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Thursday, 17 June 2021

काला धन पीने की मशीनों के कलपुर्जे

कालाधन भारत की ज्वलंत समस्या है जिसके बारे में हरेक भारतीय बात शुरू तो बड़े उत्साह जे साथ करता है लेकिन जल्द ही वो बुझ जाता है क्योंकि उसे पता है कि कुछ होना जाना नही है।

कुछ वर्ष पहले कालाधन वापसी जे नाम पर देश मे एक बड़ा आंदोलन हुआ और एक जुमला चलाया गया कि सभी भारतीयों को पंद्रह पंद्रह लाख रुपये मिल सकते हैं। 

लोगों ने भी बस किसी एक उम्मीद में बड़ा फैंसला ले लिया और किसी के हाथ कुछ खास लगा नही है और कोई काला धन देश ।के वापिस आया नही है।

आखिर जस देश के लोगों को हुआ क्या है? 

कुछ सुधार क्यों नही होता है?

एक दशक से भी पुरानी बात है मैं एक दफ्तर में काम किया करता था और वहां बहुत सारे डिवीजन हुआ करते थे सभी डिवीजन के डिविजनल हेड आंतरिक प्रोमोशन से आगे बढ़ कर अपने अपने विभागों को लीड किया करते थे।

लेकिन एक डिवीजन ऐसा था जहां प्रथा कुछ अलग थी वहां डेपुटेशन पर विभागाध्यक्ष लाने का डिज़ाइन था और इस डिवीजन का नाम था कंस्ट्रक्शन। एक मोटे लाला जी इसके हेड थे और हमेशा स्माइलिंग चेहरा और बड़ी तेज चाल से वो चला करते थे उनके चेहरे के हावभाव भी सीमेंट की तरह फिक्स रहते थे।

मतलब नमस्ते लेने से पहले और नमस्ते लेने के बाद भी कोई ख़ास बदलाव मैंने कभी देखा नही। सभी जानते थे कि पूरे विभाग में जबरदस्त गर्मी का माहौल रहता था। लोगों का आना जाना और देर शाम तक चलने वाली मीटिंग्स।

हम लोग काल्पनिक बातों के साथ वहां आने जाने वाले लोगों की शक्लें देख कर कहानियां बना लिया करते थे और बस फिर कभी लंच में और आगे पीछे वो कहानियां डिसकस करके अपना मनोरंजन किया करते थे।

एक दिन लंच खत्म ही हुआ था और मैं धूप सेकने के लिए दफ्तर वाली गैलरी को क्रॉस करके छज्जे की ओर गया हुआ था। हमारे दफ्तर में एक बड़ा सा स्लान्टिंग छज्जा था जहां पचास सौ आदमी भी खड़े ही जाएं तो फिर भी जगह बच जाए।

वहां अक्सर लोग खड़े होकर अपना मूड फ्रेश कर लिया करते थे मैं तो अक्सर कोई बड़ी नोटिंग बनाने से पहले वहीं खड़े होकर ऑक्सीजन पिया करता था और फिर प्रोपोज़ल लिखने में जुटा करता था।

मैं वहां खड़ा ही था कि मोटे लाला जी आये और मुझे कहा हट जा हट जा और दीवार पर चढ़े और सीधे दूसरे फ्लोर से पहले फ्लोर के छज्जे पर कूद गए। जब तक मैं नीचे झांकता तो वो पहले फ्लोर से कूद कर ग्राउंड फ्लोर और फिर ग्रिल वाली दीवार कूद कर परिसर से बाहर मुख्य सड़क पर आ गए और एक बाइक वाले से लिफ्ट लेकर आगे निकल गए।

सब कुछ सेकेंडों के हिसाब से हुआ और उनके पीछे पीछे दौड़ते हुए उनकी ब्रांच के एक दो लोग भी आये लेकिन तब तक वो आंखों से ओझल हो चुके थे और मैं भयंकर शॉक में था के एक टोटली अनफिट आदमी इतनी बड़ी कला भी दिखा सकता है।

जैसे ही मैं अपनी सीट पर जाने के लिए अंदर पहुंचा तो वहां शोर मचा हुआ था कि विजिलेंस वालों का छापा पड़ा है और लाला जी को इण्टरकॉम पर फ़ोन आ गया था कि विजिलेंस वाले गलती से एक फ्लोर आगे पीछे हो गये और गलत केबिन में घुस गए इतनी देर में वो सही जगह पहुंचते और इण्टरकॉम पर बात सही जगह पहुंच गई और सब्जेक्ट को यह पता था कि हाथ मे नही आने के लिए तूने कौन सा रुट अख्तियार करना है।

बस सेकंडों के हिसाब से लाला जी तो निकल गए और पीछे रह गयी बातें जब वो विजिलेंस वाले आये तो वो भी माथा पीट रहे थे क्योंकि उन्होंने ऊपर से नीचे के रास्ते हर जगह आदमी खड़े किए हुए थे बस एक वही जगह ऐसी थी जहां उन्होंने कोई बंदोबस्त नही किया था।

खैर वो वापिस चले गये और दफ्तर के लोग मेरे से पूछ रहे थे  क्योंकि सिर्फ दो तीन लोग ही थे जिन्होंने यह करिश्मा अपनी आंखों से होते हुए देखा था। 

मैं दिन भर यह सोचता रहा कि यदि लाला जी पकड़े जाते तो उनकी नौकरी में गधे हांड जाते और लेकिन वो कितने दिन और भागेंगे। मुझे मेरे विभाग के अनुभवी अधिकारियों ने बताया कि रंगे हाथ न द स्पॉट पकड़े जाने की बात अलग होती है। शायद कुछ न हो।

अगले दिन ही सुबह 11 बजे एक ऐसी खबर आई जिसने मुझे अंदर तक से हिला दिया। वो खबर यह थी कि अगले दिन सुबह ही लाला जी ने गुड़गांव में किसी सरकारी प्रोजेक्ट जो हज़ारों करोड़ कीमत का था में बतौर विभागाध्यक्ष जॉइन कर लिया है।

मुझे फिर अनुभवी लोगों ने बताया कि ऐसे बहादुर लोग पॉलिटिशियन्स  की पहली पसंद होते है। इन्हें कमाऊ पूत कहकर ढोल ढक कर रखे जाते हैं।

कालेधन की मशीन के सभी पुर्जे ऐसे ही होते हैं।

Tuesday, 15 June 2021

आईडिया से एंटरप्राइज ब्लॉग

 विचार से रोजगार

भूमिका 

नमस्कार साथियों, 

हमारे देश में विचार को रोजगार में बदलने का ईको सिस्टम थोड़ा कमजोर है , हमारे यहाँ लोग क्या कहेंगे और अनजान चार लोगो का इतना भी व्यापत है कि स्कूल में टॉप फाइव या टॉप टेन में जगह बनाने की जुगत में हम अपनी पूरी क्रिएटिविटी और पोटेंशिअल का नास कर बैठते हैं | 

उसके बाद कॉलेज फिर कैरियर , कहीं नौकरी में अटक गये तो ठीक अन्यथा प्राइवेट नौकरी के प्रेशर और जिन्दगी में झंझट ही झंझट | अपने मन में उठ रहे विचारों पर गौर करने और उन्हें जांचने परखने का अवसर ही नही मिलता है | 

बागी प्रवृति 

जो बालक बचपन से बागी हो जाते हैं और अपने विचारों के साथ प्रयोग करना शुरू कर देते हैं और उनके पर किसी मेंटर का सीधा हाथ या अप्रत्यक्ष सपोर्ट होती है वो बालक अपने जीवन में ज्यादा आत्मविश्वास के साथ अपने विचारों के साथ प्रयोग कर लेते हैं | हमारा स्कूलिंग सिस्टम केवल और केवल रट्टू तोते बालकों को आगे बढाता है और आगे चलकर यही अव्यवाहरिक रट्टू तोते देश समाज की बागडोर अपने हाथ में लेकर संस्थानों पर काबिज हो जाते हैं और इसी व्यवस्था के पोषण में लगे रहते हैं | जो बच्चे सवाल पूछते हैं और जिनके मन में क्युरोसिटी के कीड़े कुलबुलाते हैं उन्हें हमारी मौजूदा स्कूली और समाजिक व्यवस्था अपनी कमियों को ढकने के लिए बागी करार देकर उन्हें अपने सांचे में ढालने का प्रयास जारी रखती है | 

समस्या और समाधान

जीवन में हरेक जगह समस्याएं पैदा होती रहती हैं कहीं तकनीकी समस्याएं होती हैं और कहीं पर समाजिक मसले होते हैं और कहीं पर आर्थिक , व्यावसायिक और कहीं पर निजी समस्याएँ होती हैं | जानकार लोग अपने अनुभव से बताते हैं कि समस्या में ही समाधान निहित होता है | उसे खोजने के लिए एक क्रिएटिव आई की आवश्यकता पडती है और यह क्रिएटिव आई समय के साथ परिपक्व होती है और एक अच्छी बात यह है कि इसे किसी भी व्यक्ति में उसके मातापिता . अध्यापक , सीनियर मित्र या मेंटर के द्वारा विकसित किया जा जा सकता है |

थॉमस अल्वा एडिसन जो विश्व के महान  वैज्ञानिक  हुए हैं और जिन्होंने एक हज़ार से अधिक अविष्कारों के पेटेंट्स प्राप्त किये और उनके किये हुए आविष्कारों में हम आज भी कुछ को अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते  हैं | जैसे बल्ब और साउंड रिकॉर्डिंग सिस्टम आदि | 

बचपन में एडिसन को जब स्कूल में पढने के लिए भेजा गया तो वे अच्छे से सुन नही पाते थे और उनकी सीखने की दर दुसरे बच्चों की अपेक्षा थोड़ी सी कम थी और इसीलिए उसके अध्यापक उसकी परफॉरमेंस से खुश नही थे और एक दिन एडिसन के स्कूल से  स्कूल डायरी में एडिसन की माता जी के नाम एक नोट आया जिसमें यह लिखा था कि आपका बेटा महामूर्ख है इसे स्कूल से निकाल लें | 

एडिसन की माता जी ने उसे स्कूल से निकाल लिया और उसे घर पर ही पढ़ाने का मन बनाया, लेकिन उसने उसे सीधे कलम दवात और किताबे नहीं दी | उसने खेल खेल में उसे अक्षर ज्ञान करना शुरू किया और बस एक एक कदम बढ़ते बढ़ते एड़िसन में सीखने के प्रति एक ललक जाग गयी और जब एडिसन 13 वर्ष का था तो वो एक अखबार छाप कर बेचने लगा  और फिर जीवन में बढ़ते बढ़ते एक समय ऐसा भी आया जब एडिसन के किये हुए आविष्कार  औद्योगिक उत्पादन का हिस्सा बने और एडिसन ने अपने विचारों से लाखों रोजगार के अवसर पैदा किये और दुनिया को बदला | 

हमारे देश में  हालत 

हमारे देश में एक उपभोक्ता संस्कृति विकसित करने के लिए एजुकेशन सिस्टम को विशेष रूप से कण्ट्रोल किया हुआ है | हमारे यहाँ पी.एच.डी. किया हुआ व्यक्ति घमंड में इतना टूटा हुआ होता है कि उसको अपने लिए बस एक नौकरी की दरकार होती है | पहले तो वो सिस्टम में टॉप लेवल पर घुसने की जुगत करता है यदि कामयाब हो जाए तो ठीक अन्यथा वो मिडल मैनेजमेंट से क्लर्क तक कहीं भी एक बार अटकने को तैयार हो जाता है | 

हमारे देश में जितने भी कारोबार चल रहे हैं या तो वो सर्विस इंडस्ट्री  पर आधारित हैं या फिर वो किसी ट्रेडिंग चैनल का हिस्सा है जो बहार से इम्पोर्ट करके देश में डिस्ट्रीब्यूट करने की चेन की कोई कड़ी हैं | इसके अलावा बचता है खेती वहां भी एग्री इनपुट   के नाम पर विदेशी कंपनियों का  ही कब्जा है | 

कुल मिलाकर बात यह है कि देश में आज से बीस साल पहले गली गली के कोने कोने पर रिपेयर की दुकाने हुआ करती थी जहाँ एक एक पुर्जे को रिपेयर करके वापिस इस्तेमाल में लाये जाने का बंदोबस्त होता था | आज बीएस रिप्लेस का जमाना है कोई भी थोड़ी से ट्रेनिंग के बाद पुर्जे रिप्लेस करके मिस्त्री या उस्ताद  जी का पद प्राप्त कर लेता है | 

फर्क क्या पड़ता है ?

सवाल यह उठता है कि गली गली में पनप रही रिप्लेस और रिपेयर की संस्कृति से फर्क क्या पड़ता है ? जब तक देश में पुर्जों की रिपेयर करने का कल्चर था तो इनोवेशन होने के चांस बहुत ज्यादा होते थे क्यूंकि रिपेयर करने के लिए बहुत सारी  स्किल्स  को सीखना पड़ता है और फिर अपना दिमाग यूज करके अनरिलेटेड वस्तुओं के बीच में समबन्ध खोज कर उन्हें काम में लाया जाता है | रिप्लेस संस्कृति में बस उपभोक्ता को जल्दी से फारिग करके उससे पैसे लेने का विचार केंद्र में रहता है | रिपेयर करने वाला व्यक्ति ग्राहक के पैसे बचाने के भाव से काम करता है | 

विचार से आविष्कार 

हनी बी नेटवर्क के प्रणेता प्रोफ़ेसर  अनिल गुप्ता जी कहते हैं कि केवल संवेदी व्यक्ति ही आविष्कार कर सकता है | क्यूंकि संवेदी व्यक्ति संवेदना रखता है और संवेदना के मूल में सम + वेदना होता है | प्रोफेसर गुप्ता कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की तकलीफ , दिक्कत , परेशानी को अपना समझ कर महसूस करता है तो तभी वो उसके समाधान के लिए प्रयास करता है | 

समाधान एक बार समझ में आ जाने पर उसे प्रोटोटाइप तक ले जाने की प्रक्रिया भी बेहद रोचक होती है और इसे अनाड़ी  व्यक्ति  तो बिलकुल भी अंजाम तक नहीं पौंछा सकता है | इसके अनुभव मेंटर , पीयर ग्रुप की आवश्यकता होती है जिसकी सोहबत से व्यक्ति एक पॉजिटिव माहौल में अपने विचारों में सुधार लाते लाते कम खर्चे में प्रोटोटाइप विकसित कर लेता है | 

आविष्कार से रोजगार 

आविष्कार कर लेना  भी कोई मुश्किल काम नहीं है ज्यादातर संवेदी मनुष्य दूसरों की दुःख तकलीफ को आसान करने के लिए आविष्कार कर ही देता है  लेकिन उस आविष्कार को यदि एक एंटरप्राइज में बदलना हो तो हमें निम्नलिखित गुणों की आवश्कयकता पड़ती है :
  1. डिज़ाइन और टेक्नोलॉजी को लॉक करके उसमें सुधार की गुंजाईश को इग्नोर करके उसके कमर्शिअल उत्पादन की तैयारी करना | 
  2. हमने हनी बी नेटवर्क में आविष्कारकों के साथ काम करके यह अनुभव लिया है कि आविष्कारक अपने उत्पाद से कभी भी संतुष्ट नहीं होता है वो हमेशा उसे बेहतर से बेहतरीन बनाने के प्रयास में लगा रहता है और फिर उसका ध्यान उसकी कमर्शियल वायबिलिटी से हट जाता है और प्रोडक्ट मार्किट में उतर नहीं पाता है | 
  3. आविष्कारक के पास अपने प्रोडक्ट के उत्पादन और उसे बेचने के लिए एक स्ट्रेटेजी होनी चाहिए और हर हाल में उसका कैश फ्लो बना रहे इसके लिए उसके पास एक नीति होनी चाहिए |  अक्सर मैंने यह देखा है कि या तो सारा जोर उत्पादन पर लग जाता है और प्रोडक्ट मार्किट में बेचने के लिए जो ऊर्जा और उत्साह की आवश्यकता होती है वो ना मिलपाने के कारण प्रोडक्ट फेल हो जाता है | 
  4. आविष्कारक को एक अच्छा ह्यूमन रिसोर्स मैनेजर भी होना चाहिए क्यूंकि उसे हरदम हरेक स्टेज पर विभिन्न गुणों वाले मानव संसाधनों की आवश्यकता पड़ती रहती है | 
  5. सोशल मीडिया में मौजूदगी और सक्रियता भी एक बेहद जरूरी गुण है जिसके उपयोग से आविष्कारक समाज में फैले अपने अपने ग्राहकों से जुड़ा रहता है | 
  6. इन्नोवेटर के पास एक फर्म , या कम्पनी भी होनी चाहिए जो बैंकिंग व्यवस्था और टैक्स प्रणाली से जुडी हो और इन्नोवेटर को अपना उत्पाद ग्राहक तक भेजने में सबल बनाये | 
  7. इन्नोवेटर के आस पास सहयोगी इंडस्ट्रीज कितनी हैं और कितनी दूर हैं इसका भी बहुत फर्क पड़ता है जैसे प्रिंटर, पैकर्स, ट्रांसपोर्ट,  स्पेयर पार्ट्स वाले, मिस्त्री , चार्टेड अकॉउंटेंट ,और अन्य प्रोफेशनल्स आदि सब आस पास यदि पंद्रह बीस किलोमीटर में हों तो इसका बड़ा फर्क और असर पड़ता है | 

उपसंहार 

विचार से आविष्कार और फिर रोजगार तक के ईकोसिस्टम को हमारे देश में गली गली तक इंटीग्रेट करके एक कार्यसंस्कृति का रूप देने की आवश्यकता है | पढ़ाई लिखाई के सिलेबस और स्कूल कालेजों से लेकर विश्वविधालय तक के महौल में हरेक स्टेप पर रचनातकमकता को लाने की आवश्यकता है | उदहारण के तौर पर क्या कोई अध्यापक या प्रोफेसर ऐसा पेपर सेट करने की हिम्मत रखता है कि स्टूडेंट्स को पुस्तकें खोलने की और इंटरनेट खोलने की खुली छूट हो लेकिन पेपर सोल्व करते करते छात्रों की समझ और रचनात्मकता की पूरी टेस्टिंग और इवैलुएशन हो जाये | छात्रों ने क्या सॉल्व किया सिर्फ इसी बात के नंबर ना हों उन्होंने कैसे इसे सॉल्व किया इसपर भी उनकी मार्किंग हो | 

हमारे देश में जनसँख्या को हरदम समस्या मान कर छाती नहीं पीटनी चाहिए हरेक व्यक्ति के पास दो हाथ और एक दिमाग है जिसका उपयोग राष्ट्र का भविष्य बनाने में किया जा सकता है | हमें इनोवेशन कल्चर पर फोकस करना चाहिए और इसके बारे में बात करनी चाहिए और ऐसे अविष्कारक जो  अपने आविष्कार को रोजगार में बदलने में कामयाब हुए हैं उन्हें सबजगह आमंत्रित करना चाहिए और विधायर्थियों के साथ उन्हें बैठने और सीखने के मौके बार बार देने चाहिए | 


Sunday, 16 April 2017

कम्युनिटी सपोर्टेड एग्रीकल्चर सहभागिता की एक नयी उड़ान

साथियों पोषण और चिकित्सा विज्ञान हमें अपनी रौशनी में नित नये नये राज लगभग पिछली दो सदियों से लगातार बताते आ रहा है , लेकिन हमारी सेहत निरंतर गिरती जा रही है | फ़ूड टेक्नोलॉजिस्ट होने के नाते मेरे अंदर से आवाज आती है के अपने साथियों और मिलने जुलने वालों वालों को इस मुद्दे पर गहनता से विचार करने में मदद करूँ आखिर हम अपने जीवन के समस्त क्रियाकलाप करते किस लिए हैं : शांति से रोटी खाने के लिए और चैन से सोने के लिए | व्यवस्था  ने  हमारे और किसान के बीच में एक अपारदर्शी काले घने अंधेरों से युक्त  एक प्रणाली विकसित कर दी है जिसे हम बाज़ार कहते हैं | ये रंग बिरंगे खाने के बाज़ार असल में हमारे और किसान दोनों के बीच में अज्ञानता और कन्फ्यूजन की खाई को चौड़ा करते जा रहे हैं | नतीजा किसान भी मर रहा है और लोग भी मर रहे हैं |

उदहारण के तौर पर हम अपने हर रोज के भोज्य पदार्थों को ही लें जैसे :
1) दूध  2 ) आटा  3) सब्जियां 4 ) फल

दूध जो ये थैलियों वाला हम पीते हैं असल में ये दूध है ही नहीं यह रिकोंसटीटयूटीड स्टैण्डर्डडाईज्ड मिल्क होता है जिसे इम्पोर्ट किये गए पाउडर और बटरआयल  को पानी में मिला कर तैयार किया जाता है इसमें शगुन के तौर पर फ्रेश मिल्क भी मिलाया जाता है और फिर थैलियों में भर कर हमें दे दिया जाता है |  मेरी समझ में यह नहीं आता कि जब हमारा मुल्क 1947 में आजाद हुआ था तो हमारी जनसँख्या 30 करोड़ थी और पशुधन 43 करोड़ था आज हमारी जनसँख्या 125 करोड़ है और हमारा पशुधन 13 करोड़ फिर हम दुग्ध उत्पादन में नंबर 1 कैसे हो सकते हैं |  ये रिकोंसटीटयूटीड स्टैण्डर्डडाईज्ड मिल्क ही फ्रेश मिल्क की कीमतों को कण्ट्रोल किये हुए है | देसी गाय का दूध जैसा कोई अमृत पदार्थ इस जगत में दूसरा नहीं है | यह कोई बहस का मुद्दा ही नहीं है इस बात को भारत का जन अच्छे से जानता है | आज हजारों लाखो रुपये प्रतिमाह कमाने वाले लोग भी अपने खाने के सामान को खरीदने के लिए मार्किट जाते हैं और वहां पर इंडस्ट्रियल एग्रीकल्चर से पैदा किया हुआ जेहर बुझा समान उठा कर ले आते हैं |

मशरूम जिसका एक पैकेट लगभग 30 रुपये का मिलता है , जिस किसान के पास कम्पोस्ट को पास्छुराइज करने की सुविधा नहीं है वो अपना समय बचाने के लिए कम्पोस्ट में फ्यूराडान मिला देता है जोकि एक बहुत खतरनाक किस्म का जेहर है |मशरूम उस जेहर को अपने अंदर सोख लेती है और जहर सीधे आपकी प्लेट में आ जाता है | अब भाई बाज़ार से मशरूम लाओगे तो यह रिस्क बना ही रहेगा हमेशा | आओ बात करें गोभी की , ऑफ सीज़न गोभी चालीस से पचास रुपये किलो बिकने लगती है |  प्रकृति ऑफ सीज़न गोभी को नष्ट करने के लिए कीड़े भेज देती है | बजार से पैसा मिलने की उम्मीद में किसान "कोराजन" नमक जहर गोभी पर स्प्रे करना शुरू कर देता है और किसी तरह से फसल बचा कर मंडी में ला कर दे देता है | किसान को बहुत अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं और सबसे बड़ी बात उसकी सेहत सबसे पहले रिस्क में आती है | आपकी और हमारी सेहत की चिंता करने का फर्ज़ किसान का नहीं बनता क्यूंकि हमने कभी भी किसान की चिंता नहीं की | हम बाज़ार पर ज्यादा विश्वास करने लग गये और हमारे किसान देवता हमारे प्यार को तरसते हुए सूखने लग गए |

आज बाज़ार ने हर एक जगह हमारा तेल निकालने का  कोल्हू फिट किया हुआ | आप क्या समझते हैं चीनी खाने से शुगर   की बिमारी होती है जी नहीं रासयनिक दवाओं से लदी सब्जियां खा  खा कर हमारे शरीर के अंदरूनी अंग काम करना छोड़ जाते हैं और नतीजा शुगर कैंसर और पता नहीं क्या क्या |

हम में से जो जो बाज़ार से थैली का आटा ले कर आ रहे हैं वो चाहे कोई मोड्डा बनाओ चाहे कोई देसी या विदेशी लाला उसमें चोकर छोड़ने का ही नहीं | दोस्तों निरी गेहूं खा खा के भी हमारा नास वैसे ही हो लिया है | आटे में बहुत दिमाग लगाने की आवश्यकता है |

अब बात आती है के करें क्या , इसके लिए अपने आस पास लोगों से बातचीत करें और लाइक माइंडेड लोग ढूंढें और अपने शहर के आसपास खेती करने वाले किसानो से मिलें और उनसे बातचीत करके दोस्ती बढ़ाएं | फिर उन्हें सपरिवार या तो अपने घर बुलाएं या सपरिवार उनके घर जायें और उनसे बैठ कर दूध , घी आटे और सब्जियों के उत्पादन पर बात चीत करें | आपने स्कूल कोलेज में इक्नोमिक्स और कॉमर्स का ज्ञान प्राप्त किया है उसका प्रयोग करके किसान के लिए एक बिजनेस मॉडल बना कर दें | ध्यान रखें किसान के लिए तो ये सिर्फ बिजनेस मॉडल हो सकता है लेकिन यह आपके लिए और आपके बच्चों के लिए जीवन रेखा है | यदि आपको अपने परिवार के साथ बिताने के लिये दस साल और मिल जाते हैं तो बताइए आप कितने पैसे खर्च करना चाहेंगे|

किसानो को फलदार वृक्ष लगाने के लिए भी प्रोत्साहित कीजिये | इन्टरनेट के इस्तेमाल से किसान साथी का ज्ञान बढाने का भी प्रयास कीजिये | मैं पिछले 1 वर्ष से किसानों को कम्पनियों के तौर पर संगठित करने में जुटा हूँ अब समय आ गया है कि किसान कम्पनियों के साथ साथ उपभोक्ता भी एक मंच पर संगठित हों और किसान और उपभोक्ता मिलकर अपना अलग सिस्टम विकसित करें बाज़ार से हट कर |

मेरा मोबाइल नंबर 9992220655 है यदि इस विषय पर कोई साथी मुझ से चर्चा करना चाहता हो तो बातचीत के लिए स्वागत है |

सोशल मीडिया और देश निर्माण में आम आदमी की भूमिका

साथियों आजकल लगभग हर कोई  व्यक्ति सोशल मीडिया के बारे में एक हल्की राय रखता है , मैं भी कई बार् कुछ लोगों की पोस्ट देख कर झुंझला उठता हूँ और कह बैठता हूँ के फेसबुक से किनारा कर लेना ही बेहतर है | दोस्तों समय की गति का फल है कि आज हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ एक पल में हजारों पलों को जीने का मज़ा ले पा रहे हैं | सूचनाएँ एक पल में कहीं से कहीं पहुँच रही हैं | ऐसे में प्रकृति से प्रेम करने करने वाले और परमात्मा की मौज में रहने वाले नागरिकों के पास स्वर्णिम अवसर है के वो अपने मन की रौशनी से इस देश के माहौल को जागृत करें , इसकेलिए उन्ह सबसे पहले अपने मन के खिड़की दरवाजे खोलने पड़ेंगे | हमारे चारों  और जो भी अच्छा घटित हो रहा है उसे अभिलेखित करके फोटो सहित एक दुसरे से शेयर करके हम खुशियों और ऊर्जा को एक दुसरे से बाँट सकते हैं | मैंने यह महसूस किया है कि बांटने से ऊर्जा बढ़ जाती है | मुझे ऐसा लगता है कि समय की गतिशीलता से मिले इस अनुपुम उपहार (सोशल मीडिया ) के जरिये हम एक दुसरे से जुड़ कर थोड़े थोड़े रंग आपस में बांट कर एक दुसरे के जीवन में रंग भर देंगे | सभी भस्मासुर और समाज का नाश करने वाले या तो सूख जायेंगे या फिर समय के फेर में आगे बढ़ जायेंगे | मैं लगातार परमात्मा की बनाई इस दुनिया में से जो कुछ मुझे अच्छा और प्यारा मिलेगा उसकी जानकारी  आपके साथ अवश्य साँझा करूँगा | आपकी बतायी हुई जानकारियों का भी मुझे बेसब्री से इंतज़ार है |

Thursday, 13 April 2017

गरीबी के थपेड़े खाते हुए भी निस्सहायों की मदद कर मणिमारन ने कायम की अनोखी मिसाल

समाज-सेवा का संकल्प

आम तौर पर कई लोगों में ये धारणा बनी हुई है कि समाज-सेवा के लिए खूब धन-दौलत की जरुरत होती है। जिनके पास रुपये हैं वे ही जरूरतमंद लोगों की मदद कर समाज-सेवा कर सकते हैं। लेकिन, इस धारणा को तोड़ा है तमिलनाडू के एक नौजवान ने। इस नौजवान का नाम मणिमारन है।

मणिमारन का जन्म तमिलनाडू में तिरुवन्नामलई जिले के थलयमपल्लम गाँव के एक किसान परिवार में हुआ। परिवार गरीब था - इतना गरीब कि उसकी गिनती गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों में होती थी। गरीबी के बावजूद घर के बड़ों ने मणिमारन को स्कूल भेजा। पिता चाहते थे कि मणिमारन खूब पढ़े और अच्छी नौकरी पर लगे। लेकिन, आगे चलकर हालात इतने खराब हो गए कि मणिमारन को बीच में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। गरीबी की वजह से मणिमारन ने नवीं कक्षा में पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और घर-परिवार चलाने में बड़ों की मदद में जुट गए। मणिमारन ने भी उसी कपड़ा मिल में नौकरी करनी शुरू की जहाँ उनके भाई नौकरी करते थे। मणिमारन को शुरूआत में एक हजार रुपये प्रति माह की तनख्वा पर काम दिया गया। मणिमारन ने अपनी मासिक कमाई का आधा हिस्सा अपने पिता को देना शुरू किया। उन्होंने आधा हिस्सा यानी 500 रुपये जरूरतमंद लोगों की मदद में लगाया।


बचपन से ही मणिमारन को जरूरतमंद और निस्सहाय लोगों की मदद करने में दिलचस्पी थी। मणिमारन का परिवार गरीब था और परिवारवालों के लिए 500 रुपये काफी मायने रखते थे। लेकिन, मणिमारन पर जरूरतमंदों की मदद करने का जूनून सवार था। मणिमारन 500 रुपये अपने लिए भी खर्च कर सकते थे। नए कपड़े, जूते और दूसरे सामान जो बच्चे अक्सर अपने लिए चाहते हैं वो सभी खरीद सकते थे। लेकिन, मणिमारन के विचार कुछ अलग ही थे। छोटी-सी उम्र में वे थोड़े से ही काम चलाना जान गए थे और उनकी मदद बेताब थे जिनके पास कुछ भी नहीं है।

अपनी मेहनत की कमाई के 500 रुपये से मणिमारन ने सड़कों, गलियों , मंदिरों और दूसरी जगहों पर निस्सहाय पड़े रहने वाले लोगों की मदद करना शुरू किया। मणिमारन ने इन लोगों में कम्बल, कपड़े और दूसरे जरूरी सामान बांटे । मणिमारन ने कई दिनों ऐसे ही अपनी कमाई की आधा हिस्सा जरूरतमंद लोगों में लगाया। गरीबी के उन हालातों में शायद ही कोई ऐसा करता। परिवारवालों ने भी मणिमारन को अपनी इच्छा के मुताबिक काम करने से नहीं रोक। मणिमारन ने ठान ली थी कि वो अपनी जिंदगी किसी अच्छे मकसद के लिए समर्पित करेंगे।

इसी दौरान एक घटना ने मणिमारन के जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल दी। एक बार मणिमारन कोयंबटूर से तिरुपुर जा रहे थे। वह यह सफर बस से कर रहे थे। बस में कुछ खराबी आने की वजह से उसे ठीक करने के लिए उसे बीच रास्ते में ही रोका गया। बस में बैठे मणिमारन ने देखा कि एक बूढ़ी महिला, जो कि कुष्ठ रोग से पीड़ित थी, लोगों से पीने के लिए पानी मांग रही थी। उसके हाव-भाव से साफ था कि वो प्यासी है। लेकिन, इस प्यासी बुढ़िया की किसी ने मदद नहीं की। उलटे, लोग बुढ़िया को दूर भगाने लगे। कोई उसे सुनने को भी तैयार नहीं था। इतने में ही मणिमारन ने देखा कि वो बुढ़िया अपनी प्यास बुझाने के लिए एक नाले के पास गयी और वहीं से गन्दा पानी उठाने लगी। ये देख कर मणिमारन उस बुढ़िया के पास दौड़ा और उसे गंदा पानी पीने से रोका।

मणिमारन ने जब ये देखा कि बुढ़िया की शारीरिक हालत भी काफी खराब है और कुष्ठ रोग की वजह से उसके शरीर पर कई जख्म हैं तो उसका दिल पसीज गया। उसने उस बूढ़ी महिला का मुँह साफ किया और उसे साफ पानी पिलाया। इस मदद से खुश उस महिला ने मणिमारन को अपने गले लगा लिया और गुजारिश की कि वो उसे अपने साथ ले चले। मणिमारन उस महिला को अपने साथ ले जाना चाहते थे लेकिन उस समय वो ले जाने की हालत में नहीं थे। इस वजह से मणिमारन ने एक ऑटो ड्राइवर को 300 रूपए दिये और उससे दो दिन तक महिला की देखभाल करने को कहा। मणिमारन ने उस महिला को भरोसा दिलाया वो तीसरे दिन आकर उन्हें अपने साथ ले जाएगा। मणिमारन जब उस महिला को लेने उसी जगह पहुंचे तो वो वहां नहीं थी। मणिमारन ने महिला की तलाश शुरू की, लेकिन वो कई कोशिशों के बावजूद उसे नहीं मिली। मणिमारन बहुत निराश हुए।
यहीं से उनके जीवन की दिशा बदली। मणिमारन ने एक बड़ा फैसला लिया। उन्होंने फैसला लिया कि वे कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने का । फिर क्या था अपने संकल्प के मुताबिक मणिमारन ने कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की मदद करना शुरू किया। जहाँ कहीं उन्हें कुष्ठ रोग से पीड़ित लोग निस्सहाय स्थिति में दिखाई देते वे उन्हें अपने यहाँ लाकर उनकी मदद करते। मणिमारन ने इन लोगों का इलाज भी करवाना शुरू किया।

उन दिनों लोग कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को बहुत ही हीन भावना से देखते थे। कुष्ठ रोग से पीड़ित होते ही व्यक्ति को घर से बाहर निकाल दिया जाता। इतना ही नहीं एक तरह से समाज भी उनका बहिष्कार करता था। कोई भी उनकी मदद या फिर इलाज के लिए आगे नहीं आता था। कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को छूने से भी लोग कतराते थे। अक्सर ऐसे लोग सड़कों या फिर मंदिरों के पास निस्सहाय हालत में भीख मांगते नजर आते। मणिमारन ने ऐसी ही लोगों की मदद का सराहनीय और साहसी काम शुरू किया। मदर टेरेसा और सिस्टर निर्मल का भी मणिमारन के जीवन पर काफी प्रभाव रहा है।

जब भारत के जाने-माने वैज्ञानिक डॉ अब्दुल कलाम को मणिमारन की सेवा के बारे में पता चला तो उन्होंने मणिमारन को एक संस्था खोलने की सलाह दी। इस सलाह को मानते हुए मणिमारन ने अपने कुछ दोस्तों के सहयोग से साल 2009 में वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर की स्थापना की। इस संस्था की सेवाओं के बारे में जब तमिलनाडू सरकार को पता चला तब सरकार की ओर से जरूरमंदों की मदद में सहायक सिद्ध होने के लिए मणिमारन को जगह उपलब्ध कराई गयी।

मणिमारन ने वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर के जरिये जिस तरह से गरीब और जरूरतमंदों की सेवा की उसकी वजह से उनकी ख्याति देश-भर में ही नहीं बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भी होने लगी। उनके काम के बारे में जो भी सुनता वो उनकी प्रसंशा किया बिना नहीं रुकता। अपनी इस अनुपम और बड़ी समाज-सेवा की वजह से मणिमारन को कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा जा चुका है। इस बात में दो राय नहीं हैं कि गरीबी से झूझते हुए भी जिस तरह से मणिमारन ने लोगों की सेवा की है वो अपने आप में गजब की मिसाल है।

अब आप चम्मच, कांटे और चॉपस्टिकस को भी खा सकते हैं

हम कितनी बार कैंटीन या होटल जैसी जगहों पर जाते हैं जहां हमें कई बार खाना खाने के लिए प्लास्टिक की चम्मच मिलती है और हम इन प्लास्टिक की चम्मचों से आराम से खाना भी खा लेते हैं। इस बात से तो हम वाकिफ हैं कि प्लास्टिक हमारी सेहत और पर्यावरण के लिए कितना नुकसानदेह है। भारत में लगभग 120 बिलियन प्लास्टिक कटलरी को इस्तेमाल करके फेंका जाता है। प्यहां तक कि एक छोटे से प्लास्टिक के कप को भी नष्ट होने में 50 वर्ष से अधिक समय लग जाता है। ये एक ऐसा पदार्थ होता है जो कभी खत्म नहीं होता। इसे जलाने पर भी जो गैस निकलती है वो इंसानों और जानवरों दोनों के लिए ही अभिशाप है। लेकिन हमारे देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो स्वेच्छा से पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ के बारे में सोचते हैं और कुछ करते भी हैं। इसी प्रकार जब नारायण पीसापति को प्लास्टिक से होने वाले नुकासन के बारे में पता चला तो उन्होंने खुद के साथ-साथ आम लोगों के लिए भी एक ऐसी चीज़ बनाई जिसका उपयोग हम रोजमर्रा के जीवन में करते हैं।


48 वर्षीय नारायण पीसापति जो Bakey's Food Private Limited के मैनेजिंग डायरेक्टर होने के साथ-साथ इसके संस्थापक भी हैं। आज उन्होंने प्लास्टिक कटलेरी (छुरी, कांटा, चम्मच आदि) के स्थान पर Edible (खाने योग्य) कटलेरी का विकल्प खोज लिया है। 2010 से ही Bakey's खाने योग्य कटलेरी बना रहा है, जिसमें अलग-अलग तरह के चम्मच सहित चॉप स्टिक्स शामिल हैं।


इन खाने योग्य कटलेरी को ज्वार, चावल और गेहूं के मिश्रण से बनाया जाता है। इन चम्मच और चॉप स्टिक्स से आप आसानी से भोजन खा सकते हैं, क्योंकि ये पानी या खाने में रखने से पिघलती नहीं है। ये 10 से 15 मिनट बाद अपने आप नरम पड़ने लगती है। आप अपना भोजन समाप्त करने के बाद इसे खा भी सकते हैं। लेकिन अगर आप ऐसा नहीं करना चाहते तो वो 5 से 6 दिन बाद अपने आप नष्ट हो जाती है। नारायण को इस तरह की कटलेरी बनाने का विचार तब आया था, जब वे अहमदाबाद से हैदराबाद जा रहे थे। फ्लाइट में उन्होंने देखा कि एक यात्री गुजराती खाखरे के एक टुकड़े का इस्तेमाल मिठाई खाने के लिए कर रहा था।
Bakey's edible cutlery ना केवल enviornment-friendly है बल्कि हमारे स्वास्थय के लिए भी अच्छा विकल्प है। पौष्टिक आटों द्वारा बनने के साथ-साथ इन कटलरी में कोई रसायनिक संरक्षक नहीं है और ये कटलरी 100 प्रतिशत प्राकृतिक है। आप इसे प्लास्टिक की चम्मच की तरह ही गर्म चाय, काॅफी या सूप पीने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं


Bakey's Edible Cutlery की विशेषतायें:-
1. आप इसके साथ खाना खा सकते हैं और आप उसके बाद इस चम्मच को खा भी सकते हैं क्योंकि यह चम्मच पौष्टिक ही नहीं, स्वादिष्ट भी है।
2. यदि आप इसे नहीं खाना चाहते तो आप इसे फेंक सकते हैं और 4-5 दिन में यह अपने आप खत्म हो जायेगी।
3. नारायण पीसापति द्वारा बनाई गई कटलरी बिना इस्तेमाल करे 3 साल से ज्यादा रख सकते हैं।
4. उनके द्वारा बनाई गई कटलरी अलग-अलग स्वादों में आती है जैसे - मीठी, अदरक-दालचीनी, अदरक और लहसुन, पुदीना और अदरक, गाजर और चुकन्दर आदि।
5. इन कटलरी की कीमत है 300 रूपये में 100 चम्मच। चाहे वह किसी भी स्वाद की हो, सभी की कीमत 300 रूपये है।
नारायण पीसापति ने केवल एडिबल कटलरी का आविष्कार ही नहीं किया है बल्कि सन् 2016 के मध्य से उनका यह प्रयास भी रहा है कि स्वतः मशीन के विकास से एडिबल कटलरी की उत्पादन क्षमता बढ़े और यह कोशिश भी रही है कि किस प्रकार बड़े आॅर्डरों और कम सप्लाई के बीच का अंतर घट सके। नारायण पीसापति जी योग्यता के अनुसार इंजिनियर नहीं हैं। लेकिन आवश्यकता और अपनी तकनीकी शिक्षा में आनंद लेने से वे एक इंजिनियर बन पाये हैं। उन्हें विज्ञान कथा, जासूसी उपन्यास पढ़ना और अपने विचारों के साथ प्रयोग करना बहुत अच्छा लगता है।
ICRISAT के पूर्व शोधकर्ता नारायण पीसापति पहले एक ऐसे व्यक्ति है जिन्हें एडिबल कटलरी का विचार आया। उन्होंने  BSC(Hons) chemistry में Osmania University से की और MBA-IIFM Bhopal से की है। नारायण पीसापति ने यह कंपनी पर्यावरण की बढ़ती समस्याओं के समाधान के लिए एक अभिनव समाधान करके स्थापित की है।

गजब अविष्कार: घर बैठे मिस कॉल से चलेगा ट्यूबवैल

हरियाणा के सोनीपत जिले के एक छात्र ने अपने किसान पिता की समस्या सुलझाने के लिए गजब का अविष्कार किया है। छात्र ने ऐसी डिवाइस बनाई है जिससे घर बैठे खेत की सिंचाई हो जाएगी। तकनीक के जमाने में हर मुश्किल आसान हो गई है। इसका ताजा उदाहरण सोनीपत के एक गांव में देखा जा सकता है। अपने पिता की समस्या का तकनीकी हल ढूंढ़ निकाला है गांव मुकिमपुर निवासी बीटेक कंप्यूटर साइंस के छात्र नीरज ने।

नीरज ने ऐसी तकनीक ईजाद की है जो खेत में लगे ट्यूबवेल को घर बैठे कंट्रोल करेगी। किसान परिवार में जन्मे नीरज ने एक ऐसा डिवाइस बनाया, जिसके माध्यम से मात्र मोबाइल से मिस कॉल करके खेत में लगे ट्यूबवेल को ऑपरेट किया जा सकेगा। फिलहाल नीरज इस डिवाइस को अपने खेत में लगाकर इसका फायदा उठा रहे हैं। वह इस तकनीक को हर किसान तक पहुंचाना चाहता है।


पिता की परेशानी देख की खोज :
शहर के एक निजी कॉलेज से बीटेक की पढ़ाई कर रहे नीरज बताते हैं कि उनका परिवार गन्नौर की गांधी कालोनी में रह रहा है, जबकि खेती गांव मुकिमपुर में है। पिता अक्सर पानी देने के लिए गन्नौर से जाकर पूरी रात खेत में ही रहते। सर्दी-गर्मी हर मौसम में सिंचाई की यही प्रक्रिया रहती। बिजली गुल होते ही ट्यूबवेल बंद हो जाता, जिसे दोबारा चलाने के लिए वहां रहना जरूरी था। पिता की परेशानी देख मन में ऐसी डिवाइस बनाने की प्रेरणा मिली।

मिस कॉल से ऑपरेट होता है ट्यूबवेल :
इस डिवाइस में एक मोबाइल ट्यूबवेल के साथ लगने वाले डिवाइस में जोड़ा गया है, जिस पर मिस कॉल करने पर ट्यूबवेल चल पड़ता है। वहीं दो बार मिस कॉल देने पर ट्यूबवेल अपने आप बंद भी हो जाता है। इसी तरह बिजली गुल होने पर खेत में लगे डिवाइस से किसान के मोबाइल पर एक और बिजली आने आने पर दो मिस कॉल आएंगी। इसके बाद वापस मिस कॉल करने पर ट्यूबवेल चलेगा व बंद होगा। आने वाले समय में नीरज के इस आइडिया से किसानों की लाइफ काफी बदल सकती है। वहीं उनके लिए सिंचाई काफी आसान होगी।

सबसे सस्ती वॉशिंग मशीन

अगर आप मार्केट में वॉशिंग मशीन खरीदने जाते हैं तो उसकी क्या कीमत आपको चुकानी होगी। हमारे हिसाब से कम से कम 10 से 15 हजार रूपये। लेकिन अगर हम कहें कि सिर्फ 1500 रूपये में आप वॉशिंग मशीन पा सकते हैं तो आप क्या हम क्या कोई भी चैंक जाएगा। मगर अपनी काबिलियत से इंजीनियर पीयूष अग्रवाल ने इसे सच करके दिखाया है..पीयूष ने महज 1500 रूपये में बना दी है एक पोर्टेब वॉशिंग मशीन..और इस वॉशिंग मशीन को नाम दिया है ‘वीनस’ ...

 इस मशीन को इस्तेमाल करना बडा आसान है। एक दस साल का बच्चा भी इसे चला सकता है। विदेश से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद पीयूष ने भारत में टपउइंे नाव्रचना नाम से अपनी कंपनी की शुरुआत की है। श्वीनसश् इस कंपनी का सबसे प्रमुख उत्पाद है। साल 2002 तक पीयूष ने भारत में पुरुष शौचालय में लगे फ्लश सेंसर की मार्केटिंग की लेकिन कुछ खास फायदा नही होने के वजह से ये काम बंद कर दिया इसके बाद पीयूष अग्रवाल ने गुड़गांव की एक कंपनी में बिजनेस कंसलटेंसी के साथ काम किया और बाकी का अपना सारा समय अपनी कंपनी टपउइंे नाव्रचना समर्पित कर दिया। जिसका परिणाम आज सबके सामने है।


कैसे काम करती है ‘वीनस’ वॉशिंग मशीन ?

आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह मशीन काम कैसे करती है। तो सबसे पहले आप ये जान लीजिए यह मशीन आम महंगी वॉशिंग मशीनों की तरह चलती तो बिजली से ही है लेकिन बिजली खपत ना के बराबर होती है। पीयूष अग्रवाल ने बताया है कि इसे इस्तेमाल करने के लिए सबसे पहले बाल्टी में मशीन के माउंड भाग को डालें। फिर पानी और डिटर्जेंट डालकर मशीन चालू करें इसके बाद इसमें 2-4 कपड़े डालकर 5 मिनट तक मशीन चलाए फिर कपड़ों को निकालकर साफ पानी से धोएं।पीयूष का कहना है कि यह मशीन खासकर ग्रामीण महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है। आज से चालीस साल पहले बुल्गारिया में इसी तरह की मशीन का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन वो मशीन काफी भारी होती थी जो एक साथ कई कपड़ों को धोया करती थी। उसी से प्रेरणा लेते हुए पीयूष अग्रवाल ने यह हल्की और छोटी मशीन इजात की है। जो एक बाल्टी में आसानी से इस्तेमाल की जा सकती है।

‘वीनस’ बनाने के पीछे की कहानी
पीयूष अग्रवाल के मुताबिक आठ साल पहले उनकी मां की ब्रेन की सर्जरी हुई थी जिसके बाद उन्हें पैरालिसिस हो गया था। वो हमेशा बिस्तर पर रहती थीं। इस दौरान पीयूष के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी उनकी मां के बिस्तर की चादर और कपड़ों को धोना। वॉशिंग मशीन में कपड़े धोना स्वच्छता के लिहाज से ठीक नही था,और बाथरूम में कपड़े धोने का मतलब यह है कि हर बार बाथरूम को अच्छी तरह साफ करना,जो कभी कभी काफी मुश्किल होता था उसी दौरान पीयूष अग्रवाल के मन में एक ऐसी पोर्टेबल वॉशिंग मशीन बनाने का ख्याल आया जो आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सके,कपड़े भी साफ धोए, साथ ही टाइम और पैसे भी बचाए,उसकी का परिणाम है ‘वीनस’..

‘वीनस’ को बनाने में सिर्फ सात लोग शामिल हैं। पीयूष के अनुसार उनकी कंपनी अभी नई है इसलिए ज्यादा निवेश नही हो पाया। लेकिन उनके ग्रुप में जितने भी लोग हैं वो सब अपने अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ हैं इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। सबकी मिली जुली मेहनत का नतीजा है वीनस।


बनाने में क्या क्या दिक्कतें आईं?

इसे बनाना आसान नहीं था। कई चुनौतियां सामने आई लेकिन कहते है कि अगर आप अपने सपने को साकार करने का मन बना लें तो कुछ भी मुश्किल नहीं रहता।जो लोग अपनी असफलता का जिम्मेदार समय और संसाधनों की कमी को मानते हैं वैसे लोग पीयूष को बिलकुल पसंद नहीं,बल्कि आपके पास जितने भी संसाधना है उन्हीं से अपने काम को पूरा करें। यह भी जान लें कि चुनौतियां ज्यादा समय के लिए आप पर हावी नही हो सकती। अब सबसे बड़ी चुनौती लोगों को यह समझना है कि श्वीनसश् बेहतरीन होने के साथ-साथ इसकी कीमत भी सही है।

सूरजदीन का इंजन देगा कोहरे को मात

कोहरे के कारण अब ट्रेन लेटलतीफी का शिकार नहीं होंगी। इसके साथ ही दुर्घटनाओं का ग्राफ भी शून्य होगा। सुलतानपुर जिले के गुप्तारगंज के सूरजदीन यादव ने एक ऐसा इंजन बनाया है जो भीषण कोहरे में भी सामान्य गति से चलेगा। बड़ी बात यह है कि उनकी इस पूरी तकनीक को लागू करने के लिए रेलवे को मात्र आठ से दस हजार रुपये खर्च करने होंगे।

ऐसे काम करेगा यह इंजन :
किसी भी रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म से 1200 मीटर दूरी पर डिस्टेंस सिग्नल के आते ही इंजन में नीली बत्ती जलने लगेगी और हॉर्न बजना शुरू हो जाएगा। टेªन के होम सिग्नल यानी प्लेटफार्म पर आने से पहले इंजन में लाल व हरी लाइटें जलने लगेंगी। ड्राइवर सचेत हो जाएगा कि उसे प्लेटफार्म पर गाड़ी लेनी है। सूरजदीन का दावा है कि कोहरा होने पर स्टेशन से पहले आने वाले सभी प्रकार के सिग्नल की जानकारी इंजन में लगे उपकरणों के माध्यम से ड्राइवर को मिलती रहेगी। सिग्नल देखने के लिए ड्राइवर को कोहरे में अपना सिर इंजन के बाहर नहीं निकालना पड़ेगा और न ही ट्रेन की गति धीमी करनी पड़ेगी।


घर पर ही बनाया रेलवे ट्रैक :
सूरजदीन यादव इस आधुनिक इंजन को बनाने में 13 वर्ष से अधिक समय से लगे थे। उन्होंने घर में ही पूरा टैªक लोहे के एंगल का जाल बनाकर बिछाया और इंजन का मॉडल बनाकर परीक्षण किया।

डीआरएम को सौंपी सीडी :
सूरजदीन ने इंजन के संचालन से संबंधित सीडी व कुछ दस्तावेज उत्तर रेलवे लखनऊ मंडल के डीआरएम अनिल कुमार लाहोटी को सौंपे हैं। लोहाटी का कहना है कि सूरजदीन के इंजन में मेहनत की गई है। रेलवे के लिहाज से यह कितना सफल होगा इसके लिए फिलहाल संबंधित सीडी व कागजात सीनियर डीएसटी को दिए गए हैं। पूरा प्रयोग देखा जाएगा। सूरजदीन ने अपनी खोज की जानकारी डीवीडी के माध्यम से प्रधानमंत्री व रेलमंत्री को भी भेजी है।

अब मानव रहित फाटक पर ध्यान
सूरजदीन अब ऐसी तकनीक पर काम कर रहे हैं जिससे मानव रहित फाटक से 500 मीटर पहले इंजन में अपने आप हाॅर्न बजने लगेगा। इससे ड्राइवर व मानव रहित पटरी से गुजरने वाले लोग भी सचेत हो जाएंगे। इसी तरह दो स्टेशनों के बीच पटरी टूटने पर दोनों स्टेशनों का पता चल जाएगा।

सिर्फ कक्षा आठ ही पास हैं सूरजदीन यादव :
आर्थिक तंगी के कारण सूरजदीन यादव जी अपनी शैक्षिक योग्यता जारी नहीं कर पाये। उन्होंने बताया कि कक्षा आठ के बाद वह आगे नहीं पढ़े, लेकिन बचपन से ही तकनीकी कार्यों में उनकी रुचि थी। उन्होंने बताया कि खेती से होने वाली थोड़ी बहुत आय का हिस्सा भी वे अपने इसी तकनीकी खोजों पर खर्च करते रहे हैं।

उत्तराखंड के दीपक ने प्लास्टिक कचरे से बनाई एल

उत्तराखंड के डॉ. दीपक पंत ने प्लास्टिक कचरे से एलपीजी बनाने में सफलता प्राप्त की है। इस कामयाबी पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनको आविष्कार अवार्ड-2017 से सम्मानित करेंगे। देहरादून, ख्जेएनएन,रू विश्व पर्यावरण के लिए गंभीर संकट बनते जा रहे प्लास्टिक कचरे को वरदान में बदलने में उत्तराखंड के डॉ. दीपक पंत को कामयाबी मिल चुकी है। उन्होंने प्लास्टिक कचरे से एलपीजी बनाने में सफलता प्राप्त की है। उनकी इस कामयाबी पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनको आविष्कार अवार्ड-2017 से सम्मानित करेंगे। अवार्ड के रूप में एक लाख रुपये व ट्रॉफी प्रदान की जाएगी।

पिथौरागढ़ निवासी व वर्तमान में हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित केंद्रीय विवि में पर्यावरण विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष एवं डीन डॉ. दीपक पंत ने बताया कि प्लास्टिक हमारे दैनिक कार्यकलापों में शामिल हो चुका है। यह वरदान की तरह है, लेकिन कुप्रबंधन और शुरुआती अवस्था में इसके वेस्ट का समुचित उपयोग न होने से यह अभिशाप बन रहा है।

भारत में प्लास्टिक की प्रतिदिन घरेलू खपत 120 ग्राम प्रति व्यक्ति है। जिससे 100 ग्राम एलपीजी तैयार की जा सकती है। डॉ. पंत को विज्ञान एवं पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका के लिए अभी तक 20 से अधिक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। हरित तकनीक से बेकार वस्तुओं को उपयोग पर वह पांच पेटेंट करवा चुके हैं। उनकी 10 किताबें भी प्रकाशित हो चुकी है।

इस तरह से किया आविष्कार:
प्लास्टिक कचरे के डिग्रेशन के लिए आमतौर पर ठोस एसिड उत्प्रेरक विधि का प्रयोग किया जाता है। डॉ. पंत ने आरंभिक प्रयोगों में ठोस एसिड के स्थान पर एलुमिनिया की तरह कुछ अक्रिय मृदा पदार्थ व द्रव एसिड का प्रयोग किया। इसके बाद बेकार प्लास्टिक को 125-130 डिग्री सेल्सियस तापमान पर उबालने पर तेल प्राप्त हुआ। इस प्रक्रिया को फिर से एलपीजी में संशोधित किया गया।