मांड्या जिले के छोटे से गाँव में रहने वाले सैयद गनी खान एक संग्रहालय (म्यूज़ियम) में संरक्षक है। उन्होंने एक अनूठी पहल की और एक ऐसा म्यूज़ियम तैयार कर दिया जहां आज चावल की 850 व 115 के आसपास आम की विभिन्न किस्मों को ना सिर्फ संरक्षित किया गया है, बल्कि उनकी खेती भी की जाती है। यह किसान चाहता हैं कि ना सिर्फ हमारी पुरानी लुप्त होती पारंपरिक किस्मों को बचाया जाए बल्कि उन किस्मों को दुबारा उगा कर हमारे पूर्वजों के पुराने ज्ञान से आज की पीढ़ी के किसानों को अवगत कराया जाए।
एक किसान के बेटे सैयद गनी खान ने हमेशा ही एक म्यूज़ियम में संरक्षक बनने का सपना देखा था। उन्होंने पुरातत्व-विज्ञान व संग्रहालय विज्ञान की पढ़ाई की, इस सपने के साथ कि वह कभी खुद का संग्रहालय खोलेंगे जहां आने वाले लोगो को वे प्राचीन परंपराओं की जानकारी देंगे।
जब वे 22 साल के थे तब सैयद के पिता को ब्रेन हैमरेज हो गया जिसके कारण भाई-बहनों में सबसे बड़े सैयद पर परिवार व खेती की सारी ज़िम्मेदारी आ गयी। उन्होंने अपने सपनों को पूरा करना छोड़, खेती करना शुरू किया।
अपने क्षेत्र के दूसरे किसानों की तरह उन्होंने भी हायब्रीड खेती के तरीकों से चावल उगाना शुरू कर दिया। एक दिन अपने खेत में कीटनाशकों का छिड़काव करते समय, उन्हें चक्कर आने लगे और वे गिर कर बेहोश हो गए। यही वह दिन था जब उन्हें कीटनाशकों के बुरे प्रभाव का एहसास हुआ।
“हम किसानों को सभी ‘अन्नदाता’ कहते हैं। लेकिन उस दिन मुझे एहसास हुआ कि मैं अन्नदाता नहीं हूँ; मैं तो विष-दाता बन चुका हूँ। इन सभी हानिकारक खाद और कीटनाशकों के उपयोग से मैं ज़हर वाली फसल उगा रहा था। उस दिन मैंने निश्चय कर लिया कि मैं अपने खेती करने के तरीके को बदल दूंगा ,” सैयद कहते हैं।
उन्होंने जैविक खाद (organic manure) का उपयोग करना शुरू किया, परंतु कुछ महीनों बाद भी उन्हें अपनी फसल पर इसके कुछ परिणाम नहीं दिखाई दिये। जब उन्होंने इसकी और जांच-पड़ताल की तो उन्हें पता चला कि हायब्रीड बीजों से उगने वाली फसल पर इस प्राकृतिक खाद का कोई असर नहीं हो रहा था। तब उन्होंने हाइब्रीड किस्मों को छोड़कर लोकल ऐसे किस्मों की तरफ रुख किया जो अधिक पौष्टिक हो व खेती के परंपरागत तरीकों को अपनाकर भी की जा सकती हो।
जब उन्होंने परंपरागत किस्मों की खोज करना शुरू किया, तो उन्हें पता चला कि सूखे क्षेत्र में उगने वाली अकाल-रोधी किस्में जैसे राजभोग बाथा, कड़ी बाथा, डोड्डी बाथा विलुप्त हो चुकी हैं। हाइब्रीड किस्मों के उपयोग बढ्ने के कारण (जो कि परंपरागत किस्मों के बदले ज्यादा उत्पादन देती थी परंतु दुबारा उगाये जाने के योग्य नहीं थी) किसानों ने उन परंपरागत किस्मों को भुला दिया था जो कि कम उत्पादन देती थी परंतु कई पीढ़ियों बाद भी दुबारा उगाई जा सकती थी। सैयद को ऐसी परंपरागत किस्मों के बीजों की खोज करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा जिनमें कीटनाशकों के प्रयोग की आवश्यकता न पड़े।
उन्होंने अपने संग्रहण की शुरुआत ऐसी किस्म के साथ की, जिसके बारे में उन्हें कोई भी कुछ बता पाने में सक्षम नहीं था। इसे पहचानने में एक वैज्ञानिक ने उनकी मदद की। यह मांड्या में उगाई जाने वाली एक मूल किस्म थी, जो कि अब लगभग विलुप्त हो चुकी है।
“मुझे चिंता होने लगी! एक किसान के परिवार में बढ़ा होने की वजह से मैंने चावल की कई किस्मों के नाम सुने थे। और अब, जब मैं उन्हें उगाना चाहता था तो मुझे पता चला कि ये किस्में अब उपलब्ध ही नहीं है! इस बारे में कुछ करने की आवश्यकता थी,” सैयद कहते हैं।
उन्होंने चावल की इन लगभग विलुप्त हो चुकी क़िस्मों का न सिर्फ पता लगाना शुरू किया बल्कि उन्हें एकत्रित कर उनका संग्रहण किया तथा उन्हें फिर से उगाना शुरू किया।
चावल कि विभिन्न किस्में
तब उन्हें यह लगा कि वे इन परंपरागत किस्मों का संग्रह कर अपने संग्रहकर्ता बनने के सपने को सच कर सकते है और अपना एक म्यूज़ियम खोल सकते हैं।
उन्होंने कई तरह के चावलों की किस्में मांड्या जिले के आसपास के गांवों से एकत्रित कर ली पर वे यहीं नहीं रुकने वाले थे। उन्होंने कई दूसरे जिलों और राज्यो में भी इनकी खोज की। चार साल के अंदर ही उन्होंने चावल की 140 से ज्यादा किस्में अपने म्यूज़ियम के लिए खोज निकाली और उनमे से हर एक का मूल स्वाद, आकार व खुशबू के साथ उन्हें सहेजा।
परंपरागत किस्में हाइब्रीड किस्मों की तुलना में कहीं बेहतर होतीं है। इनमें पानी की आवश्यकता कम होती है। कुछ किस्मों के तो अपने औषधीय गुण भी है।
“परंपरागत किस्मों ने मौसमी परिवर्तनों के हिसाब से अपने आप को ढाला है, और ये किस्में सूखा, बाढ़ जैसी अन्य प्राकृतिक आपदाओं का बेहतर तरीके से सामना कर सकती है, वहीं हाइब्रीड किस्में ऐसे में नहीं टिक पाती। मैं हर साल अपनी फसल के सबसे अच्छे बीजों को चुनता हूँ और अपने साथी किसानों को देकर उन्हें बढ़ने में मदद करता हूँ। मैं साथी किसानों को इन किस्मों के फायदे समझाने की भी कोशिश करता हूँ। कई बड़ी कंपनियां मुझे इनके लिए बड़ी रकम देने की पेशकश कर चुकी हैं पर मैं उन्हें यह नहीं देता,” वे कहते हैं।
अपने कई सालों के संरक्षण के काम के बाद आज उन्हें किसान बहुत अच्छे से पहचानते हैं और उनसे सलाह-मशवरा भी करते हैं।
मांड्या जिले के किरुगुवूलु गाँव में स्थित सैयद के चावल म्यूज़ियम के साथ ही ‘बड़ा बाग़’ नाम से जाना जाने वाला उनका एक बग़ीचा भी है। इस बगीचे के 116 प्रकार के आमों आम के कारण किसानों व कृषि में शोध करने वाले लोगों के बीच सैयद काफी प्रसिद्ध है।
आज उनका म्यूज़ियम 850 से भी ज्यादा चावल की किस्मों का घर है। जहां ज़्यादातर चावलों की किस्में भारत की मूल किस्में है, वहीं सैयद के इस म्यूज़ियम में म्यामांर, थायलैंड, पाकिस्तान व कई अन्य देशों की किस्में भी उपलब्ध है। सैयद की मेहनत से आज उनका यह बाग़ कई विविध तरह के जीवो का घर बन चुका है, जो की आज 60 से भी ज्यादा पक्षियों की मेजबानी करता है। अपने इस म्यूज़ियम की देखभाल करना व अपनी परंपरागत जानकारी को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाना ही आज सैयद के जीवन का उद्देश्य बन चुका है।
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