क्या आप राइड फॉर जेंडर फ्रीडम वाले सिंह साहब को जानते हैं? नहीं जानते? लेकिन, ये तो आपके शहर से भी गुज़रे थे, आपने ध्यान नहीं दिया होगा। खैर कोई नहीं, योर स्टोरी मिलवाता है आपको एक ऐसे शख़्स से, जो बेहद अनोखे तरह से लड़ रहे हैं जेंडर फ्रीडम की लड़ाई। "न हो कुछ सिर्फ सपना हो तो भी हो सकती है शुरुआत, ये शुरुआत ही तो है कि यहाँ एक सपना है..." -सुरजीत पातर
सुरजीत पातर की ये पंक्तियां राकेश कुमार सिंह पर इकदम फिट बैठती हैं और ये पंक्तियां ही इनका फेसबुक स्टेटस भी हैं। यह सच है, कि शुरुआत सपनों से ही होती है। सपने नहीं होंगे तो नजाने कितनी शुरूआतें दम तोड़ती नज़र आयेंगी। ऐसी ही किसी शुरूआत का सपना राकेश कुमार सिंह ने तीन साल पहले देखा था, जिसे नाम दिया 'राईड फॉर जेंडर फ्रीडम'। राकेश की ये लड़ाई जेंडर बेस्ड वॉएलेंस यानी कि उस हिंसा के खिलाफ है जिसे हम लिंग भेद कहते हैं और यह आज़ादी सिर्फ स्त्री या सिर्फ पुरुष के लिए नहीं है, बल्कि उस तीसरे जेंडर के लिए भी है, जिसे अंग्रेजी में ट्रांसजेंडर कहा जाता है। हालांकि अधिकतर वजहें महिलाओं से जुड़ी हुई हैं।
राकेश बिहार के रहने वाले हैं और 15 मार्च 2014 से एक शहर से दूसरे शहर एक राज्य से दूसरे राज्य अपनी साइकिल से यात्रा कर रहे हैं। अब तक राकेश 11 राज्यों को कवर करते हुए 17900 किमी की यात्रा कर चुके हैं।
राकेश कुमार सिंह ने 15 मार्च 2014 को राइड फॉर जेंडर फ्रीडम के लिए चेन्नई से साइकिल यात्रा शुरू की।
उत्तर प्रदेश का एक ऐसा शहर की जहां लड़कियां पढ़-लिख कर देश-विदेश में अपनी सफलता के परचम लहरा रही हैं। उसी शहर के किसी घर में शादी हो रही है, शहनाई बज रही है, लड़का घोड़ी पर चढ़ रहा है और दुल्हन घर आ गई, लेकिन दुल्हन के आने के बाद शुरू होती है एक अलग तरह की लड़ाई, जिसे हम सामाजिक भाषा में दहेज कहते हैं। लड़की उतना दहेज नहीं लेकर आई, कि ससुराल वालों का मुंह बंद कर सके और एक दिन जानते हैं क्या हुआ? उस लड़की को जला दिया गया और पुलिस ने अपनी फाईल यह कह कर बंद कर दी, कि लड़की गलती से जल कर मर गई, क्योंकि ससुराल वालों के खिलाफ कोई सुबूत नहीं मिला। उसी दिन कर्नाटक के किसी शहर में लड़की के ऊपर लड़के ने तेज़ाब इसलिए फेंक दिया, क्योंकि लड़की किसी और से शादी करने जा रही थी। उसके एक दिन बाद उत्तराखंड में किसी आदमी ने अपनी पत्नी को सिर्फ इस बात पर पीटा, कि सब्जी में नमक कम था। उसने अपने बच्चों के ही सामने अपनी पत्नी को इतना मारा कि वह मर गई.... ये वही कड़वे सच हैं, जिनके खिलाफ है राकेश कुमार सिंह की लड़ाई और समाज में फैली इन कुरीतियों के खिलाफ वह अपनी साइकिल यात्रा द्वारा लोगों में जागरुकता फैला रहे हैं।
राकेश कुमार सिंह 17 हज़ार 900 किलोमीटर तक की यात्रा कर चुके हैं।
राकेश कुमार कहते हैं, कि ऐसा कौन-सा संस्थान है, जहां छेड़खानी, भ्रूण हत्या, बलात्कार, जेंडर आधारित गर्भपात, तेज़ाब हमला और देहज प्रताड़ना की शिक्षा दी जाती है? ये ही सवाल राकेश की सोच का विषय हैं और इन्हीं सवालों के जवाब में राकेश एक शहर से दूसरे शहर, एक राज्य से दूसरे राज्य अपनी साइकिल से घूम रहे हैं। अब तक राकेश अपनी साइकिल यात्रा से ग्यारह राज्यों को नाप चुके हैं। राकेश की सबसे बड़ी लड़ाई है, कि बहुत बदलने के बाद भी हमारा भारतीय समाज नहीं बदला। सेहत बानने के लिए साइकिल चलाने वाले तो लाखों मिलेंग... या फिर वे भी जिनके पास स्कूटर और कार खरीदने का पैसा नहीं, लेकिन जेंडर फ्रीडम के लिए साइकिल से ऐसी अनोखी यात्रा करने वाले के बारे में शायद ही आपने कभी सुना हो।
राकेश के वे महत्वपूर्ण सवाल, जिन्हें वे अपनी यात्रा के दौरान मिलने वाले लोगों समझाना और बताना चाहते हैं,
सभी जेंडर की आज़ादी का सम्मान हो।
महिलाओं पर होने वाले अपराधों के देख कर अपनी चुप्पी तोड़ें और उसकी लड़ाई में उसका साथ दें।
लड़का-लड़की में फरक करने की बजाय उनमें समानता का संचार करें।
सभी के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत दायरों का सम्मान करें।
राकेश कुमार सिंह 60 से 80 किमी की साइकिल यात्रा प्रतिदिन करते हैं।
एक आम आदमी सारी ज़िंदगी अपना घर चलाने में निकाल देता है। थोड़ा और ज्यादा पैसा हुआ तो एक से दो और दो से तीन फ्लैट खरीद लेता है, वैगनआर से डस्टर और डस्टर से बीएमडबल्यू पर बैठने लगता है। स्ट्रीट फूड से फाइव स्टार होटल में पहुंच जाता है। समाजिक तौर पर हम आगे बढ़ना उसे कहते हैं, जो हमारे मासिक वेतन पर निर्भर करता हो, लेकिन राकेश जैसे लोग इन सबसे अपना पीछा छुड़ा चुके हैं। राकेश कई अच्छी कंपनियों में नौकरी कर चुके हैं, मीडिया हाउस से भी जुड़े रहे, लेकिन उनका मन समाज से जुड़कर कुछ करने का था। उनके लिए पैसा बेहद हल्की-फुल्की ज़रूरत रही। यह पूछने पर, कि आपकी रोटी, कपड़ा और मकान का जुगाड़ कैसे होते है? पैसे कहां से आते हैं? तो राकेश ने बड़ी निश्चिंतता से जवाब दिया, कि मैं इसकी चिंता नहीं करता। जिस राज्य, जिस शहर, जिस गांव जाता हूं, वहां कोई न कोई ऐसा मिल जाता है, उसके आंगन में एक रात बिता सकूं। कोई सुबह के नाश्ते का इंताम कर देता है, तो कोई दोपहर के खाने का। कहीं बैठकर शाम की चाय पी लेता हूं, तो कहीं रात का भोजन। भोजन और बिस्तर मेरी ज़रूरत नहीं। मेरी लड़ाई तो अलग ही दिशा में है। मेरे पास ऐसे कुछ दोस्त भी हैं, जो समय-समय पर मुझे आर्थिक मदद देते रहते हैं। साइकिल का चलते रहना ज़रूरी है।
राकेश B'twin की साइकिल से अपनी यात्रा पर निकले हैं। शुरूआती दिनों में इनके पास कोई और साइकिल थी, लेकिन बैंगलोर साइकिल यात्रा के दौरान B'twin कंपनी ने राइड फॉर जेंडर फ्रीडम साइकिल यात्रा में सहयोग देने के लिए राकेश को एक साइकिल भेंट की। यह पूछे जाने पर, कि ये लड़ाई इतनी देर से क्य़ों शुरू की? तो राकेश ने कहा, "देख, पढ़ और समझ तो बचपन से ही रहा था, लेकिन जब समझदारी के स्तर ने आकार लेना शुरू किया तो लगा कि जो कर रहा हूं, मैं वो करने के लिए नहीं बना, बल्कि मेरी लड़ाई तो किसी और से ही है। मुझे समाज के लिए कुछ करना है। अपने आसपास जब लैंगिक भेदभाव देखता हूं, तो भीतर तक एक तकलीफ से भर जाता हूं।"
एक दिन में सड़क पर चार सभाएं लगाते हैं, जिनके साथ जेंडर फ्रीडम से जुड़े मुद्दों पर बात करते हैं और संबंधित जानकारियों से उन्हें अवगत कराते हैं।
समाज में फैली लैंगिक असमानता राकेश को सबसे ज्यादा परेशान करती है। घर वाले भी अब स्वीकार चुके हैं, कि राकेश साइकिल यात्रा पर निकल चुके हैं और वापिस नहीं लौटेंगे। ये पूछने पर कि इस तरह यात्रा करने से क्या होगा? ऐसे कोई परिणाम थोड़े न निकलेगा। राकेश कहते हैं, मार्च 2014 से जनवरी 2017 तक यदि दस लोगों में भी मुझसे मिलने के बाद सुधार हुआ है, तो यही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है। मैं पूरे समाज पूरी दुनिया को बदलने की बात नहीं करता, क्योंकि ऐसा कर पाना नामुमकिन है। लेकिन यदि मैं कुछ लोगों ही बदल पा रहा हूं, तो ये मेरे लिए खुशी की बात है और यही मेरी कमाई है। वे लोग दस, बीस और पचास भी हो सकते हैं।
राइड फॉर जेंडर फ्रीडम साइकिल यात्रा के दौरान राकेश ने कुछ-कुछ रातें ऐसे भी गुज़ारी हैं, जब उन्हें भूखे पेट सोना पड़ा हो। कुछ सुबहें ऐसी भी निकल गईं जब मॉर्निंग टी न मिली हो। कोई भी मौसम रहा हो, बारिश हो या सर्दी, चिलचिलाती धूप हो या शीतलहरी राकेश चलते ही रहे हैं। जहां रात हुई वहीं तंबू गाड़ के सो गये, हुई सुबह और निकल पड़े। राकेश छोटी सी साइकिल पर ही अपनी सारी गृहस्थी जमा चुके हैं। और साइकिल के सामने एक बॉक्स है, जिसमें उनसे मिलने वाले लोग अपनी खुशी और सुविधानुसार पैसे डालते हैं। इन पैसों का इस्तेमाल वे कई नेक कामों में करते हैं। कहीं किसी गांव रुके तो बच्चों में किताबें बांट दीं, किसी गांव रुके तो बच्चों में टॉफियां और मिठाईयां बांट दीं। बच्चों के चेहरे की मुस्कुराहट राकेश को आगे बढ़ने और उनकी राइड फॉर जेंडर फ्रीडम लड़ाई में लड़ने की हिम्मत देती है।
मैं जितने लोगों से मिला, मेरे सोचने समझने का दायरा उतना ही विस्तृत होता गया और फिर मुझे समझ आया कि असल में शुरूआत होती कहां से है: राकेश कुमार सिंह
एक तरफ राकेश कहते हैं, कि ये संपूर्ण जेंडर की लड़ाई है, जिसमें स्त्री, पुरुष और तृतीय जेंडर भी शामिल हैं, लेकिन ये लड़ाई तो महिलाओं तक ही सिमट कर रह गई है? इस पर राकेश कहते हैं, "नहीं ऐसा नहीं है। असल में हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति सबसे खराब है, इसलिए मेरे चाहने के बावजूद मैं महिला अधिकारों और उनके अच्छे-बुरे से खुद को बाहर नहीं निकाल पाता। लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं है, कि मैं सिर्फ महिलाओं को लेकर ही चिंतित हूं। मेरी लड़ाई उस आदमी से भी है, जो मेहनतकश पुरुषों को उसकी मेहनत का सही-सही पैसा नहीं दे रहा। मेरी लड़ाई उस समाज से भी है, जिसने उस तीसरे वर्ग जिसे हम ट्रांसजेंडर कहते हैं, को समाज से पूरी तरह बाहर कर रखा है। मैं सबके लिए आवाज़ उठाता हूं और सबके बारे में बात करता हूं।"
यात्रा को दौरान राकेश को कई तरह के नकारात्मक तत्वों का भी सामना करना पड़ा। कई लोंगों ने राकेश को हतोउत्साहित करने की कोशिश की। कई दफा लोग राकेश की पूरी बात सुने बिना ही उठकर चल दिये, लेकिन राकेश ने इन सबसे घबराकर हार नहीं मानी। राकेश कहते हैं, मैं जितने लोगों से मिला, मेरे सोचने समझने का दायरा उतना ही विस्तृत होता गया और फिर मुझे समझ आया कि असल में शुरूआत होती कहां से है। शरूआत घर से होती है। हमारा समाज बचपन से लड़का और लड़की के खान-पान, पहनावों, उठने-बैठने, खेल-कूद में फरक करना शुरू कर देता है। इसलिए हर बिमारी की जड़ वो घर है, जहां से या तो एक इंसान निकलता है या फिर एक जानवर। जैसी परवरिश होगी, पैदावार भी वैसी ही होगी ना।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में राकेश को वीसी प्राचीन प्रतीक चिह्न प्रदान करते हुए |
राकेश के कामों के लिए उन्हें कई स्कूल कॉलेजों में सम्मानित भी किया जा चुका है। विद्यार्थियों के सामने आईआईएम जैसे बड़े संस्थान में राकेश अपनी बात रखने में सफल हुए हैं और वहां भी उन्होंने पाया कि पढ़े-लिखे अच्छे घरों से आने वाले विद्यार्थियों के घरों या उनके आसपास जेंडर से जुड़ी तमाम तरह की समस्याएं हैं। राकेश जहां भी जाते हैं, लोग अपना दिल खोल कर रख देते हैं और अपने मन के सारे हाल बयां कर देते हैं। राकेश की यह यात्रा अभी 2018 तक चलनी है, जिसका समापन बिहार में होगा। राकेश की की एक किताब बम संकर टन गनेस, हिन्दयुग्म प्रकाशन से आ चुकी है, जिसे पाठकों का भरपूर प्यार और अपनापन मिला।
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