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Saturday, 25 March 2017

शांति नायक ने ढ़ूढ़ा लोकसाहित्य में छिपा पर्यावरण संरक्षण का मंत्र

मानव द्वारा हजारों वर्षों से इस्तेमाल किए जा रहे, जंगली जैविक भोजन, प्राकृतिक संसाधनों से बने आश्रय और सांस्कृतिक गतिविधियों की संख्या आज विलुप्त हो चुकी हैं। इन संसाधनों के प्रयोग की विधियों को मानव ने अपनी परिस्तिथि को ध्यान मे रखते हुए विकसित किया था। अतीत में विकसित किए गए इस ज्ञान को मानव ने अपनी बहुमूल्य निधि के रूप में सहेज कर रखा हुआ था।


पिछले 150 सालों से चली आ रही औद्योगिक क्रांति के प्रभाव में यह ज्ञान लुप्त होता जा रहा है। हमारी शिक्षण व्यवस्था और पाठ्यपुस्तकों में इसकेलिए कोई जगह ही नहीं रखी गयी है। हमें यह सिखाया जाता है कि इसे प्रयोग करने वाले लोग पिछड़े, गरीब और वंचित हैं। जबसे यह ज्ञान हमारी जीवनशैली से लुप्त होना शुरू हुआ है, उसी दिन से हम पर्यावरण संबंधी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इसी वजह से हम प्रकृति से दूर होते चले जा रहे हैं। हालात यह है कि हमें पर्यावरण के संरक्षण की बात करनी पड़ रही है। पर शायद ही 150 वर्ष पहले किसी ने इस बारे में सोचा भी होगा। ऐसे में जरूरत है कि हम उस ज्ञान को पुनः हासिल कर उसका संरक्षण करें।

पीढी-दर-पीढी वर्षों से संरक्षित इस ज्ञान को लोकसाहित्य(Folklore) कहते हैं। लोकसाहित्य को हम आमतौर पर कहानियाँ समझ कर नज़रंदाज़कर देते हैं या उन्हे महज मनोरंजन का साधन समझ लेते हैं। हक़ीकत यह है कि मानव ने हजारों वर्षों के अपने जीने के तरीकों को इन लोककथाओं, लोकगीतों, कहावतों, पहेलियों, चित्रों, नृत्य, संगीत, परम्पराओं और विश्वास के माध्यम से सहेज कर रखा हुआ है। ये लोककथाएँ और लोकगीत मानव के जीवन मूल्यों को परिभाषित करती हैं। आज समूचा विश्व ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण प्रदूषण जैसी विनाशकरी समस्याओं से जूझ रहा है और इसके समाधान खोजने मे लगा हुआ है। इस दौर में विरासत मे मिले इस ज्ञान का संरक्षण करना प्रासंगिक हो गया है। जरूरत इस बात की है कि हम जीवनशैली में इसका प्रयोग करें और इसे शिक्षा में पुनः शामिल किया जाए।


कर्नाटक राज्य के इस ज्ञान को पिछले 50 वर्षों से सहेजने का कार्य कर रही है। कर्नाटक के एक छोटे से गाँव मे जन्मी शांति नायक को बचपन से ही गाँव के मंदिर मे होने वाले उत्सवों मे गाये जाने वाले लोकगीत आकर्षित करते थे। वे अपनी दादी और नानी से लोककथाएं और लोक गीत सुना करती थीं। उन्हे फसल की कटाई के समय खेतों में जाकर औरतों को काम करते हुएगाते सुनना बहुत अच्छा लगता था। वो बचपन से ही उन गीतों को याद करके गुनगुनाने लगीं । जैसे-जैसे वे बड़ी होती गयीं, उनकी लोककथाओं और लोकगीतों में रुचि और बढ़ती गयी। हालांकि उन्होने कभी सोचा नहीं था कि वे इसके संरक्षण के लिए काम करेंगी। कॉलेज के समय उनके एक प्रोफेसर लोकसाहित्य(Folklore) में बेहद रुचि रखते थे और उसका डॉक्यूमेंटेशन किया करते थे। प्रोफेसर साहब ने शांति जी कि रूचि को जानते हुए उन्हे कर्नाटक के एक लोक नाटक यक्षगाना के एक पात्र कोडुगी के बारे मे डॉक्यूमेंटशन का काम दिया था। आधिकारिक तौर पर लोकसाहित्य के संरक्षण में यह उनका पहला कदम था। फिर तो जब भी उन्हे अपनी पढ़ाई से समय मिलता, वे अपनी रुचि के तौर पर यह काम करने लगती। पर कभी भी उनके मन में यह विचार नहीं आया था कि उन्हे इस क्षेत्र में अपना कॉरियर बनाना है।

पढ़ाई खत्म होने के कुछ समय बाद ही उनकी शादी हो गयी और वे अपने पति के साथ होनावर मे रहने लगी। यहां वे स्कूल में पढ़ाती थीं। अपने पढ़ाने के तरीकों में भी वे लोकगीतों, लोककथाओं का इस्तेमाल करती थीं। इस वजह से बच्चे उनकी कक्षा मे बेहद रुचि से बैठते थे। बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते उन्होने बच्चों से ही कई लोककथाएँ, लोक खेल, पारंपरिक व्यंजन आदि के बारे में जाना।

शांति नायक कहती हैं कि “एक तरफ जहाँ मैं बच्चों को पढ़ा रही थी,वही दूसरी तरफ यही बच्चे मेरे गुरु थे, जिन्होने मुझे बहुत कुछ सिखाया।”

उसी दौरान उनके पति जिनकी रुचि भी लोकगीतों में थी, ने अपनी पीएचडी इसी विषय मे पूरी कर ली। अब दोनों के पास हजारों की संख्या में कागज इकठ्ठे थे, जिनमें ज्ञान का अपूर्व भंडार था। उन दोनों को लग रहा था कि इस ज्ञान को लोगों तक पहुँचाना बेहद जरूरी है, अन्यथा ये कागज, रद्दी के बराबर है। तब उन्होंने अपनी नौकरी छोड़कर अपने पति के साथ मिलकर जनपदा प्रकाशन नाम से एक संस्था शुरू की। इसके अंतर्गत अब तक वे दोनों सौ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन कर चुके हैं और लोगों तक इस बहुमूल्य ज्ञान को पहुंचाने का काम कर रहे हैं। यही नहीं जब वे यह काम कर रही थी तब उन्हे एहसास हुआ कि जिन महिलाओं से वे ये ज्ञान एकत्रित कर रही हैं, उन्हे अक्षर ज्ञान तक नहीं है; जिसकी वजह से, वे खुद इस ज्ञान को सहेज नहीं पा रही हैं। उन्होने एक राष्ट्रीय स्तर के साक्षरता कार्यक्रम के अंतर्गत उन्हे साक्षर करने कि ज़िम्मेदारी ली। इसी दौरान उन्हे उन महिलाओं के लिए एक को-ओपेरेटिव संस्था खोलने का विचार आया, जिससे वे उन महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना सकें। परिणामस्वरूप वे महिलाएँ आज न सिर्फ आत्मनिर्भर हैं, बल्कि उनमे अपनी संस्कृति को लेकर भी अभिमान बढ़ा है।

शांति नायक कहती हैं “मेरे पति की रुचि जहाँ लोकगीतों में है वहीं मेरी रुचि आदिम संस्कृति, उनके जीने के तरीके, उनके भोजन की विधियाँ, उनके खेल, उनकी जड़ी-बूटियों में है।”

वे आगे कहती हैं, आज इस आदिम संस्कृति, और ज्ञान का संरक्षण करना बेहद ज़रूरी है और उतना ही ज़रूरी है इस ज्ञान को लोगों तक पहुँचाना। क्योंकि आज हम वैश्विक स्तर पर जिन पर्यावरणीय समस्याओं से जूझ रहे है, उनका समाधान इन लोकसाहित्य(Folklores) मे छिपा है।” उनके अनुसार ये सिर्फ कहानियाँ या गीत नहीं हैं, यह जीने के तरीके हैं जो बताते हैं कि किस तरह हम प्रकृति के साथ मिलकर अपना जीवन जी सकते है।


वे आगे जोड़ती हैं कि ये लोकसाहित्य कहानियों से कहीं बढ़कर आध्यात्मिक अवधारणाओं और मूल्यों की बात करती हैं। इनका संरक्षण वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र पर आधुनिक विकास के स्तर पर चल रही विनाश की समस्याओं के समाधान के रूप में एक सेवा है।

शांति नायक कहती हैं “मैं और मेरे पति अपना काम कर रहे हैं, अब हमारी बेटी ने भी इसी काम को अपने जीवन का लक्ष्य चुना है और वो अपने तरीकों से इस काम को आगे बढ़ा रही है। क्योंकि यह कहानियाँ सिर्फ कहने के लिए नहीं है इन्हें हमें अपनी जीवनशैली मे अपनाना होगा, इनसे सीखना होगा और यह तभी संभव है, जब हम इन्हे अपनी शिक्षा मे शामिल करे और इसके लिए जरूरी है कि अधिक से अधिक युवा गाँवो की तरफ रुख करे।”
शांति नायक चाहती हैं कि हम अपनी सोच बदलें और अपना अहम छोड़कर यह समझे कि गाँव के लोग पिछड़े हुए और अज्ञानी नहीं है। बतौर शांति नायक हक़ीकत तो यह है कि इन्हीं लोगों के पास वो ज्ञान है जो इस विश्व को विनाश से बचा सकता है।

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