हाल ही में WWF(वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फ़ंड) और जूलोजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन के शोधकर्ताओं ने अपनी शोध मे कहा है की 2020 तक हमारी दुनिया से दो तिहाई वन्य जीवों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
पहाड़ों से लेकर जंगलों तक, नदियों से लेकर समुद्र तक, हाथी,गैंडे, गिद्द, ह्वेल आदि हजारों प्रजातियाँ आज खतरे में है। इस शोध के अनुसार इतने वृहद स्तर वन्य जीवों के लुप्त होने की वजह से प्रकृति का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ जाएगा और इसका अंत मानवता के अंत के साथ होगा। मानवों के प्रभुत्व वाले इस ग्रह पर हम मानवों को समझना होगा की हमारी दुनिया अब इस ग्रह पर पहले के समान छोटी नहीं रही हैं। हम मानवों की दुनिया अब इतनी बड़ी हो गयी है की अब यह ग्रह हमारे लिए छोटा हो गया है। जितना ही यह ग्रह हमारे लिए छोटा होता जा रहा है, हम उतने ही ज्यादा स्वार्थी होते जा रहे है। हमारे लिए अपनी एक अलग ही दुनिया है। इस दुनिया मे इन वन्य जीवों की कोई जगह नहीं है। अगर है भी तो हमारे स्वार्थ, हमारे मनोरंजन, हमारे लाभ के लिए है।
हालांकि मानव समाज शुरू से ऐसा नहीं था। हमारे पूर्वजों ने प्रकृति मे पाये जाने वाले प्रत्येक जीव के सहसतीत्व को सम्मान पूर्वक स्वीकारते हुए उनके साथ जीवन जीया था। वो जानते थे कि उनकी सीमाएँ क्या है और वन्य जीवों की सीमाएँ क्या है। दोनों एक दूसरे की दुनिया मे दखलंदाज़ी किए बिना प्रेमपूर्वक अपना जीवन जीते आए थे। परंतु आज मानव अपने स्वार्थ से इस ग्रह पर अपने बढ़ते हुए प्रभुत्व के कारण अपनी सीमाए लांघ रहा है। जिसकी वजह से उसके भीतर वन्य जीवों के लिए प्रेम, सम्मान और उनके सहसतीत्व का भाव समाप्त होता जा रहा है।
इसी प्रेम, सम्मान और सहसतीत्व के भाव को फिर जगाने की एक अनूठी पहल हमारे अगले परिंदे भगवान सेनापति ने असम मे अपनी कला के माध्यम से शुरू की है। भगवान सेनापति पेशे से एक हस्त शिल्पकार है जो बाम्बू, लकड़ी आदि प्रकृतिक वस्तुओं से कलाकृतियों का निर्माण करते है और उन्हे विभिन्न मेलों और प्रदर्शनियों के माध्यम से बेचते है। वो कहते है की “मैं अपनी कलाकृतियों की प्रेरणा प्रकृति से ही लेता आया हूँ। मेरा जीवन जंगलों के आस-पास, इस प्रकृति के बीच, विभिन्न पशु-पक्षियों को देखते हुए बिता है। परंतु पिछले कुछ वर्षों से मैं अनुभव कर रहा था कि हमारे आस-पास इन पशु-पक्षियों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई है। साथ मानवों और वन्य पशुओं के बीच संघर्ष भी बहुत आम हो गयी है। अक्सर हाथी और गेण्डे हमारे खेतों मे आकर हमारी फसलों को बर्बाद कर देते है। ये घटनाए जो सालों मे कभी कभार होती थी आज वो आम बात हो गयी है।”
जब उन्होने इस बात कि गहराई मे जाने कि कोशिश की तब उन्होने देखा कि हम मानवों ने अपने स्वार्थ की वजह से इनके घरों पर, इनके भोजन के साधनों पर अपना कब्जा कर लिया है। इनके जंगल दिन-ब-दिन छोटे होते जा रहे है। हम मानवों कि बस्तियाँ बढ़ती जा रही है। इस वजह से ये भोजन कि तलाश मे खेतों और गाँवों के भीतर तक आ जाते है। इसके नतीजे स्वरूप हम इन्हे अपना दुश्मन समझने लगे है। इस वजह से हमारे और इनके बीच जो प्रेम और सहसतीत्व का एक सम्मानजनक वो खत्म होने लगा है। हम इन्हे मारने लगे है। उन्हे लगा इसके लिए किसी को तो कुछ करना चाहिए। तब उन्होने एक अनूठी पहल शुरू की।
असम अपने बीहू महोत्सव के लिए पूरे विश्व प्रसिद्ध है। बीहू के दौरान ही विभिन्न कलाकार बाम्बू और चावल के भूसे से विशाल कलाकृतियों का बनाकर प्रदर्शित करते है, जिसे बेलाघर के नाम से जाना जाता है। उन्होने अपनी कला को बेलाघर से जोड़कर मानव और वन्य-पशुओं के बीच के सहसतीत्व का प्रदर्शन करना शुरू किया। वे इसे पिछले दो साल से कर रहे है। वे हर साल बीहू महोत्सव से एक महीने पहले अपनी कलाकृति को बना कर उसके साथ असम मे यात्रा करते है और लोगों को इस विषय मे जागरूक करते है। अपनी इसी मुहिम और प्रयास कि वजह से उन्हे पिछले वर्ष असम सरकार ने सम्मानित भी किया था। इस साल वे 30 फीट के गेण्डे और एक लड़की कि कलाकृति के माध्यम से अपने इस संदेश को लोगों के बीच लेके जाने वाले है।
वे कहते है कि “यह मुहिम मेरे अकेले कि नहीं है। मैं तो बस एक कलाकार हूँ, जो इन कलाकृतियों का निर्माण करता है। इस काम मे मुझे अपने गाँव के लोगों का पूरा सहयोग मिलता। इन कलाकृतियों के निर्माण का पूरा खर्चा गाँव मिलकर उठाता है। गाँव के हर घर से 50-100 रुपये का योगदान दिया जाता है। यहाँ तक बच्चे भी अपनी इस मुहिम मे बढ़-छड़कर भाग लेते है। यहीं बात हर गाँव को समझनी जरूरी है। मैं शहरों कि बात इसलिए नहीं करता हूँ क्योंकि इन वन्य-जीवों के साथ उनका कोई सीधा संपर्क नहीं है। उनके साथ संघर्ष हम लोगों को करना पड़ता है। शहर के ज़्यादातर लोगों के लिए यह जानवर सिर्फ मनोरंजन का साधन है। जिन्हें यह कभी चिड़ियाघर या इन जंगलों मे पैसे देकर देखने के लिए जाते है और अपना मनोरंजन करते है। उन्हें यहाँ इनके साथ नहीं रहना पड़ता है। वो हमारी प्रकृति से बहुत दूर हो चुके है हालांकि शांति कि तलाश मे वे भी अंत मे प्रकृति की ही शरण मे आते है। पर हम गाँव वालों का इनसे सीधा संपर्क है, और अगर हम इनका सम्मान नहीं करेंगे, इनसे प्रेम नहीं करेंगे तो संघर्ष स्वाभाविक है। चूंकि हम मनुष्य के पास कई साधन आज मौजूद है, इस वजह से हम इनसे ज्यादा ताकतवर हो गए है हमारे लिए इन्हे मारना आसान हो गया है पर यह खत्म हो गए तो शहरों को स्वार्थ के लिए इन जंगलों को खत्म करने का एक और बहाना मिल जाएगा और इसका अंत हमारे विनाश से होगा।”
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