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Wednesday 12 April 2017

5वीं फेल शख्स ने बनाया घूमने वाला घर

आज के समय में देश का हर युवा इंजीनियर बनने सपने देखता है। अपने सपने को पूरा करने के लिए वह अपनी आधी लाइफ तो पढ़ाई में लगा देता है और लाखों रुपए फीस में भरकर भी नौकरी मिलती है कुछ हजार रुपए की। लेकिन प्रतिभा किसी कॉलेज या स्कूल में मिलने वाली शिक्षा की मोहताज नही होती है। प्रतिभा व्यक्ति के अंदर बसती है। कुछ ऐसे होते हैं। जो पढ़ाई करके भी वो हासिल नही कर पाते जो बिना पढ़े लिखे हासिल कर लेते हैं। एक ऐसे ही शख्स हैं तमिलनाडु के मेलापुदुवक्कुदी गांव मे रहने वाले 65 वर्षीय मोहम्मद सहुल हमीद। पांचवी कक्षा में फेल होने के बाद मोहम्मद सहुल हमीद ने आर्थिक तंगी की वजह से पढ़ाई छोड़ दी थी। जब ये छोटे थे तब इनके घर के हालात ठीक नहीं थे। घर खर्च चलाने के लिए जब काम ढूंढने निकले तो उन्हें काम नहीं मिला तो ये मजदूरी करने लगे। मजदूरी करते-करते मोहम्मद सहुल हमीद घर बनाने में रूचि लेने लगे। इसके बाद मोहम्मद सहुल हमीद अरब देश जाकर रहने लगे। 20 साल वहां रहने के बाद उन्होंने घर बनाने का काम सीख लिया। अरब देश में काम करने से उन्हें वहां की नई टेक्नोलॉजी का अनुभव हो गया और फिर अपने देश वापस आकर उन्होंने यह प्रण लिया की वो भी एक ऐसा घर बनाएंगे जिसे देखने के लिए दूर-दराज के लोग आएंगे।


देखने के लिए आते हैं दूर-दूर से इजीनियर :
विदेश मे कई सालों तक काम सीखने के बाद अपने गांव लौट कर उन्होंने इंजीनियरिंग का एक ऐसा नमूना खड़ा किया जिसे देखने के लिए दूर-दूर से इंजीनियर आते हैं। मोहम्मद सहुल हमीद के परिवार की आर्थिक स्थिती ठीक ना होने की वजह से उन्हें अपना स्कूल कक्षा पांच में ही छोड़ना पड़ा और कुछ कर नहीं सकते थे। कुछ आता भी नहीं था तो मजदूरी करने लग गए। मजदूरी करते-करते घर बनाना अच्छा लगने लगा। कुछ ही दिनों में ये शौक बन गया। इसलिए उन्होंने कंस्ट्रेशन लाइन मे अपना कॅरियर बनाने की सोची।

प्री फैब्रिकेटेड संरचना :
गांव लौटने पर हमीद ने एक ऐसा घर बनाया जो मूव कर सकता है। इसे मूविंग टाइप हाउस कहा जाता है। इसे प्री फैब्रिकेटेड संरचना भी कहा जाता है। जब हमीद ने ऐसा घर बनाने की बात अपने दोस्तों और परीवार के सामने रखी तो सब उनका मजाक उड़ाने लगे। हमीद ने इस मूविंग हाउस को बनाने के लिए राफ्ट फाउंडेशन टेक्नॉलाजी का प्रयोग किया। मोहम्मद सहुल हमीद द्वारा बनाये इस घर में ग्राउंड फ्लोर पर 3 तथा फर्स्ट फ्लोर पर 2 बेडरूम हैं। फर्स्ट फ्लोर को आयरन रोलर की मदद से किसी अन्य दिशा में भी घुमाया जा सकता है। मुहम्मद हमीद अपने इस घर के बारे में बताते हुए कहते हैं कि ” मैं कुछ नया करना चाहता था इसलिए मैंने ये मूविंग हाउस बनाकर सबको गलत साबित कर दिया। इस अनोखे निर्माण से प्रभावित होकर राज्य के विभिन्न जगहों से इंजीनियर हमीद का घर देखने आते हैं।” 25 लाख रुपये में तैयार उनका ये प्रोजेक्ट तमिलनाडु के मेलापुदुवक्कुदी गांव में 1080 स्क्वायर फीट जमीन पर खड़ा है।

उबाऊ होती शिक्षा को एक मजेदार अनुभव बनाने की कामयाब कोशिश 'इंफाइनाइट इंजिनियर्स'

क्या आप भी यह मानते हैं कि क्लास में पीछे बैठने वाले छात्र पढ़ाई में कमजोर होते हैं? क्या पीछेे बैठने वाले छात्र जिंदगी में पीछे ही रह जाते हैं? या वे कुछ नया करने के लायक नहीं होते? अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप बिल्कुल गलत हैं। क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जो हमेशा क्लास में पीछे बैठे लेकिन अपनी नवीन सोच और आइडिया ने उन्हें जिंदगी में सफल बना दिया।

एमसी जयकांत बचपन से उन बच्चों में शुमार रहे जो क्लास में हमेशा अपने लिए पीछे वाली सीट की तलाश मेें रहते हैं। क्लास में हमेशा उन्होंने औसत अंक ही पाए। स्कूल के बाद उन्होंने एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमीशन लिया। जब वे इंजीनियरिंग के तीसरे साल में थे तब छात्रों को डिज़ाइन और फ्रैब्रिकेशन के अंतर्गत प्रोजेक्ट्स दिए गए। जयकांत ने सोच क्यों न कुछ अलग बनाया जाए जो किसी ने न बनाया हो। कुछ नया करने की इच्छा मन में लेकर जयकांत ने ब्लेडलेस विंड टर्बाइन विषय को अपना प्रोजेक्ट चुना और अपना प्रोजेक्ट बनाया। कुछ समय बाद एक दिन जयकांत को उनके दोस्त ने बताया कि सेमिनार हॉल में प्रोजेक्ट की प्रेजेंटेशन चल रही है। फिर वे लोग भी सेमिनार हॉल पहुंच गए और पीछे जाकर बैठ गए ताकि उनका समय एक एसी हॉल की ठंडक में आसानी से कट सके और उन पर किसी का ध्यान भी न जाए। लेकिन एक स्टाफ कर्मचारी ने उन्हें वहां देख लिया और फिर जयकांत ने उन्हें बताया कि उनका प्रेजेंटेशन भी तैयार है और वे पे्रजेंटेशन देने आए हैं। जयकांत ने सोचा कि वे उनकी बात को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेंगे लेकिन थोड़ी ही देर बाद जब जयकांत का नाम पुकारा गया तो वे हैरान रह गए और थोड़ा घबरा भी गए। फिर किसी तरह उन्होंने खुद को बैलेंस किया और स्टेज पर आ गए। जहां उन्होंने पांच मिनट में अपना प्रेजेंटेशन दिया। लगभग एक सप्ताह बाद जयकांत को पता चला कि उस दिन के सभी प्रेजेंटेशन्स में जयकांत के प्रेजेंटेशन को सबसे अधिक अंक मिले हैं। यह खबर सुनकर जयकांत बहुत हैरान हो गए। जयकांत ने इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। बार-बार वे खुद से यही सवाल कर रहे थे कि यह कैसे हो गया? जयकांत की इस हैरानी की एक वजह यह भी थी कि जिंदगी में पहली बार वे किसी परीक्षा में प्रथम आए थे। बेशक किसी प्रेजेंटेशन में पहले स्थान पर आना कोई इतनी बड़ी घटना नहीं है लेकिन जयकांत के लिए यह पल उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट बन गया। उसके बाद जयकांत ने खुद से सवाल करने शुरु किए। खुद को टेस्ट करना शुरु किया और फिर सारे कॉलेज व और इंटर कॉलेज प्रेजेटेंशन में भाग लेना शुरु कर दिया।

इस दौरान जयकांत अपने दोस्त के साथ गोवा गये और जब वे गोवा से वापस चेन्नई लौट रहे थे कई तरह के विचार उनके दिमाग में आते जा रहे थे। चेन्नई लौटते ही उन्होंने तय किया कि अब उनके दिमाग में जैसे ही कोई क्रिएटिव आइडिया आएगा वे सभी आइडियाज को नोट करते चले जाएंगे और उन आइडियाज पर काम करेंगे। साथ ही जयकांत के दिमाग में यह सवाल भी बार-बार खड़ा हो रहा था कि आखिर क्यों आज के छात्र कुछ अलग नहीं सोच रहे हैं? क्यों वे केवल वही काम कर रहे हैं जो सालों से सभी करते आ रहे हैं? और आखिर क्यों वे खुद को केवल वहीं तक सीमित रखना चाहते हैं? जबकि सभी छात्र पढ़ने में अच्छे हैं। जयकांत इसका उत्तर पाना चाहते थे। आखिरकार उन्होंने खुद इसका जवाब भी खोजा और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस सब की वजह हैं हमारे स्कूल और शिक्षा देने का हमारा पुराना तरीका। हमारे स्कूल शुरु से बच्चे को केवल पढ़ने में ज़ोर देते हैं कुछ नया सीखने पर नहीं। ज्यादा अंक लाने के चक्कर में किसी का ध्यान इस ओर नहीं जाता कि बच्चे ने सीखा क्या। क्या केवल पढ़कर या रटकर अच्छे अंक लाना ही शिक्षा प्राप्त करना है? क्या अच्छे अंक लाने की होड़ में हम उस आनंद से वंचित नहीं हो रहे जो सच में हमें पढ़ते समय आना चाहिए?

अब जयकांत को अपने सवाल का जवाब मिल चुका था, और इसी जवाब को जयकांत ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। अब वे नई पीढ़ी के लिए इस दिशा में तर्कसंगत तरीके से काम करना चाहते थे। छात्र जो भी पढ़े उसे तर्कसंगत तरीके से व्यवहारिक तौर पर करे जिससे उसे पढ़ाई में भी मज़ा आए और उसे सभी विषय आसानी से समझ भी आएं। शिक्षा का मतलब केवल अच्छे अंक लाने तक सीमित न हो बल्कि उसका सही इस्तेमाल हो। जब जयकांत ने इस विचार को अपने दोस्तों के साथ शेयर किया तो सभी तुरंत इस विषय पर काम करने को तैयार हो गए। फिर जयकांत ने अपने दोस्त हरीश के साथ १५ सिंतबर २०१३ में 'इंफाइनाइट इंजिनियर्स' की शुरुआत की।

'इंफाइनाइट इंजिनियर्सÓ का मकसद व्यवहारिक विज्ञान को जमीनी स्तर यानी उनका प्रयोग करके छात्रों के समक्ष सरल तरीके से समझाकर पेश करना था ताकि बच्चे भी कुछ नया सोचें और उनका दृष्टिकोण रचनात्मक हो सके।

जयकांत और हरीश के अलावा एस जयविगनेश, ए किशोर बालागुरु और एन अमरीश भी 'इंफाइनाइट इंजिनियर्स' के सह संस्थापक हैं। वर्तमान में यह लोग कई ट्रेनिंग सेंटर्स, रोबोटिक और ऐरो मॉडलिंग की शिक्षा स्कूल स्टूडेंटस को दे रहे हैं। इंफाइनाइट इंजीनियर्स का मकसद स्कूल के सिलेबस के साथ जुड़कर छात्रों को बेहतरीन शिक्षा अनुभव देना है जो छात्रों के लिए उपयोगी हो। मकसद शिक्षा को किताबों या ब्लैकबोर्ड तक सीमित न रखते हुए उसके प्रैक्टिकल इंप्लीमेंटेशन से उसे समझाना है। शिक्षा को बोझ नहीं बल्कि मजेदार अनुभव बनाना है।

कंपनी ने शुरुआत दो स्कूलों से की थी, लेकिन आज यह चेन्नई के लगभग अस्सी स्कूलों में काम कर रही है। जल्दी ही कंपनी अप्लाइड साइंस रिसर्च इंस्टीट्यूट बनाने की दिशा में काम कर रही है ताकि किसी भी स्कूल का छात्र यहां आकर शिक्षा प्राप्त कर सके और अपने क्रिएटिव आइडियाज से सफलता की नई ऊंचाईयों को छू सके।



सफलता का श्रेय -

कंपनी के सभी लोग अपनी सफलता का श्रेय उन लोगों को देना चाहते हैं जो उनकी आलोचना करते हैं क्योंकि यही आलोचना कंपनी को और बेहतर करने की प्रेरणा देती है। एक बार कंपनी के प्रयासों को लेकर एक प्रोफेसर ने कहा कि इंफाइनाइट इंजीनियर्स एक व्यर्थ का प्रयास है जो चलने वाला नहीं है। प्रोफेसर द्वारा की गई इस आलोचना को इंफाइनाइट इंजीनियर्स के सभी सदस्यों ने संकल्प के तौर पर स्वीकार किया और अपने काम के प्रति और दृढ़ हो गए इसलिए कंपनी उक्त प्रोफेसर साहब को भी अपनी सफलता का श्रेय देती है जिन्होंने उन्हें जुनून की हद तक इस दिशा में काम करने के लिए प्रेरित किया।

सही बात तो यह है कि पढ़ाई करने का असली तरीका क्या हो? इस सवाल का सबसे सही जवाब तो क्लास में पीछे बैठने वाले छात्र ही बेहतर तरीके से समझा सकते हैं क्योंकि वही इस सच को जानते हैं कि अध्यापकों की कौन सी बातें पीछे बैठे छात्रों को सालों से सोने पर मजबूर करती रही हैं।

सुनिए, बोलने में अक्षम बच्चों की ‘आवाज़’


अजीत नारायणन, संस्थापक
आज के समय में शिक्षा के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के साथ ही क्रांति आ गई है और स्मार्टफोन और टैबलेट के प्रयोग ने इसे और भी रोचक और मनोरंजक बना दिया है। विभिन्न शारीरिक अक्षमताओं और लकवाग्रस्त बच्चों को शिक्षा देने के लिये इन तकनीकी यंत्रों और एप्लीकेशन्स का इस्तेमाल हमें एक नये युग की ओर ले जा रहा है। ऐसे बच्चे जिनको बोलने में परेशानी होती है और जिन्हें छोटी-छोटी बातें समझने में काफी समय लगता है, अब उनकी समस्या का समाधान मिल गया है। एक चित्र आधारित सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन ‘आवाज़’ ने उनकी जिंदगी ही बदल दी है।


25 वाक् चिकित्सक (स्पीच थिरेपिस्ट) और 300 लकवाग्रस्त बच्चों के साथ काम करते हुए चेन्नई की इनवेंशन लैब्स की टीम ने ऐसे टेबलेट सॉफ्टवेयर ‘आवाज़’ का ईजाद किया जिसकी मदद से ये बच्चे अपने शब्दों को तस्वीरों में बदलकर दूसरों को अपने मन के भाव समझा सकते हैं। ‘आवाज़’ तस्वीरों और बढि़या क्वालिटी वाले वाइस सिंथेसिस का इस्तेमाल कर संदेश बनाता है और भाषा को बेहतर बनाता है।

इसका पूरा श्रेय जाता है इनवेंशन लैब्स के संस्थापक अजीत नारायणन को। अजीत नारायण पहले प्रसिद्ध अमरीकन मेगाट्रेड्स कंपनी में नौकरी करते थे और वर्ष 2007 में उन्होंने अपनी कंपनी शुरू की। आईआईटी चेन्नई के स्नातक अजीत ने वर्ष 2009 में गूंगे लोगों की सहायता के लिये एक संचार उपकरण बनाने के साथ ही इस दिशा में अपने कदम बढ़ाए। इसके बाद उन्होंने अपनी दिशा बदली और टैबलेट और स्मार्टफोन के सॉफ्टवेयर में विशेज्ञता हासिल की।

अजीत नारायणन का कहना है कि आईपैड और एंड्रॉयड आधारित टैबलेट जैसे उपकरण विशिष्ट जरूरतों वाले बच्चों के संचार की प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन ला रहे हैं। वे कहते हैं, ‘‘यह प्रोडक्ट तस्वीरों और हाथों के संकेतों के जरिए एक दूसरे से बात करने में बच्चों की मदद करता है। वे अलग अलग तस्वीर लेते हैं, उन्हें क्रमबद्ध करते हैं, फिर ये क्रम वाक्य में बदल जाता है और फिर उसे पढ़ा जाता है।’’

इस समय ‘आवाज़’ तीन ग्रेड वाला रिसर्च आधारित शब्दकोश ऑफर करता है जिसमें मूल और अतिरिक्त शब्द विभिन्न कोटियों में इकट्ठा किए गए हैं। भारत के अलावा, इनवेंशन लैब्स अब यूरोप, अमरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित बाजारों में सॉफ्टवेयर अनुप्रयोग के लिए बेचता है। अजीत का दावा है कि डेनमार्क और इटली में सिर्फ ‘आवाज’ ही लकवाग्रस्त बच्चों के लिये मौजूद एप्लीकेशन है। इसके इस्तेमाल से माता पिता और बच्चों के जीवन में बहुत सुधार हुआ है।

अजीत आगे जोड़ते हुए बताते हैं ‘‘लकवाग्रस्त बच्चे और सुनने में दिक्कत का सामना करने वाले बच्चे खुद को अभिव्यक्त करने में बहुत मुश्किलों का सामना करते हैं। हालांकि उनके माता-पिता, रिश्तेदार और विशेष स्कूलों के शिक्षक संकेतों के जरिए उनकी अभिव्यक्ति को समझ सकते हैं, लेकिन यह उपकरण इस मुश्किल का हल करने में बहुत उपयोगी है,’’।

अपने इस काम के लिए अजित को 2011 में एमआईटी टैक्नोलॉजी की नवीन आविष्कारों की वैश्विक सूची में भी नामित किया गया था। इसके अलावा उन्हें भारत के राष्ट्रपति से विकलांगों के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।

‘आवाज़’ मुख्य रूप से दो घटकों, एक स्पीच सिंथेसाइजर और उसकी सहायता से संचालित होने वाले लिखित पूर्वानुमान सॉफ्टवेयर को मिलाकर बनाया गया है। स्पीच सिंथेसाइजर को विभिन्न क्षमताओं वाले अक्षम बच्चों लिये डिजाइन किया गया है। इसमें एक 7इंच की टचस्क्रीन एलसीडी, वॉयस आउटपुट के लिये स्पीकर और ऑडियो संकेतों के लिए ऑडियो जैक, यूएसबी पोर्ट, मोनो जैक पोर्ट, रिचार्जेबल बैटरी के अलावा पहिएदार कुर्सी में लगाने का विकल्प उपलब्ध रहता है। लिखित पूर्वानुमान सॉफ्टवेयर अक्षम बच्चों को वाक्य बनाने ओर फिर उन्हें दूसरों को समझाने में मदद करता है। ‘आवाज़’ में स्कैनिंग तकनीक का इस्तेमाल कर वाक्यों को तैयार किया जाता है। यह एपलीकेशन वर्तमान में अंग्रेजी भाषा में लगभग 10000 शब्दों का समर्थन करता है। इसके अलावा इसमें बच्चे की सुविधा के हिसाब से और भी शब्दों को जोड़ा जा सकता है।

इस तरह से ‘आवाज़’ उन बच्चों की आवाज बनने में सफल रहा है जो अबतक अपनी बात दूसरों तक नहीं पहुंचा पाते थे। ‘आवाज़’ की मदद से ऐसे बच्चे अब अपने दिल और दिमाग में चल रहे विचारों को स्पीच सिंथेसाइजर के जरिये दूसरों के समाने अभिव्यक्त कर सकते हैं।

अक्षम बच्चों के माता-पिता या उनके शुभचिंतक इस एप को सिर्फ 9.99 डॉलर (5 हजार रुपये) प्रतिमाह का खर्चा करके इसका प्रयोग कर सकते हैं। इसे खरीदने से पहले अगर चाहें तो परीक्षण के लिये वे पहले इसे एक सप्ताह के लिये मुफ्त में प्रयोग कर सकते हैं।

फिलहाल ‘आवाज़’ अंग्रेजी और छह भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है, लेकिन इसे और भाषाओं में भी लाने की योजना पर काम च

गजब आविष्कार : धरती से 'जहर' पीकर 'अमृत' देगा 'नीलकंठ'

हरियाणा के कैथल जिले के सातवींं पास किसान लक्ष्मण सिंह ने 'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनाने का फॉर्मूला खोज लिया है। खास बात यह है कि बिना बिजली के इस यंत्र पर लागत भी ज्यादा नहीं आती।

कैथल (सुधीर तंवर)। प्रतिभा को किसी स्कूल और कॉलेज की जरूरत नहीं। वैसे भी ज्यादातर अविष्कार अनपढ़ों और कॉलेज ड्रॉपर्स के नाम दर्ज हैं। ठीक ऐसेे ही हरियाणा के कैथल जिलेे में रहने वाले एक किसान ने भी एक नया 'अविष्कार' किया है। जो काम आज तक बड़ी-ब़ड़ी कंपनियों में करोड़ों की तनख्वाह लेने वाले इंजीनियर नहीं कर पाए इस सातवीं पास किसान ने वो काम महज तीस हजार रुपये में कर दिया।


'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनानेे का फॉर्मूला निकाला

सौंगल के किसान लक्ष्मण सिंह ने 'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनानेे का रास्ता खोज लिया है। दरअसल, रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से भूजल 'जहरीला' होता जा रहा है। इसी 'जहरीले' पानी को हम पीते हैं, जिसका दुष्प्रभाव शरीर पर पड़ता है। इसी को मीठा बनाने के लिए लक्ष्मण ने महादेव नीलकंठ वाटर प्यूरीफायर बनाया है।


सिरमिक पाउडर और कोयले से शुद्ध होगा पानी


लक्ष्मण सिंह ने अपने इस यंत्र में पांच तरह के फिल्टर लगाए हैं। इसमें टंकी से पाइप के जरिए पानी आता है। पांचों फिल्टर पीवीसी पाइप के जरिए आपस में जुड़े होंगे। इन्हीं पांचों फिल्टरों से गुजर कर पानी शुद्ध होगा। पहले चार फिल्टरों में मौजूद ईंट-पत्थर और सिरमिक का पाउडर व लकड़ी का कोयला पानी को शुद्ध करेंंंगे। जबकि पांचवां फिल्टर पानी को पूरी तरह शुद्ध कर इसमें ऑक्सीजन भर देगा।


बिना बिजली 15 साल तक मिलेगा स्वच्छ पानी


यह वाटर प्यूरीफायर 15 साल तक स्वच्छ पानी मुहैया कराएगा। खास बात यह कि न तो इसके लिए बिजली की जरूरत होगी और न मेंटीनेंस की।


बचा हुआ पानी भी खेती के लिए फायदेमंद


प्यूरीफायर में पानी के शुद्धीकरण के बाद बचे हुए पानी को खेती में प्रयोग किया जा सकता है। दावा है कि इसमें मौजूद फ्लोराइड साल्ट, टीडीएस, जंक और ऑक्सीजन की उपस्थिति उर्वरक का काम कर जमीन की उत्पादन क्षमता को कई गुणा बढ़ा देगी। लक्ष्मण सिंह ने कहा कि उनके खेत में खड़ा 25 फीट ऊंचा गन्ना हो या भुट्टों व गेहूं की बालियों से लदे मक्की और गेहूं के पौधे या फिर कचरियों व लौकी से लदी बेल, इस दावे को पुख्ता करती हैं।


तीस हजार आती है लागत


एक इंच पाइप वाला महादेव नीलकंठ प्यूरीफायर करीब 30 हजार रुपये में तैयार हो जाता है। दावा है कि यह एक घंटे में करीब पांच हजार लीटर पानी को शुद्ध कर देता है। इसी तरह दो, तीन, चार, पांच इंच पाइप वाले यंत्र का खर्च और पानी को शुद्धिकरण करने की क्षमता उसी अनुपात में बढ़ती जाती है।


कई कंपनियों ने दिए लुभावने ऑफर


लक्ष्मण सिंह से उनके प्यूरीफायर की तकनीक साझा करने के लिए कई नामी गिरामी कंपनियों ने मोटी धनराशि की पेशकश की, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। लक्ष्मण ने इस प्यूरीफायर का बाकायदा पेटेंट करा लिया है। वहीं, विशेषज्ञों ने भी इस पर मुहर लगाते हुए इसे किफायती बताया है।


समाजसेवा के साथ-साथ रोजगार देने का सपना


लक्ष्मण सिंह ने अपने इस अविष्कार के जरिए समाजसेवा के साथ-साथ युवाओं को रोजगार देने की भी योजना बनाई है। लक्ष्मण सिंह इस प्यूरीफायर का व्यापक स्तर पर उत्पादन और प्रचार करने की योजना पर काम कर रहे हैं। इसके लिए पहले वो छोटे स्तर से शुरूआत करेंगे। इसके बाद पूरे राज्य में नेटवर्क बनाया जाएगा और फिर दूसरे प्रदेशों के युवाओं को इस मुहिम से जोड़ा जाएगा। लक्ष्मण सिंह ने कहा कि देश भर में इसका प्रसार कर देने के बाद जापान जैसे दूसरे देशों के साथ इस तकनीक को साझा किया जाएगा।


फिलहाल ब्लॉक और ग्राम स्तर से करेंगे शुरुआत


लक्ष्मण सिंह ने अभी एमटेक पास पांच युवाओं की टीम बनाई है। जो कि 15 जून से विभिन्न जिलों के पांच-पांच युवाओं को पंचायती जमीन पर प्यूरीफायर बनाने का प्रशिक्षण देगी। इसके बाद ये टीमें ब्लॉक और ग्राम स्तर पर बीटेक/एमटेक युवाओं को प्रशिक्षण देंगी। जो प्यूरीफायर का निर्माण कर इसकी बिक्री करेंगी। इसे बनाने वाले युवकों को कच्चा माल लक्ष्मण सिंह ही उपलब्ध करवाएंगे

रामगढ़ की 12 वर्षीय काव्या विग्नेश करेंगी डेनमार्क में यूरोपीय रोबोटिक्स चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व

काव्या विग्नेश और उसके दोस्त डेनमार्क में रोबोटिक्स प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले सबसे कम उम्र की टीम में शामिल हैं। मधुमक्खियों को बचाने के अनूठे समाधान के साथ वे इस प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

"दिल्ली पब्लिक स्कूल, नई दिल्ली की क्लास 7 में पढ़ने वाली काव्या विग्नेश को आर्ट्स, डांसिंग और सिंगिग साथ-साथ रोबोटिक्स भी पसंद है। अच्छी एजुकेशन सिर्फ रोबोटिक्स के बारे में जानना ही नहीं, बल्कि वो सब कुछ करना होता है जो आपका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है और जिसके बारे में और अधिक जानने के लिए आप उत्सुक रहते हैं।"
12 साल की काव्या विग्नेश

काव्या और उसकी टीम फर्स्ट लेगो लीग का हिस्सा होगी। ये एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता है, जिसमें 60 देशों के 9 से 16 वर्ष के बीच के लगभग 200,000 बच्चे भाग लेंगे।

काव्या विग्नेश जब नौ साल की थी उन दिनों गर्मियों की छुट्टी के दौरान उसकी माँ ने उसे रोबोलैब के रोबोटिक्स क्लासेस के लिए एनरॉल करवाया और तभी से काव्या ने मुड़ कर कभी पीछे नहीं देखा। वो अपने शौक और जुनून के साथ आगे बढ़ने लगी। काव्या अब 12 साल की है और उसकी टीम सुपरकिलफ्रागिलिस्टिक्सएक्सपीआईडियोगुसीज (Supercalifragilisticexpialidocious) फर्स्ट लेगो लीग (FLL) में शामिल होने वाली भारत की सबसे कम उम्र की टीम है। यूरोपीय ओपन चैंपियनशिप (ईओसी) की ये प्रतियोगिता इस साल के मई माह में डेनमार्क में आयोजित होने जा रही है।

हालांकि टीम के नाम सुपरकिलिफ्रैजिलिस्टीक्सस्पिअडोगुसीज़ (Supercalifragilisticexpialidocious) का उच्चारण थोड़ा मुश्किल है, लेकिन काव्या के लिए यह ज्यादा कठिन नहीं है। काव्या कहती है, "ये नाम मजाक के रूप में सुझाया गया था, लेकिन हमें यह जंच गया और फिर निरंतरता बनाये रखने के लिए हमने इसे ही आगे बढ़ाया, जिसका अर्थ है- बहुत बढ़िया या अद्भुत।

डेनमार्क में प्रतिस्पर्धा के लिए, टीम को अपने प्रोटोटाइप, यात्रा और अन्य खर्चों के लिए धन की आवश्यकता है। अन्य माता-पिता के विपरीत काव्या के माता-पिता क्राउड फंडिंग के माध्यम से धन जुटाने का समर्थन करते हैं, जिसके लिए काव्या ने भी अपनी टीम के साथ मिलकर धन जुटाने का काम शुरू कर दिया है।


क्या है फर्स्ट लेगो लीग


काव्या और उसकी टीम फर्स्ट लेगो लीग का हिस्सा होगी। ये एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता है, जिसमें 60 देशों के 9 से 16 वर्ष के बीच के लगभग 200,000 बच्चे भाग लेंगे। इसके लिए प्रत्येक देश में राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। राष्ट्रीय प्रतियोगिता के विजेता को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए चुना जाता है, जहां दुनिया भर की टीमें एक-दूसरे के खिलाफ अपना कौशल दिखती हैं। काव्या और उनकी टीम ने टॉप 8 में अफनी जगह बनाई है और सूची में सबसे काम उम्र की टीम है। काव्या की ये टीम अब डेनमार्क में होने वाली एफएलएल-ईओसी प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करेगी। इस टीम में में 6 स्टूडेंट्स और 2 टीचर शामिल हैं और ये सभी सभी उस रोबोक्लब से जुड़े हुए हैं, जिससे काव्या नौ साल की उम्र से जुड़ी हुई है।
फर्स्ट लेगो लीग प्रतियोगिता इस तरह की टीमों को, ध्यान केंद्रित करने और अनुसंधान के लिए एक वैज्ञानिक और वास्तविक चुनौती देता है। प्रतियोगिता के रोबोटिक्स भाग में कार्यों को पूरा करने के लिए लेगो माइंडस्टॉर्म रोबोट की डिजाइनिंग और प्रोग्रामिंग शामिल है। छात्र उनको दी गई विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए काम करते हैं और फिर अपने ज्ञान को सभी के साथ साझा करने, विचारों की तुलना करने और अपने रोबोट को प्रदर्शित करने के लिए क्षेत्रीय टूर्नामेंट में मिलते हैं।

काव्या और उनकी टीम जिस परियोजना पर काम कर रहे हैं, उसे बी सेवर बॉट कहा जाता है, जो मधुमक्खियों को या मनुष्यों को नुकसान पहुंचाये बिना उन्हें सुरक्षित और सावधानीपूर्वक हटा देता है।

काव्या कहती हैं, "जब भी लोग अपने घरों में मधुमक्खी देखते हैं, तो वे कीट नियंत्रण वालों को बुलाते हैं और मधु मक्खियों के छत्तों को जला देते हैं। इससे लगभग 20,000 - 80,000 मधुमक्खियां मर जाती है। इसलिए हमने इस समस्या का एक ऐसा समाधान खोजने के बारे में सोचा जो मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचाये बिना ही उन्हें सुरक्षित रूप से वहां से स्थानांतरित कर सके। क्योंकि दुनिया की 85 प्रतिशत से अधिक फसलों का परागण मधुमक्खियों द्वारा ही किया जाता है। भोजन का हर तीसरा टुकड़ा मधुमक्खी द्वारा परागण की गयी फसल या जानवरों (जो कि मधु मक्खियों द्वारा किये गए परागण किये गए हों) पर निर्भर करता है।"

टीम 'सुपरक्लिफ़्रॉगइलिस्टिकएक्सपिअलइडोसियस'

अनुसंधान के एक भाग के रूप में इस युवा दल ने उत्तर प्रदेश के एक मधुमक्खी पालन व प्रशिक्षण केंद्र का दौरा किया। मधुमक्खियों के बारे में बहुत कुछ सीखा और अपने बी सेवर बॉट का निर्माण किया। बी सेवर बॉट किसी भी मनुष्य या मधुमक्खी को नुकसान पहुंचाये बिना, घरों या ऊँची इमारतों से मधुमक्खियों को हटा देता है।

प्रोटोटाइप जिस पर वे काम कर रहे हैं और जिस को मई में प्रतियोगिता के लिए तैयार होने की आवश्यकता है, वो एक क्वाडकोप्टर है। ये 3 डी कैमरे वाला एक उड़ने वाला ड्रोन है, जो हाइव (छत्ते) को स्कैन करता है और उसके आस-पास के क्षेत्र का 3 डी माप तैयार करता है, उसके बाद इस माप को एक सीएडी-सीएएम सॉफ्टवेयर में डाला जाता है जो उस एन्क्लोज़र के आकार को डिज़ाइन करता है, जिसमें कि हाइव और मधुमक्खियों को पूरी तरह से कवर किया जा सके। काव्या के अनुसार इस डिजाइन को एक लकड़ी आधारित 3 डी प्रिंटर में डाला जाता है, जो एक बायोडिग्रेडेबल, सांस लेने योग्य और पुन: प्रयोज्य बाड़े को प्रिंट कर देता है। क्वाडकॉप्टर एक बार फिर से हाइव (छत्ते) के पास जाता है और इसकी दो बाहें छत्ते को पूरी तरह से ढँक लेती है, जबकि एक तीसरी बांह एक तीखी ब्लेड का इस्तेमाल करती है ताकि दीवार के पास से हाइव को काट कर एन्क्लोज़र को बंद किया जा सके और फिर इसे निकटतम मधुमक्खी फार्म में ले जाने के लिए एक वाहन में रख दिया जाता है।

Lightning McQueen कहे जाने वाली इस लाल रंग के रोबोट का निर्माण Lego Mindstorms EV3 के साथ किया जायेगा। काव्या कहती है, “हम बड़े मोटर्स ईवी3 रंग सेंसर का प्रयोग कर रहे हैं जो कि लाइन फॉलोइंग के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसके साथ ही हम सटीक मोड़ लेने के लिए gyro sensor और बहु-कार्य करने के लिए न्यूमेटिक्स का इस्तेमाल कर रहे है। न्यूमेटिक्स, हाइड्रोलिक्स की तरह ही होते हैं, जो अपने भीतर हवा को स्टोर करते हैं और फिर इसे विभिन्न कार्यों के लिए उपयोग करते हैं। हमारे रोबोट में गियर, ढलान वाली सतह और लीवर जैसे सरल तंत्र शामिल हैं। हमने ऐसा कार्यों के दौरान मोटर्स के इस्तेमाल को कम करने के लिए किया था।"

आगे काव्या कहती है, कि "हमारे इस तंत्र में भोजन संग्रह मिशन है। हमने एक पारस्परिक तंत्र का उपयोग किया है, जिसमें रोबोट ऊपर उठता है और एक एनक्लोजर जानवरों को फंसा लेता है। फिर, रोबोट दीवार की सीध में आकर रेफ्रिजरेटर तक पहुंचता है और फिर पारस्परिक तंत्र सक्रिय होकर उसी बाड़े (एनक्लोजर) में भोजन इकट्ठा करता है।”

काव्या अपनी स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ इस काम को भी बखूबी अंजाम दे रही है। शुरूआती दिनों में टीम सप्ताह में दो-चार घंटे का सप्ताहांत सत्र करती थी, लेकिन जैसे-जैसे प्रतियोगिता करीब आती जा रही है वे औसतन पांच दिन और 18-24 घंटे प्रति सप्ताह अभ्यास कर रहे हैं।

काव्या विग्नेश की इस बेहतरीन कोशिश ने सरकार का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। केंद्र सरकार में नागर विमानन राज्य मंत्री जयन्त सिन्हा ने ट्वीट करके काव्या और उनकी टीम का उत्साह वर्धन भी किया है। अपने ट्वीट में उन्होंने कहा है, रामगढ़ की 12 साल की काव्या विग्नेश पर हमें गर्व है, जो डेनमार्क में यूरोपीय रोबोटिक्स चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही है।

केंद्र सरकार में नागर विमानन राज्य मंत्री जयंत सिन्हा का ट्वीट
एक बड़ी जीत की ओर बढ़ते हुए 12 वर्षीय काव्या विग्नेश प्रोटोटाइप के डेनमार्क में अपना कौशल दिखाने के बाद भारत में मधुमक्खियों के ऊपर काम करने वाले सरकारी अधिकारियों से मिलना चाहती है और उनके साथ सहयोग कर के उन्हें 'बी सेवर बॉट' का इस्तेमाल करने के लिए कहना चाहती है। उसे ये उम्मीद है कि वो और उसकी टीम इस प्रतियोगिता को जीत लेंगे। 

काव्या और काव्या की टीम देश के हर अभिभावक से ये कहना चाहती है, कि 'अपने बच्चों के बारे में चिंता नहीं करें। उन्हें वो करने दें, जो वे करना चाहते हैं और फिर उन्हें सफल होते हुए देख कर संतुष्ट हों।

अनपढ़ किसान का अनोखा अविष्कार, तैयार किया चलता-फिरता बाजार

कर्ज और गरीबी ने झकझोरा तो आवश्यकता ने ‘अविष्कार’ को जन्म दिया। किसान बलबीर ने अपनेे ट्रैक्टर-ट्रॉली को ही मल्टीटास्किंग व्हीकल बना दिया। अब यहां जूस से लेकर आइसक्रीम तक और चाय की चुस्की से लेकर बाइक वाशिंग तक की सुविधा है।


दो लाख में तैयार हुआ चलता-फिरता बाजार :

कैथल जिले के पिलनी गांव के किसान बलबीर को गरीबी और कर्ज ने इस कदर झकझोर डाला कि परिवार में दो वक्त की रोटी भी मुश्किल हो गई। सिर पर 17 लाख रुपये का कर्ज था और पास में थी सिर्फ आधा एकड़ जमीन। इससे न खेती हो पाती थी और न ही कर्ज उतर पा रहा था। आखिर में कर्ज चुकाने के लिए जमीन भी बेचनी पड़ी। इसके बाद जानकारों से थोड़े-बहुत पैसे उधार लिये और अपनी ट्रैक्टर-ट्रॉली को चलते फिरते बाजार का रूप दे दिया। उसने इसे अपने हिसाब से डिजाइन कराया है। इसे तैयार करने में सवा दो लाख रुपये खर्च हुए हैं। वह आशान्वित है कि इससे परिवार की गुजर-बसर अच्छे से हो जाएगी।

ये सब है ‘बाजार’ में :
बलबीर की ट्रॉली में गन्ने का रस निकालने की मशीन, जूस कॉर्नर, आइसक्रीम पार्लर, चाय की दुकान और गाडियां धोने के लिए वाशिंग स्टेशन की सुविधा है। वह जूस और आइसक्रीम लेने वालों के वाहन भी निश्शुल्क धो देता है। ट्रॉली में ही उसने एक केबिन भी बनाया है। उसका कहना है कि अगर कहीं उसे रात को देर हो जाती है तो अंदर ही गैस चूल्हे पर खाना पका लेता है और खाकर सो जाता है। इस कमरे में उसने कूलर लगाया हुआ है।

बिजली भी अपनी :
बलबीर ने इस पूरे सिस्टम को ट्रैक्टर से जोड़ रखा है। बीच में जनरेटर रखा है, जो बिजली बनाता रहता है। गन्ने का रस निकालने की मशीन पर ही मोटर रखी है। इसी मशीन से वाहन धोने वाले पाइप में पानी का प्रेशर बनता है। बैटरी और इन्वर्टर रखा हुआ है। ट्रैक्टर के चलने से इन्वर्टर भी चार्ज होता रहता है। बलबीर ङ्क्षसह ने इसे ‘गुरु ब्रह्मानंद जूस भंडार’ नाम दिया है।

खुद तैयार करवाया डिजाइन :
बलबीर ने बताया कि ट्रॉली का यह डिजाइन उसने खुद मिस्त्री से तैयार कराया है। हालांकि शुरू में मिस्त्री ने हाथ खड़े कर दिए थे। मगर बाद में जैसे-जैसे वह बताता गया मिस्त्री वेल्डिंग करता गया। बलबीर का कहना है कि वह अनपढ़ जरूर है, लेकिन दिमाग तो है।

700 रुपये तक की हो जाती है बचत :
बलबीर के मुताबिक प्रतिदिन वह एक हजार से 1200 रुपये तक कमा लेता है। लागत निकालकर करीब 700 रुपये प्रतिदिन बचत हो जाती है। वह दिन में करीब 80 किलोमीटर का सफर तय करता है। बलबीर के परिवार में पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है। उसकी बड़ी लड़की ज्योति बीए में, उससे छोटी बेटी शिवानी दसवीं में और सबसे छोटा बेटा ललित चैथी कक्षा में पढ़ता है

‘‘प्रकृति में दिखता है जीवन’’ - बकुल गोगोइ |

आज से करीब दो दशक पहले असम के तेजपुर जिले के एक छोटे से गाँव के रहने वाला एक युवा अपने आस-पास लगातार कटते हुए पेड़ों और घटते हुए जंगलों को देखकर बेहद दुखी रहने लगा था। वह यह सब देखकर इतना विचलित रहने लगा था की उसे सपनों मे भी पेड़-पौधे, जंगल, नदियाँ रोते-तड़पते हुए दिखाई देते थे। एक दिन इसी तरह के सपने की वजह से जब वे आधी रात में नींद से जाग गए तब उन्होने उस दिन निश्चय कर लिया की आज से उनका पूरा जीवन प्रकृति की सेवा मे समर्पित होगा। 


बकुल गोगोई को पेड़ लगाने का जुनून है। वे बताते है कि बीस साल पहले जब उन्होने पेड़ लगाने कि यह मुहिम शुरू की थी, तब वे गुवाहाटी मे पढ़ाई कर रहे थे। उस वक्त उनके पास इतने भी पैसे नहीं होते थे कि वो  किसी नर्सरी से एक पौधा खरीद कर कहीं रौंप सके। उस वक्त वे अपने खाने के पैसों मे से बचत करके पौधे खरीदते थे और उन्हे शहर मे जहां भी खाली जगह दिखती थी वहाँ जाकर लगा देते थे। पर वो जानते थे कि ऐसा लंबे समय तक नहीं चल सकता है। जल्द ही उनकी पढ़ाई खत्म हो जाएगी और घर से मिलने वाला जो थोड़ा बहुत पैसा है वो भी मिलना बंद हो जाएगा। तब वो सोचने लगे की कैसे वो इस काम को आगे कर सकते है। उसी समय उन्होने अपनी खुद की नर्सरी शुरू कर दी। वो कहते है कि “पौधे लगाने के लिए हमे पैसों की जरूरत नहीं होती।

पौधा खुद अपने बीज तैयार करता है, हमे तो बस थोड़ी सी उसकी सहायता करनी होती है, की वो बीज सही जगह पहुँच जाए और उसके वयस्क होने तक उसका ख्याल रखा जाए। फिर तो वो अपने आप मे इतना सक्षम हो जाता है की खुद कहीं सारे पौधों को जन्म दे सकता है, उनका खयाल रख सकता है। मैं भी तो यहीं कर रहा हूँ। इस प्रकृति से हमें इतना कुछ मिला है, इसने हम सब को माँ कि तरह पाला है। आज जब हमारी जब तकलीफ में ये साथ है, तो हमारा यह फर्ज बनता है कि हम उसकी सेवा करे।”

अपनी इसी मुहिम में लोगों को शामिल करने के लिए इन्होने कई अनोखे तरीके ईजाद किए है। इनके आस-पास के इलाकों में जब भी किसी घर में कोई शुभ कार्य हो रहा होता है तो, यह वहाँ कुछ पौधे लेकर पहुँच जाते है और लोगों से अपील करते है इस शुभ कार्य कि शुरुआत पौधे लगा कर कि जाए। चाहे वो किसी का जन्मदिन, हो शादी हो या किसी भी तरह का कोई और शुभ कार्य, वो कहते है कि जब लोग इन अवसरों पर पौधरोपन करते है तो वह पौधा लोगों के लिए एक जीवित प्रलेख बन जाता है, जिससे उन लोगों कि यादें जुड़ जाती है। वही दूसरी तरफ जब किसी कि मृत्यु हो जाती है तो अंतिम यात्रा मे भी वे लोगों से कहते है कि मरने वाले व्यक्ति को सदा के लिए अमर बनाने के लिए उनकी याद मे परिवार को कम से कम एक पौधा लगवाते है। उनके इन्हीं प्रयासों कि वजह से स्थानीय लोगों ने उन्हे पेड़ वाले बाबा का उपनाम दे दिया है वही दूसरी तरफ समाज के बुजुर्ग लोग उन्हे वृक्ष-मानव कहकर बुलाने लगे है।

अब तक अपने हाथों से दस लाख से भी ज्यादा पौधों को रौपने के बाद अब वे अपनी इस मुहिम को वृहद स्टार पर ले जाना चाहते है। इसके लिए वे असम सरकार से दो चीजों को लागू करवाने का प्रयास कर रहे है कि स्कूल मे दाखिला लेते वक्त हर बच्चे से कम से कम दो पौधे लगवाए जाए और उनकी शिक्षा पूरी होने तक उन पौधों कि जिम्मेदारी उन बच्चों को ही सौंप दी जाए। वे कहते है कि कच्ची उम्र मे जन बच्चों को पेड़-पौधो, प्रकृति से जोड़ा जाएगा तो वे आगे चलकर अपने आप ही प्रकृति के प्रति जागरूक और संवेदनशील हो जाएगा। वहीं दूसरी तरफ उनकी कोशिश है कि असम में होने वाले बीहू महोत्सव के दिन को आधिकारिक रूप से पौधारोपण दिवस घोषित कर दिया जाए और असम का हर परिवार कम से कम एक पौधा उस दिन जरूर लगाए। वो बताते है कि बीहू महोत्सव का आधार मानव के प्रकृति के साथ रिश्ते को हर्षोल्लास से माना रहा है, परंतु आज हम इस रिश्ते को ही भूल गए है। उत्सव के नाम पर हम आज  कई सारी ऐसे कार्य कर रहे है जो सीधे तौर पर प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहे है। ऐसे मे यह जरूरी है कि हम फिर से कैसे इस मरती हुई संस्कृति को जीवित कर सकें, मानव संस्कृति को फिर से प्रकृति के साथ जोड़ सकें। अन्यथा इस संस्कृति कि मृत्यु के साथ मानव कि मृत्यु निश्चित है।

बिहार के इंजीनियरिंग स्टूडेंट का कमाल, अब आर्टिफिशियल हैंड से ड्राइव कीजिए कार

किसी दुर्घटना या हादसे में अपना हाथ गंवाने वाले लोग अब आर्टिफिशियल हैंड (कृत्रिम हाथ) के जरिए कार चला सकेंगे। सिर्फ कार ही क्यों, वे कृत्रिम हाथ के जरिए लगभग वे सभी काम कर सकेंगे, जो साधारण हाथ से किए जा सकते हैं। बीआइटी (बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी, पटना) के छात्र ने इसका मॉडल विकसित किया है। यह अत्याधुनिक कृत्रिम हाथ नसों के मूवमेंट के अनुसार काम करेगा।

आशुतोष की मेहनत का फल
बीआइटी के इलेक्ट्रिकल व इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग के फाइनल ईयर के छात्र आशुतोष प्रकाश ने शिक्षक व साथियों के सहयोग से इस कृत्रिम हाथ को तैयार किया है। उसने बताया कि अभी इसे बनाने में 15 हजार रुपये खर्च आया है।
इसके माध्यम से दुर्घटना में हाथ कटने वाला पीडि़त चाय-पानी का गिलास उठाने के साथ मोबाइल का भी उपयोग कर सकेगा। वह कार भी ड्राइव करे सकेगा। इसे आकर्षक, कारगर व सस्ता बनाने के लिए निदेशक ने और फंड देने की घोषणा की है।


नसों की हलचल पर करेगा काम
भारत में अभी दिमाग के इशारों पर काम करने वाला कृत्रिम हाथ नहीं बना है। जयपुर में बनने वाले कृत्रिम हाथ-पैर स्थाई अंग के रूप में तैयार होते हैं। ये सभी दैनिक कार्यों को अंजाम देने में सफल नहीं हैं। लेकिन, बीआइटी में तैयार कृत्रिम हाथ दिमाग के इशारों पर नसों की हलचल पर काम करता है।

ऐसे करता है काम
माइक्रोकंट्रोलर, मोटर, एम्प्लीफायर सर्किट, इएमजी सेंटर आदि को एसेंबल कर इसे थ्री डी तकनीक से बनाया गया है। सॉफ्ट प्लास्टिक का उपयोग करने के कारण यह बारीक चीज को पकडऩे में सक्षम है। इस डिवाइस को कलाई के ऊपर लगा दिया जाता है। यह डिवाइस दिमाग से दिए गए कमांड को नसों के माध्यम से इनकोड करता है और नसों की हलचल के अनुसार काम करता है।

आर्मी को ध्यान में रख बनाया
दरभंगा के कटहलबाड़ी डेनवी रोड निवासी आशुतोष प्रकाश ने बताया कि वह आर्मी में रहकर देश की सेवा करना चाहता था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के दौरान आर्मी वालों के लिए यह यंत्र बनाने की प्रेरणा मिली।

कहा निदेशक, बीआइटी, पटना, ने-
'आशुतोष का कृत्रिम हाथ काफी उपयोगी है। इसे बेहतर बनाने के लिए आर्थिक मदद दी जाएगी।

आविष्कार: आवाज पर चलती यह ह्वील चेयर, जानिए इसकी खासियतें

बीआइटी में पढने वाले बिहार के छात्र ने एक ऐसा व्हीलचेयर बनाया है जो इस पर बैठे व्यक्ति की आवाज सुनकर चलेगा। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसे निर्देश नहीं दे सकेगा। ‘ह्वील चेयर! मेरी आवाज सुन रहे हो न! बाएं चलो, ...और चेयर आवाज सुनते ही उस दिशा में बढ़ जाएगा। दिव्यांगों के लिए यह खास उपकरण बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (बीआइटी) के इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियिंरग के फाइनल इयर छात्र आशुतोष प्रकाश ने बनाया है। इसकी खासियत ही है कि यह सिर्फ इसका उपयोग करने वाले की ही आवाज सुनेगा। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसे निर्देश नहीं दे सकेगा। इसे बनाने में 20 हजार रुपये का खर्च आया है।

ऐसे मिली निर्माण की प्रेरणा :
आशुतोष ने बताया कि वह बीटेक में दूसरे वर्ष से ही इसे बनाने में जुट गया था। वह इंटर्नशिप के लिए डॉ. अतुल ठाकुर के पास गया था। वहां एक दिव्यांग को चलने में हो रही कठिनाई को देखकर उसी समय ठान लिया कि एक ऐसा ह्वील चेयर बनाएगा, जो आवाज सुनकर चले। दरभंगा निवासी आशुतोष ने इसे अपने दादाजी के लिए भी बनाया है। उसने कहा, जब दादाजी की उम्र अधिक होगी तो वे अपने हिसाब से इसका उपयोग कर सकेंगे। आशुतोष के पिता प्रमोद कुमार मिश्रा दरभंगा केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक हैं। मां रेणु मिश्रा गृहिणी हैं। निर्माण का श्रेय आशुतोष ने दादा, मां एवं पिता को दिया है। आशुतोष ने बताया कि इसका उपयोग आम लोग कर सकें, इसलिए उसने इसका पेटेंट नहीं कराया है।

ऐसे करता है काम...
यह संबंधित व्यक्ति की आवाज को याद कर लेता है। फिर उसी के निर्देश पर काम करता है। कोई आवाज बदलकर इसे निर्देश देना चाहे तो नहीं मानेगा। इसमें लगा सेंसर गड्ढा या दीवार को एक मीटर पहले ही पहचान कर रुक जाता है।

यह है तकनीक
- यह आवाज को प्रोसेस करता है।
- फिर प्रोग्राम के अनुसार माइक्रोकंट्रोलर को निर्देश देता है।
- माइक्रोकंट्रोलर उस हिसाब से मोटर को कंट्रोल करते हुए परिचालन करता है।

17 साल की लड़की ज़रूरतमंदों को दिखा रही है ‘‘दुनिया’’

पुराने चश्मों को इकट्ठा कर पहुंचाती हैं गरीबों तककई एनजीओ के सहयोग से करती हैं यह नेक कामअबतक 1500 से अधिक लोगों की कर चुकी है मददअभियान को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली स्वीकार्यता

दृष्टि को ‘देखने की क्षमता और अवस्था’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है लेकिन इस शब्द के मूल अर्थ का मतलब सिर्फ इतना ही नहीं है। दूसरों की सहायता करने का मतलब सिर्फ जरूरतमंदों को खाना-पीना देने या कपड़े देने या उनके लिये शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना ही नहीं है। अगर आपके अंदर दूसरों की सहायता करने की दूरदृष्टि है तो आप राहों में आने वाली तमाम परेशानियों को पार करके समाज के लिये कुछ कर सकते हैं। 17 वर्ष की आरुषि गुप्ता इस बात का एक जीता-जागता उदाहरण हैं।



आरुषि दिल्ली के बाराखम्बा रोड स्थित माॅडर्न स्कूल में इंटर की पढ़ाई कर रही हैं। वर्ष 2009 में आरुषि ने आँखों की समस्याओं से जूझ रहे लोगों की मदद करने की ठानी और अपने स्तर पर इस दिशा में एक ‘‘स्पेक्टेक्यूलर अभियान’’ की शुरुआत की। इस अभियान के तहत आरुषि ने लोगों के ऐसे चश्मों को इकट्ठा करना शुरू किया जिन्हें लोग पुराना हो जाने पर इस्तेमाल नहीं करते और फेंक देते हैं। आरुषि ऐसे चश्मों को जमाकर हेल्प ऐज इंडिया, जनसेवा फाउंडेशन और गूंज जैसे एनजीओ तक पहुंचा देती जहां से इन्हें जरूरतमंदो तक पहुंचाया जाता।

आरुषि बताती हैं कि इस तरह का विचार सबसे पहले उनके मन में 10 साल की उम्र में आया था। तब उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उनका पुराना चश्मा किसी गरीब के काम आ सकता है ओर उसे किसी जरूरतमंद को दिया जा सकता है। थोड़ा बड़ा होने पर उन्होंने इस बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया तो उन्हें समझ आया कि यह मुद्दा उनकी सोच से कहीं बड़ा है। प्रारंभ में उनकी कम उम्र उनके आड़े आई लेकिन धुन की पक्की आरुषि ने भी हार नहीं मानी और समय के साथ दूसरों की सहायता करने का उनका सपना सच होता गया।

वर्तमान समय में हमारे देश में करीब 15 करोड़ ऐसे लोग हैं जिन्हें दृष्टिदोष की दिक्कत के चलते चश्मे की आवश्यकता है लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वे उसे खरीद नहीं पाते हैं। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत आरुषि अड़ोस-पड़ोस, चश्मों की दुकानों, विभिन्न संस्थानों और अपने परिचितों के यहां से पुराने चश्मे इकट्ठे करके विभिन्न एनजीओ तक पहुंचाती हैं। इसके अलावा वे विभिन्न सामाजिक संस्थानों की मदद से विभिन्न इलाकों में आँखों के मुफ्त कैंप लगवाने के अलावा मोतियाबिंद के आॅपरेशन करवाने के कैंप का आयोजन भी करवाती हैं।

अबतक के सफर में उनके माता-पिता ने उनका पूरा सहयोग दिया है और अपने स्तर पर उनकी हर संभव मदद की है। यहां तक कि उनके स्कूल ने भी अबतक उनके इस नेक काम में हर संभव सहायता की है। चहुंओर मिली मदद के बावजूद आरुषि का सफर इतना आसान भी नहीं रहा है। दूसरों को अपने इस विचार के बारे में समझाना उनके लिये सबसे बड़ी चुनौती रहा। आरुषि बताती हैं कि प्रारंभ में कई बार लोगों से कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर उन्हें बहुत निराशा होती थी।

आरुषि सार्वजनिक स्थानों पर ड्राॅपबाॅक्स रख देती हैं जिनमें लोग अपने पुराने चश्मे डाल सकते हैं। अपने इस अभियान को अधिक से लोगों तक पहुंचाने के लिये आरुषि रोजाना कई लोगों से मिलती हैं और उन्हें अपने इस काम के बारे में जैसे भी संभव हो समझाने का प्रयास करती हैं। इसके अलावा वे और भी कई तरह के प्रयास कर अधिक से अधिक लोगों को अपने पुराने चश्में दान करने के लिये प्रेरित करती हैं।

आरुषि द्वारा अब किये किये गए प्रयास व्यर्थ नहीं गए हैं और तकरीबन 1500 से अधिक लोग उनके इस अभियान से लाभान्वित हो चुके हैं। आरुषि कहती हैं कि ‘‘दान करने की कोई कीमत नहीं है लेकिन इससे आप कई लोगों का आभार कमा सकते हैं।’’

आखिरकार आरुषि के इस प्रयास को उस समय स्वीकार्यता और सम्मान मिला जब उन्हें इस अभियान के लिये चैथे सालाना ‘‘पैरामेरिका स्प्रिट आॅफ कम्यूनिटी अवार्डस’’ के फाइनलिस्ट के रूप में चुना गया। आरुषि कहती हैं कि इस अभियान को लोगों से मिलती प्रशंसा और सराहना से उन्हें लगातार आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती हैै।