हिमाचल प्रदेश के कामला गाँव के रहने वाले हमारे अगले परिंदे, कुलभूषण उपमन्यु पिछले 40 वर्षों से हिमाचल के पर्यावरण को बचाने का काम विभिन्न स्तरों पर कर रहे है, अपने कॉलेज के समय से ही उन्हे नौकरी शब्द पसंद नहीं था। उन्हे नौकरी गुलामी के समान लगती थी। इसलिए उन्होने स्नातक करने के बाद खेती करने का फैसला किया । उन्हे उस वक़्त सिर्फ एक यहीं पेशा नज़र आ रहा था, जिसमे उन्हें किसी भी प्रकार की व्यवस्था की गुलामी नहीं करनी पड़ती। जबकि उस वक़्त अगर कोई 12th भी कर लेता था तो उसकी सरकारी नौकरी लगनी लगभग सुनिश्चित थी।
खेती के साथ ही उन्होने एक कृषि उत्पादन को प्रसंस्कृत करने का उद्योग भी शुरू किया था और उसके साथ ही उन्होने गाँव मे एक छोटी सी परचून की दुकान भी शुरू की थी। पर व्यापार मे उनका मन नहीं रम सका क्योंकि उन्हें लगता था की झूठ बोले बिना व्यापार करना संभव नहीं है। जिस आर्थिक लाभ को कमाने के लिए व्यापार कर रहे थे उस आर्थिक लाभ पर भी उनके मन में कई सवाल थे। उन्हे लग रहा था की व्यापार भी एक तरह से आधुनिक व्यवस्था की गुलामी है। जल्द ही उन्होने अपना व्यापार बंद कर दिया। उसी वक़्त उन्हें लग रहा था की उन्हें गाँव के लिए कुछ करना चाहिए।
तब उन्होने 1973 में गाँव के लोगों के साथ मिलकर ग्राम उत्थान सभा का निर्माण किया। इसके माध्यम से वे गाँव की छोटी-छोटी समस्याओं को गाँव के ही स्तर पर सामूहिक तौर पर हल करने लगे। उनका इरादा था की गाँव की समस्याओं के लिए उन्हें बार-बार किसी सरकारी विभाग के सामने हाथ फैलाने के बजाय गाँव के स्तर पर ही हलकर लिया जाए तो गाँव आत्मनिर्भर हो सकते है। उनके इन प्रयासों से गाँव मे एक समुदाय की भावना पनपने लगी। उन्होने इसके बाद इसी तरह के सफल प्रयोग आस-पास के 10-12 गांवो मे और किए। इन सभाओं के माध्यम से एक जो मुख्य काम किया, वो यह था की उन्होने छुआछूत को उन गांवों से जड़ से उखाड़ दिया और कुटीर उद्योगों के माध्यम से गाँव की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का प्रयास करते रहें। कुछ समय बाद उन्हे लगने लगा की जिन समस्याओं पर वे काम कर रहें वे वे मुद्दे बेहद बड़े है। वे उन पर कार्य करने के लिए पर्याप्त ताकत नहीं जूटा पा रहे थे। तब वे सोचने लगें की उन्हे शायद किसी एक मुद्दे को पकड़कर अपनी पूरी ताकत उसमे लगा देनी चाहिए। जिससे वे एकाग्र होकर कार्य कर पाएंगे। उसी वक़्त उन्होने सुंदर लाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन पर एक लेख पड़ा था। उसे पड़ने के बाद उन्हे लगा की हिमाचल और हिमालय के पर्यावरण को बचाने के लिए यह काम वो काम है जिसके लिए वे अपना जीवन समर्पित कर सकते है। क्योंकि जंगल बचाने की उनकी जो अवधारणा थी वो गाँव को बचाने के लिए भी जरूरी थी। जंगलों से गाँव की कई सारी जरूरतें पूरी होती थी। तब उन्होने सुंदर लाल जी से समपर्क किया। 1981 में चिपको आंदोलन के साथ उन्होने पूरे हिमाचल और उत्तराखंड के कुछ इलाकों में पदयात्रा की। गाँव-गाँव जाकर उन्होने जंगल को बचाने की मुहिम मे अग्रिम पंक्ति मे खड़े होकर लड़ाई लड़ी। उस वक़्त हिमाचल मे सरकार वहाँ के प्रकृतिक जंगलों को काटकर चीड़ और सफेदा(युकलिप्टिस) के पेड़ लगा रही थी। यह पेड़ वहाँ के लोगों और जंगली जीवों के हित मे नहीं थे। इससे वहाँ की जैव-विविधता और पारिस्थितिक तंत्र खतरे मे पड़ गया था।
इसके बावजूद सरकार इनसे आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए धड़ल्ले से इन्हे लगा रही थी। जिसकी वजह किसानो को जंगल से मिलने वाला चारा समाप्त हो गया था। तब उन्होने एक नारा दिया “चीड़, सफेदा बंद करो, चारे का प्रबंध करो।” इसी नारे के साथ उन्होने कई तरह के जुलूस, धरनों के माध्यम से व्यापक स्तर सरकार के साथ लड़ाई का आगाज किया। इस लड़ाई के दौरान उन्हें 2 महीनों तक जेल मे भी रहना पड़ा। उनके इलाके मे इस आंदोलन की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है की आज 30 वर्षों के बाद भी यह नारा लोगों की जुबान पर मौजूद है। उनके प्रयासों के चलते आज पूरे हिमाचल मे सफ़ेदा लगाने पर पाबंदी है और चीड़ भी आबादी क्षेत्रों के आस पास लगाने की पाबंदी है। उसके बाद उन्होने जंगल बचाने की अपनी इस मुहिम को आगे ले जाते हुए हिमाचल के कई संघठनों को मिलाकर नवरंचना नाम का एक मंच तैयार किया। जिसके माध्यम से वे सरकार की गलत नीतियों का विरोध करते है और नयी नीतियाँ बनाने मे उनकी मदद करते है। माना जाता है की हिमाचल प्रदेश की जो वन नीति है वो बेहद जटिल है जिसकी वजह से वहाँ जंगल काटना बेहद मुश्किल है। यह उपमन्यु जी के ही प्रयासों का नतीजा है की सरकार को यह वन नीति हिमाचल में लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
उपमन्यु जी कहते है की इतना कुछ करने के बावजूद सरकार कोई न कोई रास्ता निकालकर जंगलों को काटने का प्रयास करती रहती है। इसी वजह से 40 वर्षों से हमारी यह लड़ाई बदस्तूर जारी है। अब इसमे पानी, हवा, विकास जैसे कई और मुद्दे शामिल हो गए है। अब हम सरकार पर एक हिमालय नीति बनाने का दबाव बना रहे है। भले ही हम यह काम हिमाचल को बचाने के लिए कर रहे है पर यह समझना होगा की आधे भारत का मौसम और पारिस्थितिक तंत्र हिमालय पर निर्भर है। अगर वो बर्बाद हो गया तो देश को बर्बाद होने में समय नहीं लगेगा। वो कहते है की हिमालय देश के लिए फेफड़े का काम करता है। अगर यह खराब हो गए तो देश साँस नहीं ले पाएगा।
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