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Wednesday 12 April 2017

‘‘प्रकृति में दिखता है जीवन’’ - बकुल गोगोइ |

आज से करीब दो दशक पहले असम के तेजपुर जिले के एक छोटे से गाँव के रहने वाला एक युवा अपने आस-पास लगातार कटते हुए पेड़ों और घटते हुए जंगलों को देखकर बेहद दुखी रहने लगा था। वह यह सब देखकर इतना विचलित रहने लगा था की उसे सपनों मे भी पेड़-पौधे, जंगल, नदियाँ रोते-तड़पते हुए दिखाई देते थे। एक दिन इसी तरह के सपने की वजह से जब वे आधी रात में नींद से जाग गए तब उन्होने उस दिन निश्चय कर लिया की आज से उनका पूरा जीवन प्रकृति की सेवा मे समर्पित होगा। 


बकुल गोगोई को पेड़ लगाने का जुनून है। वे बताते है कि बीस साल पहले जब उन्होने पेड़ लगाने कि यह मुहिम शुरू की थी, तब वे गुवाहाटी मे पढ़ाई कर रहे थे। उस वक्त उनके पास इतने भी पैसे नहीं होते थे कि वो  किसी नर्सरी से एक पौधा खरीद कर कहीं रौंप सके। उस वक्त वे अपने खाने के पैसों मे से बचत करके पौधे खरीदते थे और उन्हे शहर मे जहां भी खाली जगह दिखती थी वहाँ जाकर लगा देते थे। पर वो जानते थे कि ऐसा लंबे समय तक नहीं चल सकता है। जल्द ही उनकी पढ़ाई खत्म हो जाएगी और घर से मिलने वाला जो थोड़ा बहुत पैसा है वो भी मिलना बंद हो जाएगा। तब वो सोचने लगे की कैसे वो इस काम को आगे कर सकते है। उसी समय उन्होने अपनी खुद की नर्सरी शुरू कर दी। वो कहते है कि “पौधे लगाने के लिए हमे पैसों की जरूरत नहीं होती।

पौधा खुद अपने बीज तैयार करता है, हमे तो बस थोड़ी सी उसकी सहायता करनी होती है, की वो बीज सही जगह पहुँच जाए और उसके वयस्क होने तक उसका ख्याल रखा जाए। फिर तो वो अपने आप मे इतना सक्षम हो जाता है की खुद कहीं सारे पौधों को जन्म दे सकता है, उनका खयाल रख सकता है। मैं भी तो यहीं कर रहा हूँ। इस प्रकृति से हमें इतना कुछ मिला है, इसने हम सब को माँ कि तरह पाला है। आज जब हमारी जब तकलीफ में ये साथ है, तो हमारा यह फर्ज बनता है कि हम उसकी सेवा करे।”

अपनी इसी मुहिम में लोगों को शामिल करने के लिए इन्होने कई अनोखे तरीके ईजाद किए है। इनके आस-पास के इलाकों में जब भी किसी घर में कोई शुभ कार्य हो रहा होता है तो, यह वहाँ कुछ पौधे लेकर पहुँच जाते है और लोगों से अपील करते है इस शुभ कार्य कि शुरुआत पौधे लगा कर कि जाए। चाहे वो किसी का जन्मदिन, हो शादी हो या किसी भी तरह का कोई और शुभ कार्य, वो कहते है कि जब लोग इन अवसरों पर पौधरोपन करते है तो वह पौधा लोगों के लिए एक जीवित प्रलेख बन जाता है, जिससे उन लोगों कि यादें जुड़ जाती है। वही दूसरी तरफ जब किसी कि मृत्यु हो जाती है तो अंतिम यात्रा मे भी वे लोगों से कहते है कि मरने वाले व्यक्ति को सदा के लिए अमर बनाने के लिए उनकी याद मे परिवार को कम से कम एक पौधा लगवाते है। उनके इन्हीं प्रयासों कि वजह से स्थानीय लोगों ने उन्हे पेड़ वाले बाबा का उपनाम दे दिया है वही दूसरी तरफ समाज के बुजुर्ग लोग उन्हे वृक्ष-मानव कहकर बुलाने लगे है।

अब तक अपने हाथों से दस लाख से भी ज्यादा पौधों को रौपने के बाद अब वे अपनी इस मुहिम को वृहद स्टार पर ले जाना चाहते है। इसके लिए वे असम सरकार से दो चीजों को लागू करवाने का प्रयास कर रहे है कि स्कूल मे दाखिला लेते वक्त हर बच्चे से कम से कम दो पौधे लगवाए जाए और उनकी शिक्षा पूरी होने तक उन पौधों कि जिम्मेदारी उन बच्चों को ही सौंप दी जाए। वे कहते है कि कच्ची उम्र मे जन बच्चों को पेड़-पौधो, प्रकृति से जोड़ा जाएगा तो वे आगे चलकर अपने आप ही प्रकृति के प्रति जागरूक और संवेदनशील हो जाएगा। वहीं दूसरी तरफ उनकी कोशिश है कि असम में होने वाले बीहू महोत्सव के दिन को आधिकारिक रूप से पौधारोपण दिवस घोषित कर दिया जाए और असम का हर परिवार कम से कम एक पौधा उस दिन जरूर लगाए। वो बताते है कि बीहू महोत्सव का आधार मानव के प्रकृति के साथ रिश्ते को हर्षोल्लास से माना रहा है, परंतु आज हम इस रिश्ते को ही भूल गए है। उत्सव के नाम पर हम आज  कई सारी ऐसे कार्य कर रहे है जो सीधे तौर पर प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहे है। ऐसे मे यह जरूरी है कि हम फिर से कैसे इस मरती हुई संस्कृति को जीवित कर सकें, मानव संस्कृति को फिर से प्रकृति के साथ जोड़ सकें। अन्यथा इस संस्कृति कि मृत्यु के साथ मानव कि मृत्यु निश्चित है।

बिहार के इंजीनियरिंग स्टूडेंट का कमाल, अब आर्टिफिशियल हैंड से ड्राइव कीजिए कार

किसी दुर्घटना या हादसे में अपना हाथ गंवाने वाले लोग अब आर्टिफिशियल हैंड (कृत्रिम हाथ) के जरिए कार चला सकेंगे। सिर्फ कार ही क्यों, वे कृत्रिम हाथ के जरिए लगभग वे सभी काम कर सकेंगे, जो साधारण हाथ से किए जा सकते हैं। बीआइटी (बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी, पटना) के छात्र ने इसका मॉडल विकसित किया है। यह अत्याधुनिक कृत्रिम हाथ नसों के मूवमेंट के अनुसार काम करेगा।

आशुतोष की मेहनत का फल
बीआइटी के इलेक्ट्रिकल व इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग के फाइनल ईयर के छात्र आशुतोष प्रकाश ने शिक्षक व साथियों के सहयोग से इस कृत्रिम हाथ को तैयार किया है। उसने बताया कि अभी इसे बनाने में 15 हजार रुपये खर्च आया है।
इसके माध्यम से दुर्घटना में हाथ कटने वाला पीडि़त चाय-पानी का गिलास उठाने के साथ मोबाइल का भी उपयोग कर सकेगा। वह कार भी ड्राइव करे सकेगा। इसे आकर्षक, कारगर व सस्ता बनाने के लिए निदेशक ने और फंड देने की घोषणा की है।


नसों की हलचल पर करेगा काम
भारत में अभी दिमाग के इशारों पर काम करने वाला कृत्रिम हाथ नहीं बना है। जयपुर में बनने वाले कृत्रिम हाथ-पैर स्थाई अंग के रूप में तैयार होते हैं। ये सभी दैनिक कार्यों को अंजाम देने में सफल नहीं हैं। लेकिन, बीआइटी में तैयार कृत्रिम हाथ दिमाग के इशारों पर नसों की हलचल पर काम करता है।

ऐसे करता है काम
माइक्रोकंट्रोलर, मोटर, एम्प्लीफायर सर्किट, इएमजी सेंटर आदि को एसेंबल कर इसे थ्री डी तकनीक से बनाया गया है। सॉफ्ट प्लास्टिक का उपयोग करने के कारण यह बारीक चीज को पकडऩे में सक्षम है। इस डिवाइस को कलाई के ऊपर लगा दिया जाता है। यह डिवाइस दिमाग से दिए गए कमांड को नसों के माध्यम से इनकोड करता है और नसों की हलचल के अनुसार काम करता है।

आर्मी को ध्यान में रख बनाया
दरभंगा के कटहलबाड़ी डेनवी रोड निवासी आशुतोष प्रकाश ने बताया कि वह आर्मी में रहकर देश की सेवा करना चाहता था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के दौरान आर्मी वालों के लिए यह यंत्र बनाने की प्रेरणा मिली।

कहा निदेशक, बीआइटी, पटना, ने-
'आशुतोष का कृत्रिम हाथ काफी उपयोगी है। इसे बेहतर बनाने के लिए आर्थिक मदद दी जाएगी।

आविष्कार: आवाज पर चलती यह ह्वील चेयर, जानिए इसकी खासियतें

बीआइटी में पढने वाले बिहार के छात्र ने एक ऐसा व्हीलचेयर बनाया है जो इस पर बैठे व्यक्ति की आवाज सुनकर चलेगा। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसे निर्देश नहीं दे सकेगा। ‘ह्वील चेयर! मेरी आवाज सुन रहे हो न! बाएं चलो, ...और चेयर आवाज सुनते ही उस दिशा में बढ़ जाएगा। दिव्यांगों के लिए यह खास उपकरण बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (बीआइटी) के इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियिंरग के फाइनल इयर छात्र आशुतोष प्रकाश ने बनाया है। इसकी खासियत ही है कि यह सिर्फ इसका उपयोग करने वाले की ही आवाज सुनेगा। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसे निर्देश नहीं दे सकेगा। इसे बनाने में 20 हजार रुपये का खर्च आया है।

ऐसे मिली निर्माण की प्रेरणा :
आशुतोष ने बताया कि वह बीटेक में दूसरे वर्ष से ही इसे बनाने में जुट गया था। वह इंटर्नशिप के लिए डॉ. अतुल ठाकुर के पास गया था। वहां एक दिव्यांग को चलने में हो रही कठिनाई को देखकर उसी समय ठान लिया कि एक ऐसा ह्वील चेयर बनाएगा, जो आवाज सुनकर चले। दरभंगा निवासी आशुतोष ने इसे अपने दादाजी के लिए भी बनाया है। उसने कहा, जब दादाजी की उम्र अधिक होगी तो वे अपने हिसाब से इसका उपयोग कर सकेंगे। आशुतोष के पिता प्रमोद कुमार मिश्रा दरभंगा केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक हैं। मां रेणु मिश्रा गृहिणी हैं। निर्माण का श्रेय आशुतोष ने दादा, मां एवं पिता को दिया है। आशुतोष ने बताया कि इसका उपयोग आम लोग कर सकें, इसलिए उसने इसका पेटेंट नहीं कराया है।

ऐसे करता है काम...
यह संबंधित व्यक्ति की आवाज को याद कर लेता है। फिर उसी के निर्देश पर काम करता है। कोई आवाज बदलकर इसे निर्देश देना चाहे तो नहीं मानेगा। इसमें लगा सेंसर गड्ढा या दीवार को एक मीटर पहले ही पहचान कर रुक जाता है।

यह है तकनीक
- यह आवाज को प्रोसेस करता है।
- फिर प्रोग्राम के अनुसार माइक्रोकंट्रोलर को निर्देश देता है।
- माइक्रोकंट्रोलर उस हिसाब से मोटर को कंट्रोल करते हुए परिचालन करता है।

17 साल की लड़की ज़रूरतमंदों को दिखा रही है ‘‘दुनिया’’

पुराने चश्मों को इकट्ठा कर पहुंचाती हैं गरीबों तककई एनजीओ के सहयोग से करती हैं यह नेक कामअबतक 1500 से अधिक लोगों की कर चुकी है मददअभियान को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली स्वीकार्यता

दृष्टि को ‘देखने की क्षमता और अवस्था’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है लेकिन इस शब्द के मूल अर्थ का मतलब सिर्फ इतना ही नहीं है। दूसरों की सहायता करने का मतलब सिर्फ जरूरतमंदों को खाना-पीना देने या कपड़े देने या उनके लिये शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना ही नहीं है। अगर आपके अंदर दूसरों की सहायता करने की दूरदृष्टि है तो आप राहों में आने वाली तमाम परेशानियों को पार करके समाज के लिये कुछ कर सकते हैं। 17 वर्ष की आरुषि गुप्ता इस बात का एक जीता-जागता उदाहरण हैं।



आरुषि दिल्ली के बाराखम्बा रोड स्थित माॅडर्न स्कूल में इंटर की पढ़ाई कर रही हैं। वर्ष 2009 में आरुषि ने आँखों की समस्याओं से जूझ रहे लोगों की मदद करने की ठानी और अपने स्तर पर इस दिशा में एक ‘‘स्पेक्टेक्यूलर अभियान’’ की शुरुआत की। इस अभियान के तहत आरुषि ने लोगों के ऐसे चश्मों को इकट्ठा करना शुरू किया जिन्हें लोग पुराना हो जाने पर इस्तेमाल नहीं करते और फेंक देते हैं। आरुषि ऐसे चश्मों को जमाकर हेल्प ऐज इंडिया, जनसेवा फाउंडेशन और गूंज जैसे एनजीओ तक पहुंचा देती जहां से इन्हें जरूरतमंदो तक पहुंचाया जाता।

आरुषि बताती हैं कि इस तरह का विचार सबसे पहले उनके मन में 10 साल की उम्र में आया था। तब उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उनका पुराना चश्मा किसी गरीब के काम आ सकता है ओर उसे किसी जरूरतमंद को दिया जा सकता है। थोड़ा बड़ा होने पर उन्होंने इस बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया तो उन्हें समझ आया कि यह मुद्दा उनकी सोच से कहीं बड़ा है। प्रारंभ में उनकी कम उम्र उनके आड़े आई लेकिन धुन की पक्की आरुषि ने भी हार नहीं मानी और समय के साथ दूसरों की सहायता करने का उनका सपना सच होता गया।

वर्तमान समय में हमारे देश में करीब 15 करोड़ ऐसे लोग हैं जिन्हें दृष्टिदोष की दिक्कत के चलते चश्मे की आवश्यकता है लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वे उसे खरीद नहीं पाते हैं। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत आरुषि अड़ोस-पड़ोस, चश्मों की दुकानों, विभिन्न संस्थानों और अपने परिचितों के यहां से पुराने चश्मे इकट्ठे करके विभिन्न एनजीओ तक पहुंचाती हैं। इसके अलावा वे विभिन्न सामाजिक संस्थानों की मदद से विभिन्न इलाकों में आँखों के मुफ्त कैंप लगवाने के अलावा मोतियाबिंद के आॅपरेशन करवाने के कैंप का आयोजन भी करवाती हैं।

अबतक के सफर में उनके माता-पिता ने उनका पूरा सहयोग दिया है और अपने स्तर पर उनकी हर संभव मदद की है। यहां तक कि उनके स्कूल ने भी अबतक उनके इस नेक काम में हर संभव सहायता की है। चहुंओर मिली मदद के बावजूद आरुषि का सफर इतना आसान भी नहीं रहा है। दूसरों को अपने इस विचार के बारे में समझाना उनके लिये सबसे बड़ी चुनौती रहा। आरुषि बताती हैं कि प्रारंभ में कई बार लोगों से कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर उन्हें बहुत निराशा होती थी।

आरुषि सार्वजनिक स्थानों पर ड्राॅपबाॅक्स रख देती हैं जिनमें लोग अपने पुराने चश्मे डाल सकते हैं। अपने इस अभियान को अधिक से लोगों तक पहुंचाने के लिये आरुषि रोजाना कई लोगों से मिलती हैं और उन्हें अपने इस काम के बारे में जैसे भी संभव हो समझाने का प्रयास करती हैं। इसके अलावा वे और भी कई तरह के प्रयास कर अधिक से अधिक लोगों को अपने पुराने चश्में दान करने के लिये प्रेरित करती हैं।

आरुषि द्वारा अब किये किये गए प्रयास व्यर्थ नहीं गए हैं और तकरीबन 1500 से अधिक लोग उनके इस अभियान से लाभान्वित हो चुके हैं। आरुषि कहती हैं कि ‘‘दान करने की कोई कीमत नहीं है लेकिन इससे आप कई लोगों का आभार कमा सकते हैं।’’

आखिरकार आरुषि के इस प्रयास को उस समय स्वीकार्यता और सम्मान मिला जब उन्हें इस अभियान के लिये चैथे सालाना ‘‘पैरामेरिका स्प्रिट आॅफ कम्यूनिटी अवार्डस’’ के फाइनलिस्ट के रूप में चुना गया। आरुषि कहती हैं कि इस अभियान को लोगों से मिलती प्रशंसा और सराहना से उन्हें लगातार आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती हैै।

Tuesday 28 March 2017

नेगेटिव से फोटो तैयार करने की सरल तकनीक

दशकों पुराने क्लिक-3 कैमरा वाले नेगेटिव के फोटो बनाना आज के समय में असंभव-सा प्रतीत होता है । लेकिन लगन और चाह के आगे कुछ भी असंभव नहीं हैं । जिसे अपनी किशोरावस्था से ही कैमरे का शौक रखने वाले बी.एस. पाबला जी ने साबित कर दिखाया है । बी.एस. पाबला जी ने अपना पहला क्लिक-3 कैमरा सन् 1976 में खरीदा। बी.एस.पाबला जी का जन्म स्थान दल्लीराजहरा है और ये छत्तीसगढ़ के भिलाई क्षेत्र में रहते हैं और महारत्न कंपनी सेल (Steel Authority of India Limited) में 1981 से सेवारत हैं । पाबला जी के पिता का नाम श्री केहर सिंह और माता जी का नाम हरभजन कौर है । इनकी एक बेटी है जिसका नाम रंजीत कौर है । 

पाबला जी को अपनी किशोरावस्था से ही कैमरे का बहुत शौक है, इसलिए जब एक दिन इन्हें 35- 40 साल पुराने आग्फा कंपनी के क्लिक-3 कैमरा के नेगेटिव मिले तो इनके मन में चाह उठी कि काश ये इन नेगेटिव की फोटो फ्रेम बनवा लेते और इन्होंने महज़ 10 मिनट में इसका हल निकाल लिया। यह सारे नेगेटिव आग्फा कंपनी के क्लिक-3 कैमरा के थे । यह एक साधारण से लैंस वाला ऐसा कैमरा था जिसमें अधिक से अधिक 12 चित्र लिए जा सकते थे और नेगेटिव का आकार 6X6 सेंटीमीटर का होता था। एक फोटो लेने के बाद रोल को उंगलियों से घुमाकर ऐसी जगह लाया जाता था जहां कोरे स्थान पर दूसरी फोटो आ सके । अगर आप रोल घुमाना भूल गए तो एक के ऊपर एक दूसरी फोटो छप जाती थी । इस कैमरे में फ्लैश नहीं था व अलग से लगाया भी जाये तो बड़ी सी बैटरी बल्ब होता था जो अपनी चकाचैंध राशनी बिखेरने के साथ ही फ्यूज़ हो जाता था और अगली फ्लैश के लिए नया बल्ब लगाना पड़ता था । 

कैमरा और डेवलपिंगउस समय में भी उन्होंने नेगेटिव के फोटो बनाने के लिए फोटो बनाने की तकनीक बताने वाली एक छोटी सी किताब खरीदी जिसकी सहायता से उन्होंने नेगेटिव से फोटो भी तैयार की । उस फोटो बनाने की तकनीक बताने वाली किताब से उन्होंने नेगेटिव से फोटो बनाने के लिए कमरे में लाल बल्ब लगाकर डार्क रूम बनाया और डेवलपर, हाइपो व 100 पेपर वाला डिब्बा खरीदा । फिर टेबल लैंप के नीचे ड्राइंग शीट का फ्रेम काट कर रखा। नेगेटिव और फोटो पेपर साथ-साथ रखकर कुछ सेकेंड की रोशनी दी । फिर जब उन्होंने फोटो पेपर को डेवलपर वाली ट्रे में होले-होले थप-थपाया तो धीरे-धीरे तस्वीर उभरने लगी। हाइपो से बाहर निकाल कर ठीक से सुखाने के बाद खिंची तस्वीर सामने आई । उस समय में भी उन्होंने स्वयं इस प्रकार नेगेटिव से फोटो तैयार की थी ।

कैमरा एक्सरे

लेकिन अब वे उन दशकों पुराने नेगेटिवों की तस्वीरें उस विधि द्वारा नहीं तैयार कर सकते थे क्योंकि अब वह सब चीज़ें बाज़ार में उपलब्ध नहीं होती। फिर वे उन नेगेटिवों को फोटो में तबदील करने के बारे में सोचने लगे। सोचते-सोचते उनकी ललक इतनी बढ़ गई कि उन्होंने इंटरनेट छाना लेकिन जो उपाय दिखे वह बहुत ही तिकड़मी थे। फिर उन्होंने यह समस्या फेसबुक पर डॉ. अनिल कूमार को बताई और डॉ. अनिल कूमार ने उन्हें बताया कि सफेद कागज़ पर नेगेटिव रखकर स्कैनर पर स्कैन करें और फिर फोटोशॉप जैसे सोफ्ट्वेयर में डाल कर नेगेटिव का पॉजिटिव बना लीजिए। 

कैमरा नेगटिव

ये तकनीक पाबला जी को कुछ जचा नहीं, क्योंकि ऐसी असफल कोशिश वे पहले भी कर चुके थे। फिर पाबला जी को ख्याल आया कि डाक्टरों के कमरे में एक्सरे में देखे जाने वाले डिब्बे जैसी किसी चीज़ से कुछ हो सकता है। फिर झट से उन्होंने एक नेगेटिव निकाला और कमप्यूटर मॉनिटर के सामने स्क्रीन में फंसा दिया। सफेद रोशनी चाहिए थी तहो ब्राउज़र की खाली टेब खोल ली। लेकिन नीचे का टास्क बार रोड़े अटका रहा था तो उसे ऑटो हाईड कर नीचे जाने दिया। फिर पाबला जी ने अपना डिजिटल कैमरा उठाया और उस सफेद रोशनी के सामने फंसे नेगेटिव की फोटो इस प्रकार ली कि सामने फंसे नेगेटिव की फोटो तो आये किन्तु उसके आस-पास की फोटो न आये । 

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उन्हें एक-दो बार कोशिश करने पर मनचाहा परिणाम मिल गया । फिर उन्होंने कैमरे के मेमोरी कार्ड से इमेज कमप्यूटर में डाली और फिर माइक्रोसोफ्ट ऑफिस से काट-छांट कर सही आकार दे दिया । अब इस नेगेटिव जैसी दिखती फोटो को उन्होंने विंडोज़ में उपलब्ध पेंट में खोला, इसके बाद ctrl के साथ a दबाकर या मेन्यू बार में select>select all कर फोटो में ही किसी स्थान पर सावधानी से माउस का राइट क्लिक करके सामने आए बाक्स के निचले हिस्से में दिए इनवर्ट कलर पर क्लिक किया। अब उनके सामने अच्छी खासी तस्वीर आ चुकी थी और अब उसे सिर्फ सेव ही करना था। अब यह फोटो फ्रेम में लगाने लायक थी। तो है ना ये नेगेटिव से फोटो बनाने का नायाब तरीका ।

कैमरा यादों में

हैदराबाद के रेलवे पैंशनर गंगाधर तिलक कटनम का अनूठा प्रयास

हमारे भारत देश में सड़कों की हालत बहुत बुरी है । इस खतरनाक समस्या का हल करने का हमारे ही जैसे एक नागरिक ने बीड़ा उठाया है। उनका नाम गंगाधर तिलक कटनम है । यह एक रिटायर रेलवे कर्मचारी है। वे 67 वर्ष के हैं और इतने बुज़ुर्ग होते हुए भी वे रोज़ सुबह अपनी कार लेकर सड़कों पर घूमते हैं और जहां उन्हें कोई भी गढ्ढा दिखाई देता है, वे उसकी मुरम्मत स्वयं करते हैं । किसी के लिए भी इतने साल नौकरी करने के बाद काम करना कठिन होता है । हर व्यक्ति अपने रिटायरमेंट का समय अपने परिवार और दोस्तों के साथ आराम से और खुशीपूर्वक बिताना चाहता है । 

लेकिन गंगाधर तिलक सेवा निवृत्त होने के बावजूद अपना समय दूसरों की भलाई में लगाना चाहते हैं। लेकिन क्या हम गंगाधर तिलक कटनम जी को एक नियमित आदमी कह सकते हैं ? नहीं क्योंकि वह एक ऐसे इंसान है जो अपने मिशन पर काम कर रहे हैं । उनके लिए सड़कों के गढ्ढे भरना एक मिशन है। इसलिए वह हर दिन अपनी कार लेकर सड़कों पर घूमते हैं और जहां भी गढ्ढा दिखाई देता है उसे भरने में पूरी कोशिश करते हैं । 

उनकी कार की पिछली सीट पर वे कुछ तारकोल मिश्रित बजरी के बोरे रखते हैं, शुरूआत में वे बजरी सड़कों से इक्कठा करते थे लेकिन बाद में उन्होंने ठेकेदारों से खरीदना शुरू कर दिया। उनकी यह यात्रा 5 बजरी के बोरों से शुरू हुई थी और अब गंगाधर जी अपनी कार में 8 से 10 बोरों को रखते हैं उनके इस तरह के समर्पण ने हैदराबाद की सड़कों को यात्रियों के लिए सुरक्षित बना दिया है । उन्होंने बताया कि एक दिन वह कार चला रहे थे और अचानक से उनकी कार गढ्ढे में फंसने के कारण गढ्ढे में भरे गंदे पानी के छींटे गली में खेल रहे बच्चों पर गिर गए । तब उस समय उन्हें बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई । 

फिर तब ही उन्होंने 5000 रूपये खर्च कर जरूरत अनुसार पदार्थ खरीदा और उस गढ्ढे को भर दिया। तब के बाद से उन्होंने कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा और अब तक वे 1,125 गढ्ढों को भर चुके हैं। दो या ढाई साल तक उन्होंने अकेले ही अपने खर्चे पर गढ्ढों को भरा, लेकिन अब कुछ नागरिक और सॉफ्टवेयर इंजीनीयर भी उनके साथ आ गए हैं और उन्होंने इच्छिक श्रमिक सहयोग को ‘श्रमदान’ का नाम दिया है । उन्होंने बताया कि जब वह रिटायरमेंट के बाद एक इंफोटेक कंपनी में काम करते थे तो वह अपने इस मिशन को समय नहीं दे पाते थे, तब उन्होंने यह फैसला किया कि वे ये नौकरी छोड़ देंगे और अपना पूरा समय अपने इस मिशन को देंगे ।

दसवीं पास किसान ने सिखाई इजराइल को पानी बचाने की तरकीब

मेहनत और अच्छी सोच से सिर्फ इंसान को ही नहीं बदला जा सकता बल्कि सूखे और बंजर इलाके को हरा भरा किया जा सकता है। तभी तो जो किसान सिर्फ 10वीं पास था वो आज सैकड़ों किसानों के लिए मिसाल बन गया है, जिस गांव में उस किसान ने जन्म लिया वो कभी चोरी और मारपीट के लिये बदनाम था, लेकिन आज वो दूसरे गांव के लिए आदर्श गांव बन गया है। राजस्थान के जयपुर जिले के लापोरिया गांव में रहने वाले लक्ष्मण सिंह की कोशिशों के कारण ही जयपुर और टोंक जिले के कई गांव में सालों से सूखा नहीं पड़ा और आज यहां के सैकड़ों किसान खेती के मामले में आत्मनिर्भर बन रहे हैं। ये लक्ष्मण सिंह की ही मेहनत है कि उनके काम को देखने के लिए देश से ही नहीं विदेश से भी लोग यहां आते हैं।


लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि “मैंने बचपन में देखा था कि राजस्थान में किसी साल भयंकर बाढ़ आती है और दूसरे ही साल सूखा पड़ जाता है। दोनों ही हालात में किसान की फसल बर्बाद हो जाती है। इस वजह से मेरे गांव के किसान दूसरे राज्यों में जाकर मजदूरी करते थे। साथ ही सूखे की वजह से मेरे गांव में अपराध भी बहुत बढ़ गये थे। एक बार मैं किसी काम से पास के गांव में गया था तो वहां के लोगों ने मुझसे कहा कि तुम उस गांव के हो जहां के लोग चोरी करते हैं और मारपीट करते हैं। ये सुनकर मुझे बुरा लगा और तभी मैंने फैसला लिया कि मैं अपने गांव पर लगे इस दाग को हटाऊंगा।” इस घटना के बाद लक्ष्मण सिंह इस समस्या का हल खोजने में लग गये और पढ़ाई छोड़ कर वे वापस गांव लौट आये। लक्ष्मण सिंह ने सबसे पहले पानी और मिट्टी के लिए काम करना शुरू किया और कोशिश करने लगे कि गांव में ही स्कूल खुले ताकि बच्चों को पढ़ने के लिए दूर न जाना पड़े।


लक्ष्मण सिंह बताते है कि साल 1977 में शुरू हुई उनकी ये मुहिम धीरे धीरे दूसरे गांवों तक भी पहुंचनी शुरू हुई और साल 1985 तक ये 58 गांवों तक फैल गयी। ये सभी 58 गांव राजस्थान के जयपुर और टोंक जिले के हैं। साल 1986 में उन्होने अपने संगठन ‘ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोरिया’ की नींव रखी। उस समय उनकी उम्र 25 साल की थी।


लक्ष्मण सिंह ने सबसे पहले अपने गांव में ‘चौका सिस्टम’ को पुनर्जीवित किया। चौका सिस्टम में बारिश के पानी को कई तरीके से रोक कर उसे धीरे-धीरे जमीन के अन्दर पहुंचाया जाता है। इसके लिए उन्होने 10-20 किसानों के साथ उनके खेतों पर तालाब बनायें, सड़कों के किनारे गड्ढे खोदकर पानी को रोका और कई जगहों पर बड़े तालाब, और दूसरे तरीकों से इस प्रकार पानी को रोका ताकि किसान उस रूके हुए पानी से अपने खेतों में लघु सिंचाई कर सकें। इसका नतीजा ये हुआ कि जिन जगहों पर पानी बहुत नीचे चला गया था। वहां पर पानी के स्तर ऊपर आ गया था। ऐसे में किसानों और मवेशियों के लिए साल भर पानी मिलना शुरू हो गया।


लक्ष्मण सिंह ने इसके लिए गांव के लोगों को इकट्ठा कर उनमें काम का बंटवारा किया। उन्होने पेपर में योजना बनाकर हर किसान को काम की जिम्मेदारी सौंपी। इसमें उन्होंने बाढ़ के पानी को रोकने के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण पर भी काम किया। इसके उन्होंने गोचरों में, सड़कों के किनारे, घरों में और ग्राम चोंकों में नीम, शीशम, आम और वट, पीपल, बबूल आदि के पेड़ लगाये। इससे गांव में हरियाली आई और खेतों में सिंचाई के कारण फसल भी अच्छी होने लगी। प्रकृति को बचाने की मुहिम में उन्होंने लोगों से कहा कि वे किसी भी जानवर को ना मारें यहां तक की चूहों को भी नहीं। उनका कहना था कि प्रकृति ने खुद ही सन्तुलन बनाया हुआ है। इसके लिए गांव के बाहर एक जगह बनाई गई, जहां पेड़-पौधे और घास लगाई गई जिससे यहां पर दूसरे जीव भी रहने लगे। लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि राजस्थान में भले ही सूखा पड़े लेकिन इन गांवों का पानी नहीं सूखता है। आज भी यहां हरियाली और पशुओं के लिए चारा दोनों ही हर मौसम में मिलते हैं।


आज लक्ष्मण सिंह के इस काम से प्रेरणा लेकर दूसरे गांव के लोग भी उनसे इस काम को सीखने के लिए आते हैं और वे खुद भी उन गांवों में इस काम को सीखाने के लिए जाते हैं। वे बताते हैं कि ये काम सिर्फ बैठकों के जरिये नहीं होता है इसमें जब हर तबके के आदमी की भागीदारी होगी तभी ये काम सफल होगा। लक्ष्मण सिंह ने अपने इस काम का विस्तार करने के लिए 40 संगठन बनायें इसमें उन्होंने गांव के हर व्यक्ति को काम की जिम्मेदारी सौपीं। हर साल दिवाली के 11वें दिन वो एक यात्रा का आयोजन करते हैं, ये यात्रा पिछले 28 सालों से लगातार चल रही है। इस यात्रा के जरिये लोगों को प्रकृति, पेड़ पौधों, मिट्टी, कुंए तालाब आदि की जरूरत के बारे में बताया जाता है और इनकी पूजा की जाती है। इस यात्रा के जरिये लोगों को संदेश दिया जाता है कि अगर वो प्रकृति की रक्षा करेंगे तभी प्रकृति भी उनको खुशहाली देगी।


आज लक्ष्मण सिंह के काम की चर्चा ना सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी खूब होती है तभी तो जिस ‘चौका सिस्टम’ को स्थानीय लोग भूल गये थे उसे लक्ष्मण सिंह ने ना सिर्फ पुनर्जीवित किया बल्कि आज इसे सीखने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं। लक्ष्मण सिंह बड़े फक्र से बताते हैं कि “बूंद बूंद बारिश के पानी को धरती के अंदर पहुंचाने का तरीके, यानी ‘चौका सिस्टम’ को मैंने ही इज़राइल को सीखाया है। इसको सीखाने के लिए मैं खुद इज़राइल गया था। इतना ही नहीं ‘चौका सिस्टम’ की सफलता को देखते हुए यूनीसेफ और राजस्थान सरकार ने मिलकर इस पर एक किताब भी लिखी है।“


अपने इस काम के लिए होने वाली फंडिग के बारे में लक्ष्मण सिंह का कहना है कि “मैंने शुरूआत में लोगों को श्रमदान के जरिये जोड़ा और इस काम को करने के लिए बाहर से कोई इंजीनियर नहीं बुलवाये यहां के लोगों ने खुद ही योजना बना कर काम किया। बाद में जैसे-जैसे हमारा काम बढ़ता गया वैसे-वैसे राजस्थान सरकार, यूनीसेफ, और कई फंड एंजेसियों के साथ सीआरएस ने हमें उर्वरकों के लिए मदद दी।“ लक्ष्मण सिंह का दावा है कि उन्होने कभी भी सौ प्रतिशत मदद नहीं ली। उन्होने 50 प्रतिशत मदद और 50 प्रतिशत श्रमदान से ही अपने इस संगठन को चलाया है। उनका मानना है कि जब तक कोई भी व्यक्ति इस मिट्टी को अपना नहीं समझेगा तब तक कोई कितनी भी योजनाएं क्यों न बना लें कोई भी अपने गांव, राज्य और देश का विकास नहीं कर सकता।

सड़कों से गुमशुदा बच्चों को ढूंढ कर उन्हें घर पहुंचाता है दिल्ली का यह ऑटो ड्राइवर

पेशे से ऑटो चालक अनिल कुमार की ज़िंदगी सुबह 8 बजे से शुरू होती है. वे अपने ऑटो रिक्शा को निकालते हैं और यात्रियों, सवारियों के लिए राजधानी की सड़कों पर चारों ओर घुमते हैं. वे पीसीआर स्टाफ, यातायात पुलिस और अन्य बीट अधिकारियों सभी से अच्छी तरह से परिचित हैं. वे उन सभी को रास्ते में एक विश्वास भरी मुस्कान देते हैं और दुआ-सलाम करते हैं और अपने दैनिक मार्ग दक्षिण-पूर्व दिल्ली की ओर निकल जाते हैं.

यात्रियों और सवारियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के अलावा संगम विहार निवासी 40 वर्षीय अनिल कुमार ने एक और जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले रखी है. जैसे-जैसे उनकी ऑटो दिल्ली की सड़कों पर आगे की ओर बढ़ती जाती है, उनकी नज़रें भूले-भटके और असहाय बच्चों की तलाश करती रहती है. जब भी उनकी नज़र किसी असहाय बच्चे पर पड़ती है और वे उसे भटकते हुए पाते हैं, तो ऑटो रोक कर वे उस बच्चे से पूछताछ करते हैं, अगर वह अपना रास्ता भूल गया है, तो उस बच्चे को अनिल उसके घर तक पहुंचाते हैं.


खास बात ये है कि कुमार पुलिस के संपर्क में रहते हैं. जब भी कोई बच्चा किसी क्षेत्र में गुम हो जाता है, तो उसकी जानकारी कुमार को हो जाती है. और कहीं न कहीं सड़कों पर कुमार उस बच्चे के मिलने की उम्मीद में घूमते रहते हैं.

सड़कों पर असहाय बच्चों को तलाशने के बारे में अनिल कुमार कहते हैं-'इसकी शुरुआत कब और कैसे हो गई, मुझे पता ही नहीं चला. लेकिन अब इस काम को मैंने जिम्मेदारी के रूप में ले लिया है. कुछ दिनों पहले नेहरु प्लेस में एक 8 साल के बच्चे को मैंने सड़क पर घूमते देखा. वह खोया हुआ दिख रहा था और बहुत रो रहा था. मैंने उस बच्चे से पूछा कि तुम यहां कैसे आये. उसने मुझसे कहा कि उसने एक बस ली थी, और उसका घर यहां से काफ़ी दूर है. मैंने उस बस के बारे में पता लगाया, और तब जाकर मुझे पता चला कि वह बच्चा द्वारका से भटक कर यहां आ गया है.'

कुमार ने कहा -'मैंने उस बच्चे से पूछा कि क्या उसे अपने माता-पिता का फ़ोन नम्बर याद है. तब उस बच्चे ने मुझे एक नंबर दिया. नसीब अच्छा था कि जब मैंने उस नंबर पर फोन मिलाया, तो फोन पर उस बच्चे की मां थी. उन्होंने कहा कि वे द्वारका में रहती हैं. मैंने उस बच्चे को उसके घर तक छोड़ा और उसकी मां काफ़ी खुश थीं. उस वक़्त मुझे काफ़ी संतुष्टि मिली.'


उसी दिन के बाद से अनिल ने सड़कों पर अकेले घूमने वाले बच्चों को तलाशना शुरू कर दिया. एक अन्य मामले में 13 मई को जब वे एक सवारी को कालका जी मंदिर छोड़ने गये थे, तब उन्होंने एक चार साल के बच्चे को देशबंधु कॉलेज के पास सड़क के किनारे बैठा पाया. उन्होंने बच्चे से बात करने की कोशिश की लेकिन उसने कुमार से बात करने से मना कर दिया.

उनके अनुसार, 'वह बच्चा काफ़ी रो रहा था. मुझे पता था कि वह अपना रास्ता भूल गया है. मैंने उसके लिए एक Soft Drink खरीदी और फिर उससे उसके मम्मी-पापा के बारे में पूछना शुरू कर दिया. लगातार तीन घंटे तक मैं उस बच्चे को B, C और E ब्लॉक में डोर-टू-डोर ले गया, पर उस बच्चे के मां-बाप का कोई पता नहीं चल पाया. जब मैं उस बच्चे के अभिभावक को नहीं ढूंढ सका, तब जाकर मैंने उस बच्चे को स्थानिय पुलिस के हवाले कर दिया.'


'मैं और बीट कांस्टेबल फिर से उस बच्चे को उस क्षेत्र के चारों ओर लेकर गये. अंत में एक आदमी ने उस बच्चे को पहचाना और उस बच्चे के घर का पता बताया. उस बच्चे के दादा उसका इंतज़ार कर रहे थे और उसे देखकर काफ़ी खुश हुए.'

इन घटनाओं के बाद कुमार पुलिस से उन बच्चों की डिटेल साझा करने को कहते रहते हैं, जो बच्चे गुम हो जाते हैं. इसलिए वे सड़कों पर वैसे बच्चों की तलाश करते रहते हैं, ताकि वे उन बच्चों को उनके परिवार से मिला सकें.

वे कहते हैं 'इन दिनों कई तरह की घटनाओं में बच्चों के शामिल होने की बात से मैं डर जाता हूं. शहर को सुरक्षित बनाने में हर नागरिक की भागीदारी महत्वपूर्ण है. मैं कोई असाधारण काम नहीं कर रहा हूं. मैं सिर्फ़ अपना कर्तव्य निभा रहा हूं. जिस तरह से मेरे दो बटे हैं-एक 6 साल और दूसरा 11 साल का, ये भूले हुए बच्चे मेरे बच्चों की तरह ही हैं और उन्हें उनके घर पहुंचाना मेरी जिम्मेदारी है.'

दिल्ली, दक्षिण-पूर्व के डीसीपी एम.एस. रंधावा कहते हैं कि 'अगर हर नागरिक कुमार की तरह ही सक्रिय, मददगार के रूप में शामिल हो जाए, तो निश्चित रूप से अपराधों को रोका जा सकता है. कुमार के इन्हीं कामों की बदौलत मैंने उनका नाम एक विशेष पुरस्कार के लिए नामित किया है.'

63 बार ‘ना’ के बाद भी नहीं हारे, ‘‘कौशिक’’ और ‘‘नवीन’’, 64वीं बार में हुए सफल

कौशिक मुद्दा और नवीन जैन ने वर्ष 2014 में आरवीसीई बैंगलोर से इलेक्ट्राॅनिक्स और संचार के क्षेत्र में स्नातक किया और इंजीनियर बनने में कामयाब रहे। पढ़ाई के अंतिम वर्ष में ही इन दोनों को कैंपस प्लेसमेंट के जरिये अच्छी-खासी नौकरी मिल चुकी थी। कौशिक केपीएजी का हिस्सा बनने में कामयाब रहे थे जो उनके जैसे अधिकतर युवाओं के लिये एक सपने सरीखा था। लेकिन इससे एक वर्ष पूर्व ही यह जोड़ी अपने छठे सेमेस्टर के दौरान कुछ छोटी-मोटी परियोजनाओं पर काम करना प्रारंभ चुकी थी और ये दोनों अपना पूरा समय और ऊर्जा इन परियोजनाओं को समर्पित कर रहे थे। अपने स्टार्टअप को स्थापित करने की जद्दोजहद के बीच कौशिक एक ईमेल के माध्यम से बताते हैं, ‘‘काॅलेज के दिनों में नवीन और मैं छोटे रोबोट और हवरक्राफ्ट का निर्माण किया करते थे।’’ इन मशीनों पर काम करने के दौरान इन्हें महसूस हुआ कि इन्हें अपने रोबोट को और अधिक बेहतर बनाने के लिये उनके कट भागों को और अधिक सटीकता प्रदान करने की आवश्यकता है। इस काम के लिये इन्हें एक सीएनसी (कंप्यूटर संख्यात्मक नियंत्रक) राउटर की आवश्यकता थी लेकिन उस समय बाजार में उपलब्ध सबसे सस्ती मशीन भी इनकी पहुंच से दूर थी क्योंकि कीमत भी करीब 6 से सात लाख रुपये थी और यह रकम इनके लिये बहुत अधिक थी। उस समय को याद करते हुए कौशिक बताते हैं, ‘‘चूंकि हम उस मशीन को खरीद पाने में खुद को असमर्थ पाते थे इसलिये हमने अपनी स्वयं की मशीन का निर्माण करने का फैसला किया और हमें उसके बाद से पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी है। जिसकी शुरुआत हमारी अपनी समस्या के समाधान के रूप में हुई थी अब वह हमारे उपभोक्ताओं की समस्या का भी समाधान पेश करने वाला बनता जा रहा था।’’

इस प्रकार एथरियल मशीन्स (Ethereal Machines) की शुरुआत हुई। हालांकि अभी इनका आगे का रास्ता आसान नहीं था और वह बाधाओं से भरा हुआ था।

सबसे पहले तो इन्हें अपने सपनों को साकार करने के लिये अपनी नौकरी को अलविदा कहना पड़ा। इसके अलावा दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि इन्हें अपने उपभोक्ताओं को यह मानने के लिये राजी करना पड़ा कि काॅलेज के कुछ नये स्नातक ऐसी मशीनों का निर्माण कर सकते हैं जो उनकी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हों।


आखिरकार इन्होंने आगे बढ़ने का फैसला लिया और अपने एक दोस्त को उसका गैराज इन्हें देने के लिये मनाने के बाद उसमें एथरियल मशीन्स् का पहला कार्यलय खोला। एक प्रोटोटाइप का निर्माण करने और उसकी हाईपोथीसिस की पुष्टि करने के बाद इन्होंने आॅर्डर लेने के लिये बाजार का रुख किया और एक चीज जो इनके पक्ष में थी वह यह थी कि ये बाजार में सबसे कम कीमत वाले सीएनसी राउटर का निर्माण कर रहे थे। इस जोड़ी का दावा है कि संपूर्ण भारतवर्ष में उत्पादकों को अपनी मशीनों को अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं के हिसाब से अनुकूलित करने का प्रयास करने के दौरान काफी दिक्कतों और परेशनियों का सामना करना पड़ता है। एथरियल उनकी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के अलावा उन्हें तकनीकी सहायता प्रदान करने मेें भी मदद करता है। इनकी मशीनों की सहायता से लकड़ी, संगमरमर, ग्रेनाइट, प्लास्टिक इत्यादि पर किसी भी प्रकार के 2डी या 3डी डिजाइन को खोदा या तराशा या फिर नक्काशी किया जा सकता है।
बाजार में उतरते ही इनका सामना जीवन की बहुत बड़ी सच्चाई से हुआ और अस्वीकृति जैसे इनके इंतजार में ही खड़ी थी। कौशिक बताते हैं, ‘‘अपना पहला आॅर्डर पाने से पहले मुझे 63 बार अस्वीकृति का सामना करना पड़ा।’’ यहां तक कि जब एक उपभोक्ता को इस बात का भान हुआ कि वे अभी तक काॅलेज के अंतिम सेमेस्टर में ही हैं तो उसने तो इन्हें अपने कार्यालय के बाहर ही फिंकवा दिया था। कौशिक कहते हैं, ‘‘एक उपभोक्ता ने तो हमें सिर्फ इसलिये अस्वीकार कर दिया था क्योंकि उसने भी इस क्षेत्र में कुछ करने का प्रयास किया था और वह बहुत बुरी तरह से विफल हुआ था।’’ संघर्ष के उस दौर में नवीन और कौशिक ने स्थापित होने के लिये बहुत कुछ किया और वे उस 280 वर्ग फुट के गैराज में खुद ही झाड़ू लगाते और किसी उपभोक्ता के आते ही खुद ही सेल्स प्रतिनिधि भी बन जाते। आखिरकार 64वीं बैठक के दौरान वे एक आॅर्डर पाने में कामयाब रहे। 


हालांकि बीते कुछ महीनों के दौरान एथरियल मशीन्स के उपभोक्ताओं की सूची में कोई बड़ा नाम तो नहीं जुड़ा है लेकिन इनका व्यापार काफी अच्छा रहा है। कौशिक कहते हैं, ‘‘हमें इस बात का गर्व है कि हम अपनी मशीनों के माध्यम से व्यक्तियों को उद्यमी बनने में सहायता करते हैं। हमारी मशीन खरीदने के बाद उपभोक्ता संगमरमर और लकड़ी पर नक्काशी करने के अलावा सटीक अंकन और काटने के साथ-साथ इंटीरियर डिजाइनरों के लिये आपूर्ती करने के अलावा कई अन्य कामों को सफलतापूर्वक अंजाम रहे हैं।’’

इनकी मशीनों की कीमत 2 लाख रुपये से लेकर 4 लाख रुपये की बीच आती है और इन्होंने अबतक मार्केटिंग पर एक भी पैसा खर्च नहीं किया है। कौशिक बताते हैं, ‘‘एक ऐसे समय में जब आईटी और सेवाओं के क्षेत्र से संबंधित स्टार्टअप शासन कर रहे हैं ऐसे में मेकेनिकल इंजीनियरिंग से संबंधित एक स्टार्टअप को स्थापित करना बहुत मुश्किल काम रहा है।’’ इनका व्यापार मुख्यतः इस जोड़ी के उस गहन तकनीकी ज्ञान पर निर्भर है जो इन्होंने वर्षों के दौरान अपने अनुभव से अर्जित किया है। विदेशों से मशीनों को आयात करने वाले लोग भारत में तकनीकी समर्थन तलाशने के दौरान बहुत चुनौतियों का सामना करते हैं और यही वह प्रमुख बिंदु है जहां ये दूसरों से कहीं आगे खड़ा होने में सफल होते हैं। 

अगर हम एक विस्तृत दृष्टिकोण से देखें तो बाजार में चीन की बनी हुई मशीनों की बहुतायत है और उपभोक्ताओं को इन मशीनों का संचालन सीखने के दौरान और किसी परेशानी के सामने आने पर काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। कौशिक कहते हैं, ‘‘हमारी मशीनें हमारे द्वारा तैयार किये गए एक विशेष डिजाइन और तकनीक पर आधारित हैं जिसके चलते वे उपभोक्ताओं के लिये अधिक अनुकूल साबित होती हैं। इसके अलावा हमारे उपभोक्ताओं को इन मशीनों का संचालन इत्यादि सीखने में भी अधिक कठिनाई नहीं होती है क्योंकि हमारे इंजीनियर उनके साथ घंटो बैठते हैं और उन्हें प्रशिक्षण देने के लिये तत्पर रहते हैं।’’

बैंगलोर में स्थित इस कंपनी में अब 6 इंजीनियरों की टीम काम कर रही है। यह कंपनी उपभोकताओं से प्राप्त होने वाले सुझावों और शिकायतों के आधार पर सुधार करने के प्रयास कर रही है। फिलहाल भारत के 4 राज्यों में एथरियल की मशीनें काम कर रही हैं और इनका इनका इरादा समय के साथ आगे बढ़ने का है। अंत में कौशिक बताते हैं, ‘‘मैं देश के प्रत्येक राज्य में कम से कम एक मशीन लगाना चाहता हूँ। इसके अलावा हमारे पास खाड़ी देशों और श्रीलंका और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों से भी उपभोक्ता संपर्क कर रहे हैं क्योंकि उन्हें चीनी मशीनों पर भरोसा नहीं है। हमें उम्मीद है कि निकट भविष्य में हमारे द्वारा तैयार की गई मशीनें इन देशों के बाजारों में भी देखने को मिलेंगी।’’

कृषि के क्षेत्र में नयी सूचना-क्रांति की शुरुआत करने वाले सुभाष मनोहर ने कभी सड़कों पर बेची थी घड़ियाँ

सुभाष मनोहर लोढ़े अक्सर अपने गाँव आया-जाया करते हैं। अपनी ऐसी ही यात्रा के दौरान एक दिन उन्होंने अपने गाँव में ऐसा कुछ देखा, जो उन्हें बहुत ही अजीब लगा। सुभाष ने देखा कि एक चरवाहा स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर रहा है। उन्हें ये बात समझ में नहीं आयी कि कैसे एक कम पढ़ा-लिखा चरवाहा स्मार्ट फोन ख़रीद सकता है और अगर ख़रीद भी लेता है, तो वो इसका इस्तेमाल कैसे कर पाता है। इन्हीं सवालों का जवाब जानने के लिए सुभाष ने अपने भाई से बातचीत की। सुभाष को जो जानकारी मिली, उससे वेऔर भी आश्चर्यचकित हो गये। सुभाष को पता लगा कि वो चरवाहा स्मार्ट फोन के ज़रिये मटका जुआ खेलता है। स्मार्ट फोन ख़रीदने से पहले इस चरवाहे को जुए में अपना दाँव लगाने के लिए दूर जाना पड़ता था। वो अपनी मोटर साइकिल पर मटका जुआ के मैनेजर के पास जाकर अपना दाँव लगता था, लेकिन मोबाइल फोन खरीद लेने के बाद उसे दूर मोटर साइकिल पर मैनेजर के पास जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी। वो स्मार्ट फोन में व्हाट्सएप्प के ज़रिये अपना दाँव लगा देता था और उसे नतीजा भी मोबाइल फोन पर ही मिल जाता था। सुभाष को अहसास हो गया कि गाँव में भी अब मोबाइल फोन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होने लगा है, लेकिन उन्हें अफ़सोस था कि चरवाहा टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल ग़लत और ग़ैर-कानूनी काम के लिए कर रहा है। अपनी इसी तहकीकात के दौरान सुभाष को एक और बड़ी दिलचस्प बात का पता चला। जब चरवाहा मटका जुआ खेलने लगा था और मोटर साइकिल पर जाकर दूर कहीं दाँव लगाता था, तो गाँव के किसानों को बहुत नुकसान होता था, लेकिन जब चरवाहे ने मोटर साइकिल पर जाना बंद कर दिया और वो मोबाइल फोन पर ही जुआ खेलने लगा, तो गांववालों का नुकसान कम हुआ। ये बात चौंकाने वाली थी, लेकिन सच थी। होता यूँ था कि गाँव के किसान अपने जानवर चरवाहे के हवाले कर देते थे, ताकि वो उन्हें कहीं अच्छी जगह ले जाकर घाँस चरा दे। जानवरों को चरवाहे के हवाले करके किसान अपने खेतों में काम करने चले जाते थे। खेत में काम पूरा करने के बाद किसान चरवाहे से अपने जानवर वापस ले लेते थे। एक मायने में चरवाहा किसानों का बड़ा मददगार था, लेकिन जब से चरवाहे को जुए की लत लगी, किसानों की परेशानियां भी बढ़ गयीं। मटके में अपना दाँव लगाने की चरवाहे को इतनी जल्दी होती कि किसानों के जानवरों को समय से पहले ही छोड़कर वो मोटर साइकिल पर जुए के अड्डे पर चला जाता था। अपने जानवरों को संभालने के लिए किसानों को खेत का काम बीच में छोड़कर आना पड़ता था। चरवाहे की जुए की लत ने किसानों को बहुत बड़ी परेशानी में डाल दिया था, लेकिन जब से चरवाहे ने स्मार्ट फोन ख़रीदा किसानों की परेशानी दूर हो गयी। चरवाहा अब दाँव लगाने अड्डे पर नहीं जा रहा था और किसानों के जानवरों की देखभाल करते हुए ही मोबाइल फोन पर एप्प के ज़रिये जुआ खेलने लगा था। सुभाष को चरवाहे के बारे में जो जानकारियां मिलीं, उससे उनके मन में नए-नए विचार आने लगे। उन्होंने सोचा कि जब गाँव का एक चरवाहा मोबाइल स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर सकता है तो दूसरे गाँववाले क्यों नहीं कर सकते? चरवाहा तो स्मार्ट फोन का इस्तेमाल ग़लत काम के लिए कर रहा है, लेकिन दूसरे गाँववाले अच्छे कामों के लिए स्मार्ट फोन का इस्तेमाल क्यों नहीं कर सकते? स्मार्ट फोन के ज़रिये क्या किसानों तक वो जानकारियाँ नहीं पहुंचायी जा सकती हैं, जिनसे उन्हें फ़ायदा होता हो?





इन्हीं प्रश्नों का जवाब ढूँढ़ते समय सुभाष मनोहर लोढ़े के मन में एक क्रांतिकारी विचार आया। उन्होंने स्मार्ट फोन जैसे आधुनिक, लेकिन आसानी से उपलब्ध इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के ज़रिये किसानों तक वो जानकारियाँ उपलब्ध करवाने की सोची, जिससे उन्हें खेती-बाड़ी में फ़ायदा हो सके। और कुछ दिनों बाद अपने विचारों को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने काम भी करना शुरू कर दिया। 
सुभाष ने मौसम, मिट्टी की गुणवत्ता, बींज, खाद , रसायन, बाज़ार में अलग-अलग उत्पादों का भाव जैसी बातों की जानकारी सूचना प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मदद से किसानों तक पहुँचाने की दिशा में काम शुरू कर दिया।

किसानों की मदद का इरादा इतना पक्का था कि सुभाष मनोहर लोढ़े ने लाखों की नौकरी छोड़ दी। मार्च, 2015 में नौकरी छोड़ने के बाद सुभाष ने देश के किसानों के विकास और कल्याण के लिए एग्रोबुक नाम से स्टार्टअप की शुरुआत की। Agrowbook.com के ज़रिये सुभाष ने पहली बार देश में आईटी टेक्नोलॉजी और स्मार्ट फोन के ज़रिये खेती-बाड़ी, बागवानी, पशु-पालन और मछली-पालन में लाभकारी सिद्ध होने वाली जानकारियाँ देने का सिलसिला शुरू किया। Agrowbook.com के ज़रिये ही सुभाष किसानों को ये जानकारी भी दे रहे हैं कि कैसे खेतों में उपज बढ़ायी जा सकती हैं। देश और दुनिया में कृषि के क्षेत्र में हो रहे अलग-अलग शोध और अनुसंधान के परिणाम भी अब किसान जान पा रहे हैं। agrowbook.com को राष्ट्रीय ग्रामीण अनुसंधान प्रबंधन अकादमी से भी मदद मिल रही है। इसी मदद से उन्हें देश में कृषि के क्षेत्र में हो रहे अगल-अलग अनुसंधानों के नतीजों का पता चल रहा है। इस स्टार्टअप का राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान से भी करार हुआ है। इस करार के तहत agrowbook.com रूरल टेक्नोलॉजी पार्क की जानकारियां देश-भर में प्रसारित कर रहा है।

सुभाष की कोशिश है कि आईटी टेक्नोलॉजी और आधुनिक और आसानी से उपलब्ध इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के ज़रिये देश के किसानों को भी जोड़ा जाय, ताकि वे आपस में ज्ञान-विज्ञान, अपने अनुभवों, कामयाब प्रयोगों की जानकारियाँ आपस में साझा कर लाभ उठाएं। Agrowbook.com एक ऐसा माध्यम भी बना है, जिसके ज़रिये किसान बिजली, पानी, खाद जैसे चीज़ों के सही समय पर सही इस्तेमाल की जानकारी भी पा सकते हैं। किसानों को संकट से उभरने के उपाय बताने का काम भी सुभाष अपने इस स्टार्टअप के माध्यम से कर रहे हैं। Agrowbook.com में सुभाष के ऐसे कई सारे वीडियो भी डाले हैं, जिन्हें देखकर किसान बहुत कुछ सीख सकते हैं। Agrowbook का एप्प भी लांच किया जा चुका है। 


सुभाष मनोहर लोढ़े कहते हैं, "ये तो बस एक शुरुआत है। अभी बहुत काम करना बाकी है। ज्यादा से ज्यादा किसानों तक इसे पहुँचाने की ज़रुरत है। और भी जानकारियाँ जुटनी है।"

महत्वपूर्ण बात ये भी है कि सुभाष ने Agrowbook.com की गतिविधियों का विस्तार करते हुए ज्यादा से ज्यादा किसानों को विकास के नए मार्ग दिखाने के लिए बड़ी योजना भी बना ली है। इस योजना के तहत सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं, शोध और अनुसंधान केंद्रों, किसान संगठनों से गठजोड़ और समझौतों का भी प्रस्ताव है। किसानों के विकास के लिए इतनी बड़ी और अपने किस्म की पहली योजना बनाने वाले सुभाष मनोहर लोढ़े भी किसान-परिवार से ही हैं। बचपन से ही वे खेती-बाड़ी से जुड़े रहे और उन्होंने शुरू से ही किसानों की समस्याओं को अच्छी तरह से जाना और समझा है। सुभाष ने भी अपने जीवन में कई मुसीबतें झेली है। परेशानियों और चुनौतियों का सामना किया है। ग़रीबी, गाँव के पिछड़ेपन, सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं के थपेड़े खाये हैं। उनकी कहानी भी संघर्षों से भरी हुई है।

विपरीत परिस्थियों से लड़ने, उससे उबरने वाली प्रेरणादायक सुभाष की कहानी की शुरुआत महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के वणी से शुरू होती है। 7 दिसंबर, 1979 को सुभाष मनोहर लोढ़े का जन्म हुआ। पिता किसान थे और अपनी सात एकड़ ज़मीन में खेती-बाड़ी करते हुए घर-परिवार चलाते थे, लेकिन जिस इलाके में खेत थे, वहां बारिश सामान्य से कम होती थी। अक्सर सूखा रहता। यवतमाल जिला देश-भर में किसानों की आत्महत्याओं की वजह से भी हमेशा चर्चा में रहा है। इस जिले में मौसम बहुत की कम बार किसानों पर मेहरबान रहा है। किसान लगातार मौसम की मार झेलते ही रहे हैं। सूखा-ग्रस्त रहने वाले इलाके में पैदा हुए सुभाष के पिता शुरू से ही चाहते थे कि उनका बेटा पढ़े-लिखे और बड़ी डिग्रीयाँ लेकर नौकरी करे। पिता ने सुभाष का दाखिला जिला परिषद स्कूल में करवाया। यहाँ उन्होंने पांचवीं तक पढ़ाई की। सारी पढ़ाई मराठी मीडियम से ही हुई। इसके बाद सुभाष ने नवोदय विद्यालय की प्रवेश परीक्षा लिखी। चूँकि बचपन से ही दिमाग तेज़ था वे प्रवेश परीक्षा में पास हो गए और उन्हें नवोदय विद्यालय में दाखिला मिल गया। सुभाष ने छठीं से आठवीं तक की पढ़ाई यवतमाल टाउन के इसी विद्यालय से की। इसके बाद उन्हें स्कूल के एक कार्यक्रम/योजना के तहत जम्मू-कश्मीर में जाकर पढ़ने का मौका मिला। सुभाष ने दो साल तक जम्मू-कश्मीर के एक नवोदय विद्यालय में पढ़ाई की। यहाँ से दसवीं पास करने के बाद ये वापिस अपने यहाँ यानी वणी आ गये। वणी के लोकमान्य तिलक महाविद्यालय से उन्होंने दसवीं और बारहवीं की पढ़ाई पूरी की।


ख़ास बात ये रही कि स्कूली पढ़ाई के दौरान जब कभी मौक़ा मिलता, सुभाष अपने पिता के साथ खेत जाते और वहाँ काम करते। छोटी उम्र से ही सुभाष ने खेतों में जाना और खेती-बाड़ी का काम करना शुरू कर दिया था। जैसे-जैसे वे बड़े होते गये, उन्होंने खेती-बाड़ी के बड़े काम भी शुरू कर दिए। किशोरावस्था में ही सुभाष खेती-बाड़ी का सारा काम सीख गए थे। जुताई-बुआई के सारे काम से लेकर भैंस का दूध निकालना और फिर उसे ले जाकर बेचने, बैलों और दूसरे जानवरों का चारा खिलाना जैसे सभी काम करना सुभाष करते थे। पढ़ाई-लिखाई के बीच खेती-बाड़ी बदस्तूर जारी रही। खेतों से न कभी नाता छूटा न कभी मुहब्बत कम हुई।

बारहवीं की पढ़ाई के बाद सुभाष को उनकी काबिलियत और प्रवेश परीक्षा में रैंक की बदौलत शेगाँव इंजीनियरिंग कॉलेज में सीट मिल गयी। 1998 से 2002 तक सुभाष ने इस कॉलेज से पढ़ाई की। उन्होंने यहाँ से बीटेक (इलेक्ट्रिकल्स - पॉवर) की डिग्री हासिल ही।

बीटेक की डिग्री मिलते ही सुभाष और उनके घरवालों में उम्मीद जगी कि अब उन्हें अच्छी तनख्वा पर अच्छी जगह नौकरी मिलेगी। नौकरी की वजह से घर-परिवार की परेशानियाँ दूर होंगी। ग़रीबी से नाता टूटेगा लेकिन, सुभाष को तुरंत नौकरी नहीं मिली। नौकरी के लिए कई दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े। बीटेक की डिग्री होने बावजूद उन्हें नौकरी नहीं मिली। घर-परिवार से दबाव तो नहीं था, लेकिन सुभाष जानते थे कि परिवारवाले उनसे कमाई की आस लगाए हुए हैं। ये स्वाभाविक भी था। काफी खर्च कर, बड़ी उम्मीदों के साथ माता-पिता ने सुभाष को पढ़ाया था। नौकरी न मिलने से सुभाष भी बहुत परेशान हुए। उन्हें बेचैनी होने लगी। नौकरी की तलाश में वे नागपुर गए। जब वहाँ भी नौकरी नहीं मिली तो इतने हताश हुए कि कमाई के लिए सड़कों पर घड़ियाँ बेचने लगे।

परेशानियों से भरे उन दिनों के बारे में जानकारी देते हुए सुभाष मनोहर लोढ़े ने कहा,
" मैं नौकरी की तलाश में नागपुर गया था। वहां मैं अपने भाई के एक दोस्त के यहाँ रहा था। नौकरी के लिए बहुत जगह घूमा-फिरा, लेकिन नौकरी नहीं मिली। मुझे समझ में नहीं आ रहा था मैं क्या करूँ। खाली था और अलग-अलग विचार मन में आ रहे थे। ऐसी हालत मैं मैंने कुछ दिन के लिए सड़कों पर गैजेट भी बेचे, लेकिन जल्द ही मुझे लगा कि मैं इस काम के लिए नहीं बना हूँ।"

बिना नौकरी के वे दिन कितने दुःख और दर्द भरे थे इस बात का अहसास दिलाने के मकसद से सुभाष ने हमें ये भी बताया," सिर्फ दो समोसे खा कर मैंने दिन बिताए थे नागपुर में। उन सात-आठ महीनों को मैं नहीं भूल सकता।" 


2003 में सुभाष को नौकरी मिली। मुंबई के ऐरोली इलाके में श्रीराम पॉलिटेक्निक कॉलेज में उन्हें लेक्चरर का काम मिला। यहाँ एक साल पढ़ाने के बाद उन्हें ठाणे के केसी कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग में प्लेसमेंट ऑफिसर की नौकरी मिली। यहाँ पर काम करते हुए उन्होंने कई छात्रों को नौकरियों पर लगवाया था। कॉलेज के छात्रों को इनफ़ोसिस, टीसीएस जैसे बड़ी कंपनी में नौकरियाँ दिलवाई थी सुभाष ने। ये नौकरियाँ दिलवाते समय सुभाष को इस बात का अहसास हुआ कि वे छात्रों को नौकरी दिलवा रहे हैं फिर भी उनकी तनख्वा उन छात्रों से बहुत कम है, जो पहली बार नौकरी करने जा रहे हैं। उन्हें ये भी लगा कि सॉफ्टवेयर की कंपनियाँ ज्यादा तनख्वा देती हैं और वहाँ रोज़गार के अवसर भी ज्यादा हैं। इसी वजह से सुभाष ने सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग भी सीखना शुरू किया। सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी की जानकारी हासिल करने की वजह से ही उन्हें यूनिसिस नाम की कंपनी में नौकरी मिल गयी। सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग सीखने का फैसला सुभाष के बहुत काम आया। वो सही समय पर लिया गया फैसला था। आगे चलकर सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए काम करते हुए ही उन्होंने तरक्की की। करीब चार साल तक यूनिसिस में काम करने के बाद उन्होंने कंपनी बदली। नौ महीनों तक उन्होंने हेक्सावेर टेक्नोलॉजीज में काम किया। फरवरी, 2011 में उन्होंने हारस्को कॉर्पोरेशन ज्वाइन किया।


नौकरी करते हुई सुभाष ने अपने ग्रामीण इलाके के पढ़े-लिखे नौजवानों की मदद के लिए एक ग्रामीण बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग कंपनी यानी रूरल बीपीओ खोला। ये बीपीओ मुंबई के एक रिसोर्ट में बिज़नेस को बढ़ावा देने के लिए मैत्रेया ग्रुप की मदद से खोला गया था। नौकरी के इन्हीं दिनों में जब सुभाष को एक बार गाँव जाना हुआ तो उन्हें चरवाहे के समार्ट फोन पर मटका जुआ खेलने की जानकारी मिली। और फिर अपने गाँव से ही नए-नए विचार लेकर वे शहर आये। लाखों रुपये वाली नौकरी छोड़ी और Agrowbook.com शुरू किया। Agrowbook.com की वजह से कृषि और उससे अनुबद्ध क्षेत्रों में एक नयी सकारात्मक क्रांति की शुरुआत हुई है।