व्यक्ति के पास
रचना त्मकसोच हो तो
असंभव को भी
संभव बनाया जा सकता
है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़
के कांकेर जिले
के सिंगार भाट गांव की
71 वर्षीय निवासी अगास बाई
में अब तक
भी खेती करने की
चाह है, लेकि नगरीबी
के कारण वह
मशरूम की खेती कर
पाने में सक्षम
नहीं थी। तब उनकी
इस चाह को
पूरा करने में धीरज
(अगास बाई का
नाती) ने इनका साथ
दिया। धीरज ने
बताया कि मशरूम की खेती
के लिए 71साल
की नानी को
सवा लाख रुपएका
उपकरण चाहिए था।
लेकिन घर की हालत
खराब थी जिस
कारण वह मशरूम का
उत्पादन नहीं कर
पातीथी।एनआईटी पास मैकेनिकल इंजीनियर
धीरज साहू ने
जब नानी(अगास
बाई) की परेशानी
देखी तोमहंगे उपकरण
की सस्ती तकनीक वाला
वर्जन बनाने की
जिद्य ठानली। तब
उनका यह जज़्बा
काम आया। कुछ दिनों
की कड़ी मेहनत से
वैसा ही उपकरण
‘इना कुलेशन चैंबर’ मात्र 1200 रुपए में
तैयार होगया। इसकी
मदद से नानी
नेम शरूम का उत्पादन
शुरू किया।धीरज ने
बताया कि अब
नानी की आर्थिक स्थिति
सुधरने लगी है।
धीरज
ने बताया कि
उनके माता-पिता उसकी
नानी के साथ कांकेर
जिले के सिंगार भाट
गांव मेंही रहते
हैं। नानी ने
मशरूम उगाने का प्रशिक्षण
कृषि विज्ञान केंद्र
से लिया। अगास बाई
चाहती थीं कि
वेम शरूम बीज उत्पादन
से जुड़ें,लेकिन
महंगी मशीन रोड़ा
बन रही थी। जब
नाती ने इना कुलेशन
चैंबरबना दिया तो
उनका यह सपना हकीकत
बन गया। धीरज
ने बताया की उनके
द्वारा बनाई गई
इस मशीन से नानी
बहुत खुश हैं।धीरज
ने बताया कि
उनकी नानी के परिवार
को किराए से
4500रूपए मिलते थे लेकिन
उससे घरका गुज़ारा
नहीं हो पाता
था।मशरूम बीज उत्पादन
में तीन हजार रुपए
खर्च निकालने के
बाद भी उन्हें दो
महीनों में 17 हजार रुपए
का शुद्ध मुनाफा हुआ
है। अब तो
धीरज के पिता घन श्याम
साहू जी भी
सिलाई का काम छोड़कर
मशरूम बीज तैयार करने
में जुट गए
हैं। इस लिए यह कहना
बिल्कुल उचित होगा‘‘गरीबी ने बना
दिया वैज्ञानिक’’।धीरज
ने 1.25 लाख रुपए
की मशीनसिर्फ 1200 में
बनाई है।
धीरज
के अनुसार बीज उत्पादन
में लेमिन रफ्लो नामक
उपकरण की जरूरत पड़ती
है। यह बैक्टीरिया
और फंगस खत्म करता
है। पहले उन्हांने
इस मशीन के काम
करने के तरीके
की जानकारी जुटाई। उन्होंने कांकेर
के कृषि केंद्र में रखे
इसी तरह के
एक मॉडल का बहुत
अच्छी तरह से अध्ययन
किया। इसके बाद
अपनी तकनीक इजाद की
और बीज बनाने की
नई मशीन तैयार
हो गई। इस काम
में उनकी कुशल
सोच झलकती है।
डॉ. एसके
पाटिल, कुलपति,इंदिरा गांधी
कृषि विवि, रायपुर
नेकहा कि यह
एक अच्छा आविष्कार है।
विशेषज्ञों से छोटी-मोटी खामियां दूर करवा कर
इस तकनीकको प्रोत्साहित
करेंगे। इंडियन काउंसिल ऑफ एग्री कल्चरल
रिसर्च(आईसीएआर) को भी
सक्सेस स्टोरी भेजेंगे। उम्मीद है यह
तकनीक किसानों के लिए
मदद गार साबित होगी। यहां के
कलेक्टर से मांग
की गई है कि
बच्चों के मध्यान्ह
भोजन में एक दिन
के मेन्यू में
मशरूम को शामिल किया
जाए। इससे मशरूम को
बाजार मिल सकेगा।
मशरूम अनुसंधान परियोजना के प्रमुख अन्वेषक
डॉ. जी के
अवधिया का भी कहना
है कि यह
नई तकनीक काफी अच्छी
है।
No comments:
Post a Comment