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Saturday 5 December 2015

वन मैन एनजीओ आबिद सुरती

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आबिद सुरती उर्फ ढब्बू जी लेखक है, कलाकार है, नाटककार है, कार्टूनिस्ट है और, और भी न जाने क्या-क्या हैं। वे वन मैन एनजीओ है, जो पानी की बर्बादी रोकने के लिए कार्य कर रहे है। ड्राप डेड फाउंडेशन के जनक आबिद सुरती एक अनोखी शख्सियत हैं। उनकी 80 से अधिक किताबें आ चुकी है। कई पुस्तकों के लिए उन्हें सम्मानित भी किया जा चुका है। हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में वे लिखते है। ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ फिल्म की कहानी भी उनकी एक कहानी से प्रेरित बताई जाती है। उनके बनाए कार्टून भारत की सभी प्रमुख पत्रिकाओं और पत्रों में प्रकाशित हो चुके है और होते रहते हैं। कॉमिक कैरेक्टर ‘बहादुर’ उन्हीं की पैदाइश है। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की प्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग मेंं ‘कार्टून कोना/ढब्बू जी’ उन्हीं की कला का नमूना था। यह इतना लोकप्रिय था कि लोग धर्मयुग को उर्दू की तरह पीछे से खोलना शुरू करते थे, क्योंकि ढब्बू जी का कार्टून अंतिम पृष्ठों पर होता था। ढब्बू जी के कार्टूनों को पसंद करने वालों में अटल बिहारी वाजपेयी, आशा भोंसले और ओशो जैसी हस्तियां शामिल है। शाहरुख खान उनके बहुत बड़े प्रशंसक हैं, लेकिन यहां उनका जिक्र उनकी कलाकृतियों के बारे में बताने या उनके लेखन की तारीफ करने के लिए नहीं किया जा रहा है, बल्कि एक एनजीओ के लिए किया जा रहा है।
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आबिद सुरती बहुत अच्छे नलसाज यानि प्लंबर हैं। नलसाजी का यह काम उन्होंने लोगों की सेवा करने के इरादे से शुरू किया था। हर रविवार को सुबह वे अपने झोले में नल सुधारने का सामान लेकर निकल पड़ते है और जिन-जिन घरों के नल टपकते रहते है, उनके नल ठीक करते है। इसकी शुरुआत कुछ इस तरह हुई कि एक दिन वे अपने दोस्त के घर गए, तो दोस्त के घर के किचन का नल बूंद-बूंद करके टपक रहा था। आबिद सुरती जी ने पूछा कि यह ठीक से बंद क्यों नहीं होता? तो मित्र ने जवाब दिया कि इसका वाशर खराब हो गया है और वाशर बदलने जैसे छोटे से काम के लिए कोई भी प्लंबर आने को तैयार नहीं है। जो आते भी है वो बहुत पैसा मांगते है, इसलिए नल टपक रहा है। आबिद सुरती ने बाद में कहीं पढ़ा कि अगर एक सेकंड में पानी की एक बूंद भी व्यर्थ जाती है तो एक महीने में करीब एक हजार लीटर पानी बर्बाद हो जाता है। हजारों घरों में अनेक नल टपकते रहते है, जिससे लाखों लीटर पानी बर्बाद हो जाता है। यह बर्बादी रोकी जा सके तो इस पानी का बेहतर इस्तेमाल संभव है। आबिद सुरती ने मित्र को बताया कि वे हर महीने दस से बीस हजार रुपए का पानी बर्बाद कर रहे है, क्योंकि अगर वे इतना पानी बोतलों में खरीदते, तो उसकी यहीं लागत होती। बस, फिर क्या था। आबिद सुरती को अपना मिशन मिल गया। वे अपने मिशन में जुट गए और उन्होंने एक संस्था बना डाली- ‘ड्रॉप डेड फाउंडेशन’। इस संस्था का सूत्र वाक्य है- ‘सेव एवरी ड्रॉप आर ड्रॉप डेड’।
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इस अनोखे अभियान में आबिद सुरती ने नल सुधारने का तमाम सामान खुद की तरफ से लगाना शुरू किया। इसमें काफी खर्च था। उत्तरप्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान ने जब उन्हें एक लाख रुपए का पुरस्कार दिया, तब उन्होंने सारा पैसा इसी काम के लिए रख दिया। अपने इस अनोखे अभियान से वे करोड़ों लीटर पानी की बर्बादी रोक चुके है। जल संरक्षण पर एक फिल्म बनाते समय शेखर कपूर को उनके बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने आबिद सुरती की दिल खोलकर प्रशंसा की। मीडिया के लोगों का ध्यान जब आबिद सुरती के इस अभियान की तरफ गया, तब उन्हें कवरेज मिलना शुरू हुआ।
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अभी आबिद सुरती के एनजीओ में उनके अलावा दो और लोग हैं। उनके एनजीओ ने एक प्लंबर को भी नौकरी पर रख लिया है, जो घर-घर जाकर नल सुधारने में मदद करता है। इसके अलावा एक वालेंटियर भी एनजीओ में आ गया है, जो ऐसे घरों को ढूंढता है, जहां पानी टपक रहा हो। अब आबिद सुरती ने घरों के अलावा वाटर सप्लाय टैंकरों के नल भी सुधारना शुरू कर दिए है। उनका कहना है कि मैं गंगा को नहीं बचा सकता, लेकिन अपने मोहल्ले में पानी की बर्बादी रोक सकता हूं। अगर सभी लोग अपने-अपने मोहल्लों में सक्रिय हो और पानी को बर्बाद होने से रोकें, तो बहुत बड़ी मात्रा में पानी की बचत की जा सकती है, जिसका उपयोग दूसरे लोग कर सकते है। आबिद सुरती कहते है कि मैंने बचपन में पानी की कमी को देखा है और मैं जानता हूं कि पानी का नहीं मिलना या कम मिलना कितनी बड़ी बात है।
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आबिद सुरती जो भी करते हैं उसमें पूरी तरह खो जाते है और उसकी हर विधा में हाथ आजमाने लगते है। लिखते हैं तो उपन्यास, कहानी, कविता, गजल आदि सभी में लिखते हैं। कलाकारी करते हैं, तो चित्रकला, म्यूरल (भित्तिचित्र), मिरर कोलाज, ग्लास म्यूरल, कार्टून, कॉमिक्स, बुक कवर, बॉडी पेंटिंग और मकान पेंटिंग तक कर डालते हैं। उनके परिवार में बच्चे सेटल हो गए हैं और अलग रहने चले गए है और वे खुद मुंबई के उपनगर मीरा रोड पर रहने लगे हैं। हर रविवार को नल सुधारने पर अपनी जेब से 600-700 रुपए खर्च करते हैं। निरंतरता उनके जीवन में हमेशा बनी रही है। धर्मयुग में उनका कार्टून कोना पूरे तीस साल तक लगातार छपता रहा है। अभी भी वे कलाकर्म से जुड़े हैं और 80 साल की उम्र में भी किसी नौजवान की तरह ऊर्जा से भरे हैं।

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