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Wednesday, 22 March 2017

कृषि वैज्ञानिकों, नीतिकारों, कद्रदानों के इंतज़ार में राटौल आम

छोटे हरे राटौल आम जिसका स्वाद बेमिसाल है और इसकी लज्ज़त के दीवाने भारत, पाकिस्तान, सऊदी अरब, और अन्य देशों में रहते हैं।पाकिस्तान हर वर्ष अनवर रटौल आम का अच्छा-खासा निर्यात अरब देशों में करता है जबकि हिन्दुस्तान की सर-ज़मीन से उपजे इस आम की नायाब किस्म को वैज्ञानिकों, व्यापारियों, नीति-निर्माताओं का आज भी इंतज़ार है।


उत्तरप्रदेश के बागपत जिले की खेकड़ा तहसील के गांव राटौल के तीन परिवारों(सिद्दीकी, फरीदी, और सैय्यद) से राटौल आम का गहरा नाता है। सन् 1850 में राटौल गांव के रहने वाले हाकिम-उद-दीन अहमद सिद्दीकी जो कि अंग्रेज़ सरकार में डिप्टी कमिश्नर और मैजिस्ट्रेट पद पर नौकरी करते थे और सरकारी काम से अलग-अलग जगह जाया करते थे। इसलिए उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों से आमों की कई किस्में अपने बाग में लगाई।

सन् 1920 के आस-पास मोहम्मद आफाक फरीदी ने आम के एक पेड़ के कुछ पत्ते तोड़े और चबाए तो गाज़र का स्वाद आया। मालूम करने पर पता चला कि आम के उस बाग में पिछले सीज़न में गाज़र की खेती की गई थी। बाग के आस-पास गन्ने की खेती भी बहुतायात में थी और मोहम्मद फरीदी को इस किस्म में कुछ अलग स्वाद आया तो इसके पौधे अपने बाग में लगाने के लिए ले आये। आमों के ये पौधे गांव में ही रहने वाले सैयद अनवर-उल-हक के बाग में रोप दिये गए और मोहम्मद फरीदी इन पौधों की देखभाल करने लगे। जब सैयद अनवर-उल-हक को पता चला तो उन्होंने तुरंत उस आम के पेड़ पर अपना मालिकाना हक जताया और किस्म का नाम अनवर राटौल रख दिया।

1947 के भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के कारण सिद्दीकी परिवार और अनवर-उल-हक का परिवार पाकिस्तान चला गया और आफाक फरीदी और उनके बच्चे राटौल में ही रहते रहे। अश्फाक फरीदी के बचपन के मित्र नवाब कालाबाग जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान के रावलपींडी शहर में रहते थे को फरीदी ने कुछ आम उपहार के तौर पर भेजे। बंटवारे के समय सैयद अनवर-उल-हक का परिवार राटौल आम के पौधे अपने साथ पाकिस्तान ले गया और वहां पर इसका बाग लगाया और बहुत मेहनत से इसका प्रचार-प्रसार किया। आजअनवर-राटौलदुनिया में अपनी पहचान बना चुका है।


आम के शौकीन लोगों के बीच राटौल आम सिर्फ अपने स्वाद, बल्कि खुशबू के लिए भी जाना जाता है। राटौल आम पर अमर शर्मा के अपने https://audioboom.com/boos/3392082- पर जिक्र किया है। राटौल गांव के बाशिंदे किसानों से बात करने पर पता लगा कि राटौल आम की खासियत यह है कि जब ये आम टपक कर पेड़ से अपने-आप नीचे गिरते हैं और यदि उन आमों में से एक आम को भी 12 घंटे के लिए कमरे में बंद कर दिया जाये तो 12 घंटे बाद कमरे को खोलने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो कमरे में बहुत ज्यादा आम रखे हुए हों और उस एक आम की महक से ही पूरा कमरा महक जाता है। यही कारण है कि राटौल आम की खुशबू अन्य आमों से भिन्न है।

जामिया मिलिया इस्लामिया विश्व विद्यालय के पूर्व लैक्चरर और राटौल गांव में आम के बाग के मालिक साहब सिद्दीकी से बात करने पर हमें राटौल आम की खूबी और बारीकियों का पता चलता है। सिद्दीकी साहब ने बताया कि जिस प्रकार मोटी खाल के लोग आजकल ज्यादा कामयाब होते हैं क्योंकि जो पतली चमड़ी या नरम मिज़ाज़ के लोग होते हैं वे नहीं चल पाते। इसी तरह इस आम का भी हाल है क्योंकि यह आम नरम मिज़ाज़ का है तो ज्यादा दूर तक नहीं जा पाता। इसलिए ज्यादा लोगों तक भी नहीं पहुँच पाता और जल्दी ही खराब हो जाता है। उन्होंने बताया कि राटौल आम एक तुखमी आम है इसीलिए यह सीधा गुठली से पैदा होता है।

गांव के बाशिंदे और दिल्ली विश्व विद्यालय के इतिहास के भूतपूर्व प्रोफैसर ज़ाहूर सिद्दीकी जी बताते है। कि राटौल आम की किस्म को पैदा करने में दो आदमियों का सबसे बड़ा योगदान रहा एक हाकिम-उद-दीन साहब और दूसरे उनके भाई आफताब सिद्दीकी। राटौल गंव में उनके दो बाग नूर बाग और भोपाल बाग बहुत मशहूर हैं वहां आम की अलग-अलग किस्में लगाई गई है। लेकिन बड़े पैमाने पर नर्सरी के तौर पर शेख मोहम्मद अफाक फरीदी ने अपनी नर्सरी में 400 से ज्यादा किस्म लगाई थी।

ये वही दौर था जब मुल्तान के व्यापारियों ने समझ लिया था कि राटौल आम एक बेहतरीन किस्म है और उन्होंने इसकी किस्में मंगवानी शूरू कर दी। ज़ाहूर सिद्दीकी ने बताया कि अनवर-उल-हक के बाग में यह किस्म लगाई गई थी और बंटवारे के बाद उनके बड़े बेटे अबरारूल-हक पाकिस्तान चले गए और अपने पिता के नाम को प्रसिद्ध करने के लिए यह किस्म राटौल गांव से लाई गई थी, इसलिए उन्होंने इस किस्म का नामअनवर राटौलरखा।


भारत से पाकिस्तान पहुँचे राटौल आम के साथ एक बेहद दिलचस्प किस्सा जुड़़ा हुआ है।  पाकिस्तान के छठे राष्ट्रपति मोहम्मद जिया-उल-हक ने एक बार भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी को आम के फलों की टोकरी भेजी। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी को आम बहुत अच्छे लगे और फिर इन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति को आम भेजने के लिए धन्यवाद पत्र लिखा तथा साथ ही पत्र में उन आमों की किस्म की प्रशंसा भी की। यह पत्र उस दौर में प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित भी हुआ लेकिन एक आदमी की नाराजगी ने इस पत्र को आकर्षण का केन्द्र बना दिया।

इस आदमी का नाम था जावेद फरीदी इन्होंने इंदिरा गांधी जी से इस बारे में बताने के लिए दिल्ली जा कर मुलाकात भी की और उन्हें समझाया कि किस प्रकार यह किस्म भारत में विकसित हुई और यह वास्तव में पाकिस्तान द्वारा स्वयं विकसित की गई किस्म नहीं है। ‘‘जावेद फरीदी ने कहा कि यह सब कुछ विभाजन के दौरान हुआ है।उन्होंने इंदिरा गांधी जी को बताया कि किस प्रकार बंटवारे के बाद अनवर-उल-हक के बड़े बेटे अबरारूल-हक पाकिस्तान चले गए और अपने पिता के नाम को प्रसिद्ध करने के लिए इस किस्म का नामअनवर राटौलरखा।

राटौल आम किस कदर लोगों के दिलों दिमाग पर हावी था, यह राटौल गांव की निवासी निशाद सैय्यदा द्वारा बताये गये एक किस्से से पता चलता है। निशाद सैय्यदा जी ने बताया कि बंटवारे के बाद जब रास्ते खुले तो वे अपनी अम्मी के साथ सन् 1953 में अपने मामाओं से मिलने पाकिस्तान गई, तो हम बतौर तोहफा उनके लिये राटौल आम की पेटी ले गये थे। लाहौर में हम अपने चाचा जी के पास रूके, तो जो आम हम ले गये थे वो लाहौर में ही खत्म हो गये। फिर जब वे कराची गये अपने मामा के पास तो इनके मामा जी इनकी अम्मी से बोले, ‘बहन कम से कम तुम आम की गुठलियां ही ले आती तो हम उसकी खुशबू से ही मुखमिन हो जाते।इस किस्से से हमें पता चलता है कि किस कदर राटौल आम लोगों द्वारा पसंद किया जाता है।

राटौल के स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलता है कि मौजूदा दौर में बाग के आस-पास कई भठ्ठे बन गये हैं जिससे बागों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। दिल्ली के विस्तार के कारण जमीनों के रेट बहुत अधिक बढ़ गये हैं। बागों के अस्तित्व पर लगातार खतरा मंडरा रहा है। राटौल आम के संरक्षण एवं प्रोत्साहन के लिए कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं :

1. कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विज्ञान केन्द्रों द्वारा राटौल आम पर अनुसंधान प्रोजैक्ट स्थापित  करके इसके संरक्षण और विकास की दिशा में कार्य किया जा सकता है।
2. उत्तर प्रदेश सरकार राटौल आम के लिए विशेष जोन घोषित करने के बारे में विचार करके कोई नीति बनानी चाहिए।
3. APEDA वाणिज्य मंत्रालय को मिल कर विदेशों में राटौल आम की मांग को पूरा करने में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने की नीति पर विचार करना चाहिये।
4. राटौल आम की सम्पूर्ण बागवानी यदि जैविक ढंग से होने लगे और इसके प्रमाणीकरण व्यवस्था पर भी ध्यान देकर उसे प्राप्त किया जाये तो राटौल आम के विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ सकती है।
5. भारत सरकार के भगौलिक उपदर्शन एक्ट, 1999 द्वारा स्थापित भागौलिक उपदर्शन रजिस्ट्री की धारा 2(1) के तहत इसके पंजीकरण के प्रयास किये जाने चाहियें।
6. अभी हाल ही में 20 मई 2015 को पारित जिनेवा कानून जिसका अभिप्राय लिस्बन समझौता से है के अंतर्गत फलों के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भागौलिक उपदर्शन के पंजीकरण की व्यवस्था की जानी चाहिये।

7. राटौल आम पैदा करने वाले बागवानों की एक प्रोड्यूसर कंपनी का गठन कराया जाना चाहिए।

जैविक व कुदरती कृषि कीजिए और खूब कमाइए

भास्कर सावे जी(27 जनवरी 1922-24अक्टूबर 2015) एक शिक्षक, उद्यमी, किसान भी थे। जिन्हें विश्व में गांधी जी की प्राकृतिक खेती के रूप में जाना जाता है। भास्कर सावे जी का जन्म भारत के अरबसागर पर एक तटीय गांव डेहरी में हुआ और इनका परिवार खेत निविदाओं से संबंध रखता है। इनके प्रारंभिक कुछ वर्ष गुजरात राज्य के वलसाड जिले के गांव डेहरी में बीते जहां अब तक आधुनिक सुविधाएं यानि बिजली तक भी उपलब्ध नहीं हो पाई है।

बचपन से ही भास्कर सावे जी ने सहयोग के मूल्य को सीखा। अन्य स्थानीय किसानों की तरह सावे जी का
परिवार भी मुख्य रूप से चावल, दाल, और कुछ सब्जियों की खेती करता था। अक्सर वे अपने पिता जी के साथ
बैलगाड़ी के माध्यम से पड़ोसी क्षेत्रों के जंगलों के दौरे पर जाया करते थे। उन्होंने केवल सातवीं कक्षा तक शिक्षा
ग्रहण की थी। भास्कर जी का मूल व्यवसाय खेती रहा लेकिन सन् 1948 में प्राथमिक शिक्षक के पद पर कार्यरत
होते हुए भी उन्होंने खेती करना ज़ारी रखा। 2 फरवरी 1951 में भास्कर सावे जी का विवाह मालतीबेन से हुआ,
जिन्होंने इनका हर राह पर पूरा सहयोग दिया।

भास्कर जी ने 25 एकड़ की भूमि पर फार्म बनाया हुआ था, जिसका नाम उन्होंने ‘कल्पवृक्ष फार्म’ रखा। सन् 1960 से पहले सावे जी इस 25 एकड़ भूमि के ऊपर आधुनिक कृषि-पद्धति से खेती करते थे। उन्होंने आधुनिक कृषि कार्य-पद्धति के दौरान सरकार की खेती प्रणाली के आधार पर रसायनों का उपयोग किया और उत्पादन को बढ़ाया तथा उत्पादन के साथ-साथ खूब पैसा भी कमाया। इन्हें गुजरात के फर्टिलाइज़र कार्पोरेशन द्वारा एक कैमिकल फर्टीलाइज़र एजेन्सी के रसायनों की मार्केटिंग करने का कान्ट्रैक्ट मिला रसायनों को बेचने के साथ-साथ वे किसानों को रसायनों के इस्तेमाल के बारे में भी समझाते थे। पुणे और दूर-दराज के क्षेत्रों से कई कृषि वैज्ञानिक उनके कल्पवृक्ष फार्म के दौरे के लिए आये और जल्द ही इन्हें एक ‘माॅडल किसान’ के नाम से जाना जाने लगा। मगर सन् 1957 की साल में आधुनिक कृषि-पद्धति से इन्हें भारी नुकसान हुआ और अगले तीन सालों में सावे जी को धीरे-धीरे आधुनिक कृषि के सारे बुरे पहलू समझ में आ गए। उन्होंने जाना कि ‘खेती में नुकसान आने का कारण कम मेहनत या कमजोर ज़मीन नहीं थी, बुल्कि आधुनिक कृषि का मायाजाल और उसकी कार्य-पद्धति थी।’

सावे जी का कहना था कि आधुनिक कृषि कार्य-पद्धति मूल उद्ेदश्य केवल उत्पादन को बढ़ाना था। सावे जी का कहना था कि रसायनिक खेती करने से उत्पादन भी बढ़ा और उन्होंने खूब पैसा भी कमाया। लेकिन उनका कहना था कि ये पैसा उनके पास नहीं रहा, क्योंकि रसायनों का प्रयोग करके उत्पादन को तो बढ़ाया जा सकता है किन्तु जब आप वास्तव में मुनाफा आंकोगे तो वह बहुत कम होगा। आधुनिक कृषि कार्य-पद्धति में, ट्रैक्टरों से होने वाली गहरी जुताई रासायनिक खाद, जहरिली दवाईयों का छिड़काव, ज्यादा सिंचाई और बराबर होने वाली निराई से जमीन की रचना और उपजाव शक्ति कम हो जाती है। सावे जी को कृषि का सच्चा ज्ञान, कुदरत के चक्र को देखकर और आध्यात्मिक ‘जियो और जीने दो’ की बातें समझने के बाद आया। सेवा जी ने देखा कि पहाड़ के ऊपर ही जंगल का विकास होता है और पेड़-पौधों की जड़ें लम्बी होती हैं और गहराई तक जाती हैं। जुताई, खाद, पानी, दवा और निराई बिना भी जंगल के पेड़-पौधे, हर साल एक समान उत्पादन देते हैं। इस बात का सिर्फ एक ही कारण है कि जंगल में मानव का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। फिर उन्हें एक बार गांधी जी के उन पांच सिद्धांतों को पढ़ने का मौका मिला और वे थे:

1. इस दुनिया में जितने भी प्राणी हैं कोई किसी का दुश्मन नहीं है अपितु सभी एक दूसरे के मित्र हैं। इसलिए कृषि में किसी भी जन्तुनाशक का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
2. जो कुछ भी धरती पर उगता है वह बेकार नहीं है।
3. गांधी जी का कहना था कि खेती धंधा नहीं है, धर्म है।
4. गांधी जी कहते थे कि प्रकृति सृजन है और इस प्रकृति के फल और बीज पर ही हमारा अधिकार है।
5. उनका एक सिद्धांत यह भी था कि ज़मीन एक ज़िंदा पदार्थ है।

इन सब सिद्धांतों को पढ़ने के बाद सावे जी ने सन् 1960 में कुदरत की मदद लेते हुए एक छोटा सा प्रयोग किया। उस प्रयोग में सावेजी के खेतों का उत्पादन घटकर 50 प्रतिशत हो गया, फिर भी उन्हें काफी मुनाफा हुआ। रसायनों से भरपूर आधुनिक कृषि में सावे जी को जहां 100 रूपये की कमाई के लिए 80 रूपये का खर्च करना पड़ता था और जिसका मुनाफा 20 रूपये मिलता था। वहीं इस नये प्रयोग में कमाई 50 रूपये की हुई और सावे जी ने इस प्रयोग में पानी सिंचन के अलावा कुछ नहीं किया इसलिए खर्च 20 रूपये ही हुआ,इस प्रकार सावे जी को इस प्रयोग से अधिक मुनाफा हुआ। सिर्फ इतना ही नहीं सावे जी को बिना ज़हर की निरोगी उपज भी मिली। यह प्रयोग करने के बाद एक अनपढ़ मनुष्य भी समझ जाएगा कि उसे ज्यादा उपज जरूरी है या शुद्ध उपज ज़रूरी है? साथ ही साथ मुनाफा ज़रूरी है या फिर ज्यादा खर्च करके बेवकुफ बनानेवाला सिर्फ उत्पादन चाहिए? जब आधुनिक कृषि का मायाजाल और अधिक उत्पादन का भ्रम टूटा तब बिना खर्च और आधुनिक कृषि से भी ज्यादा और शुाद्ध उत्पादन की खोज और प्रयोग करने के कामों में सावे जी जुट गये।

सावे जी ने संशोधन, निरीक्षण, कुदरत के वैज्ञानिक चक्र, जीवों की मदद, सेन्द्रिय खाद और खुद की कार्य-पद्धति को जोड़कर भारी सफलता हासिल की। ‘श्री सावे जी की कृषि-पद्धति’ का अनुभव और ज्ञान आज खेती काम के लिए एक वरदान है, क्योंकि जैविक कृषि की कार्यकर्ता होने के साथ-साथ एक स्वः भास्कर सावे उपज में शरीर को लगने वाले सारे पोषक तत्व मौजुद हैं। उससे ही निरोगी जीवन मिलता है, पर्यावरण की रक्षा होती है और सबसे बड़ा फायदा, जिसे लोग अनपढ़ कहते हैं वे किसान भी कम पानी, कम लागत और कृषि के ज्ञान बिना भी शुद्ध और अधिक उपज के साथ भारी मुनाफा कमा सकते हैं।

सन् 1997 में भारत की स्वतंत्रता के 50 साल मनाने के लिए जापान के मासानोबू फुकुओका जिन्हें ‘फाॅदर आॅफ पर्माकल्चर’ के नाम से जाना जाता है, को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। उसी दौरान मासानोबू जी ने सावे जी के कल्पवृ़क्ष फार्म का दौरा भी किया और उन्हें प्राकृतिक खेती की अवधारणा और अभ्यास के लिए नीजी तौर पर सम्मानित किया। सावे जी को यह सफलता कई सालों के प्रयोग और अनुभव के बाद मिली, इसलिए सावे जी बार-बार ये दोहराते थे कि ‘मेरे खेत ही मेरे लिए स्कूल, काॅलेज, और विद्यापीठ है। जहाँ मुझे काम करने से सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ कि‘‘कुछ न कुछ कीजिए और जैविक कृषि के द्वारा खूब कमाईए।’’

गन्ने की कलम बनाने वाली मशीन बनाकर रोशनलाल विश्वकर्मा ने इंजीनियरों को दी चुनौती

रोशनलाल विश्वकर्मा मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के मेख गांव में रहते हैं। वह एक किसान हैं लेकिन लोग इनको एक नवप्रर्वतक के रूप में जानते हैं। वह ज्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं है लेकिन उन्होंने वो किसान हैं, लेकिन लोग उनको इनोवेटर के तौर पर जानते हैं, वो ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं लेकिन उन्हांेने एक ऐसी मशीन विकसित की है जिसका फायदा आज दुनिया भर के किसान उठा रहे हैं। रोशनलाल विश्वकर्मा ने पहले नई विधि से गन्ने की खेती कर उसकी लागत को कम और उपज को बढ़ाने का काम किया, उसके बाद ऐसी मशीन को विकसित किया जिसका इस्तेमाल गन्ने की ‘कलम’ बनाने के लिए आज देश में ही नहीं दुनिया के दूसरे देशों में किया जा रहा है।


रोशनलाल विश्वकर्मा ने ग्यारवीं कक्षा तक की पढ़ाई पास ही के एक गांव से की। उनका परिवार का मूल व्यवसाय खेती था और पढ़ाई छोड़ने के बाद लिहाजा वो भी इसी काम में जुट गए। खेती के दौरान उन्होने देखा कि गन्ने की खेती में ज्यादा मुनाफा है। लेकिन तब किसानों को गन्ना लगाने में काफी लागत आती थी इसलिए बड़े किसान ही अपने खेतों में गन्ने की फसल उगाते थे। तब रोशनलाल ने ठाना कि वो भी अपने दो-तीन एकड़ खेत में गन्ने की खेती करेंगे इसके लिए उन्होने नये तरीके से गन्ना लगाने का फैसला लिया। रोशनलाल का कहना है कि उनके मन में ख्याल आया कि जैसे खेत में आलू लगाते हैं तो क्यों ना वैसे ही गन्ने के टुकड़े लगा कर देखा जाए। उनकी ये तरकीब काम आ गई और ऐसा उन्होने लगातार 1-2 साल किया। जिसके काफी अच्छे परिणाम सामने आए। इस तरह उन्होने कम लागत में ना सिर्फ गन्ने की कलम को तैयार किया बल्कि गन्ने की पैदावार आम उपज के मुकाबले 20 प्रतिशत तक ज्यादा हो गई। इतना ही नहीं पहले 1 एकड़ खेत में 35 से 40 क्विंटल गन्ना रोपना पड़ता था और इसके लिए किसान को 10 से 12 हजार रुपये तक खर्च करने पड़ते थे। ऐसे में छोटा किसान गन्ना नहीं लगा पाता था। लेकिन रोशनलाल की नई तरकीब से 1 एकड़ खेत में केवल 3 से 4 क्विंटल गन्ने
की कलम लगाकर अच्छी फसल हासिल होने लगी।

इस तरह छोटे किसान भी गन्ना लगा सकते थे बल्कि उसके कई दूसरे फायदे भी नज़र आने लगे। जैसे किसान का परिवहन का खर्चा काफी कम हो गया था क्योंकि अब 35 से 40 क्विंटल गन्ना खेत तक ट्रैक्टर ट्रॉली में लाने ले जाने का खर्चा बच गया था। इसके अलावा गन्ने का बीज उपचार भी आसान और सस्ता हो गया था। धीरे-धीरे आसपास के लोग भी इसी विधि से गन्ना लगाने लग गये। जिसके बाद अब दूसरे राज्यों में भी इस विधि से गन्ना लगाया जा रहा है। 

रोशनलाल जी यहीं नहीं रूके उन्होने देखा कि हाथ से गन्ने की कलम बनाने का काम काफी मुश्किल है इसलिए गन्ने की कलम बनाने वाली मशीन बनाकर रोशनलाल विश्वकर्मा ने इंजीनियरों को दी चुनौती उन्होने ऐसी मशीन के बारे में सोचा जिससे ये काम सरल हो जाए। इसके लिए उन्होने कृषि विशेषज्ञों और कृषि विज्ञान केंद्र की सलाह भी ली। उन्होंने बताया कि वे खुद ही लोकल वर्कशॉप और टूल फैक्ट्रीज में जाते और मशीन बनाने के लिए जानकारियां इकट्ठा करते थे। तब कहीं जाकर वो ‘शुगरकेन बड चिपर’ मशीन विकसित करने में सफल हुए। सबसे पहले उन्होने हाथ से चलाने वाली मशीन को विकसित किया। जिसका वजन केवल साढ़े तीन किलोग्राम के आसपास है और इससे एक घंटे में 300 से 400 गन्ने की कलम बनाई जा सकती हैं। फिर धीरे धीरे वह इस मशीन में भी सुधार करते रहे और इन्हांने हाथ की जगह पैर से चलने वाली मशीन बनानी शुरू की। जो एक घंटे में 800 गन्ने की कलम बना सकती है। 

आज उनकी बनाई मशीनें मध्यप्रदेश में ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र, यूपी, उड़ीसा, कर्नाटक, हरियाणा और दूसरे कई राज्यों में भी बिक रही है। उनकी इस मशीन की मांग ना सिर्फ देश में बल्कि अफ्रीका के कई देशों में भी बहुत बढ़ रही है। रोशनलाल की बनाई गई इस मशीन के विभिन्न मॉडल 1500 रुपये से शुरू होते हैं।

फिर शुगर फैक्ट्री और बड़े फॉर्म हाउस ने रोशनलाल जी से बिजली से चलने वाली मशीन बनाने की मांग कीे। जिसके बाद उन्होंने बिजली से चलने वाली मशीन बनाई जो एक घंटे में दो हजार से ज्यादा गन्ने की कलम बना सकती है। अब उनकी इस मशीन का इस्तेमाल गन्ने की नर्सरी बनाने में होने लगा है। इस कारण कई लोगों को रोजगार भी मिलने लगा है। किया हुआ है। अपनी उपलब्धियों के बदौलत रोशनलाल ना सिर्फ विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं बल्कि खेती के क्षेत्र में बढिया खोज के लिए उनको राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है। फिर उन्हांेने ऐसी मशीन को विकसित किया जिसके इस्तेमाल से आसानी से गन्ने की रोपाई भी की जा सकती है। 

इस मशीनको ट्रेक्टर के साथ जोड़कर 2-3 घंटे में एक एकड़ खेत में गन्ने की रोपाई की जा सकती है। जहां पहले इस काम के लिए ना सिर्फ काफी वक्त लगता था बल्कि काफी संख्या में मजदूरों की जरूरत भी पड़ती थी। ये मशीन निश्चित दूरी और गहराई पर गन्ने की रोपाई का काम करती हैं। इसके अलावा खाद भी इसी मशीन के जरिये खेत तक पहुंच जाती है। रोशनलाल ने इस मशीन की कीमत 1लाख 20 हज़ार रुपये तय की है जिसके बाद बाद विभिन्न कृषि विज्ञान केंद्र और शुगर मिल ने इस मशीन को खरीदने में दिलचस्पी दिखाई है। साथ ही उन्होने इस मशीन के पेटेंट के लिए आवेदन भी किया हुआ है। अपनी उपलब्धियों के बदौलत रोशनलाल ना सिर्फ विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं बल्कि खेती के क्षेत्र में बढिया खोज के लिए उनको राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।

Thursday, 2 March 2017

भारत से दूर विदेशी मुल्कों में अपना भविष्य और हिंदुस्तान की छवि संवारते भारत के किसान ।

कल देर शाम हमारे कार्यालय पर अचानक एक छोटे कॉमन रेफेरेंस के जरिये श्रीमान राजबीर सिंह सपरिवार पधारे । वर्तमान में राजबीर जी जेयोर्जिया मुल्क में 1380 हेक्टयेर जमीन पर खेती करते हैं और इनसे बातचीत में पता चला कि जनाब ने 21 वर्षों तक केंद्रीय पुलिस बल में अपनी सेवाएं दी और सहायक कमाडेंट के पद पर रहते हुए खेती करने का मन बना कर नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया । सरकार की सक्रिय सेवा से बाहर आकर जब खेती का मन बनाया तो अपने रिश्तेदारों से चला कि बाहर दूसरे मुल्कों में जमीन काफी सस्ती मिल जाती है (यही कोई 30 से 35 हज़ार रूपए प्रति एकड़ ) , तो इन्होंने बाहर जा कर नयी भूमिका तलाशने का मन बनाया । इस विचार में इनका भरपूर साथ दिया इनकी पत्नी श्रीमती नवजोत कौर ने । अपनी जमा पूँजी को लेकर रूस से टूट कर बने एक मुल्क जेयोर्जिया में जा कर 1380 हेक्टेयर जमीन खरीद ली और उसपर खेती करने का कार्य शुरू किया राजबीर जी ने बताया कि एयरपोर्ट से बाहर निकलने के मात्र 2 घंटे के बाद इनकी कंपनी बन गयी और बैंक अकाउंट खुल गया जिसे वो तुरंत ऑपरेट करने लग गए । आगे बातचीत में इन्होंने बताया कि इनके कुछ रिश्तेदार पहले ये यहाँ पर कुछ व्यापारिक गतिविधियां कर रहे थे जिनके अनुभव और संपर्कों का इन्हें लाभ मिला । जॉर्जिया में खेती बाड़ी का सारा काम मशीनों के द्वारा किया जाता है और फसल बेचने के लिए कोई मंडी सिस्टम नहीं है । सभी किसान पहले से ही कंपनियों से अपनी डील पक्की कर लेते हैं और सभी पेमेंट्स बैंक टू बैंक हो जाती है । देश के अंदरूनी हालात नार्मल हैं , कोई बड़ा लड़ाई झगड़ा नहीं है । wifi की सुविधा फ्री है , सरकार ने बिना पासवर्ड के हॉट स्पॉट बना रखें हैं जहाँ हाई स्पीड इन्टरनेट मुफ्त में उपलब्ध रहता है , बैंको की ब्रांचे 24 घंटे खुलती हैं , कभी भी जा कर व्यक्ति बैंकिंग कर सकता है । वहां नवम्बर के महीने में गेहूं की बुआई करने के बाद बर्फ पड़ जाती है और फ़रवरी के बाद छोटे छोटे पौधे बाहर निकलते हैं जो जुलाई में जा कर पक जाते हैं । प्रति हेक्टयेर गेहूं की उपज हमारे यहाँ से बहुत अधिक है । सब काम एक नंबर में और बहुत तेजी से होते हैं । 90 % आबादी ईसाई धर्म को मानने वाली है । देश की जमीनी स्तिथि इस प्रकार है कि यूरोपीएन यूनियन में शामिल होने पर विचार चल रहा है और साथ में रूस भी दूर नहीं है । राजबीर सिंह जी के बच्चे नवराज और मनराज अभी चंडीगढ़ में ही रह कर पढाई कर रहे हैं और श्रीमती नवजोत कौर माता और पिता की भूमिका में परिवार का ख्याल रख रही हैं । काफी सारे मुद्दों पर बात चीत के दौरान राजबीर जी ने बताया कि उनका अपना पैतृक गाँव : रंभा , करनाल जिले में तरवाड़ी के नजदीक है । अगले कुछ वर्षों में राजबीर अपने परिवार को भी जॉर्जिया में सेटल करने हेतु विचार कर रहे हैं । एक पल के लिए हरियाणा में वर्तमान खेतीबाड़ी की स्तिथि को लेकर भी मैंने सवाल किया जवाब में केवल स्माइल मिली और कुछ नही । उनकी यह स्माइल वर्तमान में सभी राजनेताओं की गुमराह करने वाली बातों और कारनामों पर भारी है । रात दस बजे राजबीर भाई वापिस गए अभी हमारा और बैठने का मन था लेकिन समय नहीं बचा था , अगली सुबह इन्हें फिर निकलना था । खैर आगे मिलने जुलने का रास्ता अभी खुला है । दुनिया भर के कोनों कोनों में हिंदुस्तान के किसान फैलकर अपना भविष्य बनाने के साथ साथ अपने देश का भाईचारा और संस्कृति भी फैला रहे हैं , ये बहुत सुकून की बात है ।

Wednesday, 1 March 2017

This man from Hyderabad saved 5,000 trees by relocating them

Ramachandra Appari, a 38-year-old man from Hyderabad, has found a way to ensure development does not come at the cost of the environment. Ramachandra, who has been running a company named Green Morning Horticulture Services Private Limited, believes it is better to relocate trees rather than felling them.


The age-old process of translocation involves uprooting trees and re-planting them in a different place. This process dates back to 2000 BC and was practised in Egypt. It has recently attracted attention again with growing concerns over environmental issues.

The fast disappearing green cover compelled Ramachandra to think, and he realised he was out of place at a private sector bank. Dissatisfied as his background was in the agriculture sector, having done his masters in Agriculture and MBA in agribusiness, he told The News Minute,

Eight years of agriculture studies and then getting into something different didn't feel right. I left that job for my passion.

Ramachandra had this thought when he noticed many trees being cut down to widen the roads, while travelling on the Hyderabad-Vijayawada highway back in 2009. He then began his research on an alternate option for the same. His research mainly revolved around translocation, and a friend told him about its widespread adoption in Australia. This gave him the idea to set up Green Morning Horticulture Services Private Limited to help with translocation and landscaping.

Understanding the differences in the terrains of India and Australia, he realised that the same machines could not be used in both the places given the hard soil here. Taking care of all the prerequisites, he began his work with the Hyderabad Metro Rail project. He pitched his proposal and it was accepted. He was able to save 800 trees during this project and the company and its work received much-needed recognition. Now, their work has expanded to cities like Bengaluru, Vizag, and New Delhi.

While speaking about the prices, which depend mainly on the number of trees, sizes, and the distances to which they have to be moved, Ramachandra tells The News Minute,

If the number of trees is more, the charge decreases considerably. Charges start at around Rs 6,000, but we have also charged Rs 1.5 lakh for one order.

The process involves digging the earth at least 4 feet in diameter and depth around its roots and then treating the roots with chemicals which help in transportation. This process is tiresome and requires a lot of care and attention. Elaborating on this practice and its process, Ramachandra tells The Better India,

In India, apart from Hyderabad, tree translocation is being done in certain parts of Gujarat and in Bangalore too. Trees like gulmohar, neem, jamun, mango, pepul, and other ficus species can be easily translocated. To date, our company has translocated some 5,000 trees and we can easily say that we have achieved a success rate of 80 percent. The process is slow and takes time and what makes it expensive is basically the need to hire earth movers, cranes, and trailers.

Planting new trees is a method we all know will improve the green cover and should definitely be adopted. But in cases where it is not possible, is the practice of translocation not a great alternative?

Tuesday, 28 February 2017

300K transactions and counting, Hashtag Loyalty is disrupting the way offline businesses market

Local offline businesses today struggle to compete against large multi-chain enterprises and online competitors. These businesses spend their time and money on marketing activities that are focused on customer acquisition rather than on retaining their regular customers, even though the latter contribute to as much as 80 percent of their revenues. Dhruv Dewan, Krishi Fagwani and Karan Chechani saw an opportunity in the offline space to assist these businesses. They thought to maximise their revenue by providing them with enterprise grade marketing technology that would be simple, easy to use, and affordable.

Dhruv says, “We wanted to utilise the power of mobile and data to help these businesses focus on the right customers and ensure they kept coming back to their store.”

Together, the trio founded Hashtag Loyalty in March 2015.
Team HashTag Loyalty

Founders’ experience and skills

Twenty six-year-old Dhruv spent two and a half years at Ernst and Young as part of the IT Risk team for financial services. His key focus was on technology governance, risk, security and compliance.

Krishi completed his graduation in mechanical engineering from the University of Illinois Urbana-Champaign. His interests during graduation centred on various aspects of technology and finance. During graduation, Krishi worked with the Illinois Business Consulting Group as well as Accenture. After graduation, he worked with Cisco Systems in the US and then he moved to India to work with EY as an IT Risk and Assurance Analyst. Krishi brings his technology and consulting experience to the table. His project management and consulting experience has helped him map Hashtag Loyalty's business projections along with leading its in-house tech team.

Karan completed his graduation in industrial engineering from Dwarkadas J Sanghvi College of Engineering in Mumbai. During his graduation, Karan worked on different aspects of production at the Larsen & Toubro factories in Mumbai. After graduation, he worked with Godrej Appliances as an R&D engineer. He then moved to Teach For India to work for a cause he was really passionate about and worked as a Fellowship Selection and Training Associate. Karan has a keen eye for design, branding and communication. He brings with him expertise in product building and mapping and actively works on product design and planning and marketing.

What does Hashtag Loyalty exactly do?

It offers a customer engagement and marketing automation solution to local businesses. It currently works with offline businesses in the F&B, wellness and retail sectors. Its solution helps businesses build and manage their loyalty programmes, understand their customers and brings them back again.

Karan shares, "In our early ideation stages, we worked on every part of the product but the name, avoiding the topic until we had no choice. Eventually, the three of us locked ourselves in a room and made sure we got out with a name. This enforced lockdown resulted in Hashtag Loyalty (#Loyalty), a non-invasive yet direct reference to what we do. Loyalty is a direct reference for customers to identify with us and what we do. The Hashtag, meanwhile, signifies the digital connect that we are enabling between customers and businesses."

  • The company provides its businesses a personalised dashboard.
  • It helps them build and manage their loyalty solutions.
  • Run campaigns via email or SMS to reach out their customers whenever they want to.
  • Auto-engage that helps them set up smart triggers that cover automated communication with their customers throughout their life-cycle.
  • Promotions: A customer acquisition feature that helps them acquire relevant customers from our network.
  • Run a direct one-to-one customer feedback system.
  • Enable partnerships with non-competing businesses in their local neighbourhoods to cross acquire customers.

Present market

Hashtag Loyalty currently works within the SMB industry across the retail, wellness and entertainment industries. The retail market in India consists of over 14 million outlets, out of which the organised sector consists of 1.4 million. The retail market in India is valued at $672 billion, of which the loyalty market makes up about 1 percent.

The company has generated Rs 36 lakh in revenue since inception and is currently on track to generate over Rs 26 lakh in this financial year (FY16/17). It is currently seeking Rs 1.5 crore as a seed investment. This will help it grow to over 5,000 outlets, 1.2 million users and generate revenue of Rs 2.4 crore in FY17/18. It should be noted that this figure only refers to revenue from validated sources. Additional revenue sources could increase total revenue by up to 25 percent.

Hashtag Loyalty charges a monthly subscription for each business that it works with. It is a nine-member team today, including the three co-founders.

Monday, 20 February 2017

Three friends join hands to build solutions that help the common man

In a world where apps rule everything, Sigmapeiron Software is looking at technology differently. As a platform that seeks to provide solutions to day-to-day problems, it has currently begun with SeekWiz, a location-tracking device.

We live in an ultra-busy world of working couples, where effective transport within city limits is the need of the hour. While platforms like Ola, Uber, and ZipGo work towards solving the problem of transport, they don’t do away with the hassle of communication during the travel.

It was this problem that 32-year-old software engineer Shrikant Sawant, operations guy Bhushan Bhagwat, and 29-year-old coding expert Chandu Mohan were interested in solving. The trio has been friends for a while. Having been part of IT companies for over 10 years, they decided to take the plunge two years ago.
Team at Sigmapeiron

The beginnings

They started Sigmapeiron with a roadmap of building three products over five years. Bhushan, who has over a decade of experience in his field, says that in today’s day and age, every member of the family is a working professional and has to travel, whether within the city or outside of it.

There is one thing almost every family has — a WhatsApp group that serves as the communication channel. So, every time a member of the family goes to work or starts for home, messages informing each other about the commute are exchanged. It is just the state of “being-in-the-know” that matters.

Taking cue, the trio thought of building a platform which keeps people’s near and dear ones in the loop without the hassle of calls and messages. Says Bhushan,

“Also, we wanted this to be a one-stop shop where the solution will cater to all possible scenarios that satisfy location-sharing requirements.”

Building the road map

Each of the three products they set out to build has its own challenges in terms of technical knowledge, market readiness, and more importantly, being able to fund the products.

“We worked on fine-tuning the road map, doing all the research needed, and gearing ourselves up technically. It was then that the eureka movement just provided us with a solution to an existent problem which just fell into place in terms of all these factors,” says Bhushan.

It was then that SeekWiz, a platform that lets people locate their loved ones without any dependence on location requests, was born.

Through SeekWiz, the team provides customers with a product and service package that includes GPS device installation, cloud infrastructure, data feeding/migration, and the complete setup and configuration of the fleet. This smart fleet responds accurately to the requirements stated by the customer.

The first solution

SeekWiz is sold as an end-to-end solution, which involves Sigmapeiron delivering the complete package to the customer with no overhead and/or hidden costs. The delivery also includes supporting transport personnel, training them and supporting end users (parents/employees) along with a periodic maintenance cycle.

The platform provides accurate live tracking, custom in-app notifications, real-time location updates, and data security. There also is the service of the SeekWiz Command Centre, a dedicated channel to address queries that can come from any entity associated with the customer (transport admin + end users). This command centre can be reached via various channel like the SeekWizDashboard.

By logging an incident and/or a service request, the same is directly reported to an internal self-designed ticketing system that caters to the incident/service request by following stringent same-day resolution criteria. The command centre can be approached via WhatsApp and there also is a hotline where customers can call for immediate incidents.

The model and growing need for tracking

SeekWiz uses the per-subscriber model, which Bhushan says is especially attractive to schools where the SeekWiz subscription is fixed for a long period and the school can account for the expense as part of the transport fees.

There also is a per-tracked-entity model, which Bhushan mentions is perfect for fleet owners who provide vehicles in large numbers to either schools or corporate organisations.

While the team claims to have seen a sales growth of 80 percent from the third quarter of 2016 to the year’s last quarter, location tracking services are fast growing. While SeekWiz and its parent company Sigmapeiron are Pune based, there are several across different parts of the country.

A report by WHO on road safety stated that the mortality rate of children is as high as 19 in 1,00,000. Looking at these alarming statistics, there are several GPS solutions and technology-based companies focused on school bus security like AppAlert, Opal Solutions, ATIC, and startups like Thiruvananthapuram-based TrackSchoolBus and Bengaluru-based Northstar and Purvathana.

Future plans

In terms of further growth, through SeekWiz, Sigmapeiron expects to maintain an estimated growth of 40 percent quarter to quarter on average for current sales engagements. Sigmapeiron is now working on leveraging technology to build a platform which would revolutionise remedial education to help parents and teachers better understand the wards and provide equal opportunity to all students to achieve much more.

They are also working on an IoT-based solution which shall cater to the common man. IoT-related home automation is still being sold as a luxury. “Our aim at Sigmapeiron is to convert this luxury into an affordable solution which is convenient, caters to daily needs, and is essentially a plug-and-play solution,” says Bhushan.