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Tuesday 29 December 2015

बिहार के सॉफ्टवेयर मास्टर की सफलता

पैसों की कमी के चलते रास्ते बदलते लोगों का सफर में टकराना आम बात है। लेकिन मामूली-सी रकम के साथ अपने घर को छोड़ कर बड़े शहर की ओर रूख करने के लिए हिम्मत, ललक और जुनून चाहिए होता है। एक ऐसी ही मिसाल पेश की है, अमित कुमार दास ने। बिहार के छोटे से कस्बे से निकल कर विदेश तक पहुंचना और अपना व्यवसाय खड़ा करना, यह अपने आप में काबिल-ए-तारीफ उदाहरण है। यह उदाहरण युवाओं को प्रेरित करने का पूरा दम रखता है। 


amit kumar das success hindi story

अमित कुमार दास का जन्म बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज कस्बे में रहनेवाले एक किसान परिवार में हुआ। उनके परिवार के सभी लड़के बड़े होकर अपने घरों की खेती में हाथ बंटाया करते थे। मगर अमित इस परंपरा को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे। वे एक इंजीनियर बनने का सपना देखते थे, लेकिन परिवार की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई का खर्च उठा सके। जैसे-तैसे अमित ने सरकारी स्कूल से पढ़ाई पूरी की और उसके बाद पटना के एएन कॉलेज से साइंस स्ट्रीम से 12वीं की परीक्षा पास की।

संघर्षों से रहा बचपन का नाता



12वीं तक आते-आते अमित के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक मुश्किलों को हल करने की थी। ऐसे में उनके दिमाग में मछली पालन से लेकर फसल का उत्पादन दोगुना करने के लिए ट्रैक्टर खरीदने जैसे ख्याल आने लगे। लेकिन जब पता लगा कि इसके लिए कम से कम 25000 रूपये की जरूरत होगी, तो उन्हें अपना सपना धुंधलाता हुआ सा नजर आने लगा। स्थितियां उनकी समझा से परे थीं, पर आगे बढ़ने का सपना दिल में पक्का हो चुका था। परिवार की माली हालत सुधारने का जब कोई विकल्प सामने नहीं आया, तो अमित ने खुद को उस स्थ्तिी से दूर किया। सिर्फ 250 रूप्ये लेकर वे दिल्ली की ओर रवाना हो गये। दिल्ली पहुंच कर अमित को जल्द ही अहसास हो गया कि वह इंजीनियरिंग की डिग्री का खर्च नहीं उठा पायेंगे। ऐसे में वह पार्टटाइम ट्यूशंस लेने लगे। साथ ही, उन्हें दिल्ली विश्वविघालय से बीए की पढ़ाई शुरू कर दी। 

अंगरेजी बनी रास्ते का कांटा



पढ़ाई के दौरान अमित को महसूस हुआ कि उन्हें कंप्यूटर सीखना चाहिए। इसी मकसद के साथ वे दिल्ली के एक प्राइवेट कंप्यूटर टेªनिंग सेंटर पहुंचे। सेंटर की रिसेप्शनिस्ट ने जब अमित से अंगरेजी में सवाल किये, तो वह जवाब में कुछ नहीं बोल पाये, क्योंकि अंगरेजी में भी उनके हाथ तंग थे। रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया। उदास मन से लौट रहे अमित के चेहरे पर निराशा देख कर बस में बैठे एक यात्री ने उनकी उदासी का कारण जानना चाहा। वजह का खुलासा हुआ तो उसने अमित को इंगलिश स्पीकिंग कोर्स करने का सुझाव दिया। अमित को यह सुझाव अच्छा लगा और बिना देर किये तीन महीने का कोर्स ज्वॉइन कर लिया।

कोर्स पूरा होने के बाद अमित में एक नया आत्मविश्वास जाग चुका था। उसी आत्मविश्वास के साथ अमित फिर से कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट पहुंचे और प्रवेश पाने में सफल हो गये। अब अमित को दिशा मिल गयी थी। छह महीने के कंप्यूटर कोर्स में उन्होंने टॉप किया। अमित की इस उपलब्धि को देखते  हुए इंस्टीट्यूट ने उन्हें तीन वर्ष का प्रोग्राम ऑफर किया। प्रोग्राम पूरा होने पर इंस्टीट्यूट ने उन्हें फैकल्टी के तौर पर नियुक्त कर लिया। वहां पहली सैलरी के रूप् में उन्हें 500 रूपये मिले।  

बचत से शुरू किया आइसॉट



कुछ वर्ष काम करने के बाद अमित को इंस्टीट्यूट से एक प्रोजेक्ट के लिए इंग्लैंड जाने का ऑफर मिला, लेकिन अमित ने जाने से इनकार कर दिया। वजह थी मन में अपना कारोबार करने की इच्छा। उस समय अमित की उम्र 21 वर्ष थी। कारोबार की इच्छा रखने वाले अमित ने जॉब छोड़ने का फैसला लिया। कुछ हजार रूपये की बचत से दिल्ली में एक छोटी-सी जगह किराये पर ली और अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी 'आइसॉट' शुरू की। 2001 में इस शुरूआत से अमित काफी उत्साहित थे, लेकिन मुश्किलें खत्म नहीं हुई थी। कुछ महीनों तक उन्हें एक भी प्रोजेक्ट नहीं मिला था। गुजारे के लिए वे जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में रात में 8 बजे तक  पढ़ते और फिर रात भर बैठ कर सॉफ्टवेयर बनाते।

धीरे-धीरे समय बदला और अमित की कंपनी को प्रोजेक्ट मिलने लगे। अपने पहले प्रोजेक्ट के लिए उन्हें 5000 रूपये मिले। अमित अपने संघर्ष के बारे में बताते हैं कि लैपटॉप खरीदने की क्षमता नहीं थी, इसलिए क्लाइंट्स को अपने सॉफ्टवेयर दिखाने के लिए वे पब्लिक बसों में अपना सीपीयू साथ ले जाया करते थे। इसी दौरान उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट का प्रोफेशनल एग्जाम पास किया और इआरसिस नामक सॉफ्टवेयर डेवलप किया और उसे पेटेंट भी करवाया।

आइसॉफ्ट ने किया सिडनी का रूख.....



अब अमित के सपनों को उड़ान मिल चुकी थी। 2006 में उन्हें ऑस्टेलिया में एक सॉफ्टवेयर फेयर में जाने का मौका मिला। इस अवसर ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय एक्सपोजर दिया। इससे प्रेरित होकर उन्होंने अपनी कंपनी को सिडनी ले जाने का फैसला कर लिया।

'आइसॉट' सॉफ्टवेयर टेकनोलॉजी ने कदम दर कदम आगे बढ़ते हुए तरक्की की। आज उसने ऐेसे मुकाम को छू लिया, जहां वह 200 से ज्यादा कर्मचारीयों और दुनिया भर में करीब 40 क्लाइंट्स के साथ कारोबार कर रही है। इतना ही नहीं 150 करोड़ रूपये के सालाना टर्नओवर की इस कंपनी के ऑफिस सिडनी के अलावा, दुबई, दिल्ली और पटना में भी स्थ्ति हैं।

समाजिक जिम्मेदारी पर दे रहे हैं जोर



इस ऊंचाई पर पहुंचने के बाद भी अमित कुमार दास समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना नहीं भूले थे। वर्ष 2009 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने कुछ ऐसा करने का सोचा, जिस पर किसी भी पिता को गर्व हो। कहीं-न-कहीं उनके मन में अपने राज्य में शिक्षा के अवसरों की कमी का अहसास भी था। बस इसी अहसास ने उन्हें फारबिसगंज में एक कॉलेज खोलने की प्ररणा दी।

अमित ने वर्ष 2010 में यहां कॉलेज स्थापित किया और उसका नाम अपने पिता मोती लाल दास के पर रखा- मोती बाबू इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी। उच्च शिक्षा प्राप्त करके कुछ बनने का सपना देखनेवाले बिहार के अररिया जिले के युवाओं के लिए इससे अच्छा उपहार कोई और नहीं हो सकता था।

बढ़ा रहे हैं नेकी की ओर कदम



अमित ने अपनी पहचान उन चुनिंदा लोगों में करवायी है, जो जीवन में एक सफल मुकाम पाने के बाद समाज को लौटाने के लिए सक्रिय रहते हैं। सालों पहलें जिस कमी के कारण अमित को अपना राज्य छोड़ना पड़ा, आज उसी कमी को दूर करने के लिए वे प्रयासरत हैं।

करोड़ों रूपये के निवेश के साथ वे अपने राज्य को एक शिक्षण संस्थान और सुपर स्पेशिलिटी हॉस्पिटल का उपहार दे चुके हैं और बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए सरकार की मदद भी कर रहे हैं।

समाज के लिए कुछ करने की प्ररणा के बारे में बताते हुए अमित कहते हैं कि हम सभी को अपने समाज के प्रति उतना ही जिम्मेवार होना चाहिए, जितने कि अपने परिवार के प्रति होते हैं। इसलिए समाज की भलाई की दिशा में कुछ करने के लिए जितना संभव हो, उतना प्रयास हम सभी को करना चाहिए।

Monday 28 December 2015

क्या आप जानते है छवि राजावत को ! नहीं अरे भाई आखिर फुर्सत मिले न्यूज देखने की तब तो जानोगे की कौन है!आखिर छवि राजावत !

चलिये हम बताते है !आखिर कौन हैछवि राजावत! चलिये आपका भी परिचय कराते है छवि राजावत सेपरिचय नामछवि राजावतखास बातभारत के राजस्थान के सोडा गाव की सरपंचप्राम्भिक शिक्षादिल्ली के लेडी श्री राम कॉलेज से स्नातक 


अब आपके मन में एक सवाल आया होगा सरपंच है! तो क्या हुआ बहुत सी जगह पर इंडिया में महिला सरपंच है ! पर इसमें ऐसा खास क्या है !
तो चलिये अब आपको इनकी खास बात के बारे में व इनके बारे में विस्तार से बता देते हैं |
इनकी शिक्षा की बात की जाए तो इन्होने पुणे के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मोडर्न मेनेजमेंट से एमबी ए किया है !अब फिर आपके मन में एक सवाल आया होगा की एमबी ए किया है तो सरपंच क्यों ! आप लोग सोच रहे होगे की एमबी के बाद जॉब नहीं लगी होगी तो बन गयी होगी सरपंच ! पर आपको बता दे जो आपको सुनकर आश्चर्य होगा की छवि जी की कॉर्पोरेट कंपनी में जॉब लग गयी थी ! जो उन्होंने छोडकर ! अपने प्रयासों से गाव को वैश्विक पहचान दिलवाई और उनकी वजह से उनके गाव के नाम को आज विश्व स्तर पर जाना जाता है! अब आप सोच रहे होगे की जॉब छोडकर सरपंच बन ने की क्या जरुरत पर गयी !तो इसका जबाब हम जानते है खुद छवि जी से !
छवि जी के सब्दो में –MBA के बाद मैने सीनिअर मेनेजमेंट की जॉब की !लेकिन उस समय मुझे हमेशा महसूस होता था की जितनी मेरी जरुरत कंपनी को है ! उससे कही जायदा मेरे गाव को है !मैने जॉब को अलविदा कह दिया और गाव चली आई क्यों की व्यबस्था को दोषी साबित करने से ही किसी समस्या का समाधान नहीं निकलता !

अब आपने तो सुन लिया ही होगा की छवि जी ने ऐसा क्यों किया !क्यों की वो अपने गाव के लिए कुछ करना चाहती थी !
अब में आपको ये भी बताता हूँ ! की छवि जी केसे एका एक सुर्खियों में छा गयी ! 
जरासर दुनिया में गरीबी को मिटाने और विकास के नए रास्ते तलाशने के लिए सयुक्त राष्ट्र ने एक सम्मेलन का आयोजन किया !जिसमे कई देशों के राज नेताओ के सामने अधयक्षता के लिये छवि को बुलाया गया और गाँव के सरपंच के रूप में संबोधन किया गया तो वहाँ पर बैठे लोगो को परंपरागत वेशभूषा व बहुत कम पढ़ी लिखी तथा भाषण के लिए भी अपने साथ कोई लाएगी ऐसी युवती की आने की उम्मीद होती है ! 
तभी मंच पर एक युवती को आते देखकर लोगो ने अनुमान लगाया की वह कोई सयुक्त राष्ट्र की उच्च आधिकारि होगी ! पर उन्हे यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ की वह युवती ही सोडा गाव की सरपंच छवि जी है !
मेरा कहना है की यदि ऐसा विचार गाँव के हर नागरिक का हो जाए तो गाँव भी शायद विकास कर सके !


Friday 25 December 2015

कभी मजदूरी की, अब सर्जरी में गोल्ड मेडल…मिलिए डॉ प्रेम शंकर से

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लखनऊ के केजीएमयू में गोल्ड मेडल के साथ डॉ प्रेम शंकर
लखनऊ। कोई इंसान कैसे खुद अपने हाथों से अपनी तकदीर लिख सकता है, यह डॉ प्रेम शंकर से सीखा जा सकता है।  वह कभी मजदूरी करते थे। लेकिन उनके सपने और मंजिल कुछ और थी। उन्होंने पेट भरने के लिए मजदूरी करने के साथ-साथ अपने सपनों को पूरा करने का जज्बा नहीं छोड़ा। मेहनत की, दिल लगा कर पढ़ाई की। और देख लीजिये उन्हें सजर्री की सर्वोच्च उपाधि एमसीएच (प्लॉस्टिक सर्जरी) के साथ गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया है।
ख़ुशी से छलक पड़े आंसू
राज्यपाल राम नाईक ने लखनऊ की किंग जोर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में जब यह सम्मान दिया तो डॉ प्रेम ख़ुशी से रो पड़े। ये आंसू इस बात के थे कि कभी ईंट-गारा, मौरंग-गिट्टी से लोगों के घर, दुकान बनाने वाले हाथ अब जले-कटे अंगों को जोड़कर लोगों को नई जिंदगी दे रहे हैं। वे एसिड अटैक पीड़ितों के नैन-नक्श संवार सकते हैं। आज मेडिकल साइंस ही नहीं जो भी उनकी संघर्ष और कामयाबी की कहानी सुन रहा है उन्हें सलाम कर रहा है।
बेहद गरीबी में गुजरा बचपन
डॉ. प्रेम शंकर लखनऊ के मोहनलालगंज के कल्ली पश्चिम गांव के हैं। परिवार में इतनी गरीबी थी कि भुखमरी के हालत थे। पढ़ाई करने के लिए नाना-नानी के यहाँ रहने लगे। हाईस्कूल प्रथम श्रेणी में पास हुए। पैसे के अभाव में पढ़ाई रुक गई। माता-पिता को कई-कई दिन भूखा रहते देखकर उन्होंने मजदूरी करना शुरू कर दिया। तेलीबाग चौराहे पर मजदूरों की मंडी कहे जाने वाले अड्डे पर खड़े हो गए। बिल्डिंग, घर, दुकान या कोई भी ऐसे ही काम के लिए लोग मजदूरों को ले जाते, प्रेम भी उन्ही मजदूरों में शामिल हो गए। रोजाना मजदूरी से घर का खर्च चलाने लगे। रात में पढाई करते। डॉ. प्रेम शंकर कहते हैं भवन निर्माण में मजदूरी नहीं मिली तो लोनिवि ठेकेदार के पास गए। उसने 30 रुपये दिहाड़ी पर कोलतार गर्म करने का काम दिया। एक साथी का हाथ गर्म कोलतार से झुलस गया। कई बार वे खुद कोलतार से बचे।
तीन साल लगातार मजदूरी करते रहे 
डॉ. प्रेम शंकर 1991 से वर्ष 1994 के बीच तीन साल तक बराबर मजदूरी करते रहे। वह बताते हैं कि मेरे ननिहाल में भी गरीबी थी। उसी गरीबी में मामा ने भी एमबीबीएस किया। उस समय इलाहाबाद में नेत्र सर्जरी में एमएस कर रहे थे। मुझे वहीं भेज दिया। मामा ने हौसला बढ़ाया। उन्होंने ही इंटर प्राइवेट करने और सीपीएमटी में बैठने की सलाह दी। पहले मैंने प्राइवेट इंटरमीडिएट फार्म भरा। पहले साल फेल हो गए। दोबारा मेहनत की तो पास हुए और बायोलॉजी में 100 में से 76 नंबर मिले। केकेवी में बीएससी में एडमिशन लिया। इस दौरान वर्ष 1996 में सीपीएमटी में अच्छी रैंक आई।
फर्स्ट डिवीज़न में एमबीबीएस
कानपुर के गणोश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस में एडमिशन ले लिया। प्रथम श्रेणी में एमबीबीएस पास हुए। आल इंडिया पीजी टेस्ट में उन्होंने बेहतर प्रदर्शन किया। इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज से एमएस की डिग्री हासिल कर ली।उसके बाद डॉ. प्रेमशंकर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। कानपुर के गणोश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज में ही सर्जरी विभाग में नौकरी मिली। एमसीएच की ऑल इंडिया परीक्षा में उन्होंने टॉप किया, वह भी सामान्य श्रेणी में। उनकी प्रतिभा को राज्यपाल ने गोल्ड मेडल से सम्मानित किया और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उन्हें डिनर पर बुलाकर बधाई दी।

Saturday 12 December 2015

मिलिए भारत की पहली नेत्रहीन महिला IFS OFFICER से

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एनएल बेनो जेफीन
विकलांगता कैसी भी हो, इंसान को सामान्य जिंदगी जीने में कठिनाई पैदा करती है। न जाने कितने लोग हैं जो इस बात का रोना रोते मिल जायेंगे। सरकारी सहायता और दूसरों की मदद मांगते फिरेंगे। लेकिन पूरी तरह से नेत्रहीन एनएल बेनो जेफीन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। तमिलनाडु की इस लड़की ने अपनी तकदीर खुद अपने हाथों से लिखी। अपने अंधेपन से हार नहीं मानी। मेहनत की, जज्बा दिखाया और नतीजा देखिये कि देश की सबसे कठिन परीक्षा संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) में 353वीं रैंक हासिल की। 69 साल के विदेश मंत्रालय के इतिहास में पहली बार 100 फ़ीसदी नेत्रहीन को अधिकारी पद की नियुक्ति मिली है।
अभी तक स्टेट बैंक में थीं पीओ
ख़ास बात ये भी कि इस परीक्षा को पास करने से पूर्व तक जेफीन स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में पीओ के रूप में कार्यरत रहीं हैं। आज पूरा तमिलनाडु ही नहीं देश में जो भी उनकी इस लगन और कामयाबी की कहानी सुनता है गौरवान्वित हो उठता है। उन्होंने अपनी सफलता का श्रेय अपने माता-पिता को दिया। लोक सेवा आयोग की परीक्षा उत्‍तीर्ण करने के बाद बेनो ने कहा कि वो इस तरीके से पढ़ाई करती थीं कि सभी विषयों और क्षेत्रों को सही ढंग से समझ सकें।
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माता-पिता की लाडली बेटी ने रच दिया इतिहास
“मेरे पास दृष्टि नहीं थी, लेकिन सिविल सेवा में जाने की दृष्टि थी.” ये कहना है एन.एल.बेनो ज़फीन का, जो 100 फ़ीसदी नेत्रहीनता के बावजूद विदेश सेवा की अधिकारी बनी हैं.
कैसे पढ़ती हैं बेनो
एक अंधी लड़की यूपीएससी के परिणामों में 353वां रैंक लाती है और जब उससे यह पूछा जाता है कि आपने अपनी पढ़ाई कैसे पूरी की तो उसका यही कहना होता है कि मेरे पिता हर दिन सुबह अखबार पढ़ते थे और मैं बड़े ही ध्‍यानपूर्वक सभी खबरों को हर दिन सुनती थी। इसके साथ ही जिस कोचिंग में बेनो परीक्षा की तैयारी कर रही थी वहां भी कोचिंग के एमडी सत्‍या द्वारा उन्‍हें विशेष क्‍लास दी जाती थी। मां ने उन्हें घंटों किताबें और अखबार पढ़कर सुनाए, ताकि बेटी की तैयारी में कोई कमी न रह जाए। पिता ने वो सॉफ्टवेयर उनके कंप्यूटर में अपलोड कराया, जिसकी मदद से वे किताबों को स्कैन कर ब्रेललिपि में पढ़ सकीं। बेनो कहती हैं जब बचपन में उन्हें अंधेपन के ताने कोई देता या हमदर्दी जताता था तो बहुत बुरा लगता था। तभी उन्होंने यह तय कर लिया था कि कुछ ऐसा करना है जो औरों के लिए भी प्रेरणा का काम कर सके। इसी के लिए रात-दिन पढाई की। मन में बस एक ही लक्ष्य था कि मुझे अपने बल-बूते ये जिंदगी जीनी और जीतनी है। अभी भी बेनो तमिलनाडु के भारतियार यूनीवर्सिटी से बेनो अंग्रेजी में पीएचडी कर रही हैं।
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जेफीन ने नेत्रहीनता को अपने जज्बे से दे दी मात
अब नहीं है ख़ुशी का ठिकाना
पिछले कई साल से बेनो लोक सेवा आयोग परीक्षा की तैयारी में जुटी हुई थीं लेकिन सफलता नहीं मिली। 2013 के परीक्षा परिणाम जो इसी 2015 में घोषित हुए हैं ने एक इतिहास रचने जैसा काम किया है। 25 वर्षीय जेफीन अपनी नई भूमिका को लेकर काफी उत्साहित हैं। जेफीन का कहना है कि वह दुनियाभर में घूम कर भारत का प्रतिनिधित्व करना चाहती हैं।  अपनी कामयाबी के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी शुक्रिया अदा किया और कहा कि ‘मुझे बताया गया कि मैं आईएफएस के लिए योग्य हूं, हालांकि इससे पहले किसी भी 100 फीसदी दृष्टिहीन व्यक्ति को यह पद नहीं दिया गया है। बेनो के मुताबिक महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं होतीं। बेनो 2008 में अमरीका में आयोजित ‘ग्लोबल यंग लीडर्स कांफ्रेंस’ में हिस्सा ले चुकी हैं और इसके बाद ही उनका आत्मविश्वास काफी बढ़ा।उन्हें ‘डेक्कन क्रानिकल’ की ओर से ‘वुमन ऑफ़ द ईयर’ का सम्मान मिल चुका है।
क्रांतिकारी कदम
पूर्व राजनयिक टीपी श्रीनिवासन ने कहा, यह फैसला क्रांतिकारी से कम नहीं है, क्योंकि कई होनहार अभ्यर्थी अंतिम समय में 20:20 की दृष्टि नहीं होने के कारण आईएफएस ज्वाइन नहीं कर पाते।  आयकर विभाग और राजस्व सेवा में कुछ मामले ऐसे हैं, जिनमें आंखों की रोशनी चले जाने के बावजूद उन अभ्यर्थियों को सेवा में रखा गया। केंद्र सरकार का यह उदार फैसला है।

Friday 11 December 2015

सूरज की रोशनी से चलती है सैयद की यह कार, एक लाख किलोमीटर चल भी चुकी

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सौर ऊर्जा से चलने वाली अपनी कार के साथ सैयद सज्‍जन अहमद
नई दिल्ली| एक इंसान जिन्‍होंने 12वीं कक्षा में पढ़ाई छोड़ दी। फल बेचने का काम किया। जिंदगी जीने के लिए तरह-तरह की कोशिशें की। आज वह देश भर में अचानक चर्चा में आ गए हैं। सफलता और कामयाबी की नई कहानी लिख दी है। इनका नाम है सैयद सज्‍जन अहमद। इन्‍होंने खुद ही सौर ऊर्जा से चलने वाली कार तैयार कर डाली। इसी सौर ऊर्जा कार से बैंगलुरु से 3000 किलोमीटर की यात्रा 30 दिन में पूरी करते हुए दिल्‍ली पहुंच गए। यहां अंतरराष्‍टृीय भारत विज्ञान मेले में जब वह पहुंचे तो वहां मौजूद हर शख्‍स की जुबान पर 63 साल के सैयद सज्‍जन अहमद का नाम छा गया।
जान लीजिए सैयद सज्‍जन अहमद को
बेंगलुरू से 70 किलोमीटर दूर कोलार में जन्मे सज्जन ने 12वीं में पढ़ाई छोड़ दी। सज्जन ने बताया कि उन्होंने अपना करियर फल बेचने वाले के रूप में शुरू किया और बाद में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मरम्मत की एक दुकान खोल ली। अपनी दुकान पर सज्जन ने ट्रांजिस्टर, टेप रिकॉर्डर और टेलीविजन तथा डिश एंटीना की मरम्मत शुरू की। धीरे-धीरे वह कम्प्यूटरों की भी मरम्मत करने लगे। सज्जन ने कहा, “मुझे 15 वर्ष की अवस्था में स्कूल छोड़ना पड़ा। लेकिन समाज के लिए कुछ अच्छा करने की इच्छा मेरे मन में बनी रही।”
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अब तक एक लाख किलोमीटर से ज्‍यादा की यात्रा इस कार से तय कर चुके हैं सैयद
आखिरकार तय कर लिया कुछ नया करने के बारे में 
सज्जन ने आखिरकार 2002 में कुछ नया करने की ठान ली। उन्होंने कहा, “मैंने खुद से कहा कि अब मैं 50 वर्ष का हो चुका हूं और असहाय होने से पहले मुझे कुछ न कुछ जरूर करना चाहिए।” सज्जन ने इसके बाद एक दोपहिया वाहन को इलेक्ट्रिक से चलने वाले वाहन में तब्दील करना शुरू किया, जिसे बाद में उन्होंने तिपहिया वाहन और फिर अंत में कार के रूप में विकसित किया। सज्जन को उनकी इस नई खोज के लिए कर्नाटक सरकार की ओर से पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम की स्मृति में स्थापित पर्यावरण संरक्षण के लिए दिए जाने वाले सम्मान से सम्मानित किया गया।
इनसे तैयार हुई ये सौर ऊर्जा कार
सज्जन ने बताया कि उनकी इस स्वनिर्मित कार में पांच सौर पैनल लगाए गए हैं और प्रत्येक सोलर पैनल की क्षमता 100 वाट है। इन सोलर पैनल से बनने वाली ऊर्जा से चार्ज होने वाले छह बैटरियां मशीन को संचालित करती हैं। प्रत्येक बैटरी की क्षमता 12 वोल्ट और 100 एम्पियर है।
कार ने की हर बाधा पार
उन्हें इस बात पर गर्व है कि उनकी बनाई कार 3,000 किलोमीटर का सफर तय करने में सफल रही। उन्होंने बेंगलुरू से दिल्ली तक के सफर के बारे में बताया, “कई बार ऐसा लगा कि मेरी कार घाट मार्ग की तीखी चढ़ाई नहीं चढ़ पाएगी। लेकिन इसने राह में पड़ने वाली सारी बाधाएं पार कर लीं वह भी बिना किसी खास परेशानी के।” सज्जन ने बताया कि वह अब तक अपनी इस कार से पूरे देश में 1.1 लाख किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं, हालांकि साथ में एक अन्य सामान्य कार में उनके चचेरे भाई सलीम पाशा भी चलते रहे।

Thursday 10 December 2015

एक ट्वीट पर प्रभु ने भिजवाया खाना

वाराणसी। आज के दौर में पीएम मोदी के बाद अगर कोई नेता सोशल मीडिया पर ऐक्टिव है तो वह हैं रेल मंत्री सुरेश प्रभु। इस बार सुरेश प्रभु ने टि्वटर पर मिली रिक्वेस्ट पर तुरंत ऐक्शन लेते हुए भूखे बच्चों को खाना भिजवाया।
Railway Minister
एक ट्वीट पर पहुंचा खाना
देहरादून एसीएन स्कून के छात्र हरिद्वार से हावड़ा जा रही कुम्भ एक्सप्रेस में सफर कर रहे थे। कोहरे की वजह से ट्रेन नौ घंटे लेट थी और बच्चे भूख से बिलबिलाने लगे। अचरज की बात यह थी कि ट्रेन में पेंट्रीकार नहीं थी। भूखे बच्चों ने रेलमंत्री को ट्वीट किया तो रेल मंत्री प्रभु ने तुरंत रेलवे बोर्ड को इंतजाम करने के आदेश दिए। इस पर वाराणसी कैंट स्टेशन पर बच्चों को पूड़ी सब्जी, दाल, चावल, पानी और कॉफी दी गई।
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इससे पहले एक महिला ने मांगी थी मदद
स्कूली बच्चों को मालूम था कि कुछ दिनों पहले रेलमंत्री ने ट्रेन में सफर कर रही एक महिला की मदद की थी। उस महिला ने ट्विटर के जरिए प्रभु से मदद मांगी थी। इस घटना से प्रभावित होकर ही बच्चों ने रेलमंत्री से मदद मांगी और उन्हें सहायता मिली। बच्चे बिहार और पश्चिम बंगाल के थे और सर्दियों की छुट्टियों में अपने घर जा रहे थे। रेल मंत्री से मदद मिलने के बाद बच्चे काफी खुश हैं।
मदद मांगने वालों पर ध्यांन दे रहे हैं प्रभु
रेल मंत्री के सोशल मीडिया के जरिए मदद करने की यह हाल के दिनों में तीसरी बड़ी घटना है। इन दोनों घटनाओं से पहले उन्होंने राजस्थान के मेड़ता में एक व्यक्ति की मदद के लिए आठ मिनट तक ट्रेन रूकवाई थी। यात्री ने प्रभु को ट्वीट कर बताया था कि उसके पिता विकलांग है जिसके चलते उन्हें उतरने में परेशानी होगी। इस पर जब ट्रेन स्टेशन पर पहुंची तो असिस्टेंट स्टेशन मास्टर और अन्य रेल कर्मी ट्रॉली के साथ वहां मौजूद थे।

Wednesday 9 December 2015

सिनेमा के टिकट बेच कर अरबपति बने आशीष

खुदी को कर बुलंद इतना कि खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है।

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एक कामयाब इंसान बनने के लिए जरूरी नहीं कि रुपयों की पोटली लेकर बैठा जाए। जरूरत होती है एक ऐसे दिमाग की जो आपके लिए कुछ इस प्रकार की रणनीति तैयार कर दे जो आपके लिए रास्ते खोलती चली जाए।
बात करते हैं एक एंटरप्रेन्योर के तौर पर ‘बुक माय शो’ के ओनर आशीष हेमरजानी की। जिन्होंने पिछले 16 सालों में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। लेकिन वे जितनी बार गिरे उतनी ही बार उन्हें फिर से उठकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा मिली। स्पाइडरमैन की तरह आज अपने प्रयासों से उन्होंने एक ऐसा मुकाम हासिल कर लिया है जहां पहुंचने की तमन्ना हर एंटरप्रेन्योर की होती है।

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आशीष हेमरजानी ने नौकरी छोड़ अपना बिजनेस शुरू किया और आज उनकी कंपनी का टर्नओवर अरबों में पहुंच चुका है। मुंबई यूनिवर्सिटी से एमबीए करने के बाद आशीष का अगला पड़ाव था नौकरी। 1997 में एडवरटाइजिंग कंपनी हिंदुस्तान थॉमसन एसोसिएट्स के साथ उन्होंने अपने कॅरिअर की शुरुआत की। इसी दौरान आशीष का दक्षिण अफ्रीका जाना हुआ। यहां इंटरनेट के माध्यम से मिलने वाली सुविधाओं से प्रभावित होकर 24 साल के आशीष के मन में नए-नए आइडिया आने लगे। जिनके चलते उन्होंने यहां फैनडैंगो और टिकटमास्टर जैसी इंटरनेशनल टिकटिंग कंपनियों की वेबसाइट खंगाली। अफ्रीका से लौटते हुए पूरे सफर के दौरान आशीष इन्हीं आइडियाज के बारे में सोचते रहे।

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मूवी के टिकट बेचने का फैसला

आशीष ने अपने देश में टेलीफोन और इंटरनेट के जरिए मूवी के टिकट बेचने का फैसला लिया और इसके लिए नौकरी भी छोड़ दी। यह वह दौर था जब सिनेमा के टिकट बेचना अच्छा नहीं समझा जाता था। ऐसे में यह फैसला लेना काफी मुश्किल था। चुनौतियों के बावजूद उन्होंने 1999 में बिग ट्री एंटरटेनमेंट की स्थापना की। इस दिशा में पहला कदम उठाते हुए आशीष ने अपने बिजनेस प्लान के बारे में बताते हुए चेज कैपिटल को एक ईमेल भेजा। करीब सात दिन बाद वहां से जवाब आया और आधा मिलियन डॉलर की फंडिंग के निवेश के साथ उन्होंने कारोबार की शुरुआत की। इस दौरान देश कम्प्यूटर से परिचय कर ही रहा था, कम लोगों के पास क्रेडिट कार्ड हुआ करते थे और नेट बैंकिंग से तो कोई भी वाकिफ नहीं था। दूसरी परेशानी यह थी कि यहां थिएटरों और सिंगल स्क्रीन्स में ई-टिकटिंग सॉफ्टवेयर का अभाव था, ऐसे में आशीष पहले थिएटरों से बड़ी मात्रा में टिकट खरीदते और फिर कस्टमर्स को उपलब्ध करवाते थे।

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विपरीत परिस्थिति में ढूंढी कामयाबी की मंजिल

तमाम चुनौतियों के बीच आशीष ने हिम्मत नहीं हारी। 2001 में बिग ट्री के पास 160 कर्मचारियों की टीम तैयार हो चुकी थी कि तभी डॉट कॉम ठप पड़ गया। इससे उबरने के लिए आशीष को सख्त कदम भी उठाने पड़े। लगातार कोशिशों के बल पर उन्होंने कंपनी को संकट के दौर से निकाला और 2002-04 में कंपनी को सॉफ्टवेयर सॉल्यूशन प्रोवाइडर का दर्जा दिलाया, जो थिएटरों को ऑटोमेटेड टिकटिंग सॉफ्टवेयर प्रदान करती है। 2007 में आशीष ने बिग ट्री को बुक माय शो के नाम से रीलॉन्च किया। आज बुक माय शो 1000 करोड़ के वैल्यूएशन क्लब में शामिल हो गया है और कंपनी ने ऑनलाइन एंटरटेनमेंट टिकटिंग का 90 फीसदी से ज्यादा बिजनेस अपने नाम कर लिया है।

Tuesday 8 December 2015

नौकरी के लिए सुने 40 इंकार, फिर कामयाबी की बहुत बड़ी हाँ


टेस्टर बनने के फैसले को बदलने का दबाव
प्रमिला का बचपन एक आम साधारण बच्चों जैसा था। उन्होंने ग्रेजुएशन की पढ़ाई जेएसएस कॉलेज बेंगलौर से साल 2003 में की। इसके बाद ओरेकल में टेस्टर की भूमिका निभाई। इस काम से पहले उन्होंने जहाँ भी नौकरी के लिए कोशिश की वहां से उन्हें इनकार सुनने को मिला।40 कंपनियों ने उन्हें रिजेक्ट कर दिया था। शुरूआती दिनों में उन्होंने महसूस किया कि उनके साथी इस बात से खुश नहीं हैं कि वो टेस्टर की भूमिका में हैं और उनके दोस्त उनके फैसले पर दोबारा विचार कर प्रोग्रामिंग के क्षेत्र में आने को कहते। वो इस बात से टूट सी गई थीं कि टेस्टिंग उद्योग के साथ सौतेला व्यवहार तो होता ही है साथ ही उनके दोस्तों में इस क्षेत्र को लेकर समझ कम है।
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इस भूमिका में आने के लिए किया कड़ा परिश्रम
प्रमिला टूट भले ही गईं लेकिन उनमें हिम्मत अभी बची हुई थी। तभी तो उन्होंने सॉफ्टवेयर टेस्टिंग को लेकर अपनी जानकारी बढ़ाने के साथ साथ जिज्ञासा को भी बढ़ाया। इसके बाद वो मूल्य के साथ जुड़ने से पहले मैकऐफी, सपोर्ट सॉफ्ट और वीकेंड टेस्टिंग में काम कर चुकी हैं। वह जानती हैं कि टेस्टर की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है तभी तो कोई भी उत्पाद ये सेवा को सामने लाया जाता है तो टेस्टर ही है जो बताता है कि उत्पाद अच्छा है या खराब। हालांकि हमारे देश में ऐसे लोगों की संख्या काफी कम है। सॉफ्टवेयर टेस्टिंग दरअसल एक कुशल कारीगरी है जिसके लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। प्रमिला कहती हैं कि लिखना तो सबको आता है लेकिन हर कोई मैल्कम ग्लैडवेल की तरह नहीं लिख सकता। इसी तरह इस क्षेत्र में भी जुनून, साहस, उत्कृष्टता और अच्छा टेस्टर बनने की उम्मीद होनी चाहिए।
काम है पता लगाना उत्पाद में गलती कहां रह गयी
टेस्टिंग की पेचीदगियों के बारे में बात करते हुए वो बताती हैं कि किसी भी टेस्टर का काम ये पता लगाना होता है कि उत्पाद में कहां गलतियां हो रही हैं। इसके लिए उसमें सहानुभूति, विज्ञान की जानकारी, तहकीकात करने का कौशल और गलत दिशा की ओर जा रही चीजों को समझने की ताकत होनी चाहिए। अगर कोई अपने काम को लेकर जोशीला नहीं होगा तो वो इस काम से परेशान होने लगेगा जिसका असर उसके साथ काम कर रहे दूसरे लोगों पर भी पड़ सकता है।
टेस्टर के लिए प्रोग्रामिंग में बेहतर होना जरूरी
प्रमिला का मानना है कि उनको अपने काम में और ज्यादा वक्त लगाना चाहिए, साथ ही टेस्टिंग से जुड़े उपकरणों का ज्ञान बढ़ाने पर भी ध्यान देना चाहिए। उनका मानना है कि अगर कोई प्रोग्रामिंग में बेहतर है तो वो बेहतर टेस्टर बन सकता है। प्रमिला ने साल 2008 में पहली बार टेस्टिंग समुदाय के साथ बातचीत की थी तब से वो ऐसी कई कांन्फ्रेंस और वर्कशॉप में हिस्सा ले चुकी हैं। इसके अलावा वो निरंतर एक जैसी सोच रखने वाले लोगों से मुलाकात भी करती रहती हैं। साथ ही वो ब्लॉग तो लिखती ही हैं टेस्टिंग से जुड़ी क्लासेस भी देती रहती हैं।
हर किसी को दी है खुलकर बात रखने की आजादी
प्रमिला को टेस्टिंग इंडस्ट्री में 11 साल हो गए हैं। उनका मानना है कि अपने सहयोगियों से ईमानदार राय मिलना कई बार कठिन होता है। अगर आप उनसे पूछते भी हैं तो भी वो अपनी बात आपके सामने नहीं रखते। इसी बात को समझते हुए प्रमिला ने मूल्य में हर किसी को अपनी राय खुलकर रखने का माहौल बनाने की कोशिश की है। शुरुआत में कुछ महिला टेस्टर के साथ प्रमिला को कुछ दिक्कत हुई लेकिन धीरे-धीरे उनको लगा कि दूसरों की बात भी सुननी चाहिए। इस दौरान वो एक शर्मीले इंसान की जगह बातचीत वाली एक प्रतिभा बन कर उभरी हैं।
प्रमिला की इच्छा
प्रमिला इस दुनिया को रहने के लिए बेहतर जगह बनाने की कोशिश में हैं। उनके मुताबिक हम हर चीज अपनी सुविधा मुताबिक इस्तेमाल करते हैं। जिसे कभी किसी ना किसी ने ना सिर्फ डिजाइन किया होता है बल्कि उसकी जांच भी की होती है। इसी तरह वो आने वाली पीढ़ी के लिए उनकी जिंदगी आसान बने इस पर काम कर रही हैं। वो पेशेवर लोगों से बात करना ज्यादा पसंद करती हैं क्योंकि उनको नेतृत्व, ईमानदारी, सच्चाई और कड़ी मेहनत बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं।
प्रमिला के शौक
टेस्टिंग के अपने पेशे के अलावा प्रमिला को लिखने का भी शौक है। इसके लिए वो ना सिर्फ ब्लॉग लिखती हैं बल्कि कई टेस्टिंग पत्रिकाओं में लेख भी लिखती हैं। उनको घूमने और खाने का शौक है। उनके इस काम में उनके बच्चे और उनका परिवार उनकी मदद करता है और वो उनके साथ वक्त बिताना पसंद करती हैं। हाल ही में उन्होंने योग का प्रशिक्षण भी शुरू किया है।
महिलाओं को हमारे समाज में दबाया हुआ है
प्रमिला अपने परिवार की पहली महिला सदस्य हैं जिन्होने 10वीं, 12वीं, और कॉलेज की पढ़ाई पूरी की। इसलिए वो जानती हैं कि आजादी की कीमत क्या होती है और वो उन्हें किस तरह प्रभावित कर सकती है। प्रमिला का मानना है कि महिलाओं को हमारे समाज में दबाया हुआ है। उनको पढ़ाई के बाद ये बताया जाता है कि वो नौकरी करने की जगह रसोई घर संभाल कर ही सुरक्षित रह सकती हैं। इतना ही नहीं जो महिला नौकरी करती है उससे उम्मीद की जाती है कि वो घर भी संभाले तभी समाज तय करता की कोई महिला अच्छी मां, पत्नी या बहू है।
33 फीसदी आरक्षण नहीं मानसिकता बदलें
उनके मुताबिक हमारे समाज में परिवर्तन महिलाओं को सिर्फ 33 प्रतिशत आरक्षण देने से दूर नहीं होगा। इसके लिए हमको एक ईकोसिस्टम बनाना होगा जहां पर हर कोई एक समान हो। क्यों हम महिलाओं से पूछते हैं कि कैसे वो अपने काम के साथ घर को संभालती हैं। इसके लिए हमें अपनी मानसिकता में बदलाव करना होगा।
महिलाओं को भरपूर मौका मिले
प्रमिला मूल्य की पहली महिला सदस्य हैं लेकिन उन्होंने सुनिश्चित कर दिया है कि कोई भी नई महिला यहां पर काम करे तो उसे अनुकूल वातावरण मिले। प्रमिला ना सिर्फ नए लोगों के इंटरव्यू लेती हैं बल्कि संगठन से जुड़ी नीतियों पर अपनी राय भी रखती हैं। उनका कहना है कि सौभाग्य से मूल्य शुरूआत से ही उनके लिए काफी मददगार रही है जहां पर उनको काम करने की आजादी के साथ साथ टेस्टिंग समुदाय और महिलाओं के लिए काम करने के भरपूर मौके मिलते हैं।
क्या जरूरी है
प्रमिला के मुताबिक ये जरूरी है कि आप ये जानें कि आप कोई काम क्यों कर रहे हैं और क्या कर रहे हैं ? क्या आप सिर्फ पैसे के लिए ऐसा कर रहे हैं या फिर अपने जोश से दूसरों की जिंदगी बदलने का माद्दा रखने की नीयत से अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। जरूरत है तो स्पष्ट इरादों की। प्रमिला को अपने स्पष्ट इरादे और सोच पर पूरा विश्वास है।

Monday 7 December 2015

A Walk to Mark the Oldest Trees

THIRUVANANTHAPURAM: You don't ask how old the oldest trees of Thiruvananthapuram are. Not because it is inappropriate to do so, but because the layman method of counting growth rings do not apply to trees in tropical countries, says Anitha Sharma, coordinator of Tree Walk, a group of environmentalists.

Members of Tree Walk during their walk to visit the oldest trees in T’Puram
They had just returned from a walk called 'Senior Tree Citzens' Walk', to look at the oldest trees in the heart of the city.“ Analysis of tree rings,is easier in regions which have well-marked seasons. In such places, the growth is arrested during winter, and resumes during spring. In such places, many trees have one growth ring every year,” Anitha added.
To determine the age, they relied on methods of qualitative assessment, like the age of people who had the earliest memories of the trees. The group started their walk at the East Fort bus stand.
Nearby, the Government Central High School, Attakkulangara, has two mammoth rain trees, the girths and crowns of which suggest that these have been around before Independence. These are at least 75 years old. “ A former student of the school, S Veeramoni Iyer, had said that the saplings had attained a certain height, when he passed Class X in 1948,” Anitha said.
Perhaps these would have been around when the Father of the Nation had famously referred to Thiruvananthapuram as a city of evergreen trees. The giants have been marked to be brought down for a bus bay-cum-shopping complex project by Thiruvananthapuram Development Authority. A government order had handed over 2 acres of the school land to TRIDA.
The decision, challenged in the court, received a favourable verdict in the High Court, but TRIDA has been asked to ensure that the school gets at least 3 acres.
All the trees that the group visited on Sunday were certainly aged above 50 years. One of the rarest trees the group visited were the Arjun trees ('Neermaruthu'/ 'Terminalia Arjuna') near Kuthiramalika. “ These are normally found in forest areas,” said Anitha. 
Did you know that these have a connection with Tussar silk? The conical leaves of the tree is a favourite food of Antheraea paphia moth, which produces Tussar.
The group also visited the guest tree and banyan near the RT office. “ We are planning to document the oldest trees in town. We will be contacting like-minded people for this. Moreover, we will be requesting the Government to entrust us with care taking and beautification of the Sri Chithira Thirunal Park, which need special attention,” said Anitha. The walk concluded with poet V T Jayadevan, who won Kadamanitta and N V Krishna Warrier awards, reciting his piece on Nature.

Saturday 5 December 2015

वन मैन एनजीओ आबिद सुरती

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आबिद सुरती उर्फ ढब्बू जी लेखक है, कलाकार है, नाटककार है, कार्टूनिस्ट है और, और भी न जाने क्या-क्या हैं। वे वन मैन एनजीओ है, जो पानी की बर्बादी रोकने के लिए कार्य कर रहे है। ड्राप डेड फाउंडेशन के जनक आबिद सुरती एक अनोखी शख्सियत हैं। उनकी 80 से अधिक किताबें आ चुकी है। कई पुस्तकों के लिए उन्हें सम्मानित भी किया जा चुका है। हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में वे लिखते है। ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ फिल्म की कहानी भी उनकी एक कहानी से प्रेरित बताई जाती है। उनके बनाए कार्टून भारत की सभी प्रमुख पत्रिकाओं और पत्रों में प्रकाशित हो चुके है और होते रहते हैं। कॉमिक कैरेक्टर ‘बहादुर’ उन्हीं की पैदाइश है। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की प्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग मेंं ‘कार्टून कोना/ढब्बू जी’ उन्हीं की कला का नमूना था। यह इतना लोकप्रिय था कि लोग धर्मयुग को उर्दू की तरह पीछे से खोलना शुरू करते थे, क्योंकि ढब्बू जी का कार्टून अंतिम पृष्ठों पर होता था। ढब्बू जी के कार्टूनों को पसंद करने वालों में अटल बिहारी वाजपेयी, आशा भोंसले और ओशो जैसी हस्तियां शामिल है। शाहरुख खान उनके बहुत बड़े प्रशंसक हैं, लेकिन यहां उनका जिक्र उनकी कलाकृतियों के बारे में बताने या उनके लेखन की तारीफ करने के लिए नहीं किया जा रहा है, बल्कि एक एनजीओ के लिए किया जा रहा है।
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आबिद सुरती बहुत अच्छे नलसाज यानि प्लंबर हैं। नलसाजी का यह काम उन्होंने लोगों की सेवा करने के इरादे से शुरू किया था। हर रविवार को सुबह वे अपने झोले में नल सुधारने का सामान लेकर निकल पड़ते है और जिन-जिन घरों के नल टपकते रहते है, उनके नल ठीक करते है। इसकी शुरुआत कुछ इस तरह हुई कि एक दिन वे अपने दोस्त के घर गए, तो दोस्त के घर के किचन का नल बूंद-बूंद करके टपक रहा था। आबिद सुरती जी ने पूछा कि यह ठीक से बंद क्यों नहीं होता? तो मित्र ने जवाब दिया कि इसका वाशर खराब हो गया है और वाशर बदलने जैसे छोटे से काम के लिए कोई भी प्लंबर आने को तैयार नहीं है। जो आते भी है वो बहुत पैसा मांगते है, इसलिए नल टपक रहा है। आबिद सुरती ने बाद में कहीं पढ़ा कि अगर एक सेकंड में पानी की एक बूंद भी व्यर्थ जाती है तो एक महीने में करीब एक हजार लीटर पानी बर्बाद हो जाता है। हजारों घरों में अनेक नल टपकते रहते है, जिससे लाखों लीटर पानी बर्बाद हो जाता है। यह बर्बादी रोकी जा सके तो इस पानी का बेहतर इस्तेमाल संभव है। आबिद सुरती ने मित्र को बताया कि वे हर महीने दस से बीस हजार रुपए का पानी बर्बाद कर रहे है, क्योंकि अगर वे इतना पानी बोतलों में खरीदते, तो उसकी यहीं लागत होती। बस, फिर क्या था। आबिद सुरती को अपना मिशन मिल गया। वे अपने मिशन में जुट गए और उन्होंने एक संस्था बना डाली- ‘ड्रॉप डेड फाउंडेशन’। इस संस्था का सूत्र वाक्य है- ‘सेव एवरी ड्रॉप आर ड्रॉप डेड’।
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इस अनोखे अभियान में आबिद सुरती ने नल सुधारने का तमाम सामान खुद की तरफ से लगाना शुरू किया। इसमें काफी खर्च था। उत्तरप्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान ने जब उन्हें एक लाख रुपए का पुरस्कार दिया, तब उन्होंने सारा पैसा इसी काम के लिए रख दिया। अपने इस अनोखे अभियान से वे करोड़ों लीटर पानी की बर्बादी रोक चुके है। जल संरक्षण पर एक फिल्म बनाते समय शेखर कपूर को उनके बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने आबिद सुरती की दिल खोलकर प्रशंसा की। मीडिया के लोगों का ध्यान जब आबिद सुरती के इस अभियान की तरफ गया, तब उन्हें कवरेज मिलना शुरू हुआ।
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अभी आबिद सुरती के एनजीओ में उनके अलावा दो और लोग हैं। उनके एनजीओ ने एक प्लंबर को भी नौकरी पर रख लिया है, जो घर-घर जाकर नल सुधारने में मदद करता है। इसके अलावा एक वालेंटियर भी एनजीओ में आ गया है, जो ऐसे घरों को ढूंढता है, जहां पानी टपक रहा हो। अब आबिद सुरती ने घरों के अलावा वाटर सप्लाय टैंकरों के नल भी सुधारना शुरू कर दिए है। उनका कहना है कि मैं गंगा को नहीं बचा सकता, लेकिन अपने मोहल्ले में पानी की बर्बादी रोक सकता हूं। अगर सभी लोग अपने-अपने मोहल्लों में सक्रिय हो और पानी को बर्बाद होने से रोकें, तो बहुत बड़ी मात्रा में पानी की बचत की जा सकती है, जिसका उपयोग दूसरे लोग कर सकते है। आबिद सुरती कहते है कि मैंने बचपन में पानी की कमी को देखा है और मैं जानता हूं कि पानी का नहीं मिलना या कम मिलना कितनी बड़ी बात है।
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आबिद सुरती जो भी करते हैं उसमें पूरी तरह खो जाते है और उसकी हर विधा में हाथ आजमाने लगते है। लिखते हैं तो उपन्यास, कहानी, कविता, गजल आदि सभी में लिखते हैं। कलाकारी करते हैं, तो चित्रकला, म्यूरल (भित्तिचित्र), मिरर कोलाज, ग्लास म्यूरल, कार्टून, कॉमिक्स, बुक कवर, बॉडी पेंटिंग और मकान पेंटिंग तक कर डालते हैं। उनके परिवार में बच्चे सेटल हो गए हैं और अलग रहने चले गए है और वे खुद मुंबई के उपनगर मीरा रोड पर रहने लगे हैं। हर रविवार को नल सुधारने पर अपनी जेब से 600-700 रुपए खर्च करते हैं। निरंतरता उनके जीवन में हमेशा बनी रही है। धर्मयुग में उनका कार्टून कोना पूरे तीस साल तक लगातार छपता रहा है। अभी भी वे कलाकर्म से जुड़े हैं और 80 साल की उम्र में भी किसी नौजवान की तरह ऊर्जा से भरे हैं।