विचार से रोजगार
भूमिका
नमस्कार साथियों,
हमारे देश में विचार को रोजगार में बदलने का ईको सिस्टम थोड़ा कमजोर है , हमारे यहाँ लोग क्या कहेंगे और अनजान चार लोगो का इतना भी व्यापत है कि स्कूल में टॉप फाइव या टॉप टेन में जगह बनाने की जुगत में हम अपनी पूरी क्रिएटिविटी और पोटेंशिअल का नास कर बैठते हैं |
उसके बाद कॉलेज फिर कैरियर , कहीं नौकरी में अटक गये तो ठीक अन्यथा प्राइवेट नौकरी के प्रेशर और जिन्दगी में झंझट ही झंझट | अपने मन में उठ रहे विचारों पर गौर करने और उन्हें जांचने परखने का अवसर ही नही मिलता है |
बागी प्रवृति
जो बालक बचपन से बागी हो जाते हैं और अपने विचारों के साथ प्रयोग करना शुरू कर देते हैं और उनके पर किसी मेंटर का सीधा हाथ या अप्रत्यक्ष सपोर्ट होती है वो बालक अपने जीवन में ज्यादा आत्मविश्वास के साथ अपने विचारों के साथ प्रयोग कर लेते हैं | हमारा स्कूलिंग सिस्टम केवल और केवल रट्टू तोते बालकों को आगे बढाता है और आगे चलकर यही अव्यवाहरिक रट्टू तोते देश समाज की बागडोर अपने हाथ में लेकर संस्थानों पर काबिज हो जाते हैं और इसी व्यवस्था के पोषण में लगे रहते हैं | जो बच्चे सवाल पूछते हैं और जिनके मन में क्युरोसिटी के कीड़े कुलबुलाते हैं उन्हें हमारी मौजूदा स्कूली और समाजिक व्यवस्था अपनी कमियों को ढकने के लिए बागी करार देकर उन्हें अपने सांचे में ढालने का प्रयास जारी रखती है |
समस्या और समाधान
जीवन में हरेक जगह समस्याएं पैदा होती रहती हैं कहीं तकनीकी समस्याएं होती हैं और कहीं पर समाजिक मसले होते हैं और कहीं पर आर्थिक , व्यावसायिक और कहीं पर निजी समस्याएँ होती हैं | जानकार लोग अपने अनुभव से बताते हैं कि समस्या में ही समाधान निहित होता है | उसे खोजने के लिए एक क्रिएटिव आई की आवश्यकता पडती है और यह क्रिएटिव आई समय के साथ परिपक्व होती है और एक अच्छी बात यह है कि इसे किसी भी व्यक्ति में उसके मातापिता . अध्यापक , सीनियर मित्र या मेंटर के द्वारा विकसित किया जा जा सकता है |
थॉमस अल्वा एडिसन जो विश्व के महान वैज्ञानिक हुए हैं और जिन्होंने एक हज़ार से अधिक अविष्कारों के पेटेंट्स प्राप्त किये और उनके किये हुए आविष्कारों में हम आज भी कुछ को अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते हैं | जैसे बल्ब और साउंड रिकॉर्डिंग सिस्टम आदि |
बचपन में एडिसन को जब स्कूल में पढने के लिए भेजा गया तो वे अच्छे से सुन नही पाते थे और उनकी सीखने की दर दुसरे बच्चों की अपेक्षा थोड़ी सी कम थी और इसीलिए उसके अध्यापक उसकी परफॉरमेंस से खुश नही थे और एक दिन एडिसन के स्कूल से स्कूल डायरी में एडिसन की माता जी के नाम एक नोट आया जिसमें यह लिखा था कि आपका बेटा महामूर्ख है इसे स्कूल से निकाल लें |
एडिसन की माता जी ने उसे स्कूल से निकाल लिया और उसे घर पर ही पढ़ाने का मन बनाया, लेकिन उसने उसे सीधे कलम दवात और किताबे नहीं दी | उसने खेल खेल में उसे अक्षर ज्ञान करना शुरू किया और बस एक एक कदम बढ़ते बढ़ते एड़िसन में सीखने के प्रति एक ललक जाग गयी और जब एडिसन 13 वर्ष का था तो वो एक अखबार छाप कर बेचने लगा और फिर जीवन में बढ़ते बढ़ते एक समय ऐसा भी आया जब एडिसन के किये हुए आविष्कार औद्योगिक उत्पादन का हिस्सा बने और एडिसन ने अपने विचारों से लाखों रोजगार के अवसर पैदा किये और दुनिया को बदला |
हमारे देश में हालत
हमारे देश में एक उपभोक्ता संस्कृति विकसित करने के लिए एजुकेशन सिस्टम को विशेष रूप से कण्ट्रोल किया हुआ है | हमारे यहाँ पी.एच.डी. किया हुआ व्यक्ति घमंड में इतना टूटा हुआ होता है कि उसको अपने लिए बस एक नौकरी की दरकार होती है | पहले तो वो सिस्टम में टॉप लेवल पर घुसने की जुगत करता है यदि कामयाब हो जाए तो ठीक अन्यथा वो मिडल मैनेजमेंट से क्लर्क तक कहीं भी एक बार अटकने को तैयार हो जाता है |
हमारे देश में जितने भी कारोबार चल रहे हैं या तो वो सर्विस इंडस्ट्री पर आधारित हैं या फिर वो किसी ट्रेडिंग चैनल का हिस्सा है जो बहार से इम्पोर्ट करके देश में डिस्ट्रीब्यूट करने की चेन की कोई कड़ी हैं | इसके अलावा बचता है खेती वहां भी एग्री इनपुट के नाम पर विदेशी कंपनियों का ही कब्जा है |
कुल मिलाकर बात यह है कि देश में आज से बीस साल पहले गली गली के कोने कोने पर रिपेयर की दुकाने हुआ करती थी जहाँ एक एक पुर्जे को रिपेयर करके वापिस इस्तेमाल में लाये जाने का बंदोबस्त होता था | आज बीएस रिप्लेस का जमाना है कोई भी थोड़ी से ट्रेनिंग के बाद पुर्जे रिप्लेस करके मिस्त्री या उस्ताद जी का पद प्राप्त कर लेता है |
फर्क क्या पड़ता है ?
सवाल यह उठता है कि गली गली में पनप रही रिप्लेस और रिपेयर की संस्कृति से फर्क क्या पड़ता है ? जब तक देश में पुर्जों की रिपेयर करने का कल्चर था तो इनोवेशन होने के चांस बहुत ज्यादा होते थे क्यूंकि रिपेयर करने के लिए बहुत सारी स्किल्स को सीखना पड़ता है और फिर अपना दिमाग यूज करके अनरिलेटेड वस्तुओं के बीच में समबन्ध खोज कर उन्हें काम में लाया जाता है | रिप्लेस संस्कृति में बस उपभोक्ता को जल्दी से फारिग करके उससे पैसे लेने का विचार केंद्र में रहता है | रिपेयर करने वाला व्यक्ति ग्राहक के पैसे बचाने के भाव से काम करता है |
विचार से आविष्कार
हनी बी नेटवर्क के प्रणेता प्रोफ़ेसर अनिल गुप्ता जी कहते हैं कि केवल संवेदी व्यक्ति ही आविष्कार कर सकता है | क्यूंकि संवेदी व्यक्ति संवेदना रखता है और संवेदना के मूल में सम + वेदना होता है | प्रोफेसर गुप्ता कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की तकलीफ , दिक्कत , परेशानी को अपना समझ कर महसूस करता है तो तभी वो उसके समाधान के लिए प्रयास करता है |
समाधान एक बार समझ में आ जाने पर उसे प्रोटोटाइप तक ले जाने की प्रक्रिया भी बेहद रोचक होती है और इसे अनाड़ी व्यक्ति तो बिलकुल भी अंजाम तक नहीं पौंछा सकता है | इसके अनुभव मेंटर , पीयर ग्रुप की आवश्यकता होती है जिसकी सोहबत से व्यक्ति एक पॉजिटिव माहौल में अपने विचारों में सुधार लाते लाते कम खर्चे में प्रोटोटाइप विकसित कर लेता है |
आविष्कार से रोजगार
आविष्कार कर लेना भी कोई मुश्किल काम नहीं है ज्यादातर संवेदी मनुष्य दूसरों की दुःख तकलीफ को आसान करने के लिए आविष्कार कर ही देता है लेकिन उस आविष्कार को यदि एक एंटरप्राइज में बदलना हो तो हमें निम्नलिखित गुणों की आवश्कयकता पड़ती है :
- डिज़ाइन और टेक्नोलॉजी को लॉक करके उसमें सुधार की गुंजाईश को इग्नोर करके उसके कमर्शिअल उत्पादन की तैयारी करना |
- हमने हनी बी नेटवर्क में आविष्कारकों के साथ काम करके यह अनुभव लिया है कि आविष्कारक अपने उत्पाद से कभी भी संतुष्ट नहीं होता है वो हमेशा उसे बेहतर से बेहतरीन बनाने के प्रयास में लगा रहता है और फिर उसका ध्यान उसकी कमर्शियल वायबिलिटी से हट जाता है और प्रोडक्ट मार्किट में उतर नहीं पाता है |
- आविष्कारक के पास अपने प्रोडक्ट के उत्पादन और उसे बेचने के लिए एक स्ट्रेटेजी होनी चाहिए और हर हाल में उसका कैश फ्लो बना रहे इसके लिए उसके पास एक नीति होनी चाहिए | अक्सर मैंने यह देखा है कि या तो सारा जोर उत्पादन पर लग जाता है और प्रोडक्ट मार्किट में बेचने के लिए जो ऊर्जा और उत्साह की आवश्यकता होती है वो ना मिलपाने के कारण प्रोडक्ट फेल हो जाता है |
- आविष्कारक को एक अच्छा ह्यूमन रिसोर्स मैनेजर भी होना चाहिए क्यूंकि उसे हरदम हरेक स्टेज पर विभिन्न गुणों वाले मानव संसाधनों की आवश्यकता पड़ती रहती है |
- सोशल मीडिया में मौजूदगी और सक्रियता भी एक बेहद जरूरी गुण है जिसके उपयोग से आविष्कारक समाज में फैले अपने अपने ग्राहकों से जुड़ा रहता है |
- इन्नोवेटर के पास एक फर्म , या कम्पनी भी होनी चाहिए जो बैंकिंग व्यवस्था और टैक्स प्रणाली से जुडी हो और इन्नोवेटर को अपना उत्पाद ग्राहक तक भेजने में सबल बनाये |
- इन्नोवेटर के आस पास सहयोगी इंडस्ट्रीज कितनी हैं और कितनी दूर हैं इसका भी बहुत फर्क पड़ता है जैसे प्रिंटर, पैकर्स, ट्रांसपोर्ट, स्पेयर पार्ट्स वाले, मिस्त्री , चार्टेड अकॉउंटेंट ,और अन्य प्रोफेशनल्स आदि सब आस पास यदि पंद्रह बीस किलोमीटर में हों तो इसका बड़ा फर्क और असर पड़ता है |
उपसंहार
विचार से आविष्कार और फिर रोजगार तक के ईकोसिस्टम को हमारे देश में गली गली तक इंटीग्रेट करके एक कार्यसंस्कृति का रूप देने की आवश्यकता है | पढ़ाई लिखाई के सिलेबस और स्कूल कालेजों से लेकर विश्वविधालय तक के महौल में हरेक स्टेप पर रचनातकमकता को लाने की आवश्यकता है | उदहारण के तौर पर क्या कोई अध्यापक या प्रोफेसर ऐसा पेपर सेट करने की हिम्मत रखता है कि स्टूडेंट्स को पुस्तकें खोलने की और इंटरनेट खोलने की खुली छूट हो लेकिन पेपर सोल्व करते करते छात्रों की समझ और रचनात्मकता की पूरी टेस्टिंग और इवैलुएशन हो जाये | छात्रों ने क्या सॉल्व किया सिर्फ इसी बात के नंबर ना हों उन्होंने कैसे इसे सॉल्व किया इसपर भी उनकी मार्किंग हो |
हमारे देश में जनसँख्या को हरदम समस्या मान कर छाती नहीं पीटनी चाहिए हरेक व्यक्ति के पास दो हाथ और एक दिमाग है जिसका उपयोग राष्ट्र का भविष्य बनाने में किया जा सकता है | हमें इनोवेशन कल्चर पर फोकस करना चाहिए और इसके बारे में बात करनी चाहिए और ऐसे अविष्कारक जो अपने आविष्कार को रोजगार में बदलने में कामयाब हुए हैं उन्हें सबजगह आमंत्रित करना चाहिए और विधायर्थियों के साथ उन्हें बैठने और सीखने के मौके बार बार देने चाहिए |