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Monday, 27 March 2017

सूरज की तपिश से अब जमेगी आइसक्रीम और मिलेगा ठंडा पानी

गर्मियों में जब कभी हम औरआप बाहर घूमने या काम परनिकलते है तो सबसे पहले हमें जरूरत होती है ठंडे पानी या फिर आइसक्रीम की। लेकिन कई बारसड़क किनारे आइसक्रीम कार्ट सेमिलने वाली मनपसंद आइसक्रीम हमेंपिघली हुई मिलती है। इसी तरहसड़क किनारे मिलने वाला पानीकितना शुद्ध होता है, हमें पता नहींहोता, क्योंकि हर आदमी बोतल बंदपानी नहीं खरीद सकता। इसी समस्या का समाधान मुम्बई केइलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर महेश राठी नेकिया हैं । 

जो पिछले कई सालों सेसोलर विंड और बायोमास के क्षेत्र मेंकाम कर रहे हैं।कुछ नया करने की चाहत मेंजब एक दिन वह गुजरात के भुज मेंविंड टरबाईन के रख रखाव का कामकर रहे थे तो फिल्ड में काम करतेहुए उन्हें एहसास हुआ कि गर्मी मेंठंडे पानी की कितनी जरूरत होती है,तब उन्होंने सोचा कि क्यों ना सोलरसिस्टम के जरिये पानी ठंडा करनेवाला कोई उपकरण बनाया जाये।महेश राठी बताते हैं कि“जब करीब 2 साल पहले गर्मियों केदिनों में काम के सिलसिले में वहदिल्ली गए तो सड़क किनारेआईसक्रीम कार्ट ने उन्हें पिघली हुईआइसक्रीम दी और जब उन्होंनेआइसक्रीम वाले से कहा कि इसपिघली हुई आइसक्रीम की जगहउसे दूसरी आइसक्रीम दे तो उसनेकहा कि दिल्ली की इतनी गर्मी मेंसब आइसक्रीम का हाल ऐसा ही होजाता है। 

इसी तरह घूमते घूमतेजब आगे बढे तो उन्होंने देखा किसड़क किनारे एक पानी के डिस्पेंसरवाला 2 रुपये गिलास पानी बेच रहाथा, लेकिन वो पानी कितना साफ थावह नहीं जानते थे। तब उन्होंने सोचाकि क्यों ना कूलिंग रेफ्रिजिरेटरबनाया जाये जिससे ना सिर्फ साफपानी मिले बल्कि वो ठंडा भी हो।इस तरह महेश राठी नेकूलिंग सिस्टम पर काम करना शुरूकर दिया। शुरूआत में उनको इसेबनाते हुए कई तरह की दिक्कतें आई,इसके कई पुर्जें उन्हें चीन व अमेरिकासे मंगाने पड़े थे, कुछ चीजों कीतकनीक तो सिर्फ अमेरिका के हीपास थी। इसमें उनका काफी पैसाऔर समय बर्बाद हुआ। इस तरहकरीब 5 लाख रूपये खर्च करने औरडेढ साल की कड़ी मेहनत के बादउन्होने एक ऐसा कूलिंग सिस्टमतैयार किया जिसमें आइसक्रीम भीनही पिघलती थी और पानी भी ठंडामिलता था। अब वो इसे बाजार मेंउतारने के लिए तैयार थे। खास बातये थी कि इस आइस कार्ट को सोलरपैनल से चार्ज किया जा सकता है,बारिश के समय इसे बिजली से भीचार्ज किया जा सकता है। इसमेंलगने वाली 12 वोल्ट की बैटरी केवलआधा यूनिट में ही चार्ज हो जाती है...इस कार्ट में ना सिर्फ आइसक्रीम औरपानी को ठंडा करने की सुविधा हैबल्कि कोई चाहे तो अपना मोबाईलभी चार्ज कर सकता है।महेश के मुताबिक इस कार्टको बनाते समय सबसे बड़ी दिक्कतनिवेश की आई और उनको कोई ऐसानिवेशक नहीं मिल रहा था जो इनकेप्रोजेक्ट पर निवेश कर सके। जिसकेबाद उन्होने पब्लिक प्लेटफॉर्म काइस्तेमाल किया और कार्ट से जुड़ेपोस्ट डाले। जिसके बाद ‘मिलाप’ कोउनका ये आइडिया पसंद आया औरउन्होने इस तरह के कार्ट बनवाने मेंरूची दिखाई। 

महेश आगे बताते हैंकि - उन्होंने उनसे कहा कि अगरपैसा मिल जाय तो वह इस तरह कीकम से कम 10 कार्ट बनाना चाहते हैंऔर इस तरह के कार्ट को किसीएनजीओ को किराये पर दे सकते हैं।ऐसा करने से कई बेरोजगारों कोरोजगार के मौके मिल सकते हैंजिससे हर महीने उनको एकनियमित आमदनी भी होगी।महेश यहीं नहीं रूके वो अबएक ऐसा सोलर कार्ट बना रहे हैं जो‘सोलन’ मछलियों को रखने के लिएहोगा। इस कार्ट के जरिये सड़ककिनारे मछली बेचने वालों कीमछलियां लम्बे समय तक खराब नहींहोंगी। इस तरह से उनकी आमदनीबढ़ सकती है।अपनी योजनाओं केबारे में महेश बताते हैं कि वह सोलरविंड व बायो मास पर काम कर रहेहैं। वो सोलर एयर कंडीशनर औरएक ऐसा सोलर एयर कूलर बाजार मेंउतार रहे हैं जो फोर इन वन है। 

इस उपकरण में कूलर के साथ ही सोलरपैनल, बैट्री, कूलर, इन्वर्टर लगा है।इनके बनाये एयर कूलर की खासियतहै कि ये गर्मी में तो कमरे को ठंडाकरता है और गर्मी सीजन खत्म होनेके बाद ये इनवर्टर का काम करताहै। महेश के इस खास तरह के कूलरकी कीमत साढ़े बारह हजार रुपये सेशुरू होती है।महेश के मुताबिक उनकाबनाया सबसे छोटा आइस कार्ट 108लीटर का है। जो एक बार चार्ज होजाने के बाद 16 से 17 घंटे तकआइसक्रीम को जमाये रखता है।इसके अलावा इसमें एक बार में 50 से60 लीटर पानी स्टोर किया जासकता है। जो ना सिर्फ साफ होता हैबल्कि ठंडा भी रहता है। इसआइसकार्ट की शुरूआती कीमत 1लाख से शुरू होती है। महेश बताते हैंकि उन्होने अब तक करीब 15आईसकार्ट (डिप फ्रिजर) होटलवालों को बेच दिये हैं, ये फ्रिजर 500से 1000 लीटर साइज के हैं। इसकेअलावा कुछ बड़ी आईसक्रीमकम्पनियों के साथ उनकी बातचीतचल रही है। मुंबई में रहने वाले महेशअपना कारोबार विश्वामित्र इलेक्ट्रिकल एंड इंजीनियर्स प्राइवेटलिमिटेड के जरिये कर रहे हैं। अबउनकी योजना क्राउड फंडिग केजरिये पैसा इकट्ठा कर कंपनी काविस्तार करने की है।

एक ऐसा शख्स जो पेड़ों को बिना काटे अपनी जगह से हटा देता है

अगर हम पेड़ की बात करें तो सभी जानते होंगे की पेड़ों से ही इंसान की जीवन संभव है। बिना पेड़ों नहीं जी सकते और आज हम आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसे शख्स के बारे में जो कि पेड़ों को बिना काटे उनकी जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं...
आज हम आपको बैंगलोर के रहने वाले एक शख्स के बारे में बता रहे हैं जिन्होंने 5000 पेड़ों को बिना काटे उनकी जगह से हटा दिया। एक बार उन्हें जयामहल एरिया में स्टील फ्लाइओवर बनाने के लिए बीच में आने 112 पेड़ों को हटाने को कहा गया। अगर इन पुराने पेड़ों को काटा जाता तो बहुत ज्यादा नुकसान होता। लेकिन इस शख्स ने चमत्कार करके दिखा दिया। दुनिया आगे बढ़ने की राह पर चल रही है इसलिए भारत देश में भी तरह-तरह की इमारते बनती रहेंगी।


लेकिन इन सब के बीच देश की हरियाली खत्म नहीं होनी चाहिए। इस हरियाली को बचाने के लिए एक नया तरीका सामने आया है। 2009 में हैदराबाद-विजयवाड़ा हाइवे बनाने के लिए बहुत सारे पेड़ काटे गए। जिस पर बहुत से लोगों ने इस पर विवाद खड़ किया। हैदराबाद के रहने वाला रामचंद्रा अप्पारी ने इस सब को रोकने के लिए एक नया कदम उठाया। रामचंद्रा ने बताया कि उन्होंने अपनी इस परेशानी को अपने ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले मित्र को बताई जिसने उन्हें पेड़ को अपनी जगह से हटाने का नया उपाए बताया। जिसके बाद रामचंद्रा ने Green Morning Horticulture Service Private Limited नाम की एक संस्था खोली जो कि पेड़ को अपनी जगह से सुरक्षित हटाने का काम करती है।


रामचंद्रा 2000 साल पहले मिस्त्र में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक से ये काम पूरा करते हैं। हम सभी जानते हैं कि पेड़ इंसान के जीवन में बहुत ज्यादा अहम रोल निभाता है। पेड़ को क्रेन द्वारा उठाकर फिर जूट से कवर करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। पेड़ को ट्रॉली पर रखकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। हैदराबाद में मैट्रो रेल के निर्माण में 800 पेड़ों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया गया। इस दौरान पेड़ में कीट नाशक दवाई छिड़की जाती है। 5 साल पुराने एक पेड़ को अपनी जगह से हटाकर नई जगह पर रखा गया जिसके बाद आज वह बिल्कुल हरा-भरा है। अगर आपको भी इस तरह के काम की जरुरत पड़े तो आप मिस्टर अप्पारी से ramachandra.appari@gmail.comपर बात कर सकते हैं।


वनों के क्षेत्रों में पेडों को जलाना या काटना ऐसा करने के लिए कई कारण हैं। पेडों और उनसे व्युत्पन्न चारकोल को एक वस्तु के रूप में बेचा जा सकता है और मनुष्य के द्वारा उपयोग में लिया जा सकता है जबकि साफ़ की गयी भूमि को चरागाह (pasture) या मानव आवास के रूप में काम में लिया जा सकता है। पेडों को इस प्रकार से काटने और उन्हें पुनः न लगाने के परिणाम स्वरुप आवास (habitat) को क्षति पहुंची है, जैव विविधता (biodiversity) को नुकसान पहुंचा है और वातावरण में शुष्कता (aridity) बढ़ गयी है। साथ ही अक्सर जिन क्षेत्रों से पेडों को हटा दिया जाता है वे बंजर भूमि में बदल जाते हैं।

इंग्लैंड में अपनी ऐशो-आराम की जिन्दगी छोड़, भारत के गाँवों को बदल रहे है ये युवा दंपत्ति!

पंद्रह साल पहले की बात है। पुणे के रहनेवाले आशीष कलावार ने हाल ही में अपनी इंजीनियरिंग की पढाई पुरी की थी और एक बहुत अच्छी कंपनी में अपनी पहली नौकरी से बहुत खुश भी थे। कंपनी ने उनकी पहली पोस्टिंग बिहार के बोकारो शहर में की थी।

आशीष छुट्टियों में घर वापस आने के लिए बोकारो स्टेशन पर अपनी ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे। इतने में 10-12 साल का एक लड़का उनके करीब आया और उनसे उनके जूते पोलिश करने का आग्रह करने लगा। ये देखकर आशीष को झटका सा लगा। उन्होंने उस लड़के से कहा कि ये उम्र उसके स्कूल जाने की है न कि काम करने की। इस पर लड़का बोला कि वो स्कूल जाने के लिए ही काम करता है और इन पैसो से अपनी स्कूल की फीस भरता है।

इस बात से खुश होकर आशीष ने उसे अपने जूते पोलिश करने दिए और साथ ही उसे दुगने पैसे भी दिए। दस की जगह बीस रूपये का नोट देखकर मानो लड़के की आँखों में चमक सी आ गयी थी। वो ख़ुशी से उछल पडा।

“मेरे लिए ये सिर्फ दस रूपये ही थे पर उसे पाकर उस लड़के की आँखों में जो ख़ुशी मैंने देखी, वो आज तक मेरे लिए एक यादगार क्षण है। और उसकी ख़ुशी से जो संतुष्टि मुझे मिली वो मुझे पहले कभी नहीं मिली थी,” आशीष भावुक होकर बताते है।

इसके बाद आशीष फिर से एक बार अपनी नौकरी और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में व्यस्त हो गए पर कहीं न कहीं उनके मन में उस लड़के और उसके जैसे और बच्चो के लिए कुछ करने की चाह पनपती रही।

आशीष अपने जीवन में तरक्की पे तरक्की करते जा रहे थे और अब समय था घर बसाने का। ऐसे में वे रुता से मिले, जिनके विचार आशीष से काफी मिलते जुलते थे। रुता भी एक इलेक्ट्रॉनिक्स इंजिनियर थी और अपने कार्यक्षेत्र में काफी तरक्की कर चुकी थी।

2006 में आशीष और रुता एक दुसरे के साथ शादी के बंधन में बंध गए और आशीष को अपना जीवन परिपूर्ण लगने लगा।
हर युवा की तरह इन दोनों का भी सपना था कि वे जीवन में और तरक्की करे। और इसी सपने को पूरा करने के लिए इस जोड़े ने 2009 में इंग्लैंड का रुख किया।

दोनों अपने काम में काफी होनहार थे और इसलिए जल्द ही आशीष और रुता को वहां नौकरी मिल गयी।

समय बीता और अब इस दंपत्ति के पास सब कुछ था। इंग्लैंड जैसे देश में एक आलिशान घर, एक बढ़िया गाडी और जीवन के वो सारे साधन जिसे आम इंसान खुशियों का मापदंड समझता है। पर कहीं कुछ अभी भी बाकी था।

आशीष और रुता ने इंग्लैंड की नागरिकता अपनाने के लिए भी अर्जी दे दी थी पर अब उनका मन कुछ बेचैन होने लगा था।

“हमारे पास सब कुछ था… वो सब कुछ जिसके बलबूते पर हम अपने आप को कामयाब कह सकते थे। हम खुश भी थे पर कहीं न कहीं हम सुकून ढूंड रहे थे,” – आशीष

सुकून की तलाश में आशीष और रुता साउथ वेल्स में स्थित स्कन्दा वेल मंदिर में जाने लगे। ये दोनों वहां खूब सारा समय बिताते, ध्यान लगाते और वहां आये लोगो की सेवा भी करते। इन सब में उन्हें एक अजीब सी संतुष्टि मिलती।

“इस मंदिर में सेवा करते हुए मुझे अक्सर बोकारो के उस छोटे से लड़के की याद आती जिसने मेरे जूते साफ़ किये थे। मैं अब अपने देश के लिए भी कुछ करना चाहता था,” आशीष याद करते हुए कहते है।

सांसारिक भौतिकता और आध्यात्मिक सुख की इस उधेड़ बून के बीच, 2012 में आशीष और रुता का कुछ समय के लिए भारत आना हुआ। यहाँ आकर उन्हें पता चला कि उन्ही के एक रिश्तेदार, अमोल सैनवार ने एक संस्था की शुरुआत की है जो एक गाँव को गोद लेकर उसे सुधारना चाहते है। ये गाँव था, महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में बसा लोनवड़ी गाँव!
आशीष और रुता को शायद इसी क्षण का इंतज़ार था। अमोल से सारी जानकारी लेने के बाद ये दोनों भी संस्था के और लोगो के साथ लोनवड़ी पहुँच गए।

लोनवड़ी पहाड़ी पर बसा एक छोटा सा गाँव था जिसमें न बिजली थी, न पानी, न सड़के थी, न अच्छा स्कूल। तय किया गया कि सबसे पहले यहाँ पानी की समस्या को ख़त्म करने के लिए सोलार वाटर सिस्टम लगाया जायेगा। और इस वाटर सिस्टम को लगवाने की पूरी ज़िम्मेदारी आशीष ने अपने कंधे पर ले ली।

“मैंने और मेरे इंग्लैंड में बसे एक दोस्त, उन्मेष कुलकर्णी ने मिलकर इस वाटर सिस्टम को लगवाने के लिए करीब 90 फीसदी पैसो का इंतज़ाम कर दिया। पर इसके बाद हमारी छुट्टियाँ ख़त्म हो गयी और हमे इंग्लैंड वापस जाना पड़ा।“ – आशीष

अपने देश से दूर जाने के बाद भी रुता और आशीष का मन लोनवड़ी में ही बस गया था। वे दोनों समय समय पर वहां की खबर लेने लगे।

“मुझे पता चला कि पानी की समस्या दूर हो जाने की वजह से अब गाँववाले काफी खुश है। बच्चे अब स्कूल जाने लगे थे क्यूंकि अब उन्हें सुबह सुबह पानी लेने पहाड़ के निचे तक नहीं जाना पड़ता था। इस बात ने मुझे अपने देश के लिए कुछ करने की ओर और प्रेरित किया।“ – आशीष

आशीष और रुता ने गौर किया था कि रोज़मर्रा की इन समस्याओं के अलावा लोनवड़ी के लोग एक और समस्या से जूझ रहे है और वो थी नशे की समस्या। गाँव के ज़्यादातर मर्द खेती किसानी करते थे और तनाव और थकान की वजह से शाम को अक्सर तम्बाखू या दारु का नशा करते दिखाई देते थे। आशीष और रुता का मानना था कि कोई भी गाँव तब तक तरक्की नहीं कर सकता जब तक उसके लोग नशामुक्त न हो। और अब भारत के हर गाँव को नशामुक्त करना ही उनका उद्देश्य बन गया था।
जनवरी 2014 में एक ख़ूबसूरत भविष्य और एक बेहतरीन ज़िन्दगी को इंग्लैंड में ही छोड़ कर आशीष और रुता हमेशा-हमेशा के लिए अपने देश वापस लौट आये।

भारत वापस आकर सबसे पहले इस दंपत्ति ने लोनवड़ी का रुख किया। वहां के लोगो को ध्यान और साधना के फायदे बताये और उनसे रोज सुबह थोडा वक़्त ध्यान और कसरत में लगाने को कहा।

रूता कहती है,“मैंने उनसे नशा छोड़ने को नहीं कहा। बस वैसे ही ध्यान शुरू करने को कहा जैसे वो है। पर जब आप ध्यान या साधना करते है तो आप में एक अजीब सी सकारात्मकता आती है जो आपको हर नकारात्मक वस्तु से दूर रहने को मजबूर कर देती है।”
ये रुता और आशीष की लगन ही थी कि केवल 6 महीनो में गाँव के 80% लोगो ने नशा करना बंद कर दिया।


इसके अलावा इनकी संस्था, शिवप्रभा चैरिटेबल ट्रस्ट ने लोनवड़ी में काम जारी रखा और आज इस गाँव में बिजली, पानी, सड़क और यहाँ तक कि एक डिजिटल स्कूल भी है।

पर अभी भी इस गाँव में एक कमी है और वह कमी है, हर घर में शौचालय की। शिवप्रभा चैरिटेबल ट्रस्ट ने इस गाँव के स्कूल में दो तथा सभी गांववालों के इस्तेमाल के लिए गाँव में एक शौचालय बनवाया है। पर यह एक शौचालय पुरे गाँव के लिए काफी नहीं है। यदि हर घर में शौचालय बन जायेगा तो यह गाँव पूरी तरह से आदर्श ग्राम बन सकता है। और इस गाँव को आदर्श गाँव बनाने में हमे आप सब के सहयोग की ज़रूरत है।

इस विश्व शौचालय दिवस पर द बेटर इंडिया, शिवप्रभा चैरिटेबल ट्रस्ट के साथ मिलकर लोनवड़ी के हर घर में एक शौचालय बनवाने की मुहीम चला रहा है। और इस मुहीम में आप भी हमारे साथ जुड़ सकते है। इस लिंक पर जाकर आप अपना सहयोग इस नेक कार्य में दे सकते है।

एक डॉक्टर, जिन्होंने अपने गाँव में 11 डैम बनवाकर किया सूखे का इलाज!

देश के कई हिस्से सूखे की चपेट में हर साल आते हैं और किसानों की फसल और मेहनत सुखा जाते हैं। मानसून न आने से कई क्षेत्र सालों तक बंजर पड़े रहते हैं। मजबूरन वहां के किसानों को पलायन करना पड़ता है या कर्ज में डूबना पड़ता है।

लेकिन इसी सूखे की नाउम्मीदी में पानी की उम्मीद पाले डॉ अनिल जोशी ने कई गांवों में हरियाली ला दी। उनका डॉक्टरी छोड़कर जल सरंक्षणवादी बनने का सफ़र प्रेरणादायक है। डॉ अनिल जोशी ने अपने मरीजों की मदद करने का बीड़ा उठाया और एक आयुर्वेदिक डॉक्टर से जल सरंक्षणवादी बन गए।


उनके मरीजों में किसान भी शामिल थे, जो सूखे की मार झेल रहे थे। डॉ जोशी ने सामूहिक सहयोग से उनके लिए नदी और नालों के किनारे बांध बनवा दिए।

मध्य प्रदेश के फतेहगढ़ में अनिल जोशी ने लंबे समय से सूखे की मार झेल रहे किसानों के लिए 10 किमी की परिधि में बांधों का निर्माण कराया है, जिससे कई गांवों के खेतों को पर्याप्त पानी मिल रहा हैं।

डॉ अनिल जोशी 1998 में पहली बार फतेहगढ़ आए और चिकित्सा सेवा शुरू की। उन्होंने ऐसे कई मरीजों की सेवा की जो गरीबी के कारण फीस नहीं दे पाते थे।

डॉ अनिल जोशी ने देखा कि खेतों की अच्छी फसलें भी सूखे की चपेट में आके किसानों की मेहनत बर्बाद कर जाती हैं। किसान कितनी ही मेहनत और उम्मीद से फसल रोपे लेकिन बारिश न होने से सब मिटटी में मिल जाता है। इस क्षेत्र में जमीन से भी पानी नहीं निकलता, जलस्तर बहुत नीचे चला गया है।

2008 में मानसून नहीं आया और डॉ अनिल ने देखा कि किसान सूखे से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। उसी वक़्त उन्होंने सुझाव दिया कि हम चेक बांध बनाएंगे, जिससे बारिश का पानी एक जगह इकठ्ठा होगा और जमीन का जलस्तर बढ़ेगा। जिससे भविष्य में बारिश भी नहीं होगी तो जमीन के पानी से खेत सींचे जा सकेंगे।

डॉ अनिल ने अपने एक मित्र से 1000 सीमेंट की बोरियां लीं और उन्हें बालू से भरकर सोमाली नदी के किनारों पर रखकर बांध बना दिया। जब 15 दिन बाद बारिश हुई तो बांध पानी से लबालब भर गया और सालों से सूखे पड़े हैंडपम्प पानी देना शुरू हो गए। जमीन का जलस्तर अब पानी देने तक बढ़ गया था।

डॉ अनिल ने द वीकेंड लीडर को बताया, ” किसानों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, उस बरस खेतों को पर्याप्त पानी मिला और कई सालों के सूखे के बाद वो साल खेतों से अनाज घर लेकर आई।”

डॉ अनिल ने देखा कि एक बांध ने इसके आसपास के गांवों में हरियाली ला दी गरीब किसानों की स्थितियां बेहतर होने लगीं तो उन्होंने कई बांध बनाने का अभियान शुरू कर दिया। और उस क्षेत्र में आसपास के सूखे से प्रभावित गांवों में भी बांध बनवाने का निश्चय लिया।

2010 में उन्होंने हर ग्रामीण से एक रुपया लेना शुरू किया, जैसे ही उन्होंने बांध बनाने के लिए एक रुपया चन्दा देने की बात कही, उन्हें पहले 3 घण्टे में ही 36 रूपये मिल गए। अगले दिन उनके पास 120 लोगों ने एक एक रूपये का चन्दा इकठ्ठा कर दिया। लेकिन डॉ अनिल के इस रूपये इकठ्ठा करने के अभियान पर कई ग्रामीणों ने सवाल उठाये।

कुछ दिनों में जब एक हिंदी अख़बार में उनके इस अभियान की खबर छपी तो लोगों को उनके समर्पण और इरादों का पता चला। उसके बाद दो अध्यापकों ने पूरी तरह से अपना समर्थन उन्हें दिया और उनके साथ जुड़ गए। सुन्दरलाल प्रजापत और ओमप्रकाश मेहता जल सरंक्षण के अभियान में डॉ अनिल के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े हो गए।

तीन महीने में डॉ अनिल की टीम ने 1 लाख रुपयों का सहयोग इकठ्ठा कर लिया और अब जल सरंक्षण के लिए समर्पित इस ग्रुप ने एक स्थाई चेक बांध का निर्माण शुरू कर दिया। गाँव वालों ने लेबर का काम किया ताकि लेबर का खर्च बचे। सबके सहयोग से बांध बनाने का कुल खर्च 92 हज़ार रूपये आया।

डॉ अनिल जोशी ने इस तरह के 11 बांध बनवा दिए हैं। कई गांवों में हरियाली लाने वाले डॉ अनिल जोशी ने बताया कि अब उनका इरादा इस तरह के पक्के बांधों की संख्या 100 तक पहुँचाने का है।

“हर व्यक्ति से एक-एक रुपया इकठ्ठा कर सूखाग्रस्त क्षेत्र में बांध बनाना अब मेरा अभियान बन गया है। और मैं इस अभियान को जारी रखूंगा।”

इसके साथ साथ डॉ अनिल सवालिया धाम के लिए जाने वाली 120 किमी लंबी सड़क के किनारे पेड़ लगाना चाहते हैं। सवालिया धाम एक तीर्थ स्थल है जहाँ लोग भगवान कृष्ण के दर्शन करने जाते हैं।

डॉ अनिल जोशी को ‘द बेटर इंडिया’ की ओर से ढेर सारी शुभकामनायें। आप भी ऐसा कदम उठाकर सामूहिक रूप से किसी भी समस्या का हल ढूंढ सकते हैं।

‘काऊइस्म’ – स्वदेशी गाय हो सकती है किसानो की हर समस्या का हल !

काऊइसम (Cowism), कंप्यूटर इंजिनियर, चेतन राउत द्वारा शुरू किया गया एक स्टार्ट अप है। चेतन का मानना है कि खेती के साथ साथ स्वदेशी गाय पालन ही किसानो की आत्महत्या रोकने का एकमात्र उपाय है।

चेतन राउत उस वक़्त नागपुर के YCCE कॉलेज में इंजीनियरिंग की पढाई कर रहे थे, जब विदर्भ के किसानो की आत्महत्या की खबरे हर रोज़ की बात हो गयी थी। चेतन के पिता, अरुण राउत भी एक समय पर किसान ही थे। विद्यार्थी जीवन में वे शरद जोशी के मार्गदर्शन में अनेक कार्यक्रमों में भाग लेते थे। लेकिन खेती में ज्यादा फायदा न होने के कारण नाखुश होकर उन्होंने खेती छोड़।


चेतन कहते है ,“मेरे पिताजी हमेशा खेती करने के विरुद्ध थे। हमें वो खेती छोड़कर अन्य व्यवसाय या नौकरी करने की सलाह देते। पर जब भी वो खेती के बारे में बाते करते थे तो उनकी आँखों में एक अजब सी चमक आ जाती । हम ये समझते थे कि भले ही उन्होंने खेती छोड़ दी हो पर उन्हें इससे कितना लगाव है ।”

जब भी चेतन विदर्भ के किसानो के आत्महत्या के बारे में सुनते थे तब उन्हें बहुत बुरा लगता था। खेती और किसानों से उन्हें लगाव था। कॉलेज के दिनों में ही चेतन विदर्भ युथ एसोसिएशन से जुड़ गये। ये संस्था किसानों को उनकी समस्या हल करने और उनके बच्चो की शिक्षा के लिये मदद करती है।
चेतन ने गौर किया कि पश्चिम महाराष्ट्र के किसान तो संपन्न है पर उसी महाराष्ट्र में रहनेवाले विदर्भ के किसान गरीबी और भुखमरी के कारण आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते है।इसलिये उन्होंने दोनों ही जगह पर जाकर जानकारी हासिल करने का निश्चय किया।

सन २०११ में इंजीनियरिंग की पढाई पूरी करने के बाद चेतन अपने दोस्तों के साथ पुरा महाराष्ट्र घुमने निकल पड़े। पुरे एक महीने के रोड ट्रिप के दौरान उन्होंने विदर्भ और पश्चिम महाराष्ट्र के किसानों के खेती करने में बहुत ज्यादा अंतर देखा। पश्चिम महाराष्ट्र के किसान इंटीग्रेटेड फार्मिंग (एकीकृत खेती याने एक साथ खेती करना) और लाइवस्टॉक रेअरिंग (पशुपालन) का इस्तेमाल करते है इसलिये उनके खेत हमेशा हरेभरे रहते है।

चेतन का मानना था की खेती छोड़कर दूसरा विकल्प ढूँढने के बदले अगर खेती के साथ साथ किसान दूसरा व्यवसाय करे तो उन्हें ज्यादा फायदा होगा।

किसानों को उनकी उन्नति के लिए मदद करने हेतु चेतन ने सन २०११ में टाटा इंस्टिट्यूट फॉर सोशल साइंस (TISS), मुंबई के सोशल आंतरप्रेनरशिप प्रोग्राम में हिस्सा लिया।

प्रोग्राम के अंतर्गत चेतन, तीन अलग अलग इंस्टिट्यूट में गए तथा ६ महीने में सामाजिक और ग्रामीण सम्बंधित क्षेत्रो में काम किया। वे मध्य प्रदेश के झबुआ आदिवासियों से भी मिले। सामजिक संस्था ग्रीन बेसिक्स के साथ मिलकर चेतन दक्षिण गोवा के आदिवासी क्षेत्र में भी एक महिना रहे।
चेतन महाराष्ट्र के बाबा आमटे परिवार द्वारा चलाये जानेवाले आनंदवन में भी गए। ताकि एक सामान्य गाव को सक्षम, संपन्न और खुशहाल कैसे बनाया जाये, ये सीख सके।

इसी विषय में गहरे पाठन के दौरान चेतन को ये पता चला कि पुराने ज़माने में लोगो को नमक आसानी से नहीं मिलता था। इसलिये लोग एक भिन्न प्रकार की चीटियों को पीसकर रोटी के साथ खाते थे जिसका स्वाद नमक जैसा था। उसके बाद नमक को विकल्प मिला और वो था दूध! लोग दूध के साथ रोटी खा सकते थे। और दूध उन्हें गायों से आसानी से मिल जाता था।

गायों से उन्हें बैल भी प्राप्त होते थे जिससे खेती कर सके।

इतना ही नहीं, गायों से उन्हें गोबर भी मिलता था जिसका रासायनिक ख़त के तौर पर इस्तेमाल होता था।

चूल्हा जलाने के लिये लकडियां इकट्ठा करने के लिए उन्हें जंगल में जाना पड़ता था जहा वन्य प्राणियों का डर था इसलिये लोग गोबर का इस्तेमाल चूल्हा जलाने के लिए करते थे।

बकरिया दूध देती थी और मुर्गिया मास और अंडे देती थी पर ये दोनों ही खेतो में उपयुक्त नहीं थे पर गाय ये सब चीजे तो देती ही थी, साथ में खेत में मदद भी करती थी। इस तरह लोग गाय पालने लगे और घर घर में लोग गाय को पूजने लगे।
इन सबसे चेतन ने यह निष्कर्ष निकाला कि अगर किसान गाय का इस्तेमाल सही तरह से करे तो उनकी सारी समयायें हल हो सकती है।

काऊइस्म (Cowism) की मदद से किसान पुराने जमाने की ‘गायों पर आधारित खेती’ कर सकते है।

जनवरी २०१५ में चेतन ने काऊइस्म (COWISM) की शुरुआत की। काऊइस्म का मकसद किसानो को पुराने ज़माने में होनेवाली गायों पर आधारित खेती की जानकारी देना तथा इस तरह की खेती करने में उनकी सहायता करना था।

चेतन के लिये पूरा सफ़र इतना आसान नहीं था क्योकी जैविक खेती भले ही पुराने ज़माने में लोग करते थे पर आज के किसानों को उसका महत्व समझाना बड़ा ही कठिन है। उन्हें लगा कि अगर वो खुद जैविक खेती का इस्तेमाल अपने खेती में करे तो शायद दुसरे किसान इससे कुछ सीखे।

चेतन के सामने अनेक समस्याये थी जैसे कि इस तरह की खेती करने के लिये पैसो की जरुरत पर चेतन अपने निश्चय पर कायम थे। पर इस समस्या का भी हल जल्दी ही मिल गया।
ग्लोबल इंडियन आंटरप्रेनर २०१४ कांटेस्ट में काऊइस्म (COWISM) ने बाज़ी मारी और इनाम जीता। जितने के बाद DBS बैंक ने चेतन के प्रोजेक्ट को सराहा और उसमे निवेश किया।

काऊइस्म (COWISM) ने ग्लोबल इंडियन आंतरप्रेनर २०१४ कांटेस्ट जीता।

इस दौरान चेतन ने डॉ. के. बी. वुडफोर्ड द्वारा लिखित किताब ‘डेविल इन द मिल्क’ पढ़ी जिससे उसे जर्सी गाय और स्वदेशी गाय के बारे में पता चला। स्वदेशी मतलब भारतीय जाती की गायों से मिलने वाले दूध में अमीनो एसिड होता है जिससे पाचन क्रिया अच्छी तरह से होती है और वो किडनी के लिये अच्छा भी होता है। इससे विटामिन B2, B3 और A मिलता है। इस दूध से रोग प्रतिकारक शक्ति बढती है और पेप्टिक अल्सर और कोलन, ब्रैस्ट और स्किन कैंसर के जीवाणुयों के लढने की क्षमता विकसित होती है। जर्सी गाय के दूध में BCM-7 होता है जिससे बच्चो में होने वाले मदुमेह (पीडीयाट्रिक डायबीटीस, औटिस्म और मेटाबोलिक डीजनरेटीव डिसीस होने की संभावना होती है।

जर्सी गाय ठंडी जगहों की आदि होती है। इसलिए हिंदुस्थानी वातावरण में गायों को कई तरह की बीमारियां हो जाती है और उन्हें पालने का खर्चा भी बढ़ जाता है।

चेतन ने स्वदेशी गाय पालने की शुरुआत चंद्रपुर से शुरू की है जिसका उद्देश किसानों को इस तरह की गायों से होनेवाले फायदे समझाना है।
अपने पहल की शुरुआत चेतन ने भारतीय प्रजाति की गीर गाय का दूध खरीदने से की। चेतन खुद ही इस दूध को मार्केट में बेचते है। हर सुबह चेतन दूध बेचा करते है।

चेतन बताते है “मेरी माँ और मैं रोज सुबह दूध को पैक करते है और बेचने के लिये ले जाते है। लोग अक्सर ये कहकर मेरा मजाक उड़ाते थे कि अगर मुझे दूध ही बेचना था तो फिर मैंने इंजीनियरिंग क्यूँ की। लेकिन मेरी माँ ने हमेशा मेरा साथ दिया है।”
चेतन किसानों से मिलकर उनकी समस्या के बारे में जानकारी हासिल करने लगा। लेकिन पुराने ज़माने की तकनीक इस्तेमाल करने के बारे में किसानों को मनाना मुश्किल था।

पहले सिर्फ २ किसानो ने चेतन के इस पहल से प्रभावित होकर स्वदेशी गाय खरीदी। इस तरह के नये तकनीक से फायदा होने में बहुत वक्त लगता है इसलिये किसान जल्दी प्रभावित नहीं हो पा रहे थे। इसलिये चेतन ने अपने ही खेत में इसका इस्तेमाल करने की ठान ली ताकि वो अन्य किसानो को प्रेरित कर सके।
चेतन कहते है कि देसी गाय के गोबर और गोमूत्र से बनने वाली जैविक खतो से खेती में अच्छे बदलाव दिखायी दे रहे है।

चेतन ने अपने इस पहल का लक्ष्य “एक गाय, एक किसान” रखा है जिसके माध्यम से वो स्वदेशी गाय का इस्तेमाल करने के लिये किसानों को प्रेरित कर रहे है।

हम आशा करते है कि चेतन की इस पहल से अधिक से अधिक किसानो को सहायता मिले और हमारे किसान एक बार फिर से खुशहाल और संपन्न जीवन जी सके। अधिक जानकारी के लिए आप chetan30raut@gmail.com पर लिख सकते है।

शहर के थकान भरे अस्त-व्यस्त जीवन को छोड़ इस परिवार ने केरल में रखी प्रदूषण मुक्त गाँव की नींव!

ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के बढ़ते कहर के बारे में जहाँ एक तरफ हम सिर्फ चिंता कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओरकेरल के कुछ परिवार जुटे हैं एक जैविक गाँव बनाने में। मोहन चावड़ा के मार्गदर्शन में बन रहा यह गाँव एकप्रेरणा हैं आने वाली पीढ़ियों को एक खूबसूरत दुनिया सौंपने का और बेहतर भारत बनाने का।

भरतपुजा नदी का खूबसूरत किनारा, घने हरे-भरे पेड़ों की छाया और उनके बीच एक स्व-निर्मित ट्री-हाऊस।अंदर मोहन चावड़ा और उनका परिवार अपने जैविक बगीचे की ताजा उपज से भोजन पका रहा है।


मोहन चावड़ा का परिवार केरल के पालक्काड़ जिले में उभरते इस जैविक गाँव का पहला निवासी हैं। चावड़ा द्वाराही अवधारित और स्थापित यह गाँव ढाई एकड़ के प्राकृतिक ग्रामीण क्षेत्र के बीच में और मन्नंनूर रेलवे स्टेशन सेकुछ ही दूरी पर बसा हुआ है।
पढ़िए वह कहानी कि कैसे मोहन चावड़ा, एक प्रतिभाशाली मूर्तिकार, बना रहे हैं एक अनोखा जैविक गाँव जो आधारित है स्थिरता, साधारण जीवन और प्राकृतिक सामंजस्य जैसे मूल्यों पर।

चावड़ा और उनकी पत्नी रुक्मिणी (एक नर्सिंग कॉलेज की पूर्व प्रधानाध्यापिका) ने बहुत समय से एक सपनासंजोया था — ऐसे लोगों का समुदाय बनाने का, जो समर्पित हो पर्यावरण-अनुकूलित और हरित जीवन जीने केलिए। 2013 में उन्होंने अपनी ही तरह सोचने वाले 14 परिवारों से अपने लिए एक स्व-निर्वाहित जैविक गाँव बनानेकी बात की। वे सब प्रदूषण, संसाधित खाद्य पदार्थ और शहर की अव्यवस्थाओं को छोड़कर प्रकृति की गोद मेंएक नया और स्वस्थ जीवन जीना शुरू करना चाहते हैं।


जब उन्हे भरतपुजा नदी के किनारे की खूबसूरत ढाई एकड़ जमीन का पता लगा, उन्हें वह जगह जैविक गाँवबनाने के लिए सबसे बढ़िया लगी । अपनी पूँजी इकट्ठी कर उन्होंने वो जमीन खरीद ली, जहाँ पहले एक रबड़बागान हुआ करता था।

उनके ग्रुप ने शुरूआत उन रबड़ के पेड़ों को काटने और हटाने से की जो मिट्टी के लिए हानिकारक थे। फिरफलदार पेड़ और सब्जी के बगीचे लगाने से पहले उन्होने अपने ही हाथों से अपना एक ट्री-हाऊस बनाया।
2015 में मोहन, रुक्मिणी और उनकी दो बेटियां — 18 वर्षीय सूर्या और 11 वर्षीय स्रेया इस उभरते गाँव में रहने आ गए, ऐसा करने वाले वे पहले थे।


इस जैविक गाँव का प्रारूप साझेदारी और एकजुटता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इसकीशुरुआत से ही यहां प्रशंसकों का आना जाना लगा रहा है, इसलिए चावड़ा परिवार और बाकी सभी परिवारों ने मिलकर एक गेस्ट हाउस और एक बड़ा सामुदायिक किचन (रसोईघर) बनाना तय किया, जहाँ सब मिलकर पका औरखा सके। इन परिवारों ने कलाकारों, कार्यकर्ताओं और पड़ोसी गांवों के लोगों को भी गाँव में आयोजित होने वालेसाप्ताहिक कला सम्मेलनों में आमंत्रित करने की योजना बनाई है।

हाल ही में, चावड़ा परिवार ने छत डालने के लिए थोड़ी बाहरी मदद लेकर, अपने लिए एक साधारण सा कच्चामकान बनाना शुरू किया। फल, सब्जियाँ और दालें लगाने के अलावा चावड़ा परिवार गाय, बकरियाँ और मुर्गीपालन भी करता हैं।
गाँव में आने वाले हर मेहमान का स्वागत रुक्मिणी द्वारा जैविक बगीचे कीताजा पैदावार से बनाए स्वादिष्ट खाने से होता है। शाम का खाना अक्सरस्थानीय सुरीले गीतों और उत्साहपूर्ण कला चर्चा के साथ होता है।


चावड़ा परिवार का मानना है कि प्रेम, मानवता और दया जैसी भावनाओं के बारे में हम नियमित स्कूलों के बजाय प्रकृति के बीच रहकर ज्यादा सीख सकते हैं। यही कारण है कि स्रेया और सूर्या स्कूल छोड़कर यह प्राकृतिकजीवन जी रही है। हालाँकि सूर्या अपनी क्लास की टाॅपर थी जब उसने आठवीं में स्कूल छोड़ा, लेकिन वह इसवैकल्पिक और अनौपचारिक शैक्षिक पद्धति के साथ ज्यादा सहज और खुश हैं ।

दूसरी तरफ स्रेया डिस्लेक्सिया से ग्रसित है। उसके शिक्षक हमेशा उसकी क्षमताओं को समझने और उनके साथकाम करने में असमर्थ रहे, लेकिन इस जैविक गाँव ने उसके सामने इतनी राहें खोल दी है कि वह धीरे-धीरेविकसित हो रही है। 
दोनों ही बहनों को प्रकृति को निहारना, काम करते हुए पक्षियों का कलरवसुनना और ट्री-हाऊस में रहकर ताजा हवा का आनंद लेना बहुत पसंद है।


सूर्या और स्रेया लगातार घूमती भी रहती है ताकि अपने प्रदेश की सांस्कृतिक और सामाजिक विभिन्नता के बारे मेंजान सके। 2013 में उन्होंने अरनमूल तक एक बाल-रैली का नेतृत्व किया था और प्रतीक स्वरूप धान के पौधेलगाकर एक प्रोजेक्ट, जिससे उस इलाके की जैव-विविधता को नुकसान पहुंचता, के प्रति जागरूकता फैलायी थी।

अपने पिता से सीखकर सूर्या और स्रेया मूर्तियाँ बनाने और दूसरी कलाओं में भी काफी कुशल हो गई है। अपनीसृजनात्मकता को माता – पिता द्वारा हौसला बढ़ाने के चलते, दोनों बहनों ने अपने कच्चे मिट्टी के मकान की दीवारेंमूर्तियों और तस्वीरों से सजा दी हैं। शहर की भागमभाग से दूर एक शांत जगह बसाकर, मोहन चावड़ा ने अपनेप्रयासों से गाँव को पारंपरिक वन्य-जीवन और कलात्मक रचना का आकर्षक मिश्रण बना दिया है।

अपने बच्चों पर इस साधारण जीवनशैली का सकारात्मक प्रभाव देखकर चावड़ा और बाकी परिवारों ने खुद कीशिक्षा प्रणाली (जिसमे कला और शिल्प वर्कशॉप, बागबानी, आदि भी सम्मिलित होंगी) जिससे कि बच्चे साथमिलकर रहने के लिए प्रोत्साहित हो न कि एक दूसरे से मुकाबला करने के लिए।


अपनी इस साहस, स्थिरता और प्रेम की कहानी से चावड़ा परिवार ने जैविक जीवनशैली का एक अनोखा उदाहरणपेश किया है जो कि वाकई में पूरे भारत में कई लोगों को अपनी जड़ों की तरफ लौटने की प्रेरणा देगा।

किसान जिसने चावल की 850 से भी ज्यादा किस्मों को सहेज कर म्यूजियम बना डाला

मांड्या जिले के छोटे से गाँव में रहने वाले सैयद गनी खान एक संग्रहालय (म्यूज़ियम) में संरक्षक है। उन्होंने एक अनूठी पहल की और एक ऐसा म्यूज़ियम तैयार कर दिया जहां आज चावल की 850 व 115 के आसपास आम की विभिन्न किस्मों को ना सिर्फ संरक्षित किया गया है, बल्कि उनकी खेती भी की जाती है। यह किसान चाहता हैं कि ना सिर्फ हमारी पुरानी लुप्त होती पारंपरिक किस्मों को बचाया जाए बल्कि उन किस्मों को दुबारा उगा कर हमारे पूर्वजों के पुराने ज्ञान से आज की पीढ़ी के किसानों को अवगत कराया जाए।

एक किसान के बेटे सैयद गनी खान ने हमेशा ही एक म्यूज़ियम में संरक्षक बनने का सपना देखा था। उन्होंने पुरातत्व-विज्ञान व संग्रहालय विज्ञान की पढ़ाई की, इस सपने के साथ कि वह कभी खुद का संग्रहालय खोलेंगे जहां आने वाले लोगो को वे प्राचीन परंपराओं की जानकारी देंगे।

जब वे 22 साल के थे तब सैयद के पिता को ब्रेन हैमरेज हो गया जिसके कारण भाई-बहनों में सबसे बड़े सैयद पर परिवार व खेती की सारी ज़िम्मेदारी आ गयी। उन्होंने अपने सपनों को पूरा करना छोड़, खेती करना शुरू किया।

अपने क्षेत्र के दूसरे किसानों की तरह उन्होंने भी हायब्रीड खेती के तरीकों से चावल उगाना शुरू कर दिया। एक दिन अपने खेत में कीटनाशकों का छिड़काव करते समय, उन्हें चक्कर आने लगे और वे गिर कर बेहोश हो गए। यही वह दिन था जब उन्हें कीटनाशकों के बुरे प्रभाव का एहसास हुआ।

“हम किसानों को सभी ‘अन्नदाता’ कहते हैं। लेकिन उस दिन मुझे एहसास हुआ कि मैं अन्नदाता नहीं हूँ; मैं तो विष-दाता बन चुका हूँ। इन सभी हानिकारक खाद और कीटनाशकों के उपयोग से मैं ज़हर वाली फसल उगा रहा था। उस दिन मैंने निश्चय कर लिया कि मैं अपने खेती करने के तरीके को बदल दूंगा ,” सैयद कहते हैं।

उन्होंने जैविक खाद (organic manure) का उपयोग करना शुरू किया, परंतु कुछ महीनों बाद भी उन्हें अपनी फसल पर इसके कुछ परिणाम नहीं दिखाई दिये। जब उन्होंने इसकी और जांच-पड़ताल की तो उन्हें पता चला कि हायब्रीड बीजों से उगने वाली फसल पर इस प्राकृतिक खाद का कोई असर नहीं हो रहा था। तब उन्होंने हाइब्रीड किस्मों को छोड़कर लोकल ऐसे किस्मों की तरफ रुख किया जो अधिक पौष्टिक हो व खेती के परंपरागत तरीकों को अपनाकर भी की जा सकती हो। 

जब उन्होंने परंपरागत किस्मों की खोज करना शुरू किया, तो उन्हें पता चला कि सूखे क्षेत्र में उगने वाली अकाल-रोधी किस्में जैसे राजभोग बाथा, कड़ी बाथा, डोड्डी बाथा विलुप्त हो चुकी हैं। हाइब्रीड किस्मों के उपयोग बढ्ने के कारण (जो कि परंपरागत किस्मों के बदले ज्यादा उत्पादन देती थी परंतु दुबारा उगाये जाने के योग्य नहीं थी) किसानों ने उन परंपरागत किस्मों को भुला दिया था जो कि कम उत्पादन देती थी परंतु कई पीढ़ियों बाद भी दुबारा उगाई जा सकती थी। सैयद को ऐसी परंपरागत किस्मों के बीजों की खोज करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा जिनमें कीटनाशकों के प्रयोग की आवश्यकता न पड़े।

उन्होंने अपने संग्रहण की शुरुआत ऐसी किस्म के साथ की, जिसके बारे में उन्हें कोई भी कुछ बता पाने में सक्षम नहीं था। इसे पहचानने में एक वैज्ञानिक ने उनकी मदद की। यह मांड्या में उगाई जाने वाली एक मूल किस्म थी, जो कि अब लगभग विलुप्त हो चुकी है।

“मुझे चिंता होने लगी! एक किसान के परिवार में बढ़ा होने की वजह से मैंने चावल की कई किस्मों के नाम सुने थे। और अब, जब मैं उन्हें उगाना चाहता था तो मुझे पता चला कि ये किस्में अब उपलब्ध ही नहीं है! इस बारे में कुछ करने की आवश्यकता थी,” सैयद कहते हैं।
उन्होंने चावल की इन लगभग विलुप्त हो चुकी क़िस्मों का न सिर्फ पता लगाना शुरू किया बल्कि उन्हें एकत्रित कर उनका संग्रहण किया तथा उन्हें फिर से उगाना शुरू किया।

चावल कि विभिन्न किस्में

तब उन्हें यह लगा कि वे इन परंपरागत किस्मों का संग्रह कर अपने संग्रहकर्ता बनने के सपने को सच कर सकते है और अपना एक म्यूज़ियम खोल सकते हैं।

उन्होंने कई तरह के चावलों की किस्में मांड्या जिले के आसपास के गांवों से एकत्रित कर ली पर वे यहीं नहीं रुकने वाले थे। उन्होंने कई दूसरे जिलों और राज्यो में भी इनकी खोज की। चार साल के अंदर ही उन्होंने चावल की 140 से ज्यादा किस्में अपने म्यूज़ियम के लिए खोज निकाली और उनमे से हर एक का मूल स्वाद, आकार व खुशबू के साथ उन्हें सहेजा।

परंपरागत किस्में हाइब्रीड किस्मों की तुलना में कहीं बेहतर होतीं है। इनमें पानी की आवश्यकता कम होती है। कुछ किस्मों के तो अपने औषधीय गुण भी है।

“परंपरागत किस्मों ने मौसमी परिवर्तनों के हिसाब से अपने आप को ढाला है, और ये किस्में सूखा, बाढ़ जैसी अन्य प्राकृतिक आपदाओं का बेहतर तरीके से सामना कर सकती है, वहीं हाइब्रीड किस्में ऐसे में नहीं टिक पाती। मैं हर साल अपनी फसल के सबसे अच्छे बीजों को चुनता हूँ और अपने साथी किसानों को देकर उन्हें बढ़ने में मदद करता हूँ। मैं साथी किसानों को इन किस्मों के फायदे समझाने की भी कोशिश करता हूँ। कई बड़ी कंपनियां मुझे इनके लिए बड़ी रकम देने की पेशकश कर चुकी हैं पर मैं उन्हें यह नहीं देता,” वे कहते हैं।
अपने कई सालों के संरक्षण के काम के बाद आज उन्हें किसान बहुत अच्छे से पहचानते हैं और उनसे सलाह-मशवरा भी करते हैं।

मांड्या जिले के किरुगुवूलु गाँव में स्थित सैयद के चावल म्यूज़ियम के साथ ही ‘बड़ा बाग़’ नाम से जाना जाने वाला उनका एक बग़ीचा भी है। इस बगीचे के 116 प्रकार के आमों आम के कारण किसानों व कृषि में शोध करने वाले लोगों के बीच सैयद काफी प्रसिद्ध है।

आज उनका म्यूज़ियम 850 से भी ज्यादा चावल की किस्मों का घर है। जहां ज़्यादातर चावलों की किस्में भारत की मूल किस्में है, वहीं सैयद के इस म्यूज़ियम में म्यामांर, थायलैंड, पाकिस्तान व कई अन्य देशों की किस्में भी उपलब्ध है। सैयद की मेहनत से आज उनका यह बाग़ कई विविध तरह के जीवो का घर बन चुका है, जो की आज 60 से भी ज्यादा पक्षियों की मेजबानी करता है। अपने इस म्यूज़ियम की देखभाल करना व अपनी परंपरागत जानकारी को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाना ही आज सैयद के जीवन का उद्देश्य बन चुका है।

गरीब और बेसहारा लोगों के लिए “इन्साफ दिलाने वाला मसीहा” है प्रबीर दास

प्रबीर कुमार दास उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर शहर में एक कमरे वाले मकान में रहते हैं। मकान भी किराए का है। मकान में गुसलखाना भी नहीं है। गुसलखाना और शौचघर मकान के बाहर हैं और प्रबीर को दूसरे किरायदारों के साथ इन्हें ‘शेयर’ करना पड़ता हैं। यानी, गुसलखाना और शौचघर किरायेदारों के लिए ‘कॉमन’ हैं। प्रबीर का जो एक कमरे का मकान है वो भी किताबों से भरा पड़ा है। इन किताबों में ज्यादातर किताबें कानून की हैं। कमरानुमा मकान में कई सारे कानूनी कागज़ात भी हैं। सैकड़ों, शायद हजारों, मामलों से जुड़े कानूनी कागज़ात और दस्तावेजों से भरा पड़ा है प्रबीर का मकान। कमरे में एक मेज़ है और इसी मेज़ पर प्रबीर लिखाई-पढ़ाई का काम भी करते हैं और इसी पर सो भी जाते हैं। किताबें और कानूनी कागज़ात ही प्रबीर की धन-दौलत और जायजाद हैं। उनके बैंक खाते में न तगड़ी रकम है और न ही उनके नाम कोई बेशकीमती ज़मीन। प्रबीर ने ज़िंदगी में अगर कुछ कमाया है तो वो है शोहरत और इज्ज़त। लेकिन, सबसे ज्यादा अहमियत रखने वाली बात ये है कि जिस तरह से प्रबीर ने लोगों की मदद करते हुए उनके दिलोदिमाग में अपनी बेहद ख़ास और पक्की जगह बनाई है, वैसा कर पाना अच्छे-अच्छों के लिए बहुत मुश्किल होता है।प्रबीर ने गरीब, बेसहारा और अशिक्षित लोगों के लिए अपना जीवन समर्पित किया है। उन्होंने गरीबी, अशिक्षा और अज्ञानता की वजह से इन्साफ से वंचित लोगों को इन्साफ दिलवाना का बीड़ा उठाया है। पिछले कई सालों से प्रबीर दास गरीब, बेसहारा और अशिक्षित लोगों को इन्साफ दिलवाने के लिए अलग-अलग अदालतों में कानूनी लडाइयां लड़ रहे हैं। हजारों लोगों को इन्साफ दिलाने में वे कामयाब भी रहे हैं। बड़ी बात ये भी है कि इन्साफ दिलाने की जंग में अपने गरीब मुवक्किलों का वकील बनने और अदालतों में उनकी वकालत करने के लिए प्रबीर कोई फीस भी नहीं लेते। फीस लेते भी कैसे, उनके मुव्वकिल ऐसे होते हैं कि जिनके पास दो जून की रोटी जुटाने के लिए रुपये भी नहीं होते। यानी गरीबों में भी सबसे गरीब लोगों को अदालतों में इन्साफ दिलाने का काम करते हैं प्रबीर कुमार। कोई भी इंसान अगर इन्साफ से वंचित है या फिर उसके अधिकारों का हनन हुआ है, प्रबीर कुमार उसके वकील बन जाते हैं। प्रबीर ये नहीं देखते थे कि पीड़ित और शोषित का वकील बनकर उन्हें क्या मुनाफा मिलेगा, वे बस यही चाहते हैं कि हर हकदार को इन्साफ मिला और हर इंसान को उसका हक़। दिलचस्प बात तो ये भी है कि प्रबीर ने कानून की पढ़ाई भी इसी वजह से की क्योंकि वे अदालतों में गरीबों और बेसहारा लोगों की आवाज़ बनकर उन्हें इन्साफ दिलाना चाहते थे। प्रबीर कहते हैं, “मेरे लिए वकालत एक पेशा नहीं है, मेरे लिए वकालत एक मिशन है, मिशन है गरीब लोगों को इन्साफ दिलाने का। ये मिशन है -जागरूकता की कमी और संसाधनों के अभाव की वजह से नाइंसाफी का शिकार हो रहे लोगों को उनका हक़ दिलाने को।“ काफी पढ़े-लिखे और काबिल प्रबीर चाहते तो जीवन में तगड़ी तनख्वाह वाली अच्छी नौकरी हासिल कर सकते थे।अपना खुद का शिक्षा संस्थान शुरू कर सकते थे या फिर खुद की लीगल फर्म चालू कर सकते थे। कॉर्पोरेट या क्रिमिनल लॉयर बनकर करोड़ों रुपये कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने जीवन सब सुख-सुविधाओं का त्याग किया और समाज-सेवा का मार्ग अपनाया। प्रबीर ने जो मार्ग चुना उसपर चलना आसान नहीं है। रास्ते में कई सारी कठिनाईयां हैं, चुनौतियां हैं, और इन कठिनाईयों और चुनौतियों का अंत भी नहीं है। लेकिन, प्रबीर ने सबसे मुश्किल-भरा रास्ता चुना। शायद इसी रास्ते पर चलने की वजह से वे आज समाज में अपनी बेहद ख़ास पहचान रखते हैं। सभी लोग उनका सम्मान करते हैं। गरीब और बेसहारा लोगों के लिए प्रबीर “इन्साफ दिलाने वाले मसीहा” हैं। गरीबों और बेसहारा लोगों के वकील के नाम से मशहूर प्रबीर कुमार दास की कहानी अनूठी कहानियों में भी अनूठी है। प्रबीर की कामयाबी की बेहद अनूठी कहानी शुरू होती है उड़ीसा से जहाँ उनका जन्म हुआ।

प्रबीर कुमार दास का जन्म 30 दिसंबर, 1964 को उड़ीसा के एक आदिवासी बहुल इलाके में हुआ। शहर की चकाचौन्द से अछूते एक आदिवासी गाँव घुमा में जन्मे प्रबीर का परिवार गैर-आदिवासी था। प्रबीर के शुरूआती छह साल इसी गाँव में बीते। इसे बाद वे उड़ीसा में अपने पैतृक गाँव बहल्दा आ गए, जोकि आदिवासी बहुल मयूरभंज जिले में पड़ता है। पिता सोमनाथ दास शिक्षक थे और माँ अनुसया दास गृहिणी। सोमनाथ और अनुसया को कुल साथ संतानें हुईं और इन सभी में प्रबीर सबसे बड़े हैं। प्रबीर की दो छोटी बहनें और चार छोटे भाई हैं । प्रबीर के मुताबिक, उनके पिता आदर्शवादी थे और उनका जीवन सीधा-सादा था। प्रबीर बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज़ थे और उन्हें स्कूल की हर परीक्षा में अव्वल नंबर आये। चूँकि पिता शिक्षक थे और उनकी साहित्य में काफी रुची थी, जाने-अनजाने प्रबीर भी साहित्य पढ़ने लगे। इतना ही ही, बचपन में ही उन्हें आदिवासी लोगों की परेशानियों को जानने और समझने का मौका मिला। प्रबीर के पिता ने आदिवासी लोगों की हर मुमकिन मदद की और उन्हें अपने बच्चों को स्कूल भेजने और पढ़ाने-लिखाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया। प्रबीर के शिक्षक पिता ने लोगों को ये समझाने की मुहीम चलाई कि शिक्षा के ज़रिये गरीबी और पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है।

प्रबीर जिन दिनों स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे उन दिनों ज्यादातर पढ़े-लिखे लोग अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर या फिर प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहते थे। प्रबीर के मुताबिक, अल्प विकसित उड़ीसा राज्य में उन दिनों कई सारे शिक्षित अभिभावक अपने बच्चों को आईएएस या फिर आईपीएस अफसर का सपना देखते थे। प्रबीर जब दसवीं कक्षा में थे तब उड़ीसा राज्य से युवक डॉ ऋषिकेश पांडा ने आईएएस की परीक्षा में टॉप किया था। और जब प्रबीर कॉलेज में थे तब उड़ीसा राज्य के एक और युवक ने आईएएस की परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। ये युवक उड़ीसा के एक बहुत ही पिछड़े इलाके बारिपदा से था। इन दो युवकों की कामयाबी ने पिछड़े इलाकों के उड़िया विद्यार्थियों और युवाओं में एक नए उत्साह का संचार किया । लोक सेवा की परीक्षा में अव्वल आने वाले इन दो युवाओं ने कई सारे विद्यार्थियों और युवाओं के लिए जीवन का एक नया लक्ष्य दिया ... और ये लक्ष्य था - लोक सेवा की परीक्षा पास कर आईएएस या आईपीएस अफसर बनाना। अपने राज्य के इन्हीं दोनों युवाओं की नायाब कामयाबी से प्रेरित होकर प्रबीर ने भी केन्द्रीय लोक सेवा की परीक्षा की तैयारी शुरू की और आईएएस अफसर बनाने का सपना देखना शुरू किया। दिन-रात की मेहनत और ज़ोरदार तैयारी के बावजूद प्रबीर लोक सेवा की परीक्षा पास नहीं कर पाए। आईएएस अफसर बनने का उनका सपना टूट गया प्रबीर कहते हैं, “जीत मुझे धोका दे गयी।”

प्रबीर के कई साथी लोक सेवा की परीक्षा पास कर प्रशासनिक अधिकारी बनने में कामयाब हुए थे, लेकिन प्रबीर छात्र जीवन के अपने सबसे बड़े सपने को साकार नहीं कर पाए । प्रबीर निराश तो हुए, मायूसी ने भी उन्हें कई दिनों तक सताया, लेकिन उन्होंने अपने जीवन के लिए नया लक्ष्य तय कर लिया। प्रबीर ने लोक सेवा की परीक्षा के लिए कई सारी किताबें पढ़ीं थीं, इन किताबों के ज़रिये काफी सारा ज्ञान हासिल किया था। भले ही वे परीक्षा पास न कर पाए हों लेकिन उनके पास कई विषयों का असीम ज्ञान था। ऐसे में प्रबीर ने फैसला किया कि वे अपनी व्यक्तिगत नाकामी को सामूहिक कामयाबी में तब्दील करेंगे । प्रबीर ने अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा फैसला लिया । उन्होंने ठान ली कि वे अर्जित ज्ञान को युवाओं में बाटेंगे और उन्हें उनके आईएएस अफसर बनने के सपने को पूरा करने में उनकी मदद करेंगे। अपने फैसले के अनुरूप प्रबीर ने लोक सेवा की परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवाओं को पढ़ाना शुरू किया। प्रबीर ने कई छात्रों का मार्ग दर्शन किया । गरीबी और सुविधाओं के अभाव में सही तरह से परीक्षाओं की तैयारी नहीं कर पा रहे विद्यार्थियों और परीक्षार्थियों की हर मुमकिन मदद की। प्रबीर खुद तो प्रशासनिक अधिकारी नहीं बन पाए लेकिन उन्होंने अपनी शिक्षा और मार्ग-दर्शन से एक दर्जन युवाओं को आईएएस या आईपीएस अफसर बनाने में कामयाबी हासिल की। प्रबीर ने कई सारे युवाओं को राज्य स्तर पर प्राशासनिक अधिकारी बनाने में भी उनकी मदद की। प्रबीर कहते हैं, “मैंने ऐसे लोगों को चुना जो कि दिल्ली जाकर सिविल सर्विसेज की तैयारी नहीं कर सकते थे । ये लोग बहुत तेज़ थे, इनकी बौद्धिक श्रमता भी बहुत ज्यादा थी लेकिन इनके पास परीक्षा की सही तैयारी के लिए संसाधनों का अभाव था। मैं इन लोगों के लिए उनका ‘फ्रेंड, फिलोसोफेर और गाइड’ बना । इन युवाओं को प्रशासनिक अधिकारी बनाकर मैंने आईएएस अफसर न बन पाने की अपनी भड़ास मिटाई है।”

जिस तरह से कई सारे विद्यार्थियों और युवाओं के लिए प्रबीर 'फ्रेंड, फिलोसोफेर और गाइड' बन गए थे कई लोगों को लगाने लगा था कि उनका सारा जीवन शिक्षा के क्षेत्र में भी चला जाएगा। लेकिन, संयोगवश प्रबीर वकील बन गए। प्रबीर वकालत के पेशे में आना ही नहीं चाहते थे। लेकिन, कुछ घटनाएं ऐसी हुईं कि जिनके प्रभाव में वे वकील बन गए। वे कहते हैं, “मैं एक शिक्षक का बेटा हूँ और मेरे लिए जीवन में नैतिकता काफी मायने रखती हैं। जब से मैंने वकालत के बारे में जाना है तब से मेरे मन में एक पेशे को लेकर बुरा अभिमत ही रहा है। मालूम नहीं कहाँ से मेरे मन में ये ख्याल घर कर गया था कि वकील अनैतिक काम करते हैं, मुझे लगता था कि वकीलों का काम अपराधियों और बदमाशों को बचाना होता है। मुझे लगता था कि वकील लोग रुपयों के लिए कुछ भी कर सकते हैं, उनमें कोई नैतिकता नहीं होती और वे अपराधियों को बचाने में लग जाते हैं।“ लेकिन, जब प्रबीर को उड़ीसा उच्च न्यायालय जाने का मौका मिला और उनका सीधा संपर्क वकीलों से हुआ तब वकीलों को लेकर उनके मन में बनी धारणा टूट गयी । हुआ यूँ था कि उन दिनों कुछ परीक्षार्थियों ने धांधली का आरोप लगाते हुए उड़ीसा लोक सेवा आयोग के खिलाफ उड़ीसा उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। इन परीक्षार्थियों में कुछ प्रबीर के वो शिष्य भी थे जो लोक सेवा की परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे । चूँकि कोर्ट आने -जाने में काफी समय लग जाता था और इससे परीक्षा की तैयारी में दिक्कतें पेश आती थीं, प्रबीर ने कोर्ट जाने और मामले की दशा-दिशा जानने का बीड़ा उठाया । न्यायालय परिसर में जाने के बाद प्रबीर को कई सारी नई जानकारियाँ मिली। उन्हें बहुत कुछ जानने, सीखने और समझने का मौका मिला । प्रबीर के मुताबिक, जो सबसे बड़ी बात उन्होंने जानी वो ये थे कि कई लोगों को सिर्फ इस वजह से इन्साफ नहीं मिल पा रहा है क्योंकि उनके पास वकील रखने के लिए भी रुपये नहीं थे । प्रबीर की मुलाक़ात ऐसे कई लोगों से हुई जोकि गरीब थे और रुपयों की किल्लत की वजह से वकील नहीं रख पा रहे थे । वकील न रख पाने से कोर्ट में इन लोगों की आवाज़ सुनाने वाला कोई नहीं था। गरीब लोग कोर्ट में भी गरीबी की मार खा रहे थे और इन्साफ के हकदार होने के बावजूद इन्साफ से वंचित थे। हकदारों को इन्साफ न मिलने की घटानाओं और अनेकानेक उदाहरणों ने प्रबीर को हिलाकर रख दिया। कोर्ट में गरीब लोगों के साथ नाइंसाफी के बारे में जानकार उन्हें गहरा सदमा पहुंचा। कोर्ट परिसर में ही प्रबीर ने फैसला कर लिया कि वे कानून की पढ़ाई करेंगे और कोर्ट में गरीबों की आवाज़ बनेंगे। कानून की डिग्री लेने के बाद साल 2001 में प्रबीर ने कोर्ट में बतौर वकील अपना नाम दर्ज करवाया और वकालत शुरू की ।

एक दिन उत्कल विश्वविद्यालय के एक छात्र ने प्रबीर को बांका इलाके की एक ऐसी बूढ़ी औरत के बारे में बताया जोकि एक समय की रोटी को भी लाचार थी। उसी मदद करने वाला कोई नहीं था और वो दाने-दाने को मोहताज थी। हालत इतनी खराब हो गयी थी कि भूख के कारण उसकी मौत भी हो सकती थी । गुहार के बावजूद स्थानीय प्रशासन से भी उस बूढ़ी महिला को कोई मदद नहीं मिल रही थी । ऐसी हालत में प्रबीर ने इस महिला को भुखमरी की मौत का शिकार होने से बचाने के लिए न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया । हाई कोर्ट के दखल के बाद प्रशासन हरकत में आया और उसने बूढ़ी महिला को इन्साफ दिलाया। हाई कोर्ट के आदेश पर प्रशासन ने उस बूढ़ी महिला की मदद की । प्रबीर के लिए ये पहली कानूनी लड़ाई थी। लड़ाई थी प्रशासन के खिलाफ और एक बूढ़ी महिला को इन्साफ दिलाने के लिए, ताकि वो भुखमरी का शिकार न हो सके। अपनी पहली ही कानूनी लड़ाई में कामयाबी से प्रबीर बहुत ही उत्साहित हुए। उनकी ख़ुशी को कोई ठिकाना नहीं रहा। इस खुशी के मौके पर प्रबीर से संकल्प ले लिए कि वे नाइंसाफी का शिकार हुए गरीब, निस्साहय और अशिक्षित लोगों के वकील बनेंगे और उन्हें इन्साफ दिलाने के लिए अदालतों में कानूनी लड़ाई लड़ेंगे।

कुछ ही दिनों में प्रबीर ‘गरीबों का वकील’ के नाम से मशहूर हो गए। उनकी लोकप्रियता दिनबदिन बढ़ती गयी। अदालतों में वे गरीबों, नाइंसाफी का शिकार और इन्साफ से महरूम लोगों की आवाज़ बन गए। बड़ी बात तो ये है कि प्रबीर गरीब मुवक्किलों से मेहनताना और फीस भी नहीं लेते हैं। प्रबीर अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके गरीब मुवक्किलों के पास एक समय का भोजन जुटाने के लिए भी रुपये नहीं हैं, ऐसे में वे उनके क्या लेंगे। प्रबीर का मकसद और लक्ष्य था कि रुपयों की किल्लत की वजह से कोई भी गरीब इंसाफ से महरूम न रह जाए। जैसे-जैसे प्रबीर की लोकप्रियता बढ़ती गयी वैसे-वैसे मदद और इन्साफ की गुहार लेकर बड़ी संख्या में गरीब लोग उनके पास पहुँचने लगे। प्रबीर ने भी मदद करने में अपनी ओर से कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी। प्रबीर ने उड़ीसा में मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामलों को भी काफी गंभीरता से लेना शुरू किया। मानव अधिकार के उल्लंघन का जो कोई मामला उनकी नज़र में आता वे इन्साफ के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाते। मानव अधिकार कार्यकर्त्ता के रूप में भी उनकी एक अलग पहचान बन गयी।


प्रबीर ने आम लोगों, गरीब और पिछड़े जनों को इन्साफ दिलाने के लिए कई मुकदमे लड़ें हैं और इनमें से कई सारे मुकदमों की चर्चा देश-भर में हुई है। कुछ मुकदमे ऐसे भी हैं जिनकी चर्चा दुनिया-भर में हुई है। प्रबीर का जो पहला मुक़दमा जिसकी चर्चा दुनिया-भर भी हुई वो प्रताप नायक नाम के एक कैदी से जुड़ा था। प्रताप नायक की कहानी दिल को देहला देने वाली है। साल 1989 में जब 13 साल के प्रताप नायक एक दिन अपने स्कूल से वापस अपने घर लौट रहे थे तभी कुछ लोगों ने मिलकर एक शख्स ही हत्या कर दी थी। ज़मीन को लेकर दो गुटों के बीच में चल रहे विवाद और घमासान में एक शख्स ही हत्या कर दी गयी थी। पुलिस ने हत्या के इस मामले में छह लोगों को गिरफ्तार किया जिसमें 13 साल के दलित विद्यार्थी प्रताप नायक भी एक थे। प्रताप नायक ने पुलिस को ये समझाने की हर मुमकिन कोशिश की कि हत्या के इस मामले से उनका कोई लेना देना नहीं है और वे सिर्फ इस वारदात के गवाह हैं। लेकिन, पुलिस ने प्रताप नायक की एक न सूनी और 13 साल के किशोर को गिरफ्तार कर जेल भिजवा दिया। जिला अदालत में मुक़दमा चला और प्रताप नायक को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। बाकी सारे आरोपियों को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी लेकिन कुछ दिनों बाद वे सभी बेल/ज़मानत पर रिहा हो गए। प्रताप नायक बेल नहीं हासिल कर पाए। उनके माता-पिता गरीब और अशिक्षित थे और उनकी मदद करने वाला भी कोई नहीं था, ज़मानत की रकम जुटाने में वे असमर्थ थे। बेल लेने की प्रक्रिया के बारे में भी प्रताप के माता-पिता कुछ नहीं जानते थे। इसी वजह से प्रताप को स्थानीय जेल में भी रहना पड़ा। बाकी पाँचों आरोपियों ने जिला अदालत के फैसले को चुनौती देते हुए उड़ीसा उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। इस याचिका पर अंतिम फैसला साल 1994 में आया। उच्च न्यायालय ने ‘सबूतों के अभाव’ की वजह से सभी आरोपियों को बरी कर दिया। उच्च न्यायालय ने इस फैसले की जानकारी उस जेल के अधिकारियों को नहीं दी जहाँ 1989 से प्रताप नायक सलाखों के पीछे बंद थे। शायद न्यायालय के अधिकारियों को लगा कि सभी आरोपी बेल पर बाहर हैं और उन्हें लगा कि फैसला की कॉपी जेल अधिकारियों को देने की ज़रुरत नहीं हैं। बहरहाल, जेल के अधिकारियों को उच्च न्यायालय के फैसले/आदेश की कॉपी नहीं मिली और उन्होंने प्रताप नायक को कैदी बनाकर ही रखा। संतोष पाढ़ी नामक एक स्थानीय वकील को जब ये पता चला कि उच्च न्यायालय द्वारा बरी कर जिए जाने के बावजूद प्रताप नायक जेल में बंद हैं तब उन्होंने स्वतः ही उनकी रिहाई की कोशिशें शुरू कीं । संतोष की पहल की वजह से 22 जनवरी, 2003 को प्रताप नायक जेल से रिहा हुआ। लेकिन, सच्चाई यही है कि बरी हो जाने के बाद भी वे 8 साल तक जेल में रहे और उनके करीब 14 साल जेल में ही बीते। उच्च न्यायालय के अधिकारियों की लापरवाही की वजह से प्रताप नायक को 8 साल तक बिना वजह जेल में रहना पड़ा था। प्रताप के माता-पिता को भी ये पता नहीं चल पाया था कि उनका बेटा बरी हो गया है। प्रबीर दास को प्रताप नायक के साथ हुई नाइंसाफी के बारे में पता चला तब उन्होंने इस मामले को अपने हाथों में लिया और इन्साफ की लड़ाई नए सिरे से शुरू की। प्रबीर को लगा कि उच्च न्यायालय के अधिकारियों की लापरवाही की वजह से प्रताप नायक को ८ साल तक जेल में रहना पड़ा था। अगर ये अधिकारी उच्च न्यायालय के फैसले की जानकारी जेल अधिकारियों को दे देते तो प्रताप नायक रिहा हो जाते, लेकिन इन अधिकारियों द्वारा अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन न किये जाने की वजह से एक बेक़सूर व्यक्ति को अपनी जवानी के ८ महत्वपूर्ण साल जेल में बिताने के लिए मजबूर होना पड़ा था। प्रबीर को चौकाने वाली सबसे बड़ी बात ये थे कि १४ साल तक जेल में रहने की वजह से प्रताप नायक की मानसिक स्थिति बिगड़ गयी थी और वे ‘नेगेटिव सीजोफ्रेनिया’ नामक बीमारी का शिकार हो गए थे, यानी प्रताप एक तरह के पागलपन के शिकार बन गए। पहले से ही गरीबी और पिछड़ेपन की मार झेल रहे माता-पिता के लिए प्रताप नायक की देख-रेख करना और भी दिक्कतों भरा काम हो गया। प्रबीर दास ने प्रताप नायक और उनके माता-पिता को इन्साफ दिलाने का संकल्प लिया। प्रबीर ने सबसे पहले सारे सबूत जुटाये और फिर प्रताप नायक को इन्साफ दिलाने की गुहार लगते हुए उड़ीसा उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया। उड़ीसा उच्च न्यायालय ने प्रबीर की जनहित याचिका को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि प्रताप नायक से प्रबीर का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है और वे उस व्यक्ति को लेकर कोई याचिका नहीं दायर कर सकते जिनसे उनका कोई ताल्लुक नहीं है। उच्च न्यायालय से मदद न मिलने पर प्रबीर ने हिम्मत नहीं हारी और हार भी नहीं मानी, वे सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे और न्याय की गुहार लगते हुए याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने उड़ीसा उच्च न्यायालय को प्रबीर की याचिका पर सुनवाई करने और न्योचित फैसला देने का निर्देश दिया। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उच्च न्यायालय ने प्रबीर की याचिका पर सुनवाई की और अपने फैसले में प्रताप नायक को ८ लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया। उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, सारी रकम १० साल की मियादी जमा के लिए एक बैंक में रखी जाएगी और इस रकम पर बैंक से मिलने वाले मासिक ब्याज का ७५% हिस्सा प्रताप के माता-पिता को देने का प्रबंध किया गया, ताकि वे प्रताप के इलाज और दूसरी ज़रूरतों पर होने वाले खर्च का वहन कर सकें।

प्रताप नायक मामले की वजह से प्रबीर दास की ख्याति दुनिया-भर में फ़ैल गयी। इस मामले में पीड़ित को इन्साफ दिलाने के बाद प्रबीर पर काम का बोझ काफी बढ़ गया। उड़ीसा राज्य के अलग-अलग हिस्सों से लोग उनके पास मदद की गुहार लेकर आने लगे। बड़ी महत्वपूर्ण बात ये है कि जो लोग प्रबीर के पास आते वे उनकी मदद तो करते ही, वे उन लोगों की मदद भी करते जो उनके पास नहीं आते थे लेकिन प्रबीर को इन लोगों के साथ हुई नाइंसाफी का पता चल जाता था। जैसे ही प्रबीर को पता चलता कि किसी के साथ नाइंसाफी हुई है या फिर मानव अधिकार का उल्लंघन हुआ तब प्रबीर मामले को अपने हाथों में लेते और पीड़ितों को इन्साफ दिलाने के लिए कानूनी जंग लड़ते।

एक और मामले जिसने प्रबीर की लोकप्रियता और ख्याति को चार चाँद लगाये थे वो था कालाहांडी जिले में डाक्टरों की लापरवाही का एक मामला। हुआ यूँ था कि जनवरी, २००७ में कालाहांडी जिले के धरमगढ़ इलाके में एक गैर-सरकारी संस्था ने प्रशासन की देख-रेख में एक नेत्र-चिकित्सा शिविर का आयोजन किया था। नेत्र-चिकित्सा शिविर गरीबों के लिए था और लोगों से बिना फीस लिए ही डॉक्टर उनके आँखों की जांच कर रहे थे। आँखों की जांच के अलावा मोतियाबिंद के ऑपरेशन का भी प्रबंध था। कई मरीजों की आँखों को ऑपरेशन भी किया गया। लेकिन, डॉक्टरों की लापरवाही की वजह से कुछ मरीजों की आँखों की रोशनी चली गयी। जिन लोगों की आँखों की रोशनी चली गयी वे सभी उमरदराज थे और गरीब भी। जैसे ही इस घटना की जानकारी प्रबीर को मिली उन्होंने पीड़ितों को इन्साफ और मुआवजा दिलाने के लिए उड़ीसा उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर दी। याचिका दायर करने का मकसद न सिर्फ पीड़ितों को इन्साफ और मुआवजा दिलवाना था बल्कि ये भी सुनिश्चित करवाना था कि इस तरह की घटनाएं दुबारा न हों। प्रबीर की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने पीड़ितों को मुआवजा देने का निर्देश दिया और साथ ही इस तरह की घटनाएं दुबारा न हों इसके लिए सरकार को सख्त दिशा-निर्देश दिए। स्वास्थ-चिकित्सा शिविरों के आयोजन के लिए कड़े नियम-कायदे तय करने का भी आदेश दिया गया। प्रबीर ने बताया कि नेत्र-चिकित्सा शिविर में आँखों की रोशनी गवाने वाले लोगों को ये नहीं मालूम था कि अदालत में किसने उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ी है। लेकिन, जैसे ही लोगों को मालूम हुआ कि प्रबीर ने उन्हें इन्साफ दिलाया है तब सभी ने प्रबीर को आशीर्वाद दिया, दुआएं दीं। प्रबीर कहते हैं, “उन गरीब लोगों के आशीर्वाद से मुझे बहुत खुशी हुई और मेरी ताकत बढ़ी।“ प्रबीर के अनुसार, एक स्थानीय पत्रकार ने पीड़ितों को बताया था कि प्रबीर दास ने ही उन्हें मुआवजा दिलवाया है। इसके बाद पीड़ितों ने कैमरे के सामने प्रबीर को दुआएं दीं। तब एक खबरिया चैनल पर प्रबीर को पीड़ितों के दुआ देने की खबर दिखाई गयी तभी वे लोगों के आशीर्वचन सुन पाए। प्रबीर ने कहा, “तगड़ी रकम वाला मेहनताना भी उन आशीर्वचनों के सामने बेकार है।“


इसी तरह के कई मामले प्रबीर ने अपने हाथों में लिये हैं और पीड़ितों को इन्साफ दिलाया है। इन्हीं मामलों में से एक मामला है – नयागढ़ जिले में एक आंगनवाड़ी केंद्र में हुए एक हादसे का। एक भवन, जहाँ एकआंगनवाड़ी केंद्र चल रहा था, उसकी एक दीवार अचानक ढह गयी। दीवार के अचानक गिर जाने से कई बच्चे उसकी चपेट में आ गए। इस हादसे में कई बच्चे ज़ख़्मी हो गए। सात बच्चों की मौत भी हो गयी। इस हादसे की जानकारी मिलते हुई प्रबीर ने उच्च न्यायालय में एक और जनहित याचिका दायर की। इस याचिका की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने हादसे में मारे गए बच्चों के परिजनों को मुआवजा देने का आदेश दिया। इतना ही नहीं उच्च न्यायालय ने सरकार को आंगनवाड़ी केन्द्रों में बच्चों की सुरक्षा के लिए सख्त दिशा-निर्देश जारी किये और वे सारे कदम उठाने को कहा जिससे इस तरह की घटना कहीं पर भी दुबारा न हो।

और एक घटना में प्रबीर ने बलात्कार का शिकार हुई एक दलित युवती की जान बचाई थी। पीपली में कुछ बदमाशों ने एक दलित युवती का बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या करने की कोशिश की थी। किसी तरह से उस युवती की जान बच गयी थी, लेकिन उसकी हालत काफी नाजुक थी। जैसे ही प्रबीर को युवती की हालत के बारे में पता चला उन्होंने एक बार फिर से उच्च न्यायालय की चौखट पर दस्तक दी। प्रबीर की गुहार पर उच्च न्यायालय ने बलात्कार के मामले के जांच करने और दोषियों को पकड़ कर उनके खिलाफ कार्यवाही करने का आदेश दिया। इतना ही नहीं न्यायालय ने पीड़ित युवती का इलाज करवाने के भी आदेश दिए। न्यायालय के पर्यावेक्षण में डॉक्टरों की एक टीम ने उस युवती का इलाज किया था। इस इलाज की वजह से उस युवती की जान बच पायी थी। प्रबीर कहते हैं, एक बहुत ही गरीब लड़की का इलाज न्यायालय की देख-रेख में करवाया जाना राज्य के इतिहास में अपने किस्म की पहली और बहुत बड़ी घटना थी।

भारत में मानवरहित रेलवे क्रासिंग पर भी सुरक्षा के इंतज़ाम करवाने में प्रबीर दास की काफी महत्वपूर्ण भूमिका है। उड़ीसा में मानवरहित एक रेलवे क्रासिंग पर एक बार एक बहुत बड़ा हादसा हो गया। 19 महिला कृषि मजदूरों को ले जा रहा एक ऑटो रेलवे क्रासिंग पर इंटरसिटी एक्सप्रेस की चपेट में आ गया। इस हादसे में 13 महिलाओं की मौत हो गयी। प्रबीर ने एक बार फिर से जनहित याचिका का सहारा लिया और पीड़ितों के परिजनों को मुआवजा दिलवाया। इतना ही नहीं प्रबीर ने न्यायालय से मानव रहित रेलवे क्रासिंग पर लोगों की सुरक्षा के लिए फौरी तौर पर कदम उठाने के लिए रेल मंत्रालय को आदेश देने का भी आग्रह किया। प्रबीर की गुहार पर न्यायालय ने रेल मंत्रालय से सारे रेलवे क्रासिंग पर लोगों की सुरक्षा के लिए तगड़े इंतज़ाम करने और हादसों की आशंकाओं को पूरी तरह से मिटाने का काम करने का निर्देश दिया । न्यायालय के आदेश पर रेल मंत्रालय ने मानवरहित रेलवे क्रासिंग लोगों की सुरक्षा के लिए इंतज़ाम करने शुरू किये।

प्रबीर दास इस बात के लिए भी मशहूर हो चुके हैं कि वे ऐसे मामले अपने हाथों में लेते हैं जिनसे किसी भी वकील को कोई फायदा नहीं होता। प्रबीर ये नहीं देखते कि मामले को अपने हाथ में लेने से उन्हें कुछ मिलेगा या नहीं, उनका मकसद सिर्फ इतना होता है कि पीड़ित को इन्साफ मिलना चाहिए। एक बार प्रबीर ने एक ऐसा मामला अपने हाथ में लिया जहाँ सामूहिक बलात्कार का शिकार एक महिला इन्साफ के लिए सालों से तड़प रही थी। बलात्कार के इस मामले पर निचली अदालत में सुनवाई ही नहीं हो रही थी। मामला १६ सालों से खुर्दा जिले की एक अदालत में ही लंबित पड़ा हुआ था। प्रबीर ने उच्च न्यायालय से हस्तक्षेप करने और पीड़ित महिला को इन्साफ दिलाने की अर्जी दी। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत को बलात्कार के इस मामले में सुनवाई शुरू करने और न्योचित आदेश देने का निर्देश दिया। सुनवाई के बाद निचली अदालत ने आरोपियों को बलात्कार का दोषी पाया और उन्हें सज़ा सुनाई।

अति महत्वपूर्ण बात ये है कि गरीब और अशिक्षित लोगों को इन्साफ दिलवाने के लिए प्रबीर ने अपनी ज़िंदगी में कई सारे त्याग किये हैं। अदालतों में गरीबों के हक़ की लड़ाई लड़ते-लड़ते उन्हें शादी करने का समय ही नहीं मिला। न ही वे अपने लिए कोई मकान या गाड़ी खरीद पाए हैं। न उनके नाम कोई ज़मीन है ना जायजाद। उनके साथी और मित्र कहते हैं कि अगर प्रबीर कॉर्पोरेट या क्रिमिनल एडवोकेट बनते तो आज वे करोड़पति होते, लेकिन उन्होंने समाज-सेवा का रास्ता चुना। और, हकीकत भी यही है, प्रबीर के लिए धन-दौलत कोई मायने नहीं रखती। वे गरीबों, निर्धनों, अशिक्षित लोगों को इन्साफ दिलाने में ही अपनी खुशी देखते हैं।

एक सवाल के जवाब में प्रबीर ने कहा, “बहुत ही कम लोगों को मौका मिलता है लोगों की सेवा करने का, बहुत ही कम लोगों को मौका मिलता है अपनी ज़िंदगी अपने चुने सिद्धांतों और अपनी तय की हुई विचारधारा के मुताबिक जीने का। बहुत ही कम लोग ऐसे होते हैं जोकि अपनी मनमर्जी के मुताबिक जी पाते हैं। मैं खुश हूँ कि मैं वो कर रहा हूँ जो मुझे अच्छा लगता है।“ प्रबीर दास ने ये भी कहा, “मेरी ज़िंदगी कैसी होगी इसका फैसला मैंने खुद किया है। और, मुझे इस तरह की ज़िंदगी जीने में बहुत कष्ट भी हो रहा है। कई सारी तकलीफें भी हैं, लेकिन अपने सिद्धांतों के लिए तकलीफें उठाने में भी आनंद मिलता है।“ गरीबों और अशिक्षित लोगों की नज़र में ‘इन्साफ दिलाने वाला मसीहा’ बन चुके प्रबीर दास कहते हैं, “मैं अविवाहित हूँ। मेरे खर्चे भी बहुत ही कम हैं। मेरी कोशिश रहती है कि मैं कम से कम खर्चा करूं। मेरा ज्यादा खर्च किताबें खरीदने में ही होता है। मेरी माँ को पेशन मिलती है, वो भी मेरी मदद कर देती हैं। मेरा भाई भी मदद कर देता है। मैं मानव अधिकार के संरक्षण के लिए काम कर रहे कुछ गैर सरकारी संगठनों को कानूनी सलाह देता हूँ और इसे लिए मुझे फीस मिलती है। इन सब से मेरा काम चल जाता है।“ प्रबीर दास अपने आगे की ज़िंदगी भी वैसे ही जीना चाहते है जैसे कि वे अब जी रहे हैं । वे जोर देकर ये कहते हैं कि “I want to work without any ambition, without any expectation and without any designation.”

71 वर्षीय सुरेश ने बनाया एक असाधारण आशियाना

"डी सुरेश चेन्‍नई के किलपॉक में न्‍यू 17 वासू स्‍ट्रीट में अपनी पत्‍नी, पुत्र और पुत्रवधु के साथ रहते हैं, जो उनके प्रयासों में उनकी सहायता तो करते ही हैं साथ ही उन्‍हें प्रोत्‍साहित करने का भी काम करते हैं।"

सुरेश 45 साल तक नौकरी करने के बाद 2015 में सेवानिवृत्‍त हो गए। सुरेश आईआईटी मद्रास और आईआईएम से स्‍नातक हैं। इन्होंने एमडी और सीईओ सहित अनेक पदों पर टेक्‍सटाइल मार्केटिंग में काम भी किया है। साथ ही SAKS Ancillaries Ltd की स्‍थापना में अपने उद्यम संबंधी ज्ञान का उपयोग किया और एक अन्‍य उद्यम की अगुआई की। अब इनके जान-पहचान वाले इन्हें सोलर सुरेश के नाम से जानते हैं।

सुरेश कहते हैं, "यह सही-सही याद कर पाना मुश्किल है, कि कब मेरे मन में “self-sufficient home” (स्व निर्भर घर) बनाने का विचार आया, लेकिन जहां तक मुझे याद है कि इस सोच को पंख 20 साल पहले मेरी जर्मनी यात्रा के दौरान लग गये थे। जब मैंने जर्मनी में छतों पर लगे सौर ऊर्जा संयंत्र देखे, तो मैंने सोचा कि जब जर्मनी जैसा कम धूप वाला देश इन्‍हें लगा सकता है, तो भारत क्‍यों नहीं, जहां सौर ऊर्जा प्रचुरता में है।" और सुरेश के इस आइडिया ने उन्हें आगे बढ़ने और बिजली बनाने के लिए छत पर एक सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने के लिए विक्रेता खोजने को प्रेरित किया।

सुरेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी छत पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने वाले उचित विक्रेता की खोज और सौर ऊर्जा इनवर्टर लगाने की। वे कहते हैं, कि टाटा बीपी सोलर, सू कैम और कई बड़े नामों ने उनके काम में कोई दिलचस्‍पी और प्रोत्‍साहन नहीं दिखाया। फिर अपने घर के लिए सौर ऊर्जा संयंत्र डिज़ाइन करने और बनाने के लिए उन्होंने एक साल तक कड़ी मेहनत की। जनवरी 2012 तक सुरेश ने अपना 1 किलोवॉट का संयंत्र लगा लिया था और छत पर सौर विद्युत उत्‍पन्‍न करना आधिकारिक तौर पर शुरू कर दिया। संयंत्र लगाने के लिए मात्र एक छायामुक्‍त जगह चाहिए थी, यानी कि प्रति किलोवॉट के लिए 80 वर्गफुट, जिसके लिए छत बेहतर विकल्प थी और उन्होंन छत पर ही अपने सपनों को आकार देना शुरू कर दिया। कई विशेषज्ञ और तमिलनाडु ऊर्जा विकास प्राधिकरण के चेयरमेन जैसे वरिष्‍ठ सरकारी अधिकारी सुरेश के संयंत्र को काम करता देखने के लिए आये।
"अप्रैल 2015 तक सुरेश ने अपनी solar electricity को 3 किलोवॉट तक बढ़ा दिया और अब यह 11 पंखे, 25 लाइटें, एक फ्रिज, दो कम्‍प्‍यूटर, एक वॉटर पंप, दो टीवी, एक मिक्‍सर-ग्राइंडर, एक वॉशिंग मशीन और एक इंवर्टर एसी को ऊर्जा देता है।"

सुरेश की मेहनत और लगन ने कमाल कर दिया, जिस काम को करने में काफी लंबा समय बीता उसी काम को करने में अब सिर्फ एक दिन का समय लगता है। सुरेश के अनुसार मेंटीनेंस पैनल्स की हर तीन महीने में सफाई ज़रूरी है। इस संयंत्र की सबसे खास बात ये है, कि ये हल्की बारिश के दौरान भी बिजली पैदा करता है, क्‍योंकि यह पैनलों पर पड़ने वाली यूवी किरणों पर आ‍धारित है न कि गर्मी या प्रकाश की तेजी पर। तेज़ बारिश के समय (जोकि चेन्‍नई में कम ही होती है) लोड बैटरी द्वारा उठाया जाता है, जिसे चार्ज करने के लिए सौर ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाता है न कि ग्रिड का।

"एक ऐसे शहर में रहने के बावजूद जो, कि बिजली की समस्‍या के लिए बदनाम है उस शहर में मैंने पिछले चार वर्ष से एक मिनिट भी बिजली गुल नहीं देखी है। मैं हर दिन 12 से 16 यूनिट उत्‍पादन कर बिजली का खर्च बचाता हूं। यह एक टिकाऊ, वहनीय, व्‍यवहार्य परियोजना है, जो कि वर्तमान में बैटरी के बदलने सहित छह प्रतिशत कर-मुक्‍त मुनाफ़ा दे रही है: सोलर सुरेश"
बायोगैस सेटअप और रेन वॉटर हार्वेस्टिंग उपकरण

"बायोगैस एक सुरक्षित गैस है, जिससे विस्‍फोट या गैस के रिसाव जैसा कोई ख़तरा नहीं होता है। यहां तक कि गैस का नॉब खुला रह जाने पर भी। साथ ही यह प्रदूषणकारी भी नहीं है और खनिज ईंधन पर निर्भरता को कम करके यह देश के लिए विदेशी मुद्रा भी बचाती है।"

सुरेश ने प्रतिदिन लगभग 10 कि ग्रा जैविक कचरे का इस्‍तेमाल करके और 20 कि ग्रा गैस हर महीने उत्‍पादित करने के लिए एक घरेलू बायोगैस संयंत्र लगाकर अपनी बाहरी गैस की आवश्‍यकताओं का समाधान करने का निर्णय किया है। उन्‍होंने यह सिद्ध करके इस मिथक को भी तोड़ा है, कि कोई बदबू उत्‍पन्‍न होती है। संयंत्र में पका और बिन पका भोजन, खराब भोजन, सब्जियां और फलों के छिलके आदि डाले जाते हैं। इन सबके बीच सिर्फ एक ही बात याद रखने की है, कि इसमें साइट्रस फल जैसे नीबू, संतरा, और प्‍याज, अंडे के छिलके, हड्डियां या साधारण पत्तियां इसमें नहीं डालनी चाहिए।

इस संयंत्र से दो उपयोगी संसाधन उत्‍पन्‍न होते हैं, कुकिंग गैस और जैविक खाद। सुरेश ने अपने आसपास में कुछ ऐसे सब्‍जी विक्रेताओं को खोज निकाला है, जिन्‍हें अपने कचरे के निस्‍तारण के लिए धन खर्च करना पड़ता था, लेकिन अब ऐसा नहीं होता क्योंकि अब वे अपना कचरा सुरेश के बायोगैस संयंत्र पर छोड़ देते हैं। इन सबके बीच सबसे अच्छी बात ये है, कि बायोगैस एक सुरक्षित गैस है, जिससे विस्‍फोट या गैस के रिसाव जैसा कोई ख़तरा नहीं होता है। यहां तक कि गैस का नॉब खुला रह जाने पर भी। साथ ही यह प्रदूषणकारी भी नहीं है और खनिज ईंधन पर निर्भरता को कम करके यह देश के लिए विदेशी मुद्रा भी बचाती है।

साथ ही सुरेश ने अपना रेनवॉटर हार्वेस्टिंग संयंत्र 20 वर्ष पहले लगाया था। इसके बारे में चर्चा करते हुए वे कहते हैं, कि "इसमें भी दैनिक मेंटीनेंस की ज़रूरत नहीं है, सिर्फ छत की आवश्यकता होती है। संयंत्र को सिर्फ मानसून से पहले साफ करना होता है।"

इन्हीं सबके साथ सुरेश ने मोटे बांस के पेड़ों की बाड़ और लताओं से अपने घर को घेरकर एक जंगल जैसा रूप प्रदान किया है। उनकी छत ऐसी है, जिसे देखकर यह एहसास होता है, कि हम किसी जंगल में खड़े हैं, जोकि भीड़ भरे शहर की आपाधापी का हिस्‍सा नहीं है। छत पर आने के बाद आसपास की गगनचुंबी इमारतें और ट्रैफिक दिखाई ही नहीं गेता है, यदि कुछ होता है तो सिर्फ हरियाली और कुछ नहीं। सुरेश का घरेलू जंगल बेहद प्रशंसनीय और अद्भुत है। इस गार्डन की शुरूआत हुई तो भिण्‍डी और टमाटर की खेती के साथ थी, लेकिन आज की तारीख में यह बाग हो गया है। अब सुरेश इनमें जैविक ढंग से 15 से 20 प्रकार की सब्जियां उगाते हैं। घर में होने वाली अधिकांश कुकिंग की आवश्यकताएं उनके किचन गार्डन से ही पूरी हो जाती हैं।

"छत पर लगी solar electricity की मदद सेे सुरेश अच्छा-खासा धन बचा रहे हैं। इससे पहले उनके घर में बिजली की खपत 8,100 यूनिट थी, लेकिन 1 किलोवॉट का संयंत्र लगाने पर खपत 2016 तक घटकर 5,550 यूनिट ही रह गई है और 3 किलोवॉट का संयंत्र लगाने पर यह खपत 3,450 यूनिट हो गई।
सुरेश अपने किचिन गार्डन में

सुरेश अपने इस सफल और क्रांतिकारी प्रयास को अवेतनिक आधार पर शिक्षा और प्रोत्‍साहन के जरिए अधिक से अधिक लोगों, स्थानों और संस्‍थाओं तक पहुंचाने की कोशिश में लगे हुए हैं। अब तक सुरेश ने बंगलूरू, हैदराबाद और चेन्‍नई में तीन ऑफिसों, चार स्‍कूलों और सात घरों में solar electricity लगाये हैं, साथ ही हैदराबाद के छ: संस्‍थानों में बायोगैस संयंत्र और चेन्‍नई में छ: स्‍थानों पर किचन गार्डन लगाये हैं और लोगों ने आगे बढ़ कर इनके प्रयासों का स्वागत किया है।

सुरेश को अब उनकी पहलकदमियों के लाभों पर प्रकाश डालने के लिए चेन्‍नई में कई संस्‍थानों द्वारा आमंत्रित किया जाता है। न्‍यू 17 वासु स्‍ट्रीट अब स्‍कूल के छात्रों के लिए स्‍टडी टूर के लिए एक लोकप्रिय गंतव्‍य है और उनके संयंत्र को काम करते देखने के लिए 500 से अधिक लोग उनके घर जा चुके हैं। भविष्‍य में, सुरेश दो परियोजनाओं से जुड़ेंगे– सौर ऊर्जा का प्रयोग कर वातावरण की हवा से पेयजल प्राप्‍त करना और दुपहिया वाहनों के लिए एक डिजिटल कुंजी विकसित करना, जिसमें वाहन को केवल चार अंकों का एक विशिष्‍ट पासवर्ड डालकर ही स्‍टार्ट किया जा सकेगा