भास्कर सावे जी(27 जनवरी 1922-24अक्टूबर 2015) एक शिक्षक, उद्यमी, किसान भी थे। जिन्हें विश्व में गांधी जी की प्राकृतिक खेती के रूप में जाना जाता है। भास्कर सावे जी का जन्म भारत के अरबसागर पर एक तटीय गांव डेहरी में हुआ और इनका परिवार खेत निविदाओं से संबंध रखता है। इनके प्रारंभिक कुछ वर्ष गुजरात राज्य के वलसाड जिले के गांव डेहरी में बीते जहां अब तक आधुनिक सुविधाएं यानि बिजली तक भी उपलब्ध नहीं हो पाई है।
बचपन से ही भास्कर सावे जी ने सहयोग के मूल्य को सीखा। अन्य स्थानीय किसानों की तरह सावे जी का
परिवार भी मुख्य रूप से चावल, दाल, और कुछ सब्जियों की खेती करता था। अक्सर वे अपने पिता जी के साथ
बैलगाड़ी के माध्यम से पड़ोसी क्षेत्रों के जंगलों के दौरे पर जाया करते थे। उन्होंने केवल सातवीं कक्षा तक शिक्षा
ग्रहण की थी। भास्कर जी का मूल व्यवसाय खेती रहा लेकिन सन् 1948 में प्राथमिक शिक्षक के पद पर कार्यरत
होते हुए भी उन्होंने खेती करना ज़ारी रखा। 2 फरवरी 1951 में भास्कर सावे जी का विवाह मालतीबेन से हुआ,
जिन्होंने इनका हर राह पर पूरा सहयोग दिया।
भास्कर जी ने 25 एकड़ की भूमि पर फार्म बनाया हुआ था, जिसका नाम उन्होंने ‘कल्पवृक्ष फार्म’ रखा। सन् 1960 से पहले सावे जी इस 25 एकड़ भूमि के ऊपर आधुनिक कृषि-पद्धति से खेती करते थे। उन्होंने आधुनिक कृषि कार्य-पद्धति के दौरान सरकार की खेती प्रणाली के आधार पर रसायनों का उपयोग किया और उत्पादन को बढ़ाया तथा उत्पादन के साथ-साथ खूब पैसा भी कमाया। इन्हें गुजरात के फर्टिलाइज़र कार्पोरेशन द्वारा एक कैमिकल फर्टीलाइज़र एजेन्सी के रसायनों की मार्केटिंग करने का कान्ट्रैक्ट मिला रसायनों को बेचने के साथ-साथ वे किसानों को रसायनों के इस्तेमाल के बारे में भी समझाते थे। पुणे और दूर-दराज के क्षेत्रों से कई कृषि वैज्ञानिक उनके कल्पवृक्ष फार्म के दौरे के लिए आये और जल्द ही इन्हें एक ‘माॅडल किसान’ के नाम से जाना जाने लगा। मगर सन् 1957 की साल में आधुनिक कृषि-पद्धति से इन्हें भारी नुकसान हुआ और अगले तीन सालों में सावे जी को धीरे-धीरे आधुनिक कृषि के सारे बुरे पहलू समझ में आ गए। उन्होंने जाना कि ‘खेती में नुकसान आने का कारण कम मेहनत या कमजोर ज़मीन नहीं थी, बुल्कि आधुनिक कृषि का मायाजाल और उसकी कार्य-पद्धति थी।’
सावे जी का कहना था कि आधुनिक कृषि कार्य-पद्धति मूल उद्ेदश्य केवल उत्पादन को बढ़ाना था। सावे जी का कहना था कि रसायनिक खेती करने से उत्पादन भी बढ़ा और उन्होंने खूब पैसा भी कमाया। लेकिन उनका कहना था कि ये पैसा उनके पास नहीं रहा, क्योंकि रसायनों का प्रयोग करके उत्पादन को तो बढ़ाया जा सकता है किन्तु जब आप वास्तव में मुनाफा आंकोगे तो वह बहुत कम होगा। आधुनिक कृषि कार्य-पद्धति में, ट्रैक्टरों से होने वाली गहरी जुताई रासायनिक खाद, जहरिली दवाईयों का छिड़काव, ज्यादा सिंचाई और बराबर होने वाली निराई से जमीन की रचना और उपजाव शक्ति कम हो जाती है। सावे जी को कृषि का सच्चा ज्ञान, कुदरत के चक्र को देखकर और आध्यात्मिक ‘जियो और जीने दो’ की बातें समझने के बाद आया। सेवा जी ने देखा कि पहाड़ के ऊपर ही जंगल का विकास होता है और पेड़-पौधों की जड़ें लम्बी होती हैं और गहराई तक जाती हैं। जुताई, खाद, पानी, दवा और निराई बिना भी जंगल के पेड़-पौधे, हर साल एक समान उत्पादन देते हैं। इस बात का सिर्फ एक ही कारण है कि जंगल में मानव का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। फिर उन्हें एक बार गांधी जी के उन पांच सिद्धांतों को पढ़ने का मौका मिला और वे थे:
1. इस दुनिया में जितने भी प्राणी हैं कोई किसी का दुश्मन नहीं है अपितु सभी एक दूसरे के मित्र हैं। इसलिए कृषि में किसी भी जन्तुनाशक का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
2. जो कुछ भी धरती पर उगता है वह बेकार नहीं है।
3. गांधी जी का कहना था कि खेती धंधा नहीं है, धर्म है।
4. गांधी जी कहते थे कि प्रकृति सृजन है और इस प्रकृति के फल और बीज पर ही हमारा अधिकार है।
5. उनका एक सिद्धांत यह भी था कि ज़मीन एक ज़िंदा पदार्थ है।
इन सब सिद्धांतों को पढ़ने के बाद सावे जी ने सन् 1960 में कुदरत की मदद लेते हुए एक छोटा सा प्रयोग किया। उस प्रयोग में सावेजी के खेतों का उत्पादन घटकर 50 प्रतिशत हो गया, फिर भी उन्हें काफी मुनाफा हुआ। रसायनों से भरपूर आधुनिक कृषि में सावे जी को जहां 100 रूपये की कमाई के लिए 80 रूपये का खर्च करना पड़ता था और जिसका मुनाफा 20 रूपये मिलता था। वहीं इस नये प्रयोग में कमाई 50 रूपये की हुई और सावे जी ने इस प्रयोग में पानी सिंचन के अलावा कुछ नहीं किया इसलिए खर्च 20 रूपये ही हुआ,इस प्रकार सावे जी को इस प्रयोग से अधिक मुनाफा हुआ। सिर्फ इतना ही नहीं सावे जी को बिना ज़हर की निरोगी उपज भी मिली। यह प्रयोग करने के बाद एक अनपढ़ मनुष्य भी समझ जाएगा कि उसे ज्यादा उपज जरूरी है या शुद्ध उपज ज़रूरी है? साथ ही साथ मुनाफा ज़रूरी है या फिर ज्यादा खर्च करके बेवकुफ बनानेवाला सिर्फ उत्पादन चाहिए? जब आधुनिक कृषि का मायाजाल और अधिक उत्पादन का भ्रम टूटा तब बिना खर्च और आधुनिक कृषि से भी ज्यादा और शुाद्ध उत्पादन की खोज और प्रयोग करने के कामों में सावे जी जुट गये।
सावे जी ने संशोधन, निरीक्षण, कुदरत के वैज्ञानिक चक्र, जीवों की मदद, सेन्द्रिय खाद और खुद की कार्य-पद्धति को जोड़कर भारी सफलता हासिल की। ‘श्री सावे जी की कृषि-पद्धति’ का अनुभव और ज्ञान आज खेती काम के लिए एक वरदान है, क्योंकि जैविक कृषि की कार्यकर्ता होने के साथ-साथ एक स्वः भास्कर सावे उपज में शरीर को लगने वाले सारे पोषक तत्व मौजुद हैं। उससे ही निरोगी जीवन मिलता है, पर्यावरण की रक्षा होती है और सबसे बड़ा फायदा, जिसे लोग अनपढ़ कहते हैं वे किसान भी कम पानी, कम लागत और कृषि के ज्ञान बिना भी शुद्ध और अधिक उपज के साथ भारी मुनाफा कमा सकते हैं।
सन् 1997 में भारत की स्वतंत्रता के 50 साल मनाने के लिए जापान के मासानोबू फुकुओका जिन्हें ‘फाॅदर आॅफ पर्माकल्चर’ के नाम से जाना जाता है, को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। उसी दौरान मासानोबू जी ने सावे जी के कल्पवृ़क्ष फार्म का दौरा भी किया और उन्हें प्राकृतिक खेती की अवधारणा और अभ्यास के लिए नीजी तौर पर सम्मानित किया। सावे जी को यह सफलता कई सालों के प्रयोग और अनुभव के बाद मिली, इसलिए सावे जी बार-बार ये दोहराते थे कि ‘मेरे खेत ही मेरे लिए स्कूल, काॅलेज, और विद्यापीठ है। जहाँ मुझे काम करने से सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ कि‘‘कुछ न कुछ कीजिए और जैविक कृषि के द्वारा खूब कमाईए।’’
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