एक अमीर आदमी था। उसने समुद्र मेँ अकेले घूमने के लिए एक नाव बनवाई।छुट्टी
के दिन वह नाव लेकर समुद्र की सैर करने निकला। आधे समुद्र तक पहुंचा ही था
कि अचानकएक जोरदार तूफान आया। उसकी नाव पुरी तरह से तहस-नहस हो गई लेकिन वह
लाईफ जैकेट की मदद से समुद्र मेँ कुद गया। जब तूफान शांत हुआ तब वह तैरता
तैरता एक टापू पर पहुंचा लेकिन वहाँ भी कोई नही था। टापू के चारोँ ओर
समुद्र के अलावा कुछ भी नजर नही आ रहा था। उस आदमी ने सोचा कि जब मैंने
पूरी जिदंगी मेँ किसी का कभी भी बुरा नही किया तो मेरे साथ
ऐसा क्यूँ हुआ..???उस आदमी को लगा कि भगवान ने मौत से बचाया तो आगे का
रास्ता भी भगवान ही बताएगा। धीरे धीरे वह वहाँ पर उगे झाड-पत्ते खाकर दिन
बिताने लगा। अब धीरे-धीरे उसकी श्रध्दा टूटने लगी,भगवान पर से उसका विश्वास
उठ गया। उसको लगा कि इस दुनिया मेँ भगवान है ही नही। फिर उसने सोचा कि अब
पूरी जिंदगी यही इस टापू पर ही बितानीहै तो क्यूँ ना एक झोपडी बना
लूँ……?? फिर उसने झाड की डालियो और पत्तोसे एक छोटी सी झोपडी बनाई। उसने मन
ही मन कहा कि आज से झोपडी मेँ सोने को मिलेगा आज से बाहर नही सोना पडेगा।
रात हुई ही थी कि अचानक मौसम बदला बिजलियाँ जोर जोर से कड़कने लगी.! तभी
अचानक एक बिजली उस झोपडी पर आ गिरी और झोपडी धधकते हुए जलने लगी। यह देखकर
वह आदमी टूट गया आसमान की तरफ देखकर बोला तू भगवान नही, राक्षस है।तुझमे
दया जैसा कुछ है ही नही तू बहुत क्रूर है! वह व्यक्ति हताश होकर सर पर हाथ
रखकर रो रहा था। कि अचानक एक नाव टापू के पास आई। नाव से उतरकर दो आदमी
बाहर आये और बोले कि हम तुम्हेँ बचाने आयेहैं। दूर से इस वीरान टापू मे
जलता हुआ झोपडा देखा तो लगा कि कोई उस टापू पर मुसीबत मेँ है।अगर तुम अपनी
झोपडी नही जलाते तोहमे पता नही चलता कि टापू पर कोई है।उस आदमी की आँखो से
आँसू गिरने लगे। उसने ईश्वर से माफी माँगी और बोला कि मुझे क्या पता कि
आपने मुझे बचाने के लिए मेरी झोपडी जलाई थी।
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Sunday, 15 February 2015
Monday, 9 February 2015
Sunday, 1 February 2015
यूपी के 10वीं के छात्र ने बनाया मेट्रो मॉडल, डीसी करंट से चलती है ट्रेन
जिस मेट्रो का मॉडल बड़े-बड़े इंजीनियर बनाते हैं, यदि दसवीं का एक छात्र इसे बनाएं तो सुनने में थोड़ा अटपटा लगता है, लेकिन यह सच है। यूपी के शामली जिले में रहने वाले दसवीं के छात्र अब्दुल समद ने यह कर दिखाया है। उसने मेट्रो ट्रेन का एक ऐसा डेमो तैयार किया है, जो बाकायदा डीसी करंट से चलती है। इसे देखकर अच्छे-अच्छे टेक्निकल स्टूडेंट भी दांतों तले उंगली दबा रहे हैं। यूपी के शामली जिले के गांव कैंडी बाबरी में सईद के 14 वर्षीय बेटे अब्दुल समद ने निम्न स्तर के संसाधनों से यह नायाब कारनामा कर दिखाया है। उसने मेट्रो ट्रेन और उसका ट्रैक बनाकर एक अनोखी मिसाल पेश की है। वह एक गरीब परिवार से है और उसके पिता दिल्ली में प्राइवेट नौकरी करते हैं। 0वीं में पढ़ता है अब्दुल समद
समद गांव के इंटर कॉलेज में कक्षा दसवीं का छात्र है। बचपन से ही उसे कुछ नया करने का शौक रहता था, लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वो अपने सपनों को पर नहीं लगा पा रहा था। यही वजह है कि गांव के निम्न स्तर के संसाधनों से तैयार किए गए इस डेमो में रेल की पटरी लकड़ी की बनाई गई है। उसके नीचे लकड़ी के पोल लगाए गए हैं और ऊपर तांबे के दो तार लगाए गए हैं, जिसमें डीसी करंट दौड़ता है। इस ट्रेन के इंजन इस दोनों तारों से टच होकर उसी तरह से चलते हैं जैसे हूबहू मेट्रो ट्रेन ट्रैक पर सरपट दौड़ रही हो।
पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम हैं प्रेरणा स्रोत
यह छात्र पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को अपना प्रेरणा स्त्रोत मानता है। इसके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। इस वजह से यह छात्र अपनी पढ़ाई गांव के ही स्कूल में पूरी कर रहा है। उसकी चाहत है कि यदि उसे सरकार की ओर से मदद मिले और उसकी शिक्षा उच्च स्तर पर हो तो ये देश के लिए और बड़े अविष्कार कर सकता है।









समद गांव के इंटर कॉलेज में कक्षा दसवीं का छात्र है। बचपन से ही उसे कुछ नया करने का शौक रहता था, लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वो अपने सपनों को पर नहीं लगा पा रहा था। यही वजह है कि गांव के निम्न स्तर के संसाधनों से तैयार किए गए इस डेमो में रेल की पटरी लकड़ी की बनाई गई है। उसके नीचे लकड़ी के पोल लगाए गए हैं और ऊपर तांबे के दो तार लगाए गए हैं, जिसमें डीसी करंट दौड़ता है। इस ट्रेन के इंजन इस दोनों तारों से टच होकर उसी तरह से चलते हैं जैसे हूबहू मेट्रो ट्रेन ट्रैक पर सरपट दौड़ रही हो।
पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम हैं प्रेरणा स्रोत
यह छात्र पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को अपना प्रेरणा स्त्रोत मानता है। इसके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। इस वजह से यह छात्र अपनी पढ़ाई गांव के ही स्कूल में पूरी कर रहा है। उसकी चाहत है कि यदि उसे सरकार की ओर से मदद मिले और उसकी शिक्षा उच्च स्तर पर हो तो ये देश के लिए और बड़े अविष्कार कर सकता है।
Friday, 30 January 2015
First Solar Road Netherland
The world’s first solar bike
lane is soon to be available for use in the Netherlands! The bike path
that connects the Amsterdam suburbs of Krommenie and Wormerveer is a 70-meter stretch of solar-powered roadway set to open for the public on November 12th, 2014.
The new solar road, which costs €3m
(AUD$4.3m), was created as the first step in a project that the local
government hopes will see the path being extended to 100 metres by 2016.
More complimentary plans are also on the
table as the country intends to power everything from traffic lights to
electric cars using solar panels.
School children and commuters see the
bike road as very useful and a cool part of their daily commute, with
approximately 2,000 cyclists expected to use it on an average day.
The road, which is named by the Netherlands Organization for Applied Scientific Research (TNO) as SolaRoad,
is set to open in the next week. It is made up of rows of crystalline
silicon solar cells, which were embedded into the concrete of the path
and covered with a translucent layer of tempered glass.
Pre-fabricated concrete slabs. 2
Science Alert reported:
“The surface of the road has been treated with a special non-adhesive coating, and the road itself was built to sit at a slight tilt in an effort to keep dust and dirt from accumulating and obscuring the solar cells.”
Since the path cannot be adjusted to the position of the sun, the panels will generate approximately 30% less energy
than those placed on roofs. However, the road is tilted slightly to aid
water run-off and achieve a better angle to the sun and its creators
expect to generate more energy as the path is extended to 100 metres in
2016.
SolaRoad Test Usage
Actually, SolaRoad is not the first project aimed at turning roads and pathways into energy-harvesting surfaces. Solar Roadways are another major project -you can find out more about them by clicking HERE. The following video was posted online less than year ago, getting over $2.2 million to start the production.
Thursday, 22 January 2015
दुनिया का सबसे कम उम्र का बिजनेसमैन, स्कूल प्रोजेक्ट से खड़ी कर डाली कंपनी
सिलिकॉन वैली में उद्योगपति बनने के लिए अब उम्र बाधा नहीं हैं। 13 वर्षीय शुभम बनर्जी ही इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। आठवीं में पढ़ने वाले शुभम ने कैलिफोर्निया में अपनी कंपनी बनाई है जो कम कीमत वाले ब्रेल प्रिंटर और दृष्टिहीनों के लिए स्पर्श से ही लिख सकने वाला सॉफ्टवेयर तैयार करती है।
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शुभम बनर्जी
बाजार में मिल रहे इस तरह के प्रिंटर की कीमत लगभग 1.23 लाख रुपए है। इस बेतहाशा कीमत को देखते हुए पिछले साल शुभम ने स्कूल के साइंस प्रोजेक्ट के लिए लेगो रोबोटिक किट युक्त ब्रेल प्रिंटर बनाया था। उसके इस इनोवेशन ने बहुत सारे अवॉर्ड जीते। दृष्टिहीन समुदाय की ओर से मिले जबर्दस्त प्रतिसाद के बाद शुभम ने अपनी कंपनी ब्रेगो लैब्स खोलने का फैसला लिया। इंटेल के अधिकारी भी शुभम के प्रिंटर से इंप्रेस हुए और उन्होंने शुभम की कंपनी में भरोसा जताया और बड़ा इन्वेस्टमेंट किया है। हालांकि इसका खुलासा नहीं किया गया है कि यह राशि कितनी है। इंटेल से निवेश पाने वाला शुभम संभवत: सबसे युवा उद्यमी है।
दिल्ली में पढ़ी शुभम की मां
शुभम की कंपनी में 10 कोर मेंबर हैं जो उन्हें अलग-अलग मामलों में मदद करते हैं। इन लोगों में शुभम के साथ-साथ उनके माता-पिता भी शामिल हैं। शुभम के पिता निलॉय बनर्जी कंपनी में एक मेंटर और कोच के रूप में कार्यरत हैं। वहीं, शुभम की मां लीगल मामलों की सलाहकार हैं। शुभम की मां ने ग्रैजुएशन करने के बाद दिल्ली के वाईएमसीए कॉलेज से एमबीए की डिग्री ली है।
कम कीमत वाला ब्रेल प्रिंटर बनाएंगे
शुभम एक ऐसा प्रिंटर बनाना चाहता है जिसका वजन कुछ ही पाउंड हो, इसकी कीमत 21594 रुपए तक हो। अभी जो प्रिंटर मिल रहे हैं उनका वजन लगभग 9 किलो है। यह प्रिंटर ब्रेल रीडिंग मटेरियल को प्रिंट कर सकेगा। इस प्रिंटर में स्याही की जगह उभरे हुए डॉट्स का उपयोग किया जाएगा। इंटेल के इन्वेंटर प्लेटफॉर्म के डायरेक्टर एडवर्ड रॉस कहते हैं कि शुभम एक बड़ी समस्या को हल कर रहा है।
Wednesday, 21 January 2015
देश के दस गांव जो बन गये हैं दूसरों के लिए नजीर
Received with Thanks from
http://hindustanigaon.blogspot.in/2015/01/blog-post_74.html
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किसी साइट पर देश के दस बेहतरीन गांवों की सूची देखी तो मैंने भी अपनी पसंद के दस गांव छांट लिये हैं. ये मेरे हिसाब से देश के दस बेहतरीन गांव हैं. जिस जमाने में गांवों को नष्ट-भ्रष्ट करके शहरों को आबाद करने की हवा चल रही है, उसमें इन गांवों ने अपने तरीके से अपने गांवों को आबाद किया है. आइये इन गांवों के बारे में जानते हैं.
1. हिवरे बाजार- 54 करोड़पतियों का गांव
हिवरे बाजार महज कुछ दशक पहले महाराष्ट्र के सुखाडग्रस्त जिला अहमदनगर का एक अति सुखाड़ ग्रस्त गांव हुआ करता था. लोगबाग गांव छोड़कर शहर की ओर पलायन कर रहे थे. उसी दौर में एक युवक मुंबई से नौकरी छोड़कर गांव आ गया. उसने अन्ना के गांव रालेगन सिद्धी को अपना आदर्श बनाया और एक दशक से भी कम समय में इसके हालात बदल गए, अब इसे देश के सबसे समृद्ध गांवों में गिना जाने लगा है. यह सब किसी जादू की छड़ी से नहीं बल्कि यहां के लोगों की सामान्य बुद्धि से संभव हुआ है. यह सब उन्होंने सरकारी योजनाओं के जरिए प्राकृतिक संसाधनों, वनों, जल और मिट्टी को पुनर्जीवित कर किया. अब खेती और उससे जुड़े कार्यों के जरिये लोग भरपूर आय अर्जित कर रहे हैं. दूर दराज से लोग इस गांव की खुशहाली की कहानी जानने पहुंचते हैं.
2. पुनसरी- डिजिटल विलेज
कल्पना कीजिए एक ऐसे गांव की जहां इंटरनेट हो, स्कूलों में एसी और सीसीटीवी कैमरों के साथ मिड-डे-मील भी बढिय़ा मिले. इतना ही नहीं सीमेंटेड गलियां, पीने के लिए मिनरल वॉटर और ऐसी मिनी बस गांव के लिए उपलब्ध हो जो सिर्फ गांव के ही लोगों के आने-जाने के काम आए. यह कोई स्वप्न नहीं है, इस सपने को हकीकत की धरातल पर उतारा है गुजरात के हिम्मतनगर में स्थित पुनसरी गांव के लोगों ने. आज इस गांव की पहचान डिजिटल विलेज के रूप में है. केंद्र सरकार पुनसरी के मॉडल को अपनाकर ऐसे 60 गांव पूरे देश में तैयार करना चाहती है.
3. मेंढालेखा- पूरा गांव एक इकाई
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले का मेंढ़ालेखा गांव भी अजब है. एक दिन गांव की ग्राम सभा बैठी और तय कर लिया कि अब गांव में किसी की कोई व्यक्तिगत जमीन नहीं होगी. गांव के तमाम लोगों ने अपनी जमीन ग्रामसभा को दान कर दी और सामूहिक खेती के लिए तैयार हो गये. मेंढालेखा का इतिहास ही ऐसा है कि वहां लोग ऐसे काम के लिए सहज ही तैयार हो जाते हैं. यह देश का पहला गांव है जहां लोगों ने सरकार से लड़कर जंगल के प्रबंधन का अधिकार हासिल किया. अब उस गांव के आसपास के जंगल के मालिक खुद गांव के लोग हैं. वही जंगल की सुरक्षा करते हैं और वहां उगने वाले बांस को बेचते हैं.
4. मावलानॉंग- एशिया का सबसे स्वच्छ गांव
मेघालय राज्य के छोटा से गांव मावलानॉंग डिस्कवरी पत्रिका ने 2003 में एशिया के सबसे स्वच्छ गांव का खिताब दिया है. यह गांव शिलांग से 90 किमी दूर है. अक्सर यहां की स्वच्छ आबोहवा का अवलोकन करने के लिए पर्यटक पहुंचते हैं. पर्यटक बताते हैं कि आप उस गांव में कहीं सड़क पर या आसपास पॉलिथीन का टुकड़ा या सिगरेट का बट भी नहीं देख सकते हैं.
5. धरनई- ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर गांव
बिहार के जहानाबाद जिले का धरनई गांव संभवतः देश का पहला गांव है जो ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है. ग्रीनपीस संस्था के सहयोग से इस गांव ने अपना सोलर पावर प्लांट स्थापित किया है और इन्हें घर में रोशनी, पंखे और खेतों की सिंचाई के लिए चौबीस घंटे अपनी सुविधा के हिसाब से बिजली उपलब्घ है. इस गांव ने 30 साल तक सरकारी बिजली का इंतजार किया औऱ फिर एक नया रास्ता तैयार कर लिया. अब यहां लोग नहीं चाहते कि सरकारी बिजली उनके गांव तक पहुंचे.
6. धरहरा- बेटियों के जन्म पर पेड़ लगाने की परंपरा
बिहार के ही भागलपुर जिले का धरहरा गांव पिछले कुछ सालों से लगातार सुर्खियों में रहा है. इस गांव में बेटियों के जन्म पर पेड़ लगाने की परंपरा है. इससे यह गांव एक साथ लैंगिक भेदभाव का खिलाफत कर रहा है और पर्यावरण के प्रति अपना जुड़ाव भी जाहिर करता है. इस गांव की थीम को लेकर एक बार बिहार सरकार ने गणतंत्र दिवस की झांकी भी राजपथ पर पेश की थी. हालांकि पिछले साल यह गांव दूसरी वजहों से विवाद में रहा. मगर इस गांव ने अपने काम से देश को जो मैसेज दिया वह अतुलनीय था.
7. विशनी टीकर- न मुकदमे, न एफआइआर
झारखंड के गिरिडीह जिले का यह गांव अनूठा है. पिछले दो-तीन दशकों से इस गांव का कोई व्यक्ति न तो थाने गया है और न ही कचहरी. इस दौर में जब गांव के लोगों की आधी आमदनी कोर्ट कचहरी में खर्च हो जाती है, यह गांव सारी आपसी झगड़े औऱ विवाद मिल बैठकर सुलझाता है. गांव की अपनी पंचायती व्यवस्था है, वही इन विवादों का फैसला करती है.
8. रालेगण सिद्धि- अन्ना का गांव
आप अन्ना के राजनीतिक आंदोलन पर भले ही सवाल खड़े कर सकते हैं, मगर उन्होंने जो काम सालों की मेहनत के जरिये अपने गांव रालेगण सिद्धि में किया है उस पर सवाल नहीं खड़े कर सकते. जल प्रबंधन औऱ नशा मुक्ति अभियान के जरिये अन्ना ने रालेगण सिद्धि को आदर्श ग्राम में बदल दिया. हिवरे बाजार जैसे गांव के लिए रालेगण सिद्धि पाठशाला सरीखी रही है. आज भी लोग उस गांव में जाकर समझने की कोशिश करते हैं कि अन्ना ने कैसे इस गांव की तसवीर बदल दी.
9. शनि सिंगनापुर- इस गांव में नहीं हैं दरवाजे
महाराष्ट्र का एक औऱ गांव. इसे भारत का सबसे सुरक्षित गांव माना जाता है. इस गांव में किसी घर में दरवाजा नहीं है और किसी अखबार में इस गांव में चोरी की खबर नहीं छपी. इस गांव में कोई पुलिस चौकी नहीं है और न ही लोग इसकी जरूरत समझते हैं और तो और इस गांव में जो एक बैंक है यूको बैंक का उसमें भी कोई गेट नहीं है. जाहिर है यह कमाल गांव के लोगों के सदव्यवहार से ही मुमकिन हुआ होगा.
10. गंगा देवीपल्ली- आत्मनिर्भर गांव
अंत में आंध्रप्रदेश का यह आत्मनिर्भर गांव. इस गांव में इतनी खूबियां है कि इसके लिए एक पूरा पन्ना कम पड़ सकता है. यह गांव अपना बजट बनाता है. हर घर से गृहकर इकट्ठा होता है. हर घर अपना बचत करता है. सौ फीसदी बच्चे स्कूल जाते हैं. सौ फीसदी साक्षरता है. हर घर बिजली का बिल अदा करता है. हर परिवार परिवार नियोजन के साधन अपनाता है. समूचे गांव को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है. 33 सालों से पूर्ण मद्यनिषेध लागू है. यह सब इसलिए कि गांव का हर फैसला लोग आपस में मिल बैठकर लेते हैं और हर इंसान गांव की बेहतरी के लिए प्रयासरत है.
बीमार बेटी को मिला टूटा बैड तो पिता चला अस्पताल जोड़ने वेल्डिंग
छह महीने पहले हुए एक वाकये ने सीकर में फतेहपुर रोड पर रहने वाले वेल्डर सलीम चौहान को बदलाव का अगुवा बना दिया। उनकी 19 साल की बेटी गंभीर बीमार थी। एसके अस्पताल में भर्ती कराया तो टूटा हुआ बैड मिला। 15 दिन में बेटी ठीक होकर घर आ गई, लेकिन सलीम के जेहन में टूटा बैड घर कर गया।
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पेशे से वेल्डर सलीम ने तय कर लिया कि अस्पताल में इलाज के लिए आने वाली किसी और बेटी या बीमार को इस परेशानी से नहीं गुजरने दूंगा। अब वे हर दिन अस्पताल आकर टूटे बैड, अलमारी और टेबल ठीक करते हैं। बकौल सलीम चौहान, किसी की मदद करने के लिए बहुत रुपए होना जरूरी नहीं बल्कि इच्छा शक्ति मायने रखती है। इस वजह से तय किया कि कारखाने के काम के साथ अस्पताल को भी समय दूंगा। सुबह नौ बजे कारखाने पहुंचने वाला उनका बेटा सात बजे जाने लगा है। बताते हैं, भाई व बेटे के भरोसे कारखाना छोड़कर मैं सुबह एसके अस्पताल आता हूं। कई बार तो यहीं तीन बज जाते हैं। हालांकि कारखाने से गुजर-बसर करने जितनी कमाई हो जाती है। लेकिन, अस्पताल में बैड व अन्य सामान की मरम्मत का खर्च किसी से लेता नहीं खुद ही वहन करता हूं। और ऐसा करने से सुकून मिलता है।
कलेक्टर से इजाजत ली और जुट गए काम में
15 दिसंबर को सलीम चौहान ने कलेक्टर को पत्र देकर इजाजत मांगी कि वह अस्पताल सुधार में योगदान देना चाहते हैं। इसके तुरंत बाद काम में जुट गए। सलीम के प्रयास की कलेक्टर और स्वास्थ्य मंत्री तारीफ कर चुके हैं। सलीम के मुताबिक एक महीने में अब तक 20 बैड, 70 कुर्सी, 15 कूलर स्टैंड, सात बोतल स्टैंड, 10 ट्रॉली, पांच अलमारी और गार्डन की रेलिंग ठीक कर दी हैं। ये सब बाजार में ठीक कराते ताे करीब 60 हजार रुपए का खर्च आता। अब अस्पताल के एक-एक वार्ड की चीज ठीक करने का प्लान बनाया है।
शोहरत के लिए नहीं, सुकून के लिए कर रहा हूं ये काम : सलीम
सलीम का कहना है यह कोशिश शोहरत पाने के लिए नहीं कर रहा हूं। सिर्फ सुकून के लिए कर रहा हूं। सभी लोगों से अपील है कि वे सफाई, अस्पताल या अन्य तरह से बदलाव के अगुवा बनने का प्रयास जरूर करें। क्योंकि अकेले सरकार-प्रशासन सबकुछ नहीं सुधार सकता है।
इसी तरह के प्रयासों से मॉडल अस्पताल बनेगा : पीएमओ
पीएमओ डॉ. एसके शर्मा का कहना है सलीम चौहान अच्छी मदद कर रहे हैं। इसी तरह के प्रयासों से ही मॉडल अस्पताल बन सकेगा। अस्पताल प्रशासन भी सुधार के लिए हरसंभव प्रयास कर रहा है। इसमें जनता के सहयोग की बड़ी जरूरत है।
Tuesday, 20 January 2015
मिसालः 1 किसान 120 बच्चों को पिला रहा है मुफ्त दूध
मेरठ के शामली जिले में एक किसान 120 बच्चों को मुफ्त दूध पिलाने का काम कर रहा है। इस किसान ने एक सरकारी प्राइमरी स्कूल के 10 दर्जन कुपोषित बच्चों को चिन्हित किया है और रोज उन्हें अपने घर से उबला हुआ दूध लाकर पिलाता है। इस किसान की बच्चों को एक साल तक दूध पिलाने की योजना है।
रमेश चंद्र नंबरदार करीब एक हफ्ते से 25 लीटर उबला और चीनी मिला दूध एक स्कूल में पहुंचा रहे हैं। रमेश ने कहा, 'मैं यह सुनकर बड़ा हुआ कि हमारे देश में दूध की नदियां बहती थीं। आज बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने हर एमपी के एक गांव को गोद लेने की योजना शुरू की तो मुझे लगा कि मैं भी बच्चों की मदद कर सकता हूं।'
रमेश का कहना था, 'कुछ लोग गर्म कपड़े बांटते हैं, कुछ किताबें बांटते हैं। मैं चाहता था कि बच्चे मजबूत बनें। मेरे पास सीमित साधन थे लेकिन मैंने बच्चों को दूध के साथ चना और चीनी देना शुरू किया। यह 120 बच्चों के लिए काफी है।'
माजरा रोड के पास बने इस स्कूल के हेडमास्टर नीरज गोयल ने कहा, 'पहले तो हमें लगा कि रमेश खास मौकों, जैसे गणतंत्र दिवस पर बच्चों को दूध पिलाएंगे, लेकिन उन्होंने कहा कि वह रोज ऐसा करना चाहते हैं। हमें शक था कि वह रोज ऐसा कर पाएंगे, लेकिन वह लगातार दूध दे रहे हैं। दूध काफी अच्छी क्वॉलिटी का है। अगर ऐसे ही और लोग सामने आएं तो बच्चों का जीवन बदल सकता है।'
रमेश का कहना है कि उनके पास अच्छी नस्ल की गायें हैं। वे रोजाना 45 लीटर दूध देती हैं। उनकी एक साल तक बच्चों को दूध पिलाने की योजना है। उन्होंने अपने आइडिए के साथ शामली के डीएम नरेंद्र प्रसाद सिंह से भी मुलाकात की थी और उन्होंने भी रमेश का उत्साहवर्धन किया।
देसी जुगाड़ से 2000 में बना ली वाशिंग मशीन, जानें कैसे करती है कामदेसी जुगाड़ से 2000 में बना ली वाशिंग मशीन, जानें कैसे करती है काम
रायपुर। 'वॉशिंग मशीन महंगी होती है, उसमें ज्यादा डिटर्जेंट इस्तेमाल होता है। डिटर्जेंट से प्रदूषण फैलता है। इसलिए मैंने इस मशीन को बनाया है।' अपने आविष्कार की वजह कुछ ऐसे ही साफ करते हैं कमल अग्रवाल।
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अपने स्वदेशी वाशिंग मशीन के साथ कमल अग्रवाल
शैलेंद्र नगर निवासी कमल अग्रवाल ने वॉशिंग मशीन का एक ऐसा विकल्प तैयार किया है जो ईको फ्रेंडली होने के साथ-साथ कम कीमत में वॉशिंग मशीन की जरूरत को पूरा करती है। इस मशीन को इन्होंने स्वदेशी वॉशिंग मशीन नाम दिया है।
ऐसे करती है काम
यह मशीन वाटर और एयर प्रेशर फॉर्मूले पर काम करती है। कमल अग्रवाल ने बताया कि एक मोटे प्लास्टिक पाइप में लंबा कट उन्होंने लगाया है। इस कटे पाइप को नीचे की तरफ करके उन्होंने प्लास्टिक के बॉक्स में फिट किया है। इस पाइप को एयर ब्लोअर से जोड़ा दिया गया है। जैसे ही ब्लोअर ऑन होता है तेज हवा बॉक्स में आती है। पानी भरा होने पर हवा की वजह से पानी उछलने लगता है और इसके दबाव से कपड़े धुलते हैं।
वाटर फिल्टर भी बनाया
क्या आप एक फीट लंबी प्लास्टिक पाइप, कोयले के चूरे और बाल्टी से मिनरल वाटर देने वाला वाटर फिल्टर बना सकते हैं? कमल अग्रवाल ने महज तीन सौ रुपए में ऐसा ही वाटर फिल्टर बनाया है।
अपने वाटर फिल्टर के साथ कमल अग्रवाल
वाशिंग मशीन का डेमो देते कमल अग्रवाल
कम लागत से तैयार यह वाशिंग मशीन किसी भी महंगी मशीन जैसा ही रिजल्ट देती है
कम लागत से तैयार यह वाशिंग मशीन किसी भी महंगी मशीन जैसा ही रिजल्ट देती है
कम लागत से तैयार यह वाशिंग मशीन किसी भी महंगी मशीन जैसा ही रिजल्ट देती है
कमल अग्रवाल ने नारियल के जूट से ईको-फ्रेंडली बास्केट भी बनाए हैं।
कभी थे क्लीनर, आज हैं इटली की तीसरी सबसे बड़ी टेलिकॉम कंपनी के CEO
"एक क्लीनर से लेकर चीफ एग्जीक्यूटिव तक का सफर मेरे लिए एक रोलर कोस्टर राइड जैसा रहा। डेस्टिनी मुझे फर्श से अर्श तक ले आई लेकिन जब भी अपने स्ट्रगल के दिन याद करता हूं तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं। इटली में जब कदम रखा था तब मेरे पास कुल जमापूंजी सिर्फ 1 लाख रुपए थे और आज भारत में मैंने 200 करोड़ रुपए इन्वेस्ट किए हैं।" यह कहना है मीडियाकॉम मोबाइल कंपनी के सीईओ, इंडिया हरबिंदर सिंह धालीवाल का।
मोहाली में पले-बढ़े हरबिंदर 15 सालों से इटली में रह रहे हैं। इटली में भारतीयों के लिए हरबिंदर काफी कुछ कर भी चुके हैं। इस पर इटली सरकार ने इन्हें पीस एंबेसडर के अवॉर्ड से नवाजा है। यह अवॉर्ड हासिल करने वाले हरबिंदर इकलौते भारतीय हैं। इसके साथ ही इटैलियन म्युनिसिपल काउंसिल में सिख कम्युनिटी को हरबिंदर ही रिप्रेजेंट करते हैं। इटली की थर्ड लार्जेस्ट मोबाइल कंपनी मीडियाकॉम को अब हरबिंदर भारत में लॉन्च करने जा रहे हैं और इसी सिलसिले में अपने शहर चंडीगढ़ में आए हुए हैं।
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