई इतनी बड़ी घटना नहीं है लेकिन जयकांत के लिए यह पल उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट बन गया। उसके बाद जयकांत ने खुद से सवाल करने शुरु किए। खुद को टेस्ट करना शुरु किया और फिर सारे कॉलेज व और इंटर कॉलेज प्रेजेटेंशन में भाग लेना शुरु कर दिया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">इस दौरान जयकांत अपने दोस्त के साथ गोवा गये और जब वे गोवा से वापस चेन्नई लौट रहे थे कई तरह के विचार उनके दिमाग में आते जा रहे थे। चेन्नई लौटते ही उन्होंने तय किया कि अब उनके दिमाग में जैसे ही कोई क्रिएटिव आइडिया आएगा वे सभी आइडियाज को नोट करते चले जाएंगे और उन आइडियाज पर काम करेंगे। साथ ही जयकांत के दिमाग में यह सवाल भी बार-बार खड़ा हो रहा था कि आखिर क्यों आज के छात्र कुछ अलग नहीं सोच रहे हैं? क्यों वे केवल वही काम कर रहे हैं जो सालों से सभी करते आ रहे हैं? और आखिर क्यों वे खुद को केवल वहीं तक सीमित रखना चाहते हैं? जबकि सभी छात्र पढ़ने में अच्छे हैं। जयकांत इसका उत्तर पाना चाहते थे। आखिरकार उन्होंने खुद इसका जवाब भी खोजा और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस सब की वजह हैं हमारे स्कूल और शिक्षा देने का हमारा पुराना तरीका। हमारे स्कूल शुरु से बच्चे को केवल पढ़ने में ज़ोर देते हैं कुछ नया सीखने पर नहीं। ज्यादा अंक लाने के चक्कर में किसी का ध्यान इस ओर नहीं जाता कि बच्चे ने सीखा क्या। क्या केवल पढ़कर या रटकर अच्छे अंक लाना ही शिक्षा प्राप्त करना है? क्या अच्छे अंक लाने की होड़ में हम उस आनंद से वंचित नहीं हो रहे जो सच में हमें पढ़ते समय आना चाहिए?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">अब जयकांत को अपने सवाल का जवाब मिल चुका था, और इसी जवाब को जयकांत ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। अब वे नई पीढ़ी के लिए इस दिशा में तर्कसंगत तरीके से काम करना चाहते थे। छात्र जो भी पढ़े उसे तर्कसंगत तरीके से व्यवहारिक तौर पर करे जिससे उसे पढ़ाई में भी मज़ा आए और उसे सभी विषय आसानी से समझ भी आएं। शिक्षा का मतलब केवल अच्छे अंक लाने तक सीमित न हो बल्कि उसका सही इस्तेमाल हो। जब जयकांत ने इस विचार को अपने दोस्तों के साथ शेयर किया तो सभी तुरंत इस विषय पर काम करने को तैयार हो गए। फिर जयकांत ने अपने दोस्त हरीश के साथ १५ सिंतबर २०१३ में 'इंफाइनाइट इंजिनियर्स' की शुरुआत की।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">'इंफाइनाइट इंजिनियर्सÓ का मकसद व्यवहारिक विज्ञान को जमीनी स्तर यानी उनका प्रयोग करके छात्रों के समक्ष सरल तरीके से समझाकर पेश करना था ताकि बच्चे भी कुछ नया सोचें और उनका दृष्टिकोण रचनात्मक हो सके।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">जयकांत और हरीश के अलावा एस जयविगनेश, ए किशोर बालागुरु और एन अमरीश भी 'इंफाइनाइट इंजिनियर्स' के सह संस्थापक हैं। वर्तमान में यह लोग कई ट्रेनिंग सेंटर्स, रोबोटिक और ऐरो मॉडलिंग की शिक्षा स्कूल स्टूडेंटस को दे रहे हैं। इंफाइनाइट इंजीनियर्स का मकसद स्कूल के सिलेबस के साथ जुड़कर छात्रों को बेहतरीन शिक्षा अनुभव देना है जो छात्रों के लिए उपयोगी हो। मकसद शिक्षा को किताबों या ब्लैकबोर्ड तक सीमित न रखते हुए उसके प्रैक्टिकल इंप्लीमेंटेशन से उसे समझाना है। शिक्षा को बोझ नहीं बल्कि मजेदार अनुभव बनाना है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">कंपनी ने शुरुआत दो स्कूलों से की थी, लेकिन आज यह चेन्नई के लगभग अस्सी स्कूलों में काम कर रही है। जल्दी ही कंपनी अप्लाइड साइंस रिसर्च इंस्टीट्यूट बनाने की दिशा में काम कर रही है ताकि किसी भी स्कूल का छात्र यहां आकर शिक्षा प्राप्त कर सके और अपने क्रिएटिव आइडियाज से सफलता की नई ऊंचाईयों को छू सके।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><img height="320" src="https://userfilescdn.yourstory.com/uploads/production/document_image/file/8431/full_1517a8ba1b" width="640" /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<b><div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">सफलता का श्रेय -</span></b></div>
</b><div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">कंपनी के सभी लोग अपनी सफलता का श्रेय उन लोगों को देना चाहते हैं जो उनकी आलोचना करते हैं क्योंकि यही आलोचना कंपनी को और बेहतर करने की प्रेरणा देती है। एक बार कंपनी के प्रयासों को लेकर एक प्रोफेसर ने कहा कि इंफाइनाइट इंजीनियर्स एक व्यर्थ का प्रयास है जो चलने वाला नहीं है। प्रोफेसर द्वारा की गई इस आलोचना को इंफाइनाइट इंजीनियर्स के सभी सदस्यों ने संकल्प के तौर पर स्वीकार किया और अपने काम के प्रति और दृढ़ हो गए इसलिए कंपनी उक्त प्रोफेसर साहब को भी अपनी सफलता का श्रेय देती है जिन्होंने उन्हें जुनून की हद तक इस दिशा में काम करने के लिए प्रेरित किया।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">सही बात तो यह है कि पढ़ाई करने का असली तरीका क्या हो? इस सवाल का सबसे सही जवाब तो क्लास में पीछे बैठने वाले छात्र ही बेहतर तरीके से समझा सकते हैं क्योंकि वही इस सच को जानते हैं कि अध्यापकों की कौन सी बातें पीछे बैठे छात्रों को सालों से सोने पर मजबूर करती रही हैं।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-45101026580902069612017-04-12T16:47:00.004+05:302017-04-21T16:44:28.591+05:30सुनिए, बोलने में अक्षम बच्चों की ‘आवाज़’<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><img src="https://userfilescdn.yourstory.com/uploads/production/document_image/file/2237/full_5f498c7f7f" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" /></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">अजीत नारायणन, संस्थापक</span></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">आज के समय में शिक्षा के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के साथ ही क्रांति आ गई है और स्मार्टफोन और टैबलेट के प्रयोग ने इसे और भी रोचक और मनोरंजक बना दिया है। विभिन्न शारीरिक अक्षमताओं और लकवाग्रस्त बच्चों को शिक्षा देने के लिये इन तकनीकी यंत्रों और एप्लीकेशन्स का इस्तेमाल हमें एक नये युग की ओर ले जा रहा है। ऐसे बच्चे जिनको बोलने में परेशानी होती है और जिन्हें छोटी-छोटी बातें समझने में काफी समय लगता है, अब उनकी समस्या का समाधान मिल गया है। एक चित्र आधारित सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन ‘आवाज़’ ने उनकी जिंदगी ही बदल दी है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><img height="300" src="https://userfilescdn.yourstory.com/uploads/production/document_image/file/16382/full_14073c3cd8" width="400" /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">25 वाक् चिकित्सक (स्पीच थिरेपिस्ट) और 300 लकवाग्रस्त बच्चों के साथ काम करते हुए चेन्नई की इनवेंशन लैब्स की टीम ने ऐसे टेबलेट सॉफ्टवेयर ‘आवाज़’ का ईजाद किया जिसकी मदद से ये बच्चे अपने शब्दों को तस्वीरों में बदलकर दूसरों को अपने मन के भाव समझा सकते हैं। ‘आवाज़’ तस्वीरों और बढि़या क्वालिटी वाले वाइस सिंथेसिस का इस्तेमाल कर संदेश बनाता है और भाषा को बेहतर बनाता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">इसका पूरा श्रेय जाता है इनवेंशन लैब्स के संस्थापक अजीत नारायणन को। अजीत नारायण पहले प्रसिद्ध अमरीकन मेगाट्रेड्स कंपनी में नौकरी करते थे और वर्ष 2007 में उन्होंने अपनी कंपनी शुरू की। आईआईटी चेन्नई के स्नातक अजीत ने वर्ष 2009 में गूंगे लोगों की सहायता के लिये एक संचार उपकरण बनाने के साथ ही इस दिशा में अपने कदम बढ़ाए। इसके बाद उन्होंने अपनी दिशा बदली और टैबलेट और स्मार्टफोन के सॉफ्टवेयर में विशेज्ञता हासिल की।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">अजीत नारायणन का कहना है कि आईपैड और एंड्रॉयड आधारित टैबलेट जैसे उपकरण विशिष्ट जरूरतों वाले बच्चों के संचार की प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन ला रहे हैं। वे कहते हैं, ‘‘यह प्रोडक्ट तस्वीरों और हाथों के संकेतों के जरिए एक दूसरे से बात करने में बच्चों की मदद करता है। वे अलग अलग तस्वीर लेते हैं, उन्हें क्रमबद्ध करते हैं, फिर ये क्रम वाक्य में बदल जाता है और फिर उसे पढ़ा जाता है।’’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">इस समय ‘आवाज़’ तीन ग्रेड वाला रिसर्च आधारित शब्दकोश ऑफर करता है जिसमें मूल और अतिरिक्त शब्द विभिन्न कोटियों में इकट्ठा किए गए हैं। भारत के अलावा, इनवेंशन लैब्स अब यूरोप, अमरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित बाजारों में सॉफ्टवेयर अनुप्रयोग के लिए बेचता है। अजीत का दावा है कि डेनमार्क और इटली में सिर्फ ‘आवाज’ ही लकवाग्रस्त बच्चों के लिये मौजूद एप्लीकेशन है। इसके इस्तेमाल से माता पिता और बच्चों के जीवन में बहुत सुधार हुआ है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">अजीत आगे जोड़ते हुए बताते हैं ‘‘लकवाग्रस्त बच्चे और सुनने में दिक्कत का सामना करने वाले बच्चे खुद को अभिव्यक्त करने में बहुत मुश्किलों का सामना करते हैं। हालांकि उनके माता-पिता, रिश्तेदार और विशेष स्कूलों के शिक्षक संकेतों के जरिए उनकी अभिव्यक्ति को समझ सकते हैं, लेकिन यह उपकरण इस मुश्किल का हल करने में बहुत उपयोगी है,’’।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">अपने इस काम के लिए अजित को 2011 में एमआईटी टैक्नोलॉजी की नवीन आविष्कारों की वैश्विक सूची में भी नामित किया गया था। इसके अलावा उन्हें भारत के राष्ट्रपति से विकलांगों के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">‘आवाज़’ मुख्य रूप से दो घटकों, एक स्पीच सिंथेसाइजर और उसकी सहायता से संचालित होने वाले लिखित पूर्वानुमान सॉफ्टवेयर को मिलाकर बनाया गया है। स्पीच सिंथेसाइजर को विभिन्न क्षमताओं वाले अक्षम बच्चों लिये डिजाइन किया गया है। इसमें एक 7इंच की टचस्क्रीन एलसीडी, वॉयस आउटपुट के लिये स्पीकर और ऑडियो संकेतों के लिए ऑडियो जैक, यूएसबी पोर्ट, मोनो जैक पोर्ट, रिचार्जेबल बैटरी के अलावा पहिएदार कुर्सी में लगाने का विकल्प उपलब्ध रहता है। लिखित पूर्वानुमान सॉफ्टवेयर अक्षम बच्चों को वाक्य बनाने ओर फिर उन्हें दूसरों को समझाने में मदद करता है। ‘आवाज़’ में स्कैनिंग तकनीक का इस्तेमाल कर वाक्यों को तैयार किया जाता है। यह एपलीकेशन वर्तमान में अंग्रेजी भाषा में लगभग 10000 शब्दों का समर्थन करता है। इसके अलावा इसमें बच्चे की सुविधा के हिसाब से और भी शब्दों को जोड़ा जा सकता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">इस तरह से ‘आवाज़’ उन बच्चों की आवाज बनने में सफल रहा है जो अबतक अपनी बात दूसरों तक नहीं पहुंचा पाते थे। ‘आवाज़’ की मदद से ऐसे बच्चे अब अपने दिल और दिमाग में चल रहे विचारों को स्पीच सिंथेसाइजर के जरिये दूसरों के समाने अभिव्यक्त कर सकते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">अक्षम बच्चों के माता-पिता या उनके शुभचिंतक इस एप को सिर्फ 9.99 डॉलर (5 हजार रुपये) प्रतिमाह का खर्चा करके इसका प्रयोग कर सकते हैं। इसे खरीदने से पहले अगर चाहें तो परीक्षण के लिये वे पहले इसे एक सप्ताह के लिये मुफ्त में प्रयोग कर सकते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "verdana" , sans-serif; font-size: large;">फिलहाल ‘आवाज़’ अंग्रेजी और छह भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है, लेकिन इसे और भाषाओं में भी लाने की योजना पर काम च</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-25888407741476120222017-04-12T16:42:00.003+05:302017-04-21T16:45:05.884+05:30गजब आविष्कार : धरती से 'जहर' पीकर 'अमृत' देगा 'नीलकंठ'<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हरियाणा के कैथल जिले के सातवींं पास किसान लक्ष्मण सिंह ने 'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनाने का फॉर्मूला खोज लिया है। खास बात यह है कि बिना बिजली के इस यंत्र पर लागत भी ज्यादा नहीं आती।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कैथल (सुधीर तंवर)। प्रतिभा को किसी स्कूल और कॉलेज की जरूरत नहीं। वैसे भी ज्यादातर अविष्कार अनपढ़ों और कॉलेज ड्रॉपर्स के नाम दर्ज हैं। ठीक ऐसेे ही हरियाणा के कैथल जिलेे में रहने वाले एक किसान ने भी एक नया 'अविष्कार' किया है। जो काम आज तक बड़ी-ब़ड़ी कंपनियों में करोड़ों की तनख्वाह लेने वाले इंजीनियर नहीं कर पाए इस सातवीं पास किसान ने वो काम महज तीस हजार रुपये में कर दिया।</span></div>
<span style="font-size: large;"><b></b></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
<b><span style="font-size: large;">
<div style="text-align: justify;">
<b>'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनानेे का फॉर्मूला निकाला</b></div>
</span></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><img border="0" src="http://www.jagranimages.com/images/11_06_2016-water.jpg" height="269" width="400" /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सौंगल के किसान लक्ष्मण सिंह ने 'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनानेे का रास्ता खोज लिया है। दरअसल, रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से भूजल 'जहरीला' होता जा रहा है। इसी 'जहरीले' पानी को हम पीते हैं, जिसका दुष्प्रभाव शरीर पर पड़ता है। इसी को मीठा बनाने के लिए लक्ष्मण ने महादेव नीलकंठ वाटर प्यूरीफायर बनाया है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;"><b></b></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><b><span style="font-size: large;">सिरमिक पाउडर और कोयले से शुद्ध होगा पानी</span></b></b></div>
<b><span style="font-size: large;">
</span></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">लक्ष्मण सिंह ने अपने इस यंत्र में पांच तरह के फिल्टर लगाए हैं। इसमें टंकी से पाइप के जरिए पानी आता है। पांचों फिल्टर पीवीसी पाइप के जरिए आपस में जुड़े होंगे। इन्हीं पांचों फिल्टरों से गुजर कर पानी शुद्ध होगा। पहले चार फिल्टरों में मौजूद ईंट-पत्थर और सिरमिक का पाउडर व लकड़ी का कोयला पानी को शुद्ध करेंंंगे। जबकि पांचवां फिल्टर पानी को पूरी तरह शुद्ध कर इसमें ऑक्सीजन भर देगा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;"><b></b></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><b><span style="font-size: large;">बिना बिजली 15 साल तक मिलेगा स्वच्छ पानी</span></b></b></div>
<b><span style="font-size: large;">
</span></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">यह वाटर प्यूरीफायर 15 साल तक स्वच्छ पानी मुहैया कराएगा। खास बात यह कि न तो इसके लिए बिजली की जरूरत होगी और न मेंटीनेंस की।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;"><b></b></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><b><span style="font-size: large;">बचा हुआ पानी भी खेती के लिए फायदेमंद</span></b></b></div>
<b><span style="font-size: large;">
</span></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">प्यूरीफायर में पानी के शुद्धीकरण के बाद बचे हुए पानी को खेती में प्रयोग किया जा सकता है। दावा है कि इसमें मौजूद फ्लोराइड साल्ट, टीडीएस, जंक और ऑक्सीजन की उपस्थिति उर्वरक का काम कर जमीन की उत्पादन क्षमता को कई गुणा बढ़ा देगी। लक्ष्मण सिंह ने कहा कि उनके खेत में खड़ा 25 फीट ऊंचा गन्ना हो या भुट्टों व गेहूं की बालियों से लदे मक्की और गेहूं के पौधे या फिर कचरियों व लौकी से लदी बेल, इस दावे को पुख्ता करती हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;"><b></b></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><b><span style="font-size: large;">तीस हजार आती है लागत</span></b></b></div>
<b><span style="font-size: large;">
</span></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">एक इंच पाइप वाला महादेव नीलकंठ प्यूरीफायर करीब 30 हजार रुपये में तैयार हो जाता है। दावा है कि यह एक घंटे में करीब पांच हजार लीटर पानी को शुद्ध कर देता है। इसी तरह दो, तीन, चार, पांच इंच पाइप वाले यंत्र का खर्च और पानी को शुद्धिकरण करने की क्षमता उसी अनुपात में बढ़ती जाती है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;"><b></b></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><b><span style="font-size: large;">कई कंपनियों ने दिए लुभावने ऑफर</span></b></b></div>
<b><span style="font-size: large;">
</span></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">लक्ष्मण सिंह से उनके प्यूरीफायर की तकनीक साझा करने के लिए कई नामी गिरामी कंपनियों ने मोटी धनराशि की पेशकश की, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। लक्ष्मण ने इस प्यूरीफायर का बाकायदा पेटेंट करा लिया है। वहीं, विशेषज्ञों ने भी इस पर मुहर लगाते हुए इसे किफायती बताया है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;"><b></b></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><b><span style="font-size: large;">समाजसेवा के साथ-साथ रोजगार देने का सपना</span></b></b></div>
<b><span style="font-size: large;">
</span></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">लक्ष्मण सिंह ने अपने इस अविष्कार के जरिए समाजसेवा के साथ-साथ युवाओं को रोजगार देने की भी योजना बनाई है। लक्ष्मण सिंह इस प्यूरीफायर का व्यापक स्तर पर उत्पादन और प्रचार करने की योजना पर काम कर रहे हैं। इसके लिए पहले वो छोटे स्तर से शुरूआत करेंगे। इसके बाद पूरे राज्य में नेटवर्क बनाया जाएगा और फिर दूसरे प्रदेशों के युवाओं को इस मुहिम से जोड़ा जाएगा। लक्ष्मण सिंह ने कहा कि देश भर में इसका प्रसार कर देने के बाद जापान जैसे दूसरे देशों के साथ इस तकनीक को साझा किया जाएगा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;"><b></b></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><b><span style="font-size: large;">फिलहाल ब्लॉक और ग्राम स्तर से करेंगे शुरुआत</span></b></b></div>
<b><span style="font-size: large;">
</span></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">लक्ष्मण सिंह ने अभी एमटेक पास पांच युवाओं की टीम बनाई है। जो कि 15 जून से विभिन्न जिलों के पांच-पांच युवाओं को पंचायती जमीन पर प्यूरीफायर बनाने का प्रशिक्षण देगी। इसके बाद ये टीमें ब्लॉक और ग्राम स्तर पर बीटेक/एमटेक युवाओं को प्रशिक्षण देंगी। जो प्यूरीफायर का निर्माण कर इसकी बिक्री करेंगी। इसे बनाने वाले युवकों को कच्चा माल लक्ष्मण सिंह ही उपलब्ध करवाएंगे</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-85419634974819200042017-04-12T16:39:00.003+05:302017-04-21T16:45:45.946+05:30 रामगढ़ की 12 वर्षीय काव्या विग्नेश करेंगी डेनमार्क में यूरोपीय रोबोटिक्स चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्या विग्नेश और उसके दोस्त डेनमार्क में रोबोटिक्स प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले सबसे कम उम्र की टीम में शामिल हैं। मधुमक्खियों को बचाने के अनूठे समाधान के साथ वे इस प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">"दिल्ली पब्लिक स्कूल, नई दिल्ली की क्लास 7 में पढ़ने वाली काव्या विग्नेश को आर्ट्स, डांसिंग और सिंगिग साथ-साथ रोबोटिक्स भी पसंद है। अच्छी एजुकेशन सिर्फ रोबोटिक्स के बारे में जानना ही नहीं, बल्कि वो सब कुछ करना होता है जो आपका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है और जिसके बारे में और अधिक जानने के लिए आप उत्सुक रहते हैं।"</span></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><img height="320" src="https://userfilescdn.yourstory.com/uploads/production/document_image/file/69562/full_a4e5881437" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" width="640" /></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: large;">12 साल की काव्या विग्नेश</span></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्या और उसकी टीम फर्स्ट लेगो लीग का हिस्सा होगी। ये एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता है, जिसमें 60 देशों के 9 से 16 वर्ष के बीच के लगभग 200,000 बच्चे भाग लेंगे।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्या विग्नेश जब नौ साल की थी उन दिनों गर्मियों की छुट्टी के दौरान उसकी माँ ने उसे रोबोलैब के रोबोटिक्स क्लासेस के लिए एनरॉल करवाया और तभी से काव्या ने मुड़ कर कभी पीछे नहीं देखा। वो अपने शौक और जुनून के साथ आगे बढ़ने लगी। काव्या अब 12 साल की है और उसकी टीम सुपरकिलफ्रागिलिस्टिक्सएक्सपीआईडियोगुसीज (Supercalifragilisticexpialidocious) फर्स्ट लेगो लीग (FLL) में शामिल होने वाली भारत की सबसे कम उम्र की टीम है। यूरोपीय ओपन चैंपियनशिप (ईओसी) की ये प्रतियोगिता इस साल के मई माह में डेनमार्क में आयोजित होने जा रही है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हालांकि टीम के नाम सुपरकिलिफ्रैजिलिस्टीक्सस्पिअडोगुसीज़ (Supercalifragilisticexpialidocious) का उच्चारण थोड़ा मुश्किल है, लेकिन काव्या के लिए यह ज्यादा कठिन नहीं है। काव्या कहती है, "ये नाम मजाक के रूप में सुझाया गया था, लेकिन हमें यह जंच गया और फिर निरंतरता बनाये रखने के लिए हमने इसे ही आगे बढ़ाया, जिसका अर्थ है- बहुत बढ़िया या अद्भुत।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">डेनमार्क में प्रतिस्पर्धा के लिए, टीम को अपने प्रोटोटाइप, यात्रा और अन्य खर्चों के लिए धन की आवश्यकता है। अन्य माता-पिता के विपरीत काव्या के माता-पिता <a href="https://www.fueladream.com/home/campaign/752">क्राउड फंडिंग</a> के माध्यम से धन जुटाने का समर्थन करते हैं, जिसके लिए काव्या ने भी अपनी टीम के साथ मिलकर धन जुटाने का काम शुरू कर दिया है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;"><b></b></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><b><span style="font-size: large;">क्या है फर्स्ट लेगो लीग</span></b></b></div>
<b><span style="font-size: large;">
</span></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्या और उसकी टीम फर्स्ट लेगो लीग का हिस्सा होगी। ये एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता है, जिसमें 60 देशों के 9 से 16 वर्ष के बीच के लगभग 200,000 बच्चे भाग लेंगे। इसके लिए प्रत्येक देश में राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। राष्ट्रीय प्रतियोगिता के विजेता को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए चुना जाता है, जहां दुनिया भर की टीमें एक-दूसरे के खिलाफ अपना कौशल दिखती हैं। काव्या और उनकी टीम ने टॉप 8 में अफनी जगह बनाई है और सूची में सबसे काम उम्र की टीम है। काव्या की ये टीम अब डेनमार्क में होने वाली एफएलएल-ईओसी प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करेगी। इस टीम में में 6 स्टूडेंट्स और 2 टीचर शामिल हैं और ये सभी सभी उस रोबोक्लब से जुड़े हुए हैं, जिससे काव्या नौ साल की उम्र से जुड़ी हुई है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">फर्स्ट लेगो लीग प्रतियोगिता इस तरह की टीमों को, ध्यान केंद्रित करने और अनुसंधान के लिए एक वैज्ञानिक और वास्तविक चुनौती देता है। प्रतियोगिता के रोबोटिक्स भाग में कार्यों को पूरा करने के लिए <a href="https://yourstory.com/2014/05/lego-techie/">लेगो</a> माइंडस्टॉर्म रोबोट की डिजाइनिंग और प्रोग्रामिंग शामिल है। छात्र उनको दी गई विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए काम करते हैं और फिर अपने ज्ञान को सभी के साथ साझा करने, विचारों की तुलना करने और अपने रोबोट को प्रदर्शित करने के लिए क्षेत्रीय टूर्नामेंट में मिलते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्या और उनकी टीम जिस परियोजना पर काम कर रहे हैं, उसे बी सेवर बॉट कहा जाता है, जो मधुमक्खियों को या मनुष्यों को नुकसान पहुंचाये बिना उन्हें सुरक्षित और सावधानीपूर्वक हटा देता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्या कहती हैं, "जब भी लोग अपने घरों में मधुमक्खी देखते हैं, तो वे कीट नियंत्रण वालों को बुलाते हैं और मधु मक्खियों के छत्तों को जला देते हैं। इससे लगभग 20,000 - 80,000 मधुमक्खियां मर जाती है। इसलिए हमने इस समस्या का एक ऐसा समाधान खोजने के बारे में सोचा जो मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचाये बिना ही उन्हें सुरक्षित रूप से वहां से स्थानांतरित कर सके। क्योंकि दुनिया की 85 प्रतिशत से अधिक फसलों का परागण मधुमक्खियों द्वारा ही किया जाता है। भोजन का हर तीसरा टुकड़ा मधुमक्खी द्वारा परागण की गयी फसल या जानवरों (जो कि मधु मक्खियों द्वारा किये गए परागण किये गए हों) पर निर्भर करता है।"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><img height="320" src="https://userfilescdn.yourstory.com/uploads/production/document_image/file/69563/full_da1dccf7a8" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" width="640" /></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: large;">टीम 'सुपरक्लिफ़्रॉगइलिस्टिकएक्सपिअलइडोसियस'</span></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अनुसंधान के एक भाग के रूप में इस युवा दल ने उत्तर प्रदेश के एक मधुमक्खी पालन व प्रशिक्षण केंद्र का दौरा किया। मधुमक्खियों के बारे में बहुत कुछ सीखा और अपने बी सेवर बॉट का निर्माण किया। बी सेवर बॉट किसी भी मनुष्य या मधुमक्खी को नुकसान पहुंचाये बिना, घरों या ऊँची इमारतों से मधुमक्खियों को हटा देता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">प्रोटोटाइप जिस पर वे काम कर रहे हैं और जिस को मई में प्रतियोगिता के लिए तैयार होने की आवश्यकता है, वो एक क्वाडकोप्टर है। ये 3 डी कैमरे वाला एक उड़ने वाला ड्रोन है, जो हाइव (छत्ते) को स्कैन करता है और उसके आस-पास के क्षेत्र का 3 डी माप तैयार करता है, उसके बाद इस माप को एक सीएडी-सीएएम सॉफ्टवेयर में डाला जाता है जो उस एन्क्लोज़र के आकार को डिज़ाइन करता है, जिसमें कि हाइव और मधुमक्खियों को पूरी तरह से कवर किया जा सके। काव्या के अनुसार इस डिजाइन को एक लकड़ी आधारित 3 डी प्रिंटर में डाला जाता है, जो एक बायोडिग्रेडेबल, सांस लेने योग्य और पुन: प्रयोज्य बाड़े को प्रिंट कर देता है। क्वाडकॉप्टर एक बार फिर से हाइव (छत्ते) के पास जाता है और इसकी दो बाहें छत्ते को पूरी तरह से ढँक लेती है, जबकि एक तीसरी बांह एक तीखी ब्लेड का इस्तेमाल करती है ताकि दीवार के पास से हाइव को काट कर एन्क्लोज़र को बंद किया जा सके और फिर इसे निकटतम मधुमक्खी फार्म में ले जाने के लिए एक वाहन में रख दिया जाता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">Lightning McQueen कहे जाने वाली इस लाल रंग के रोबोट का निर्माण Lego Mindstorms EV3 के साथ किया जायेगा। काव्या कहती है, “हम बड़े मोटर्स ईवी3 रंग सेंसर का प्रयोग कर रहे हैं जो कि लाइन फॉलोइंग के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसके साथ ही हम सटीक मोड़ लेने के लिए gyro sensor और बहु-कार्य करने के लिए न्यूमेटिक्स का इस्तेमाल कर रहे है। न्यूमेटिक्स, हाइड्रोलिक्स की तरह ही होते हैं, जो अपने भीतर हवा को स्टोर करते हैं और फिर इसे विभिन्न कार्यों के लिए उपयोग करते हैं। हमारे रोबोट में गियर, ढलान वाली सतह और लीवर जैसे सरल तंत्र शामिल हैं। हमने ऐसा कार्यों के दौरान मोटर्स के इस्तेमाल को कम करने के लिए किया था।"</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आगे काव्या कहती है, कि "हमारे इस तंत्र में भोजन संग्रह मिशन है। हमने एक पारस्परिक तंत्र का उपयोग किया है, जिसमें रोबोट ऊपर उठता है और एक एनक्लोजर जानवरों को फंसा लेता है। फिर, रोबोट दीवार की सीध में आकर रेफ्रिजरेटर तक पहुंचता है और फिर पारस्परिक तंत्र सक्रिय होकर उसी बाड़े (एनक्लोजर) में भोजन इकट्ठा करता है।”</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्या अपनी स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ इस काम को भी बखूबी अंजाम दे रही है। शुरूआती दिनों में टीम सप्ताह में दो-चार घंटे का सप्ताहांत सत्र करती थी, लेकिन जैसे-जैसे प्रतियोगिता करीब आती जा रही है वे औसतन पांच दिन और 18-24 घंटे प्रति सप्ताह अभ्यास कर रहे हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्या विग्नेश की इस बेहतरीन कोशिश ने सरकार का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। केंद्र सरकार में नागर विमानन राज्य मंत्री जयन्त सिन्हा ने ट्वीट करके काव्या और उनकी टीम का उत्साह वर्धन भी किया है। अपने ट्वीट में उन्होंने कहा है, <a href="https://twitter.com/jayantsinha/status/843483859996098565">रामगढ़ की 12 साल की काव्या विग्नेश पर हमें गर्व है, जो डेनमार्क में यूरोपीय रोबोटिक्स चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही है।</a></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><img height="319" src="https://userfilescdn.yourstory.com/uploads/production/document_image/file/69564/full_605a61246c" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" width="640" /></span></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: large;">केंद्र सरकार में नागर विमानन राज्य मंत्री जयंत सिन्हा का ट्वीट</span></td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">एक बड़ी जीत की ओर बढ़ते हुए 12 वर्षीय काव्या विग्नेश प्रोटोटाइप के डेनमार्क में अपना कौशल दिखाने के बाद भारत में मधुमक्खियों के ऊपर काम करने वाले सरकारी अधिकारियों से मिलना चाहती है और उनके साथ सहयोग कर के उन्हें 'बी सेवर बॉट' का इस्तेमाल करने के लिए कहना चाहती है। उसे ये उम्मीद है कि वो और उसकी टीम इस प्रतियोगिता को जीत लेंगे। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">काव्या और काव्या की टीम देश के हर अभिभावक से ये कहना चाहती है, कि 'अपने बच्चों के बारे में चिंता नहीं करें। उन्हें वो करने दें, जो वे करना चाहते हैं और फिर उन्हें सफल होते हुए देख कर संतुष्ट हों।</span></div>
</div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-78326073222269997622017-04-12T16:34:00.001+05:302017-04-21T16:46:14.548+05:30अनपढ़ किसान का अनोखा अविष्कार, तैयार किया चलता-फिरता बाजार<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कर्ज और गरीबी ने झकझोरा तो आवश्यकता ने ‘अविष्कार’ को जन्म दिया। किसान बलबीर ने अपनेे ट्रैक्टर-ट्रॉली को ही मल्टीटास्किंग व्हीकल बना दिया। अब यहां जूस से लेकर आइसक्रीम तक और चाय की चुस्की से लेकर बाइक वाशिंग तक की सुविधा है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-PFZzfLMsEMA/WO4Jms1S2WI/AAAAAAAAQJw/g8Cy4b1yKP4K346LWYBd4ujGN16hDKX_gCK4B/s1600/10_06_2016-10hir1-web.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><img border="0" height="432" src="https://1.bp.blogspot.com/-PFZzfLMsEMA/WO4Jms1S2WI/AAAAAAAAQJw/g8Cy4b1yKP4K346LWYBd4ujGN16hDKX_gCK4B/s640/10_06_2016-10hir1-web.jpg" width="640" /></span></a><b></b><br />
<div style="text-align: justify;">
<b><b><span style="font-size: large;">दो लाख में तैयार हुआ चलता-फिरता बाजार :</span></b></b></div>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कैथल जिले के पिलनी गांव के किसान बलबीर को गरीबी और कर्ज ने इस कदर झकझोर डाला कि परिवार में दो वक्त की रोटी भी मुश्किल हो गई। सिर पर 17 लाख रुपये का कर्ज था और पास में थी सिर्फ आधा एकड़ जमीन। इससे न खेती हो पाती थी और न ही कर्ज उतर पा रहा था। आखिर में कर्ज चुकाने के लिए जमीन भी बेचनी पड़ी। इसके बाद जानकारों से थोड़े-बहुत पैसे उधार लिये और अपनी ट्रैक्टर-ट्रॉली को चलते फिरते बाजार का रूप दे दिया। उसने इसे अपने हिसाब से डिजाइन कराया है। इसे तैयार करने में सवा दो लाख रुपये खर्च हुए हैं। वह आशान्वित है कि इससे परिवार की गुजर-बसर अच्छे से हो जाएगी।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">ये सब है ‘बाजार’ में :</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बलबीर की ट्रॉली में गन्ने का रस निकालने की मशीन, जूस कॉर्नर, आइसक्रीम पार्लर, चाय की दुकान और गाडियां धोने के लिए वाशिंग स्टेशन की सुविधा है। वह जूस और आइसक्रीम लेने वालों के वाहन भी निश्शुल्क धो देता है। ट्रॉली में ही उसने एक केबिन भी बनाया है। उसका कहना है कि अगर कहीं उसे रात को देर हो जाती है तो अंदर ही गैस चूल्हे पर खाना पका लेता है और खाकर सो जाता है। इस कमरे में उसने कूलर लगाया हुआ है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">बिजली भी अपनी :</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बलबीर ने इस पूरे सिस्टम को ट्रैक्टर से जोड़ रखा है। बीच में जनरेटर रखा है, जो बिजली बनाता रहता है। गन्ने का रस निकालने की मशीन पर ही मोटर रखी है। इसी मशीन से वाहन धोने वाले पाइप में पानी का प्रेशर बनता है। बैटरी और इन्वर्टर रखा हुआ है। ट्रैक्टर के चलने से इन्वर्टर भी चार्ज होता रहता है। बलबीर ङ्क्षसह ने इसे ‘गुरु ब्रह्मानंद जूस भंडार’ नाम दिया है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">खुद तैयार करवाया डिजाइन :</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बलबीर ने बताया कि ट्रॉली का यह डिजाइन उसने खुद मिस्त्री से तैयार कराया है। हालांकि शुरू में मिस्त्री ने हाथ खड़े कर दिए थे। मगर बाद में जैसे-जैसे वह बताता गया मिस्त्री वेल्डिंग करता गया। बलबीर का कहना है कि वह अनपढ़ जरूर है, लेकिन दिमाग तो है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">700 रुपये तक की हो जाती है बचत :</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बलबीर के मुताबिक प्रतिदिन वह एक हजार से 1200 रुपये तक कमा लेता है। लागत निकालकर करीब 700 रुपये प्रतिदिन बचत हो जाती है। वह दिन में करीब 80 किलोमीटर का सफर तय करता है। बलबीर के परिवार में पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है। उसकी बड़ी लड़की ज्योति बीए में, उससे छोटी बेटी शिवानी दसवीं में और सबसे छोटा बेटा ललित चैथी कक्षा में पढ़ता है</span>।</div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-89985590072627297022017-04-12T16:31:00.000+05:302017-04-21T16:47:02.823+05:30‘‘प्रकृति में दिखता है जीवन’’ - बकुल गोगोइ |<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आज से करीब दो दशक पहले असम के तेजपुर जिले के एक छोटे से गाँव के रहने वाला एक युवा अपने आस-पास लगातार कटते हुए पेड़ों और घटते हुए जंगलों को देखकर बेहद दुखी रहने लगा था। वह यह सब देखकर इतना विचलित रहने लगा था की उसे सपनों मे भी पेड़-पौधे, जंगल, नदियाँ रोते-तड़पते हुए दिखाई देते थे। एक दिन इसी तरह के सपने की वजह से जब वे आधी रात में नींद से जाग गए तब उन्होने उस दिन निश्चय कर लिया की आज से उनका पूरा जीवन प्रकृति की सेवा मे समर्पित होगा। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><img src="http://52parindey.in/wp-content/uploads/2016/10/main-pic-3.png" height="355" width="640" /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बकुल गोगोई को पेड़ लगाने का जुनून है। वे बताते है कि बीस साल पहले जब उन्होने पेड़ लगाने कि यह मुहिम शुरू की थी, तब वे गुवाहाटी मे पढ़ाई कर रहे थे। उस वक्त उनके पास इतने भी पैसे नहीं होते थे कि वो किसी नर्सरी से एक पौधा खरीद कर कहीं रौंप सके। उस वक्त वे अपने खाने के पैसों मे से बचत करके पौधे खरीदते थे और उन्हे शहर मे जहां भी खाली जगह दिखती थी वहाँ जाकर लगा देते थे। पर वो जानते थे कि ऐसा लंबे समय तक नहीं चल सकता है। जल्द ही उनकी पढ़ाई खत्म हो जाएगी और घर से मिलने वाला जो थोड़ा बहुत पैसा है वो भी मिलना बंद हो जाएगा। तब वो सोचने लगे की कैसे वो इस काम को आगे कर सकते है। उसी समय उन्होने अपनी खुद की नर्सरी शुरू कर दी। वो कहते है कि “पौधे लगाने के लिए हमे पैसों की जरूरत नहीं होती।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पौधा खुद अपने बीज तैयार करता है, हमे तो बस थोड़ी सी उसकी सहायता करनी होती है, की वो बीज सही जगह पहुँच जाए और उसके वयस्क होने तक उसका ख्याल रखा जाए। फिर तो वो अपने आप मे इतना सक्षम हो जाता है की खुद कहीं सारे पौधों को जन्म दे सकता है, उनका खयाल रख सकता है। मैं भी तो यहीं कर रहा हूँ। इस प्रकृति से हमें इतना कुछ मिला है, इसने हम सब को माँ कि तरह पाला है। आज जब हमारी जब तकलीफ में ये साथ है, तो हमारा यह फर्ज बनता है कि हम उसकी सेवा करे।”</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अपनी इसी मुहिम में लोगों को शामिल करने के लिए इन्होने कई अनोखे तरीके ईजाद किए है। इनके आस-पास के इलाकों में जब भी किसी घर में कोई शुभ कार्य हो रहा होता है तो, यह वहाँ कुछ पौधे लेकर पहुँच जाते है और लोगों से अपील करते है इस शुभ कार्य कि शुरुआत पौधे लगा कर कि जाए। चाहे वो किसी का जन्मदिन, हो शादी हो या किसी भी तरह का कोई और शुभ कार्य, वो कहते है कि जब लोग इन अवसरों पर पौधरोपन करते है तो वह पौधा लोगों के लिए एक जीवित प्रलेख बन जाता है, जिससे उन लोगों कि यादें जुड़ जाती है। वही दूसरी तरफ जब किसी कि मृत्यु हो जाती है तो अंतिम यात्रा मे भी वे लोगों से कहते है कि मरने वाले व्यक्ति को सदा के लिए अमर बनाने के लिए उनकी याद मे परिवार को कम से कम एक पौधा लगवाते है। उनके इन्हीं प्रयासों कि वजह से स्थानीय लोगों ने उन्हे पेड़ वाले बाबा का उपनाम दे दिया है वही दूसरी तरफ समाज के बुजुर्ग लोग उन्हे वृक्ष-मानव कहकर बुलाने लगे है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अब तक अपने हाथों से दस लाख से भी ज्यादा पौधों को रौपने के बाद अब वे अपनी इस मुहिम को वृहद स्टार पर ले जाना चाहते है। इसके लिए वे असम सरकार से दो चीजों को लागू करवाने का प्रयास कर रहे है कि स्कूल मे दाखिला लेते वक्त हर बच्चे से कम से कम दो पौधे लगवाए जाए और उनकी शिक्षा पूरी होने तक उन पौधों कि जिम्मेदारी उन बच्चों को ही सौंप दी जाए। वे कहते है कि कच्ची उम्र मे जन बच्चों को पेड़-पौधो, प्रकृति से जोड़ा जाएगा तो वे आगे चलकर अपने आप ही प्रकृति के प्रति जागरूक और संवेदनशील हो जाएगा। वहीं दूसरी तरफ उनकी कोशिश है कि असम में होने वाले बीहू महोत्सव के दिन को आधिकारिक रूप से पौधारोपण दिवस घोषित कर दिया जाए और असम का हर परिवार कम से कम एक पौधा उस दिन जरूर लगाए। वो बताते है कि बीहू महोत्सव का आधार मानव के प्रकृति के साथ रिश्ते को हर्षोल्लास से माना रहा है, परंतु आज हम इस रिश्ते को ही भूल गए है। उत्सव के नाम पर हम आज कई सारी ऐसे कार्य कर रहे है जो सीधे तौर पर प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहे है। ऐसे मे यह जरूरी है कि हम फिर से कैसे इस मरती हुई संस्कृति को जीवित कर सकें, मानव संस्कृति को फिर से प्रकृति के साथ जोड़ सकें। अन्यथा इस संस्कृति कि मृत्यु के साथ मानव कि मृत्यु निश्चित है।</span></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-76079835303637961632017-04-12T15:46:00.002+05:302017-04-12T15:46:23.889+05:30बिहार के इंजीनियरिंग स्टूडेंट का कमाल, अब आर्टिफिशियल हैंड से ड्राइव कीजिए कार<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
किसी दुर्घटना या हादसे में अपना हाथ गंवाने वाले लोग अब आर्टिफिशियल हैंड (कृत्रिम हाथ) के जरिए कार चला सकेंगे। सिर्फ कार ही क्यों, वे कृत्रिम हाथ के जरिए लगभग वे सभी काम कर सकेंगे, जो साधारण हाथ से किए जा सकते हैं। बीआइटी (बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी, पटना) के छात्र ने इसका मॉडल विकसित किया है। यह अत्याधुनिक कृत्रिम हाथ नसों के मूवमेंट के अनुसार काम करेगा।</div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px;">
</div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<strong style="font-size: 16px;">आशुतोष की मेहनत का फल</strong></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
बीआइटी के इलेक्ट्रिकल व इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग के फाइनल ईयर के छात्र आशुतोष प्रकाश ने शिक्षक व साथियों के सहयोग से इस कृत्रिम हाथ को तैयार किया है। उसने बताया कि अभी इसे बनाने में 15 हजार रुपये खर्च आया है।</div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
इसके माध्यम से दुर्घटना में हाथ कटने वाला पीडि़त चाय-पानी का गिलास उठाने के साथ मोबाइल का भी उपयोग कर सकेगा। वह कार भी ड्राइव करे सकेगा। इसे आकर्षक, कारगर व सस्ता बनाने के लिए निदेशक ने और फंड देने की घोषणा की है।</div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<img src="http://www.jagranimages.com/images/19_05_2016-artificial_hand.jpg" /></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<strong style="font-size: 16px;"><br /></strong></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<strong style="font-size: 16px;">नसों की हलचल पर करेगा काम</strong></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
भारत में अभी दिमाग के इशारों पर काम करने वाला कृत्रिम हाथ नहीं बना है। जयपुर में बनने वाले कृत्रिम हाथ-पैर स्थाई अंग के रूप में तैयार होते हैं। ये सभी दैनिक कार्यों को अंजाम देने में सफल नहीं हैं। लेकिन, बीआइटी में तैयार कृत्रिम हाथ दिमाग के इशारों पर नसों की हलचल पर काम करता है।</div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<strong style="font-size: 16px;">ऐसे करता है काम</strong></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
माइक्रोकंट्रोलर, मोटर, एम्प्लीफायर सर्किट, इएमजी सेंटर आदि को एसेंबल कर इसे थ्री डी तकनीक से बनाया गया है। सॉफ्ट प्लास्टिक का उपयोग करने के कारण यह बारीक चीज को पकडऩे में सक्षम है। इस डिवाइस को कलाई के ऊपर लगा दिया जाता है। यह डिवाइस दिमाग से दिए गए कमांड को नसों के माध्यम से इनकोड करता है और नसों की हलचल के अनुसार काम करता है।</div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<strong style="font-size: 16px;">आर्मी को ध्यान में रख बनाया</strong></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
दरभंगा के कटहलबाड़ी डेनवी रोड निवासी आशुतोष प्रकाश ने बताया कि वह आर्मी में रहकर देश की सेवा करना चाहता था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के दौरान आर्मी वालों के लिए यह यंत्र बनाने की प्रेरणा मिली।</div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
<strong style="font-size: 16px;">कहा </strong><strong style="font-size: 16px;">निदेशक, बीआइटी, पटना, </strong><strong style="font-size: 16px;">ने-</strong></div>
<div style="background-color: white; font-family: "Ek Mukta", Arial, sans-serif; font-size: 15px; padding: 0px; text-align: justify;">
'आशुतोष का कृत्रिम हाथ काफी उपयोगी है। इसे बेहतर बनाने के लिए आर्थिक मदद दी जाएगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-55227909110364543402017-04-12T15:43:00.001+05:302017-04-12T15:43:51.477+05:30आविष्कार: आवाज पर चलती यह ह्वील चेयर, जानिए इसकी खासियतें<div style="text-align: justify;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-yXtjRN2j3Ek/WO39pJHOQbI/AAAAAAAAQJg/ZsawmyiLxR0ofikhbdJq_dkap9_vk_0wgCK4B/s1600/22_06_2016-wheelchair.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="270" src="https://2.bp.blogspot.com/-yXtjRN2j3Ek/WO39pJHOQbI/AAAAAAAAQJg/ZsawmyiLxR0ofikhbdJq_dkap9_vk_0wgCK4B/s320/22_06_2016-wheelchair.jpg" width="320" /></a>बीआइटी में पढने वाले बिहार के छात्र ने एक ऐसा व्हीलचेयर बनाया है जो इस पर बैठे व्यक्ति की आवाज सुनकर चलेगा। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसे निर्देश नहीं दे सकेगा। ‘ह्वील चेयर! मेरी आवाज सुन रहे हो न! बाएं चलो, ...और चेयर आवाज सुनते ही उस दिशा में बढ़ जाएगा। दिव्यांगों के लिए यह खास उपकरण बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (बीआइटी) के इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियिंरग के फाइनल इयर छात्र आशुतोष प्रकाश ने बनाया है। इसकी खासियत ही है कि यह सिर्फ इसका उपयोग करने वाले की ही आवाज सुनेगा। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसे निर्देश नहीं दे सकेगा। इसे बनाने में 20 हजार रुपये का खर्च आया है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>ऐसे मिली निर्माण की प्रेरणा :</b></div>
<div style="text-align: justify;">
आशुतोष ने बताया कि वह बीटेक में दूसरे वर्ष से ही इसे बनाने में जुट गया था। वह इंटर्नशिप के लिए डॉ. अतुल ठाकुर के पास गया था। वहां एक दिव्यांग को चलने में हो रही कठिनाई को देखकर उसी समय ठान लिया कि एक ऐसा ह्वील चेयर बनाएगा, जो आवाज सुनकर चले। दरभंगा निवासी आशुतोष ने इसे अपने दादाजी के लिए भी बनाया है। उसने कहा, जब दादाजी की उम्र अधिक होगी तो वे अपने हिसाब से इसका उपयोग कर सकेंगे। आशुतोष के पिता प्रमोद कुमार मिश्रा दरभंगा केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक हैं। मां रेणु मिश्रा गृहिणी हैं। निर्माण का श्रेय आशुतोष ने दादा, मां एवं पिता को दिया है। आशुतोष ने बताया कि इसका उपयोग आम लोग कर सकें, इसलिए उसने इसका पेटेंट नहीं कराया है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>ऐसे करता है काम...</b></div>
<div style="text-align: justify;">
यह संबंधित व्यक्ति की आवाज को याद कर लेता है। फिर उसी के निर्देश पर काम करता है। कोई आवाज बदलकर इसे निर्देश देना चाहे तो नहीं मानेगा। इसमें लगा सेंसर गड्ढा या दीवार को एक मीटर पहले ही पहचान कर रुक जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>यह है तकनीक</b></div>
<div style="text-align: justify;">
- यह आवाज को प्रोसेस करता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
- फिर प्रोग्राम के अनुसार माइक्रोकंट्रोलर को निर्देश देता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
- माइक्रोकंट्रोलर उस हिसाब से मोटर को कंट्रोल करते हुए परिचालन करता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-58312207908200531722017-04-12T15:35:00.004+05:302017-04-12T15:35:50.121+05:3017 साल की लड़की ज़रूरतमंदों को दिखा रही है ‘‘दुनिया’’पुराने चश्मों को इकट्ठा कर पहुंचाती हैं गरीबों तककई एनजीओ के सहयोग से करती हैं यह नेक कामअबतक 1500 से अधिक लोगों की कर चुकी है मददअभियान को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली स्वीकार्यता<br /><br />दृष्टि को ‘देखने की क्षमता और अवस्था’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है लेकिन इस शब्द के मूल अर्थ का मतलब सिर्फ इतना ही नहीं है। दूसरों की सहायता करने का मतलब सिर्फ जरूरतमंदों को खाना-पीना देने या कपड़े देने या उनके लिये शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना ही नहीं है। अगर आपके अंदर दूसरों की सहायता करने की दूरदृष्टि है तो आप राहों में आने वाली तमाम परेशानियों को पार करके समाज के लिये कुछ कर सकते हैं। 17 वर्ष की आरुषि गुप्ता इस बात का एक जीता-जागता उदाहरण हैं।<br /><br /><img height="320" src="https://userfilescdn.yourstory.com/uploads/production/document_image/file/2252/full_ad01a00095" width="640" /><br /><br />आरुषि दिल्ली के बाराखम्बा रोड स्थित माॅडर्न स्कूल में इंटर की पढ़ाई कर रही हैं। वर्ष 2009 में आरुषि ने आँखों की समस्याओं से जूझ रहे लोगों की मदद करने की ठानी और अपने स्तर पर इस दिशा में एक ‘‘स्पेक्टेक्यूलर अभियान’’ की शुरुआत की। इस अभियान के तहत आरुषि ने लोगों के ऐसे चश्मों को इकट्ठा करना शुरू किया जिन्हें लोग पुराना हो जाने पर इस्तेमाल नहीं करते और फेंक देते हैं। आरुषि ऐसे चश्मों को जमाकर हेल्प ऐज इंडिया, जनसेवा फाउंडेशन और गूंज जैसे एनजीओ तक पहुंचा देती जहां से इन्हें जरूरतमंदो तक पहुंचाया जाता।<br /><br />आरुषि बताती हैं कि इस तरह का विचार सबसे पहले उनके मन में 10 साल की उम्र में आया था। तब उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उनका पुराना चश्मा किसी गरीब के काम आ सकता है ओर उसे किसी जरूरतमंद को दिया जा सकता है। थोड़ा बड़ा होने पर उन्होंने इस बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया तो उन्हें समझ आया कि यह मुद्दा उनकी सोच से कहीं बड़ा है। प्रारंभ में उनकी कम उम्र उनके आड़े आई लेकिन धुन की पक्की आरुषि ने भी हार नहीं मानी और समय के साथ दूसरों की सहायता करने का उनका सपना सच होता गया।<br /><br />वर्तमान समय में हमारे देश में करीब 15 करोड़ ऐसे लोग हैं जिन्हें दृष्टिदोष की दिक्कत के चलते चश्मे की आवश्यकता है लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वे उसे खरीद नहीं पाते हैं। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत आरुषि अड़ोस-पड़ोस, चश्मों की दुकानों, विभिन्न संस्थानों और अपने परिचितों के यहां से पुराने चश्मे इकट्ठे करके विभिन्न एनजीओ तक पहुंचाती हैं। इसके अलावा वे विभिन्न सामाजिक संस्थानों की मदद से विभिन्न इलाकों में आँखों के मुफ्त कैंप लगवाने के अलावा मोतियाबिंद के आॅपरेशन करवाने के कैंप का आयोजन भी करवाती हैं।<br /><br />अबतक के सफर में उनके माता-पिता ने उनका पूरा सहयोग दिया है और अपने स्तर पर उनकी हर संभव मदद की है। यहां तक कि उनके स्कूल ने भी अबतक उनके इस नेक काम में हर संभव सहायता की है। चहुंओर मिली मदद के बावजूद आरुषि का सफर इतना आसान भी नहीं रहा है। दूसरों को अपने इस विचार के बारे में समझाना उनके लिये सबसे बड़ी चुनौती रहा। आरुषि बताती हैं कि प्रारंभ में कई बार लोगों से कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर उन्हें बहुत निराशा होती थी।<br /><br />आरुषि सार्वजनिक स्थानों पर ड्राॅपबाॅक्स रख देती हैं जिनमें लोग अपने पुराने चश्मे डाल सकते हैं। अपने इस अभियान को अधिक से लोगों तक पहुंचाने के लिये आरुषि रोजाना कई लोगों से मिलती हैं और उन्हें अपने इस काम के बारे में जैसे भी संभव हो समझाने का प्रयास करती हैं। इसके अलावा वे और भी कई तरह के प्रयास कर अधिक से अधिक लोगों को अपने पुराने चश्में दान करने के लिये प्रेरित करती हैं।<br /><br />आरुषि द्वारा अब किये किये गए प्रयास व्यर्थ नहीं गए हैं और तकरीबन 1500 से अधिक लोग उनके इस अभियान से लाभान्वित हो चुके हैं। आरुषि कहती हैं कि ‘‘दान करने की कोई कीमत नहीं है लेकिन इससे आप कई लोगों का आभार कमा सकते हैं।’’<br /><br />आखिरकार आरुषि के इस प्रयास को उस समय स्वीकार्यता और सम्मान मिला जब उन्हें इस अभियान के लिये चैथे सालाना ‘‘पैरामेरिका स्प्रिट आॅफ कम्यूनिटी अवार्डस’’ के फाइनलिस्ट के रूप में चुना गया। आरुषि कहती हैं कि इस अभियान को लोगों से मिलती प्रशंसा और सराहना से उन्हें लगातार आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती हैै।Idea2 Enterprisehttp://www.blogger.com/profile/13444224396513491170noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7119710171043329194.post-29831462103860393352017-03-28T17:08:00.002+05:302017-03-28T17:08:37.162+05:30नेगेटिव से फोटो तैयार करने की सरल तकनीक<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">दशकों पुराने क्लिक-3 कैमरा वाले नेगेटिव के फोटो बनाना आज के समय में असंभव-सा प्रतीत होता है । लेकिन लगन और चाह के आगे कुछ भी असंभव नहीं हैं । जिसे अपनी किशोरावस्था से ही कैमरे का शौक रखने वाले बी.एस. पाबला जी ने साबित कर दिखाया है । बी.एस. पाबला जी ने अपना पहला क्लिक-3 कैमरा सन् 1976 में खरीदा। बी.एस.पाबला जी का जन्म स्थान दल्लीराजहरा है और ये छत्तीसगढ़ के भिलाई क्षेत्र में रहते हैं और महारत्न कंपनी सेल (Steel Authority of India Limited) में 1981 से सेवारत हैं । पाबला जी के पिता का नाम श्री केहर सिंह और माता जी का नाम हरभजन कौर है । इनकी एक बेटी है जिसका नाम रंजीत कौर है । </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<img src="http://bspabla.com/wp-content/uploads/2015/04/click-iii-camera-bspabla.jpg" /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">पाबला जी को अपनी किशोरावस्था से ही कैमरे का बहुत शौक है, इसलिए जब एक दिन इन्हें 35- 40 साल पुराने आग्फा कंपनी के क्लिक-3 कैमरा के नेगेटिव मिले तो इनके मन में चाह उठी कि काश ये इन नेगेटिव की फोटो फ्रेम बनवा लेते और इन्होंने महज़ 10 मिनट में इसका हल निकाल लिया। यह सारे नेगेटिव आग्फा कंपनी के क्लिक-3 कैमरा के थे । यह एक साधारण से लैंस वाला ऐसा कैमरा था जिसमें अधिक से अधिक 12 चित्र लिए जा सकते थे और नेगेटिव का आकार 6X6 सेंटीमीटर का होता था। एक फोटो लेने के बाद रोल को उंगलियों से घुमाकर ऐसी जगह लाया जाता था जहां कोरे स्थान पर दूसरी फोटो आ सके । अगर आप रोल घुमाना भूल गए तो एक के ऊपर एक दूसरी फोटो छप जाती थी । इस कैमरे में फ्लैश नहीं था व अलग से लगाया भी जाये तो बड़ी सी बैटरी बल्ब होता था जो अपनी चकाचैंध राशनी बिखेरने के साथ ही फ्यूज़ हो जाता था और अगली फ्लैश के लिए नया बल्ब लगाना पड़ता था । </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://bspabla.com/wp-content/uploads/2015/04/camera-darkroom-bspabla-300x168.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="कैमरा और डेवलपिंग" border="0" src="http://bspabla.com/wp-content/uploads/2015/04/camera-darkroom-bspabla-300x168.jpg" /></a><span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">उस समय में भी उन्होंने नेगेटिव के फोटो बनाने के लिए फोटो बनाने की तकनीक बताने वाली एक छोटी सी किताब खरीदी जिसकी सहायता से उन्होंने नेगेटिव से फोटो भी तैयार की । उस फोटो बनाने की तकनीक बताने वाली किताब से उन्होंने नेगेटिव से फोटो बनाने के लिए कमरे में लाल बल्ब लगाकर डार्क रूम बनाया और डेवलपर, हाइपो व 100 पेपर वाला डिब्बा खरीदा । फिर टेबल लैंप के नीचे ड्राइंग शीट का फ्रेम काट कर रखा। नेगेटिव और फोटो पेपर साथ-साथ रखकर कुछ सेकेंड की रोशनी दी । फिर जब उन्होंने फोटो पेपर को डेवलपर वाली ट्रे में होले-होले थप-थपाया तो धीरे-धीरे तस्वीर उभरने लगी। हाइपो से बाहर निकाल कर ठीक से सुखाने के बाद खिंची तस्वीर सामने आई । उस समय में भी उन्होंने स्वयं इस प्रकार नेगेटिव से फोटो तैयार की थी ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<img alt="कैमरा एक्सरे" height="633" src="http://bspabla.com/wp-content/uploads/2015/04/xray-view-bspabla.jpg" width="640" /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">लेकिन अब वे उन दशकों पुराने नेगेटिवों की तस्वीरें उस विधि द्वारा नहीं तैयार कर सकते थे क्योंकि अब वह सब चीज़ें बाज़ार में उपलब्ध नहीं होती। फिर वे उन नेगेटिवों को फोटो में तबदील करने के बारे में सोचने लगे। सोचते-सोचते उनकी ललक इतनी बढ़ गई कि उन्होंने इंटरनेट छाना लेकिन जो उपाय दिखे वह बहुत ही तिकड़मी थे। फिर उन्होंने यह समस्या फेसबुक पर डॉ. अनिल कूमार को बताई और डॉ. अनिल कूमार ने उन्हें बताया कि सफेद कागज़ पर नेगेटिव रखकर स्कैनर पर स्कैन करें और फिर फोटोशॉप जैसे सोफ्ट्वेयर में डाल कर नेगेटिव का पॉजिटिव बना लीजिए। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<img alt="कैमरा नेगटिव " height="577" src="http://bspabla.com/wp-content/uploads/2015/04/camera-negative-bspabla.jpg" width="640" /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">ये तकनीक पाबला जी को कुछ जचा नहीं, क्योंकि ऐसी असफल कोशिश वे पहले भी कर चुके थे। फिर पाबला जी को ख्याल आया कि डाक्टरों के कमरे में एक्सरे में देखे जाने वाले डिब्बे जैसी किसी चीज़ से कुछ हो सकता है। फिर झट से उन्होंने एक नेगेटिव निकाला और कमप्यूटर मॉनिटर के सामने स्क्रीन में फंसा दिया। सफेद रोशनी चाहिए थी तहो ब्राउज़र की खाली टेब खोल ली। लेकिन नीचे का टास्क बार रोड़े अटका रहा था तो उसे ऑटो हाईड कर नीचे जाने दिया। फिर पाबला जी ने अपना डिजिटल कैमरा उठाया और उस सफेद रोशनी के सामने फंसे नेगेटिव की फोटो इस प्रकार ली कि सामने फंसे नेगेटिव की फोटो तो आये किन्तु उसके आस-पास की फोटो न आये । </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<img alt="negative-image-photo-bspabla" height="480" src="http://bspabla.com/wp-content/uploads/2015/04/negative-image-photo-bspabla.jpg" width="640" /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;">उन्हें एक-दो बार कोशिश करने पर मनचाहा परिणाम मिल गया । फिर उन्होंने कैमरे के मेमोरी कार्ड से इमेज कमप्यूटर में डाली और फिर माइक्रोसोफ्ट ऑफिस से काट-छांट कर सही आकार दे दिया । अब इस नेगेटिव जैसी दिखती फोटो को उन्होंने विंडोज़ में उपलब्ध पेंट में खोला, इसके बाद ctrl के साथ a दबाकर या मेन्यू बार में select>select all कर फोटो में ही किसी स्थान पर सावधानी से माउस का राइट क्लिक करके सामने आए बाक्स के निचले हिस्से में दिए इनवर्ट कलर पर क्लिक किया। अब उनके सामने अच्छी खासी तस्वीर आ चुकी थी और अब उसे सिर्फ सेव ही करना था। अब यह फोटो फ्रेम में लगाने लायक थी। तो है ना ये नेगेटिव से फोटो बनाने का नायाब तरीका ।</span></div>
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<span style="font-family: Verdana, sans-serif; font-size: large;"><br /></span></div>
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<img alt="कैमरा यादों में" height="480" src="http://bspabla.com/wp-content/uploads/2015/04/delhi-memory-1024x768.jpg" width="640" /></div>
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