मल्हार इंदुलकर को बचपन से नदी और नदी मे रहने वाले प्राणी अपनी ओर आकर्षित करते थे। उनका घर भी वशीस्टी नदी के किनारे पर ही था। जेसे ही वे स्कूल से लौटते थे, वे अपने दोस्तों के साथ नदी पर नहाने और मछ्ली पकड़ने के लिए चले जाते थे। पर उन्होने कभी सोचा नहीं था कि वो इसके लिए काम करेंगे। उन्होने भी आम बच्चों कि तरह अपनी स्कूली शिक्षा ली। दसवीं तक उन्हे पता नहीं था कि उन्हे क्या करना है । इसीलिए किसी के कहने पर उन्होने कॉमर्स मे अपनी बारहवीं पूरी करी। पर वे इस पढ़ाई से खुश नहीं थे। जो उनके सामने आ रहा था, और जो कोई कह रहा था वो वही करते जा रहे थे।
बारहवीं के बाद उन्हे उदयपुर स्थित स्वराज यूनिवरसिटी के बारे मे पता चला। जब उन्होने इसके बारे मे थोड़ी और जानकारी हासिल की तो उन्हें लगा कि इसके माध्यम से वे खुद अपने जीवन को एक दिशा दे सकते हैं और खोज सकते हैं कि उन्हें क्या करना है। क्योंकि यहाँ पर उन्हें ही तय करना था कि उन्हे क्या पढ़ना है और क्यों पढ़ना। यहाँ उन्हें उनके ऊपर एक्जाम का कोई दबाव नहीं था। यहाँ उन्हे गलतियाँ करने कि आज़ादी थी और उनसे सीखने का मौका मिला रहा था। तब उन्होने तय कर लिया कि वे इस प्रोग्राम मे शामिल होंगे और पारंपरिक शिक्षा से ब्रेक लेकर सोचेंगे कि उन्हे क्या करना है और किस विषय मे डिग्री लेनी है। इस ब्रेक के दौरान ही उन्हे समझ आया कि उन्हे प्रकृति के साथ मिलकर अपना जीवन जीना है और नदी तथा उन पर निर्भर प्राणियों के साथ काम करना है। इसके लिए उन्होने अपने घर के पास ही मछुआरो के साथ रहते हुए उनकी जीवन शैली को समझा। उन्होने जाना कि नदी को लेकर उन लोगों कि क्या सोच है। पिछले कुछ वक़्त मे नदी के अंदर क्या बदलाव आए है, और किस वजह से आए है। नदी के अंदर कौन-कौन से प्राणी रहते है, कहाँ रहते है। उन्हे कैसे पहचाना जाता है।
हमारी कौन सी आदतें उनके लिए फायदेमंद है और कौन सी आदतें उनके लिए नुकसान दायक है। यही सब सीखते हुए उन्हे पता चला कि पिछले 20 सालों के दौरान नदी से 90% मछलियों कि प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी है। उसका मुख्य कारण इंडस्ट्रीज द्वारा छोड़ा गया केमिकल युक्त गंदा पानी है। वो बताते है कि जब उन्होने एक बुजुर्ग से इस बारे मे पूछा तो उन्होने बताया कि 20 साल पहले जब पहली बार नदी मे गंदा पानी छोड़ा गया था तब अगले दिन हजारों मछलिया नदी मे मरी हुई पायी गयी थी। और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। वे आगे कहते है कि इसका असर सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है । मछलियों के कम होने कि वजह से कई और जलीय जीवों कि संख्या मे भी बहुत तेज़ी से कमी आई है इनमें से ही एक ओट्टर है जिसे यहाँ कि स्थानीय भाषा मे उंध बोला जाता है। इसके बारे मुझे पहली बार करीब ढाई साल पहले पता पड़ा था जब मुझे स्वराज यूनिवरसिटी के माध्यम से कावेरी नदी मे इनके संरक्षण के ऊपर काम करने का मौका मिला था। जब मैं यह काम कर रहा था तब मुझे पता चला कि नदी कि सेहत के लिए इनका संरक्षण करना बेहद आवश्यक है क्योंकि यह नदी कि सारी बीमार मछलियों को खा लेते है जिसकी वजह से वह बीमारी दूसरी मछलियों को नहीं लगती है और यह उन्हे बचा लेते है। जब मैं यह काम कर रहा था तब ही मुझे लगा कि यह काम मुझे अपने घर के पास वाशिष्टि नदी मे भी करना चाहिए। क्योंकि मेरे देखते-देखते ओट्टर कि संख्या में तेज़ से कमी आई है। जहा कभी ये रोज़ दिखा करते थे वहीँ आज ये महीने भर मुश्किल से एक बार दिखा करते है। इसकी वजह से मछलियों के मरने मे भी तेज़ी आई है। इसका असर सिर्फ नदी और मछलियों पर ही नहीं पड़ रहा है बल्कि मछुआरों पर भी इसका सीधा असर पड़ रहा है ।
मछलियों के लुप्त होने कि वजह से उनकी आय मे बेतहाशा कमी आई है जिसकी वजह से वे शहरों कि तरफ माइग्रेट हो रहे है और गंदी बस्तियों मे रहने को मजबूर हो रहे है। आज हालत यह है कि नदी के आस-पास के गांवों मे 90% प्रतिशत घर खाली पड़े है और जिन घरों मे लोग रह रहे है उनमे भी अधिकतर बुजुर्ग लोग ही रह रहे है। और इस वजह से नदी अपने अंत कि तरफ बढ़ रही है क्योंकि प्रकृति मे हर कोई एक दूसरे पर निर्भर है। एक भी प्राणी के लुप्त होने का असर सब पर पड़ता है। इसलिए ओट्टर पर काम करना मतलब पूरी नदी और इससे जुड़े हुए हर जीव पर काम करना है। और यही समय कि मांग भी है कि हम सब अपने आस-पास के पर्यावरण को समझे और उसके बारे मे सीखे। यह तभी संभव है जब कमरों से बाहर निकलकर प्रकृति कि गोद मे शरण ले और उसके साथ मिलकर जीयें। इसके लिए किसी डिग्री कि जरूरत नहीं है। जरूरत है तो बस इच्छा शक्ति की।
अपने अंदर प्रेम का भाव जगाने की। आंखे खोलकर देखने की। खुद से और लोगों से सवाल करने की। पर विडम्बना यह है की जीवन के सबसे आवश्यक शिक्षा स्कूल-कॉलेज मे कभी दी ही नहीं जाती है। वहाँ तो बस हमे पैसे कमाने और उपभोग करने की मशीन बनाया जाता है। इसीलिए मैंने तय कर लिया है की मुझे सीखने और काम करने के लिए किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं है। जितना ज्यादा मे काम करूंगा, जितना ज्यादा मैं लोगों और प्रकृति के बीच रहूँगा उतना ही ज्यादा अनुभव प्राप्त करूंगा और उतना ही ज्यादा सीखता जाऊंगा।
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