देश के प्रख्यात
शोध कृषक व
शून्य लागत खेती
के जनक सुभाष
पालेकर ने कहा
कि जैविक व
रसायनिक खेती प्राकृतिक
संसाधनों के लिए
खतरा है। इनसे
अधिक लागत पर
जहरीला अनाज पैदा
होता है। जिसे
खाकर मानव बीमार
और धरती बंजर
हो रही है।
जीव, जमीन, पानी
और पर्यावरण को
बचाने तथा सुस्वास्थ्य
के लिए एक
मात्र उपाय है
कि शून्य लागत
प्राकृतिक खेती की
जाये।
इसके लिए
तीस एकड़ पर
सिर्फ एक गाय
पालने की जरूरत
है। एक गाय
से ही शून्य
लागत पर प्राकृतिक
खेती करके प्रत्येक
किसान हजारों की
बचत के साथ
देश व समाज
की भलाई भी
कर सकता है।
शोध कृषक श्री
पालेकर जी कहा
कि जैविक व
रसायनिक खेती के
चलन से औसत
उपज स्थिर हो
रही है। जहरीला
अनाज पैदा हो
रहा है। इसकी
वजह से बीमारियां
भी बढ़ रही
है। परंपरागत खेती
किसानों के लिए
घाटा साबित हो
रही है। नतीजतन
उनका खेती से
मोहभंग हो रहा
है। वे शहर
की ओर पलायन
को मजबूर है।
किसान आत्महत्या को
भी मजबूर है।
ऐसे में शून्य
लागत प्राकृतिक खेती
उनके जीवन को
बदल रही है।
उन्होंने बताया कि गाय
के एक ग्राम
गोबर में असंख्य
सूक्ष्म जीव है।
जो फसल के
लिए जरूरी 16 तत्वों
की पूर्ति करते
हैं।
इस विधि
में फसलों को
भोजन देने के
बजाय भोजन बनाने
वाले सूक्ष्म जीवों
की संख्या बढ़ा
दी जाती है।
इससे 90 फीसदी पानी और
खाद की बचत
होती है। देश
में अब सिर्फ
42 करोड़ एकड़ जमीन
बची है। यदि
सरकार ने कृषि
के लिए इस
जमीन को सुरक्षित
नहीं रखा तो
भविष्य में देश
को भयानक खाद्यान्न
संकट से जूझना
पड़ेगा। विदेशों में भी
प्रिय है पालेकर
का प्रयोग अमरावती
महाराष्ट्र निवासी सुभाष पालेकर
ने वर्ष 1988 से
1995 तक शून्य लागत खेती
पर प्रयोग किया।
इसके बाद अन्य
प्रांतों के किसानों
के साथ भी
इसे साझा किया
गया। चौंकाने वाले
परिणाम आने पर
पालेकर ने शून्य
लागत प्राकृतिक खेती
को जनांदोलन बनाने
का निश्चय कर
लिया। पालेकर बताते
है कि सोशल
मीडिया व वेबसाइट
डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डाट पालेकरजीरोबजट्सस्प्रिचुअलफार्मि
ग डाट ओआरजी
से जानकारी जुटाकर
विदेशों में प्रयोग
शुरू कर दिया
गया।
उन्होंने बताया
कि अमेरिका, अफ्रीका
समेत आधा दर्जन
देशों में प्राकृतिक
खेती लोक प्रिय
हो रही है।
सरकार से नहीं
मिला संबल पालेकर
को इस बात
का मलाल है
कि विदेशों ने
जिस तकनीक को
अपने यहां फार्मिग
का हिस्सा बना
लिया, उसे अपने
देश की सरकार
से अपेक्षित प्रोत्साहन
नहीं मिल रहा।
उन्होंने बताया कि अब
तक वह देश
में भ्रमण करके
40 लाख किसानों को शून्य
लागत प्राकृतिक खेती
से जोड़ चुके
हैं। सूखे को
मात देने में
सक्षम तकनीक शोध
कृषक सुभाष पालेकर
ने दावा किया
कि सूखे को
मात देने में
शून्य लागत प्राकृतिक
खेती कारगर है।
दरअसल इस विधि
में अपेक्षाकृत मात्र
दस फीसद पानी
की जरूरत पड़ती
है। कीट रोगों
का भय एकदम
समाप्त हो जाता
है।
ड्योढा उत्पादन,
दूनी कीमत पालेकर
जी ने दावा
किया कि शून्य
लागत प्राकृतिक खेती
से जैविक व
रसायनिक ख्ेती के सापेक्ष
ड्योढी पैदावार होती है।
बाजार में खाद्यान्न
का मूल्य दो
गुना से अधिक
मिलता है। शून्य
लागत खेती पर
एक नजर -मुख्य
फसल का लागत
मूल्य, साथ में
उत्पादित सह फसलों
को विक्रय मूल्य
से निकाल कर
लागत को शून्य
करना तथा मुख्य
फसल को बोनस
के रूप में
लेना। - खेती के
लिए कोई भी
संसाधन (खाद, बीज,
कीटनाशक आदि) बाजार
से न लाकर
इसका निर्माण घर
पर ही करने
से लागत शून्य
हो जाती और
गांव का पैसा
गांव में रहता
है। शून्य लागत
खेती के चरण
1. बीजामृत (बीजशोधन) रू 5 किलो
देशी गाय का
गोबर, 5 लीटर गोमूत्र,
50 ग्राम चूना, एक मुट्ठी
पीपल के नीचे
अथवा मेड़ की
मिट्टी, 20 लीटर पानी
में मिलाकर चौबीस
घंटे रखे। दिन
में दो बार
लकड़ी से हिलाकर
बीजामृत तैयार किया जाता।
100 किलो बीज का
उपचार करके बुवाई
की जाती है।
इससे डीएपी, एनपीके
समेत सूक्ष्म पोषक
तत्वों की पूर्ति
होती है और
कीटरोग की संभावना
नगण्य हो जाती
है। 2. जीवामृत रूइसे सूक्ष्म
जीवाणुओं का महासागर
कहा गया है।
5 से 10 लीटर गोमूत्र,
10 किलो देशी गाय
का गोबर, 1 से
दो किलो गुड़,
1 से दो किलो
दलहन आटा, एक
मुट्ठी जीवाणुयुक्त मिट्टी, 200 लीटर
पानी। सभी को
एक में मिलाकर
ड्रम में जूट
की बोरी से
ढके। दो दिन
बाद जीवामृत को
टपक सिंचाई के
साथ प्रयोग करे।
जीवामृत का स्प्रे
भी किया जा
सकता है। घन
जीवनामृत - 100 किलो गोबर,
एक किलो गुड़,
एक किलो दलहन
आटा, 100 ग्राम जीवाणुयुक्त मिट्टी
को पांच लीटर
गोमूत्र में मिलाकर
पेस्ट बनाए। दो
दिन छाया में
सुखाकर बारीक करके बोरी
में भर ले।
एक एकड़ में
एक कुंतल की
दर से बुवाई
करें। इससे पैदावार
दो गुनी तक
बढ जाएगी।
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