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Monday 27 March 2017

भूख के खिलाफ जंग में उतरा ‘‘महोबा रोटी बैंक’’

किसानों की दुर्दशा के अपने किस्सों के चलते देश और दुनिया की नजरों में आने वाले बुंदेलखंड के अति पिछड़े हुए इलाकों में से एक महोबा में स्थानीय युवा और कुछ बुजुर्ग ऐसा अनोखा बैंक संचालित कर रहे हैं जिसका सिर्फ एक ही मकसद है कि ‘‘भूख से किसी की जान न जाए’’। महोबा का बुंदेली समाज अपनी अनोखी पहल ‘महोबा रोटी बैंक‘ के माध्यम से यह सुनिश्चित कर रहा है कि क्षेत्र में कोई भी व्यक्ति गरीबी के चलते भूखा न सोए और इस प्रकार से यह लोग ‘‘भूख के खिलाफ जंग’’ का आगाज किये हुए हैं। महोबा का यह रोटी बैंक प्रतिदिन जरूरतमंदों और भूखों को घर की पकी हुई रोटी और सब्जी के स्वाद से रूबरू करवाता है।


इस बैंक के मुखिया और महोबा बुंदेली समाज के अध्यक्ष हाजी परवेज़ अहमद यारस्टोरी को बताते हैं, ‘‘आज के समय में देश और दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखे पेट सोने के मजबूर है। मुझे अपने आसपास के गरीब और लाचार लोगों की टीस काफी दिनों से कचोट रही थी। हमारे आसपास का कोई की बाशिंदा गरीबी या लाचारी के कारण भूखे पेट न सोने को मजबूर हो यही इरादा बनाकर मैंने अपने आसपास के 10-12 युवाओं को अपने साथ जोड़कर हजरल अली के जन्मदिन 15 अप्रैल से रोटी बैंक की शुरुआत की।’’ प्रारंभ में करीब दर्जन भर युवाओं को जोड़कर शुरू की गई यह सकारात्मक पहल जल्द ही पूरे इलाके के लोगों के बीच अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही और वर्तमान में 60 से भी अधिक युवा उनके इस रोटी बैंक के सदस्य हैं।

महोबा रोटी बैंक से जुड़े करीब 60 से भी अधिक युवा अपने 5 बुजुर्ग अलम्बरदारों की रहनुमाई में प्रतिदिन शाम के समय महोबा के विभिन्न इलाकों में निकलते हैं और दो रोटी और थोड़ी सी सब्जी की आस में 700 से 800 घरों का दरवाजा खटखटाते हैं। इस प्रकार ये युवा कुछ घंटो की मेहनत करते हैं और फिर जमा की हुई रोटी और सब्जी को भाटीपुरा के अपने बैंक पर ले आते हैं जहां इनके पैकेट तैयार किये जाते हैं। रोटी बैंक से जुड़े एक सदस्य ओम नारायाण बताते हैं, ‘‘सबसे रोचक बात यह है कि हम किसी से भी रखी हुई या बासी रोट और सब्जी नहीं लेते हैं। जो भी व्यक्ति अपनी खुशी से गरीबों के लिये रोटी या सब्जी दान देना चाहता है वह अपने घर पर ताजी बनी हुई रोटी और सब्जी ही देता है।’’


इस बैंक के प्रारंभिक दिनों के बारे में बताते हुए हाजी परवेज़ कहते हैं, ‘‘एक दिन मैं अपने कुछ साथियों के साथ बस अड्डे पर खड़ा था कि तभी कुछ बच्चे भीख मांगने हमारे पास आए। हमनें उन्हें कहा कि हम तुम्हें भीख में पैसे तो नहीं देंगे लेकिन अगर खाना खाओ तो पेटभर खिलाएंगे। जब वे बच्चे खाना खाने की बात मान गए और उन्होंने दो वक्त की रोटी का इंतजाम होने पर भीख मांगना छोड़ने का वायदा किया तो हमारे मन में ख्याल आया कि क्यों न भूखे पेट रहने वालों की सहायता की जाए और फिर हमनें अपना रोटी बैंक प्रारंभ करने की सोची।’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘शुरुआत में हमारे साथ सिर्फ दर्जन भर युवा थे और पहले दिन हमारे पास दो मोहल्लों से सिर्फ इतनी रोटी और सब्जी ही इकट्ठी हुई जो मात्र 50 लोगों का पेट करने लायक थी। हमनें अपने आसपास के निःशक्त लोगों तलाशा और उन्हें खाना खिलाया। धीरे-धीरे हमारा यह अभियान लोगों के बीच अपनी पैठ बनाने में सफल हुआ और आज की तारीख में मात्र दो मोहल्लों से प्रारंभ हुआ यह अभियान आसपास के इलाकों में भी फैल गया है। अब तो लोग खुद ही इस बैंक से जुड़़े लोगों केा अपने यहां बुलाते हैं और रोटी और सब्जी देते हैं।’’

भाटीपुरा में इन रोटियों और सब्जियों के पैकेट तैयार होने के बाद युवाओं की यह टोली इन्हें लेकर शहर के विभिन्न इलाकों में बेबस, लाचार और भूखे लोगों की तलाश में निकल पड़ती है। ओम बताते हैं, ‘‘हमनें पूरे शहर को आठ विभिन्न सेक्टरों में बांटा है। भाटीपुरा में भोजन के पैकेट तैयार होने के बाद वितरण के काम में लगा स्वयंसेवक खाने को एक निर्धारित स्थान पर लाता है और फिर शुरू होता है जमा किये हुए खाने को भूखे लोगों तक पहुंचाने का काम। हम प्रतिदिन पूरे क्षेत्र में करीब 400 से 450 लोगों का पेट भरने में कामयाब हो रहे हैं।’’


ओम आगे बताते हैं, ‘‘आठों क्षेत्रों के वितरण केंद्र पर पैकेट पहुंचने के बाद हम लोग आसपास के रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, इत्यादि पर रहकर जीवन गुजारने वालों और भीख मांगकर गुजारा करने वालों को तलाशते हैं जो विभिन्न कारणों के चलते भूखे पेट सोने को मजबूर होते हैं। हमारे स्वयंसेवक इन लोगों को रोटी और सब्जी के पैकेट देते हैं और प्रयास करते हैं कि अपने सामने ही इनमें से अधिकतर को खाना खिलाएं। अपने इस बैंक के जरिये हमारा प्रयास है कि कोई भी भूखा न सोने पाए और हम अपने इस अभियान के माध्यम से यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि वास्तव में ऐसा ही हो।’’


इस काम में लगे युवा घर-घर जाकर खाना इकट्ठा करने और फिर उसे जरूरतमंदों तक पहुंचाने के सारे काम खुद ही अपने खर्चे पर करते हें और किसी से भी कैसी भी कोई मदद नहीं लेते हैं। ओम बताते हैं, ‘‘इस बैंक के लिये खाना जमा करने का काम करने वाले अधिकतर युवा अभी पढ़ ही रहे हैं या फिर पढ़ाई खत्म करके विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में लगे हुए हैं। इस बेंक के माध्यम से हमारा इरादा सिर्फ इतना ही है कि कोई भूखे न सोने पाए और भूख से किसी की जान न जाए।’’


ओम और इनके जैसे अन्य युवाओं का इस अभियान का एक भाग बनने के भी बड़े रोचक कारण हैं। इस बारे में बात करते हुए ओम कहते हैं, ‘‘अधिकतर होता यह था कि हम लोग शाम का समय ऐसे ही दोस्तों के साथ गप्पे लड़ाने में और फालतू घूमने-फिरने में गंवा रहे थे। ऐसे में जब हमनें इन लोगों को एक सकारात्मक काम में अपना समय लगाते हुए देखा तो हमारे मन में भी इनका साथ देने का इरादा आया और अब हममें से अधिकतर को लगता हैं कि हमारा यह फैसला बिल्कुल ठीक था। अगर हमारे थोड़े से प्रयास से किसी भूखे का पेट भरता है तो इससे बड़े पुण्य का कोई काम नहीं है।’’

इसके अलावा इनका यह पूरा अभियान पूरी तरह से अपने खुद के पैसों से संचालित किया जा रहा है और इन्होंने किसी भी सरकारी विभाग से या फिर निजी क्षेत्र से कैसी भी मदद नहीं ली है। साथ ही बहुत ही कम समय में इनका यह अभियान दूर-दूर तक अपनी पहचान बनाने में सफल रहा है और इनसे प्रेरित होकर उरई, उत्तराखंड और दिल्ली में भी ऐसे ही रोटी बैंक स्थापित किये गए हैं। ओम बताते हैं, ‘‘हमारे इस बैंक को प्रारंभ करने के कुछ दिनों बाद ही इसकी प्रसिद्धी फैली और उत्तराखंड के कुछ इलाकों के अलावा दिल्ली से भी कुछ लोगों ने अपने क्षेत्र में ऐसे ही बैंक को स्थापित करने के बारे में पूछताछ की और अपने-अपने क्षेत्रों में इस अभियान को प्रारंभ किया।’’

अंत में हाजी परवेज़ कहते हैं, ‘‘रोटी बैंक महोबा, न तो सरकारी और न गैर सरकारी संस्थान है, यह तो महोबा के कुछ लोगों के द्वारा चलाया जा रहा एक अभियान है, एक पहल है, एक सोच है ताकि महोबा का वो गरीब तबका खाली पेट न सोये। उन 400 गरीब परिवारों को खाना मिल सके जिनके पास खाने के लिए दो वक्त की रोटी भी नहीं। वो रोटी जो इंसान को कुछ भी करने पर मजबूर कर देती है, वो रोटी जिसके लिए इंसान दर दर भटकता फिरता है, वो रोटी जो इंसान को इंसानियत तक छोड़ने में मजबूर कर देती है। हमारा रोटी बैंक न तो किसी धर्म विशेष के लोगों का काम है और न ही किसी धार्मिक गुरुओं का। यह बेडा उठाया है महोबा के उन लोगों ने जिन्हे सिर्फ इंसानियत और सिर्फ इंसानियत से मतलब है। वो रोटी (खाना) देते वक्त ये नहीं देखते के लेने वाले ने सर पर टोपी पहन रखी है या गले में माला, उस औरत के माथे पर सिन्दूर था या उसके सर पर दुपट्टा, उस बच्चे के हाथ में भगवान कृष्ण की मूरत है या हरा झंडा! वो देखते हैं तो सिर्फ इतना की उस इंसान ने कितने दिनों से कुछ नहीं खाया, उस औरत ने जो कमाया अपने बच्चों को खिलाया और खुद खाली पेट रह गयी, उस बच्चे ने बिलख-बिलख कर अपनी माँ से खाना माँगा लेकिन वो माँ कहाँ से उसे लेकर कुछ दे जिसके घर में एक वक्त की रोटी तक नहीं।’’

12वीं पास शख्स ने मात्र 10 हज़ार में बनाया एक टन का एसी, जिससे बिजली की खपत हुई 10 गुना कम

कहते हैं ईमानदारी और सही दिशा में किया गया काम अकसर सफलता और सार्थकता की मंजिल तक ले जाता है। इसके लिए ज़रूरी है निरंतर कोशिश और सफलता के लिए जुनून। इस दौरान कई बार मिलने वाली असफलता असल में दवा का काम करती है और समझदार शख्स को मंजिल की तरफ अग्रसर करती है। ऐसी ही एक कहानी है राजस्थान के सरदारशहर के त्रिलोक कटारिया की। त्रिलोक कटारिया ने कम कीमत और कम बिजली के इस्तेमाल से चलने वाले एयरंकडीशनर बनाने का बीड़ा उठाया था। उन्होंने तीन साल तक एसी बनाने में पूरी लगन से रिसर्च की। इन तीन वर्षों में त्रिलोक ने करीब आठ से 10 लाख रुपये खर्च किए। उनके जुनून को बाद में सफलता मिली और उन्होंने 10 गुना कम बिजली खपत करने वाला एक टन एसी तैयार किया। इस एसी के निर्माण में मात्र दस हजार रुपये का खर्च आया है। ऐसे में यदि इस उत्पाद को व्यावसायिक तौर पर मार्केट में उतारने के लिए बनाया जाएगा तो विभिन्न खर्चों के साथ इसकी कीमत अधिकतम 15 हजार रुपये तक जा सकती है, जो बाजार में उपलब्ध 25 से 35 हजार रुपये के एसी से काफी कम है।

त्रिलोक ने  बताया, लगातार बढ़ती महंगाई और बिजली की दरों में प्रत्येक वर्ष होने वाली बढ़ोतरी की वजह से आम उपभोक्ता एसी की चाहत के बाद भी उसके बिल से डरा सा रहता है। इसी डर को दूर करने और आम उपभोक्ता को एसी की हवा दिलाने के लिए मैंने इस एसी को बनाने का सपना देखा था।


त्रिलोक कई सालों से एसी ठीक करने का काम करते हैं। उन्होंने बताया कि वह जिस घर में भी एसी ठीक करने जाते, वहां सभी एक ही बात कहते थे कि एसी लगवाने के बाद बिजली का बिल बहुत अधिक आता है। बार-बार यही बातें सुनकर मैंने मन में कम बिजली खपत करने वाले एसी बनाने की ठान ली थी। उन्‍होंने बताया कि इस एसी की एक महत्वपूर्ण खासियत इसका इको फ्रैंडली होना भी है। बाजार में उपलब्ध एसी में सामान्य तौर पर आर-22 गैसों का उपयोग किया जाता है, जोकि ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती हैं, जबकि उनके एसी में हाइड्रोकार्बन गैसों का इस्तेमाल किया है। ये गैसे पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाती हैं।

बिजली की खपत 10 गुना कम


एक एसी बनाने वाली कंपनी में काम करने वाले एक टेक्नीकल इंजीनियर के मुताबिक यह एसी अन्य एसी की तुलना में करीब आठ से 10 गुना कम बिजली खपत करता है। 10 एम्पीयर की बजाय यह 0.08-0.09 तक ही है। एसी में कम्प्रेशर इस तरीके से लगाए गए हैं, कि यह कम वॉल्ट में भी चालू हो जाता है। एक टन का एसी दो हजार वाट बिजली खपत करता है। यह एसी दो सौ वाट बिजली खपत करता है। इसके लिए किसी तरह के स्टेबलाइजर की भी जरूरत नहीं है। यानी बिजली की उपलब्धता में आने वाले उतार-चढ़ाव से भी ये एसी सुरिक्षत है।
12वीं पास हैं त्रिलोक

नेशनल स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग से 12वीं कक्षा पास करने के बाद त्रिलोक कटारिया ने राजस्थान में आईटीआई से एयरकंडीशनर से संबंधित पार्टटाइम डिप्लोमा कोर्स किया। इसके बाद उन्हों ने देहरादून, फरीदाबाद, दिल्ली और नोएडा में एसी बनाने वाली कई कंपनियों में काम किया। यहां रहकर एसी बनाने के तरीके इससे जुड़ी बारीकियां सीखीं। काम करने के साथ-साथ उन्होंने ऐसा एसी बनाना शुरू किया, जो बाजार में उपलब्ध उत्पादों के मुकाबले बेहतर हो।

पेटेंट कराने की प्रक्रिया शुरू

त्रिलोक ने अपनी इस खोज को पेटेंट कराने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। उन्होंने बताया कि जब तक ये काम पूरा नहीं होता है तब तक इसे मार्केट में नहीं उतारा जाएगा। उनकी इस खोज को मार्केट में उतारने के लिए कई कंपनियों ने उनसे संपर्क भी किया है, लेकिन फिलहाल वह इसके लिए तैयार नहीं हैं।

राजस्थान के जलौर जिले के नून गांव में गढ़े जाते हैं हस्तकला के बेजोड़ नमूने

हाथों में ऐसी कलात्मकता की लकड़े में प्राण फूंक कर सजीवता का चैला पहनाने दें और लोगों के मुंह से प्रशंसा में निकलें वाह-वाह। कमोबेश कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है निकटवर्ती नून गांव में। यहां के रहने वाले रतनलाल सुथार व देवीलाल सुथार के कारखानों में लकड़ी पर नक्‍काशी का काम लकड़ी की कीमत को कई गुणा बढ़ाकर विदेशों में निर्यात होकर भारतीय हस्तकला का परिचय दे रहा है।

रतनलाल सुथार ने बताया कि कारखाने में लकड़ी के हाथी, घोड़ा, झूले, मुंह देखने वाले दर्पण की फ्रेम, नक्काशी की हुई कुर्सी व टेबल सहित नाना प्रकार की सामग्रियां निर्मित होकर विदेशों में निर्यात की जा रहा है।


मेहनत की कमाई : हस्तकला में महारथ रखने वाले देवीलाल सुथार का कहना है कि हस्तकला का धंधा मेहनत का धंधा है। इस काम से घर चलने जितने मजदूर व नफा हो जाता है। सामग्री निर्माण का ऑर्डर समय पर मिल जाता है, तो काम की गति बनी रहती है। वरना काम के अभाव में खाली हाथ बैठने पड़ता है।


कद्र में आ रही कमी : रतनलाल सुथार का कहना है कि समय के साथ लोगों के द्वारा हस्तकला की कद्र में कमी आ रही है। कलाकार व कलाकृति की कीमत मशीनी युग में गिर चुकी है। लोग अब कलाकार को उस नजर से नहीं देखते है जो पहले देखा करते थे।


सरकार दे प्रोत्साहन : कलाकारों का कहना है कि सरकार को हस्तकला के विलुप्त होने पर ध्यान देना चाहिए। यह कला एकबार विलुप्त होने पर बार-बार जीवित नहीं हो सकती है। भारत सदियों से हस्तकला के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। इसे पुन; अग्रणी बनाने पर सरकार प्रोत्साहन दें।

सैनिकों ने राइफलों में सुधार कर इंसास और ए.के. 47 को बनाया बेहतर, खुश हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है, इस कहावत को भारतीय सेना ने एक बार फिर साबित किया है। सेना के सामने इस समय आतंकवाद और घुसपैठ का मुकाबला करना महत्वपूर्ण है जिसके लिए उसे बेहतरीन हथियारों की जरूरत है। मगर पिछले साल इंसास ( इंडियन स्माल आर्म्स सिस्टम)राइफलों की जगह आनेवाले लगभग पौने दो लाख हथियार खरीदने की निविदा रद्द होने के कारण सटीक मार करनेवाले हथियारों की जरूरत शिद्दत से सामने आई। बजाय हथियारों के आने का इंतजार करने के, सेना ने खुद ही पुरानी इंसास राइफलों में बदलाव कर उसकी मारक क्षमता बेहतरीन कर ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस नवोन्मेष से काफी प्रभावित हुए और ऐसा करने वाले को ‘नवाचार प्रमाणपत्र’ भी दिया है।


सेना में इंसास राइफलों की जगह नई राइफल लाने में हो रही देरी को देखते हुए सैनिकों ने खुद ही वर्तमान हथियारों की कुल लंबाई और वजन को घटाने के नए तरीके इजाद किए। इन बदलावों से राइफल पकड़ने के दौरान होनेवाली थकाम के साथ ही उसकी सटीकता बढ़ी है। इंसास में हुए बदलाव के बाद सैनिक आसपास गोलीबारी कर सकते हैं। हालांकि सेना ने अब तक अन्वेषक और ब्योरे की जानकारी नहीं दी है। मगर सूत्रों का कहना है कि आतंक विरोधी अभियानों के लिए संशोधित इंसास एके-47 राइफल वर्तमान हथियारों की कुल लंबाई और वजन को कम करने के उद्देश्य से डिजाइन की गई है। इस बदलाव के अपने फायदे हैं। मसलन आतंक विरोधी अभियानों में इन राइफलों को इस्तेमाल किए जाने के दौरान उसका गुरुत्वाकर्षण का केंद्र सीध में आ जाता है। इसके चलते इंसास चलानेवाले सैनिकों को ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता है और उन्हें थकान कम होती है। साथ ही इससे राइफल की सटीकता भी बेहतर हो जाती है। सूत्रों ने कहा, ‘इंसास एके-47 राइफलों में बदलाव कॉर्नर शॉट क्षमता शामिल करने के लिए किए गए हैं। संशोधित राइफल गोलीबारी के समय ज्यादा स्थिर, चुस्त, आसानी से पकड़ी जाने योग्य और बेहतर सटीकता वाली हैं।’

कॉर्नर शॉट सैनिकों को खतरे में डाले बिना आसपास गोली मारने में सक्षम करता है। कॉर्नर शॉट वाली बंदूकों में आमतौर पर कैमरा और वीडियो मॉनिटर होता है ताकि शूटर आसपास देख सके। सेना ने पिछले साल इंसास की जगह लेने के लिए बहु क्षमता वाले 1.8 लाख हथियार खरीदने की चार साल पुरानी एक निविदा रद्द कर दी थी। इंसास राइफल 1990 के दशक में सेना के हथियारों में शामिल की गई थी।

कब तक करते इंतजार: सेना ने अब तक अन्वेषक और ब्योरे की जानकारी नहीं दी है, सूत्रों ने कहा कि आतंक विरोधी अभियानों के लिए संशोधित इंसास..एके-47 राइफल वर्तमान हथियारों की कुल लंबाई और वजन को कम करने के उद्देश्य से डिजाइन किए गए हैं ताकि आतंक विरोधी अभियानों में इस्तेमाल किए जाने के दौरान गुरुत्वाकर्षण का केंद्र सीध में लाकर सैनिकों की थकावट कम की जा सके और हथियारों की सटीकता बेहतर की जा सके।

मदनलाल का अनूठा बांध, टरबाइन और बिजली

गांव के एक किसान ने 2 साल में 10 लाख रुपए खर्च कर नदी पर छोटा बांध बनाया और उसपर टरबाइन लगा दी। इससे वह खेतों में सिंचाई करते हैं और जो बिजली बनती है, उससे 10 हॉर्स पावर की मोटर भी चलाते हैं।
8वीं फेल किसान ने अकेले बनाया बांध, लगाई टरबाइन और पैदा कर दी बिजली

8वीं फेल किसान ने कैसे बनाया बांध और टरबाइन...

- मध्य प्रदेश के गांव निरखी में रहने वाले मदनलाल बताते हैं कि मेरा परिवार खेती पर ही निर्भर है। हमारे इलाके में पानी तो है पर सिंचाई के लिए पर्याप्त बिजली नहीं मिलती।
-डीजल से सिंचाई पर करने पर फसल की लागत इतनी बढ़ जाती है कि हाथ में कुछ भी नहीं आता।
-बात जनवरी 2014 की है। किसी काम से तवा बांध जाना हुआ। यहां मैंने टरबाइन से बिजली बनती देखी। बस यहीं से आइडिया आया।

आसान नहीं था टरबाइन लगाना....

मदनलाल कहते हैं, मेरा खेत जहां है, वहां टरबाइन लगाना आसान नहीं था। हमेशा पानी का बहाव रहता है और यहां पहुंचने के लिए रास्ता भी नहीं था। कमर तक गहरे पानी के बीच लोहा, सीमेंट, गिट्टी और रेत नदी के मुहाने तक ले गया। पहले नदी का बेस मजबूत किया। उस पर 40 क्विंटल लोहे से टरबाइन बनाया। उसके बीच से प्रेशर के साथ पानी निकालने के लिए बांध तैयार किया। पिछले 25 दिसंबर को बांध और टरबाइन तैयार हो गया।

प्रेशर से घूमता है टरबाइन....

खेत तक रास्ता होता तो काम और पहले हो जाता। टरबाइन को घुमाने के लिए मैंने उसके दोनों तरफ सीमेंट की दीवार बनाई। बांध से पानी टरबाइन से गुजरता है। प्रेशर से टरबाइन घूमता है। इससे सॉफ्ट को जोड़ा। साफ्ट को गियर बॉक्स से। गियर बॉक्स गुणात्मक वृद्धि कर राउंड/मिनट (आरपीएम) बढ़ाता है। वाटर पंप जोड़ने पर पानी खेतों में पहुंचने लगता है। अल्टीनेटर जोड़ने पर बिजली बनती है।’

मदनलाल बताते हैं, ‘पहले 10 एकड़ जमीन की सिंचाई बिजली से करने पर 25 दिन लगते थे। डीजल पंप से 16 से 18 दिन। 30 हजार रुपए का डीजल भी जलता था। इस बार 4 दिन में ही 10 एकड़ जमीन की सिंचाई हो गई। टरबाइन की बिजली से नदी से दूर स्थित खेत के ट्यूबवेल की मोटर भी चलाई। वहां की सिंचाई भी हो गई। कुछ खर्च नहीं करना पड़ा।’

सूरज की तपिश से अब जमेगी आइसक्रीम और मिलेगा ठंडा पानी

गर्मियों में जब कभी हम औरआप बाहर घूमने या काम परनिकलते है तो सबसे पहले हमें जरूरत होती है ठंडे पानी या फिर आइसक्रीम की। लेकिन कई बारसड़क किनारे आइसक्रीम कार्ट सेमिलने वाली मनपसंद आइसक्रीम हमेंपिघली हुई मिलती है। इसी तरहसड़क किनारे मिलने वाला पानीकितना शुद्ध होता है, हमें पता नहींहोता, क्योंकि हर आदमी बोतल बंदपानी नहीं खरीद सकता। इसी समस्या का समाधान मुम्बई केइलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर महेश राठी नेकिया हैं । 

जो पिछले कई सालों सेसोलर विंड और बायोमास के क्षेत्र मेंकाम कर रहे हैं।कुछ नया करने की चाहत मेंजब एक दिन वह गुजरात के भुज मेंविंड टरबाईन के रख रखाव का कामकर रहे थे तो फिल्ड में काम करतेहुए उन्हें एहसास हुआ कि गर्मी मेंठंडे पानी की कितनी जरूरत होती है,तब उन्होंने सोचा कि क्यों ना सोलरसिस्टम के जरिये पानी ठंडा करनेवाला कोई उपकरण बनाया जाये।महेश राठी बताते हैं कि“जब करीब 2 साल पहले गर्मियों केदिनों में काम के सिलसिले में वहदिल्ली गए तो सड़क किनारेआईसक्रीम कार्ट ने उन्हें पिघली हुईआइसक्रीम दी और जब उन्होंनेआइसक्रीम वाले से कहा कि इसपिघली हुई आइसक्रीम की जगहउसे दूसरी आइसक्रीम दे तो उसनेकहा कि दिल्ली की इतनी गर्मी मेंसब आइसक्रीम का हाल ऐसा ही होजाता है। 

इसी तरह घूमते घूमतेजब आगे बढे तो उन्होंने देखा किसड़क किनारे एक पानी के डिस्पेंसरवाला 2 रुपये गिलास पानी बेच रहाथा, लेकिन वो पानी कितना साफ थावह नहीं जानते थे। तब उन्होंने सोचाकि क्यों ना कूलिंग रेफ्रिजिरेटरबनाया जाये जिससे ना सिर्फ साफपानी मिले बल्कि वो ठंडा भी हो।इस तरह महेश राठी नेकूलिंग सिस्टम पर काम करना शुरूकर दिया। शुरूआत में उनको इसेबनाते हुए कई तरह की दिक्कतें आई,इसके कई पुर्जें उन्हें चीन व अमेरिकासे मंगाने पड़े थे, कुछ चीजों कीतकनीक तो सिर्फ अमेरिका के हीपास थी। इसमें उनका काफी पैसाऔर समय बर्बाद हुआ। इस तरहकरीब 5 लाख रूपये खर्च करने औरडेढ साल की कड़ी मेहनत के बादउन्होने एक ऐसा कूलिंग सिस्टमतैयार किया जिसमें आइसक्रीम भीनही पिघलती थी और पानी भी ठंडामिलता था। अब वो इसे बाजार मेंउतारने के लिए तैयार थे। खास बातये थी कि इस आइस कार्ट को सोलरपैनल से चार्ज किया जा सकता है,बारिश के समय इसे बिजली से भीचार्ज किया जा सकता है। इसमेंलगने वाली 12 वोल्ट की बैटरी केवलआधा यूनिट में ही चार्ज हो जाती है...इस कार्ट में ना सिर्फ आइसक्रीम औरपानी को ठंडा करने की सुविधा हैबल्कि कोई चाहे तो अपना मोबाईलभी चार्ज कर सकता है।महेश के मुताबिक इस कार्टको बनाते समय सबसे बड़ी दिक्कतनिवेश की आई और उनको कोई ऐसानिवेशक नहीं मिल रहा था जो इनकेप्रोजेक्ट पर निवेश कर सके। जिसकेबाद उन्होने पब्लिक प्लेटफॉर्म काइस्तेमाल किया और कार्ट से जुड़ेपोस्ट डाले। जिसके बाद ‘मिलाप’ कोउनका ये आइडिया पसंद आया औरउन्होने इस तरह के कार्ट बनवाने मेंरूची दिखाई। 

महेश आगे बताते हैंकि - उन्होंने उनसे कहा कि अगरपैसा मिल जाय तो वह इस तरह कीकम से कम 10 कार्ट बनाना चाहते हैंऔर इस तरह के कार्ट को किसीएनजीओ को किराये पर दे सकते हैं।ऐसा करने से कई बेरोजगारों कोरोजगार के मौके मिल सकते हैंजिससे हर महीने उनको एकनियमित आमदनी भी होगी।महेश यहीं नहीं रूके वो अबएक ऐसा सोलर कार्ट बना रहे हैं जो‘सोलन’ मछलियों को रखने के लिएहोगा। इस कार्ट के जरिये सड़ककिनारे मछली बेचने वालों कीमछलियां लम्बे समय तक खराब नहींहोंगी। इस तरह से उनकी आमदनीबढ़ सकती है।अपनी योजनाओं केबारे में महेश बताते हैं कि वह सोलरविंड व बायो मास पर काम कर रहेहैं। वो सोलर एयर कंडीशनर औरएक ऐसा सोलर एयर कूलर बाजार मेंउतार रहे हैं जो फोर इन वन है। 

इस उपकरण में कूलर के साथ ही सोलरपैनल, बैट्री, कूलर, इन्वर्टर लगा है।इनके बनाये एयर कूलर की खासियतहै कि ये गर्मी में तो कमरे को ठंडाकरता है और गर्मी सीजन खत्म होनेके बाद ये इनवर्टर का काम करताहै। महेश के इस खास तरह के कूलरकी कीमत साढ़े बारह हजार रुपये सेशुरू होती है।महेश के मुताबिक उनकाबनाया सबसे छोटा आइस कार्ट 108लीटर का है। जो एक बार चार्ज होजाने के बाद 16 से 17 घंटे तकआइसक्रीम को जमाये रखता है।इसके अलावा इसमें एक बार में 50 से60 लीटर पानी स्टोर किया जासकता है। जो ना सिर्फ साफ होता हैबल्कि ठंडा भी रहता है। इसआइसकार्ट की शुरूआती कीमत 1लाख से शुरू होती है। महेश बताते हैंकि उन्होने अब तक करीब 15आईसकार्ट (डिप फ्रिजर) होटलवालों को बेच दिये हैं, ये फ्रिजर 500से 1000 लीटर साइज के हैं। इसकेअलावा कुछ बड़ी आईसक्रीमकम्पनियों के साथ उनकी बातचीतचल रही है। मुंबई में रहने वाले महेशअपना कारोबार विश्वामित्र इलेक्ट्रिकल एंड इंजीनियर्स प्राइवेटलिमिटेड के जरिये कर रहे हैं। अबउनकी योजना क्राउड फंडिग केजरिये पैसा इकट्ठा कर कंपनी काविस्तार करने की है।

एक ऐसा शख्स जो पेड़ों को बिना काटे अपनी जगह से हटा देता है

अगर हम पेड़ की बात करें तो सभी जानते होंगे की पेड़ों से ही इंसान की जीवन संभव है। बिना पेड़ों नहीं जी सकते और आज हम आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसे शख्स के बारे में जो कि पेड़ों को बिना काटे उनकी जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं...
आज हम आपको बैंगलोर के रहने वाले एक शख्स के बारे में बता रहे हैं जिन्होंने 5000 पेड़ों को बिना काटे उनकी जगह से हटा दिया। एक बार उन्हें जयामहल एरिया में स्टील फ्लाइओवर बनाने के लिए बीच में आने 112 पेड़ों को हटाने को कहा गया। अगर इन पुराने पेड़ों को काटा जाता तो बहुत ज्यादा नुकसान होता। लेकिन इस शख्स ने चमत्कार करके दिखा दिया। दुनिया आगे बढ़ने की राह पर चल रही है इसलिए भारत देश में भी तरह-तरह की इमारते बनती रहेंगी।


लेकिन इन सब के बीच देश की हरियाली खत्म नहीं होनी चाहिए। इस हरियाली को बचाने के लिए एक नया तरीका सामने आया है। 2009 में हैदराबाद-विजयवाड़ा हाइवे बनाने के लिए बहुत सारे पेड़ काटे गए। जिस पर बहुत से लोगों ने इस पर विवाद खड़ किया। हैदराबाद के रहने वाला रामचंद्रा अप्पारी ने इस सब को रोकने के लिए एक नया कदम उठाया। रामचंद्रा ने बताया कि उन्होंने अपनी इस परेशानी को अपने ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले मित्र को बताई जिसने उन्हें पेड़ को अपनी जगह से हटाने का नया उपाए बताया। जिसके बाद रामचंद्रा ने Green Morning Horticulture Service Private Limited नाम की एक संस्था खोली जो कि पेड़ को अपनी जगह से सुरक्षित हटाने का काम करती है।


रामचंद्रा 2000 साल पहले मिस्त्र में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक से ये काम पूरा करते हैं। हम सभी जानते हैं कि पेड़ इंसान के जीवन में बहुत ज्यादा अहम रोल निभाता है। पेड़ को क्रेन द्वारा उठाकर फिर जूट से कवर करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। पेड़ को ट्रॉली पर रखकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। हैदराबाद में मैट्रो रेल के निर्माण में 800 पेड़ों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया गया। इस दौरान पेड़ में कीट नाशक दवाई छिड़की जाती है। 5 साल पुराने एक पेड़ को अपनी जगह से हटाकर नई जगह पर रखा गया जिसके बाद आज वह बिल्कुल हरा-भरा है। अगर आपको भी इस तरह के काम की जरुरत पड़े तो आप मिस्टर अप्पारी से ramachandra.appari@gmail.comपर बात कर सकते हैं।


वनों के क्षेत्रों में पेडों को जलाना या काटना ऐसा करने के लिए कई कारण हैं। पेडों और उनसे व्युत्पन्न चारकोल को एक वस्तु के रूप में बेचा जा सकता है और मनुष्य के द्वारा उपयोग में लिया जा सकता है जबकि साफ़ की गयी भूमि को चरागाह (pasture) या मानव आवास के रूप में काम में लिया जा सकता है। पेडों को इस प्रकार से काटने और उन्हें पुनः न लगाने के परिणाम स्वरुप आवास (habitat) को क्षति पहुंची है, जैव विविधता (biodiversity) को नुकसान पहुंचा है और वातावरण में शुष्कता (aridity) बढ़ गयी है। साथ ही अक्सर जिन क्षेत्रों से पेडों को हटा दिया जाता है वे बंजर भूमि में बदल जाते हैं।

इंग्लैंड में अपनी ऐशो-आराम की जिन्दगी छोड़, भारत के गाँवों को बदल रहे है ये युवा दंपत्ति!

पंद्रह साल पहले की बात है। पुणे के रहनेवाले आशीष कलावार ने हाल ही में अपनी इंजीनियरिंग की पढाई पुरी की थी और एक बहुत अच्छी कंपनी में अपनी पहली नौकरी से बहुत खुश भी थे। कंपनी ने उनकी पहली पोस्टिंग बिहार के बोकारो शहर में की थी।

आशीष छुट्टियों में घर वापस आने के लिए बोकारो स्टेशन पर अपनी ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे। इतने में 10-12 साल का एक लड़का उनके करीब आया और उनसे उनके जूते पोलिश करने का आग्रह करने लगा। ये देखकर आशीष को झटका सा लगा। उन्होंने उस लड़के से कहा कि ये उम्र उसके स्कूल जाने की है न कि काम करने की। इस पर लड़का बोला कि वो स्कूल जाने के लिए ही काम करता है और इन पैसो से अपनी स्कूल की फीस भरता है।

इस बात से खुश होकर आशीष ने उसे अपने जूते पोलिश करने दिए और साथ ही उसे दुगने पैसे भी दिए। दस की जगह बीस रूपये का नोट देखकर मानो लड़के की आँखों में चमक सी आ गयी थी। वो ख़ुशी से उछल पडा।

“मेरे लिए ये सिर्फ दस रूपये ही थे पर उसे पाकर उस लड़के की आँखों में जो ख़ुशी मैंने देखी, वो आज तक मेरे लिए एक यादगार क्षण है। और उसकी ख़ुशी से जो संतुष्टि मुझे मिली वो मुझे पहले कभी नहीं मिली थी,” आशीष भावुक होकर बताते है।

इसके बाद आशीष फिर से एक बार अपनी नौकरी और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में व्यस्त हो गए पर कहीं न कहीं उनके मन में उस लड़के और उसके जैसे और बच्चो के लिए कुछ करने की चाह पनपती रही।

आशीष अपने जीवन में तरक्की पे तरक्की करते जा रहे थे और अब समय था घर बसाने का। ऐसे में वे रुता से मिले, जिनके विचार आशीष से काफी मिलते जुलते थे। रुता भी एक इलेक्ट्रॉनिक्स इंजिनियर थी और अपने कार्यक्षेत्र में काफी तरक्की कर चुकी थी।

2006 में आशीष और रुता एक दुसरे के साथ शादी के बंधन में बंध गए और आशीष को अपना जीवन परिपूर्ण लगने लगा।
हर युवा की तरह इन दोनों का भी सपना था कि वे जीवन में और तरक्की करे। और इसी सपने को पूरा करने के लिए इस जोड़े ने 2009 में इंग्लैंड का रुख किया।

दोनों अपने काम में काफी होनहार थे और इसलिए जल्द ही आशीष और रुता को वहां नौकरी मिल गयी।

समय बीता और अब इस दंपत्ति के पास सब कुछ था। इंग्लैंड जैसे देश में एक आलिशान घर, एक बढ़िया गाडी और जीवन के वो सारे साधन जिसे आम इंसान खुशियों का मापदंड समझता है। पर कहीं कुछ अभी भी बाकी था।

आशीष और रुता ने इंग्लैंड की नागरिकता अपनाने के लिए भी अर्जी दे दी थी पर अब उनका मन कुछ बेचैन होने लगा था।

“हमारे पास सब कुछ था… वो सब कुछ जिसके बलबूते पर हम अपने आप को कामयाब कह सकते थे। हम खुश भी थे पर कहीं न कहीं हम सुकून ढूंड रहे थे,” – आशीष

सुकून की तलाश में आशीष और रुता साउथ वेल्स में स्थित स्कन्दा वेल मंदिर में जाने लगे। ये दोनों वहां खूब सारा समय बिताते, ध्यान लगाते और वहां आये लोगो की सेवा भी करते। इन सब में उन्हें एक अजीब सी संतुष्टि मिलती।

“इस मंदिर में सेवा करते हुए मुझे अक्सर बोकारो के उस छोटे से लड़के की याद आती जिसने मेरे जूते साफ़ किये थे। मैं अब अपने देश के लिए भी कुछ करना चाहता था,” आशीष याद करते हुए कहते है।

सांसारिक भौतिकता और आध्यात्मिक सुख की इस उधेड़ बून के बीच, 2012 में आशीष और रुता का कुछ समय के लिए भारत आना हुआ। यहाँ आकर उन्हें पता चला कि उन्ही के एक रिश्तेदार, अमोल सैनवार ने एक संस्था की शुरुआत की है जो एक गाँव को गोद लेकर उसे सुधारना चाहते है। ये गाँव था, महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में बसा लोनवड़ी गाँव!
आशीष और रुता को शायद इसी क्षण का इंतज़ार था। अमोल से सारी जानकारी लेने के बाद ये दोनों भी संस्था के और लोगो के साथ लोनवड़ी पहुँच गए।

लोनवड़ी पहाड़ी पर बसा एक छोटा सा गाँव था जिसमें न बिजली थी, न पानी, न सड़के थी, न अच्छा स्कूल। तय किया गया कि सबसे पहले यहाँ पानी की समस्या को ख़त्म करने के लिए सोलार वाटर सिस्टम लगाया जायेगा। और इस वाटर सिस्टम को लगवाने की पूरी ज़िम्मेदारी आशीष ने अपने कंधे पर ले ली।

“मैंने और मेरे इंग्लैंड में बसे एक दोस्त, उन्मेष कुलकर्णी ने मिलकर इस वाटर सिस्टम को लगवाने के लिए करीब 90 फीसदी पैसो का इंतज़ाम कर दिया। पर इसके बाद हमारी छुट्टियाँ ख़त्म हो गयी और हमे इंग्लैंड वापस जाना पड़ा।“ – आशीष

अपने देश से दूर जाने के बाद भी रुता और आशीष का मन लोनवड़ी में ही बस गया था। वे दोनों समय समय पर वहां की खबर लेने लगे।

“मुझे पता चला कि पानी की समस्या दूर हो जाने की वजह से अब गाँववाले काफी खुश है। बच्चे अब स्कूल जाने लगे थे क्यूंकि अब उन्हें सुबह सुबह पानी लेने पहाड़ के निचे तक नहीं जाना पड़ता था। इस बात ने मुझे अपने देश के लिए कुछ करने की ओर और प्रेरित किया।“ – आशीष

आशीष और रुता ने गौर किया था कि रोज़मर्रा की इन समस्याओं के अलावा लोनवड़ी के लोग एक और समस्या से जूझ रहे है और वो थी नशे की समस्या। गाँव के ज़्यादातर मर्द खेती किसानी करते थे और तनाव और थकान की वजह से शाम को अक्सर तम्बाखू या दारु का नशा करते दिखाई देते थे। आशीष और रुता का मानना था कि कोई भी गाँव तब तक तरक्की नहीं कर सकता जब तक उसके लोग नशामुक्त न हो। और अब भारत के हर गाँव को नशामुक्त करना ही उनका उद्देश्य बन गया था।
जनवरी 2014 में एक ख़ूबसूरत भविष्य और एक बेहतरीन ज़िन्दगी को इंग्लैंड में ही छोड़ कर आशीष और रुता हमेशा-हमेशा के लिए अपने देश वापस लौट आये।

भारत वापस आकर सबसे पहले इस दंपत्ति ने लोनवड़ी का रुख किया। वहां के लोगो को ध्यान और साधना के फायदे बताये और उनसे रोज सुबह थोडा वक़्त ध्यान और कसरत में लगाने को कहा।

रूता कहती है,“मैंने उनसे नशा छोड़ने को नहीं कहा। बस वैसे ही ध्यान शुरू करने को कहा जैसे वो है। पर जब आप ध्यान या साधना करते है तो आप में एक अजीब सी सकारात्मकता आती है जो आपको हर नकारात्मक वस्तु से दूर रहने को मजबूर कर देती है।”
ये रुता और आशीष की लगन ही थी कि केवल 6 महीनो में गाँव के 80% लोगो ने नशा करना बंद कर दिया।


इसके अलावा इनकी संस्था, शिवप्रभा चैरिटेबल ट्रस्ट ने लोनवड़ी में काम जारी रखा और आज इस गाँव में बिजली, पानी, सड़क और यहाँ तक कि एक डिजिटल स्कूल भी है।

पर अभी भी इस गाँव में एक कमी है और वह कमी है, हर घर में शौचालय की। शिवप्रभा चैरिटेबल ट्रस्ट ने इस गाँव के स्कूल में दो तथा सभी गांववालों के इस्तेमाल के लिए गाँव में एक शौचालय बनवाया है। पर यह एक शौचालय पुरे गाँव के लिए काफी नहीं है। यदि हर घर में शौचालय बन जायेगा तो यह गाँव पूरी तरह से आदर्श ग्राम बन सकता है। और इस गाँव को आदर्श गाँव बनाने में हमे आप सब के सहयोग की ज़रूरत है।

इस विश्व शौचालय दिवस पर द बेटर इंडिया, शिवप्रभा चैरिटेबल ट्रस्ट के साथ मिलकर लोनवड़ी के हर घर में एक शौचालय बनवाने की मुहीम चला रहा है। और इस मुहीम में आप भी हमारे साथ जुड़ सकते है। इस लिंक पर जाकर आप अपना सहयोग इस नेक कार्य में दे सकते है।

एक डॉक्टर, जिन्होंने अपने गाँव में 11 डैम बनवाकर किया सूखे का इलाज!

देश के कई हिस्से सूखे की चपेट में हर साल आते हैं और किसानों की फसल और मेहनत सुखा जाते हैं। मानसून न आने से कई क्षेत्र सालों तक बंजर पड़े रहते हैं। मजबूरन वहां के किसानों को पलायन करना पड़ता है या कर्ज में डूबना पड़ता है।

लेकिन इसी सूखे की नाउम्मीदी में पानी की उम्मीद पाले डॉ अनिल जोशी ने कई गांवों में हरियाली ला दी। उनका डॉक्टरी छोड़कर जल सरंक्षणवादी बनने का सफ़र प्रेरणादायक है। डॉ अनिल जोशी ने अपने मरीजों की मदद करने का बीड़ा उठाया और एक आयुर्वेदिक डॉक्टर से जल सरंक्षणवादी बन गए।


उनके मरीजों में किसान भी शामिल थे, जो सूखे की मार झेल रहे थे। डॉ जोशी ने सामूहिक सहयोग से उनके लिए नदी और नालों के किनारे बांध बनवा दिए।

मध्य प्रदेश के फतेहगढ़ में अनिल जोशी ने लंबे समय से सूखे की मार झेल रहे किसानों के लिए 10 किमी की परिधि में बांधों का निर्माण कराया है, जिससे कई गांवों के खेतों को पर्याप्त पानी मिल रहा हैं।

डॉ अनिल जोशी 1998 में पहली बार फतेहगढ़ आए और चिकित्सा सेवा शुरू की। उन्होंने ऐसे कई मरीजों की सेवा की जो गरीबी के कारण फीस नहीं दे पाते थे।

डॉ अनिल जोशी ने देखा कि खेतों की अच्छी फसलें भी सूखे की चपेट में आके किसानों की मेहनत बर्बाद कर जाती हैं। किसान कितनी ही मेहनत और उम्मीद से फसल रोपे लेकिन बारिश न होने से सब मिटटी में मिल जाता है। इस क्षेत्र में जमीन से भी पानी नहीं निकलता, जलस्तर बहुत नीचे चला गया है।

2008 में मानसून नहीं आया और डॉ अनिल ने देखा कि किसान सूखे से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। उसी वक़्त उन्होंने सुझाव दिया कि हम चेक बांध बनाएंगे, जिससे बारिश का पानी एक जगह इकठ्ठा होगा और जमीन का जलस्तर बढ़ेगा। जिससे भविष्य में बारिश भी नहीं होगी तो जमीन के पानी से खेत सींचे जा सकेंगे।

डॉ अनिल ने अपने एक मित्र से 1000 सीमेंट की बोरियां लीं और उन्हें बालू से भरकर सोमाली नदी के किनारों पर रखकर बांध बना दिया। जब 15 दिन बाद बारिश हुई तो बांध पानी से लबालब भर गया और सालों से सूखे पड़े हैंडपम्प पानी देना शुरू हो गए। जमीन का जलस्तर अब पानी देने तक बढ़ गया था।

डॉ अनिल ने द वीकेंड लीडर को बताया, ” किसानों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, उस बरस खेतों को पर्याप्त पानी मिला और कई सालों के सूखे के बाद वो साल खेतों से अनाज घर लेकर आई।”

डॉ अनिल ने देखा कि एक बांध ने इसके आसपास के गांवों में हरियाली ला दी गरीब किसानों की स्थितियां बेहतर होने लगीं तो उन्होंने कई बांध बनाने का अभियान शुरू कर दिया। और उस क्षेत्र में आसपास के सूखे से प्रभावित गांवों में भी बांध बनवाने का निश्चय लिया।

2010 में उन्होंने हर ग्रामीण से एक रुपया लेना शुरू किया, जैसे ही उन्होंने बांध बनाने के लिए एक रुपया चन्दा देने की बात कही, उन्हें पहले 3 घण्टे में ही 36 रूपये मिल गए। अगले दिन उनके पास 120 लोगों ने एक एक रूपये का चन्दा इकठ्ठा कर दिया। लेकिन डॉ अनिल के इस रूपये इकठ्ठा करने के अभियान पर कई ग्रामीणों ने सवाल उठाये।

कुछ दिनों में जब एक हिंदी अख़बार में उनके इस अभियान की खबर छपी तो लोगों को उनके समर्पण और इरादों का पता चला। उसके बाद दो अध्यापकों ने पूरी तरह से अपना समर्थन उन्हें दिया और उनके साथ जुड़ गए। सुन्दरलाल प्रजापत और ओमप्रकाश मेहता जल सरंक्षण के अभियान में डॉ अनिल के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े हो गए।

तीन महीने में डॉ अनिल की टीम ने 1 लाख रुपयों का सहयोग इकठ्ठा कर लिया और अब जल सरंक्षण के लिए समर्पित इस ग्रुप ने एक स्थाई चेक बांध का निर्माण शुरू कर दिया। गाँव वालों ने लेबर का काम किया ताकि लेबर का खर्च बचे। सबके सहयोग से बांध बनाने का कुल खर्च 92 हज़ार रूपये आया।

डॉ अनिल जोशी ने इस तरह के 11 बांध बनवा दिए हैं। कई गांवों में हरियाली लाने वाले डॉ अनिल जोशी ने बताया कि अब उनका इरादा इस तरह के पक्के बांधों की संख्या 100 तक पहुँचाने का है।

“हर व्यक्ति से एक-एक रुपया इकठ्ठा कर सूखाग्रस्त क्षेत्र में बांध बनाना अब मेरा अभियान बन गया है। और मैं इस अभियान को जारी रखूंगा।”

इसके साथ साथ डॉ अनिल सवालिया धाम के लिए जाने वाली 120 किमी लंबी सड़क के किनारे पेड़ लगाना चाहते हैं। सवालिया धाम एक तीर्थ स्थल है जहाँ लोग भगवान कृष्ण के दर्शन करने जाते हैं।

डॉ अनिल जोशी को ‘द बेटर इंडिया’ की ओर से ढेर सारी शुभकामनायें। आप भी ऐसा कदम उठाकर सामूहिक रूप से किसी भी समस्या का हल ढूंढ सकते हैं।

‘काऊइस्म’ – स्वदेशी गाय हो सकती है किसानो की हर समस्या का हल !

काऊइसम (Cowism), कंप्यूटर इंजिनियर, चेतन राउत द्वारा शुरू किया गया एक स्टार्ट अप है। चेतन का मानना है कि खेती के साथ साथ स्वदेशी गाय पालन ही किसानो की आत्महत्या रोकने का एकमात्र उपाय है।

चेतन राउत उस वक़्त नागपुर के YCCE कॉलेज में इंजीनियरिंग की पढाई कर रहे थे, जब विदर्भ के किसानो की आत्महत्या की खबरे हर रोज़ की बात हो गयी थी। चेतन के पिता, अरुण राउत भी एक समय पर किसान ही थे। विद्यार्थी जीवन में वे शरद जोशी के मार्गदर्शन में अनेक कार्यक्रमों में भाग लेते थे। लेकिन खेती में ज्यादा फायदा न होने के कारण नाखुश होकर उन्होंने खेती छोड़।


चेतन कहते है ,“मेरे पिताजी हमेशा खेती करने के विरुद्ध थे। हमें वो खेती छोड़कर अन्य व्यवसाय या नौकरी करने की सलाह देते। पर जब भी वो खेती के बारे में बाते करते थे तो उनकी आँखों में एक अजब सी चमक आ जाती । हम ये समझते थे कि भले ही उन्होंने खेती छोड़ दी हो पर उन्हें इससे कितना लगाव है ।”

जब भी चेतन विदर्भ के किसानो के आत्महत्या के बारे में सुनते थे तब उन्हें बहुत बुरा लगता था। खेती और किसानों से उन्हें लगाव था। कॉलेज के दिनों में ही चेतन विदर्भ युथ एसोसिएशन से जुड़ गये। ये संस्था किसानों को उनकी समस्या हल करने और उनके बच्चो की शिक्षा के लिये मदद करती है।
चेतन ने गौर किया कि पश्चिम महाराष्ट्र के किसान तो संपन्न है पर उसी महाराष्ट्र में रहनेवाले विदर्भ के किसान गरीबी और भुखमरी के कारण आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते है।इसलिये उन्होंने दोनों ही जगह पर जाकर जानकारी हासिल करने का निश्चय किया।

सन २०११ में इंजीनियरिंग की पढाई पूरी करने के बाद चेतन अपने दोस्तों के साथ पुरा महाराष्ट्र घुमने निकल पड़े। पुरे एक महीने के रोड ट्रिप के दौरान उन्होंने विदर्भ और पश्चिम महाराष्ट्र के किसानों के खेती करने में बहुत ज्यादा अंतर देखा। पश्चिम महाराष्ट्र के किसान इंटीग्रेटेड फार्मिंग (एकीकृत खेती याने एक साथ खेती करना) और लाइवस्टॉक रेअरिंग (पशुपालन) का इस्तेमाल करते है इसलिये उनके खेत हमेशा हरेभरे रहते है।

चेतन का मानना था की खेती छोड़कर दूसरा विकल्प ढूँढने के बदले अगर खेती के साथ साथ किसान दूसरा व्यवसाय करे तो उन्हें ज्यादा फायदा होगा।

किसानों को उनकी उन्नति के लिए मदद करने हेतु चेतन ने सन २०११ में टाटा इंस्टिट्यूट फॉर सोशल साइंस (TISS), मुंबई के सोशल आंतरप्रेनरशिप प्रोग्राम में हिस्सा लिया।

प्रोग्राम के अंतर्गत चेतन, तीन अलग अलग इंस्टिट्यूट में गए तथा ६ महीने में सामाजिक और ग्रामीण सम्बंधित क्षेत्रो में काम किया। वे मध्य प्रदेश के झबुआ आदिवासियों से भी मिले। सामजिक संस्था ग्रीन बेसिक्स के साथ मिलकर चेतन दक्षिण गोवा के आदिवासी क्षेत्र में भी एक महिना रहे।
चेतन महाराष्ट्र के बाबा आमटे परिवार द्वारा चलाये जानेवाले आनंदवन में भी गए। ताकि एक सामान्य गाव को सक्षम, संपन्न और खुशहाल कैसे बनाया जाये, ये सीख सके।

इसी विषय में गहरे पाठन के दौरान चेतन को ये पता चला कि पुराने ज़माने में लोगो को नमक आसानी से नहीं मिलता था। इसलिये लोग एक भिन्न प्रकार की चीटियों को पीसकर रोटी के साथ खाते थे जिसका स्वाद नमक जैसा था। उसके बाद नमक को विकल्प मिला और वो था दूध! लोग दूध के साथ रोटी खा सकते थे। और दूध उन्हें गायों से आसानी से मिल जाता था।

गायों से उन्हें बैल भी प्राप्त होते थे जिससे खेती कर सके।

इतना ही नहीं, गायों से उन्हें गोबर भी मिलता था जिसका रासायनिक ख़त के तौर पर इस्तेमाल होता था।

चूल्हा जलाने के लिये लकडियां इकट्ठा करने के लिए उन्हें जंगल में जाना पड़ता था जहा वन्य प्राणियों का डर था इसलिये लोग गोबर का इस्तेमाल चूल्हा जलाने के लिए करते थे।

बकरिया दूध देती थी और मुर्गिया मास और अंडे देती थी पर ये दोनों ही खेतो में उपयुक्त नहीं थे पर गाय ये सब चीजे तो देती ही थी, साथ में खेत में मदद भी करती थी। इस तरह लोग गाय पालने लगे और घर घर में लोग गाय को पूजने लगे।
इन सबसे चेतन ने यह निष्कर्ष निकाला कि अगर किसान गाय का इस्तेमाल सही तरह से करे तो उनकी सारी समयायें हल हो सकती है।

काऊइस्म (Cowism) की मदद से किसान पुराने जमाने की ‘गायों पर आधारित खेती’ कर सकते है।

जनवरी २०१५ में चेतन ने काऊइस्म (COWISM) की शुरुआत की। काऊइस्म का मकसद किसानो को पुराने ज़माने में होनेवाली गायों पर आधारित खेती की जानकारी देना तथा इस तरह की खेती करने में उनकी सहायता करना था।

चेतन के लिये पूरा सफ़र इतना आसान नहीं था क्योकी जैविक खेती भले ही पुराने ज़माने में लोग करते थे पर आज के किसानों को उसका महत्व समझाना बड़ा ही कठिन है। उन्हें लगा कि अगर वो खुद जैविक खेती का इस्तेमाल अपने खेती में करे तो शायद दुसरे किसान इससे कुछ सीखे।

चेतन के सामने अनेक समस्याये थी जैसे कि इस तरह की खेती करने के लिये पैसो की जरुरत पर चेतन अपने निश्चय पर कायम थे। पर इस समस्या का भी हल जल्दी ही मिल गया।
ग्लोबल इंडियन आंटरप्रेनर २०१४ कांटेस्ट में काऊइस्म (COWISM) ने बाज़ी मारी और इनाम जीता। जितने के बाद DBS बैंक ने चेतन के प्रोजेक्ट को सराहा और उसमे निवेश किया।

काऊइस्म (COWISM) ने ग्लोबल इंडियन आंतरप्रेनर २०१४ कांटेस्ट जीता।

इस दौरान चेतन ने डॉ. के. बी. वुडफोर्ड द्वारा लिखित किताब ‘डेविल इन द मिल्क’ पढ़ी जिससे उसे जर्सी गाय और स्वदेशी गाय के बारे में पता चला। स्वदेशी मतलब भारतीय जाती की गायों से मिलने वाले दूध में अमीनो एसिड होता है जिससे पाचन क्रिया अच्छी तरह से होती है और वो किडनी के लिये अच्छा भी होता है। इससे विटामिन B2, B3 और A मिलता है। इस दूध से रोग प्रतिकारक शक्ति बढती है और पेप्टिक अल्सर और कोलन, ब्रैस्ट और स्किन कैंसर के जीवाणुयों के लढने की क्षमता विकसित होती है। जर्सी गाय के दूध में BCM-7 होता है जिससे बच्चो में होने वाले मदुमेह (पीडीयाट्रिक डायबीटीस, औटिस्म और मेटाबोलिक डीजनरेटीव डिसीस होने की संभावना होती है।

जर्सी गाय ठंडी जगहों की आदि होती है। इसलिए हिंदुस्थानी वातावरण में गायों को कई तरह की बीमारियां हो जाती है और उन्हें पालने का खर्चा भी बढ़ जाता है।

चेतन ने स्वदेशी गाय पालने की शुरुआत चंद्रपुर से शुरू की है जिसका उद्देश किसानों को इस तरह की गायों से होनेवाले फायदे समझाना है।
अपने पहल की शुरुआत चेतन ने भारतीय प्रजाति की गीर गाय का दूध खरीदने से की। चेतन खुद ही इस दूध को मार्केट में बेचते है। हर सुबह चेतन दूध बेचा करते है।

चेतन बताते है “मेरी माँ और मैं रोज सुबह दूध को पैक करते है और बेचने के लिये ले जाते है। लोग अक्सर ये कहकर मेरा मजाक उड़ाते थे कि अगर मुझे दूध ही बेचना था तो फिर मैंने इंजीनियरिंग क्यूँ की। लेकिन मेरी माँ ने हमेशा मेरा साथ दिया है।”
चेतन किसानों से मिलकर उनकी समस्या के बारे में जानकारी हासिल करने लगा। लेकिन पुराने ज़माने की तकनीक इस्तेमाल करने के बारे में किसानों को मनाना मुश्किल था।

पहले सिर्फ २ किसानो ने चेतन के इस पहल से प्रभावित होकर स्वदेशी गाय खरीदी। इस तरह के नये तकनीक से फायदा होने में बहुत वक्त लगता है इसलिये किसान जल्दी प्रभावित नहीं हो पा रहे थे। इसलिये चेतन ने अपने ही खेत में इसका इस्तेमाल करने की ठान ली ताकि वो अन्य किसानो को प्रेरित कर सके।
चेतन कहते है कि देसी गाय के गोबर और गोमूत्र से बनने वाली जैविक खतो से खेती में अच्छे बदलाव दिखायी दे रहे है।

चेतन ने अपने इस पहल का लक्ष्य “एक गाय, एक किसान” रखा है जिसके माध्यम से वो स्वदेशी गाय का इस्तेमाल करने के लिये किसानों को प्रेरित कर रहे है।

हम आशा करते है कि चेतन की इस पहल से अधिक से अधिक किसानो को सहायता मिले और हमारे किसान एक बार फिर से खुशहाल और संपन्न जीवन जी सके। अधिक जानकारी के लिए आप chetan30raut@gmail.com पर लिख सकते है।