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Thursday 13 April 2017

गरीबी के थपेड़े खाते हुए भी निस्सहायों की मदद कर मणिमारन ने कायम की अनोखी मिसाल

समाज-सेवा का संकल्प

आम तौर पर कई लोगों में ये धारणा बनी हुई है कि समाज-सेवा के लिए खूब धन-दौलत की जरुरत होती है। जिनके पास रुपये हैं वे ही जरूरतमंद लोगों की मदद कर समाज-सेवा कर सकते हैं। लेकिन, इस धारणा को तोड़ा है तमिलनाडू के एक नौजवान ने। इस नौजवान का नाम मणिमारन है।

मणिमारन का जन्म तमिलनाडू में तिरुवन्नामलई जिले के थलयमपल्लम गाँव के एक किसान परिवार में हुआ। परिवार गरीब था - इतना गरीब कि उसकी गिनती गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों में होती थी। गरीबी के बावजूद घर के बड़ों ने मणिमारन को स्कूल भेजा। पिता चाहते थे कि मणिमारन खूब पढ़े और अच्छी नौकरी पर लगे। लेकिन, आगे चलकर हालात इतने खराब हो गए कि मणिमारन को बीच में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। गरीबी की वजह से मणिमारन ने नवीं कक्षा में पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और घर-परिवार चलाने में बड़ों की मदद में जुट गए। मणिमारन ने भी उसी कपड़ा मिल में नौकरी करनी शुरू की जहाँ उनके भाई नौकरी करते थे। मणिमारन को शुरूआत में एक हजार रुपये प्रति माह की तनख्वा पर काम दिया गया। मणिमारन ने अपनी मासिक कमाई का आधा हिस्सा अपने पिता को देना शुरू किया। उन्होंने आधा हिस्सा यानी 500 रुपये जरूरतमंद लोगों की मदद में लगाया।


बचपन से ही मणिमारन को जरूरतमंद और निस्सहाय लोगों की मदद करने में दिलचस्पी थी। मणिमारन का परिवार गरीब था और परिवारवालों के लिए 500 रुपये काफी मायने रखते थे। लेकिन, मणिमारन पर जरूरतमंदों की मदद करने का जूनून सवार था। मणिमारन 500 रुपये अपने लिए भी खर्च कर सकते थे। नए कपड़े, जूते और दूसरे सामान जो बच्चे अक्सर अपने लिए चाहते हैं वो सभी खरीद सकते थे। लेकिन, मणिमारन के विचार कुछ अलग ही थे। छोटी-सी उम्र में वे थोड़े से ही काम चलाना जान गए थे और उनकी मदद बेताब थे जिनके पास कुछ भी नहीं है।

अपनी मेहनत की कमाई के 500 रुपये से मणिमारन ने सड़कों, गलियों , मंदिरों और दूसरी जगहों पर निस्सहाय पड़े रहने वाले लोगों की मदद करना शुरू किया। मणिमारन ने इन लोगों में कम्बल, कपड़े और दूसरे जरूरी सामान बांटे । मणिमारन ने कई दिनों ऐसे ही अपनी कमाई की आधा हिस्सा जरूरतमंद लोगों में लगाया। गरीबी के उन हालातों में शायद ही कोई ऐसा करता। परिवारवालों ने भी मणिमारन को अपनी इच्छा के मुताबिक काम करने से नहीं रोक। मणिमारन ने ठान ली थी कि वो अपनी जिंदगी किसी अच्छे मकसद के लिए समर्पित करेंगे।

इसी दौरान एक घटना ने मणिमारन के जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल दी। एक बार मणिमारन कोयंबटूर से तिरुपुर जा रहे थे। वह यह सफर बस से कर रहे थे। बस में कुछ खराबी आने की वजह से उसे ठीक करने के लिए उसे बीच रास्ते में ही रोका गया। बस में बैठे मणिमारन ने देखा कि एक बूढ़ी महिला, जो कि कुष्ठ रोग से पीड़ित थी, लोगों से पीने के लिए पानी मांग रही थी। उसके हाव-भाव से साफ था कि वो प्यासी है। लेकिन, इस प्यासी बुढ़िया की किसी ने मदद नहीं की। उलटे, लोग बुढ़िया को दूर भगाने लगे। कोई उसे सुनने को भी तैयार नहीं था। इतने में ही मणिमारन ने देखा कि वो बुढ़िया अपनी प्यास बुझाने के लिए एक नाले के पास गयी और वहीं से गन्दा पानी उठाने लगी। ये देख कर मणिमारन उस बुढ़िया के पास दौड़ा और उसे गंदा पानी पीने से रोका।

मणिमारन ने जब ये देखा कि बुढ़िया की शारीरिक हालत भी काफी खराब है और कुष्ठ रोग की वजह से उसके शरीर पर कई जख्म हैं तो उसका दिल पसीज गया। उसने उस बूढ़ी महिला का मुँह साफ किया और उसे साफ पानी पिलाया। इस मदद से खुश उस महिला ने मणिमारन को अपने गले लगा लिया और गुजारिश की कि वो उसे अपने साथ ले चले। मणिमारन उस महिला को अपने साथ ले जाना चाहते थे लेकिन उस समय वो ले जाने की हालत में नहीं थे। इस वजह से मणिमारन ने एक ऑटो ड्राइवर को 300 रूपए दिये और उससे दो दिन तक महिला की देखभाल करने को कहा। मणिमारन ने उस महिला को भरोसा दिलाया वो तीसरे दिन आकर उन्हें अपने साथ ले जाएगा। मणिमारन जब उस महिला को लेने उसी जगह पहुंचे तो वो वहां नहीं थी। मणिमारन ने महिला की तलाश शुरू की, लेकिन वो कई कोशिशों के बावजूद उसे नहीं मिली। मणिमारन बहुत निराश हुए।
यहीं से उनके जीवन की दिशा बदली। मणिमारन ने एक बड़ा फैसला लिया। उन्होंने फैसला लिया कि वे कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने का । फिर क्या था अपने संकल्प के मुताबिक मणिमारन ने कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की मदद करना शुरू किया। जहाँ कहीं उन्हें कुष्ठ रोग से पीड़ित लोग निस्सहाय स्थिति में दिखाई देते वे उन्हें अपने यहाँ लाकर उनकी मदद करते। मणिमारन ने इन लोगों का इलाज भी करवाना शुरू किया।

उन दिनों लोग कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को बहुत ही हीन भावना से देखते थे। कुष्ठ रोग से पीड़ित होते ही व्यक्ति को घर से बाहर निकाल दिया जाता। इतना ही नहीं एक तरह से समाज भी उनका बहिष्कार करता था। कोई भी उनकी मदद या फिर इलाज के लिए आगे नहीं आता था। कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को छूने से भी लोग कतराते थे। अक्सर ऐसे लोग सड़कों या फिर मंदिरों के पास निस्सहाय हालत में भीख मांगते नजर आते। मणिमारन ने ऐसी ही लोगों की मदद का सराहनीय और साहसी काम शुरू किया। मदर टेरेसा और सिस्टर निर्मल का भी मणिमारन के जीवन पर काफी प्रभाव रहा है।

जब भारत के जाने-माने वैज्ञानिक डॉ अब्दुल कलाम को मणिमारन की सेवा के बारे में पता चला तो उन्होंने मणिमारन को एक संस्था खोलने की सलाह दी। इस सलाह को मानते हुए मणिमारन ने अपने कुछ दोस्तों के सहयोग से साल 2009 में वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर की स्थापना की। इस संस्था की सेवाओं के बारे में जब तमिलनाडू सरकार को पता चला तब सरकार की ओर से जरूरमंदों की मदद में सहायक सिद्ध होने के लिए मणिमारन को जगह उपलब्ध कराई गयी।

मणिमारन ने वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर के जरिये जिस तरह से गरीब और जरूरतमंदों की सेवा की उसकी वजह से उनकी ख्याति देश-भर में ही नहीं बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भी होने लगी। उनके काम के बारे में जो भी सुनता वो उनकी प्रसंशा किया बिना नहीं रुकता। अपनी इस अनुपम और बड़ी समाज-सेवा की वजह से मणिमारन को कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा जा चुका है। इस बात में दो राय नहीं हैं कि गरीबी से झूझते हुए भी जिस तरह से मणिमारन ने लोगों की सेवा की है वो अपने आप में गजब की मिसाल है।

अब आप चम्मच, कांटे और चॉपस्टिकस को भी खा सकते हैं

हम कितनी बार कैंटीन या होटल जैसी जगहों पर जाते हैं जहां हमें कई बार खाना खाने के लिए प्लास्टिक की चम्मच मिलती है और हम इन प्लास्टिक की चम्मचों से आराम से खाना भी खा लेते हैं। इस बात से तो हम वाकिफ हैं कि प्लास्टिक हमारी सेहत और पर्यावरण के लिए कितना नुकसानदेह है। भारत में लगभग 120 बिलियन प्लास्टिक कटलरी को इस्तेमाल करके फेंका जाता है। प्यहां तक कि एक छोटे से प्लास्टिक के कप को भी नष्ट होने में 50 वर्ष से अधिक समय लग जाता है। ये एक ऐसा पदार्थ होता है जो कभी खत्म नहीं होता। इसे जलाने पर भी जो गैस निकलती है वो इंसानों और जानवरों दोनों के लिए ही अभिशाप है। लेकिन हमारे देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो स्वेच्छा से पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ के बारे में सोचते हैं और कुछ करते भी हैं। इसी प्रकार जब नारायण पीसापति को प्लास्टिक से होने वाले नुकासन के बारे में पता चला तो उन्होंने खुद के साथ-साथ आम लोगों के लिए भी एक ऐसी चीज़ बनाई जिसका उपयोग हम रोजमर्रा के जीवन में करते हैं।


48 वर्षीय नारायण पीसापति जो Bakey's Food Private Limited के मैनेजिंग डायरेक्टर होने के साथ-साथ इसके संस्थापक भी हैं। आज उन्होंने प्लास्टिक कटलेरी (छुरी, कांटा, चम्मच आदि) के स्थान पर Edible (खाने योग्य) कटलेरी का विकल्प खोज लिया है। 2010 से ही Bakey's खाने योग्य कटलेरी बना रहा है, जिसमें अलग-अलग तरह के चम्मच सहित चॉप स्टिक्स शामिल हैं।


इन खाने योग्य कटलेरी को ज्वार, चावल और गेहूं के मिश्रण से बनाया जाता है। इन चम्मच और चॉप स्टिक्स से आप आसानी से भोजन खा सकते हैं, क्योंकि ये पानी या खाने में रखने से पिघलती नहीं है। ये 10 से 15 मिनट बाद अपने आप नरम पड़ने लगती है। आप अपना भोजन समाप्त करने के बाद इसे खा भी सकते हैं। लेकिन अगर आप ऐसा नहीं करना चाहते तो वो 5 से 6 दिन बाद अपने आप नष्ट हो जाती है। नारायण को इस तरह की कटलेरी बनाने का विचार तब आया था, जब वे अहमदाबाद से हैदराबाद जा रहे थे। फ्लाइट में उन्होंने देखा कि एक यात्री गुजराती खाखरे के एक टुकड़े का इस्तेमाल मिठाई खाने के लिए कर रहा था।
Bakey's edible cutlery ना केवल enviornment-friendly है बल्कि हमारे स्वास्थय के लिए भी अच्छा विकल्प है। पौष्टिक आटों द्वारा बनने के साथ-साथ इन कटलरी में कोई रसायनिक संरक्षक नहीं है और ये कटलरी 100 प्रतिशत प्राकृतिक है। आप इसे प्लास्टिक की चम्मच की तरह ही गर्म चाय, काॅफी या सूप पीने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं


Bakey's Edible Cutlery की विशेषतायें:-
1. आप इसके साथ खाना खा सकते हैं और आप उसके बाद इस चम्मच को खा भी सकते हैं क्योंकि यह चम्मच पौष्टिक ही नहीं, स्वादिष्ट भी है।
2. यदि आप इसे नहीं खाना चाहते तो आप इसे फेंक सकते हैं और 4-5 दिन में यह अपने आप खत्म हो जायेगी।
3. नारायण पीसापति द्वारा बनाई गई कटलरी बिना इस्तेमाल करे 3 साल से ज्यादा रख सकते हैं।
4. उनके द्वारा बनाई गई कटलरी अलग-अलग स्वादों में आती है जैसे - मीठी, अदरक-दालचीनी, अदरक और लहसुन, पुदीना और अदरक, गाजर और चुकन्दर आदि।
5. इन कटलरी की कीमत है 300 रूपये में 100 चम्मच। चाहे वह किसी भी स्वाद की हो, सभी की कीमत 300 रूपये है।
नारायण पीसापति ने केवल एडिबल कटलरी का आविष्कार ही नहीं किया है बल्कि सन् 2016 के मध्य से उनका यह प्रयास भी रहा है कि स्वतः मशीन के विकास से एडिबल कटलरी की उत्पादन क्षमता बढ़े और यह कोशिश भी रही है कि किस प्रकार बड़े आॅर्डरों और कम सप्लाई के बीच का अंतर घट सके। नारायण पीसापति जी योग्यता के अनुसार इंजिनियर नहीं हैं। लेकिन आवश्यकता और अपनी तकनीकी शिक्षा में आनंद लेने से वे एक इंजिनियर बन पाये हैं। उन्हें विज्ञान कथा, जासूसी उपन्यास पढ़ना और अपने विचारों के साथ प्रयोग करना बहुत अच्छा लगता है।
ICRISAT के पूर्व शोधकर्ता नारायण पीसापति पहले एक ऐसे व्यक्ति है जिन्हें एडिबल कटलरी का विचार आया। उन्होंने  BSC(Hons) chemistry में Osmania University से की और MBA-IIFM Bhopal से की है। नारायण पीसापति ने यह कंपनी पर्यावरण की बढ़ती समस्याओं के समाधान के लिए एक अभिनव समाधान करके स्थापित की है।

गजब अविष्कार: घर बैठे मिस कॉल से चलेगा ट्यूबवैल

हरियाणा के सोनीपत जिले के एक छात्र ने अपने किसान पिता की समस्या सुलझाने के लिए गजब का अविष्कार किया है। छात्र ने ऐसी डिवाइस बनाई है जिससे घर बैठे खेत की सिंचाई हो जाएगी। तकनीक के जमाने में हर मुश्किल आसान हो गई है। इसका ताजा उदाहरण सोनीपत के एक गांव में देखा जा सकता है। अपने पिता की समस्या का तकनीकी हल ढूंढ़ निकाला है गांव मुकिमपुर निवासी बीटेक कंप्यूटर साइंस के छात्र नीरज ने।

नीरज ने ऐसी तकनीक ईजाद की है जो खेत में लगे ट्यूबवेल को घर बैठे कंट्रोल करेगी। किसान परिवार में जन्मे नीरज ने एक ऐसा डिवाइस बनाया, जिसके माध्यम से मात्र मोबाइल से मिस कॉल करके खेत में लगे ट्यूबवेल को ऑपरेट किया जा सकेगा। फिलहाल नीरज इस डिवाइस को अपने खेत में लगाकर इसका फायदा उठा रहे हैं। वह इस तकनीक को हर किसान तक पहुंचाना चाहता है।


पिता की परेशानी देख की खोज :
शहर के एक निजी कॉलेज से बीटेक की पढ़ाई कर रहे नीरज बताते हैं कि उनका परिवार गन्नौर की गांधी कालोनी में रह रहा है, जबकि खेती गांव मुकिमपुर में है। पिता अक्सर पानी देने के लिए गन्नौर से जाकर पूरी रात खेत में ही रहते। सर्दी-गर्मी हर मौसम में सिंचाई की यही प्रक्रिया रहती। बिजली गुल होते ही ट्यूबवेल बंद हो जाता, जिसे दोबारा चलाने के लिए वहां रहना जरूरी था। पिता की परेशानी देख मन में ऐसी डिवाइस बनाने की प्रेरणा मिली।

मिस कॉल से ऑपरेट होता है ट्यूबवेल :
इस डिवाइस में एक मोबाइल ट्यूबवेल के साथ लगने वाले डिवाइस में जोड़ा गया है, जिस पर मिस कॉल करने पर ट्यूबवेल चल पड़ता है। वहीं दो बार मिस कॉल देने पर ट्यूबवेल अपने आप बंद भी हो जाता है। इसी तरह बिजली गुल होने पर खेत में लगे डिवाइस से किसान के मोबाइल पर एक और बिजली आने आने पर दो मिस कॉल आएंगी। इसके बाद वापस मिस कॉल करने पर ट्यूबवेल चलेगा व बंद होगा। आने वाले समय में नीरज के इस आइडिया से किसानों की लाइफ काफी बदल सकती है। वहीं उनके लिए सिंचाई काफी आसान होगी।

सबसे सस्ती वॉशिंग मशीन

अगर आप मार्केट में वॉशिंग मशीन खरीदने जाते हैं तो उसकी क्या कीमत आपको चुकानी होगी। हमारे हिसाब से कम से कम 10 से 15 हजार रूपये। लेकिन अगर हम कहें कि सिर्फ 1500 रूपये में आप वॉशिंग मशीन पा सकते हैं तो आप क्या हम क्या कोई भी चैंक जाएगा। मगर अपनी काबिलियत से इंजीनियर पीयूष अग्रवाल ने इसे सच करके दिखाया है..पीयूष ने महज 1500 रूपये में बना दी है एक पोर्टेब वॉशिंग मशीन..और इस वॉशिंग मशीन को नाम दिया है ‘वीनस’ ...

 इस मशीन को इस्तेमाल करना बडा आसान है। एक दस साल का बच्चा भी इसे चला सकता है। विदेश से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद पीयूष ने भारत में टपउइंे नाव्रचना नाम से अपनी कंपनी की शुरुआत की है। श्वीनसश् इस कंपनी का सबसे प्रमुख उत्पाद है। साल 2002 तक पीयूष ने भारत में पुरुष शौचालय में लगे फ्लश सेंसर की मार्केटिंग की लेकिन कुछ खास फायदा नही होने के वजह से ये काम बंद कर दिया इसके बाद पीयूष अग्रवाल ने गुड़गांव की एक कंपनी में बिजनेस कंसलटेंसी के साथ काम किया और बाकी का अपना सारा समय अपनी कंपनी टपउइंे नाव्रचना समर्पित कर दिया। जिसका परिणाम आज सबके सामने है।


कैसे काम करती है ‘वीनस’ वॉशिंग मशीन ?

आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह मशीन काम कैसे करती है। तो सबसे पहले आप ये जान लीजिए यह मशीन आम महंगी वॉशिंग मशीनों की तरह चलती तो बिजली से ही है लेकिन बिजली खपत ना के बराबर होती है। पीयूष अग्रवाल ने बताया है कि इसे इस्तेमाल करने के लिए सबसे पहले बाल्टी में मशीन के माउंड भाग को डालें। फिर पानी और डिटर्जेंट डालकर मशीन चालू करें इसके बाद इसमें 2-4 कपड़े डालकर 5 मिनट तक मशीन चलाए फिर कपड़ों को निकालकर साफ पानी से धोएं।पीयूष का कहना है कि यह मशीन खासकर ग्रामीण महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है। आज से चालीस साल पहले बुल्गारिया में इसी तरह की मशीन का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन वो मशीन काफी भारी होती थी जो एक साथ कई कपड़ों को धोया करती थी। उसी से प्रेरणा लेते हुए पीयूष अग्रवाल ने यह हल्की और छोटी मशीन इजात की है। जो एक बाल्टी में आसानी से इस्तेमाल की जा सकती है।

‘वीनस’ बनाने के पीछे की कहानी
पीयूष अग्रवाल के मुताबिक आठ साल पहले उनकी मां की ब्रेन की सर्जरी हुई थी जिसके बाद उन्हें पैरालिसिस हो गया था। वो हमेशा बिस्तर पर रहती थीं। इस दौरान पीयूष के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी उनकी मां के बिस्तर की चादर और कपड़ों को धोना। वॉशिंग मशीन में कपड़े धोना स्वच्छता के लिहाज से ठीक नही था,और बाथरूम में कपड़े धोने का मतलब यह है कि हर बार बाथरूम को अच्छी तरह साफ करना,जो कभी कभी काफी मुश्किल होता था उसी दौरान पीयूष अग्रवाल के मन में एक ऐसी पोर्टेबल वॉशिंग मशीन बनाने का ख्याल आया जो आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सके,कपड़े भी साफ धोए, साथ ही टाइम और पैसे भी बचाए,उसकी का परिणाम है ‘वीनस’..

‘वीनस’ को बनाने में सिर्फ सात लोग शामिल हैं। पीयूष के अनुसार उनकी कंपनी अभी नई है इसलिए ज्यादा निवेश नही हो पाया। लेकिन उनके ग्रुप में जितने भी लोग हैं वो सब अपने अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ हैं इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। सबकी मिली जुली मेहनत का नतीजा है वीनस।


बनाने में क्या क्या दिक्कतें आईं?

इसे बनाना आसान नहीं था। कई चुनौतियां सामने आई लेकिन कहते है कि अगर आप अपने सपने को साकार करने का मन बना लें तो कुछ भी मुश्किल नहीं रहता।जो लोग अपनी असफलता का जिम्मेदार समय और संसाधनों की कमी को मानते हैं वैसे लोग पीयूष को बिलकुल पसंद नहीं,बल्कि आपके पास जितने भी संसाधना है उन्हीं से अपने काम को पूरा करें। यह भी जान लें कि चुनौतियां ज्यादा समय के लिए आप पर हावी नही हो सकती। अब सबसे बड़ी चुनौती लोगों को यह समझना है कि श्वीनसश् बेहतरीन होने के साथ-साथ इसकी कीमत भी सही है।

सूरजदीन का इंजन देगा कोहरे को मात

कोहरे के कारण अब ट्रेन लेटलतीफी का शिकार नहीं होंगी। इसके साथ ही दुर्घटनाओं का ग्राफ भी शून्य होगा। सुलतानपुर जिले के गुप्तारगंज के सूरजदीन यादव ने एक ऐसा इंजन बनाया है जो भीषण कोहरे में भी सामान्य गति से चलेगा। बड़ी बात यह है कि उनकी इस पूरी तकनीक को लागू करने के लिए रेलवे को मात्र आठ से दस हजार रुपये खर्च करने होंगे।

ऐसे काम करेगा यह इंजन :
किसी भी रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म से 1200 मीटर दूरी पर डिस्टेंस सिग्नल के आते ही इंजन में नीली बत्ती जलने लगेगी और हॉर्न बजना शुरू हो जाएगा। टेªन के होम सिग्नल यानी प्लेटफार्म पर आने से पहले इंजन में लाल व हरी लाइटें जलने लगेंगी। ड्राइवर सचेत हो जाएगा कि उसे प्लेटफार्म पर गाड़ी लेनी है। सूरजदीन का दावा है कि कोहरा होने पर स्टेशन से पहले आने वाले सभी प्रकार के सिग्नल की जानकारी इंजन में लगे उपकरणों के माध्यम से ड्राइवर को मिलती रहेगी। सिग्नल देखने के लिए ड्राइवर को कोहरे में अपना सिर इंजन के बाहर नहीं निकालना पड़ेगा और न ही ट्रेन की गति धीमी करनी पड़ेगी।


घर पर ही बनाया रेलवे ट्रैक :
सूरजदीन यादव इस आधुनिक इंजन को बनाने में 13 वर्ष से अधिक समय से लगे थे। उन्होंने घर में ही पूरा टैªक लोहे के एंगल का जाल बनाकर बिछाया और इंजन का मॉडल बनाकर परीक्षण किया।

डीआरएम को सौंपी सीडी :
सूरजदीन ने इंजन के संचालन से संबंधित सीडी व कुछ दस्तावेज उत्तर रेलवे लखनऊ मंडल के डीआरएम अनिल कुमार लाहोटी को सौंपे हैं। लोहाटी का कहना है कि सूरजदीन के इंजन में मेहनत की गई है। रेलवे के लिहाज से यह कितना सफल होगा इसके लिए फिलहाल संबंधित सीडी व कागजात सीनियर डीएसटी को दिए गए हैं। पूरा प्रयोग देखा जाएगा। सूरजदीन ने अपनी खोज की जानकारी डीवीडी के माध्यम से प्रधानमंत्री व रेलमंत्री को भी भेजी है।

अब मानव रहित फाटक पर ध्यान
सूरजदीन अब ऐसी तकनीक पर काम कर रहे हैं जिससे मानव रहित फाटक से 500 मीटर पहले इंजन में अपने आप हाॅर्न बजने लगेगा। इससे ड्राइवर व मानव रहित पटरी से गुजरने वाले लोग भी सचेत हो जाएंगे। इसी तरह दो स्टेशनों के बीच पटरी टूटने पर दोनों स्टेशनों का पता चल जाएगा।

सिर्फ कक्षा आठ ही पास हैं सूरजदीन यादव :
आर्थिक तंगी के कारण सूरजदीन यादव जी अपनी शैक्षिक योग्यता जारी नहीं कर पाये। उन्होंने बताया कि कक्षा आठ के बाद वह आगे नहीं पढ़े, लेकिन बचपन से ही तकनीकी कार्यों में उनकी रुचि थी। उन्होंने बताया कि खेती से होने वाली थोड़ी बहुत आय का हिस्सा भी वे अपने इसी तकनीकी खोजों पर खर्च करते रहे हैं।

उत्तराखंड के दीपक ने प्लास्टिक कचरे से बनाई एल

उत्तराखंड के डॉ. दीपक पंत ने प्लास्टिक कचरे से एलपीजी बनाने में सफलता प्राप्त की है। इस कामयाबी पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनको आविष्कार अवार्ड-2017 से सम्मानित करेंगे। देहरादून, ख्जेएनएन,रू विश्व पर्यावरण के लिए गंभीर संकट बनते जा रहे प्लास्टिक कचरे को वरदान में बदलने में उत्तराखंड के डॉ. दीपक पंत को कामयाबी मिल चुकी है। उन्होंने प्लास्टिक कचरे से एलपीजी बनाने में सफलता प्राप्त की है। उनकी इस कामयाबी पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनको आविष्कार अवार्ड-2017 से सम्मानित करेंगे। अवार्ड के रूप में एक लाख रुपये व ट्रॉफी प्रदान की जाएगी।

पिथौरागढ़ निवासी व वर्तमान में हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित केंद्रीय विवि में पर्यावरण विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष एवं डीन डॉ. दीपक पंत ने बताया कि प्लास्टिक हमारे दैनिक कार्यकलापों में शामिल हो चुका है। यह वरदान की तरह है, लेकिन कुप्रबंधन और शुरुआती अवस्था में इसके वेस्ट का समुचित उपयोग न होने से यह अभिशाप बन रहा है।

भारत में प्लास्टिक की प्रतिदिन घरेलू खपत 120 ग्राम प्रति व्यक्ति है। जिससे 100 ग्राम एलपीजी तैयार की जा सकती है। डॉ. पंत को विज्ञान एवं पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका के लिए अभी तक 20 से अधिक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। हरित तकनीक से बेकार वस्तुओं को उपयोग पर वह पांच पेटेंट करवा चुके हैं। उनकी 10 किताबें भी प्रकाशित हो चुकी है।

इस तरह से किया आविष्कार:
प्लास्टिक कचरे के डिग्रेशन के लिए आमतौर पर ठोस एसिड उत्प्रेरक विधि का प्रयोग किया जाता है। डॉ. पंत ने आरंभिक प्रयोगों में ठोस एसिड के स्थान पर एलुमिनिया की तरह कुछ अक्रिय मृदा पदार्थ व द्रव एसिड का प्रयोग किया। इसके बाद बेकार प्लास्टिक को 125-130 डिग्री सेल्सियस तापमान पर उबालने पर तेल प्राप्त हुआ। इस प्रक्रिया को फिर से एलपीजी में संशोधित किया गया।

खास किस्म की छतरी में लगा है पंखा और लाइट, मोबाइल भी होगा आसानी से चार्ज

आमतौर पर हम छतरी का इस्तेमाल धूप या बारिश से बचने के लिए करते हैं। क्या आपने ऐसी छतरी के बारे में सुना है जो आपका मोबाइल भी चार्ज करे।

दरअसल ऐसी ही एक छतरी मेहरचंद पॉलीटेक्निक कॉलेज में मैकेनिकल विभाग के अंतिम वर्ष के छात्रों ने तैयार की है। इंद्रप्रीत सिंह, निखिल दत्ता, ध्रुव चडडा, गुलाब चोपड़ा और राहुल शर्मा ने स्मार्ट अंब्रेला नामक प्रोजेक्ट तैयार किया है। इसमें उन्होंने सोलर पैनल लगाया है, जोकि धूप में अपने आप चार्ज होता रहेगा। उन्होंने छतरी में एक पंखा भी लगाया है, जो कि सोलर पैनल या बैटरी की मदद से चलेगा।


इंद्रप्रीत सिंह ने बताया कि न केवल छतरी में उन्होंने पंखा लगाया है बल्कि इसमें चार्जिग की भी सुविधा है। बड़ी ही आसानी से आप अपना मोबाइल भी चार्ज कर सकते हैं चाहे कहीं भी आप छतरी लेकर चले जाएं। गुलाब ने बताया कि अंधेरे में भी इस छतरी की मदद ले सकते हैं क्योंकि इसमें हमने लाइट्स भी लगाई हैं। इतना सब कुछ लगा होने के बावजूद छतरी आसानी से फोल्ड भी हो जाएगी क्योंकि इसमें लगे उपकरण बहुत छोटे-छोटे हैं। बस आम छतरी के मुकाबले इसका भार 200 ग्राम ज्यादा होगा।

निखिल ने बताया कि उन्हें ये आइडिया उनके प्रोफेसर सुशांत ने दिया था। इसके बाद हमने इंटरनेट पर रिसर्च की और दो दिनों में इसे तैयार किया। साइंस सिटी के टेक फेस्ट में हम तीसरे स्थान पर रहे थे। इसकी कीमत 1000 रुपये के करीब होगी। उन्होंने बताया कि जल्द ही वे इसका पेटेंट भी करवाएंगे।

‘लेनरो’ वो जगह जहां पर पुरानी किताब दें और बदले में लें दूसरी किताब

अगर आप किताब पढ़ने के शौकिन हैं और धीरे धीरे आपके पास किताबों का ढेर लग जाये तो आप क्या करेंगे। शायद आप उन किताबों को बुक शेल्फ या किसी बॉक्स में संभाल कर रख देंगे। लेकिन अगर आपको एक ऐसा प्लेटफॉर्म मिल जाये जहां पर आप अपनी पढ़ी हुई किताब ऐसे किसी व्यक्ति को दें जिसने वो किताब ना पढ़ी हो और वो व्यक्ति आपको ऐसी किताब दे जो आप पढ़ना चाहे तो कैसा हो। इससे ना सिर्फ एक दूसरे को मुफ्त में अच्छी किताब पढ़ने को मिलेगी बल्कि आपका अपना सामाजिक दायरा भी बढ़ेगा। कुछ ऐसी ही कोशिश की है दिल्ली में रहने वाले सौरव हुड्डा ने। जिन्होने ‘लेनरो’ नाम से एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार किया है जहां पर एक लाख से भी ज्यादा किताबें पढ़ने को मिल जाएंगी।


सौरव शुरूआत से ही अपना कुछ करना चाहते थे, जब उन्हें इस प्लेटफार्म का आइडिया आया तब उन्होंने ‘इंफोसिस’ से इस्तीफा देकर अगस्त,2015 में अपनी एक कंपनी ‘लेनरो’ बनाई। सौरव ने इस काम शुरू करने से पहले द्वारिका के एक अपार्टमेंट में करीब 100 लोगों के बीच सर्वे किया। सर्वे में 75 प्रतिशत लोग आपस में किताबों का आदान प्रदान करना चाहते थे, लेकिन उनका कहना था कि अपार्टमेंट में वे किसी को जानते ही नहीं इस वजह से वे किताबों को यूं ही संभाल कर रख देते हैं।

सौरव का कहना है कि 80 प्रतिशत लोग मशहूर लेखकों की किताबें पढ़ते हैं और एक ही सोसाइटी में एक ही लेखक की किताब कई लोगों के पास होती है और इसी किताब को अगर एक दूसरे के साथ बांट कर पढ़ा जाये तो ना सिर्फ उनका पैसा बचेगा बल्कि समय की भी बचत होगी, क्योंकि पढ़ने के बाद वे किताबें एक तरीके से उनके लिए बेकार ही हो जाती हैं।

अपने काम करने के तरीके के बारे में सौरव का कहना है कि इनकी वैवसाइट में रजिस्ट्रेशन के बाद किसी व्यक्ति को अगर किताब लेनी होती है तो वो बोरो का बटन दबाकर अपनी ओर से किताब के लिए अनुरोध कर सकता है। जिसके बाद वो किताब जिसके भी पास होगी वो उस अनुरोध को स्वीकार कर लेता है। जिसके बाद दोनों लोग मिलने का स्थान, दिन और वक्त तय कर मिलते हैं और किताबों का अदान-प्रदान करते हैं।

अभी तक ‘लेनरो’ में देशभर के करीब 4500 लोग जुड़ कर किताबों की अदला बदली कर रहे हैं। इसमें सबसे ज्यादा लोग दिल्ली और बेंगलुरू के लोग हैं जबकि हैदराबाद, चेन्नई, अहमदाबाद, कोलकाता और इंदौर ऐसे दूसरे शहर हैं जहां पर लोग इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर किताबों की अदला बदली करते हैं।सौरव की कोशिश है कि वो लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करें कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस प्लेटफॉर्म पर रजिस्टर्ड हों जिससे ज्यादा लोग के बीच किताबों का आदान प्रदान हो सके।

सौरव के मुताबिक अभी ‘लेनरो’ में 5 लोगों की टीम है। अपनी फंडिंग के बारे में उनका कहना है कि शुरूआती निवेश उन्होंने खुद किया है। अभी उनका सारा ध्यान लोगों के विचार लेने और उनकी समस्याओं को समझने पर है। उनका कहना है कि वो कुछ वक्त बाद अपने काम के विस्तार के लिए फंडिंग के विकल्प तलाशने की कोशिश करेंगे। भविष्य की योजनाओं के बारे में उनका कहना है कि फिलहाल उनका सारा ध्यान भारत में इसके विस्तार को लेकर है। उसके बाद वो चाहते हैं कि इस काम को वे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक भी ले जायें। ताकि हर देश के लोग अपने आस पास के एरिया में किताबों का आदान प्रदान कर सकें।

किसानों को बेहतर जीवन और लोगों को जैविक खाद्य पदार्थ देने की कोशिश है ’अनुबल एग्रो’

हर किसी के जीवन में एक समय ऐसा भी आता है जब सही समय, सही स्थान और सही कारणों का एक संगम होता है। जितेंद्र सांगवान के जीवन में वह समय तब आया जब वे आईसीआईसीआई लोम्बार्ड और अवीवा जैसी कंपनियों के साथ एक बेहद सफल काॅर्पोरेट करियर के अनुभव के बावजूद अपनी मनमर्जी की नौकरी पाने में असफल रहे। बस उसी समय उन्होंने अपना कुछ काम करने के बारे में सोचा लेकिन क्या करना चाहिये इसे लेकर वे संशय में थे। हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित अपने पैत्रक गांव थोल की एक यात्रा के दौरान उन्होंने खेती को एक विकल्प के रूप में अपनाने के बारे में सोचा।


उस समय को याद करते हुए वे कहते हैं, ‘‘जब भी मैं थोल जाता तो एक बात मेरी समझ में बिल्कुल स्पष्ट तरीके से आती कि वहां के किसान खुश नहीं हैं। वे अपने बच्चों को खेती से दूर रखने के इच्छुक रहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि इसमें एक उज्जवल भविष्य नहीं है।’’ उन्होंने जितना अधिक इस बारे में विचार किया वे खुद को उतना ही अधिक समझाने में सफल रहे कि अगर उन्हें अपने दम पर कुछ करना ही है तो उन्हें खेती से संबंधित एक वैकल्पिक मार्ग को चुनना ही होगा। और बस इसी दौरान उनके मन में जैविक खेती (आॅर्गेनिक फार्मिंग) के साथ आगे बढ़ने का विचार आया।

साथ जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिये एक बिल्कुल नया अनुभव
उनके सामने सिर्फ एक समस्या थी और वह यह थी कि उन्हें खेती के क्षेत्र में कोई भी पुराना अनुभव नहीं था। उनके पिता भारतीय वायुसेना में एक अधिकारी के पद पर तैनात रहे थे और केंद्रीय विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने स्नातक किया। स्नातक के बाद उन्होंने सिंबायोसिस पुणे से एमबीए किया जो बाद में जाकर उनके व्यवसायिक करियर के लिये एक प्रवेश द्वार साबित हुआ। स्वाभाविक रूप से उनके माता-पिता और मित्र भी उनके इस फैसले को लेकर सशंकित थे। वे हंसते हुए कहते हैं, ‘‘मैंने न सिर्फ अपने करियर को पीछे छोड़ दिया था बल्कि मैंने एक ऐसे गांव में रहने का फैसला किया था जहां इंटरनेट तो दूर की बात है बिजली भी नहीं थी।’’ आखिरकार वे अपने समर्थकों को अपने साथ लाने में सफल रहे जिन्होंने उन्हें भावनात्मक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर मदद की क्योंकि उन्हें अपने इरादे पर पूरा भरोसा था।

आखिरकार नवंबर 2012 में मात्र एक लाख रुपये की प्रारंभिक पूंजी के साथ कुरुक्षेत्र के अपने फार्म से सीधे दिल्ली और एनसीआर के घरों को जैविक खाद्य पदार्थ उपलब्ध करवाने के एकमात्र उद्देश्य के साथ अनुबल एग्रो प्रोडक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की गई। अपने तमाम अनुसंधानों के बावजूद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती जैविक खेती से संबंधित जानकारी को जुटाने की थी क्योंकि यहां पर लगभग हर कोई रसायनों और कीटनाशकों का प्रयोग करते हुए पारंपरिक खेती ही कर रहा था।

हालांकि उनका सफर प्रारंभ में काफी धीमा रहा लेकिन समय के साथ स्थितियां इनके अनुकूल होती गईं और अनुबल ने दिल्ली और एनसीआर के क्षेत्र में रहने वालों के लिये उत्पादों को उगाना और बेचना प्रारंभ कर दिया। अनुबल एग्रो का इरादा भारत में जैविक खेती को बढ़ावा देते हुए एक ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र की स्थापना करना है जहां किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरकों, विकास कारकों और कीटनाशकों जैसे कृत्रिम बाहरी तत्वों का प्रयोग किये बिना सतत उत्पादकता हासिल करने मेें मदद करने का है। ये अपने उपभोक्ताओं को प्रमाणिक जैविक खाद्य पदार्थ उपलब्ध करवाना चाहते हैं और इसी क्रम में वे किसानों को भी जैविक खेती अपनाकर आत्मनिर्भर बनने में मदद करना चाहते हैं।

खेत से लेकर आपकी प्लेट तक सिर्फ जैविक
पारंपरिक किसान मंडी के दामों, मौसमी कटावों और निष्क्रिय कीटनाशकों पर काफी हद तक निर्भर रहते हैं। हालांकि शहरी इलाकों में रहने वाले भारतीय अब जैविक खाद्य पदार्थों का उपयोग प्रारंभ कर रहे हैं और अब वे उच्च गुणवत्ता वाले प्राकृतिक खानों को प्राथमिकता दे रहे हैं। जितेंप्र अपने आसपास के क्षेत्र के किसानों को जैविक खेती के लिये प्रोत्साहित करना चाहते थे और उन्होंने निःशुल्क बीज, बायो इनपुट और परामर्श के माध्यम से इन किसानों की मदद में कोई कसर नहीं छोड़ी। जितेंद्र का दावा है कि प्रारंभिक दौर में कम उपज की क्षतिपूर्ति करने के लिये वे इन किसानों को अपनी जेब से बाजार दाम से 10 प्रतिशत अधिक का भुगतान करते हैं।

‘‘हम अपने प्रतिस्पर्धियों की तुलना में अपेन उत्पादों को 20 से 30 प्रतिशत कम दरों पर बेचते हैं। चूंकि हमें किसी भी बिचैलिये या खुदरा विक्रेता को कैसा भी कोई कमीशन नहीं देना पड़ता और इसके अलावा हमारा मार्केटिंग इत्यादि का भी कोई खर्चा नहीं है ऐसे में हम उस लाभ को अपने अंत अपभोक्ता तक आसानी से पहुंचाते हैं। इस प्रकार से बचे हुए पैसे को हम किसानों के लिसे बीज और अन्य सामग्री खरीदने में प्रयोग करते हैं और उन्हें जैविक खेती प्रारंभ करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। हम रुचि दिखाने वाले किसानों के साथ 10 वर्ष का करार करते हैं और उनकी जमीनों को अपने लाईसेंस के अंतर्गत प्रमाणित करते हैं।’’

अनुबल फसलों की कई किस्मों को उगाते हैं और फिर खाद्य पदार्थों को प्रोसेस करके पैक करते हैं। इनके उत्पादों में गेहूं, होल वीट आटा, बासमती चावल, चावल का आटा, काला चना, साबुत मूंग, लाल आलू और दलिया शामिल हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अनुबल अपने उत्पाद सीधे अपने उपभोक्ताओं को बेचते हैं ओर फिलहाल ये सप्ताहांतों में विभिन्न सोसाइटियों के बाहर कियोस्क लगाकर बिक्री करते हैं। इनके पास कोई भी स्थाई कर्मचारी नहीं है क्योंकि सारा काम अस्थाई कर्मचारियों की मदद से पूरा हो जाता है। प्रति सप्ताहांत में होने वाली बिक्रीः दालेंः 2 से 3 किं्वटल, आलूः 4 से 5 किं्वटल, चावलः 2 से 3 किं्वटल, चावल का आटा 2 से 3 किं्वटल और दलियाः 50 किलो से 1 किं्वटल।

बदलाव के वाहक
जितेंद्र कहते हैं, ‘‘हमनें खेती के पारंपरिक तरीके को बिल्कुल बदल दिया है और अब हम अपनी उपज को बिना किसी मध्यस्थ के एएनएम सिद्धांत के आधार पर बेचते हैं। भारतीय किसान काफी लंबे समय से ऐसे ही किसी माॅडल की तलाश में थे लेकिन बिना सरकारी या किसी काॅर्पोरेट सहायता के उनके लिये ऐसा कर पाना नामुमकिन है। इस पारिस्थितिकितंत्र से बिचैलियों को बाहर करके हमनें एक ऐसी व्यवस्था प्रारंभ की है जहां उपभोक्ता सीधे किसानों से बात कर सकते हैं और यहां तक कि अगर वे चाहें तो उनके खेतों तक भी आ सकते हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है और हमें यकीन है कि यह भारतीय खेती की दुनिया में एक बड़े परिवर्तन का वाहक बनेगा क्योंकि इसकी मदद से किसानों के रहन-सहन के स्तर में सुधार आएगा और वे दोबारा खेती को एक काम के रूप में अपनाने के लिये प्रेरित होंगे।’’

अगर भारतीय कृषि उद्योग की वर्तमान परिस्थिति पर नजर डालें तो एक ऐसे माहौल में जहां परेशानहाल किसान लगातार आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं ऐसे में बिना किसी भी प्रकार की वित्तीय मदद और सरकारी सहयोग के किसी को भी अपने ब्रांड के तहत सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिये उन्हें जैविक खाद्य पदार्थों की खेती के लिये प्रोत्साहित करना काफी मुश्किल काम है। ऐसे में अनुबल जैसे उद्यम किसानों को अधिकाधिक जैविक खाद्य पदार्थों का उत्पादन करने और उन्हें वितरित करने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा वे कई बड़े औद्योगिक घरानों को भी इस क्षेत्र में कदम बढ़ाने के लिये आमंत्रित कर रहे हैं जो सीधे किसानों के साथ डील करने के लिये निवेश करने के इच्छुक हों।

विस्तार की योजनाएं
इनके पास आने वाले 80 प्रतिशत से भी अधिक उपभोक्ता वे होते हैं जो पूर्व में इनके उत्पाद प्रयोग कर चुके होते हैं। अब अनुबल एग्रो अपने उत्पादों को यूरोपीय और अन्य एशियाई देशों में निर्यात करने पर भी विचार कर रहे हैं। भारतवर्ष की बात करें तो ये अपना विस्तार मुंबई, बैंगलोर, पुणे, हैदराबाद और कोलकाता जैसे मेट्रो शहरों में करने के लिये प्रयासरत हैं और इनका इरादा नूडल्स, पास्ता, जूस और मसालों के अलावा काॅर्नफ्लेक्स और नाश्ते के काम आने वाले अन्य प्रकार के जैविक प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को भी अपनी उत्पाद श्रृंखला में का हिस्सा बनाने का है। इन्हें उम्मीद है कि ये वर्ष 2016 में 50 लाख रुपये से अधिक का व्यापार करने में सफल रहेंगे।

Wednesday 12 April 2017

देश कि मिट्टी को बचाओ

हम लोगो मे से अधिकांश को पता है कि बिना मिट्टी के इस पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है। पिछले कुछ सालों मे हमारे द्वारा अपनायी गयी तकनीकों के कारण हमारी मिट्टी से आवश्यक पोषक तत्व नष्ट होते जा रहे है और उसकी वजह से पूरे विश्व मे अकाल और भुखमरी का दौर चल रहा है। यह बात उन लोगों को शायद समझ नहीं आएगी जिनका मिट्टी से कोई सीधा संपर्क या रिश्ता नहीं है। जिनके लिए उनका खाना रिलायंस फ्रेश जैसे बड़े स्टोर से आता है या जो रेस्टोरंट मे खाने के आदि हो चुके है पर जिसने अपने जीवन को अगर थोड़ी बहुत भी बागवानी की है वो अच्छी तरह जनता है की मिट्टी की अच्छी गुणवत्ता फसल के परिणामों को पूरी तरह बदल सकती है। वो यह भी जनता है कि मिट्टी का काम सिर्फ खाना उगाने तक ही सीमित नहीं है। यह जंगलों, झीलों, नदियों और घास के मैदानों में पायी जाने वाली अद्भुत वनस्पति और जैव विविधता के संरक्षण में अहम भूमिका निभाती है। यहीं पेड़-पौधे बड़े होकर मिट्टी को वर्षा के जल के साथ बह जाने से रोकने का काम करते है। इसके अलावा मिट्टी भू-जल संरक्षण, नदियों के पानी के संरक्षण और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने मे भी बेहद मददगार साबित होती है।


हमारी मिट्टी मे पृथ्वी का इतिहास छुपा हुआ है। लाखों सालों से पृथ्वी द्वारा तैयार किए गए खनिज इसी मिट्टी मे सुरक्षित है। पृथ्वी के भविष्य के लिए भी मिट्टी का जिंदा रहना बेहद आवश्यक है क्योंकि मिट्टी मे पाये जाने जैविक पदार्थ, विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म और अति-सूक्ष्म जीवाणु कार्बन के मुखी स्त्रौत है, जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। जब तक यह जीवाणु मिट्टी में मौजूद रहेंगे तब तक क्लाइमेट चेंज की समस्या से जंग जीतने की हमारी उम्मीद भी जिंदा है। परंतु जब से हमने अपने खेती के तौर तरीकों को बदलना शुरू किया है और खेती मे कई तरह के रसायनों का प्रयोग शुरू किया है, हम लगातार मिट्टी की हत्या करने की कोशिश कर रहें है पर हकीकत यह है की हम आत्महत्या कर रहें है। हम अपने ही विनाश को हँसते हुए आमंत्रित कर रहे है।

इश्तियाक अहमद जो लंबे समय से किसानों के साथ देशी बीजों के संरक्षण पर काम कर रहे थे, को आधुनिक खेती के तौर-तरीकों से मिट्टी को होने वाले नुकसान का भान हुआ तब वे ग्रीनपीस नाम की संस्था के साथ जुड़कर मिट्टी की सेहत को सुधारने का काम कर रहे है।


इश्तियाक जी बताते है की जब वे इस काम को शुरू कर रहे थे तब उन्होने बिहार के हजारों गाँवो मे किसानो के साथ मिलकर इस बात पर चर्चा की थी। वे आगे कहते है की हर जगह से एक ही बात निकल कर आ रही थी की मिट्टी की हालत बहुत ही ज्यादा खराब है पर किसानों के पास इस समस्या का कोई समाधान नही है। किसान जानते थे की मिट्टी की खराब सेहत की वजह से केंचुए मिट्टी से गायब हो चुके थे। कई सारे कीट-पतंग और उन्हे खाने वाले पक्षी गाँव को छोड़कर जा चुके थे। रसायनिक खाद की वजह से उनके कुओं का पानी दूषित हो चुका था। फिर भी किसान देशी तरीकों की तरफ लौटना नहीं चाह रहा था क्योंकि उसे भरोसा नहीं था की उन तरीकों से उसे पर्याप्त उपज मिल पाएगी। दूसरी तरफ समस्या यह भी थी की पिछले कुछ समय मे गाँवो मे पशुओं की संख्या मे बेहद कमी आ चुकी थी जिस वजह से किसानो के पास खाद के लिए पर्याप्त गोबर भी उपलब्ध नही रहता था। जो भी गोबर किसानो के पास उपलब्ध होता था वे उसे ईंधन के रूप मे प्रयोग कर लेते थे।

तब उन्होने ग्रीनपीस के साथ मिलकर तय किया की एक गाँव को चुना जाए और वहाँ पर किसानों के साथ मिलकर सरकारी स्कीमों का प्रयोग  करते हुए एक मॉडल विकसित किया जाए जिससे दूसरे गाँव के किसान प्रेरित होकर पारंपरिक खेती की पारंपरिक तकनीकों की और लौट सकें। तब उन्होने झमूई जिले के केडीया गाँव के किसानो के साथ बात कर के वहाँ पर काम करना शुरू किया। वे बताते है की किसानों के साथ काम करना इतना आसान नहीं है क्योंकि आप किसान को यह नहीं कह सकते हो की परिणामों के लिए इंतजार करे। उसके लिए तो उसकी आने वाली फसल उसकी पूरी जमा पूंजी होती है। इसलिए हमने शुरुआत मे प्रयोग के तौर पर अमरूत पानी का निर्माण किया और उसे एक खेत पर प्रयोग कर किसानो को दिखाया। जब किसानों को इसके परिणाम दिखने लगे तो वे भी धीरे-धीरे कीटनाशकों का प्रयोग कम करने लगे है। 


आज बीस महीनों की मेहनत के बाद हालत यह है कि पूरे गांव मे एक भी किसान कीटनाशक का प्रयोग अपने खेत मे नहीं कर रहा है। इसके बाद हमने किसानो से बात की कि अब हमे मिट्टी कि सेहत पर काम करना चाहिए। इसके लिए हमने वर्मी कम्पोस्ट तैयार करे। चूंकि अत्यधिक रसायनों कि वजह से केंचुए खेतो से पूरी तरह गायब हो चुके थे और वर्मी बेड बनाने कि लागत किसान व्यय नहीं कर सकता था तो हमने सरकारी योजनाओं का सहारा लिया। सरकारी योजनाओं कि ही मदद से हमने पालतू जानवरो के रख-रखाव के लिए छोटी-छोटी गौशालाओं का निर्माण किया और अब हम गाँव मे किसानों के लिए बायो गैस प्लांट और कम्पोस्ट टॉइलेट का निर्माण करवा रहे है। गोबर गैस कि वजह से किसानो कि ईंधन कि समस्या सुलझ गयी है और प्लांट से निकले अपशिष्ट को वो खाद के रूप मे प्रयोग कर रहा है यही कम्पोस्ट टॉइलेट कि वजह से किसान मानव विष्टा को भी खाद बनाकर उसे खेतों मे प्रयोग कर रहा है। पानी कि समस्या के लिए हमने तालाब बनवाए है। केडीया गाँव मे अब तक किसानों ने सरकारी योजनाओं का लाभ लेते हुए अबतक 282 वर्मी खाद के बेड, 11 बायो गैस प्लांट, 5 तालाब, 5 गौशालाएँ, एक कोल्ड-स्टोरेज और कई कम्पोस्ट टॉइलेट का निर्माण कर चुके है। आज केडीया गाँव का किसान आत्मनिर्भर है। उसकी लागत बेहद का कम हो चुकी है। उसे खाद बीज और पानी के लिए बाजार पर निर्भर नहीं होना पड़ रहा है। वही दूसरी तरफ उसकी उपज भी पहले बढ़ गयी है।

इश्तियाक जी आगे जोड़ते हुए कहते है कि जब यहाँ के किसानों ने प्रकृति के साथ जुड़कर फिर से जीना शुरू किया है प्रकृति ने भी अपना पूरा आशीर्वाद इनको दिया है। खेतों अब केंचुए फिर से आने लगे है, कई तरह के पक्षी और तितलियाँ जो गाँव से लुप्त हो चुकी थी वो फिर से गाँव मे अपना घर बनाने लगे है। इश्तियाक जी बताते है कि इन सब कामों के लिए किसानों ने बेहद मेहनत की है और उन्होने सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ उठाया है, पर समस्या यह है कि पर्याप्त प्रचार के अभाव मे और सरकारी अफसरों कि अरुचियों के कारण किसान इन योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाता। सरकार योजनाएँ तो खूब बनाती है पर उसे किसानों तक पहुंचाने मे असमर्थ रही है। यहाँ पर समाज के पढे-लिखे और जागरूक लोगों कि जिम्मेदारी बनती है कैसे वे सरकार और किसान के बीच की दूरी को कम कर सकें। हमने भी केडीया गाँव में यही काम किया, जिसका नतीजा आज सबके सामने है और सरकार भी आज अपनी सभाओं मे इस गाँव का उदाहरण देती है।