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Tuesday 28 March 2017

शुभम के प्रयासों ने दिया एक आविष्कार को जन्म - टेलिविजन को कंट्रोल करेगा मोबाइल फोन

आपने अक्सर देखा होगा कि बच्चे अपने खिलौनों से खेलते-खेलते कुछ समय बाद उसके बारे में जानकारियां जुटाने की कोशिश करने लगते हैं। मसलन-कैसा बना है? क्या-क्या इस्तेमाल हुआ है बनाने में? वगैरह-वगैरह। हम सब के जीवन में ऐसे दौर आते हैं। शायद यही वजह है कि घरों में सबसे बदमाश बच्चों के खिलौने सबसे पहले टूटते हैं। कुछ ऐसा ही बचपन शुभम मल्होत्रा का भी गुज़रा। दसवीं पास करने के बाद शुभम के पास भविष्य के लिए दो विकल्प थे। पहला डॉक्टर और दूसरा इंजीनियर बनना। शुभम ने इंजीनियरिंग को चुना। हर चीज़ की गहनता से पड़ताल करना और खोज करने का गुण शुभम के अंदर अपने भाई से आया। उनके भाई खराब इलेक्ट्रॉनिक चीजों को खुद ही ठीक करने का प्रयास करते-करते कई नई चीजों के बारे में गहराई से जानने की कोशिश करते। दोनों भाईयों ने मिलकर खुद ही घर में इंटरकॉम सिस्टम भी बनाया था।

11वीं कक्षा में शुभम आईआईटी की तैयारी करने कानपुर आ गए। यह उनके लिए नया अनुभव था जहां हजारों बच्चे एक ऑडिटोरियम में साथ पढ़ाई करते थे। यहां शुभम ने आईआईटी प्रवेश परीक्षा का प्री पास कर लिया लेकिन मेन्स में पास नहीं हो पाए। इसके बाद शुभम ने बिट्स गोआ में प्रवेश लिया। यहां शुभम ने कॉलेज में बिट्स और बाईट्स नाम का कंप्यूटर क्लब ज्वाइन किया, जिसने उनकी बहुत मदद की। बिट्स गोआ के छात्रों ने तय किया कि वे कुछ नया करेंगे और उन्होंने रीयल सॉफ्टवेयर पर काम करना शुरु किया। फिर उन्होंने सोचा, क्यों न किसी नए प्रोजेक्ट पर काम किया जाए। उनकी इस योजना के लिए प्रशासन ने उन्हें अनुमति दे दी। उन्होंने कैंपस में ही एक सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट सेंटर खोला। अब शुभम और उनके मित्रों का अपना एक लैब था जहां वे लोग 24 घंटे बिना किसी रोकटोक के काम कर सकते थे। शुभम ने एक वोटिंग सॉफ्टवेयर तैयार किया जिसका उन्होंने कॉलेज इलेक्शन में प्रयोग किया, उनके इस काम की काफी सराहना हुई। बिट्स गोआ के अपने प्रथम वर्ष में वह ग्रिड कंप्यूटिंग की तरफ काफी आकर्षित हुए। द्वितीय वर्ष में शुभम ने माइक्रोसॉफ्ट इमेजिन कप में भाग लिया उनकी टीम ने एक 'एल बोट' का निर्माण किया जो पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दे सकता था। इस प्रतियोगिता में उनकी टीम को द्वितीय पुरस्कार मिला और पुरस्कार राशि के तौर पर अस्सी हजार रुपए उन्हें प्राप्त हुए जो कि चार लोगों की टीम के लिए काफी अच्छी राशि थी। उसके बाद शुभम और उनकी टीम ने आईआईटी कानपुर द्वारा आयोजित एक प्रतियोगिता में भाग लिया जहां उन्होंने दिन रात काम किया और अंत में उन्हें प्रथम पुरस्कार दिया गया।


आमतौर पर इंजीनियरिंग के छात्रों की कैंपस रिक्रूटमेंट हो जाती है लेकिन शुभम की नहीं हो पाई। उन्हें एक ऑफर सीएससी से आया जिसकी ज्वाइनिंग डेट काफी लेट थी। इस दौरान उनकी माइक्रोसॉफ्ट में भी बातचीत चली लेकिन बात नहीं बनी। बीएचईएल में नौकरी की संभावनाएं थीं लेकिन शुभम पब्लिक सेक्टर कंपनी के साथ नहीं जुडऩा चाहते थे। फिर शुभम और उनके मित्रों ने व्हाइट हैट सिक्योरिटी नाम से एक कंपनी शुरू की जोकि स्कूल और कॉलेज में सिक्योरिटी की वर्कशॉप आयोजित करती थी। लेकिन ये प्रयोग ज्यादा समय नहीं चल पाया क्योंकि इस दौरान उनके कुछ मित्रों की नौकरी लग गई और उन्होंने यह काम छोड़ दिया। इस दौरान शुभम की मुलाकात कृष्णा से हुई जो कि कैपिलेरी कंपनी में उच्च पद पर थे। कृष्णा ने शुभम को कैपिलेरी कंपनी ज्वाइन करने का ऑफर दिया। शुभम का काम दिल्ली की विभिन्न दुकानों पर क्लाइंट सॉफ्टवेयर इंस्टाल करना था। एक बार कोलकाता से एक सॉफ्टवेयर जिस सीडी से आया वो टूट गई और नई सीडी मंगवाने के लिए समय नहीं था तब शुभम ने अपनी सूझबूझ से इस दिक्कत को दूर किया। शुभम ने यहां तीन साल काम किया और कंपनी के लिए काफी उपयोगी साबित हुए। जब उन्होंने कंपनी ज्वाइन की थी तब कंपनी में मात्र दस लोग काम कर रहे थे और तीन साल के बाद संख्या सत्तर हो गई थी। शुभम को यहां रोज एक जैसा काम करना पड़ रहा था जिसे करते करते वे अब बोर हो चुके थे साथ ही थक भी गए थे इसलिए उन्होंने कैपिलेरी कंपनी छोड़ दी। फिर उसके बाद भारती सॉफ्ट बैंक ज्वाइन किया। शुभम ने यहां पर एंड्रोइड के लिए एक गेम 'सौंग क्वेस्ट' बनाया जो बहुत हिट रहा और एक मिलियन से ज्यादा डाउनलोड किया गया।


भारती सॉफ्ट बैंक में नौकरी करने के दौरान उन्हें धीरे-धीरे समझ आने लगा कि स्मार्ट टेलिविजन उपभोक्ताओं को किन -किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लोगों द्वारा प्रयोग किया गया रिमोर्ट इतना सुविधाजनक नहीं होता जितना उसे होना चाहिए। तब शुभम ने सोचा कि क्यों न वो इसी विषय पर कुछ काम करें ताकि उपभोक्ता को स्मार्ट टेलिविजन चलाने में आसानी हो। इसके बाद शुभम ने इसी विषय पर काम करना शुरु कर दिया। शुभम ने अपने एक दोस्त के साथ मिलकर 'टीवी' नाम की एक कंपनी की शुरुआत की जिसके वे सहसंस्थापक बने। फिर उन्होंने एक बॉक्स का निर्माण किया जो इस्तेमाल करने में काफी आसान और सुविधाजनक था। अब लोगों को अपने स्मार्ट टेलिविजन को कंट्रोल करने में आसानी हो रही थी। बॉक्स का साइज काफी बड़ा था जिसे बाद में छोटा कर वे एक डौंगल के आकार तक ले आए। 'टीवी' एक ऐसा डिवाइस है जो टेलिविजन पर आसानी से फिट हो जाता है। इसके बाद एक सॉफ्टवेयर डाउनलोड करना होता है जिसके बाद उपभोक्ता आसानी से अपने मोबाइल से ही टेलिविजन को कंट्रोल कर सकता है। मोबाइल के जरिए अपने टेलिविजन सेट में अपने मनपसंद वीडियो व फोटो देख सकता है। इंटरनेट चला सकता है और वो भी बड़ी आसानी से। यह एक ऐसा काम था जिसे शुभम हमेशा से करना चाहते थे।

जन्म से ही नेत्रहीन शख्स ने खडी कर दी 50 करोड़ की कम्पनी

सोचिये अगर आपकी आँखो पर पटटी बांध दी जाये तो आपको कैसा लगेगा ? आँखों पर पट्टी बाँध कर आप क्या-क्या काम कर सकते हैं ? अगर मैं अपनी बात करूँ तो मैं अपनी आखो पर पटटी बाँध कर सही तरह से खाना तक नहीं खा सकता |

अब जरा उन लोगों के बारे में सोचिये जो जन्म से ही नेत्रहीन है | वे लोग अपने दैनिक कार्य किस तरह से करते होंगे ? कितना कष्ट होता होगा उन्हें और कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता होगा ? और कितनी मुश्किल होती होगी जब लोग उनकी मदद ना करके उनका उपहास उड़ाते होंगे या उनको अपने से दूर करते होंगे |


आज Gyan Versha के माध्यम से मैं एक ऐसे साहसी और बहादुर शख्स के बारे में बताने जा रहा हूँ जो जन्म से ही नेत्रहीन है और अपनी नेत्रहीनता की वजह से उसे समाज के लगभग हर दरवाजे से मदद के बजाय निराशा और इनकार मिला | लेकिन अपने हौसले, साहस और जिद से उस शख्स ने समाज के उन लोगों को आईना दिखाया और मात्र 23 वर्ष की उम्र में 50 करोड़ की कम्पनी खड़ी कर दी और उसका CEO बना और देश दुनियाँ के लाखो करोड़ों लोगों का प्रेरणास्रोत बना |

उस शख्स का नाम है श्रीकांत बोला | जो जन्म से नेत्रहीन है और डिस्पोजल कंज्यूमर पैकेजिंग सॉल्यूशंस कम्पनी बोलांट इण्डस्ट्रीज के CEO हैं| आईये उनकी प्रेरणादायक जिन्दगी के बारे में जानते हैं |
श्रीकांत का बचपन

श्रीकांत का जन्म 7 जुलाई 1991 को आंध्रप्रदेश के कृष्णा जिले के सीतारामपुरम नामक गाँव में हुआ था | इनके माता पिता ज्यदा पढ़े लिखे नही थे और बहुत ही गरीब थे | श्रीकांत के जन्म के समय परिवार की मासिक आय लगभग 1600 रु० थी जो कि बहुत ही कम थी| जिस के कारण इनका बचपन बहुत ही कठिनाइयों में बीता | अमूमन जब किसी के घर पर लड़के का जन्म होता है तो उसके माँ बाप, पास पड़ोस, रिश्तेदार आदि सब बहुत खुश होते हैं लेकिन श्रीकांत के जन्म के समय ऐसा कुछ नही हुआ क्योंकि श्रीकांत जन्म से ही नेत्रहीन थे |
जिन्दगी की पहली मुश्किल ( जब गाँव वालों ने कहा कि इसे मार दो )

श्रीकांत की पहली मुसीबत इनके जन्म लेते ही आ गयी | श्रीकांत जन्म से ही नेत्रहीन थे | इसलिए जब पड़ोसियों को इनके नेत्रहीन होने का पता चला तो उन्होंने इनके माता पिता को सलाह दी कि इतनी गरीबी में सारी जिन्दगी की परेशानी और दुःख सहने से अच्छा है कि इस बच्चे का गला घोट कर अभी मार दो | लेकिन माँ बाप का दिल बड़ा महान होता है | इनके माता पिता ने पड़ोसियों की बात ना मान कर इन्हें पालने का निश्चय किया (I salute for them) और पूरी ममता और प्रेम से उनका पालन पोषण किया |

जिन्दगी की दूसरी मुश्किल (जब स्कूल में इनके साथ बुरा बर्ताव हुआ)

जब श्रीकांत बड़े हो रहे थे तो उनके पिता उन्हें अपने साथ खेतों में ले जाने लगे लेकिन वे अपने पिता की कोई मदद नहीं कर पाते थे| इसलिए उनके पिता ने तय किया कि वे उन्हें पढ़ाएंगे और उन्होंने गाँव के पास एक स्कूल में श्रीकांत का दाखिला करा दिया | वे गाँव से 5 कि०मी० दूर स्कूल जाते थे | लेकिन स्कूल में उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव होता था | उन्हें क्लास में सबसे पीछे वाली बैंच पर बिठाया जाता था | दूसरे बच्चे किसी भी खेल और प्रतियोगिता में उन्हें अपने साथ शामिल नहीं करते थे | शिक्षक भी उन्हें पसंद नहीं करते थे क्योंकि वे उन्हें देख नहीं पाते थे और कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाते थे |

तब इनके पिता को एहसास हुआ वे वहाँ पर कुछ भी नहीं सीख पा रहे हैं | इसके बाद इनके पिता ने कुछ पैसो की बचत करके उन्हें एक स्पेशल स्कूल में हैदराबाद भेज दिया जहाँ पर अशक्त बच्चों को शिक्षा दी जाती थी |
जिन्दगी की तीसरी मुश्किल (जब दसवी के बाद उन्हें साइंस पढने के लिए मना किया)

हैदराबाद के स्पेशल स्कूल में मिले प्यार, ममता और देखरेख के कारण वे बहुत जल्दी चीजो को सीखने लगे और पढाई लिखाई और खेलों में बेहतर होते गये | वे वहाँ पर शतरंज, क्रिकेट आदि खेल भी खेलने लगे | उन्होंने अपनी ज्यादातर क्लास में टॉप किया और दसवीं की परीक्षा 92% अंको के साथ पास की| इसके बाद उन्हें पूर्व राष्ट्रपति डॉ० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम के साथ लीड इंडिया प्रोजेक्ट में काम करने का मौका भी मिला | दसवी के बाद ये साइंस विषय पढना चाहते थे | लेकिन उन्हें साइंस साइड में प्रवेश नहीं मिला | आन्ध्र प्रदेश बोर्ड ने उनसे कहा कि वे विकलांग हैं इसलिए वे सिर्फ आर्ट साइड के विषय ही ले सकते हैं | इस पर उन्होंने आन्ध्र प्रदेश बोर्ड पर मुकदमा कर दिया और अपने हक के लिए 6 महीने तक लड़ाई लड़ी | आखिरकार सरकार की ओर से उन्हें ‘अपने रिस्क’ पर विज्ञान विषय लेने का आदेश मिला | इस तरह वे देश के पहले विकलांग बन गये जिसे दसवीं के बाद साइंस पढने के इजाजत मिली |

इसके बाद उन्होंने सारी किताबें Audio Format में हासिल की और दिन रात एक करके मेहनत से पढाई की तथा 12वी की परीक्षा 98% अंको के साथ पास की |

जिन्दगी की चौथी मुश्किल (जब IIT ने उन्हें दाखिला देने से मना किया )

बारहवीं करने के बाद उनके सामने एक बार फिर मुश्किल आई जब उन्होंने देश के सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों, बिट्स पिलानी तथा IIT के लिए apply किया | लेकिन प्रवेश परीक्षा के लिए उन्हें Admit Card नहीं मिला | इन सभी Colleges ने यह कहकर उन्हें मना कर दिया कि वे नेत्रहीन हैं इसलिए प्रतियोगी परीक्षा नहीं दे सकते |

MIT America में एडमिशन

भारत में इंजीनियरिंग करने की इजाजत नहीं मिलने के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने अमेरिका में प्रवेश के लिए कई संस्थानों में आवेदन किया, जो विशेष तौर से नि:शक्तो के लिए बने थे | उन्हें वहाँ के चार बड़े संस्थानों MIT, स्टैनफोर्ड, बर्कले तथा कार्नेगी मेलान में एडमिशन के लिए चुना गया | श्रीकांत ने इनमे से MIT को चुना और स्कॉलरशिप लेकर पढाई की | इस तरह वे स्कूल के इतिहास के और MIT में पढ़ने वाले भारत के पहले नेत्रहीन छात्र बनें |



एक कमरे से शुरुआत की और 50 करोड़ की कम्पनी खड़ी कर दी |

MIT में पढाई के दौरान उनके दिमाग में हमेशा ये चलता रहा कि कुछ ऐसा किया जाये जिससे लोगो को रोजगार मिले| जिससे विकलांग भी सम्मान के साथ अपनी जीविका चला सकें |

इसलिए श्रीकांत ने हैदराबाद में एक टीन के छत वाले छोटे से कमरे में 3 मशीनों और 8 लोगों के साथ 23 वर्ष की उम्र में शुरुआत की | धीरे धीरे यह शुरुआत एक कम्पनी में बदल गयी | उन्होंने इस कम्पनी का नाम बोलांट इंडस्ट्रीज रखा और इसके CEO बन गये | उनकी कम्पनी इको फ्रेंडली डिस्पोजल कंज्यूमर पैकेजिंग प्रोडक्ट बनाती है | उनकी कम्पनी अनपढ़ तथा नि:शक्त लोगो को रोजगार देती है |

आज श्रीकांत की कम्पनी 50 करोड़ की कम्पनी बन चुकी है और इनके हैदराबाद, हुबली तथा निजामाबाद में चार प्लांट हैं तथा एक प्लांट और शुरू करने की योजना बना रहे हैं |
श्रीकांत की सोच और विजन

श्रीकांत के अन्दर एक हार ना मानने वाला जज्बा है और उन्हें अपनी काबिलियत पर पूरा भरोसा है |

वे कहते हैं कि “जब दुनिया कहती थी कि ये कुछ नहीं कर सकता, तो मैं कहता था कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ | मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं है |”

2006 में एक बार डॉ० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने एक प्रोग्राम में बच्चों से एक प्रश्न पूछा कि “आप जीवन में क्या बनना चाहते हो ?” तब श्रीकांत ने सबसे तेज आवाज में जवाब दिया था कि “मैं भारत के पहला नेत्रहीन राष्ट्रपति बनना चाहता हूँ” |



“उनका कहना है कि मैं खुद को सबसे भाग्शाली मानता हूँ, इसलिए नहीं कि अब मैं करोड़पति हूँ, बल्कि इसलिए क्योंकि मेरे माता पिता ने कभी भी मेरे नेत्रहीन होने को अभिशाप नहीं समझा और मुझे इतनी गरीबी के बावजूद पढ़ाया | मेरी नजर में वे दुनिया के सबसे धनी लोग हैं |

श्रीकांत का मानना है कि अगर आपको अपनी जिन्दगी में सफल होना है तो अपने बुरे समय में धैर्य बना कर रखें, और समाज द्वारा तय सीमाओं को निडरता से तोड़ दीजिये |

तो दोस्तों आपने देखा कि कैसे जन्म से ही नेत्रहीन एक शख्स ने अपने हौंसले, कभी हार ना मानने वाले जज्बे से और अपने साहस से तमाम मुश्किलों , मुसीबतों को हराकर 23 वर्ष की उम्र में ही 50 करोड़ की कंपनी खड़ी कर दी और देश दुनियाँ के लाखों करोडो लोगों के लिए एक मिसाल और प्रेरणा का स्रोत बन गया |

दोस्तों अगर आपको अपनी काबिलियत पे भरोसा है , आपके अंदर अपने सपने को पूरा करने का हौंसला है, कभी हार ना मानने वाला जज्बा है तो दुनियां की कोई भी चुनौती , कोई भी मुश्किल, कोई भी मुसीबत आपका रास्ता नहीं रोक सकती , आपको सफल होने से नहीं रोक सकती |

एक प्रार्थना

दोस्तों आशक्त होना, विकलांग होना अपने आप में ही एक अभिशाप है | इसलिए अगर आपके आस पास भी कोई आशक्त या विकलांग है तो कृपया उसके साथ कभी भी बुरा बर्ताव ना करें | आपसे जितना भी हो सके उसकी मदद करें, उसे हमदर्दी का एहसास करायें, उसे ज़िन्दगी में आगे बढ़ने का रास्ता दिखायें | ऐसा करने से आपको बड़ा पुण्य मिलेगा | क्या पता आपके छोटे से प्रयास से , आपकी थोड़ी सी हमदर्दी से किसी विकलांग की ज़िन्दगी बदल जाये ?

स्कूल जाने की उम्र में एक सोफ्टवेयर कंपनी के सीईओ बने 16वर्षीय राहुल

16 वर्षीय राहुल डाॅमिनिक विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं और अपने बेडरूम से एक कंपनी का संचालन करते हैं। इतनी छोटी सी उम्र में एक कंपनी के सीईओ राहुल की सफलता किसी भी उम्र के उद्यमी के लिये एक मिसाल है। राहुल ने याॅरस्टोरी के साथ अपने सफर के प्रारब्द्ध, काम के प्रति उनकी सच्ची लगन, वर्तमान परियोजनाओं और भविष्य की योजनाओं के बारे में उत्साह के साथ विस्तार से बात करते हैं।


राहुल बताते हैं कि खिलौनें से खेलने की उम्र में वे कंप्यूटर पर काम करना सीख गए थे और नौ या दस साल की उम्र तक आते-आते वे प्रोग्रामिंग करना सीख गए थे। बचपन से ही मैं अपने पिता को कंप्यूटर पर काम करते हुए देखता था। हालांकि उस समय मैं उस काम के बारे में अधिक नहीं समझता था लेकिन स्क्रीन पर जो भी दिखता था वह मुझे मोहित कर देता था। पिताजी ने हमेश मेरी शंकाओं का समाधान किया और कभी मुझे कंप्यूटर का इस्तेमाल करने से मना नहीं किया।

बचपन से ही घर में कंप्यूटर का इस्तेमाल करने की आजादी मिलने से राहुल को इसके बारे में सीखने में काफी मदद मिली। ऐसा नहीं कि राहुल ने गलतियां नहीं की। हंसते हुए राहुल बचपन का एक ऐसा ही किस्सा हमारे साथ साझा करते हैं।

जब वे करीब 4 साल की उम्र के थे तब वे अपनी माँ के साथ उनकी एक की एक दोस्त, जो सन माइक्रोसिस्टम के आईटी विभाग में कंप्यूटर प्रोग्रामिंग का काम करती थीं से मिलने गए। उन दिनों वे एक प्रोग्राम तैयार करने में लगी हुई थीं और 18 घंटो की कोडिंग की मेहनत कंप्यूटर पर खुली हुई थी। राहुल की माँ और उनकी मित्र तो काॅफी पीने चले गए और राहुल उस कमरे में कंप्यूटर के साथ अकेले रह गए। राहुल उस समय के बारे में बताते हुए कहते हैं कि मुझे ठीक से तो याद नहीं कि मैंने क्या किया लेकिन मैंने जो किया वो देखने के बाद मेरी माँ की दोस्त बेहोश होते-होते बचीं। पता नहीं कैसे राहुल ने उनकी 18 घंटों की मेहनत को डिलीट कर दिया।

10 साल की उम्र में राहुल ने प्रतिष्ठित एनआईआईटी में ‘सी’ प्रोग्रामिंग सीखने के लिये दाखिला लिया। राहू बताते हैं, 
- मेरी छोटी उम्र को देखते हुए वहाँ के शिक्षकों और जीएम को मेरी योग्यता पर संदेह था। उन लोगों ने सोचा कि ये छोटा बच्चा क्या कर पाएगा लेकिन जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे वे लोग मेरी प्रतिभा के कायल होते गए और मैं तभी से कंप्यूटर प्रोग्रामिंग कर रहा हूँ।

शौकिया तौर पर प्रोग्रामिंग करना शुरू करने के बाद लगभग 12 साल की उम्र में उन्हें पहली बार व्यवसाईक तौर पर अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिला। उस समय उनके पिता ने एक फाईनेंशियल परामर्श कंपनी की नींव डाली और मैंने उनसे इस कंपनी की वेबसाइट तैयार करने के लिये कहा। मेरे पिता ने मुझे खुशी-खुशी मुझे अपनी नई कंपनी की वेबसाइट डिजाइन करने का मौका दिया।
- इस वेबसाइट को तैयार करने के करीब एक साल बाद मैंने बच्चों और किशोरों के लिये ग्राफिक डिजाइन टूल का निर्माण किया जिसका नाम ड्यूकोपेंट रख गया। इसका निर्माण घरेलू कंप्यूटर के लिये किया गया था और जल्द ही यह प्रोग्रम बड़े लोगों को भी भाने लगा। इस दौरान मैंने देखा कि नौकरी करने वाली माँ जब शाम को खाना बनाने की तैयारी करती है तो कई बार उसके समझ में यह नहीं आता कि आज खाने में क्या तैयार किया जाए। इसके बाद मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न पाकशास्त्र को लेकर एक एप्प तैयार की जाए। जल्द ही मैंने खाने को लेकर एक एप्प तैयार की जिसकी सहायता ये मेरी माँ जैसी कामकाजी महिलाओं का रसोई का काम काफी आसान हो गया। इस एप्प के द्वारा महिलाओं को उनकी रोई में उपलब्ध सामान के बारे में पता चलता है। साथ ही यह एप्प रसोई में उपलब्ध सामान के अनुसार ही बनने वाले खानों की रेसिपी दिखाता है।

एक बहुत पुरानी कहावत है ‘‘आवश्यकता अविष्कार की जननी है’’। बीते वर्ष राहुल और उनके एक मित्र स्कूल से एक दिन के अवकाश पर रहे और तब उन्हें महसूस हुआ कि दूसरो से नोट्स इकट्ठे करना और हर विषय का होमवर्क लेना कितना मुश्किल काम है। इस परेशानी से रूबरू होने के बाद मैंने विद्यर्थियों की इस मुश्किल को हल करने की दिशा में काम करना शुरू किया और जल्द ही अपने सबसे महत्वाकांक्षी और सफल प्रोजेक्ट ‘‘वियर्डइन’’ के साथ सामने था।

राहुल कहते हैं कि,‘‘हम विद्यार्थियों को एक ऐसा मंच उपलब्ध करवाना चाहते थे जिसकी सहायता से वे अपने मतलब की सभी जानकारियां एक ही स्थान पर सुगमता से हासिल कर सकें। अब कक्षा समाप्त होने के बाद हमारे अध्यापक जो भी जानकारी सभी छात्रों तक पहुंचाना चाहते हैं वे उसे बस टाइप कर देते हें और सभी छात्र उस जानकारी से रूबरू हो जाते हैं।’’

राहुल आगे बताते हैं कि ‘‘वियर्डइन’’ के इस्तेमाल को लेकर उन्होंने 300 अध्यापकों के के बीच एक सर्वेक्षण करवाया जिसके नतीजे काफी चैंकाने वाले रहे। इस सर्वेक्षण में करीब 86 प्रतिशत शिक्षकों ने इसे बहुत उपयोगी बताया। ‘‘हर किसी ने ‘‘वियर्डइन’’ को लेकर काफी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। अबतक सिर्फ एक ही बात ऐसी है जो नकारात्मक रही है और वो हे इसकी कीमत। हम लोग इस दिशा में भी काम कर रहे हैं और जल्द ही ‘‘वियर्डइन’’ सबकी जेब की पहुंच में होगा। ’’

‘‘वियर्डइन’’ को तैयार करने के पीछे मेरा मुख्य मकसद छात्रों को इंटरनेट पर ही कक्षा के जैसा माहौल देना है। इसकी सहायता से वे इंटरनेट पर अपनी पढ़ाई-लिखाई से संबंधित जानकारियों इत्यादि को दूसरों के सााि साझा कर सकते हैं और घर बैठे भी पढ़ाई कर सकते हैं।

एक तरफ तो राहुल अपने दोस्तों की पढ़ाई में ‘‘वियर्डइन’’ की मदद से सहायता कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ वे आम लोगों की मदद करने के लिये भी प्रयास कर रहे हैं। इसी दिशा में उन्होंने एक एप्प तैयार किया है जिसका नाम उन्होंने ‘‘वेरीसेफ’’ रखा है। यह एक वेब आधारित सुविधा है जिसकी मदद से आप देश या दुनिया के किसी भी कोने के मुख्य शहरों के सुरक्षित होने के विषय में जानकारी ले सकते हैं। आसान शब्दों में कहें तो आप किसी भी बड़े शहर में जाने से पहले वहां के हालात और माहौल के बारे में सावधान हो सकते हैं। ‘‘इस एप्प में आप किसी भी बड़े शहर में होने वाली आपराधिक घटनाओं के बारे में जानकारी ले सकते हैं। इसके अलावा इसमें आपको हर जगह के इमरजेंसी फोन नंबरों की डायरेक्ट्री भी मिलेगी जो किसी आकस्मिक स्थिति में आपका साथ देगी।’’ अंत में राहुल यह बताना नहीं भूलते कि यह एप्प आप बिना कोई कीमत चुकाए इंटरनेट से ले सकते हैं।

जानवरों में होने वाले अल्पकालिक बुखार के लिए हर्बल दवा


पेशे से किसान 62 वर्षीय नवल किशोर सिंह के पास पारम्परिक ज्ञान का भरपूर खजाना है। उन्होंने पशुओं को होने वाले अल्पकालिक बुखार (EPHEMERAL FEVER) के लिए एक असरदार हर्बल दवा तैयार किया है। उन्हें यह पारम्परिक ज्ञान अपने पिता स्व. कैलाश सिंह से मिला था। उनके पास क्षेत्र के लोग अपने पशुओं को होने वाली बीमारी के इलाज के लिए आते थे। यही वजह थी कि नवल किशोर को बहुत कम उम्र में ही हर्बल मेडिसिन के बारे में अच्छी समझ विकसित हो गई। गांव से प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद वह हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए नजदीक के इलाके वारसलिगंज चले गए, लेकिन वह परीक्षा पास नहीं कर पाए। इसके बाद परिवार के लोगों ने उनकी शादी कर दी और उन्होंने पारिवारिक जिम्मेदारियों में हाथ बटाना शुरू कर दिया। साल 1990 में पिता की मत्यु के बाद घर और खेती की पूरी जिम्मेदारी नवल किशोर पर आ गई। इसके अलावा उन्हें अपने घर में चलने वाले छोटे पशु चिकित्सालय को भी संभालना पड़ा। आय के लिहाज से परिवार की सदस्यों की संख्या काफी ज्यादा थी, ऐसे में शुरुआती समय में उन्होंने तमाम आर्थिक कठिनाइयां झेलनी पड़ी। इसके बावजूद भी नवल किशोर ने अपने मूल्यों से कोई समझौता नहीं किया और सेवा के लिए कभी किसी से कोई रकम नहीं मांगी। यहां तक की जरूरत पड़ने पर उनकी मदद अपने पैसों से की, यही वजह थी वह क्षेत्र में जल्द मशहूर हो गए। सकारात्मक सोच रखने वाले नवल किशोर जीवन में आने वाली कठिनाईयों को लेकर कहते हैं कि जो होता है वह भगवान की मर्जी से होता है। इसमें कोई क्या कर सकता है। उनकी पत्नी 57 वर्षीय जानकी देवी भी उनके स्वभाव की कायल हैं और कहती हैं कि वह एक विनम्र और मीठा बोलने वाले इंसान हैं, जिन्हें लोगों से मिलना जुलना खूब पसंद है। वह बताती हैं कि शादी के बाद शुरुआत में उन्हें छह संताने लड़की हुई। ऐसे में उन पर दूसरी शादी का दबाव बनने लगा, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। बाद में जानकी देवी को दो लड़के त्रिपुरारी और कन्हैया हुए। फिलहाल त्रिपुरारी स्नातक करने के बाद उच्च शिक्षा की तैयारी कर रहा है, जबकि कन्हैया दिहाड़ी मजदूर के रुप में काम करता है। तीन लड़कियों की शादी में खर्च के की वजह से उनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी बिगड़ गई, लेकिन नवल फिर भी दूसरों के मदद के लिए हमेशा तैयार रहते है। उन्होंने अपने कई अन्य पारम्परिक ज्ञान को राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान-भारत से साझा किया है।





नवल किशोर के पास पशुओं और मानव दोनों के लिए कई हर्बल दवाएं मौजूद है। इसमें से जानवरों को होने वाले अल्पकालिक बुखार के लिए बनाई दवा प्रायर आर्ट सर्च में अद्वितिय मिली, जिसके लिए राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान- भारत ने उनके नाम से पेटेंट के लिए आवेदन किया है। इस हर्बल फॉमूलेशन के क्लिनिकल परीक्षण के दौरान यह नतीजा आया कि इसके इस्तेमाल से लीवर के प्रमुख एंजाइम प्रभावित नहीं होते हैं और लीवर स्वस्थ बना रहता है। इस दौरान प्रोटीन का मेटाबोलिज्म भी सामान्य रहता है। परीक्षण में यह भी पुष्टि हुई की इसके इस्तेमाल से जानवरों के पैरों में होने वाले दर्द भी होता है, जिससे उनकी चाल में भी सुधार हुआ। नवल किशोर के हर्बल फॉमूलेशन के आधार पर जानवरों को मुंह से खिलाने वाली एक हर्बल दवा Ephelixin - 3D तैयार की गई है। राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान- भारत जानवरों में होने वाले अल्पकालिक बुखार को रोकने वाले की इस हर्बल फॉमूलेशन की तकनीक को हस्तांतरण करने की कोशिश कर रहा है।


Patent Application No: 2243/CHE/2008

12वीं पास शख्स ने मात्र दस हज़ार में बनाया एक टन का एसी, बिजली की खपत 10 गुना कम

कहते हैं ईमानदारी और सही दिशा में किया गया काम अकसर सफलता और सार्थकता की मंजिल तक ले जाता है। इसके लिए ज़रूरी है निरंतर कोशिश और सफलता के लिए जुनून। इस दौरान कई बार मिलने वाली असफलता असल में दवा का काम करती है और समझदार शख्स को मंजिल की तरफ अग्रसर करती है। ऐसी ही एक कहानी है राजस्थान के सरदारशहर के त्रिलोक कटारिया की। त्रिलोक कटारिया ने कम कीमत और कम बिजली के इस्तेमाल से चलने वाले एयरंकडीशनर बनाने का बीड़ा उठाया था। उन्होंने तीन साल तक एसी बनाने में पूरी लगन से रिसर्च की। इन तीन वर्षों में त्रिलोक ने करीब आठ से 10 लाख रुपये खर्च किए। उनके जुनून को बाद में सफलता मिली और उन्होंने 10 गुना कम बिजली खपत करने वाला एक टन एसी तैयार किया। इस एसी के निर्माण में मात्र दस हजार रुपये का खर्च आया है। ऐसे में यदि इस उत्पाद को व्यावसायिक तौर पर मार्केट में उतारने के लिए बनाया जाएगा तो विभिन्न खर्चों के साथ इसकी कीमत अधिकतम 15 हजार रुपये तक जा सकती है, जो बाजार में उपलब्ध 25 से 35 हजार रुपये के एसी से काफी कम है।

त्रिलोक ने बताया, लगातार बढ़ती महंगाई और बिजली की दरों में प्रत्येक वर्ष होने वाली बढ़ोतरी की वजह से आम उपभोक्ता एसी की चाहत के बाद भी उसके बिल से डरा सा रहता है। इसी डर को दूर करने और आम उपभोक्ता को एसी की हवा दिलाने के लिए मैंने इस एसी को बनाने का सपना देखा था।


त्रिलोक कई सालों से एसी ठीक करने का काम करते हैं। उन्होंने बताया कि वह जिस घर में भी एसी ठीक करने जाते, वहां सभी एक ही बात कहते थे कि एसी लगवाने के बाद बिजली का बिल बहुत अधिक आता है। बार-बार यही बातें सुनकर मैंने मन में कम बिजली खपत करने वाले एसी बनाने की ठान ली थी। उन्‍होंने बताया कि इस एसी की एक महत्वपूर्ण खासियत इसका इको फ्रैंडली होना भी है। बाजार में उपलब्ध एसी में सामान्य तौर पर आर-22 गैसों का उपयोग किया जाता है, जोकि ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती हैं, जबकि उनके एसी में हाइड्रोकार्बन गैसों का इस्तेमाल किया है। ये गैसे पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाती हैं।
बिजली की खपत 10 गुना कम


एक एसी बनाने वाली कंपनी में काम करने वाले एक टेक्नीकल इंजीनियर के मुताबिक यह एसी अन्य एसी की तुलना में करीब आठ से 10 गुना कम बिजली खपत करता है। 10 एम्पीयर की बजाय यह 0.08-0.09 तक ही है। एसी में कम्प्रेशर इस तरीके से लगाए गए हैं, कि यह कम वॉल्ट में भी चालू हो जाता है। एक टन का एसी दो हजार वाट बिजली खपत करता है। यह एसी दो सौ वाट बिजली खपत करता है। इसके लिए किसी तरह के स्टेबलाइजर की भी जरूरत नहीं है। यानी बिजली की उपलब्धता में आने वाले उतार-चढ़ाव से भी ये एसी सुरिक्षत है।

12वीं पास हैं त्रिलोक

नेशनल स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग से 12वीं कक्षा पास करने के बाद त्रिलोक कटारिया ने राजस्थान में आईटीआई से एयरकंडीशनर से संबंधित पार्टटाइम डिप्लोमा कोर्स किया। इसके बाद उन्हों ने देहरादून, फरीदाबाद, दिल्ली और नोएडा में एसी बनाने वाली कई कंपनियों में काम किया। यहां रहकर एसी बनाने के तरीके इससे जुड़ी बारीकियां सीखीं। काम करने के साथ-साथ उन्होंने ऐसा एसी बनाना शुरू किया, जो बाजार में उपलब्ध उत्पादों के मुकाबले बेहतर हो।

पेटेंट कराने की प्रक्रिया शुरू

त्रिलोक ने अपनी इस खोज को पेटेंट कराने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। उन्होंने बताया कि जब तक ये काम पूरा नहीं होता है तब तक इसे मार्केट में नहीं उतारा जाएगा। उनकी इस खोज को मार्केट में उतारने के लिए कई कंपनियों ने उनसे संपर्क भी किया है, लेकिन फिलहाल वह इसके लिए तैयार नहीं हैं।

सूरज की तपिस से जमी रहेगी आइसक्रीम और ठंडा रहेगा पानी

गर्मियों में जब कभी हम और आप बाहर घूमने या काम पर निकलते है तो सबसे पहले हमें जरूरत होती है ठंडे पानी या फिर आइसक्रीम की…लेकिन कई बार सड़क किनारे आइसक्रीम कार्ट से मिलने वाली मनपसंद आइसक्रीम हमें पिघली हुई मिलती है...इसी तरह सड़क किनारे मिलने वाला पानी कितना शुद्ध होता है, हमें पता नहीं होता, क्योंकि हर आदमी बोतल बंद पानी नहीं खरीद सकता। इसी समस्या का समाधान लेकर आये हैं मुम्बई के इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर महेश राठी। जो पिछले कई सालों से सोलर विंड और बायोमास के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।

महेश राठी ने बताया, “कुछ नया करने की चाहत में जब एक दिन मैं गुजरात के भुज में विंज टरबाईन के रखरखाव का काम कर रहा था तो फिल्ड में काम करते हुए मुझे एहसास हुआ कि गर्मी में ठंडे पानी की कितनी जरूरत होती है, इसलिए क्यों ना सोलर सिस्टम के जरिये पानी ठंडा करने वाला कोई उपकरण बनाया जाये। तब मैंने इस क्षेत्र में काम करने के बारे में सोचा।”


महेश राठी बताते हैं कि “जब करीब 2 साल पहले गर्मियों के दिनों में काम के सिलसिले में मैं दिल्ली गया तो सड़क किनारे आईसक्रीम कार्ट ने मुझे पिघली हुई आइसक्रीम दी और जब मैंने वेंडर से कहा कि इस पिघली हुई आइसक्रीम के जगह मुझे दूसरी आइसक्रीम दे तो उसके कहा कि दिल्ली की इतनी गर्मी में सब आइसक्रीम का हाल ऐसा ही हो जाता है। इसी तरह मैं घुमते घुमते जब आगे बढ़ा तो मैंने देखा की सड़क किनारे एक पानी के डिस्पेंसर वाला 2 रुपये गिलास पानी बेच रहा था, लेकिन वो पानी कितना साफ था मैं नहीं जानता था। तब मैंने सोचा कि क्यों ना कूलिंग रेफ्रिजिरेटर बनाया जाये जिससे ना सिर्फ साफ पानी मिले बल्कि वो ठंडा भी हो।”


इस तरह महेश राठी ने कूलिंग सिस्टम पर काम करना शुरू कर दिया। शुरूआत में उनको इसे बनाते हुए कई तरह की दिक्कत आई, इसके कई पुर्जें उन्हें चीन व अमेरिका से मंगाने पड़े थे, कुछ चीजों की तकनीक तो सिर्फ अमेरिका के ही पास थी। इसमें उनका काफी पैसा और समय बर्बाद हुआ। इस तरह करीब 5 लाख रूपये खर्च करने और डेढ साल की कड़ी मेहनत के बाद उन्होने एक ऐसा कूलिंग सिस्टम तैयार किया जिसमें आइसक्रीम भी नही पिघलती थी और पानी भी ठंडा मिलता था। अब वो इसे बाजार में उतारने के लिए तैयार थे। खास बात ये थी कि इस आइस कार्ट को सोलर पैनल से चार्ज किया जा सकता है, बारिश के समय इसे बिजली से भी चार्ज किया जा सकता है। इसमें लगने वाली 12 वोल्ट की बैटरी केवल आधा यूनिट में ही चार्ज हो जाती है...इस कार्ट में ना सिर्फ आइसक्रीम और पानी को ठंडा करने की सुविधा है बल्कि कोई चाहे तो अपना मोबाईल भी चार्ज कर सकता है।

महेश के मुताबिक इस कार्ट को बनाते समय सबसे बड़ी दिक्कत निवेश की आई और उनको कोई ऐसा निवेशक नहीं मिल रहा था जो इनके प्रोजेक्ट पर निवेश कर सके। जिसके बाद उन्होने पब्लिक प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया और कार्ट से जुड़े पोस्ट डाले। जिसके बाद ‘मिलाप’ को उनका ये आइडिया पसंद आया और उन्होने इस तरह के कार्ट बनवाने में रूची दिखाई। महेश आगे बताते हुए कहते हैं कि- “मैने उनसे कहा कि अगर पैसा मिल जाय तो वह इस तरह की कम से कम 10 कार्ट बनाना चाहते हैं और इस तरह के कार्ट को किसी एनजीओ को किराये पर दे सकते हैं। ऐसा करने से कई बेरोजगारों को रोजगार के मौके मिल सकते हैं जिससे हर महिने उनको एक नियमित आमदनी भी होगी।”

महेश यहीं नहीं रूके वो अब एक ऐसा सोलर कार्ट बना रहे हैं जो ‘सोलन’ मछलियों को रखने के लिए होगा। इस कार्ट के जरिये सड़क किनारे मछली बेचने वालों की मछलियां लम्बे समय तक खराब नहीं होंगी। इस तरह से उनकी आमदनी बढ़ा सकती है।अपनी योजनाओं के बारे में महेश बताते हैं कि वह सोलर विंड व बायो मास पर काम कर रहे हैं। वो सोलर एयर कंडीशनर और एक ऐसा सोलर एयर कूलर बाजार में उतार रहे हैं जो फोर इन वन है। इस उपकरण में कूलर के साथ ही सोलर पैनल, बैट्री, कूलर, इन्वर्टर लगा है। इनके बनाये एयर कूलर की खासियत है कि ये गर्मी में तो कमरे को ठंडा करता है और अगर सीजन खत्म होने के बाद ये इनवर्टर का काम करता है। महेश ने इस खास तरह के कूलर की कीमत साढ़े बारह हजार रुपये से शुरू होती है।


महेश के मुताबिक उनका बनाया सबसे छोटा आइस कार्ट 108 लीटर का है। जो एक बार चार्ज हो जाने के बाद 16 से 17 घंटे तक आइसक्रीम को जमाये रखता है। इसके अलावा इसमें एक बार में 50 से 60 लीटर पानी स्टोर किया जा सकता है। जो ना सिर्फ साफ होता है बल्कि ठंडा भी रहता है। इस आइसकार्ट की शुरूआती कीमत 1 लाख से शुरू होती है। महेश बताते हैं कि उन्होने अब तक करीब 15 आईसकार्ट (डिप फ्रिजर) होटल वालों को बेच दिये हैं, ये फ्रिजर 500 से 1000 लीटर साइज के हैं। इसके अलावा कुछ बड़ी आईसक्रीम कम्पनियों के साथ उनकी बातचीत चल रही है। मुंबई में रहने वाले महेश अपना कारोबार विश्वामित्र इलेक्ट्रिकल एंड इंजीनियर्स प्राइवेट लिमिटेड के जरिये कर रहे हैं। अब उनकी योजना क्राउड फंडिग के जरिये पैसा इकट्ठा कर कंपनी का विस्तार करने की है।

11 साल के बच्चे ने लैपटॉप की बेकार बैटरी से बनाई सोलर लाइट, सिर्फ 400 रु में रौशन हुआ घर

कुछ बच्चे अनोखे होते हैं। कम उम्र में ही वो अपनी सोच और समझ से दुनिया को सकते में डाल देते हैं। वेदांत ऐसे ही बच्चों में से एक हैं। वो अपनी उम्र के दूसरे बच्चों से थोड़ा हटकर हैं। उसकी उम्र के जो बच्चे खिलौनों से खेलते हैं और टूट जाने पर फेंक देते हैं वहीं वहीं वेंदात उन खिलौनों से दूसरी चीजों को बनाने की कोशिश करता है। वेदांत मीरा रोड़, मुंबई के शांतिनगर हाईस्कूल की छठी क्लास का छात्र है। वेदांत ने ऐसी सोलर लाइट को विकसित किया है जिसे बहुत कम खर्चे में ना सिर्फ बनाया जा सकता है बल्कि जिन इलाकों में बिजली की काफी किल्लत है वहां पर इसका इस्तेमाल बच्चे अपनी पढ़ाई के लिए और महिलाएं घर में खाना बनाने के लिए कर सकती हैं। 11 साल के वेदांत ने यही नहीं बनाया बल्कि अपनी जरूरत के मुताबिक ऐसा रिमोट डोर अनलॉकिंग सिस्टम को भी ईजाद किया है जिसके जरिये दूर से बैठ घर का दरवाजा खोला या बंद किया जा सकता है।


“वेदांत को बचपन से ही विभिन्न तरह की चीज़ों से खेलने और उसके बारे में पूरी जानकारी हासिस करने का शौक रहा है। बचपन से ही उसको बिजली के उत्पाद बनाना, सरल तरीके से बिजली तैयार करना और जरूरमंद लोगों की मदद करना उसके व्यवहार में रहा है। पहले वो सही सलामत चीजों को तोड़ देता था लेकिन अब वो टूटी हुई चीजों को इकट्ठा कर कुछ ना कुछ बनाते रहता है।” ये कहना है वेदांत के पिता धीरेन ठक्कर का। जो पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर भी हैं। वो बताते हैं कि "एक दिन मेरा लैपटॉप खराब हो गया था। इस कारण मैं उसको मैकेनिक के पास ले गये। जहां पर मुझे बताया गया कि लैपटॉप की बैटरी खराब हो गई है और मैकेनिक ने उस बैटरी के जगह नई बैटरी लगा दी। लेकिन वेदांत ने उस पुरानी बैटरी को फेंकने नहीं दिया और उसे अपने पास रख लिया।"

वेदांत ने उस खराब बैटरी को घर लाकर खोलना शुरू किया। जहां उसको छह इलेक्ट्रिक सेल मिले। उसने मीटर से इन सेल को चेक किया, क्योंकि उसे इस तरह के सारे काम पहले से आते थे। इसकी वजह थी कि एक तो उसे खुद इलेक्ट्रॉनिक का शौक रहा है दूसरा उसके पिता भी इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर रह चुके हैं। इसलिए उनके पास पहले से ही ढेर सारे उपकरण घर में मौजूद हैं। जब वेदांत ने इन सेल को चेक किया तो उसे पता चला कि बैटरी में लगे 5 सेल ठीक हैं जबकि उनमें से सिर्फ 1 सेल खराब है और ये सभी सेल एक लाइन में लगती है। ऐसे में अगर कोई भी एक सेल खराब हो जाये तो करंट आगे नहीं दौड़ पाता इसलिए बैटरी को फेंकना पड़ता है।


वेदांत ने इन छह सेल में से जो सेल खराब था उसे अलग किया और घर में रखी एक पुरानी सीएफएल लगी इमरजेंसी लाइट जो पहले से खराब थी उसे ढूंढा और लैपटॉप के 2 सही सेल्स को उसमें लगाया। वेदांत का ये तरीका काम कर गया और लाइट जलने लगी। जब वेदांत ने अपने पिता को इसकी जानकारी दी तो पहले उनको ताज्जुब हुआ कि कैसे उसने खराब बैटरी से लाइट चालू की। उसके बाद जब वेदांत ने उनको सारी कहानी बताई तो वो बहुत खुश हुए। वेदांत ने उनको ये भी बताया कि एक बार इसके सेल खराब हो जाये तो ये लैपटॉप में दोबारा इस्तेमाल नहीं हो सकते बावजूद इसमें इतनी बिजली होती है कि अगर किसी घर में लाइट ना हो तो वहां पर एलईडी लाइट लगाकर कोई बच्चा पढ़ाई कर सकता है या कोई मां अपने बच्चे के लिए खाना बना सकती है।

वेदांत साल में दो बार गांव जाते हैं जहां पर वो देखते थे कि रात में अक्सर लाइट की समस्या रहती है। ऐसे में बच्चे रात में पढ़ाई नहीं कर पाते थे, महिलाओं को खाना बनाने में दिक्कत आती थी और हादसे का डर रहता था। तब उन्होने सोचा कि क्यों ना ऐसे जगहों के लिए मुफ्त में बिजली की व्यवस्था की जाए। इसके लिए वेदांत ने अपने पिता से मदद मांगी और उनसे कहां कि वो उनको एलईडी लाइट और एक छोटा सोलर पैनल लाकर दें। जिसके बाद वेदांत ने सोलर पैनल का चार्जिंग सर्किट तैयार किया। जिसके बाद उसने एक ऐसा लाइट बनाई जो 5 घंटे से लेकर 48 घंटे तक सौर ऊर्जा के जरिये जल सकती है। खास बात ये है कि इसे बनाने में खर्चा भी सिर्फ 4 सौ रुपये तक आता है। वेदांत के पिता का कहना है कि “उसका मकसद है कि बच्चे रात में पढ़ाई कर सकें और उनके लिये मुफ्त में बिजली का उत्पादन किया जा सके।”


खास बात ये है कि लैपटॉप की बैटरी में लिथियम आयन होता है जो पर्यावरण के लिए काफी खतरनाक होता है। वहीं हमारे देश में ई-वेस्ट के खात्मे के लिए कोई भी सही तरीका नहीं है। ऐसे में अगर वेदांत की कोशिश का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल हो तो ना सिर्फ पर्यावरण की रक्षा होगी बल्कि जरूरमंद लोगों को मुफ्त में बिजली भी मिलेगी। इसी बात को देखते हुए वेदांत के पिता ने पेटेंट के लिए भी आवेदन किया है। वेदांत के पिता धीरेन का कहना है कि “उसका ध्यान पढ़ाई में कम और इनोवेशन में ज्यादा रहता है, बावजूद उसका साइंस मनपसंद विषय है।”


वेदांत ने सिर्फ यही नहीं बनाया बल्कि कई ऐसी चीजें बनाई हैं जो रोजमर्रा के इस्तेमाल में काफी मददगार हैं। इस कड़ी में वेदांत के पिता बताते हैं कि अक्सर उनके घर में लोगों का आना जाना लगा रहता है ऐसे में घर का दरवाजा खोलने और बंद करने के लिए वेदांत की मां को अपना काम छोड़ बार बार दरवाजे के पास जाना पड़ता था। ये देख वेदांत ने फैसला लिया कि वो कुछ ऐसा करेगा कि उसकी मां की ये दिक्कत थोड़ी दूर हो जाएगी। जिसके बाद उसने घर का मुख्य दरवाजा खोलने के लिए रिमोट कंट्रोल से चलने वाला लॉक बनाया है। इसके लिए वेदांत ने एक रिमोट कंट्रोल से चलने वाले खिलौने को लिया और उसे तोड़ उसका सर्किट निकाला। जिसके बाद उसने उसमें थोड़े से बदलाव कर घर के दरवाजे पर लगा दिया। जिसके बाद ये दरवाजा अब रिमोट कंट्रोल से ही खुल जाता है। इसके लिए वेदांत की मां को बार बार घर के मुख्य दरवाजे तक आने की जरूरत नहीं पड़ती। खास बात ये है कि ये रिमोट घर में 25 मीटर की दूरी तक काम करता है। अब वेदांत की तमन्ना है कि वो बड़ा होकर इंजीनियर बने ताकि वो देश को बिजली के मामले में आत्मनिर्भर बना सके।

टूटे नारियल से बदली अपनी ज़िंदगी, अब पूरी दुनिया में कमा रहे हैं नाम

सूरजकुंड मेले में आए ये निकुंज हैं। इन्हें 25 साल पहले नारियल के टूटने पर उसे नए रूप में ढालने का आइडिया आया। फिर क्या था, उन्होंने इस पर काम शुरू किया और कुछ वक्त के भीतर ही खुद को एक एग्रो आर्टिस्ट के रूप में स्थापित किया। कुछ सालों बाद इस काम में वे इतने स्किल्ड हो गए कि 2008 में नेशनल अवॉर्ड भी हासिल किया। अब अपनी इस हुनर के जरिए दूसरों का भविष्य संवार रहे हैं। 

टूटे नारियल ने  बदली इनकी Life,  अब पूरे वर्ल्ड में कमा रहे हैं नाम

- निकुंज को शुरू से ही कचरा जमा करने का शौक था।
- पहले वे मेडिकल स्टोर में काम करते थे और उसी से घर का गुजारा चलता था।
- एक वक्त ऐसा भी आया कि उन्हें रोटी को तरसना पड़ा।
- इसी दौरान एक दिन वह ऐसे ही मंदिर में बैठे थे कि किसी ने नारियल तोड़ा।
- टूटे हुए नारियल का गोल भाग उनके पास आ गया जिससे उन्होंने पुरानी घड़ी का कब्जा लगाकर एक पॉट बना दिया।
-उनके एक दोस्त को वह बहुत पसंद आया। आगे चलाकर यही उनका रोजगार बन गया। अब इनके सामानों की विदेशों में भी धूम हैं।

नाबार्ड ने किया फाइनेंशियल सपोर्ट

नाबार्ड ने उनके आर्ट को समझा और उन्हें इसमें बेहतर करने के लिए फाइनेंशियल सपोर्ट दिया। सूरजकुंड मेले में वे अपनी यूनीक कला का नमूना पेश कर रहे हैं। उनके साथ मालाकुमारी वर्मा भी आई हैं, जो 2011 में स्टेट अवॉर्ड जीत चुकी हैं।

टूटे नारियल ने  बदली इनकी Life,  अब पूरे वर्ल्ड में कमा रहे हैं नाम

वर्ल्ड में पेटेंट है लॉक गुल्लक

निकुंज की लॉक वाली गुल्लक पेटेंट हैं। इसमें नंबर वाले लॉक लगे हैं। नारियल के इस गुल्लक को बनाने वाले वह दुनिया में एक मात्र आर्टिस्ट हैं। जबकि गणपति-शिवा की बनाई मूर्ति के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया है।

ऐसे बदली लोगों की जिंदगी

निकुंज बताते हैं कि फिर उनका ये काम अब नशा बन गया। उन्होंने आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को भी इस कला काे सिखाने का निश्चय किया। अब तक उनके साथ 1000 लोग जुड़कर काम कर रहे हैं। इन लोगों को उन्होंने स्वयं ही ढूंढ़ा है। इसके तहत उन्होंने नाबार्ड के सहयोग से ही प्रणव प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड की इन सभी आर्टिस्ट को लेकर एक संस्था बनाई है। केरल कोकोनट बोर्ड से भी उन्हें अब हेल्प मिल रही है। जिसके द्वारा उनसे जुड़े लोगों की चीजों को देश-विदेश में भेजा जाता है।

बना चुके 6000 आइटम

निकुंज ने बताया अभी तक वह किचन, सजाने, ज्वैलरी एवं विभिन्न प्रकार के 6 हजार से अधिक नारियल के आइटम बना चुके हैं। इन्हीं आइटमों का 25 फीसदी वे मेले में लेकर आए हैं। उनके बनाए किचन के सामान में माउस्चर नहीं आता।

Monday 27 March 2017

हाईस्कूल फेल मनसुख ने मिट्टी का फ्रिज व अन्य समान बना कर बदली गरीबों की ज़िंदगी

मिट्टी से फ्रिज और अन्य सामान बना बदली गरीबों की जिंदगीहाईस्कूल फेल मनसुख ने परिवार पालने के लिये सड़क किनारे बेची चायटाइल बनाने के कारखाने में काम करते समय आये विचार ने बदला जीवन का रुखकुम्हार के पुश्तैनी काम को अपनाकर किया देश-विदेश में नाम रोशन

माटी कहे कुम्हार से तों कया रौंदे मोहे

इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदोंगी तोहे 

भक्त रैदास की इन पंक्तियों को गुजरात के एक छोटे से शहर वांकानेर के रहने वाले मनसुख लाल प्रजापति ने बदल दिया है। ये मेरा दावा है कि आप कहानी पढ़ते जाएंगे और आपका शक यकीन में बदलता चला जाएगा।

मनसुख लाल प्रजापति अपनी सुसराल वालों को आता देख राजमार्ग के किनारे स्थित अपनी चाय की दुकान के कोने में सिमटकर खुद को छिपाने की नाकाम कोशिश करते थे। जीवन के 48 बसंत पार कर चुके मनसुख जिंदगी के कई इम्तिहानों में शिकस्त खा चुके थे। छात्र जीवन में दसवीं परीक्षा पास न कर पाने के बाद उन्होंने मजदूरी करनी शुरू की। इसके बाद उन्होंने अपने परिवार का पेट पालने के लिये एक छोटी सी चाय की दुकान खोल ली।

लेकिन अपने सुसराल वालों के सामने सड़क के किनारे चाय बेचने का काम करना उन्हें अपमानजनक लगता। ‘‘मेरे सुसराल वाले मुझसे बहुत बेहतर स्थिति में थे। उनका खिलौने बनाने का खुद का व्यवसाय था और मैं यहां चाय बेच रहा था। उनके सामने मैं बहुत शर्मिंदगी महसूस करता था,’’ मनसुख बताते हैं।
मनसुख लाल प्रजापति

शर्मिंदगी की इसी भावना ने उन्हें जीवन में कुछ करने के लिये प्रेरित किया और आज वे एक सफल और नामचीन उद्यमी हैं। प्रजापति ने कुछ नया करने की ठानी और वर्तमान में वे रेफ्रिजरेटर, प्रेशर कुकर, नाॅन-स्टिक पैन सहित रोजमर्रा के कामकाज के कई घरेलू उपकरणों को बनाने के कारोबार में हैं। रोचक बात यह है कि वे इन सब चीजों को मिट्टी से तैयार करते हैं। ‘मिट्टीकूल’ के नाम से तैयार होकर बिकने वाले ये उपकरण पर्यावरण के अनुकूल, टिकाऊ और प्रभावी होने के साथ बहुत सस्ते भी हैं।

उदाहरण के लिये हम उनके मुख्य और सबसे प्रसिद्ध उत्पाद मिट्टी के रेफ्रिजरेटर को ले लेते हैं जिसके वे अबतक 9 हजार से अधिक पीस देशभर में बेच चुके हैं। 3 हजार रुपये से कुछ अधिक के दाम वाला यह उत्पाद सही मायनों में गरीब के घर का फ्रीज है। ‘‘पैसे वाला तो कुछ भी खरीद सकता है लेकिन गरीब के लिये एक फ्रिज खरीदना बहुत टेढ़ी खीर है। इसलिये मैंने सोचा कि क्यों न एक ऐसी चीज तैयार करूं जो गरीब से गरीब व्यक्ति की पहुंच में हो और वह खरीदकर उसका उपयोग कर सके,’’ प्रजापति कहते हैं।

मिट्टी के इस फ्रिज के अंदर का तापमान कमरे के तापमान की तुलना में लगभग आठ डिग्री कम रहता है। इसमें सब्जियां चार दिन और दूध दो दिन तक ताजा रहते हैं। यह 15 इंच चैड़ा, 12 इंच गहरा और 26 इंच लंबा है जिसे आराम से रसोईघर में या घर के किसी भी कोने में आराम से रखा जा सकता है। अधिकतर खरीददार इसे रसोईघर में स्लैब पर रखना पसंद करते हैं।
अपने मिट्टीकूल फ्रिज के साथ मनसुखलाल प्रजापति

यह फ्रिज एक साधारण वैज्ञानिक सिद्धांत पर काम करता है जिसमें वाष्पीकरण ठंडा करने का कारण बनता है। मिट्टी के इस फ्रिज की छत, दीवार और तल में भरा पानी वाष्पीकृत होकर इसे ठंडा रखने में मदद करता है। इस तरह से इस दो संभागों में बंटे फ्रिज में रखी सब्जियां और खाने का सामान लंबे समय तक ताजा और ठंडा बना रहता है।

प्रजापति फ्रिज और अन्य घरेलू उपकरणों को सिर्फ साधारण मिट्टी से बनाते हैं। उनके पूर्वज कुम्हार थे और उन्होंने मिट्टी के बने उत्पादों के महत्व को प्लास्टिक के बने सामान के सामने ढेर होते बहुत नजदीकी से देखा है। भारत में बढ़ते भूमंडलीकरण के चलते कई कारीगरों को अपना पुश्तैनी काम छोड़ने के लिये मजबूर होना पड़ा। प्रजापति के पिता भी उनमें से एक थे। ‘‘मेरे पिता ने भी कुम्हार का पुश्तैनी काम छोड़कर घर का खर्चा उठाने के लिये मजदूरी करनी शुरू कर दी थी,’’ प्रजापति कहते हैं।

इदलते सूय के साथ प्रजापति ने न केवल अपने पुश्तैनी हुनर को पुर्नजीवित किया है बल्कि यह भी साबित कर दिया है कि हाथ के कारीगरों के लिये अभी आशा की किरण बाकी है। करीब एक साल तक चाय की दुकान चलाने के बाद प्रजापति ने एक टाइल बनाने के कारखाने में एक पर्यवेक्षक के रूप में काम किया जहां उनकी अचेतन पड़ी कुम्हार की प्रवृति दोबारा जागी। ‘‘वहां काम करते समय मुझे महसूस हुआ कि मैं पुश्तैनी रूप से तो कुम्हार हूँ और अगर मिट्टी से सफलतापूर्वक टाइलें बन सकती हैं तो अन्य उत्पाद क्यों नहीं बन सकते।’’

1989 में 24 साल की उम्र में उन्होंने मिट्टी के साथ अपने प्रयोगों को करना शुरू किया। प्रारंभ में उन्होंने मिट्टी से नाॅन-स्टिक पैन बनाने की कोशिश की और धीरे-धीरे वे कई तरह की मिट्टी के साथ प्रयोग करने लगे।

वर्तमान में उनके बनाए उत्पाद इतने सफल हैं कि ग्राहकों की बढ़ती मांग को पूरा करने और मिट्टी के असंख्य उत्पाद तैयार करने के लिये इन्हें कई कारखाने खोलने पड़े हैं। प्रजापति द्वारा खुद तैयार की गई बड़ी मशीनें कुछ ही पलों में मिट्टी को सैंकड़ों की संख्या में उत्पादों में ढाल देती हैं जिससे वे बढ़ती हुई मांग को समय से पूरा कर सकें। वर्तमान में इनका कारोबार 45 लाख रुपये सालाना से अधिक का है और इनके यहां 35 से अधिक लोग काम कर रहे हैं।

लेकिन शीर्ष तक का इनका सफर इतना आसान नहीं था। इस काम को शुरू करने के लिये उन्हें 19 लाख रूपये का कर्ज लेना पड़ा था। प्रारंभिक असफलताओं से घबराए बिना इन्होंने अपना सफर जारी रखा और लोगों के प्रोत्साहन के बाद वे एक के बाद एक सफल उत्पाद बनाते गए।

इनके उत्पाद पूरे भारतवर्ष के अलावा विदेश में भी अपना डंका बजा रहे हैं। इस वर्ष प्रजापति के बनाए उत्पाद अफ्रीका के लिये निर्यात हुए हैं और इन्होंने दुबई के लिये मिट्टी के बने 100 फ्रिज की पहली खेप भी भेजी है।

घरेलू उत्पादों की सफलता के बाद अब प्रजापति मिट्टी से बने एक घर का निर्माण करने की दिशा में मेहनत कर रहे हैं जिसे वे मिट्टीकूल घर के नाम से दुनिया के सामने लाना चाहते हैं। यह मिट्टी का बना एक ऐसा घर होगा जो प्राकृतिक रूप से गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्म रहेगा।

जहां तक उनके सुसराल वालों की बात है तो आज वे प्रजापति की सफलता के से बहुत खुश हैं और उनपर गर्व करते हैं

500 वॉट तक बिजली के झटके कर लेता है बर्दाश्त यह इलैक्ट्रो मैन!

दुनियाभर में कई ऐसे लोग हैं, जो अपने अजीबोगरीब कारनामों के कारण चर्चा में रहते हैं। ऐसे ही एक शख्स केरल के रहने वाले राजमोहन नायर हैं। आपको जानकर हैरानी होगी, लेकिन बता दें कि केरल के कोल्लम के रहने वाले राजमोहन 500 वॉट तक बिजली के झटके को बर्दाश्त कर लेते हैं। इस कारण से राजमोहन के कारनामे की चर्चा देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी खूब होती है।

ये हैं भारत के सुपर ह्यूमन, बर्दाश्त कर लेते हैं बिजली के जोरदार झटके

हिस्ट्री चैनल के प्रमुख रियलिटी शो ‘स्टैन लीज सुपरह्यूमन्स’ में भी राजमोहन अपना परफॉर्मेंस दिखा चुके हैं। इस शो में उन्हें इलेक्ट्रोमैन के नाम से इंट्रोड्यूस कराया गया था। हालांकि, कुछ लोग इलेक्ट्रिसिटी मोहन के नाम भी जानते हैं। राजमोहन अपनी बॉडी पर बिजली के तार लपेटकर बल्ब जलाने का कारनामा दिखा चुके हैं। हालांकि, खतरनाक स्टंट करने वाले राजमोहन दूसरों को ऐसा नहीं करने की सलाह देते हैं।

मां की मौत के बाद करने वाले थे सुसाइड

ये हैं भारत के सुपर ह्यूमन, बर्दाश्त कर लेते हैं बिजली के जोरदार झटके

राजमोहन बताते हैं कि सात साल की उम्र में उनकी मां की मौत हो गई थी। इस घटना से वे काफी टूट गए थे और सुसाइड करने के लिए ट्रांसफार्मर पर चढ़ गए। इस दौरान जब उन्होंने बिजली के तार को पकड़ा तो उन्हें कुछ नहीं हुआ। वे हैरान हो गए। कई बार तारों को पकड़ा, लेकिन कुछ नहीं हुआ। तभी उन्हें लगा कि भगवान ने उन्हें ये स्पेशल पावर दी है, जो औरों से अलग बनाती है। ऐसे में उन्होंने सुसाइड की इच्छा छोड़ दिया।