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Tuesday 16 July 2013
Mandela sculpture - Brilliant !!!
Check out this fantastic Nelson Mandela sculpture below. It consists of 50 ten metre high laser cut steel plates set into the landscape, representing the 50 year anniversary of when and where Mandela was captured and arrested in 1962 (prior to his 27 years of incarceration).Standing at a particular point (presumably the spot where the people are standing in Photo #2), the columns come into focus and the image of Mandela can be seen.
The sculptor is Marco Cianfanelli, of Johannesburg... brilliant, isn't it!!!
विज्ञान की बंजर जमीन पर आविष्कार की 'फसल'
नवीन चिकारा, बागपत
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बंजर पड़ी जनपद की जमीन अब आविष्कार की फसल लहलहाने की तैयारी में है। इसके लिए माध्यम बनी हैं वर्षो पुरानी वे तकनीकें, जिन्हें उस समय ईजाद किया गया था जब अत्याधुनिक साइंस लैब अस्तित्व में नहीं थीं। जनपद के शिक्षण संस्थानों में साइंस लैबों की दयनीय हालत के बीच कुछ गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा विद्यार्थियों को प्रायोगिक तौर पर समृद्ध करने की कवायद रंग लाने लगी है। फ्रांस की अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट ऐराथोस्थेनीज डॉट कॉम पर बागपत जनपद को न सिर्फ जगह दी गई है, बल्कि यहां कराए जा रहे विभिन्न प्रयोगों के डाटा भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शेयर किये जा रहे हैं।
प्रगति विज्ञान संस्था ने उठाया बीड़ा
मेरठ की संस्था प्रगति विज्ञान प्रदेश भर में विज्ञान से जुड़े प्रयोग करा रही है। इस संस्था द्वारा जनपद के विभिन्न स्कूलों, कालेजों में आओ प्रयोग करें अभियान के माध्यम से 2200 ईसा पूर्व ईजाद किए गए ऐराथोस्थनीज सिद्धांत के जरिए जटिल खगोलीय गणनाओं को सरलतम तरीके से सिखाया जा रहा है। संस्था के जिला समन्वयक योगेश कुमार बताते हैं कि एराथो प्रयोग के अलावा यह संस्था विज्ञान आओ करके सीखें, मॉडल रॉकेट बनाना, कठपुतलियों के माध्यम से विज्ञान का प्रसार, खाद्य पदार्थो में मिलावट जांच के लिए प्रशिक्षण, विज्ञान के चमत्कारों की व्याख्या के लिए सेमिनार, जैविक खाद्य बनाने का प्रशिक्षण, खगोलीय गतिविधियों से आमजन को जोड़ना आदि गतिविधियों का आयोजन करा रही है। ताकि रूट लेविल पर वैज्ञानिक नजरिए को विकसित किया जा सके।
अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट पर ऑनलाइन
फ्रांस की अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट ऐराथोस्थेनीज डॉट कॉम पर क्लिक करने पर दा मेजर अर्थ आप्शन खोलने पर अगल-अलग देशों में हो रहे ऐराथो प्रयोग के डाटा सर्च किए जा सकते हैं। बागपत इस वेबसाइट पर सन् 2011 से ऑनलाइन हो चुका है। प्रगति विज्ञान द्वारा बागपत में कराए जा रहे प्रयोगों से प्राप्त डाटा को इस वेबसाइट पर डाला जा रहा है।
इंटरनेशनल सिटीजन साइंस प्रोजेक्ट से जुड़ रहे विद्यार्थी
अपने स्कूल में किए गए प्रयोग के बाद एकत्र किए गए डाटा के माध्यम से विद्यार्थी इंटरनेशनल सिटिजन साइंस प्रोजेक्ट से सीधे तौर जुड़ जाते हैं। विडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से देश-विदेशों के प्रयोगकर्ताओं से सीधे बातचीत कर सकते हैं और अपने डाटा को मैच कर सकते हैं।
आविष्कार दे रहे हैं मौत!
बागपत। कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है। अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए लोगों ने नए-नए जुगाड़ लगाए। इसमें कुछ सफल हुए, लेकिन अधिकतर ने कई जिंदगी निगल लीं। ऐसे ही कुछ हादसों की 'दैनिक जागरण' ने पड़ताल की।
केस-1
वर्ष 2007 में बड़ौत कोतवाली के बावली गांव में भट्ठा मजदूर राहुल पुत्र मांगे ने एक देशी प्रेस बनाया, जिसे देखने के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ा था। इसमें एक छोटे से लोहे के तवे पर उसने हीटर का एलीमेंट फिट किया और उसके ऊपर लोहे की हैंडिल लगाई। महज तीन दिन बाद ही शर्ट प्रेस करते समय करंट से उसकी मौत हो गई।
केस-2
इस तरह की घटना बड़ौत के पठानकोट मोहल्ले में भी करीब दो वर्ष पूर्व हुई। रोजुद्दीन के 21 वर्षीय पुत्र शमशाद ने बिजली का पुराना मीटर लिया और उसमें चिप के जरिए सीडी प्लेयर की एलसीडी लगाई, ताकि उसे डिजीटल मीटर बनाया जा सके। उसने जैसे ही स्विच ऑन किया उसमें विस्फोट हो गया। इसमें वह गंभीर रूप से घायल हो गया और सप्ताहभर बाद उसकी मौत हो गई।
केस-3
सरूरपुर खेड़ी गांव में वर्ष 2003 के आसपास किसान राजेंद्र सिंह ने खेत में कीड़ों को मारने के लिए चूहों की दवा, यूरिया और अन्य कई पेस्टीसाइड्स को मिलाकर एक मिश्रण तैयार किया। जब उसने खेत में छिड़काव किया तो वह मिश्रण पानी में घुलकर उल्टा असर कर गया। उसकी तीव्र दुर्गध के कारण राजेंद्र सिंह खेत में ही बेहोश हो गया और चंद मिनटों में उसकी मौत हो गई।
केस-4
लायन सरूरपुर गांव में बीटेक के एक छात्र ने बल्ब का फिलामेंट लेकर उससे पानी गर्म करने की रॉड बनाने का प्रयास किया। उसका कहना था कि वह दुनिया की सबसे छोटी रॉड बनाएगा, न तो करंट लगेगा और न ही पानी गर्म होने में अधिक समय लगेगा। खेत में प्रयोग करते समय उसका हाथ बिजली के तार से छू गया, जिससे उसकी घटनास्थल पर ही मौत हो गई।
अधिकारी बोले..
'मेरे ख्याल से इस तरह के बेतुके आविष्कार करना गलत है। जब तक मनुष्य को किसी चीज के बारे में सही जानकारी न हो जाए उससे खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। इन मामलों से प्रतीत हो रहा है कि इन्हें अधिक जानकारी नहीं थी।'
एके गुप्ता, एसई, बागपत
अविष्कारक हामिद दिल्ली में होंगे सम्मानित
पिलाना (बागपत)। हवा से कार चलाकर प्रतिभा का परिचय देने वाले रोशनगढ़ निवासी हामिद हुसैन को देशभक्त सेना ट्रस्ट दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में सम्मानित करेगी। देशभक्त सेना ट्रस्ट द्वारा शहीदों की याद में दिल्ली के सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम में अमर गाथा एवं श्रद्धासुमन कार्यक्रम आयोजित कर रहा है। 10 दिसंबर को आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में रोशनगढ़ निवासी हवा से कार चलाने वाले हामिद हुसैन को अन्य विशिष्ट लोगों के साथ सम्मानित किया जाएगा। इस दौरान हामिद को नकद पुरस्कार भी दिया जाएगा। ट्रस्ट के निदेशक अनिल वशिष्ठ ने बताया कि इसमें विभिन्न क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले लोगों को बुलाया गया है। इसके साथ ही सभी गांवों के प्रधान, सदस्य, ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत सदस्य, विधायक, सांसद व समाज सेवी भी शिरकत करेंगे। कार्यक्रम की अध्यक्षता ट्रस्ट के चेयरमैन मनोज वशिष्ठ व जिला पंचायत सदस्य प्रियंका वशिष्ठ करेंगी।
http://www.jagran.com/uttar-pradesh/bagpat-8581342.html
http://www.jagran.com/uttar-pradesh/bagpat-8581342.html
हवा में गुम हुआ हामिद का आविष्कार
बागपत : गांव से पलायन कर चुका बसौद गांव के हामिद का आविष्कार हवा में गुम हो गया है। प्रदेश सरकार से निराशा मिलने के बाद अब उसने केंद्र सरकार का दरवाजा खटखटाया है। हवा के इंजन को पेटेंट कराने के लिए अब तक वह तमाम अधिकारियों से गुहार लगा चुका है।
हामिद ने 22 साल के अथक प्रयास के बाद हवा से चलने वाला इंजन बनाया है। वह कई बार इंजन को पेटेंट कराने की मांग कर चुका है। जिला प्रशासन समेत आलाधिकारियों से वह दर्जनों बार इंजन को पेटेंट कराने की मांग कर चुका है। प्रदेश सरकार से भी गुहार लगाई, लेकिन उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई। अब उसने केंद्र सरकार से इंजन को पेटेंट कराने की गुहार लगाई है।
हामिद के मुताबिक, यदि इंजन पेटेंट न हुआ तो वह बर्बाद हो जाएगा। लाखों रुपये खर्च करके उसने इंजन को बनाया है। चेताया कि यदि इंजन पेटेंट नहीं होता है तो वह कलक्ट्रेट पर अनिश्चितकालीन धरना शुरू कर देगा।
Monday 15 July 2013
बिजली बना रहा है नैनीताल का 'आठवीं फेल इंजीनियर'
इंजीनियर बनने के लिए जरूरी नहीं कि आप पढ़ाई में अच्छे हों. रास्ते और भी हैं बशर्ते आप काबिल हों और नई राह पर सोच सकते हों. इसे साबित किया है 32 साल के कुबेर सिंह डोगरा ने. नैनीताल के बैलपड़ाव गांव के रहने वाले कुबेर अपनी काबिलियत से इंजीनियर बने हैं.
वॉटरमिल (पनचक्की) के जरिये बिजली बनाने की वजह से वह इलाके में मशहूर हो गए हैं. खराब माली हालत की वजह से वह आठवीं क्लास से आगे नहीं पढ़ पाए. लेकिन अब यह बात उनकी कामयाबी के आड़े नहीं आती.
वह अभी पड़ोस के छह परिवारों को बिजली मुहैया करा रहे हैं. प्यार से गांव वाले उन्हें 'आठवीं फेल इंजीनियर' बुलाते हैं. साल भर पहले तक कुबेर उनके लिए एक मामूली कार मैकेनिक था, जो वॉटरमिल चलाता था और अपने खाली समय में अनाज पीसता था.
लेकिन कुबेर की जिंदगी ने छह महीने पहले अहम मोड़ लिया. उत्तराखंड नवीकरणीय ऊर्जा विकास एजेंसी (यूरेडा) के कुछ लोग गांव के दौरे पर आए थे. उन्होंने डोगरा परिवार की वॉटरमिल देखी तो उससे बिजली बनाने की सलाह दी. कुबेर को आइडिया जंच गया और उन्होंने कोशिश करने की ठानी.
उन्होंने बताया, 'मैंने सुना था कि पहाड़ी इलाकों में लोग वॉटरमिल से बिजली बनाते हैं. इस बारे में कुछ जानकारी जुटाने के बाद मैंने सोचा कि मैं भी कोशिश करता हूं.'
कुबेर ने परिवार के लोगों और दोस्तों से उधार लेकर हल्द्वानी की बाजार से 3केवीए ऑल्टरनेटर खरीदा. शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं. उन्होंने बताया, 'फिर मैंने पानी का दबाव बढ़ाया और आखिरकार सफलता मिल गई. अब मैं पड़ोस के छह परिवारों को मुफ्त बिजली देता हूं.'
कुबेर का प्रयोग सामान्य, पर कारगर है. वॉटरमिल के टर्बाइन को एक बेल्ट ऑल्टरनेटर से जोड़ती है जो बिजली बनाने में मदद करता है.
कुबेर की वॉटरमिल दिन में अब अनाज पीसती है और रात में बिजली बनाती है. मशहूर कार्बेट पार्क से सटे बैलपड़ाव गांव में बिजली सप्लाई खस्ता रहती है. खास तौर पर मानसून और ऐसे समय में जंगली जानवर बिजली के तारों को नुकसान पहुंचा देते हैं. लेकिन डोगरा परिवार और उनके छह पड़ोसी नियमित बिजली का आनंद ले रहे हैं.
कुबेर के पूर्वज चार-पांच दशक पहले जम्मू-कश्मीर के पठानकोट के एक गांव से उत्तराखंड चले आए थे. कुबेर के परिवार ने सिंचाई विभाग से लीज पर वॉटरमिल ले ली, जिससे अपना गुजर-बसर करने लगे.
कुबेर बताते हैं, 'पैसों की कमी और मां-बाप की मौत की वजह से पढ़ाई छोड़नी पड़ी. आठवीं क्लास में फेल होने के बाद मैंने मैकेनिक की दुकान पर काम करना शुरू कर दिया था.'
Amar, Bose of sound, is dead at 83
Amar Gopal Bose, Indian-American entrepreneur and academic behind the revolutionary sound systems of Bose Corporation, died on July 12 at the age of 83 in Wayland, Massachusetts.
Dr. Bose was born on November 2, 1929, in Philadelphia, to an American schoolteacher and Noni Gopal Bose, a freedom fighter and Calcutta University physicist who fled to the U.S. in 1920 after being imprisoned for opposing British rule in India.
When his business of importing coconut-fibre doormats from India failed after the U.S. suspended non-military shipping during World War II, Noni Bose came to rely on the early business success of his son’s venture, which offered radio repair services in the basement of their suburban home.
By the end of the war, father Bose had become a firm believer in young Amar’s immense aptitude for practical electronics. In 1947, he was said to have borrowed $10,000 to help his son enter the Massachusetts Institute of Technology (MIT), even if he was admitted “by the skin of my teeth,” as Dr. Bose later recalled.
At MIT, where he initially intended to stay for two years, Dr. Bose emerged nine years - and a commitment to the motto “how can I make this better?” – later, with a bachelor’s, master’s and doctoral degrees. The only thing he knew after graduation, Dr. Bose said in 2005, was that he “never wanted to be a teacher.”
When MIT offered him a teaching position, however, Dr. Bose took it up immediately. By 2001, when he left the Institute as faculty, Dr. Bose had inspired many through his “personally creative” and “introspective” persona. “He could understand and explain his own thinking processes and offer them as guides to others,” Dr. Paul Penfield Jr., Bose's former colleague and a professor emeritus of electrical engineering at MIT, said in a statement. A well-kept secret among his students was that, usually, his tests were not timed. Most examinations began at seven in the evening and a teaching assistant would stay till the last student left. MIT’s student lore has it that once a Bose test went on until 5 a.m. – and that often, Dr. Bose provided ice cream to students during exams.
His early interest in radios matured into full-fledged intellectual involvement in sound technology and audio experience, prompting Dr. Bose to think ‘behind the curtains’ about acoustics. While a student, he had indulged in his love for classical music and bought a costly speaker, only to find it fell short of his expectations when he played a recording of a violin. In contrast, Dr. Bose would discover, concert-hall music sounded good because nearly 80 per cent of it was indirect, bouncing off walls and the ceiling before it reached human ears.
He concluded that it was not just the production of sound but also its perception that made for good listening. As a result, he would incorporate the principles of this field, called psycho-acoustics, into the mantra of Bose Corporation. One of the first products to come out from the company's stable based on psycho-acoustics research, the 1968 Bose 901, is still a mainstay of its product line-up. Throughout Dr. Bose's term as Chairman and Technical Director of the company, Bose Corporation chose to stay private and away from investors who would be concerned mostly with bottom lines. Consequently, the company could pursue long-term research – without immediate deliverables - that saw it become the brand of choice for many carmakers and architectural installations in the 1980s and after. Dr. Bose did not believe in the notion of ‘retirement age’, letting the company he founded enjoy his mentorship, and managerial and technical expertise until his passing. Bose Corporation’s emphasis on sustained original research came at a cost, which was reflected in its price tags for consumers. But the company’s products today enjoy an impeccable reputation that, true to its founder’s spirit, reflects its penchant for innovation and creativity. Dr. Bose is survived by two children, Vanu and Maya, from his first marriage with Prema Bose, his wife, Ursula Boltzhauser, and a grandchild.
(With inputs from Anuj Srivas)
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