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Monday 27 March 2017

चलो वापस कृषि कि ओर

विवेक चतुर्वेदी के लिए एक समय पैसा ही सबकुछ था। उनका अपना व्यापार था, उस व्यापार से और अधिक पैसा कमाने की धुन में, उन्होने अपना समस्त जीवन उसमे झोंक रखा था। पैसा ही कमाने के लिए उन्होने कुछ साल पहले एक जमीन के टुकड़े मे निवेश किया था। जमीन खरीदने के कुछ समय बाद उन्हे “जीवन विद्या” नामक एक कार्यशाला मे भाग लिया था। इस कार्यशाला ने उन्हे जीवन के विभिन्न आयामों को देखने की एक दृष्टि प्रदान की। यहीं से उनके जीवन की एक नयी यात्रा की शुरुआत हुई, जहाँ रुपयों-पैसों से परे जाकर वे वास्तविक वस्तुओं के मूल्यों को समझने का प्रयास करने लगे।


वो कहते है की “जब मैं इस दिशा मे चिंतन-मनन कर रहा था तब मुझे समझ आया कि यह रुपया जो मैंने अभी तक कमाया है, जिसके पीछे पूरा मानव समाज भाग रहा है वो महज मानव की एक कल्पना मात्र है। यह एक माध्यम है जिससे हम अपनी जरूरतें पूरी कर सकते है। असली मूल्य तो उन वस्तुओं का है जिन्हें हम इससे खरीदते है। हमारी असली जरूरतें आज भी वहीं रोटी, कपड़ा और मकान है, जो मानव समाज के प्रारम्भिक काल में थी। और हमारी उन जरूरतों को हमने आज इस काल्पनिक धन से जोड़ दिया है। इस गैर-हक़ीकत वस्तु के पीछे भागते हुए हम उन सब वस्तुओं का विनाश करते जा रहे है जो कि हकीकत है।


जो सही मायनों मे हमारी जरूरतों को पूरा करती है। हमने हमारे खाने को जहरीला कर दिया है, हमारे पानी को दूषित कर दिया है, जो हवा हमारे जीवन का आधार है वो ही आज हमारे जीवन को लील लेने को तैयार बैठी है। इसका कारण सिर्फ एक है कि हमने धन-दौलत को हकीकत मान लिया है और इन सब वास्तविक चीजों को महज उपभोग कि एक वस्तु।”


जब उन्हे यह एहसास हुआ तब वे इसके रास्ते खोजने लगे। उन्हे इसका एकमात्र रास्ता यही नजर आया कि उन्हे फिर से जमीन से जुड़ना होगा। तब उन्होने कृषि की तरफ रुख किया। जब उन्होने कृषि कि तरफ रुख किया तो उन्हे समझ आया कि आज कृषि पहले के समान बिलकुल भी नहीं रहीं है। आज किसान खुद रुपयों के मायाजाल मे इस कदर फंस गया है कि उसके लिए रुपयों के बिना खेती करना असंभव सा हो गया है।


वो आगे कहते है कि जब उन्होने खेती करना शुरू किया तब उन्हें एक बात सबसे ज्यादा खटकने वाली लगी। एक बीज़ जो कि अपने आप मे इतना सक्षम है जो हजारो बीजों को जन्म दे सकता है, ऐसे काम मे किसान को नुकसान हो सकता है। जब वे इसके कारणों का अध्ययन कर रहे थे तब उन्हे पता चला कि आज किसान खेती में अपने हर कार्य के लिए बाज़ार पर निर्भर है। उसे हर बात पर पैसे खर्च करने पड़ते है, परंतु बाज़ार मे उसकी उपज को उचित मूल्य नहीं मिल पता है। ऐसे में वह अपनी लागत भी वसूल नहीं कर पाता है। तब वे खेती को सरल और सुगम बनाने के रास्ते खोजने लगे।


उन्होने शुरुआत बीजों और खाद पर अपनी आत्मनिर्भरता बढ़ाने से की। वे देशी बीजों का प्रयोग करते हुए अपने लिए अगले साल के लिए बीज़ तैयार करने लगे। खाद के लिए उन्होने गाय और बैलों का पालना शुरू किया। उनके गोबर से वे अपना ईंधन बनाने लगे और गोबर गैस बनने के बाद निकले अपशिष्ट को खाद के रूप मे प्रयोग करने लगे। जब उन्हें जुताई, सिंचाई और कटाई का कार्य के लिए उन्हे समस्या आने लगी तो उन्होने बैलो से जुताई करनी शुरू की। बैलों से जुताई करते समय उन्हे मालूम पड़ा कि बैलो कि दो जुताई और ट्रैक्टर कि पाँच जुताई बराबर है। वही दूसरी तरफ ट्रैक्टर से जुताई करते वक़्त मिट्टी मे रहने वाले कई सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते है जिसका दुष्प्रभाव फसल पर पड़ता है। उसके बाद सिंचाई के लिए उन्होने एक बैलों से चलने वाले पंप का ईज़ाद किया। बैल पंप बनाने के बाद उन्होने बैलो से ही चलने वाले थ्रेशर का ईज़ाद किया और एक कटाई यंत्र बनाया जो बिना किसी बाहरी वस्तु के किसान कि क्षमता को दस गुना तक बढ़ा सकता है।

विवेक कहते है कि “यह सब करने के बाद अब मेरी कोशिश है कि कैसे मैं ऐसी तकनीक तैयार कर सकूँ जिससे किसान बिजली और पेट्रोल-डीजल के मामले मे भी आत्म निर्भर हो सकें। इसके लिए हमने कुछ प्रयोग करे भी है। हमने एक गेसिफाइर बनाया है जिससे एक गाँव फसल के भूसे आदि से खुद के लिए बिजली बना सकता है और वो बिजली के मामले मे आत्म निर्भर हो सकता है। पेट्रोल-डीजल पर आत्मनिर्भर होने के लिए हमने एक प्रयोग किया है। इसमे हमने गुड बनाते वक़्त जो तरल द्रव्य निकलता है, जिससे अमूमन लोग शराब बनाते है, उसके साथ प्रयोग किया है। इसमे आपको गाड़ी के इंजन मे मामूली सा बदलाव करना होता है और आप इससे अपनी गाड़ी चला सकते है। अभी यह प्रयोग अपने प्रारंभिक दौर मे है और उम्मीद है कि हमे इसमे जल्द ही सफलता हासिल हो जाएगी। इसके अलावा हम एक ऐसी मशीन भी बना रहे है जिससे किसान कम से कम बीजों का प्रयोग करते हुए अधिक से अधिक फसल प्राप्त कर सकें।”

विवेक का मानना है कि वह वक़्त दूर नहीं है जब हम सबको अपनी जड़ों कि तरफ लौटना पड़ेगा और खेती को अपनाना पड़ेगा। क्योंकि रुपयों को हम खा, पहन या पी नहीं सकते है। हमारे पास बेहद सीमित संसाधन बचे हुए है। ऐसे मे हम इन तकनीकों के माध्यम से गावों और किसानो को न सिर्फ आत्मनिर्भर बना सकते है अपितु हमारे पास उपलब्ध सीमित संसाधनों का सदुपयोग भी कर सकते है।

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