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Monday, 27 March 2017

आँखों की रोशनी चली गई पर सफलता की राह नहीं छोड़ी, बने दुनिया के पहले ‘‘ब्लाइंड ट्रेडर’’

इंसान की ज़िंदगी में मुसीबत किसी भी रूप में कभी भी आ सकती है। कई बार तो इतनी बड़ी मुसीबत आ पड़ती है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कई लोग इन मुसीबतों से इतने परेशान और हताश हो जाते हैं कि उनकी ज़िंदगी से जोश, उम्मीद , विश्वास जैसे जज़बात ही गायब हो जाते हैं। लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि अगर इंसान के हौसले बुलंद हो और उसकी इच्छा शक्ति मजबूत, तो बड़ी से बड़ी मुश्किल भी छोटी लगने लगती है।

मुंबई के आशीष गोयल एक ऐसे ही शख्स का नाम है जिसने बुलंद हौसलों और मजबूद इच्छा शक्ति से ऐसी ही एक अकल्पनीय और बड़ी मुसीबत को मात दी।


आशीष ने अपने जीवन में बड़े-बड़े हसीन और रंगीन सपने देखे थे। उसे पूरा भरोसा भी था कि वो अपनी काबिलियत के बल पर अपने सपने साकार कर लेगा। लेकिन, उसकी ज़िंदगी में एक ऐसी बड़ी मुसीबत आयी जिसकी कल्पना वो अपने सबसे बड़े दुस्स्वप्न में भी नहीं कर सकता था। ९ साल की उम्र में उसकी आँखों से रोशनी कम होने लगी। रोशनी लगातार कम होती गयी। २२ साल की उम्र में आशीष पूरी तरह दृष्टिहीन हो गया। लेकिन, उसने हार नहीं मानी और आगे बढ़ा। पढ़ाई-लिखाई की। दृष्टिहीनता को अपनी प्रगति में बाधक बनने नहीं दिया। और, आशीष ने जो कामयाबी हासिल की वो आज लोगों के सामने प्रेरणा का स्रोत बनकर खड़ी है।

आशीष गोयल का जन्म मुंबई में हुआ। परिवार संपन्न था और माता-पिता शिक्षित थे। जन्म के समय आशीष बिलकुल सामान्य था। बचपन में उसकी दिलचस्पी पढ़ाई-लिखाई में कम और खेल-कूद में ज्यादा थी। खेलना-कूदना उसे इतना पसंद था कि उसने महज़ पांच साल की उम्र में तैरना, साइकिल चलाना, निशाना लगाना और घोड़े के सवारी करना सीख लिया था। आशीष को क्रिकेट में भी काफी दिलचस्पी थी। उसका मन करता कि वो सारा दिन क्रिकेट के मैदान में ही बिताये। लेकिन, उसका सपना था टेनिस का चैंपियन खिलाड़ी बनना।

लेकिन, जब आशीष ९ साल का हुआ तब अचानक सब कुछ बदलने लगा। सब कुछ असामान्य होने लगा। डाक्टरों ने आशीष की जांच करने के बाद उसके माता-पिता को बताया कि आशीष को आँखों की एक ऐसी बीमारी हो गयी है जिससे धीरे-धीरे उसके आँखों की रोशनी चली जाएगी। और हुआ भी ऐसे ही। धीरे-धीरे आशीष के आँखों की रोशनी कम होती गयी। टेनिस कोर्ट पर अब उसे दूसरे पाले की गेंद नहीं दिखाई देते थी। किताबों की लकीरें भी धुंधली होने लगी। धीरे-धीरे उसे पास खड़े अपने माता-पिता भी ठीक से नहीं दिखने लगे। अचानक सब कुछ बदल गया। एक प्रतिभाशाली और होनहार बालक की दृष्टि अचानक ही कमज़ोर हो गयी । आँखों पर मोटे-मोटे चश्मों के बावजूद उसे बहुत ही कम दिखाई देता था। दृष्टि कमज़ोर होने ही वजह से आशीष को मैदान से दूर होना पड़ा। खेलना-कूदना पूरी तरह बंद हो गया।

अचानक ही आशीष अलग -थलग पड़ गया। उसके सारे दोस्त सामान्य बच्चों की तरह काम-काज, पढ़ाई-लिखाई और खेलकूद कर रहे थे। लेकिन, आशीष अक्सर ठोकरें खाता, चलते-चलते गिर-फिसल जाता। सब कुछ धुंधला-धुंधला हो गया। सपने भी अन्धकार में खो गये। चैंपियन बनना तो दूर की बात मैदान पर जाना भी मुश्किल हो गया।फिर भी आशीष ने माँ-बाप की मदद और उनके परिश्रम की वजह से पढ़ाई-लिखाई जारी रही।

बड़ी मेहनत से स्कूल की पढ़ाई पूरी कर आशीष जब कालेज पहुंचा तो उसके लिए रास्ते और भी मुश्किल-भरे हो गये। उसके सारे दोस्त और साथी अपने भविष्य और करियर को लेकर बड़ी-बड़ी योजनाएँ बना रहे थे। कोई बड़ा खिलाड़ी बनाना चाहता , तो कोई इंजीनियर। कईयों ने डाक्टर बनने के इरादे से पढ़ाई आगे बढ़ाई।

लेकिन, लगातार कमजोर होती आँखों की रोशनी आशीष की परेशानियां बढ़ा रही थी। दृष्टिहीनता की वजह से वो न खिलाड़ी बन सकता था और न ही इंजीनियर या फिर डाक्टर। उसके लिए भविष्य और भी मुश्किलों से भरा नज़र आ रहा था।

किशोरावस्था में दूसरे दोस्त जहाँ पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ मौज़-मस्ती कर रहे थे , आशीष अकेला पड़ गया था। नए सामजिक माहौल में एकाकी होकर मानसिक पीड़ा का अनुभव कर रहा था आशीष। वो अक्सर 'भगवान' से ये सवाल पूछने लगा कि आखिर उसी के साथ ऐसा क्यों हुआ ?

इसी अवस्था में आध्यात्मिक गुरु बालाजी ताम्बे के वचनों ने आशीष में एक नयी उम्मीद जगाई। उन्होंने आशीष से कहा कि समस्या को सिर्फ समस्या की तरह मत देखो , समस्या का हल निकालने की कोशिश करो। इस कोशिश से ही कामयाबी मिलेगी। आध्यात्मिक गुरु ने आशीष से ये भी कहा कि उसकी सिर्फ एक ही इन्द्रीय ने काम करना बंद किया है और शरीर के बाकी सारे अंग बिलकुल ठीक हैं। इस वजह से उसे अपने बाकी सारे अंगों का सदुपयोग करते हुए आगे बढ़ना चाहिए ना कि निराशा में जीना।

आध्यात्मिक गुरु की इन बातों से प्रभावित आशीष ने नयी उम्मीदों, नए संकल्प और नए उत्साह के साथ काम करना शुरू किया। आशीष ने दृष्टिहीनता पर अफ़सोस करने के बजाय जिंदगी में कुछ बड़ा हासिल करने की ठान ली। दृष्टिहीनता के बावजूद आशीष ने नए सपने संजोये और उन्हें साकार करने के लिए मेहनत करना शुरू किया।

आशीष के माता-पिता के अलावा एक और बहन ने पढ़ाई में उसकी मदद की। ये बहन आगे चलकर डर्मिटोलॉजिस्ट बनीं। बिज़नेस, इकोनॉमिक्स और मैनेजमेंट की पढ़ाई में आशीष की मदद करते करते ये बहन भी इन विषयों की जानकार बन गयी।

लेकिन, आशीष की दूसरी बहन गरिमा भी उसी बीमारी का शिकार थी जिसने आशीष की आँखों की रोशनी छीनी थी। आशीष की तरह ही गरिमा ने भी अपने परिवारवालों की मदद से पढ़ाई-लिखाई जारी रखी और आगे चलकर लेखक-पत्रकार बनीं। गरिमा अब आयुर्वेदिक डाक्टर हैं और इन दिनों आध्यात्मिक गुरु बालाजी तांबे की संस्था में काम कर रही हैं।

ये आशीष की मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि उसने मुंबई के नरसी मोनजी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट स्टडीज की अपनी क्लास में सेकंड रैंक हासिल किया। आशीष को उसके शानदार प्रदर्शन के लिए डन एंड ब्रैडस्ट्रीट बेस्ट स्टूडेंट अवार्ड दिया गया। लेकिन, नरसी मोनजी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट स्टडीज में प्लेसमेंट के दौरान एक कॉर्पोरेट संस्था के अधिकारियों ने आशीष को सरकारी नौकरी ढूंढने की सलाह दी थी। इन अधिकारियों का कहना था कि केवल सरकार नौकरियों में विकलांग लोगों के लिए आरक्षण होता है। चूँकि आशीष को अपने आध्यात्मिक गुरु की बातें याद थीं वो निराश नहीं हुआ और अपने काम को आगे बढ़ाया। आशीष को उसकी प्रतिभा के बल पर आईएनजी वैश्य बैंक में नौकरी मिल गयी। लेकिन , इस नौकरी ने आशीष को पूरी तरह से सन्तुष्ट नहीं किया। वो ज़िंदगी में और भी बड़ी कामयाबी हासिल करने के सपने देखने लगा।

आशीष ने नौकरी छोड़ दी और उन्नत स्तर की पढ़ाई के लिए अमेरिका के व्हार्टन स्कूल ऑफ बिजनेस में दाखिल लिया। बड़े और दुनिया-भर में मशहूर इस शैक्षणिक संस्थान से आशीष ने एमबीए की पढ़ाई की। महत्वपूर्ण बात ये है कि व्हार्टन स्कूल ऑफ बिजनेस में दाखिला पाना आसान बात नहीं है। अच्छे से अच्छे और बड़े ही तेज़ विद्यार्थी भी इस संस्थान में दाखिल पाने से चूक जाते हैं।

एमबीए की डिग्री हासिल करने के बाद आशीष को दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित बैंकिंग संस्थानों में एक जेपी मोर्गन के लंदन ऑफिस में नौकरी मिल गयी। आशीष जेपी मोर्गन में काम करते हुए दुनिया का पहला दृष्टिहीन ट्रेडर बन गया। ये एक बड़ी कामयाबी थी। इस कामयाबी की वजह से आशीष का नाम दुनिया-भर में पहले दृष्टिहीन ट्रेडर का रूप में मशहूर हो गया। दृष्टिहीनता को आशीष ने अपनी तरक्की में आड़े आने नहीं दिया। अपनी प्रतिभा और बिज़नेस ट्रिक्स से सभी को प्रभावित किया। अपने बॉस को भी कभी निराश होने नहीं दिया।

2010 में आशीष को विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा आशीष को एक समारोह में ये पुरस्कार दिया गया। आशीष को कई संस्थाओं ने भी सम्मान और पुरस्कार दिए। आशीष के बारे में एक दिलचस्प बात ये भी है कि वे नेत्रहीनों के लिए बनाई जाने वाली छड़ी का बहुत बढ़िया तरीके से इस्तेमाल करते हैं। और तो और उनकी बहन गरिमा तो छड़ी का इस्तेमाल ही नहीं करतीं। कई बार कई लोगों को शक होता है कि गरिमा वाकई दृस्तिहीन हैं या नहीं।

आशीष और गरिमा दोनों इन दिनों विकलांग लोगों को उनकी ताकत का एहसास दिलाने के लिए अपनी और से हर संभव प्रयास कर रहे हैं। दोनों का कहना है कि विज्ञान और प्रोद्योगिकी में इतनी तरक्की हो गयी है कि विकलांग व्यक्तियों को अब पहले जितनी तकलीफें नहीं होतीं।

एक और महवपूर्ण बात दृष्टिहीन होने के बावजूद आशीष स्क्रीन रीडिंग सॉफ्टवेयर की मदद से कंप्यूटर पर अपने ई मेल पढ़ते है। सारी रिपोर्ट्स का अध्ययन करते हैं। दूसरों के प्रेजेंटेशन समझ जाते हैं। और तो और अरबों रुपयों के ट्रांसक्शन्स की जानकारी रखते हैं और उन्हें संचालित भी। फुर्सत के समय में आशीष दूसरे दृष्टिहीन लोगों के साथ क्रिकेट खेलते हैं और टैंगो भी बजाते हैं। अपने कुछ दोस्तों के साथ वे क्लब जाकर पार्टी भी करते हैं।

जज्बा और जुनून का दूसरा नाम ‘‘गोदावरी सिंह’’, 35 साल से जुटे हैं काशी की अनोखी कला को बचाने में

कहते हैं एक समाज दुनिया का है, एक समाज देश का, एक अमीरों का, एक गरीबों का और एक जाति का समाज है। लेकिन इन सब समाजों से भिन्न एक समाज है बनारस का। सबसे अलग सबसे अलहदा। धर्म, संस्कृति, संगीत, साहित्य, कला और इन सबके साथ हर सांस में बहने वाली गंगा। दुनिया के सबसे पुराने शहरों में शुमार इस नगरी की हर चीज़ अलग और अपने ढंग की है। सोलह महाजनपदों में आने वाले इस शहर की हवा में कुछ तो ऐसा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही काम करते लोगों का उत्साह कभी कम नहीं होता। ऐसी ही एक कला है जिस पर हर बनारसी को फ़क्र है। आज भी उस कला का डंका पूरी दुनिया में बजता है। इस कला ने पूरी दुनिया में बनारस को एक अलग पहचान दी। काष्ट कला यानी लकड़ी के खिलौने का कारोबार। जी हां, हमारी नई पीढ़ी के लिए लकड़ी के खिलौने जरुर नए हों, लेकिन हममें से बहुत से ऐसे लोग होंगे, जिनका बचपन इन खिलौनों के साथ बीता होगा। कभी गुड्डे -गुड़िया तो कभी राजा-रानी की शक्ल में ये खिलौने बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करते थे। घर की आंगन में लट्टू नचाते और खड़खड़ऊवा बजाते बच्चों का शोर आज भी हमारे कानों में सुनाई पड़ता है। लेकिन वो दिन अब लद चूके हैं। आधुनिकता के इस दौर में लकड़ी के खिलौनों की जगह प्लास्टिक के बने महंगे खिलौनों ने ले ली। बच्चों की पसंद लकड़ी के बने गुड्डे गुड़िया नहीं बल्कि प्लास्टिक के बने ट्वॉय और टैडीवियर्स है। बदले दौर का ही असर है कि काशी की ये नायाब कला लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी है। ऐसे में दम तोड़ते खिलौना उद्योग को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं 75 साल के गोदावरी सिंह। उम्र के आखिर मंजिल पर खड़े गोदावरी सिंह को यकीन है वक्त फिर बदलेगा। फिर घर-घर में लकड़ी के खिलौने होंगे। गोदावरी सिंह के संघर्ष की गाथा आपको बताए, इससे पहले बनारस के इस बेमिसाल कला से आपको वाकिफ करा देते हैं....


दरअसल बनारस दुनिया का ऐसा इकलौता शहर है, जहां दस्तकारी के साथ हाथ का काम करने के तकरीबन 60 तरह के दूसरे कारोबार सदियों से देश ही नहीं, बल्कि दुनिया में अपनी धाक जमाये हुए थे, लेकिन आज इनमें से ज़्यादातर कारोबार या तो बंद हो गए या बंद होने की कगार पर हैं। इन्हीं में से एक है बनारस का लकड़ी के खिलौनों का कारोबार। अगर हम इन खिलौनों की बात करें तो इनकी बनावट इतनी सुन्दर होती है कि ये आपसे बात करते नज़र आते हैं। यही वजह है कि अपनी तरफ बरबस खींचते ये खिलौने अगर बोल सकते तो अपने गढ़ने वाले की बेबसी भी ज़रूर बयां करते। इन खिलौनों को गढ़ने वाले कलाकार आज मुफलिसी में जी रहे हैं। कभी अरबों में होने वाला ये कारोबार अब लाखों तक सिमट गया है। 


ऐसे में गोदावरी सिंह संकटमोचक बन कर इस पुराने कारोबार को बचाने में जुटे हैं। इस कारोबार की उखड़ती सांसों को बचाने के लिए गोदावरी सिंह ने हर वो जतन किए, जो उनसे हो पा रहा है। गोरखपुर के रहने वाले गोदावरी सिंह आज से लगभग साठ साल पहले बनारस के कश्मीरीगंज मोहल्ले में पहुंचे थे। गोदावरी सिंह के दादा और उनके पिता इसी कारोबार से जुड़े थे। पिता और दादा की सरपरस्ती में ही गोदावरी सिंह ने इस कारोबार की बारीकियों को सीखा। कुछ दिनों तक तो सब ठीक चला, लेकिन फिर अचानक खिलौनों का शोर गुम होने लगा। मंदी और आधुनिकता की काली छाया ने काशी के इस कारोबार पर ग्रहण लगा दिया। 1980 के दशक के बाद से लकड़ी के खिलौना का कारोबार तेजी से घटने लगा। ऐसे में इस डूबते कारोबार को बचाने के लिए गोदावरी सिंह आगे आए। उन्होंने इस उद्योग को अपनी जिंदगी का मिशन बनाया। 75 साल के बुजुर्ग गोदावरी सिंह करीब 35 सालों से दिन रात, खत्म होती इस कला को बचाने में लगे हैं।


गोदावरी सिंह हर उस दरवाजे पर दस्तक देते हैं, जहां से उन्हें थोड़ी सी भी उम्मीद की किरण नजर आती है। गोदावरी सिंह हर उस शख्स से मिलते हैं, जिससे उन्हें मदद की आस जगती है। बनारस में ट्वॉय मैन के रुप में मशहूर गोदावरी सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दरबार में अर्जी लगाई। उन्होंने अपने सांसद और देश के पीएम नरेंद्र मोदी से लुप्त होती इस कला को बचाने की गुहार लगाई। गोदावरी सिंह ने योरस्टोरी को बताया, 
"पिछले एक साल में मैं नरेंद्र मोदी से दो बार मिल चुका हूँ। काशी प्रवास के दौरान मोदी जी ने मुझे मिलने के लिए बुलाया था। मुलाकात के दौरान उन्होंने मेरी बातें गौर से सुनीं और इस कारोबार को बचाने का वादा किया, लेकिन अफसोस है कि अब तक कोई ठोस काम नहीं हुआ है। हालांकि मुझे उम्मीद है कि मोदी साहब मेरे जैसे हज़ारों कारीगरों को मायूस नहीं करेंगे" 


दरअसल लकड़ी के खिलौना कारोबार से बनारस के लगभग तीन हजार कारीगर जुड़े हैं। शहर के कश्मीरीगंज, खोजवां, भेलूपुर, सरायनंदन इलाके में ये कारोबार दशकों से होता चला आया है। लेकिन अब इन कारीगरों के आगे रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है। इस कारोबार के पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण सरकार की उदासीनता है। पिछले कुछ सालों से इन खूबसूरत खिलौनों को बनाने में इस्तेमाल होने वाली कोरइया की लकड़ी की कटाई पर सरकार ने रोक लगा दी। हैरानी की बात यह कि इस लकड़ी का किसी दूसरी चीज में इस्तेमाल भी नहीं होता, बावजूद इसके इस पर रोक लगा दी गई। लिहाजा अब यूकेलिप्टस की लकड़ी का इस्तेमाल होने लगा जिससे खिलौने से चमक गायब हो गई.. इसका परिणाम यह हुआ कि जो खिलौने सदियों से बच्चों को पसंद आते थे, अचानक वो अपनापन खत्म हो गया। गोदावरी सिंह बताते हैं, "सरकार अगर चाहे तो ये कारोबार फिर से खड़ा हो सकता है, लेकिन उसकी नीतियों से शायद ऐसा नहीं लगता।" 


इन कठिनाईयों के बावजूद गोदावरी सिंह हार मानने वालों में नहीं है। पिछले 35 सालों से उनका संघर्ष लगातार जारी है। उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि साल 2005 में गणतंत्र दिवस की झांकी में यूपी की ओर से लकड़ी के खिलौना उद्योग को थीम बनाया गया। इस झांकी में खुद गोदावरी सिंह अपनी पत्नी के साथ मौजूद थे। बेहतरीन कला के लिए इस झांकी को तीसरा स्थान मिला और पूरे देश में यूपी का डंका बजा। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें सम्मान से नवाजा। कला के क्षेत्र में उत्कृष्ठ काम के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और चंद्रशेखर ने भी सम्मानित किया। 


गोदावरी सिंह का जुनून और जज्बा ही है कि उन्होंने इस कला को बचाने के लिए एक समिति बनाई। खुद के पैसे से 300 से ज्यादा लोगों को प्रशिक्षित किया। उन्हें खिलौना बनाने में इस्तेमाल किए जाने वाले औजार दिए। मशीनें लगवाई और आज हजारों लोगों के लिए मसीहा बन चुके हैं। गोदावरी सिंह के संघर्षों का ही असर है कि अब लकड़ी का खिलौना कारोबार बनारस के कारीगरों की बौद्धिक संपदा बन चुकी है। मार्च 2015 में कुछ समाजिक संगठनों की मदद से गोदावरी सिंह ने इस कला को पेटेंट करा लिया। गोदावरी सिंह की चाहत यही है कि ये कारोबार फिर से खड़ा हो जाए। इसके लिए गोदावरी सिंह घर की नई पीढ़ी को आगे ला रहे हैं। अपने बूढ़े नाना के ख्वाबों को पूरा करने के लिए उनका नाती उदयराज लगा हुआ है। एमबीए की पढ़ाई करने वाला उदयराज अब इस कारोबार को हाईटेक करने में लगा हुआ है। आम तौर पर इस कारोबार में गरीब और मजदूर तबके के लोग जुड़े हैं, लिहाजा इसकी मार्केटिंग और ब्रांडिंग नहीं होती पाती।


लेकिन जब से गोदावरी सिंह की नई पीढ़ी इस कारोबार से जुड़ी है, उन्हें एक उम्मीद बंधी है। गोदावरी सिंह की मेहनत का ही असर है कि वाराणसी के फाइव स्टार होटल गेटवे इन ने भी अपनी एक गैलरी काशी की इस अनोखी कला के नाम कर दिया। अब पूरे साल गैलरी में इस कला की नुमाइश होती है। यही कारण है कि बाहर से आने वाले सैलानी भी लकड़ी के खिलौनों में दिलचस्पी ले रहे हैं। यकीनन ये कला हमेशा ही गोदावरी सिंह की मेहनत और उनके जज्बे की कर्जदार रहेगी। उम्मीद है कि काशी की इस कला में गोदावरी सिंह ने जो रंग भरे है, वक्त के साथ वो और गाढ़ा होता जाएगा।

गरीबी के थपेड़े खाते हुए भी निस्सहायों की मदद कर मणिमारन ने कायम की अनोखी मिसाल

कुष्ट रोग से पीड़ित कई लोगों को दिया नया जीवनबेसहारा लोगों का सहारा बनकर खुशियाँ बांटीबचपन में ही ले लिया था समाज-सेवा का संकल्प|आम तौर पर कई लोगों में ये धारणा बनी हुई है कि समाज-सेवा के लिए खूब धन-दौलत की ज़रुरत होती है। जिनके पास रुपये हैं वे ही ज़रूरतमंद लोगों की मदद कर समाज-सेवा कर सकते हैं। लेकिन, इस धारणा को तोड़ा है तमिलनाडू के एक नौजवान ने। इस नौजवान का नाम है मणिमारन।



मणिमारन का जन्म तमिलनाडू में तिरुवन्नामलई जिले के थलयमपल्लम गाँव के एक किसान परिवार में हुआ। परिवार गरीब था - इतना गरीब कि उसकी गिनती गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों में होती थी। गरीबी के बावजूद घर के बड़ों ने मणिमारन को स्कूल भेजा। पिता चाहते थे कि मणिमारन खूब पढ़े और अच्छी नौकरी पर लगे। लेकिन, आगे चलकर हालत इतने खराब हो गए कि मणिमारन को बीच में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। गरीबी की वजह से मणिमारन ने नवीं कक्षा में पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और घर-परिवार चलाने में बड़ों की मदद में जुट गए। मणिमारन ने भी उसी कपड़ा मिल में नौकरी करनी शुरू की जहाँ उनके भाई नौकरी करते थे। मणिमारन को शुरूआत में एक हज़ार रुपये प्रति माह की तनख्वा पर काम दिया गया।

मणिमारन ने अपनी मासिक कमाई का आधा हिस्सा अपने पिता को देना शुरू किया। उन्होंने आधा हिस्सा यानी ५०० रुपये ज़रूरतमंद लोगों की मदद में लगाया ।

बचपन से ही मणिमारन को ज़रूरतमंद और निस्सहाय लोगों की मदद करने में दिलचस्पी थी। मणिमारन का परिवार गरीब था और परिवारवालों के लिए ५०० रुपये काफी मायने रखते थे। लेकिन, मणिमारन पर ज़रूरतमंदों की मदद करने का जूनून सवार था। मणिमारन ५०० रुपये अपने लिए भी खर्च कर सकते थे। नए कपड़े , जूते और दूसरे सामान जो बच्चे अक्सर अपने लिए चाहते हैं वो सभी खरीद सकते थे। लेकिन, मणिमारन के विचार कुछ अलग ही थे। छोटी-सी उम्र में वे थोड़े से ही काम चलाना जान गए थे और उनकी मदद को बेताब थे जिनके पास कुछ भी नहीं है।

अपनी मेहनत की कमाई के ५०० रुपये से मणिमारन ने सड़कों, गलियों , मंदिरों और दूसरी जगहों पर निस्सहाय पड़े रहने वाले लोगों की मदद करना शुरू किया। मणिमारन ने इन लोगों में कम्बल, कपड़े और दूसरे ज़रूरी सामान बांटे । मणिमारन ने कई दिनों ऐसे ही अपनी कमाई की आधा हिस्सा ज़रूरतमंद लोगों में लगाया।

गरीबी के उन हालातों में शायद ही कोई ऐसा करता। परिवारवालों ने भी मणिमारन को अपनी इच्छा के मुताबिक काम करने से नहीं रोक। मणिमारन ने ठान ली थी कि वो अपनी ज़िंदगी किसी अच्छे मकसद के लिए समर्पित करेंगे।

इसी दौरान एक घटना ने मणिमारन के जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल दी।

एक बार मणिमारन कोयंबटूर से तिरुपुर जा रहे थे। सफर बस से था। बस में कुछ खराबी आने की वजह से उसे ठीक करने के लिए उसे बीच रास्ते में ही रोका गया। बस में बैठे मणिमारन ने देखा कि एक बूढ़ी महिला,जो कि कुष्ठ रोग से पीड़ित थी, लोगों से पीने के लिए पानी मांग रही थी। उसके हाव-भाव से साफ़ था कि वो प्यासी है। लेकिन, इस प्यासी बुढ़िया की किसी ने मदद नहीं की। उलटे, लोग बुढ़िया को दूर भगाने लगे। कोई उसे सुनने को भी तैयार नहीं था। इतने में ही मणिमारन ने देखा कि वो बुढ़िया अपनी प्यास बुझाने के लिए एक नाले के पास गयी और वहीं से गन्दा पानी उठाने लगी। ये देख कर मणिमारन उस बुढ़िया के पास दौड़ा और उसे गंदा पानी पीने से रोका।

मणिमारन ने जब ये देखा कि बुढ़िया की शारीरिक हालत भी काफी खराब है और कुष्ट रोग की वजह से उसके शरीर पर कई ज़ख़्म है उसका दिल पसीज गया। उसने उस बूढ़ी महिला का मुँह साफ़ किया और उसे साफ़ पानी पिलाया। इस मदद से खुश उस महिला ने मणिमारन को अपने गले लगा लिया और गुज़ारिश की वो उसे अपने साथ ले चले। मणिमारन उस महिला को अपने साथ ले जाना चाहते थे लेकिन उस समय वो ले जाने की हालत में नहीं थे। इस वजह से मणिमारन ने एक ऑटो ड्राइवर को ३०० रूपए दिया और उससे दो दिन तक महिला की देखभाल करने को कहा। मणिमारन ने महिला भरोसा दिलाया वो तीसरे दिन आकर उन्हें अपने साथ ले जाएगा।

मणिमारन जब उस महिला को लेने उसी जगह पहुंचे तो वो वहां नहीं थी। मणिमारन ने महिला की तलाश शुरू की , लेकिन वो कई कोशिशों के बावजूद नहीं मिली। मणिमारन बहुत निराश हुए।

यहीं से उनके जीवन की दिशा बदली। मणिमारन ने एक बड़ा फैसला लिया। फैसला लिया- कुष्ट रोग से पीड़ित लोगों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने का । फिर क्या था अपने संकल्प के मुताबिक मणिमारन ने कुष्ट रोग से पीड़ित लोगों की मदद करना शुरू किया। जहाँ कहीं उन्हें कुष्ट रोग से पीड़ित लोग निस्सहाय स्थिति में दिखाई देते वे उन्हें अपने यहाँ लाकर उनकी मदद करते। मणिमारन ने इन लोगों का इलाज भी करवाना शुरू किया।

उन दिनों लोग कुष्ट रोग से पीड़ित लोगों को बहुत ही हीन भावना से देखते थे। कुष्ट रोग से पीड़ित होते ही व्यक्ति को घर से बाहर निकाल दिया जाता। इतना ही नहीं एक तरह से समाज भी उनका बहिष्कार करता। कोई भी उनकी मदद या फिर इलाज के लिए आगे नहीं आता। कुष्ट रोग से पीड़ित लोगों को छूने से भी लोग कतराते थे। अक्सर ऐसे लोग सड़कों या फिर मंदिरों के पास निस्सहाय हालत में भीख मांगते नज़र आते। मणिमारन ने ऐसी ही लोगों की मदद का सराहनीय और साहसी काम शुरू किया।

मदर थेरेसा और सिस्टर निर्मल का भी मणिमारन के जीवन पर काफी प्रभाव रहा है।

जब भारत के जाने-माने वैज्ञानिक डॉ अब्दुल कलाम को मणिमारन की सेवा के बारे में पता चला तो उन्होंने मणिमारन को एक संस्था खोलने की सलाह दी। इस सलाह को मानते हुए मणिमारन ने अपने कुछ दोस्तों के सहयोग से साल २००९ में वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर की स्थापना की।

इस संस्था की सेवाओं के बारे में जब तमिलनाडू सरकार को पता चला तब सरकार की ओर से ज़रूरमंदों की मदद में सहायक सिद्ध होने के लिए मणिमारन को जगह उपलब्ध कराई गयी।

मणिमारन ने वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर के ज़रिये जिस तरह से गरीब और ज़रूरतमंदों की सेवा की उसकी वजह से उनकी ख्याति देश-भर में ही नहीं बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भी होने लगी। उनके काम के बार में जो भी सुनता वो उनकी प्रसंशा किया बिना नहीं रुकता। अपनी इस अनुपम और बड़ी समाज-सेवा की वजह से मणिमारन को कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। इस बात में दो राय नहीं कि गरीबी से झूझते हुए भी जिस तरह से मणिमारन ने लोगों की सेवा की है वो अपने आप में गज़ब की मिसाल है।

दवाई से मरता जीवन

स्वस्थ लोगों के मन मे अगर यह बैठा दिया जाए की वे बीमार है तो काफी पैसा बनाया जा सकता है। दवाई निर्माता कई वर्षों से यह खेल आम जनता के साथ खेल रहे है। साधारण मनुष्य के शरीर मे कई रासायनिक क्रियाओं की वजह से बुखार, जुखाम, सर्दी आम बात है। आमतौर पर यह हमारे शरीर को और मजबूत बनाने का कार्य करती है। बुखार मे हमारे शरीर से कई तरह के टोकसीन्स शरीर से बाहर निकलते है, पर जब हम दवाई लेकर इस क्रिया को रोक देते है तो यह टोकसीन्स हमारे शरीर मे ही रह जाते है। जिसका असर हमे लंबे समय बाद किसी बड़ी और जानलेवा बीमारी के रूप मे दिखाई देता है। परंतु दवाई निर्माता भय दिखाकर इस आम शारीरिक क्रिया को बीमारी के रूप मे परिभाषित करने का काम कर रहे है।


इसके माध्यम से वे अपने बाज़ार का विस्तार करते है और लोगों के जीवन के साथ खेलते है। अगर हम थोड़ा सा भी शोध करे तो हम जान सकते है की किस प्रकार ये दवाई निर्माता इस अनैतिक और अमानवीय कार्य को अंजाम दे रहे है। वे भय दिखाकर कर हमे दवाई लेने पर मजबूर करते है, हमारे शरीर मे नयी बीमारियों को जन्म देते है, फिर उन्हीं बीमारियों के इलाज के लिए अमानवीय तरीकों से दवाइयों का निर्माण करते है। उनका उद्देश्य सिर्फ मुनाफा कमाना रह गया है जबकि एक समय यह हमारे समाज सेवा का कार्य हुआ करता था। इस खेल मे देवता का दर्जा प्राप्त कई सारे चिकित्सक उनका पूरा साथ देते है। वे अपना कमिशन लेकर लोगों को किसी विशेष कंपनी की दवाई लेने को कहते है और बीमार करने का काम करते है जिससे उनकी दुकाने चल सकें। शायद आपको लग सकता है की मुझे हर व्यवस्था के खिलाफ लिखने की आदत हो गयी है। इसीलिए मैं इस पवित्र पेशे को बदनाम कर रहा हूँ। पर मैं जो भी लिख रहा हूँ अपने व्यक्तिगत अनुभव से लिख रहा हूँ। मैंने पिछले 5 सालों से कोई दवाई नहीं ली है और मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूँ। मैं खुदकों पहले से कई बेहतर महसूस कर रहा हूँ।

विपिन गुप्ता को भी कभी दवाइयों पर पूरा भरोसा था। वे खुद दवाई निर्माता कंपनियों के लिए शोध करते थे। विश्व की कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों मे उनके शोध को पढ़ाया जाता है। उन्होने कुछ नोबल पुरस्कार प्राप्त शोधकर्ताओं के साथ भी काम किया है। पर कुछ वर्ष पहले इन कंपनियों के कार्य करने के तरीकों पर उन्हें शक होने लगा। उन्होने मन मे इन प्रक्रियाओं पर कई सारे सवाल उठने लगे थे। उन्होने जब इस पर शोध करना शुरू किया तो धीरे-धीरे उनके सामने कई सारी सच्चाइयाँ सामने आने लगी। अपनी शोध मे उन्होने पाया की हर जीवित प्राणी की दो खासियत होती है। पहली प्रजनन(reproduction) की और दूसरी खुद के शरीर को स्वयं ठीक(repair) करने की। बशर्ते है की हमे शरीर को सही वातावरण और जीवनशैली उपलब्ध करवानी होगी। जब उन्हें यह मालूम पड़ा तब वे खुद के जीवन के साथ कई सारे प्रयोग करने लगे। वे अपनी नौकरी छोड़कर अपने जीवन को प्रकृति के करीब ले जाने की कोशिश करने लगे। जहाँ वे कोशिश कर रहे है की कैसे उनके शरीर को सही वातावरण मिल सके व कैसे उनकी जीवनशैली इस तरह हो सकें जहाँ उन्हे दवाइयों का गुलाम बनकर न जीना पड़े।


अपनी कोशिश को एक कदम आगे ले जाते हुए उन्होने देश के कई हिस्सों मे शिविर भी आयोजित किए। इन शिविरों के माध्यम से इन्होने लोगों से सीधे संपर्क किया, मधुमेह, रक्तचाप, हृदय जैसी कई सारी जीवनशैली संबंधी बीमारियों का बिना किसी दवाई का प्रयोग किए हुए इलाज़ किया है। इसी काम को आगे ले जाने के लिए उन्होने भोपाल के पास सेहतवन नाम की एक जगह शुरू की है जहाँ वे लोगों की जीवनशैली और खान-पान मे मामूली बदलाव करते हुए इन बीमारियों का इलाज़ कर रहे है।


वे कहते है कि “यह सब काम करते हुए एक बात जो मुझे समझ आयी है कि हमारे आस-पास दो तरह का पर्यावरण होता है। एक बाहरी, जिसमे पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, हवा-पानी आदि होते है और दूसरा जो हमारे शरीर के भीतर होता है जिसमे कई सारे जीव-जन्तु रहते है। इन्हे हम वैज्ञानिक भाषा मे माइक्रोबायोम(microbiom) और आम भाषा मे जर्म्स(germs) कहते है। यह हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते है। यह हमारे शरीर के लिए उतने ही आवश्यक है जितना कि हमारा बाहरी पर्यावरण है। यह विडम्बना ही है कि हम खुद ही इनका विनाश कर रहे है। पिछले 15-20 वर्षों से हमारे आस-पास विज्ञापनों के माध्यम से ऐसा माहौल बना दिया गया है कि हम इन्हे बुरा मानने लगे है। इन्हे मारने के लिए हम कई सारे सेनेटाइजर्स, साबुन, दवाइयों आदि का प्रयोग करने लगे है। इन वस्तुओं का प्रयोग करने कि वजह से हम धीरे-धीरे अपने ही शरीर को खोखला करते जा रहे है। हम सेहतवन मे लोगों के साथ इन्हीं सब विषयों पर चर्चा करते हुए उन्हे एक ऐसा माहौल और जीवनशैली से अवगत कराते है, जहाँ वे बाहर के पर्यावरण के बीच मे रहते हुए अपने भीतर के पर्यावरण को फिर से सजीव बनाने कि कोशिश करते है। हमे इसके कई नाटकीय नतीजे भी मिले है जहाँ लोगों कि मधूमेह, रक्तचाप जैसी जानलेवा बीमारिया ठीक हो गयी है। यही नहीं अगर सही जीवनशैली को अपनाया जाए तो कैंसर जैसी बीमारियों को भी हम ठीक कर सकते है।”

चलो वापस कृषि कि ओर

विवेक चतुर्वेदी के लिए एक समय पैसा ही सबकुछ था। उनका अपना व्यापार था, उस व्यापार से और अधिक पैसा कमाने की धुन में, उन्होने अपना समस्त जीवन उसमे झोंक रखा था। पैसा ही कमाने के लिए उन्होने कुछ साल पहले एक जमीन के टुकड़े मे निवेश किया था। जमीन खरीदने के कुछ समय बाद उन्हे “जीवन विद्या” नामक एक कार्यशाला मे भाग लिया था। इस कार्यशाला ने उन्हे जीवन के विभिन्न आयामों को देखने की एक दृष्टि प्रदान की। यहीं से उनके जीवन की एक नयी यात्रा की शुरुआत हुई, जहाँ रुपयों-पैसों से परे जाकर वे वास्तविक वस्तुओं के मूल्यों को समझने का प्रयास करने लगे।


वो कहते है की “जब मैं इस दिशा मे चिंतन-मनन कर रहा था तब मुझे समझ आया कि यह रुपया जो मैंने अभी तक कमाया है, जिसके पीछे पूरा मानव समाज भाग रहा है वो महज मानव की एक कल्पना मात्र है। यह एक माध्यम है जिससे हम अपनी जरूरतें पूरी कर सकते है। असली मूल्य तो उन वस्तुओं का है जिन्हें हम इससे खरीदते है। हमारी असली जरूरतें आज भी वहीं रोटी, कपड़ा और मकान है, जो मानव समाज के प्रारम्भिक काल में थी। और हमारी उन जरूरतों को हमने आज इस काल्पनिक धन से जोड़ दिया है। इस गैर-हक़ीकत वस्तु के पीछे भागते हुए हम उन सब वस्तुओं का विनाश करते जा रहे है जो कि हकीकत है।


जो सही मायनों मे हमारी जरूरतों को पूरा करती है। हमने हमारे खाने को जहरीला कर दिया है, हमारे पानी को दूषित कर दिया है, जो हवा हमारे जीवन का आधार है वो ही आज हमारे जीवन को लील लेने को तैयार बैठी है। इसका कारण सिर्फ एक है कि हमने धन-दौलत को हकीकत मान लिया है और इन सब वास्तविक चीजों को महज उपभोग कि एक वस्तु।”


जब उन्हे यह एहसास हुआ तब वे इसके रास्ते खोजने लगे। उन्हे इसका एकमात्र रास्ता यही नजर आया कि उन्हे फिर से जमीन से जुड़ना होगा। तब उन्होने कृषि की तरफ रुख किया। जब उन्होने कृषि कि तरफ रुख किया तो उन्हे समझ आया कि आज कृषि पहले के समान बिलकुल भी नहीं रहीं है। आज किसान खुद रुपयों के मायाजाल मे इस कदर फंस गया है कि उसके लिए रुपयों के बिना खेती करना असंभव सा हो गया है।


वो आगे कहते है कि जब उन्होने खेती करना शुरू किया तब उन्हें एक बात सबसे ज्यादा खटकने वाली लगी। एक बीज़ जो कि अपने आप मे इतना सक्षम है जो हजारो बीजों को जन्म दे सकता है, ऐसे काम मे किसान को नुकसान हो सकता है। जब वे इसके कारणों का अध्ययन कर रहे थे तब उन्हे पता चला कि आज किसान खेती में अपने हर कार्य के लिए बाज़ार पर निर्भर है। उसे हर बात पर पैसे खर्च करने पड़ते है, परंतु बाज़ार मे उसकी उपज को उचित मूल्य नहीं मिल पता है। ऐसे में वह अपनी लागत भी वसूल नहीं कर पाता है। तब वे खेती को सरल और सुगम बनाने के रास्ते खोजने लगे।


उन्होने शुरुआत बीजों और खाद पर अपनी आत्मनिर्भरता बढ़ाने से की। वे देशी बीजों का प्रयोग करते हुए अपने लिए अगले साल के लिए बीज़ तैयार करने लगे। खाद के लिए उन्होने गाय और बैलों का पालना शुरू किया। उनके गोबर से वे अपना ईंधन बनाने लगे और गोबर गैस बनने के बाद निकले अपशिष्ट को खाद के रूप मे प्रयोग करने लगे। जब उन्हें जुताई, सिंचाई और कटाई का कार्य के लिए उन्हे समस्या आने लगी तो उन्होने बैलो से जुताई करनी शुरू की। बैलों से जुताई करते समय उन्हे मालूम पड़ा कि बैलो कि दो जुताई और ट्रैक्टर कि पाँच जुताई बराबर है। वही दूसरी तरफ ट्रैक्टर से जुताई करते वक़्त मिट्टी मे रहने वाले कई सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते है जिसका दुष्प्रभाव फसल पर पड़ता है। उसके बाद सिंचाई के लिए उन्होने एक बैलों से चलने वाले पंप का ईज़ाद किया। बैल पंप बनाने के बाद उन्होने बैलो से ही चलने वाले थ्रेशर का ईज़ाद किया और एक कटाई यंत्र बनाया जो बिना किसी बाहरी वस्तु के किसान कि क्षमता को दस गुना तक बढ़ा सकता है।

विवेक कहते है कि “यह सब करने के बाद अब मेरी कोशिश है कि कैसे मैं ऐसी तकनीक तैयार कर सकूँ जिससे किसान बिजली और पेट्रोल-डीजल के मामले मे भी आत्म निर्भर हो सकें। इसके लिए हमने कुछ प्रयोग करे भी है। हमने एक गेसिफाइर बनाया है जिससे एक गाँव फसल के भूसे आदि से खुद के लिए बिजली बना सकता है और वो बिजली के मामले मे आत्म निर्भर हो सकता है। पेट्रोल-डीजल पर आत्मनिर्भर होने के लिए हमने एक प्रयोग किया है। इसमे हमने गुड बनाते वक़्त जो तरल द्रव्य निकलता है, जिससे अमूमन लोग शराब बनाते है, उसके साथ प्रयोग किया है। इसमे आपको गाड़ी के इंजन मे मामूली सा बदलाव करना होता है और आप इससे अपनी गाड़ी चला सकते है। अभी यह प्रयोग अपने प्रारंभिक दौर मे है और उम्मीद है कि हमे इसमे जल्द ही सफलता हासिल हो जाएगी। इसके अलावा हम एक ऐसी मशीन भी बना रहे है जिससे किसान कम से कम बीजों का प्रयोग करते हुए अधिक से अधिक फसल प्राप्त कर सकें।”

विवेक का मानना है कि वह वक़्त दूर नहीं है जब हम सबको अपनी जड़ों कि तरफ लौटना पड़ेगा और खेती को अपनाना पड़ेगा। क्योंकि रुपयों को हम खा, पहन या पी नहीं सकते है। हमारे पास बेहद सीमित संसाधन बचे हुए है। ऐसे मे हम इन तकनीकों के माध्यम से गावों और किसानो को न सिर्फ आत्मनिर्भर बना सकते है अपितु हमारे पास उपलब्ध सीमित संसाधनों का सदुपयोग भी कर सकते है।

देश के ‘‘श्वस्न तंत्र’’ हिमाचल को बना रहे हैं स्वस्थ : कुलभूषण उपमन्यु

हिमाचल प्रदेश के कामला गाँव के रहने वाले हमारे अगले परिंदे, कुलभूषण उपमन्यु पिछले 40 वर्षों से हिमाचल के पर्यावरण को बचाने का काम विभिन्न स्तरों पर कर रहे है, अपने कॉलेज के समय से ही उन्हे नौकरी शब्द पसंद नहीं था। उन्हे नौकरी गुलामी के समान लगती थी। इसलिए उन्होने स्नातक करने के बाद खेती करने का फैसला किया । उन्हे उस वक़्त सिर्फ एक यहीं पेशा नज़र आ रहा था, जिसमे उन्हें किसी भी प्रकार की व्यवस्था की गुलामी नहीं करनी पड़ती। जबकि उस वक़्त अगर कोई 12th भी कर लेता था तो उसकी सरकारी नौकरी लगनी लगभग सुनिश्चित थी।


खेती के साथ ही उन्होने एक कृषि उत्पादन को प्रसंस्कृत करने का उद्योग भी शुरू किया था और उसके साथ ही उन्होने गाँव मे एक छोटी सी परचून की दुकान भी शुरू की थी। पर व्यापार मे उनका मन नहीं रम सका क्योंकि उन्हें लगता था की झूठ बोले बिना व्यापार करना संभव नहीं है। जिस आर्थिक लाभ को कमाने के लिए व्यापार कर रहे थे उस आर्थिक लाभ पर भी उनके मन में कई सवाल थे। उन्हे लग रहा था की व्यापार भी एक तरह से आधुनिक व्यवस्था की गुलामी है। जल्द ही उन्होने अपना व्यापार बंद कर दिया। उसी वक़्त उन्हें लग रहा था की उन्हें गाँव के लिए कुछ करना चाहिए।


तब उन्होने 1973 में गाँव के लोगों के साथ मिलकर ग्राम उत्थान सभा का निर्माण किया। इसके माध्यम से वे गाँव की छोटी-छोटी समस्याओं को गाँव के ही स्तर पर सामूहिक तौर पर हल करने लगे। उनका इरादा था की गाँव की समस्याओं के लिए उन्हें बार-बार किसी सरकारी विभाग के सामने हाथ फैलाने के बजाय गाँव के स्तर पर ही हलकर लिया जाए तो गाँव आत्मनिर्भर हो सकते है। उनके इन प्रयासों से गाँव मे एक समुदाय की भावना पनपने लगी। उन्होने इसके बाद इसी तरह के सफल प्रयोग आस-पास के 10-12 गांवो मे और किए। इन सभाओं के माध्यम से एक जो मुख्य काम किया, वो यह था की उन्होने छुआछूत को उन गांवों से जड़ से उखाड़ दिया और कुटीर उद्योगों के माध्यम से गाँव की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का प्रयास करते रहें। कुछ समय बाद उन्हे लगने लगा की जिन समस्याओं पर वे काम कर रहें वे वे मुद्दे बेहद बड़े है। वे उन पर कार्य करने के लिए पर्याप्त ताकत नहीं जूटा पा रहे थे। तब वे सोचने लगें की उन्हे शायद किसी एक मुद्दे को पकड़कर अपनी पूरी ताकत उसमे लगा देनी चाहिए। जिससे वे एकाग्र होकर कार्य कर पाएंगे। उसी वक़्त उन्होने सुंदर लाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन पर एक लेख पड़ा था। उसे पड़ने के बाद उन्हे लगा की हिमाचल और हिमालय के पर्यावरण को बचाने के लिए यह काम वो काम है जिसके लिए वे अपना जीवन समर्पित कर सकते है। क्योंकि जंगल बचाने की उनकी जो अवधारणा थी वो गाँव को बचाने के लिए भी जरूरी थी। जंगलों से गाँव की कई सारी जरूरतें पूरी होती थी। तब उन्होने सुंदर लाल जी से समपर्क किया। 1981 में चिपको आंदोलन के साथ उन्होने पूरे हिमाचल और उत्तराखंड के कुछ इलाकों में पदयात्रा की। गाँव-गाँव जाकर उन्होने जंगल को बचाने की मुहिम मे अग्रिम पंक्ति मे खड़े होकर लड़ाई लड़ी। उस वक़्त हिमाचल मे सरकार वहाँ के प्रकृतिक जंगलों को काटकर चीड़ और सफेदा(युकलिप्टिस) के पेड़ लगा रही थी। यह पेड़ वहाँ के लोगों और जंगली जीवों के हित मे नहीं थे। इससे वहाँ की जैव-विविधता और पारिस्थितिक तंत्र खतरे मे पड़ गया था। 


इसके बावजूद सरकार इनसे आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए धड़ल्ले से इन्हे लगा रही थी। जिसकी वजह किसानो को जंगल से मिलने वाला चारा समाप्त हो गया था। तब उन्होने एक नारा दिया “चीड़, सफेदा बंद करो, चारे का प्रबंध करो।” इसी नारे के साथ उन्होने कई तरह के जुलूस, धरनों के माध्यम से व्यापक स्तर सरकार के साथ लड़ाई का आगाज किया। इस लड़ाई के दौरान उन्हें 2 महीनों तक जेल मे भी रहना पड़ा। उनके इलाके मे इस आंदोलन की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है की आज 30 वर्षों के बाद भी यह नारा लोगों की जुबान पर मौजूद है। उनके प्रयासों के चलते आज पूरे हिमाचल मे सफ़ेदा लगाने पर पाबंदी है और चीड़ भी आबादी क्षेत्रों के आस पास लगाने की पाबंदी है। उसके बाद उन्होने जंगल बचाने की अपनी इस मुहिम को आगे ले जाते हुए हिमाचल के कई संघठनों को मिलाकर नवरंचना नाम का एक मंच तैयार किया। जिसके माध्यम से वे सरकार की गलत नीतियों का विरोध करते है और नयी नीतियाँ बनाने मे उनकी मदद करते है। माना जाता है की हिमाचल प्रदेश की जो वन नीति है वो बेहद जटिल है जिसकी वजह से वहाँ जंगल काटना बेहद मुश्किल है। यह उपमन्यु जी के ही प्रयासों का नतीजा है की सरकार को यह वन नीति हिमाचल में लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा।


उपमन्यु जी कहते है की इतना कुछ करने के बावजूद सरकार कोई न कोई रास्ता निकालकर जंगलों को काटने का प्रयास करती रहती है। इसी वजह से 40 वर्षों से हमारी यह लड़ाई बदस्तूर जारी है। अब इसमे पानी, हवा, विकास जैसे कई और मुद्दे शामिल हो गए है। अब हम सरकार पर एक हिमालय नीति बनाने का दबाव बना रहे है। भले ही हम यह काम हिमाचल को बचाने के लिए कर रहे है पर यह समझना होगा की आधे भारत का मौसम और पारिस्थितिक तंत्र हिमालय पर निर्भर है। अगर वो बर्बाद हो गया तो देश को बर्बाद होने में समय नहीं लगेगा। वो कहते है की हिमालय देश के लिए फेफड़े का काम करता है। अगर यह खराब हो गए तो देश साँस नहीं ले पाएगा।

संरक्षित कर रहे हैं पारंपरिक अनाज के बीज : नेकराम

नेकराम शर्मा करसोग, हिमाचल प्रदेश के एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते है। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे खेती करने लग गये थे। 90 के दशक के शुरुआती दौर मे हिमाचल सरकार द्वारा साक्षारता अभियान चलाया गया । नेकराम जी इस अभियान से जुड़ गए । वे खेती के साथ गाँव-गाँव जाकर लोगों को साक्षर करने में लग गये थे। उसी दौरान उनकी मुलाक़ात हिमाचल के कुछ बुद्धिजीवियों और समाज सेवकों से हुई। उनसे मिलने के बाद, हिमाचल के लोगों की बदहाली के कारणों पर उनकी समझ विकसित हुई। तब वे लोगों को पढ़ाने के साथ-साथ इन मुद्दों पर भी गाँव के लोगों से चर्चा करने लगे। उन्होने देखा की गाँवों मे चारे की समस्या बढ़ती जा रही है। उन्होने जब इसके कारणों की खोज शुरू की, तब उन्हे पता चला की जंगल की अत्याधिक कटाई के कारण, पहाड़ उजड़ते जा रहे है और इस वजह से अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाने की वजह से चारा पर्याप्त नहीं हो पा रहा है। तब वे जंगल बचाने के लिए लोगों को जागरूक करने लगे। इन्होने खुदसे अपने गाँव के पास के पहाड़ों पर गाँव वालों के साथ मिलकर दो सौ हेक्टर से भी ज्यादा इलाके मे जंगल उगाया , जिससे उन के क्षेत्र मे चारे की समस्या खत्म हो गयी है।


जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया, उनकी समझ भी विकसित होती गयी। उन्होने देखा की धीरे-धीरे रासायनिक खाद का प्रयोग खेतों मे बढ़ता जा रहा है और इसी के साथ खेतों मे फसल भी बदलती जा रही है। लोग अब अपने खाने के लिए उगाने के बजाय बाज़ार मे बेचने के लिए उगाने लगे थे। देशी व पारंपरिक अनाज की जगह नगदी फसलों ने ले ली है। इसकी वजह से लोगों की थाली से पौष्टिक आहार गायब होता जा रहा है। विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ लोगों के शरीर मे जगह बनाने लगी है, जिनके बारे मे लोगों ने कभी सुना भी नहीं था। तब से वे खुद खेती करके इनके बीजों को बचाते है और लोगों को बाटते है, लोगों को गाँव-गाँव जाकर फिर से इन अनाजों को उगाने के लिए प्रेरित कर रहे है।


वो कहते है कि “ देशी या पारंपरिक अनाज अपने क्षेत्र के वातावरण मे रमा हुआ होता है। उनमे वो सारे पौष्टिक तत्व मौजूद होते है जो उस क्षेत्र मे स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक होते है। ये आपको मधुमेह, कैंसर, हृदय संबंधी बीमारियों से बचाकर रखते है। ये आपकी पाचन शक्ति बढ़ाते है एवं आपके शरीर को निरंतर detoxify करते रहते है। जिससे हमारी मांसपेशियाँ, श्वसन तंत्र व तंत्रिका तंत्र मजबूत होता है व हमारे शरीर कि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।

वे आगे बताते है कि भले ही आज ये देशी और पारंपरिक अनाज प्रचलन मे नहीं है। परंतु मानव समाज पिछले 10000 हजार सालों से इन्हे उगा रहा था, यह उनके भोजन का अहम हिस्सा था। इसकी वजह से कुपोषण जैसी समस्या उस वक़्त नहीं हुआ करती थी। इन्हें एक सोची-समझी साजिश के तहत हमारी थाली से गायब किया गया है। ये अनाज बिना खाद के भी उग सकते थे। लोगों कि थाली मे जब तक यह अनाज था तब तक बीज, रसायनिक खाद और दवाइयाँ बनाने वाली कंपनियाँ लाभ नहीं कमा सकती थी। आज जब लोग इन अनाजों को भूल चुके है तब ये कंपनियाँ दिन दूनी रात चौगनी दर से वृद्धि कर रही है। आज के समय ये सबसे ज्यादा लाभ कमाने वाली इंडस्ट्री है।”

इसी बीच हिमाचल मे विकास के नाम पर कई सारे जलविद्युत बिजली सयंत्र शुरू करने का एक दौर शुरू हुआ। इसकी वजह से कई सारी नदिओं, गावों पर बर्बाद होने का खतरा मंडराने लगा है। उनके गाँव के पास भी एक ऐसे ही सयन्त्र का काम शुरू हुआ था। इसकी वजह से उनके गाँव के साथ-साथ आस-पास के कई गाँवों पर उजड़ने का खतरा मंडराने लगा था। उसके साथ ही नदी और उसके साथ जुड़े पारिस्थितिक तंत्र पर भी खतरा बढ़ गया था। तब उन्होने उच्चतम न्यायालय और NGT तक इसकी लड़ाई लड़ते हुए उस योजना को क्रियान्वित होने से रुकवाया।


अब वे गाँव के लोगों के साथ मिलकर स्वरोजगार कि दिशा मे भी काम कर रहे है। उनके क्षेत्र मे बुनकरी का कार्य आम था। बाज़ारवाद कि इस अर्थव्यवस्था ने इस हुनर को लगभग बर्बाद कर दिया है। परंतु अभी भी गाँवों मे कई बुजुर्गों के पास ये हुनर जिंदा है। वे इन बुजुर्गों कि मदद से इस हुनर को फिर से जिंदा करने कि कोशिश कर रहे है और उनके द्वारा तैयार कपड़े को विभिन्न मेलों के मध्यम से लोगों तक पहुंचाकर लोगो के लिए नए आय के स्त्रौत तैयार करने के लिए प्रयासरत है।


नेकराम जी कहते है कि वे पिछले पच्चीस वर्षों से यह काम करते आ रहे है, अब तो यह उनकी आदत हो गयी है अगर वे गाँव-गाँव घूमकर लोगों से इन मुद्दों पर चर्चा न करे, उन्हे जागरूक करे तो उन्हें रात को नींद नहीं आती है। उन्होने अपना पूरा जीवन इसके लिए समर्पित कर दिया है और बचा हुआ जो समय है उनके पास वो भी वो इसी के लिए समर्पण कर चाहते है।

दुनिया कि भेडचाल से परे

हमारी अगली कहानी एक ऐसे परिवार की कहानी है जिन्होंने आपस मे मिलकर यह तय किया है की वे शहर की तेज़ भागती-दौड़ती जिंदगी से दूर किसी गाँव मे अपनी जिंदगी बसर करेंगे। वहाँ रहकर एक तरफ जहाँ वे अपनी जड़ों को तलाशेंगे वहीं दूसरी तरफ गाँव के लोगों के साथ मिलकर उनके हुनर को एक पहचान देने की कोशिश करेंगे। इसी के साथ वे उनके लिए आय के नए स्त्रौत व विकल्प खोजेंगे।


नवीन पांगति उतराखंड राज्य के मुनसियारी क्षेत्र के मूलनिवासी है। जब उन्होने इंजीनियरिंग मे दाखिला लिया था तभी उन्हे एहसास हो गया था की कुछ गड़बड़ हो गयी है। पर उन्हे उस वक़्त कोई रास्ता दिखने वाला नहीं था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद उन्होने सोश्ल कोम्म्यूनिकेशंस की पढ़ाई की फिर,ग्राफिक डिज़ाइनिंग एवं विडियो इंडस्ट्री मे कई तरह के काम करते हुए अपने करियर को दिशा देने की कोशिश करते रहे। इसी बीच उन्होने अपनी एक कंपनी भी शुरू की। अच्छी आय होने के बावजूद उनका मन उसमे नहीं लग रहा था। कुछ समय बाद उन्होने अपनी कंपनी बंद करके फ्रीलांसिंग करने का फैसला लिया। इसी बीच उनकी पत्नी दीप्ति जी ने भी अपनी फौज की नौकरी छोड़कर अपना समय बच्चों की परवरिश मे देने का मन बना लिया था। दोनों ने मिलकर यह पहले से ही तय कर लिया था की वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजेंगे।


वे उनकी शिक्षा घर पर ही करेंगे और उन्हे शिक्षण व्यवस्था द्वारा पैदा की जा रही मानसिक गुलामी से आज़ाद रखेंगे। वे चाहते थे की उनके बच्चों को अपनेआप को खोजने की पूरी आज़ादी मिले। वे उन्हे शिक्षा व्यवस्था के दबाव और भेड़चाल से मुक्त रखना चाहते थे। जब नवीन जी फ्रीलांसिंग करने लगे थे तब उन्हे भी वही आज़ादी और वक़्त मिला जो वे अपने बच्चों को देना चाहते थे। इस वक़्त का फायदा उठाकर उन्होने जीवन को समझाने की कोशिश की और स्वयं को खोजने की यात्रा पर निकल पड़े। इसी सफर पर यात्रा करते हुए उन्हे एहसास हो गया था की उन्हे जाना तो गाँव की और ही है। वही रहकर खेती करनी है और अपनी जड़ों को भी तलाशना है। दीप्ति जी की भी यही सोच थी। पर उनके लिए सबसे बड़ी समस्या यह थी की वे अपने बच्चों पर इस निर्णय को लादना नहीं चाहते थे। इसके लिए उन्होने अपने बच्चों से चर्चा की और उसके बाद पहले वे गुड़गांव से हल्द्वानी आकर रहने लगे और कुछ समय बाद वे हल्द्वानी से अलमोरा आ गए। इससे यह हुआ की उनके बच्चे धीरे-धीरे बड़े शहर की भागती हुई जिंदगी से छोटे शहर की धीमी और सरल जिंदगी मे ढल गए। जब उनके बच्चों ने इस जीवन को पूरी तरह अपना लिया तब उन्होने गुड़गांव मे अपना घर बेचकर अलमोरा की पहाड़ियों मे बसे एक छोटे से गाँव एक जमीन खरीद ली। अब उन्होने यही पर अपना घर बना लिया है और वही पर खेती भी शुरू कर दी है। वो चाहते है वो यहाँ पर एक फार्मस्टे बनाए जहाँ लोग जमीन से जुड़कर जीवन के महत्व को समझे और अपनी जड़ों की और लौट सकें। वही दूसरी तरफ उनकी कोशिश है की वे गाँव वालों से जुड़कर सहकारी स्तर पर कुछ छोटे-छोटे उद्योग शुरू करे। जिससे गाँव के लोगों को गाँव मे ही आय के नए साधन उपलब्ध हो सकें और उनका शहरों की और पलायन रुक सकें।


वो कहते है कि “हमारी कोशिश है कि पहले हम गाँव के लोगों के साथ एक रिश्ता बना सकें। हम नहीं चाहते कि गाँव वाले हमे बाहर वाला समझे। जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे तब तक वे हमारा विश्वास नहीं कर पाएंगे। उन्हे यही लगता रहेगा कि हमारे पास तो पैसा है, हम कुछ भी कर सकते है। यह एक हद तक सही भी है इसीलिए जब आप शहर से लौटकर गाँव जाते हो तो सबसे पहले उनसे बड़ी-बड़ी बाते करना, अपना किताबी ज्ञान उन पर थोपना, आपकों उनसे और ज्यादा दूर कर देता है। सबसे पहले यह जरूरी है कि आप खुद उनके जैसे हो जाए, उनके सुख-दुख मे शामिल हो। तभी जाकर के आप वो रिश्ता बना पाएंगे, जिसका आधार विश्वास होगा। अगर हम ऐसा नहीं करते है तो एक उंच-नीच का भाव हमेशा आपके दरमियान बना रहता है और फिर आप जितना चाहे कोशिश कर ले वो आपकी बातों का भरोसा नहीं करेंगे। आज से कुछ समय बाद जब हम उनका विश्वास पाने मे सफल हो जाएगे तब हम उनसे गाँव के महत्व, पर्यावरण के संरक्षण, उनके ज्ञान को एक पहचान देने कि बात करेंगे। तब तक हमारी कोशिश यही है कि हम उनकी प्राथमिक समस्या, जैसे आय, रोजगार, स्वास्थ्य आदि पर ही काम करें।”

नई शिक्षा व्यवस्था के साथ बच्चों को एक आविष्कारक की तरह सोचना सिखाते हैं सरित शर्मा और संध्या गुप्ता

हम चाहे किसी भी समस्या पर कितनी भी चर्चा कर ले, हम तब तक उसका हल नहीं खोज सकते है जब तक हम उस समस्या का पूरी तरह से अवलोकन नहीं कर लेते । किसी भी समस्या के हल को खोजने के लिए सबसे पहले जरूरी है की हम उससे जुड़े सवाल करें। उससे जुड़े विभिन्न पहलुओं का गहनता से अध्ययन करें। अध्ययन करने के बाद उससे प्राप्त नतीजों को आपस मे जोड़कर देखे। तब कहीं जाकर हम उस समस्या की जड़ों तक पहुँच पाएंगे और उसका निराकरण कर पाएंगे। शायद विज्ञान इसी प्रक्रिया को कहते है, जहां हम विभिन्न अध्ययनो से प्राप्त नतीजों को जोड़कर देखते है और किसी निष्कर्ष पर पहुँचते है।


पालमपुर से सरित शर्मा और संध्या गुप्ता इसी विज्ञान और गणित का प्रयोग करते हुए भावी पीढ़ी की सोच को विकसित करने का प्रयास कर रहे है। वे उन्हे तैयार कर रहे है, की वो स्वयं सही और गलत का निर्णय कर सकें। वो समाज मे खड़े होकर निर्भयता से सवाल कर सकें और उनके जवाब खोज सकें।


सरित शर्मा और संध्या गुप्ता पेशे से और शायद अपनी आत्मा से भी इंजीनियर है। इन्हे विज्ञान और गणित के साथ खेलते हुए नए-नए प्रयोग करना अच्छा लगता है। इन्होने भारत मे अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत मे ही कुछ साल काम किया। जब इनके पास कुछ पैसे एकत्रित हो गए तो यह आगे के अध्ययन के लिए अमेरिका चले गए। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे वहीं रहकर काम करने लगे। उन्होने पहले ही तय कर लिया था, की वे सिर्फ दस साल तक नौकरी करेंगे पर उन्होने यह नहीं सोचा था की वे उसके बाद क्या करेंगे। दस साल के पूरे होते-होते उनकी बेटी भी थोड़ी बड़ी हो गयी थी। वे चाहते थे की उनकी बेटी अपने देश, अपनी संस्कृति को जाने और उसकी परवरिश भी अपने ही देश मे हो। इसी विचार के सात उन्होने भारत लौटने का मन बना लिया था। भारत मे आकार वे क्या करेंगे, उन्होने इस बारे कुछ भी नहीं सोचा था। उन्होने बस भारत के नक्शे पर एक जगह चुन ली थी, पालमपुर। कारण सिर्फ इतना सा था की यहाँ का मौसम अच्छा था और यह जगह भागते हुए शहर से दूर थी।


जब वे पालमपुर आए तब सभी माता-पिता की तरह वे भी अपनी बेटी की श्किशा के बारे में सोच रहे थे। सरित जी को लगता था कि शिक्षा के लिए किसी विद्यालय आदि की आवश्यकता नहीं है। वो कहीं भी हो सकती है परंतु संध्या जी को लगता था कि बच्चे को स्कूल भेजना जरूरी है। तब संध्या जी आस-पास के कई स्कूल को जाँचने-परखने के बाद इस नतीजे पर पहुँची कि सरकारी स्कूल बच्चों का सबसे कम नुकसान करते है। तब उन्होने अपनी बेटी को अपने घर के पास के सरकारी स्कूल मे दाखिला करा दिया और वे दोनों भी उसी स्कूल मे बच्चों को पढ़ने का काम करने लगे। इस तरह से जब उनका नाता शिक्षा के जुड़ा तब उन्हें हमारी शिक्षण व्यवस्था मे कई तरह की कमियाँ दिखने लगी थी। तब उन्होने बच्चों को पढ़ाने के कई सारे नयी तरीके ईज़ाद किए। फिर धीरे-धीरे उनका ध्यान विज्ञान और गणित पर केन्द्रित हो गया। तब उन्होने पालमपुर मे आविष्कार नाम कि एक जगह शुरू करी जिसके अंतर्गत वे देश के विभिन्न हिस्सों से आए बच्चों को विज्ञान और गणित के माध्यम से सोचने, समझने और सवाल करने कि ताकत दे रहे है। उन्हें इस लायक बना रहे जहाँ से वे अपने और समाज के लिए सही निर्णय ले सकें और एक बेहतर जीवन जी सकें|


सरित जी कहते है कि “हम पढ़ने के साथ-साथ देश के विभिन्न हिस्सों मे विज्ञान मेलों का भी आयोजन करते है। वैसे तो हम सभी तरह के बच्चों के साथ कम करते है पर हमारी प्राथमिकता ऐसे बच्चों के साथ काम करने कि है जो समाज के पिछड़े वर्ग से आते है। इसका बड़ा कारण यह है कि हम इन बच्चों को शिक्षा के माध्यम से इतना ताकतवर बना दे कि यह स्वयं अपनी एक पहचान बना सकें। यह कल जाकर अपने समाज का प्रतिनिधित्व कर सकें। उनसे जुड़ी समस्याओं पर सवाल कर सकें। उनके जवाब खोज सकें और उनके साथ जुड़े “पिछड़े” शब्द को अपने जीवन से निकाल सकें। और हम लोगों ने यह करने का तरीका विज्ञान और गणित मे पाया है। विज्ञान और गणित का आधार सवाल होते है। विज्ञान और गणित आपको सोचने पर मजबूर करते है। जब आप सोचने पर मजबूर होते हो तो तब आप सवाल करते हो। जब तक आप सवाल नहीं करते हो तब तक आप उनके जवाब खोजने कि कोशिश नहीं करते हो। और आपको सही जवाब तब ही मिलते जब आप उस सवाल से जुड़े सभी पहलुओं का अवलोकन नहीं कर लेते है। और सही मायने विज्ञान और गणित का असली मकसद भी यही है कि बच्चे खुद चीजों को जाँच-परख सकें। उनका अवलोकन कर सकें और सहीं और गलत का निर्णय कर सकें।”

साइकिल चला कर 'जेंडर फ्रीडम' की एक अनोखी लड़ाई

क्या आप राइड फॉर जेंडर फ्रीडम वाले सिंह साहब को जानते हैं? नहीं जानते? लेकिन, ये तो आपके शहर से भी गुज़रे थे, आपने ध्यान नहीं दिया होगा। खैर कोई नहीं, योर स्टोरी मिलवाता है आपको एक ऐसे शख़्स से, जो बेहद अनोखे तरह से लड़ रहे हैं जेंडर फ्रीडम की लड़ाई। "न हो कुछ सिर्फ सपना हो तो भी हो सकती है शुरुआत, ये शुरुआत ही तो है कि यहाँ एक सपना है..."  -सुरजीत पातर 

सुरजीत पातर की ये पंक्तियां राकेश कुमार सिंह पर इकदम फिट बैठती हैं और ये पंक्तियां ही इनका फेसबुक स्टेटस भी हैं। यह सच है, कि शुरुआत सपनों से ही होती है। सपने नहीं होंगे तो नजाने कितनी शुरूआतें दम तोड़ती नज़र आयेंगी। ऐसी ही किसी शुरूआत का सपना राकेश कुमार सिंह ने तीन साल पहले देखा था, जिसे नाम दिया 'राईड फॉर जेंडर फ्रीडम'। राकेश की ये लड़ाई जेंडर बेस्ड वॉएलेंस यानी कि उस हिंसा के खिलाफ है जिसे हम लिंग भेद कहते हैं और यह आज़ादी सिर्फ स्त्री या सिर्फ पुरुष के लिए नहीं है, बल्कि उस तीसरे जेंडर के लिए भी है, जिसे अंग्रेजी में ट्रांसजेंडर कहा जाता है। हालांकि अधिकतर वजहें महिलाओं से जुड़ी हुई हैं।

राकेश बिहार के रहने वाले हैं और 15 मार्च 2014 से एक शहर से दूसरे शहर एक राज्य से दूसरे राज्य अपनी साइकिल से यात्रा कर रहे हैं। अब तक राकेश 11 राज्यों को कवर करते हुए 17900 किमी की यात्रा कर चुके हैं।


राकेश कुमार सिंह ने 15 मार्च 2014 को राइड फॉर जेंडर फ्रीडम के लिए चेन्नई से साइकिल यात्रा शुरू की।

उत्तर प्रदेश का एक ऐसा शहर की जहां लड़कियां पढ़-लिख कर देश-विदेश में अपनी सफलता के परचम लहरा रही हैं। उसी शहर के किसी घर में शादी हो रही है, शहनाई बज रही है, लड़का घोड़ी पर चढ़ रहा है और दुल्हन घर आ गई, लेकिन दुल्हन के आने के बाद शुरू होती है एक अलग तरह की लड़ाई, जिसे हम सामाजिक भाषा में दहेज कहते हैं। लड़की उतना दहेज नहीं लेकर आई, कि ससुराल वालों का मुंह बंद कर सके और एक दिन जानते हैं क्या हुआ? उस लड़की को जला दिया गया और पुलिस ने अपनी फाईल यह कह कर बंद कर दी, कि लड़की गलती से जल कर मर गई, क्योंकि ससुराल वालों के खिलाफ कोई सुबूत नहीं मिला। उसी दिन कर्नाटक के किसी शहर में लड़की के ऊपर लड़के ने तेज़ाब इसलिए फेंक दिया, क्योंकि लड़की किसी और से शादी करने जा रही थी। उसके एक दिन बाद उत्तराखंड में किसी आदमी ने अपनी पत्नी को सिर्फ इस बात पर पीटा, कि सब्जी में नमक कम था। उसने अपने बच्चों के ही सामने अपनी पत्नी को इतना मारा कि वह मर गई.... ये वही कड़वे सच हैं, जिनके खिलाफ है राकेश कुमार सिंह की लड़ाई और समाज में फैली इन कुरीतियों के खिलाफ वह अपनी साइकिल यात्रा द्वारा लोगों में जागरुकता फैला रहे हैं। 


राकेश कुमार सिंह 17 हज़ार 900 किलोमीटर तक की यात्रा कर चुके हैं।

राकेश कुमार कहते हैं, कि ऐसा कौन-सा संस्थान है, जहां छेड़खानी, भ्रूण हत्या, बलात्कार, जेंडर आधारित गर्भपात, तेज़ाब हमला और देहज प्रताड़ना की शिक्षा दी जाती है? ये ही सवाल राकेश की सोच का विषय हैं और इन्हीं सवालों के जवाब में राकेश एक शहर से दूसरे शहर, एक राज्य से दूसरे राज्य अपनी साइकिल से घूम रहे हैं। अब तक राकेश अपनी साइकिल यात्रा से ग्यारह राज्यों को नाप चुके हैं। राकेश की सबसे बड़ी लड़ाई है, कि बहुत बदलने के बाद भी हमारा भारतीय समाज नहीं बदला। सेहत बानने के लिए साइकिल चलाने वाले तो लाखों मिलेंग... या फिर वे भी जिनके पास स्कूटर और कार खरीदने का पैसा नहीं, लेकिन जेंडर फ्रीडम के लिए साइकिल से ऐसी अनोखी यात्रा करने वाले के बारे में शायद ही आपने कभी सुना हो।

राकेश के वे महत्वपूर्ण सवाल, जिन्हें वे अपनी यात्रा के दौरान मिलने वाले लोगों समझाना और बताना चाहते हैं,

सभी जेंडर की आज़ादी का सम्मान हो।

महिलाओं पर होने वाले अपराधों के देख कर अपनी चुप्पी तोड़ें और उसकी लड़ाई में उसका साथ दें।

लड़का-लड़की में फरक करने की बजाय उनमें समानता का संचार करें।

सभी के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत दायरों का सम्मान करें।


राकेश कुमार सिंह 60 से 80 किमी की साइकिल यात्रा प्रतिदिन करते हैं।

एक आम आदमी सारी ज़िंदगी अपना घर चलाने में निकाल देता है। थोड़ा और ज्यादा पैसा हुआ तो एक से दो और दो से तीन फ्लैट खरीद लेता है, वैगनआर से डस्टर और डस्टर से बीएमडबल्यू पर बैठने लगता है। स्ट्रीट फूड से फाइव स्टार होटल में पहुंच जाता है। समाजिक तौर पर हम आगे बढ़ना उसे कहते हैं, जो हमारे मासिक वेतन पर निर्भर करता हो, लेकिन राकेश जैसे लोग इन सबसे अपना पीछा छुड़ा चुके हैं। राकेश कई अच्छी कंपनियों में नौकरी कर चुके हैं, मीडिया हाउस से भी जुड़े रहे, लेकिन उनका मन समाज से जुड़कर कुछ करने का था। उनके लिए पैसा बेहद हल्की-फुल्की ज़रूरत रही। यह पूछने पर, कि आपकी रोटी, कपड़ा और मकान का जुगाड़ कैसे होते है? पैसे कहां से आते हैं? तो राकेश ने बड़ी निश्चिंतता से जवाब दिया, कि मैं इसकी चिंता नहीं करता। जिस राज्य, जिस शहर, जिस गांव जाता हूं, वहां कोई न कोई ऐसा मिल जाता है, उसके आंगन में एक रात बिता सकूं। कोई सुबह के नाश्ते का इंताम कर देता है, तो कोई दोपहर के खाने का। कहीं बैठकर शाम की चाय पी लेता हूं, तो कहीं रात का भोजन। भोजन और बिस्तर मेरी ज़रूरत नहीं। मेरी लड़ाई तो अलग ही दिशा में है। मेरे पास ऐसे कुछ दोस्त भी हैं, जो समय-समय पर मुझे आर्थिक मदद देते रहते हैं। साइकिल का चलते रहना ज़रूरी है।

राकेश B'twin की साइकिल से अपनी यात्रा पर निकले हैं। शुरूआती दिनों में इनके पास कोई और साइकिल थी, लेकिन बैंगलोर साइकिल यात्रा के दौरान B'twin कंपनी ने राइड फॉर जेंडर फ्रीडम साइकिल यात्रा में सहयोग देने के लिए राकेश को एक साइकिल भेंट की। यह पूछे जाने पर, कि ये लड़ाई इतनी देर से क्य़ों शुरू की? तो राकेश ने कहा, "देख, पढ़ और समझ तो बचपन से ही रहा था, लेकिन जब समझदारी के स्तर ने आकार लेना शुरू किया तो लगा कि जो कर रहा हूं, मैं वो करने के लिए नहीं बना, बल्कि मेरी लड़ाई तो किसी और से ही है। मुझे समाज के लिए कुछ करना है। अपने आसपास जब लैंगिक भेदभाव देखता हूं, तो भीतर तक एक तकलीफ से भर जाता हूं।"


एक दिन में सड़क पर चार सभाएं लगाते हैं, जिनके साथ जेंडर फ्रीडम से जुड़े मुद्दों पर बात करते हैं और संबंधित जानकारियों से उन्हें अवगत कराते हैं।

समाज में फैली लैंगिक असमानता राकेश को सबसे ज्यादा परेशान करती है। घर वाले भी अब स्वीकार चुके हैं, कि राकेश साइकिल यात्रा पर निकल चुके हैं और वापिस नहीं लौटेंगे। ये पूछने पर कि इस तरह यात्रा करने से क्या होगा? ऐसे कोई परिणाम थोड़े न निकलेगा। राकेश कहते हैं, मार्च 2014 से जनवरी 2017 तक यदि दस लोगों में भी मुझसे मिलने के बाद सुधार हुआ है, तो यही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है। मैं पूरे समाज पूरी दुनिया को बदलने की बात नहीं करता, क्योंकि ऐसा कर पाना नामुमकिन है। लेकिन यदि मैं कुछ लोगों ही बदल पा रहा हूं, तो ये मेरे लिए खुशी की बात है और यही मेरी कमाई है। वे लोग दस, बीस और पचास भी हो सकते हैं।

राइड फॉर जेंडर फ्रीडम साइकिल यात्रा के दौरान राकेश ने कुछ-कुछ रातें ऐसे भी गुज़ारी हैं, जब उन्हें भूखे पेट सोना पड़ा हो। कुछ सुबहें ऐसी भी निकल गईं जब मॉर्निंग टी न मिली हो। कोई भी मौसम रहा हो, बारिश हो या सर्दी, चिलचिलाती धूप हो या शीतलहरी राकेश चलते ही रहे हैं। जहां रात हुई वहीं तंबू गाड़ के सो गये, हुई सुबह और निकल पड़े। राकेश छोटी सी साइकिल पर ही अपनी सारी गृहस्थी जमा चुके हैं। और साइकिल के सामने एक बॉक्स है, जिसमें उनसे मिलने वाले लोग अपनी खुशी और सुविधानुसार पैसे डालते हैं। इन पैसों का इस्तेमाल वे कई नेक कामों में करते हैं। कहीं किसी गांव रुके तो बच्चों में किताबें बांट दीं, किसी गांव रुके तो बच्चों में टॉफियां और मिठाईयां बांट दीं। बच्चों के चेहरे की मुस्कुराहट राकेश को आगे बढ़ने और उनकी राइड फॉर जेंडर फ्रीडम लड़ाई में लड़ने की हिम्मत देती है।


मैं जितने लोगों से मिला, मेरे सोचने समझने का दायरा उतना ही विस्तृत होता गया और फिर मुझे समझ आया कि असल में शुरूआत होती कहां से है: राकेश कुमार सिंह

एक तरफ राकेश कहते हैं, कि ये संपूर्ण जेंडर की लड़ाई है, जिसमें स्त्री, पुरुष और तृतीय जेंडर भी शामिल हैं, लेकिन ये लड़ाई तो महिलाओं तक ही सिमट कर रह गई है? इस पर राकेश कहते हैं, "नहीं ऐसा नहीं है। असल में हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति सबसे खराब है, इसलिए मेरे चाहने के बावजूद मैं महिला अधिकारों और उनके अच्छे-बुरे से खुद को बाहर नहीं निकाल पाता। लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं है, कि मैं सिर्फ महिलाओं को लेकर ही चिंतित हूं। मेरी लड़ाई उस आदमी से भी है, जो मेहनतकश पुरुषों को उसकी मेहनत का सही-सही पैसा नहीं दे रहा। मेरी लड़ाई उस समाज से भी है, जिसने उस तीसरे वर्ग जिसे हम ट्रांसजेंडर कहते हैं, को समाज से पूरी तरह बाहर कर रखा है। मैं सबके लिए आवाज़ उठाता हूं और सबके बारे में बात करता हूं।"

यात्रा को दौरान राकेश को कई तरह के नकारात्मक तत्वों का भी सामना करना पड़ा। कई लोंगों ने राकेश को हतोउत्साहित करने की कोशिश की। कई दफा लोग राकेश की पूरी बात सुने बिना ही उठकर चल दिये, लेकिन राकेश ने इन सबसे घबराकर हार नहीं मानी। राकेश कहते हैं, मैं जितने लोगों से मिला, मेरे सोचने समझने का दायरा उतना ही विस्तृत होता गया और फिर मुझे समझ आया कि असल में शुरूआत होती कहां से है। शरूआत घर से होती है। हमारा समाज बचपन से लड़का और लड़की के खान-पान, पहनावों, उठने-बैठने, खेल-कूद में फरक करना शुरू कर देता है। इसलिए हर बिमारी की जड़ वो घर है, जहां से या तो एक इंसान निकलता है या फिर एक जानवर। जैसी परवरिश होगी, पैदावार भी वैसी ही होगी ना।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में राकेश को वीसी प्राचीन प्रतीक चिह्न प्रदान करते हुए

राकेश के कामों के लिए उन्हें कई स्कूल कॉलेजों में सम्मानित भी किया जा चुका है। विद्यार्थियों के सामने आईआईएम जैसे बड़े संस्थान में राकेश अपनी बात रखने में सफल हुए हैं और वहां भी उन्होंने पाया कि पढ़े-लिखे अच्छे घरों से आने वाले विद्यार्थियों के घरों या उनके आसपास जेंडर से जुड़ी तमाम तरह की समस्याएं हैं। राकेश जहां भी जाते हैं, लोग अपना दिल खोल कर रख देते हैं और अपने मन के सारे हाल बयां कर देते हैं। राकेश की यह यात्रा अभी 2018 तक चलनी है, जिसका समापन बिहार में होगा। राकेश की की एक किताब बम संकर टन गनेस, हिन्दयुग्म प्रकाशन से आ चुकी है, जिसे पाठकों का भरपूर प्यार और अपनापन मिला