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Saturday, 25 March 2017

मदुराई के नागराजन ने बनाई नींबू काटने की मशीन

नागराजन (45) तमिलनाडू में मदुराई से 40 किमी दूर एक छोटे से गाँव उसीलमपत्ती में रहते हैं। उन्होंने नवीं कक्षा तक पढ़ाई की है। वह विवाहित हैं और उनके दो बच्चे हैं। परिवार में सबसे बड़े होने के कारण उन्होंने अपने छोटे भाइयों और बहनों की शिक्षा में सहायता की और उनका विवाह करवाया। वह परिवार के एकमात्र आय अर्जित करने वाले सदस्य हैं। उनका स्वप्न खाद्य संसाधन से संबंधित अधिक मशीनों का विकास करना है जो बाजार में उपलब्ध नहीं हैं। उत्पत्तिग्रम्य नागराजन की वर्गो इंडस्ट्री नाम से एक छोटी खराद वर्कशॉप है। फैक्ट्री में पिछले 17 वर्षों से चावल आवरण वाली इकाइयों में उपयोग किए गए एसेसरीज पार्ट्स जैसे एस्पिरेटर, डेस्टोनर, हीट रेड्यूसर और ग्राइंडर का निर्माण हो रहा है। यह एक बहुत ही छोटे और पुराने किराए के घर से चलती है। वर्गो इंडस्ट्री की स्थापना नागराजन के स्वर्गीय पिता द्वारा की गई थी जो आसपास की चावल मिलों को सहायता सेवाएँ प्रदान करते थे।

मदुराई जिले का यह भाग धान के उच्च उत्पादन के लिए जाना जाता है। पिछले कुछ वर्षों से, सतत् सूखे ने केवल किसानों को बल्कि सभी आश्रित उद्योगों को भी प्रभावित किया और आसपास के क्षेत्रों में अधिकांश चावल मिलें बंद हो गईं हैं। इन परिस्थितियों ने उद्यमियों को जीवित रहने के लिए अन्य स्थानों की तलाश करने पर विवश कर दिया। नागराजन के अचार निर्माताओं के साथ निकट संबंध ने उन्हें उद्योग में प्रचलित कार्यों के प्रति प्रकट किया। कुछ स्थानीय अचार निर्माता कंपनियों ने उन्हें अदरक का अचार बनाने के लिए अदरक का छिलका उतारने हेतु एक प्रणाली की रचना और विकास करने का अनुरोध किया। नागराजन ने दो वर्ष के कठोर परिश्रम के बाद 2002 में एक अदरक का छिलका उतारने वाली मशीन की सफलतापूर्वक रचना की और विकास किया। बाद में, उन्होंने एक नींबू काटने की मशीन का भी विकास किया। 

एम. नागराजन ने एक अदरक का छिलका उतारने वाली मशीन और एक नींबू काटने की मशीन को उल्लेखनीय रूप से संशोधित किया है और ये बेहतर मशीनें अचार उद्योग की दो तह वाली समस्या को संबोधित करती हैं जिनके नाम हैं स्वचालन की कम मात्रा के कारण अक्षमता और अधिकतम समय के दौरान श्रम की कमी जो क्षमता को सीमित करती है। अदरक का छिलका उतारने वाली मशीनरू अदरक का छिलका उतारने वाली मशीन में एक 2 एचपी विद्युत मशीन, ब्लॉअर, एक छिलका उतारने वाला कक्ष, प्रवेशिका, बाह्य द्वार, निकास पाइप और ड्राइव्स होते है। छिलका उतारने वाले कक्ष में अदरक डालने के लिए एक तंत्र और एक शैफ्ट होता है जिस पर ब्लेडें इस तरह से व्यवस्थित होती हैं कि छरू पंक्तियाँ होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में चार ब्लेडें होती हैं जो 90 अंश की समान कोणीय दूरी पर होती है। ये ब्लेडें उसी सामग्री से बनी होती हैं जिसका उपयोग विद्युत संप्रेषण के लिए किया जाता है। ब्लेडों की व्यवस्था दो लगातार पंक्तियों में होती है। एक पंक्ति में, ब्लेडें अनुलंब और क्षैतिज रूप से काटती हैं और दूसरी पंक्ति में, ब्लेडें विकर्ण रूप से काटती है। एक के बाद एक पंक्ति में समान व्यवस्था होती है। छिलका उतारने वाला कक्ष बेलनाकार होता है और आंतरिक दीवारें दाँतेदार होती है। ड्राइव में तीन शैफ्ट्स, दो खांचों एवं एक खाँचे वाली घिरनियाँ होती है। ड्राइवों को वी आकार की पट्टियों के उपयोग के साथ संप्रेषित किया जाता है।

मशीन में विभिन्न आकार के दो ब्लॉअर होते है। बड़े ब्लॉअर का कार्य ब्लेडों के घूमने से निकली हुई धूल और अदरक के छिलके को बाहर धकेलना है। छोटे ब्लॉअर का कार्य अदरक को मशीन में डालते समय उसमें से नमी को निकालना है। स्टील शीट से बना एक आवरण संपूर्ण यांत्रिकी को ढँकता है। एकल प्रोटोटाइप की निर्माण लागत श्रम शुल्क और अन्य चलायमान लागतों सहित रु. 52,000 है। मशीन कैसे कार्य करती हैरू अदरक को प्रवेशिका ढाल के माध्यम से छिलका उतारने वाले कक्ष में डाला जाता है। विद्युत को वी आकार की पट्टियों के द्वारा दो एचपी मोटर शैफ्ट्स से संप्रेषित किया जाता है। शैफ्ट पर लगी घिरनी छोटे ब्लॉअर को घुमाती है। छोटे ब्लॉअर की दाबानुकूलित वायु छिलका उतारने वाले कक्ष के मार्ग पर अदरक से अतिरिक्त नमी को निकालती है। शैफ्ट पर लगी घिरनी ब्लेडों को धारण करने वाले शैफ्ट को घुमाती है। छिलका उतारने वाले कक्ष में प्रवेश करने वाले अदरक को दाबानुकूलित वायु द्वारा बड़े ब्लॉअर से घुमाने वाली ब्लेड तक धकेला जाता है। चूँकि ब्लेडें घूम रहीं हैं, इसलिए वे अदरक को छिलका उतारने वाले कक्ष की दाँतेदार दीवार की ओर मारती हैं और वहाँ इसका छिलका उतर जाता है। उसी समय, धूल और अदरक के छिलके को निकास पाइप के द्वारा बाहर धकेलने के लिए बड़े ब्लॉअर की दाबानुकूलित वायु को गुजरने दिया जाता है। छिलका उतारने वाले कक्ष से छिलका उतरी हुई अदरक को गुरुत्व द्वारा निर्गम द्वार के माध्यम से एकत्रित किया जाता है। इस बड़े ब्लॉअर को शैफ्ट पर लगी घिरनी से संप्रेषित विद्युत द्वारा घुमाया जाता है. लाभरू मशीन की क्षमता 200 किग्रा अदरक प्रति घंटा छीलने की होती है। इस प्रकार प्राप्त अदरक की लौंगें समान आकार की होती हैं और सफाई से एवं आसानी से एकत्रित तथा पुनर्प्राप्त किया जा सकता है। 

इस मशीन की अन्य विशेषता यह है कि इसका निर्माण करना, चलाना और रखरखाव करना आसान है। ब्लॉअर अदरक में अतिरिक्त नमी को निकालता है और भूसी का पृथककरण् नवप्रवर्तनशील है। यह मशीन उच्च उत्पादकता को प्राप्त करने में सहायता करती है। ऊर्जा दक्ष और श्रम की बचत करने वाली है और अदरक छीलने वाली धीमी श्रमसाध्य प्रक्रिया में नीरसता को कम करती है। इस मशीन का उपयोग अचार उद्योग के अलावा अन्य खाद्य संसाधन उद्योगों में भी किया जा सकता है। नींबू काटने की मशीन, नवप्रवर्तन - यह नवप्रवर्तन नींबू की बड़ी मात्रा को सतत् रूप से आवश्यक आकृतियों और आकारों में काट सकती है। इस मशीन में निम्न मुख्य पार्ट्स होते हैं दृ विद्युतीय मोटर, शैफ्ट, घिरनियाँ, वी आकार की पट्टियाँ, चेन स्प्रॉकेट असेंबली, बियरिंग्स, घुमावदार गोलाकार टेबल हॉपर, बेवल गियर और बेवल गियर धारण करने वाला गियर बॉक्स, चौनल सी, कनेक्टिंग छड़ वाली पिस्टन सिलिंडर असेंबली, रोटरी कटर, फ्रेमिंग्स और सपोर्ट, बोल्ट्स और नट्स, फाउंडेशन, गोलाकार डिस्क, कनेक्टिंग छड़ और फ्लैंज, आधी कैम लीवर यांत्रिकी और मोटर स्टार्टर. नवप्रवर्तन में दो स्थायी हॉपर होते है। एक शंक्वाकार और दूसरा गोलाकारय दोनों में दो निर्गम द्वार होते है। जब गोलाकार हॉपर में लगी एक टेपर डिस्क घूमती है। तो यह नींबू को एक के बाद एक परिच्छेद के माध्यम से आगे बढ़ाती है। यह परिच्छेद एक चौनल के आकार में होता है। जिसमें केंद्र में एक श्रृंखला नियंत्रण नियामक यांत्रिकी प्रबंध होता है। यह काटने वाली प्रणाली के अंदर एक पकड़ने वाली प्रणाली के रूप में कार्य करती है और अनन्तर रूप से नींबूओं की गति को सुनिश्चित करती है. नींबू को आठ भागों में काटने के पूर्व, एक यांत्रिकी नियामक प्रक्रिया होती है जो प्रवेश ढाल को समान समयांतराल में खोलती और बंद करती है जिससे सुनिश्चित किया जाए कि नींबू क्रम में कटते हो। काटने वाले कक्ष में, नींबू को चार किनारों वाले एक से अधिक सिरों के और निश्चित स्थिति वाले कटर के ऊपरी भाग पर रखा जाता है। इसके पश्चात, एक प्लंजर जो ऊपर लगा होता है, वह नींबू को कटर की ओर दबाने के लिए अनुलंब रूप से घूमता है और नींबू चारों दिशाओं का सामना करते हुए एवं आकृति नष्ट हुए बिना चार ब्लेडों की प्रणाली के साथ कटता है।क ाटने वाली ब्लेडें नींबू को प्लंजर की एक ही चोट से चार फाँकों में काट देती हैं और अगली बारी में एक विकर्ण कट होता है जो एक संपूर्ण फाँक को दो भाग में बाँटता है। 

इस प्रकार कुल आठ फाँकें निर्गम द्वार से बाहर आती हैं। मशीन की क्षमता स्प्रिंग लगी प्रक्रिया की सहायता से नींबुओं को 0.75 इंच के व्यास से 2.5 इंच के व्यास काटने की होती है। इस स्प्रिंग लगी प्रक्रिया द्वारा नींबू पर बेहतर पकड़ प्रदान की जाती है जो कटाव में एकरूपता सुनिश्चित करती है। छोटी मात्राओं में पैकेजिंग के लिए, नींबू को छोटे भागों में काटना पड़ता है (12 से 16 भाग) यह करने के साथ-साथ नींबुओं का दर्जा बढ़ाने के लिए वर्तमान मशीन में परिवर्तन किया जा सकता है। मशीन में इस तरह परिवर्तन किया जा रहा है कि कच्ची सामग्री के अपशिष्ट को कम किया जाए. नवप्रवर्तक अन्य पार्ट्स को बनाने के लिए बची हुई धातुओं की शीटों के भाग का उपयोग करता है। इससे उत्पादन की लागत कम होती है। लाभरू इस मशीन का उपयोग करके उत्पादित फल की फाँकें समान आकार की होती हैं और उन्हें सफाई से और सुविधापूर्वक एकत्रित और पुनर्प्राप्त किया जा सकता है। सुअनुकूलित विद्युत संप्रेषण विद्युत के कम उपभोग को सुनिश्चित करता है (प्रचालन के 8 घंटों में 7-8 इकाइयाँ)।य युक्ति श्रम की बचत करने वाली है दृ इसे चलाने के लिए केवल एक व्यक्ति की आवश्यकता होती है। काटने के कार्य में नींबुओं का न्यूनतम अपशिष्ट होता है अर्थात 100 उत्पादन का उपयोग किया जाता है। मशीन छोटी होती है और स्टेनलेस स्टील से बनी होती है। जो प्रक्रिया को स्वच्छ बनाती है। 

मशीन में हाफ कैम लीवर प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि अव्यवस्था को टालने के लिए नींबुओं को काटने वाले कक्ष में एक के बाद एक डाला जाता है और यह नींबुओं के उचित कटाव को सुनिश्चित करती है। चार सिरों वाली अनुलंब ब्लेड और रोटरी क्षैतिज ब्लेड की गति की समकालिकता सुनिश्चित करती है कि नींबू को दोनों एक्सेस के ठीक बीच में काटा जाता है और यह किसी प्रयास के बिना बीजों के निष्कासन को सुनिश्चित करती है। यह मानदंड अनुचित कटाव के कारण केवल मानवश्रम की लागत और अपशिष्ट की बचत करता है बल्कि अचारों की गुणवत्ता में योगदान भी करता है (आमतौर पर अचारों में बीजों के कारण उपभोक्ता को चिढ़ होती है) इस मशीन की काटने की क्षमता 160 नींबूध्मिनट या 450 किग्रा प्रति घंटा है। इस नवप्रवर्तनशील तकनीक में दो अन्य निर्माताओं की तुलना में श्रेष्ठता होती है, जो निम्न प्रारंभिक निवेश (मूल्य-रु. 100,000) और निम्न प्रचालन लागत रु. 0.066 के पदों में समान मशीनें बनाते है। यह मशीन मौजूदा विकल्पों की तुलना में चलाने और रखरखाव करने में आसान है। 

सामाजिक लाभ के दृष्टिकोण से, तकनीक श्रमिकों के लिए कम नुकसानदायक प्रक्रिया प्रदान करती है। श्रमिक, आमतौर पर महिलाएँ, जिन्हें अचार उद्योग में लगाया जाता है, वे नींबू को आवश्यक आकृति और आकार में हाथ से काटने में अधिक समय व्यतीत करती है। वे आमतौर पर नींबुओं को पकड़ते समय छालों से पीड़ित होती हैं क्योंकि ये उच्च रूप से अम्लीय होते है। वे श्रमिक जिन्हें वर्तमान में फल काटने में लगाया जा रहा है उन्हें अन्य दूसरी मूल्य आवर्धन गतिविधि के लिए उपयोग किया जा सकता है। नागराजन के अनुसार, एकल प्रोटोटाइप की निर्माण लागत श्रम शुल्कों और अन्य चलायमान लागतों सहित रु. 82,000ध्- है. उनका विक्रय मूल्य रु. 95,000ध्- है जिसमें रु. 13,000 का लाभ सम्मिलित है। औपचारिक क्षेत्र की ओर से पहचान वह नवप्रवर्तन के संपूर्ण अनुभव को बहुत ही प्रोत्साहक पाते हैं और अनुभव करते हैं कि यह उन्हें आगे नवप्रवर्तन के लिए प्रेरित करता है। अधिकांश ग्रासरूट नवप्रवर्तकों के अनुभवों के विपरीत, नागराजन के नवप्रवर्तनों को स्वीकार किया गया और उद्योग स्रोतों द्वारा उनके व्यावसायिक मूल्य के लिए प्रशंसा की गई। एस. कुलवंत सिंह, (महाप्रबंधक-प्रचालन, खाद्य विभाग, के विनकेयर प्रमाणित करते हैं कि उन्होंने वर्गो इंजीनियरिंग वर्क्स के एम. नागराजन से दो अदरक पीलर्स खरीदे हैं और ये अच्छी तरह कार्य कर रहे है। वह आगे कहते हैं कि उन्होंने नागराजन द्वारा विकसित नींबू काटने की मशीन का निरीक्षण किया था और मशीन से खासे प्रभावित है। 

अब वे उनकी गुडुर स्थित अचार संसाधन इकाई के लिए नींबू काटने की मशीन खरीदने की योजना बना रहे है। वे मानते हैं कि यह बहुत अधिक मानव श्रम को बचाएगी और स्वच्छता को भी बेहतर करेगी। एस. कुलवंत स्वीकार करते हैं कि नागराजन नवप्रवर्तनशील हैं विशेष रूप से उन मशीनों का विकास करने में जो प्रकृति में अद्वितीय है। इसके अतिरिक्त, केविनकेयर खाद्य संसाधन के अन्य संभावित क्षेत्रों में भी नागराजन के शोध और विकास कार्यों को भी प्रोत्साहित और समर्थन कर रहे हैं। चेन्नई से उनके तकनीकी दल ने कई अवसरों पर उसलपथी (मदुराई से 40 किमी दूर) स्थित नागराजन की छोटी वर्कशॉप का दौरा किया थाकेविनकेय ऐसी कंपनी है जिसे रु. 50,000 से शुरु किया गया और अब हिंदुस्तान लीवर (भ्स्स्) में खाद्य संसाधन व्यवसाय में अपना धन लगा रहे हैं और इसके प्रबंधन निदेशक श्री सीके रंगनाथन को इस वर्ष का इकॉनोमिक टाइम्स एंटरप्रेन्योर पुरस्कार प्रदान किया गया। 

उद्योग विश्लेषणरू अचार निर्माण एक बहुत श्रमसाध्य उद्योग है। इसके मुख्य कारण लघु पैमाने पर होना और अचारों की तैयारी की प्रक्रिया हो सकते हैं, जो छोटे, विशेषीकृत कार्यों का सम्मिलन है। 500 से अधिक अचार निर्माता जो संपूर्ण भारत में फैले हैं। दक्षिण भारत में सर्वाधिक हैं, वे घर पर कार्य करते हैं या कुछ अपवादों के साथ लघु उद्योग चलाते है। उपभोग प्रतिमान भी दक्षिण भारत की ओर मुड़ा है। हाल ही में, संपूर्ण विश्व में मुख्य रूप से बढ़ते हुए भारतीय विस्तार और पश्चिमी देशों में भारतीय भोजन निर्माण शैली और संगत के बारे में बढ़ी हुई जागरूकता के कारण अचारों के निर्यात में एक तीव्र वृद्धि देखी गई है। उद्योग कई श्रमिकों को, विशेष रूप से महिलाओं को, नियुक्त करता है। यहाँ तक कि एक छोटे पैमाने की अचार निर्माता इकाई भी औसतन लगभग 400 महिलाओं को नियुक्त करती हैसकारात्मक पक्ष की ओर, उद्योग ग्रामीण और अर्द्धशहरी महिलाओं के लिए रोजगार का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहा है। हालाँकि, निम्न स्वचालन अक्षमता का कारण होता है और इस प्रकार संसाधन महँगा होता है. अन्य महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय विशेषता अचार निर्माण में सम्मिलित मौसमीयता रही है। यह मुख्य रूप से फलों की उपलब्धता पर आधारित होता है। नींबुओं की स्थिति में, मौसम अप्रैल-जून और सितंबर से मध्य दिसंबर है. यह आमतौर पर देखा जाता है कि मौसम के दौरान उद्योग के लिए श्रम की उपलब्धता सीमित घटक बन जाती हैवर्तमान स्थिति - राष्ट्रीय नवप्रर्वतन द्वारा संचालित बाजार शोध बताता है कि अचार उद्योग नागराजन द्वारा विकसित इन डिवाइसों को उनकी निम्न प्रारंभिक लागत और उच्च दक्षता के कारण अपनाने के लिए बहुत आतुर है। 

चूँकि यह उद्योग दक्षिण भारत में केंद्रित है। इसलिए, वर्गो इंडस्ट्री के पास अन्य क्षेत्रों के दूसरे सप्लायरों की तुलना में कुछ अतिरिक्त लाभ होंगे जैसे भौतिक निकटता और बाजार में सीधी पहुँच। नागराजन ने पहले ही बाजार में 12 अदरक छीलने वाली मशीनें बेच दी हैं और बाद में उन्हें बौद्धिक संपदा की सुरक्षा करने के लिए ज्ञान द्वारा सलाह दी गई। वास्तव में, उन्होंने भी क्षेत्र में कुछ जालसाजों द्वारा अपनी तकनीक की नकल की जाने की समस्या का अनुभव किया और उन्होंने उस समय के दौरान नींबू काटने की मशीन की बिक्री को रोक दिया। उन्होंने अपने क्षेत्रीय सहयोगी दीर्घकालिक-कृषि और पर्यावरणीय स्वयंसेवी कार्य (सेवा) के माध्यम से राष्ट्रीय नवप्रवर्तन को इन दो मशीनों के लिए एक पैटेंट फाइल करने के लिए अनुरोध किया। अब, चूँकि दोनों पैटेंट को रानप्र द्वारा फाइल कर दिया गया है। इसलिए वह अपने नवप्रवर्तनों को बाजार में लाना चाहते हैं। 

रानप्र ने नागराजन को नींबू काटने की मशीन के व्यावसायीकरण के लिए सूक्ष्म उपक्रम नवप्रवर्तन कोष की ओर से रु. 1,87,000 की मंजूरी दी है और सफल व्यावसायीकरण के बाद रु.15,000 नवप्रवर्तक द्वारा चुका दिए गए है। इसके अतिरिक्त, तकनीक लाइसेंसिंग के लिए समानांतर प्रयास किए गए है। नवप्रवर्तनों का एक कैटलॉग खाद्य संसाधन के उन दो निर्माताओं को भेज दिया गया है जिन्होंने रुचि व्यक्त की है। किंतु एकमात्र सीमांकन कारक यह है कि वर्गो उद्योग की क्षमता कम है। यह एक माह में केवल तीन नींबू काटने की मशीनों का या चार से पाँच अदरक छीलने वाली मशीनों का निर्माण कर सकती है। उनके पास पाँच लोगों का एक छोटा सा दल है. उनमें से दो प्रशिक्षित हैं (औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान) और अन्य अर्द्धकुशल है। नवप्रवर्तन का विवरण अचार निर्माण एक बहुत श्रमसाध्य उद्योग है। इसके मुख्य कारण लघु पैमाने पर होना और अचारों की तैयारी की प्रक्रिया हो सकते हैं, जो छोटे, विशेषीकृत कार्यों का सम्मिलन है। 500 से अधिक अचार निर्माता जो संपूर्ण भारत में फैले है। दक्षिण भारत में सर्वाधिक हैं, वे घर पर कार्य करते हैं या कुछ अपवादों के साथ लघु उद्योग चलाते है। उपभोग प्रतिमान भी दक्षिण भारत की ओर मुड़ा है।

हाल ही में, संपूर्ण विश्व में मुख्य रूप से बढ़ते हुए भारतीय विस्तार और पश्चिमी देशों में भारतीय भोजन निर्माण शैली और संगत के बारे में बढ़ी हुई जागरूकता के कारण अचारों के निर्यात में एक तीव्र वृद्धि देखी गई है। यह उद्योग कई श्रमिकों को, विशेष रूप से महिलाओं को, नियुक्त करता है। यहाँ तक कि एक छोटे पैमाने की अचार निर्माता इकाई भी औसतन लगभग 400 महिलाओं को नियुक्त करती है। सकारात्मक पक्ष की ओर, उद्योग ग्रामीण और अर्द्धशहरी महिलाओं के लिए रोजगार का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहा है। हालाँकि, निम्न स्वचालन अक्षमता का कारण होता है और इस प्रकार संसाधन महँगा होता है। अन्य महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय विशेषता अचार निर्माण में सम्मिलित मौसमीयता रही है। यह मुख्य रूप से फलों की उपलब्धता पर आधारित होता है। नींबुओं की स्थिति में, मौसम अप्रैल-जून और सितंबर से मध्य दिसंबर है। 

यह आमतौर पर देखा जाता है कि मौसम के दौरान उद्योग के लिए श्रम की उपलब्धता सीमित घटक बन जाती है। नवप्रवर्तनशील मशीन का उपयोग किसी भी खाद्य संसाधन उद्योग जैसे अचार या मसाला निर्माताओं द्वारा प्रभावी रूप से किया जा सकता है। नींबू की बड़ी मात्राओं को आवश्यक आकृति और आकार में सतत् रूप में काटा जा सकता है। उत्पादित फाँकों की बेहतर मात्रा - उत्पादित फल की फाँकें एकसमान प्रकृति की होती हैं और उन्हें स्वच्छ और आसानी से एकत्रित एवं पुनर्प्राप्त किया जा सकता है।

रासायनिक रंगो से मैला जीवन

प्राचीन काल से हमारे कपड़ों को प्राकृतिक तत्वों जैसे खनिज, पौधों और फूलों से रंगा जाता था। वास्तव में, रंगाई ऐतिहासिक दृष्टि से एक खूबसूरत कला का रूप था। इस कला ने अपना स्वरूप तब खोना शुरू किया, जब 1856 मे वैज्ञानिकों ने कृत्रिम रंग बनाने के तरीकों की खोज की थी। विभिन्न रसायनों के प्रयोग से वैज्ञानिकों ने कई नए रंगो को ईज़ाद किया जो लोगों को आकर्षित करने मे कामयाब रहे, वहीं इन कृत्रिम रंगों ने कपड़ा बनाने की लागत को भी कई प्रतिशत कम कर दिया।

इन नए रंगों ने कपड़ा उद्योग को पूरी तरह से बदल कर रख दिया था। इसी वजह से कपड़ा उद्योग मे प्राकृतिक रंगो का प्रयोग प्रचलन से बाहर होता गया। लेकिन लंबे समय से इन कृत्रिम रंगों के हमारे पर्यावरण और सेहत पर विपरीत परिणाम देखने को मिल रहें है। मनुष्यों की सेहत की बात करें तो इन कृत्रिम रंगों से सबसे ज्यादा प्रभावित वे लोग होते है जो इन कपडो को रंगने का काम करते है। कपड़ा फैक्टरियों मे रंगाई का काम करने वाले मजदूरों को बेहद कम भुगतान पर जहरीले वातावरण मे काम करना पड़ता है। एक शोध के मुताबिक रासायनिक रंगाई का कार्य करने वालों मे ट्यूमर का खतरा अधिक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, इन कारखानों के कर्मचारियों के बीच होने वाली मौतों मे कई तरह के कैंसर, cerebrovascular रोग, फेफड़ों के रोग से मरने वालों की संख्या 40 गुना अधिक है।

तिरुमुरुगन और शिवराज भी इरोड मे ऐसे ही एक कपड़े के कारखाने मे काम करते थे। कई सालों तक वहाँ काम करने की वजह से उनकी सेहत पर कई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगे थे। जब वे इलाज़ के लिए चिकित्सकों के पास गए तो उन्होने दोनों को अपना कार्यक्षेत्र बदलने का सुझाव दिया । उसी समय वे इरोड मे रसायनिक रंगाई की वजह से वहाँ के जल स्त्रौतों पर होने वाले नुकसान के विरोध मे काम करने वाले कुछ सामाजिक संघठनों के संपर्क मे आए थे। इन संघठनों के संपर्क मे आने की वजह से उन्हे ज्ञात हुआ की रासायनिक रंगाई से सिर्फ उनकी सेहत को ही नहीं अपितु पूरे पर्यावरण को बेहद नुकसान हो रहा है। तब उन्होने इस विषय पर और शोध करना शुरू किया और इसके विकल्प खोजने में लग गये। इसी दौरान उन्होने प्रकृतिक रंगाई के बारे मे जाना और डिंडगल के गांधीग्राम मे जाकर प्राकृतिक रंगाई के विषय पर गहराई से अध्ययन किया और वृक्षाटोन नाम से इरोड मे प्राकृतिक रंगों से कपड़े कि रंगाई का एक छोटा सा उपक्रम शुरू किया।


तिरुनुरुगन बताते है कि “जब हम डिंडगल मे अध्ययन कर रहे थे तब हमे पता चला कि रसायनिक रंग सिर्फ कारखानों मे काम करने वाले मजदूरों कि ही सेहत खराब नहीं करते है अपितु उन कपड़ों को पहनने वाले लोगों पर भी इसका बुरा प्रभाव डालते है। मैं शर्त से कह सकता हूँ कि लोगों ने कभी इस बारे मे सोचा ही नहीं होगा की हमारे कपड़े भी हमारे लिए जहर का काम कर सकते है। हम अपने घरों चाहें कितना भी जैविक खाने का प्रयोग करलें, पर हम अभी तक इस भ्रम मे जी रहे है कि कृत्रिम रंगों से बने हमारे कपड़े हमारे लिए सुरक्षित है। पर हकीकत यह है कि हमारे कपड़े कई प्रकार के जहरीले व अदृश्य रसायनों का घर है। आज हमारा कपड़ा उद्योग जो कि 7 ट्रिल्यन डॉलर से भी अधिक का है वो कपड़ा बनाने के लिए 8000 से अधिक जहरीले रसायनों का प्रयोग करता है। यह रसायन सीधे हमारी त्वचा के संपर्क मे आते है। इसकी वजह से बांझपन, सांस कि बीमारियाँ, चरम रोग, कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा हमारे जीवन मे कई प्रतिशत तक बढ़ जाता है। हम जितना इन कपड़ों का प्रयोग करेंगे, उतना ही इन जहरीले रसायनों का हमारे शरीर मे पहुँचने का जोखिम बढ़ता जाएगा और हमारा शरीर बीमारियों का घर बनता जाएगा।”

वहीं शिवराज कहते है कि “लगभग हर औद्योगिक रंगाई कि प्रक्रिया में पानी में कई प्रकार के रसायनो को मिलाया जाता है। कपड़े को रंगने के बाद गंदे पानी को सीधे नदी और नालों मे छोड़ दिया जाता है क्योंकि पानी फिर से उपयोग मे लाने की लागत बहुत ज्यादा है। हर साल वैश्विक कपड़ा उद्योग 40 से 50 हज़ार टन गंदा पानी नदियों मे छोड़ता है। वहीं प्रकृति रंगो से कि जाने वाली रंगाई मे एक तरफ जहां पानी का प्रयोग अस्सी प्रतिशत तक कम होता है वहीं वह पानी हमारी कृषि के लिए एक वरदान से कम नहीं है क्योंकि उस पानी मे पोटाशियम कि मात्रा अधिक होती है इस वजह से वह मिट्टी के लिए उर्वरक का काम करता है। हालांकि जागरूकता और सरकार दबाव के चलते कई कपड़े के कारखाने पानी मे से रसायन निकालकर उसे नदी मे छोड़ने लगे है पर फिर भी वह पानी पीने लायक बिलकुल नहीं होता है और उस पानी मे से निकले हुए रसायनों के कीचड़ का क्या करना है कोई नहीं जानता है।”

इरोड मे ही जहां हमे कावेरी जैसी नदी का वरदान मिला हुआ है, हमें पानी खरीदकर पीना पड़ता है क्योंकि ज़मीन से निकले पानी मे कई प्रकार के जहरीले तत्व पाये जाते है और किनारो के आस-पास तो पानी कई रंगो का मिलता है। उस पानी को देखने के बाद यही लगता है कि अभी-अभी इस पानी से किसी ने होली खेली है।

वे आगे जोड़ते हुए कहते है कि हमारी प्रकृति कई खूबसूरत रंगो से भरी पड़ी है। अगर हम उसे सही तरीके से समझे और उसका सम्मान करे तो ऐसे कई तरीके मौजूद है जिनसे हम प्राकृतिक तत्वों का प्रयोग करते हुए कई सारे रंग बना सकते है व उनसे रंगाई भी कर सकते है।

गौरी - कृष्णन ने यैलो बैग बनाकर दिया प्लास्टिक बैग का विकल्प

प्लास्टिक बैग (थैलियाँ) हमारी ज़िंदगी मे सबसे पहले 1977 मे आए थे। इन्हे सबसे पहले न्यूयॉर्क के सुपरमार्केट मे प्रयोग किया गया था। इन चालीस सालों मे प्लास्टिक बैग हमारी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन गए है। औसतन दुनिया का हर व्यक्ति 200 प्लास्टिक बैग हर साल उपयोग कर कचरे मे डाल देता है। हर साल हम 10 खरब(1 ट्रिल्यन) प्लास्टिक बैग्स का उपयोग करते है, यानि लगभग 20 लाख प्लास्टिक बैग प्रति मिनिट। एक प्लास्टिक बेग को फिर से धरती मे समाने के लिए लगभग 1000 साल लगते है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है की स्थिति कितनी भयानक है। एक शोध के अनुसार वैज्ञानिकों ने पता लगाया है की महासागरों के प्रति वर्ग मील मे करीब 46,000 प्लास्टिक के बैग तैर रहे है। उत्तरी प्रशांत महासागर मे प्लास्टिक के कचरे से एक पूरा टापू बन गया है जो फ़्रांस के क्षेत्रफल से दुगना है। जिसे The great pacific garbage patch के नाम से भी जाना जाता है।


भारत मे 99 प्रतिशत खुदरा व्यापारी प्लास्टिक बैग्स का प्रयोग करते है और 80 प्रतिशत उपभोक्ता ख़रीदारी के लिए प्लास्टिक बैग्स को तवज्जो देते है। इसमे से 80 प्रतिशत का कहना है की वे इन प्लास्टिक बैग्स का सिर्फ एक बार ही उपयोग करते है उसके बाद वे उन्हे कचरे मे फेंक देते है। ऐसे मे प्लास्टिक बैग्स का उचित विकल्प खोजना बेहद आवश्यक हो गया है। मदुरै से गौरी और कृष्णन अपने उपक्रम The Yellow Bag के माध्यम से ऐसे ही कुछ व्याहवहारिक विकल्प प्रस्तुत करते है, जो ना सिर्फ हमारे पर्यावरण के लिए सेहतमंद है अपितु इसके माध्यम से वे समाज के आर्थिक रूप से असक्षम तबके को आय का एक नवीन स्त्रौत भी प्रदान कर रहे है।

कृष्णन कहते है कि “मैं और मेरी पत्नी गौरी चेन्नई मे दो बड़ी MNCs में काम करते हुए एक साधारण और सुखी दाम्पत्य जीवन जी रहे थे। दुनिया के नज़रिये से खुशहाली के लिए जो भी साधन चाहिए हमारे पास वो सबकुछ था। 2010 मे हमे कुदरत ने एक खूबसूरत बेटी के तोहफे से नवाजा और वहीं से हमारे दुनिया को देखने का नज़रिया भी बदलने लगा। जब हमारी बेटी चार्मी दो साल की थी तब वो बेहद बीमार रहने लगी थी। उसे सांस लेने बेहद तकलीफ हो रही थी तब हमने उसके इलाज़ के लिए कई अस्पतालों के चक्कर लगाए पर कही भी हमे संतुष्टि नहीं मिल पायी । हम समझने की कोशिश कर रहे थे की ऐसा क्यो हो रहा है, चार्मी की बीमारी के क्या कारण है पर हमे कहीं से भी कोई ठोस कारण नहीं समझ आ रहा था। तब हमने ऐलोपथी इलाज़ से हटकर विभिन्न विकल्प खोजने शुरू किए। जब हमने उसका ऐलोपथी इलाज़ रोककर तमिलनाडू के एक पारंपरिक वैद्य से उसका इलाज़ शुरू किया। हमारे लिए आश्चर्य की बात थी कि चार्मी की एक साल की तकलीफ और हमारा एक साल का मानसिक अवसाद सिर्फ दो महीनों मे ठीक हो गया।


इसने हमे सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमे जो बताया गया हो या जो सिखाया गया हो, वो ही सही हो या एकमात्र विकल्प हो ये जरूरी नहीं है। जीने के और भी कई तरीके हो सकते है जिनके बारे मे हम अंजान हो क्योंकि हमे कभी उनके बारे मे न तो पढ़ाया गया न ही बताया गया। तब हम इन वैकल्पिक जीवनशैली की तरफ आकर्षित होने लगे। हम सोचने लगे थे की हम जो भी काम कर रहे है उससे समाज पर क्या असर हो रहा है, उसे वापिस हम क्या दे रहे है और हम आने वाली पीढ़ी के लिए क्या छोड़ कर जाएंगे। तब हम धीरे-धीरे अपनी आदतों मे बदलाव करने लगे और रोज़मर्रा की उपयोग मे आने वाली चीज़ों के स्थायी विकल्प तलाशने लगे जिससे हम अपने घर मे कचरे को कम से कम कर सकें। ऐसे ही एक प्रयोग के दौरान हमने तय किया की हम प्लास्टिक की थैलियों की जगह कपडे के थैले का इस्तेमाल करेंगे और जब हम खोजने लगे तो हमने पाया की हमारे घर मे एक भी कपड़े की थैली नहीं है। इस घटना ने हमे इस समस्या पर गंभीरता से सोचने पर मजबूर कर दिया।”


गौरी बात को आगे बढ़ाते हुए कहती है की “हम दोनों का जन्म स्थान मदुरै है और मदुरै मे एक परंपरा रही है की लोग अपने घरों मे कपड़े के बैग बनाकर उनका इस्तेमाल किया करते थे। शादी या कोई और भी कार्यक्रम हो लोग उपहार देने के लिए इन थैलियों का प्रयोग किया करते थे। तब हमने मदुरै से कुछ थैलियाँ मंगाई और उन्हे कुछ दोस्तों मे व कुछ कार्यक्रम मे बाँटना शुरू किया। पर हमने कभी सोचा नहीं था की हम भविष्य मे यही काम करेंगे। पर जब हमे लोगों से और दोस्तों से सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ मिलने लगी, तब हम इस काम को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने लगे और एक वक़्त ऐसा आया की हमे लगने लगा की अब हमे इस काम को अगर आगे बढ़ाना है तो हमे इसे अपना पूरा समय देना पड़ेगा और तब पहले मैंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दिया और कुछ समय बाद कृष्णन भी अपनी नौकरी छोड़कर इस काम मे पूरी तरह जुड़ गए।”

अपनी नौकरी छोड़ने के बाद गौरी और कृष्णन चेन्नई से मदुरै आ गए क्योंकि उनका सारा उत्पादन यहीं से हो रहा था। आज येल्लो बैग से मदुरै के आस-पास के क्षेत्र की 30 औरतें जुड़ी हुई है। यही नहीं, इसके अलावा वे कोशिश कर रहे है की इसमे उन औरतों को भी रोजगार मिल सकें जो मानसिक रूप से अस्वस्थ है। अभी उनके साथ ऐसी लगभग 10 औरते काम कर रही है जो उन्हे पेकिंग और उससे संबन्धित कामों मे उनकी मदद करती है। रोजाना ये औरते 1000 से ज्यादा बैग्स बनाती है। आज देशभर मे 150 से ज्यादा ग्राहक येल्लो बेग्स के साथ जुड़े हुए है जो लगभग 30000 बैग प्रतिमाह इनसे खरीद रहे है। गौरी और कृष्णन का लक्ष्य है की इस साल के अंत तक वे एक लाख बैग हर महीने बना सकें और ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्लास्टिक बैग के विकल्प उपलब्ध करा सकें। उनका कहना है की अगर कपड़े के एक बैग को हम सही तरीके से प्रयोग कर सकें तो यह एक बैग एक साल मे 1000 प्लास्टिक बैग को कचरे मे जाने से रोक सकता है। यह बैग न सिर्फ हमारे पर्यावरण के लिए सेहतमंद है अपितु इसके माध्यम से वे वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी चुनौती दे रहे और स्थानीय लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाकर उन्हे आर्थिक रूप से सक्षम बनाने की कोशिश कर रहे है।

आर्किटैक्ट बीजु भास्कर ने बनाया प्राकृतिक घर का आशियाना

एक बच्चे के युवक बनने की प्रक्रिया में शिक्षा का अहम स्थान होता है और उस शिक्षा को प्राप्त करने के लिए जरूरी है, नए अनुभव प्राप्त करना। इन अनुभवों को हम चार दीवारों के भीतर बैठकर कभी नहीं प्राप्त कर सकते है। मैं हमेशा मानता आया हूँ कि “Travel is our best teacher” जब आप उन चार दीवारों से बाहर निकलते है तो कई नए लोगों से मिलते है, नयी जगहों, नयी संस्कृतियों का अनुभव प्राप्त करते है। जब हम यात्रा करते है तो हम कई ऐसे कार्य करने का अनुभव प्राप्त होता है जो आमतौर पर हमे कभी करने का मौका नहीं मिलता। यात्राएं हमे संकीर्णता अंधविश्वासों से परे खुले दिमाग से सोचने पर मजबूर करती है। यात्रा और शिक्षा कभी एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते । दूसरे शब्दों मे कहें तो यात्रा के बिना शिक्षा अधूरी है। भारत मे ही कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ से कलिमपोंग तक इतनी विविधता भरी पड़ी है, जहाँ हमारे लिए सीखने के लिए बहुत कुछ है। इतिहास, वास्तुशिल्प, खेती, पर्यावरण, गीत-संगीत, नृत्य और भी कई सारे हुनर जिनके बारे मे स्कूल की किताबों मे हमे कभी पढ़ने को मिला ही नही है।


बीजू भास्कर को भी अपने कॉलेज के दिनों मे कुछ ऐसा ही लग रहा था की, असली शिक्षा चार दीवारों के बाहर ही मिल सकती है। तब वे अपनी आर्किटेक्ट की पढ़ाई बीच मे छोड़ कर भारत भ्रमण पर निकल गए। उन्हे नहीं पता था की उनकी यह यात्रा उन्हे कहाँ लेकर जायेगी, पर उन्हे इतना पता था की उनकी रुचि कला के क्षेत्र मे हैं। ऐसे ही अपने जीवन की दिशा तय करने की इस खोज यात्रा मे वे घूमते हुए खजुराहो पहुँचे। यही पर उनकी मुलाक़ात अपने गुरु से हुई जो खुद एक शिल्पकार थे। तब वे कुछ वक़्त के लिए यही रुककर अपने गुरु के साथ रहते हुए जीवन जीने की कला सीखने लगे। यहीं पर उन्हें हमारे जीवन मे पंचतत्वों वो (धरती, आकाश, जल, वायु और अग्नि), जिनसे इस संसार की रचना हुई है, के महत्व के बारे पता चला और उनकी समझ विकसित हुई की कैसे इनके साथ मिलकर मनुष्य अपना जीवन सुकून से जी सकता है।

उनका सामना इस हकीकत से हुआ की कैसे आधुनिक विकास की वजह से मनुष्य अपनी जड़ों से दूर होता जा रहा है, वो यह भूल गया है की उसका यह शरीर भी इन्हीं पंच तत्वों से मिलकर बना हुआ है। इनको नष्ट करने के वो जिस रास्ते पर चल रहा है, हकीकत में वो खुद के विनाश का रास्ता तय कर रहा है। यही पर जब वे काम करते हुए, शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तब उन्होने गाँव के लोगों को अपना घर स्वयं बनाते हुए देखा। यह उनके लिए एक नया अनुभव था। चूंकि वे खुद आर्किटेक्ट के विद्यार्थी रह चूकें थे उनकी इसमे रुचि बढ़ने लगी। लोगों के साथ उनका घर बनाते हुए उन्हे एहसास हुआ की घर बनाने का मतलब एक ढाँचा खड़ा करना नहीं है। यह अपने आप मे एक कला है, यह एक आध्यात्मिक यात्रा है जो मकान को घर बनाती है। इसीलिए हजारों वर्षों से लोग अपना घर खुद बनाते आ रहे हैं।


उसी समय अपने पिताजी के कहने पर उन्होने लौटकर अपनी आर्किटेक्ट की डिग्री पूरी की और कुछ वर्षों तक उन्होने शहर मे रहकर काम भी किया पर वो जानते थे की यह उनकी यात्रा नहीं है। उन्हें तो घर बनाने की कला सिखनी थी और उस कला को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना था। तब उन्होने 2011 मे तिरुवन्नामलाई मे थनल की स्थापना की। (http://thannal.com)

बीजू बताते हैं कि “थनल सिर्फ ढाँचा खड़ा करने वाली संस्था नहीं है। हमारा मूल मकसद लोगों मे प्रकृतिक बिल्डिंग के प्रति जागरूकता फैलाना है, साथ ही प्राचीन वास्तुकला कि विभिन्न तकनीकों और ज्ञान का संवर्धन करना है। इसके लिए हम प्रकृतिक बिल्डिंग बनाने कि कार्यशालाए आयोजित करते है, जिन विद्यार्थियों कि इसमे रुचि है उन्हे आमंत्रित करते है, हम देश भर मे घूमकर पुराने कलाकारों से मिलकर उनके ज्ञान को डॉक्युमेंटेशन करते है और साथ ही अब हम घर बनाने कि कला को विभिन्न कलाओं जैसे संगीत, नृत्य आदि के साथ जोड़कर लोगों को जागरूक करने के लिए एक म्यूज़िकल एल्बम बना रहे है।”

वो आगे कहते है कि “अभी भी दुनिया कि एक चौथाई आबादी ऐसे घरों मे रहती है जो पूर्ण रूप से प्रकृतिक संसाधनों से बने हुए है। यह घर ना सिर्फ सीधे रूप से प्रकृति से जुड़े हुए है अपितु बेहद आरामदायक और लंबे समय तक टीके रहने वाले होते है। परंतु आधुनिक विकास कि परिभाषा मे इन घरों मे रहने वाले लोगों को पिछड़ा हुआ बताया जाता है। कुछ ताकतवर लोगों कि एक सोची समझी साजिश के तहत पहले लोगों को हीन भावना से ग्रसित किया गया फिर उन्हे उनके पूर्वजों के ज्ञान से दूर किया गया है। पर अभी भी देर नहीं हुई है। हम अपनी गलतियों से सीख सकते है। अभी भी हमारे लोगों के पास पारंपरिक ज्ञान का भंडार है जिससे हम अपने लिए ऐसे घर बना सकते है जो धरती के लिए नुकसानदायक नहीं है। पर हमारा जो वक़्त है वो अभी ही है, क्योंकि ये जितना भी ज्ञान है वो हमसे एक पीढ़ी पहले के लोगों के पास है। उसे अभी अगर नहीं सहेजा गया तो यह ज्ञान पूरी तरह लुप्त हो जाएगा। इसलिए हमारी पहली प्राथमिकता इस ज्ञान को सहेजना है जिससे हम इस ज्ञान को आने वाली पीढ़ी को सौंप सकें।”