महाराष्ट्र के सावंतवाड़ी केएक युवा कृषक भगवान बोवलेकर ने 25 फुट ऊंचे
वृक्ष से ४ क्विंटल बैंगन की फसल लीहै । इस प्रक्रिया में महाराष्ट्र के इस युवा कृषक
ने बैंगन के एक वृक्ष से ५०० ग्राम वजन के ८५७ बैंगन पैदा कर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड
में भी अपना नाम दर्ज करा लिया है । उनका यह अजूबा देखने इस्तांबुल, अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया,
स्वीडन, कतर औरस्पेन के कृषि वैज्ञानिक भी पहुंचे थे । भगवान का उद्देश्य केवल रिकार्ड
के लिए उत्पादन नहीं था बल्कि जैविक खेती का प्रचार करना भी था । इस वृक्ष में १७ विभिन्न
वनस्पतियों के रस भी डाले थे ।
वह शीघ्र ही इसका पेटेंट भी करा रहे हैं । वैसे सन् २००८ में
उनके द्वारा उगाए बैंगन की ऊंचाई ३५ फुट थी। उन्होंने इस संदर्भ में अखबारों में विज्ञापन छपवाए
व कई लोगों को बताया लेकिन किसी ने भी उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया । लेकिन भगवान ने
जिद नहीं छोड़ी । २ साल बाद उनके द्वारा लगाए गए बैंगन की ऊंचाई २८.५ फुट हीथी । तब उन्हें
पता चला किविश्व का सबसे ऊँचा बैंगन वृक्ष २१.१ फुट ही दर्ज हुआ है ।हाल ही देवास जिले
के नेमावर गांव में नर्मदा के किनारे मालपानी ट्रस्ट के दीपक सच देने ४०० नारियल लदा पेड़
भी प्राकृतिक खेती से खड़ा कियाथा । दो-दो एकड़ में फैले बरगद के पेड़ तो आपको कई जगह मिल
जाएंगे ।
यह सब बताने का एकमात्र उद्देश्य केवल यही है कि हमारी मिट्टी और गाय के गोबर में
इतनी ताकत है कि वे आपको मनचाहा अन्न पैदा कर के देसकते हैं । बगैर किसी भी रसायन के प्राकृतिक
खेती से रिकार्ड उत्पादन लेने वाले लाखों किसान भी हमारे यहां मिल जाएंगे । उनके इन मौन
उद्यमों को अंधेरे में रखकर तथा जनमानस में भारत की पिछड़ी खेती का भ्रम फैलाने वालों केखिलाफ
संवेदनशील नागरिकों को अब सचेत हो जाना चाहिए। बरसों पहले तीसरी दुनिया की प्रगत खेती
पर शोध करने वाले लंदन के स्कूल फॉर डेवलपमेंटल स्टडीज के तीन युवकों ने भारत के अलग-अलग प्रांतों
में प्रगत खेती करने वाले उद्यमी किसानों पर फॉरर्म्स फर्स्ट नाम की किताब लिखी थी । सैंकड़ों
उदाहरण देकर उन्होंने सिद्ध किया था कि भारत में किसान ही सबसे बड़े अनुसंधानकर्ता हैं
। ये लोग विपदाओ से लड़कर नई-नई चीजें खेतों में इजाद कर लेते हैं। उदाहरण के लिए चावल
की कुछ किस्में जो कृषि वैज्ञानिकों ने काल बाध्य कर दी थीं उन्हें किसानों ने फिर से उगाकर लोकप्रिय
बना दिया था ।
उसी प्रकार पंजाब और हरियाणा के किसानों ने गेहूं की फसल केलिए बताए गए
खरपतवारनाशक रसायनों के छिड़काव को महंगा और उबाऊ बताकर उस रसायन को रेती में मिलाकर दाने दान
खरपतवारनाशक के नाम से प्रचारित किया और वह चल पड़ा ।
उदाहरण के भोजन का हर कौर बत्तीस बार
चबाकर धीमा भोजन करो कहने वाली हमारी दादी मां का नुस्खा अब अमेरिका में प्रचलित हो चला
है। पांच हजार से ज्यादा सीमांत कृषकों द्वारा चलाया जा रहा धीमा भोजन अभियान (स्लो फूड)अब
१३० देशों मे फैल चुका है । धरती माँ की तरह वहां भी अबटैरा मैडरे अभियान प्राकृतिक खेती
की सिफारिश कर रहा है। अमेरिका में पाश्च्युराइज्ड दूध की थैलियों की जगह कच्चा दूध(रॉ
मिल्क) मांगा जाने लगा है । फर्क सिर्फ इतना ही है कि वहां इसके लिए डॉक्टर की पर्ची लगती
है । आज अमेरिका व इंग्लैंड की थालियों में परोसे जाने वालाभोजन औसतन प्रतिदिन डेढ़ से दो
हजार किलो मीटर यात्राकरके आता है । वहां किसानों की जेब में एक रूपए का केवल१९वां भाग
ही जाता है । अब वहां भी स्थानीय खाद्यान्न और सब्जियों की मांग बढ़ रही है । अमेरिका के
बड़े शहरों मेंछोटे-छोटे प्लॉट किराये पर लेकर वहां के जिम्मेदार नागरिक अपनी खुद की जैविक
सब्जी उगाने को तत्पर हैं ।
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