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Monday, 27 March 2017

शहर के थकान भरे अस्त-व्यस्त जीवन को छोड़ इस परिवार ने केरल में रखी प्रदूषण मुक्त गाँव की नींव!

ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के बढ़ते कहर के बारे में जहाँ एक तरफ हम सिर्फ चिंता कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओरकेरल के कुछ परिवार जुटे हैं एक जैविक गाँव बनाने में। मोहन चावड़ा के मार्गदर्शन में बन रहा यह गाँव एकप्रेरणा हैं आने वाली पीढ़ियों को एक खूबसूरत दुनिया सौंपने का और बेहतर भारत बनाने का।

भरतपुजा नदी का खूबसूरत किनारा, घने हरे-भरे पेड़ों की छाया और उनके बीच एक स्व-निर्मित ट्री-हाऊस।अंदर मोहन चावड़ा और उनका परिवार अपने जैविक बगीचे की ताजा उपज से भोजन पका रहा है।


मोहन चावड़ा का परिवार केरल के पालक्काड़ जिले में उभरते इस जैविक गाँव का पहला निवासी हैं। चावड़ा द्वाराही अवधारित और स्थापित यह गाँव ढाई एकड़ के प्राकृतिक ग्रामीण क्षेत्र के बीच में और मन्नंनूर रेलवे स्टेशन सेकुछ ही दूरी पर बसा हुआ है।
पढ़िए वह कहानी कि कैसे मोहन चावड़ा, एक प्रतिभाशाली मूर्तिकार, बना रहे हैं एक अनोखा जैविक गाँव जो आधारित है स्थिरता, साधारण जीवन और प्राकृतिक सामंजस्य जैसे मूल्यों पर।

चावड़ा और उनकी पत्नी रुक्मिणी (एक नर्सिंग कॉलेज की पूर्व प्रधानाध्यापिका) ने बहुत समय से एक सपनासंजोया था — ऐसे लोगों का समुदाय बनाने का, जो समर्पित हो पर्यावरण-अनुकूलित और हरित जीवन जीने केलिए। 2013 में उन्होंने अपनी ही तरह सोचने वाले 14 परिवारों से अपने लिए एक स्व-निर्वाहित जैविक गाँव बनानेकी बात की। वे सब प्रदूषण, संसाधित खाद्य पदार्थ और शहर की अव्यवस्थाओं को छोड़कर प्रकृति की गोद मेंएक नया और स्वस्थ जीवन जीना शुरू करना चाहते हैं।


जब उन्हे भरतपुजा नदी के किनारे की खूबसूरत ढाई एकड़ जमीन का पता लगा, उन्हें वह जगह जैविक गाँवबनाने के लिए सबसे बढ़िया लगी । अपनी पूँजी इकट्ठी कर उन्होंने वो जमीन खरीद ली, जहाँ पहले एक रबड़बागान हुआ करता था।

उनके ग्रुप ने शुरूआत उन रबड़ के पेड़ों को काटने और हटाने से की जो मिट्टी के लिए हानिकारक थे। फिरफलदार पेड़ और सब्जी के बगीचे लगाने से पहले उन्होने अपने ही हाथों से अपना एक ट्री-हाऊस बनाया।
2015 में मोहन, रुक्मिणी और उनकी दो बेटियां — 18 वर्षीय सूर्या और 11 वर्षीय स्रेया इस उभरते गाँव में रहने आ गए, ऐसा करने वाले वे पहले थे।


इस जैविक गाँव का प्रारूप साझेदारी और एकजुटता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इसकीशुरुआत से ही यहां प्रशंसकों का आना जाना लगा रहा है, इसलिए चावड़ा परिवार और बाकी सभी परिवारों ने मिलकर एक गेस्ट हाउस और एक बड़ा सामुदायिक किचन (रसोईघर) बनाना तय किया, जहाँ सब मिलकर पका औरखा सके। इन परिवारों ने कलाकारों, कार्यकर्ताओं और पड़ोसी गांवों के लोगों को भी गाँव में आयोजित होने वालेसाप्ताहिक कला सम्मेलनों में आमंत्रित करने की योजना बनाई है।

हाल ही में, चावड़ा परिवार ने छत डालने के लिए थोड़ी बाहरी मदद लेकर, अपने लिए एक साधारण सा कच्चामकान बनाना शुरू किया। फल, सब्जियाँ और दालें लगाने के अलावा चावड़ा परिवार गाय, बकरियाँ और मुर्गीपालन भी करता हैं।
गाँव में आने वाले हर मेहमान का स्वागत रुक्मिणी द्वारा जैविक बगीचे कीताजा पैदावार से बनाए स्वादिष्ट खाने से होता है। शाम का खाना अक्सरस्थानीय सुरीले गीतों और उत्साहपूर्ण कला चर्चा के साथ होता है।


चावड़ा परिवार का मानना है कि प्रेम, मानवता और दया जैसी भावनाओं के बारे में हम नियमित स्कूलों के बजाय प्रकृति के बीच रहकर ज्यादा सीख सकते हैं। यही कारण है कि स्रेया और सूर्या स्कूल छोड़कर यह प्राकृतिकजीवन जी रही है। हालाँकि सूर्या अपनी क्लास की टाॅपर थी जब उसने आठवीं में स्कूल छोड़ा, लेकिन वह इसवैकल्पिक और अनौपचारिक शैक्षिक पद्धति के साथ ज्यादा सहज और खुश हैं ।

दूसरी तरफ स्रेया डिस्लेक्सिया से ग्रसित है। उसके शिक्षक हमेशा उसकी क्षमताओं को समझने और उनके साथकाम करने में असमर्थ रहे, लेकिन इस जैविक गाँव ने उसके सामने इतनी राहें खोल दी है कि वह धीरे-धीरेविकसित हो रही है। 
दोनों ही बहनों को प्रकृति को निहारना, काम करते हुए पक्षियों का कलरवसुनना और ट्री-हाऊस में रहकर ताजा हवा का आनंद लेना बहुत पसंद है।


सूर्या और स्रेया लगातार घूमती भी रहती है ताकि अपने प्रदेश की सांस्कृतिक और सामाजिक विभिन्नता के बारे मेंजान सके। 2013 में उन्होंने अरनमूल तक एक बाल-रैली का नेतृत्व किया था और प्रतीक स्वरूप धान के पौधेलगाकर एक प्रोजेक्ट, जिससे उस इलाके की जैव-विविधता को नुकसान पहुंचता, के प्रति जागरूकता फैलायी थी।

अपने पिता से सीखकर सूर्या और स्रेया मूर्तियाँ बनाने और दूसरी कलाओं में भी काफी कुशल हो गई है। अपनीसृजनात्मकता को माता – पिता द्वारा हौसला बढ़ाने के चलते, दोनों बहनों ने अपने कच्चे मिट्टी के मकान की दीवारेंमूर्तियों और तस्वीरों से सजा दी हैं। शहर की भागमभाग से दूर एक शांत जगह बसाकर, मोहन चावड़ा ने अपनेप्रयासों से गाँव को पारंपरिक वन्य-जीवन और कलात्मक रचना का आकर्षक मिश्रण बना दिया है।

अपने बच्चों पर इस साधारण जीवनशैली का सकारात्मक प्रभाव देखकर चावड़ा और बाकी परिवारों ने खुद कीशिक्षा प्रणाली (जिसमे कला और शिल्प वर्कशॉप, बागबानी, आदि भी सम्मिलित होंगी) जिससे कि बच्चे साथमिलकर रहने के लिए प्रोत्साहित हो न कि एक दूसरे से मुकाबला करने के लिए।


अपनी इस साहस, स्थिरता और प्रेम की कहानी से चावड़ा परिवार ने जैविक जीवनशैली का एक अनोखा उदाहरणपेश किया है जो कि वाकई में पूरे भारत में कई लोगों को अपनी जड़ों की तरफ लौटने की प्रेरणा देगा।

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