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Saturday, 25 March 2017

वनवासियों के बहुमूल्य ज्ञान को सहेज रहे हैं सुनील

हाल ही में WWF(वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फ़ंड) और जूलोजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन के शोधकर्ताओं ने अपनी शोध मे कहा है की 2020 तक हमारी दुनिया से दो तिहाई वन्य जीवों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।


पहाड़ों से लेकर जंगलों तक, नदियों से लेकर समुद्र तक, हाथी,गैंडे, गिद्द, ह्वेल आदि हजारों प्रजातियाँ आज खतरे में है। इस शोध के अनुसार इतने वृहद स्तर वन्य जीवों के लुप्त होने की वजह से प्रकृति का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ जाएगा और इसका अंत मानवता के अंत के साथ होगा। मानवों के प्रभुत्व वाले इस ग्रह पर हम मानवों को समझना होगा की हमारी दुनिया अब इस ग्रह पर पहले के समान छोटी नहीं रही हैं। हम मानवों की दुनिया अब इतनी बड़ी हो गयी है की अब यह ग्रह हमारे लिए छोटा हो गया है। जितना ही यह ग्रह हमारे लिए छोटा होता जा रहा है, हम उतने ही ज्यादा स्वार्थी होते जा रहे है। हमारे लिए अपनी एक अलग ही दुनिया है। इस दुनिया मे इन वन्य जीवों की कोई जगह नहीं है। अगर है भी तो हमारे स्वार्थ, हमारे मनोरंजन, हमारे लाभ के लिए है।


हालांकि मानव समाज शुरू से ऐसा नहीं था। हमारे पूर्वजों ने प्रकृति मे पाये जाने वाले प्रत्येक जीव के सहसतीत्व को सम्मान पूर्वक स्वीकारते हुए उनके साथ जीवन जीया था। वो जानते थे कि उनकी सीमाएँ क्या है और वन्य जीवों की सीमाएँ क्या है। दोनों एक दूसरे की दुनिया मे दखलंदाज़ी किए बिना प्रेमपूर्वक अपना जीवन जीते आए थे। परंतु आज मानव अपने स्वार्थ से इस ग्रह पर अपने बढ़ते हुए प्रभुत्व के कारण अपनी सीमाए लांघ रहा है। जिसकी वजह से उसके भीतर वन्य जीवों के लिए प्रेम, सम्मान और उनके सहसतीत्व का भाव समाप्त होता जा रहा है।


इसी प्रेम, सम्मान और सहसतीत्व के भाव को फिर जगाने की एक अनूठी पहल हमारे अगले परिंदे भगवान सेनापति ने असम मे अपनी कला के माध्यम से शुरू की है। भगवान सेनापति पेशे से एक हस्त शिल्पकार है जो बाम्बू, लकड़ी आदि प्रकृतिक वस्तुओं से कलाकृतियों का निर्माण करते है और उन्हे विभिन्न मेलों और प्रदर्शनियों के माध्यम से बेचते है। वो कहते है की “मैं अपनी कलाकृतियों की प्रेरणा प्रकृति से ही लेता आया हूँ। मेरा जीवन जंगलों के आस-पास, इस प्रकृति के बीच, विभिन्न पशु-पक्षियों को देखते हुए बिता है। परंतु पिछले कुछ वर्षों से मैं अनुभव कर रहा था कि हमारे आस-पास इन पशु-पक्षियों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई है। साथ मानवों और वन्य पशुओं के बीच संघर्ष भी बहुत आम हो गयी है। अक्सर हाथी और गेण्डे हमारे खेतों मे आकर हमारी फसलों को बर्बाद कर देते है। ये घटनाए जो सालों मे कभी कभार होती थी आज वो आम बात हो गयी है।”

जब उन्होने इस बात कि गहराई मे जाने कि कोशिश की तब उन्होने देखा कि हम मानवों ने अपने स्वार्थ की वजह से इनके घरों पर, इनके भोजन के साधनों पर अपना कब्जा कर लिया है। इनके जंगल दिन-ब-दिन छोटे होते जा रहे है। हम मानवों कि बस्तियाँ बढ़ती जा रही है। इस वजह से ये भोजन कि तलाश मे खेतों और गाँवों के भीतर तक आ जाते है। इसके नतीजे स्वरूप हम इन्हे अपना दुश्मन समझने लगे है। इस वजह से हमारे और इनके बीच जो प्रेम और सहसतीत्व का एक सम्मानजनक वो खत्म होने लगा है। हम इन्हे मारने लगे है। उन्हे लगा इसके लिए किसी को तो कुछ करना चाहिए। तब उन्होने एक अनूठी पहल शुरू की।

असम अपने बीहू महोत्सव के लिए पूरे विश्व प्रसिद्ध है। बीहू के दौरान ही विभिन्न कलाकार बाम्बू और चावल के भूसे से विशाल कलाकृतियों का बनाकर प्रदर्शित करते है, जिसे बेलाघर के नाम से जाना जाता है। उन्होने अपनी कला को बेलाघर से जोड़कर मानव और वन्य-पशुओं के बीच के सहसतीत्व का प्रदर्शन करना शुरू किया। वे इसे पिछले दो साल से कर रहे है। वे हर साल बीहू महोत्सव से एक महीने पहले अपनी कलाकृति को बना कर उसके साथ असम मे यात्रा करते है और लोगों को इस विषय मे जागरूक करते है। अपनी इसी मुहिम और प्रयास कि वजह से उन्हे पिछले वर्ष असम सरकार ने सम्मानित भी किया था। इस साल वे 30 फीट के गेण्डे और एक लड़की कि कलाकृति के माध्यम से अपने इस संदेश को लोगों के बीच लेके जाने वाले है।


वे कहते है कि “यह मुहिम मेरे अकेले कि नहीं है। मैं तो बस एक कलाकार हूँ, जो इन कलाकृतियों का निर्माण करता है। इस काम मे मुझे अपने गाँव के लोगों का पूरा सहयोग मिलता। इन कलाकृतियों के निर्माण का पूरा खर्चा गाँव मिलकर उठाता है। गाँव के हर घर से 50-100 रुपये का योगदान दिया जाता है। यहाँ तक बच्चे भी अपनी इस मुहिम मे बढ़-छड़कर भाग लेते है। यहीं बात हर गाँव को समझनी जरूरी है। मैं शहरों कि बात इसलिए नहीं करता हूँ क्योंकि इन वन्य-जीवों के साथ उनका कोई सीधा संपर्क नहीं है। उनके साथ संघर्ष हम लोगों को करना पड़ता है। शहर के ज़्यादातर लोगों के लिए यह जानवर सिर्फ मनोरंजन का साधन है। जिन्हें यह कभी चिड़ियाघर या इन जंगलों मे पैसे देकर देखने के लिए जाते है और अपना मनोरंजन करते है। उन्हें यहाँ इनके साथ नहीं रहना पड़ता है। वो हमारी प्रकृति से बहुत दूर हो चुके है हालांकि शांति कि तलाश मे वे भी अंत मे प्रकृति की ही शरण मे आते है। पर हम गाँव वालों का इनसे सीधा संपर्क है, और अगर हम इनका सम्मान नहीं करेंगे, इनसे प्रेम नहीं करेंगे तो संघर्ष स्वाभाविक है। चूंकि हम मनुष्य के पास कई साधन आज मौजूद है, इस वजह से हम इनसे ज्यादा ताकतवर हो गए है हमारे लिए इन्हे मारना आसान हो गया है पर यह खत्म हो गए तो शहरों को स्वार्थ के लिए इन जंगलों को खत्म करने का एक और बहाना मिल जाएगा और इसका अंत हमारे विनाश से होगा।”

एशियाइ गेण्डे और हाथी की घटती संख्या को बचाने के लिए शुरू किया कागज बनाना

महेश चंद्र बोरा और निशा बोरा कागज बनाते है। परंतु इस कागज की खास बात यह है कि इसे बनाने के लिए वे गेण्डे और हाथी के गोबर का प्रयोग करते है। उनके इस उपक्रम का मकसद एक सींग वाले एशियाइ गेण्डे को बचाना है। पुरी दुनिया में जीतने भी एक सींग वाले गेण्डे बचे है उसमे से 80 प्रतिशत असम मे पाये जाते है, परंतु इनकी संख्या मे बेहद तेज़ी गिरावट आ रही है। एक तरफ काले बाज़ार मे इनके सींगों की ऊँची कीमत की वजह से इन्हे अवैध तरीकों से मारा जा रहा है वही दूसरी तरफ किसान अपनी खेती को इनसे बचाने के लिए इन्हें मार रहे है।


महेश चंद्र बोरा एक सेवानिवृत कोल माइनिंग इंजीनियर है। 2009 मे दिल्ली से गुवाहाटी लौटते वक़्त एक पत्रिका मे उन्होने एक लेख पड़ा था। जिसमे लिखा था की कैसे एक महिला राजस्थान मे हाथी के गोबर से कागज बनाती है। वही से उन्हे यह विचार आया की “ऐसा ही कुछ हम असम मे क्यो नहीं कर सकते है। राजस्थान मे, जहाँ हाथी प्रकृतिक रूप से नहीं पाये जाते, वहाँ अगर ऐसा हो सकता है तो असम मे तो हाथियों की कोई कमी नहीं है। और अगर हम इसमे गेण्डे के गोबर को भी प्रयोग करने लगे तो उन्हे बचाने मे भी मदद मिलेगी।”


इसी विचार के साथ महेश चंद्र बोरा राजस्थान गए, वहाँ कागज बनाना सीखा और असम आकार Elrhino की स्थापना की। आज उनका यह उपक्रम आस-पास के गाँवो से 15 लोगों को प्रत्यक्ष और 150 से ज्यादा लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार उपलब्ध करवा रहा है। महेश कहते है इसका बड़ा श्रेय मेरी बेटी निशा को जाता है। जब मै Elrhino को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहा था तब उसने मेरा साथ दिया और आज की तारीख मे एक तरह से देखा जाए तो वो ही इस बिज़नस को संभाल रही है।

“जब पापा ने Elrhino की शुरुआत की थी तब लगभग हमे सभी शुभचिंतकों ने इस विचार को सिरे से नकार दिया था। उनका यही कहना था कि यह काम सिर्फ वक़्त और पैसे कि बर्बादी है, पर पापा को इस पर पूरा विश्वास था।

उस वक़्त मैं मुंबई मे काम करती थी। जब भी मैं असम आती थी तो पापा कि लगन और उनके काम को देखकर बहुत प्रेरित होती थी। यह वो वक़्त था जब मैं भी अपनी ज़िंदगी कुछ अलग खोज रही थी, जो कुछ नया हो, रोचक हो और चुनौतीपूर्ण हो। तब मैंने पापा के साथ जुडने का फैसला कर लिया।” निशा बोरा

अपने सफल कॉर्पोरेट करियर को छोड़कर जब निशा ने Elrhino कि कमान संभाली तब उन्हे नहीं पता था कि यह एक दिन एक ब्रांड बन जाएगा। उनका ऐसा इरादा भी नहीं था। उनकी यही कोशिश थी कि बस बेहतर काम करते हुए कैसे लोगों को जमीनी स्तर पर लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जा सकें, जिससे गेणडों को बचाने कि उनकी यह मुहिम ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुँच सकें।

निशा कहती है की, “आज Elrhino एक ब्रांड बन गया है, पूरे विश्व मे हमारे काम को पहचान मिल रही है, ज्यादा से ज्यादा लोग हमारे काम से प्रेरित हो रहे है, हमसे जुड़ना चाहते है। यह सब इतना आसान नहीं था। हम इस सोच के साथ कागज बना रहे थे की लोग इसे खरीदेंगे और इससे हम ज्यादा से ज्यादा लोगों तक हमारी बात पहुँचा सकेंगे, पर जल्द ही हमे पता लग गया कि हमारे पास कोई खरीददार नहीं है। तब हमने एक नयी सीएच के साथ इस कागज से कई सारे प्रोडक्टस बनाने किए किए। हमने लैम्प शेड्स, पेन स्टैंडस, डाइरीस, ताश आदि कई प्रयोग किए और उन्हे विभिन्न ट्रेड फेयर्स, प्रदर्शनियों के मध्यम से लोगों के बीच मे लेके गए, वही दूसरी तरफ हमने सोशल मीडिया का प्रयोग करते हुए लोगों तक पहुँचने कि कोशिश की। हमारी दोनों कोशिशों के माध्यम से न सिर्फ लोगों तक हमारा काम पहुँचा बल्कि उन्होने हमारे काम को सराहा भी।”

Elrhino अपने कागज के लिए कच्चा माल राष्ट्रीय उद्यान से लेने कि जगह सीधे किसानों और गाँव वालों से लेता है। इसके माध्यम से वे उन्हें न सिर्फ उनके रोज़मर्रा के काम के साथ-साथ आय का अन्य विकल्प भी उपलब्ध करवा रहा है अपितु, उन्हें वन्य जीवों के संरक्षण कि इस मुहिम से सीधे रूप से जोड़ रहा है। उनकी इस कोशिश का नतीजा उन्हे अब दिखने भी लगा है। स्थानीय लोग भी अब उनके काम कि सराहना करने लगे है और उनसे जुड़कर काम करना चाहते है।

निशा और महेश बोरा कहते है कि Elrhino के आधारभूत मूल्यों कि वजह से हम किसी भी प्रकार के कागज़ निर्माता के साथ दौड़ मे नहीं है। हमारी प्राथमिकता स्थानीय लोगों को बेहतर रोजगार उपलब्ध करने कि है और हमारे क्रेताओं को जागरूक करने की है, वो जिस वस्तु पर अपना पैसा खर्च कर रहे है, वो पैसा किस काम के लिए प्रयोग मे लिए जा रहा है।

इसके अलावा अब हमारी यह कोशिश है कि कैसे आस-पास के सभी गाँवो को एक सूत्र मे पिरोया जा सके जिससे वे गेण्डे के संरक्षण, उनके हक लिए आवाज़ उठाने के साथ-साथ कागज भी बना सके और उनके लिए आय के नए स्त्रौत तैयार हो सकें।

फार्मा मैनेजर का प्रकृति प्रेम : नौकरी छोड़ शुरू की जैविक खेती

बहुत मुश्किल होता है, एसी रूम से निकलकर चिलचिलाती धूप मेंं सीधे खेतों में आ जाना। लेकिन हौसले और इरादे यदि नितिन काजलाजैसे हों तो कुछ भी नामुमकिन नहीं। नितिन ने अपने सात साल के कैरियर को विराम देकर खेतों में उतरने का फैसला लिया। देश के किसानों के लिए कुछ करने का सोचा और साथ ही अपनी जनता को केमिकल फ्री खाना खिलाना चाहा। वह निकला तो अपने सफर पर अकेला था, लेकिन लोग मिलते गए कारवां बनता गया।
मॉडल किसान: नितिन काजला
नितिन काजला सिर्फ एक नाम ही नहीं, बल्कि उदाहरण है हमारी आज की उस युवा पीढ़ी के लिए, जिनके लिए पैसे कमाने का मतलब पार्टीज़ और शॉपिंग तक ही सिमट कर रह गया है। 

दो साल पहले नितिन एक बड़ी फार्मा कंपनी में कार्यरत थे, लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा। एक दिन अचानक ही मिलावटी खाना खाते खाते उनके मन में खयाल आया कि क्यों न ऐसा अनाज पैदा किया जाये, जो केमिकल फ्री हो। क्यों न किसानी की जाये और इसी सपने के साथ नितिन ने अमेरिकन कंपनी का आई कार्ड निकाल गले में अंगोछा लपेट लिया और बढ़ चले खोतों की ओर किसान बनने। उनके जानने वाले उन्हें मॉडल किसान के नाम से भी पुकारते हैं। मॉडल किसान एक ऐसा किसान जो आज की आधुनिक लेकिन मिलावटी फार्मिंग के जमाने में केमिकल फ्री आनाज पैदा कर रहा है, साथ ही बाकि के किसानों को ऐसी आदर्श फार्मिंग करने की शिक्षा भी दे रहा है। नितिन कजला ने 2014 में फार्मा कंपनी की नौकरी छोड़ अॉर्गेनिक फार्मिंग को प्रोमोट करने का फैसला लिया। इस फैसले को मूर्तरूप देने के लिए सबसे पहले अपने गांव भटीपुरा(मेरठ,यू.पी.) में ही खुद की तीन एकड़ भूमि पर आर्गेनिक फार्मिंग शुरू कर दी। शुरुआती दिनों में पड़ोसियों ने, दोस्तों ने, जान-पहचान वालों ने, रिश्तेदारों ने काफी मज़ाक उड़ाया, कि बिना केमिकल फ़र्टिलाइज़र और पेस्टिसाइड के भी कहीं खेती होती है। साथ ही कुछ लोगों का यह भी कहना था, कि "अच्छी-खासी नौकरी छोड़ खेती आजकल कोई समझदार व्यक्ति नहीं करता। लोग जिस नौकरी के लिए मारे-मारे फिरते हैं, यह लड़का इसे पीठ दिखा कर खेतों की ओर जा रहा है।"
सफर का पहला कदम आसान नहीं था। नौकरी तो छोड़ दी थी, लेकिन अब शुरुआत कैसे हो? फार्मिंग से जुड़ी हर जानकारी इकट्ठा करने के लिए नितिन ने इंटरनेट का सहारा लिया और उसके बाद खुद ही अॉर्गेनिक फर्टिलाइज़र और पेस्टिसाइड बनाने लगे। 

कुछ समय बाद ही नितिन की मेहनत ने रंग लाना शुरु कर दिया। परिणाम सकारात्मक आने लगे और लोगों को विश्वास भी होने लगा। खेती करने के साथ-साथ नितिन ने सोशल मिडिया के माध्यम से अपने परीचितों में आर्गेनिक फूड्स की ख़ूबी बतानी शुरू की। जिसका परिणाम यह हुआ कि जितनी भी फसल होने लगी जानने वाले उसे हाथों हाथ खरीदने लगे।


फसल का पोषण पूरा करने के लिए सबसे पहले नितिन ने रासायनिक फर्टिलाइज़र का स्वस्थ्य विकल्प तैयार करते हैं। गोबर,गौमूत्र,थोड़ा गुड और थोड़ा बेसन मिलाकर मटकों में पोषक खाद बनाते हैं और फिर इसे बुवाई से पूर्व खेत में डाल देते हैं। खड़ी फसल पर भी इसी मिश्रण में पानी मिलाकर स्प्रे करते हैं। एक दूसरे को मदद करने वाली फसलें इंटरक्रोप लेते हैं। हरी खाद का प्रयोग करते हैं, साथ गोबर की खाद को जीवाणुओं (एजोटोबैक्टर,पीएसबी आदि) की मदद और पोषक बनाकर खेत में डालते हैं। इस प्रकार फसल का पूर्ण पोषण तैयार होता है।

मैंने फार्मा कंपनी में लंबे समय तक नौकरी की है और दवाओं के परिणाम तथा दुष्परिणाम से बहुत अच्छे से वाकिफ हूं। दुष्परिणाम के उसी डर ने मुझे ज़हरमुक्त प्राकृतिक खेती करने की प्रेरणा दी।

नितिन अपनी फसल की कीटों से रक्षा करने के लिए नीम, करंज, आख, धतूरा, बेशर्म आदि कड़वे पत्तों को पहले गोमूत्र में उबालते हैं और फिर उसके बाद इसमें तीखी मिर्च और लहसुन की चटनी बना कर मिला लेते हैं। इस मिश्रण को छानकर इसमें दस गुना पानी मिलाकर फसल पर छिड़काव करते हैं। ऐसा करने से नुक्सानदायक कीट फसल पर नहीं बैठते। फंगस वाले रोगों से बचने के लिए छाछ(बटरमिल्क) में तांबे का टुकड़ा डालकर कुछ दिन रखते हैं फिर इसका 10% का पानी में घोल बनाकर स्प्रे करते हैं जिससे फसल फंगस वाले रोगों से बची रहती है।


वैसे तो हम दूध और हल्दी दर्द निवारक के रूप में पीते आये हैं पर कमाल की बात यह है कि नितिन इसका प्रयोग अपने खेतों में करते हैं। वे बताते हैं कि 500 मिली दूध में 50 ग्राम हल्दी मिलाकर उसे 15 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर स्प्रे करने से वायरस जनित रोगों से फसल का बचाव होता है।

इसी प्रकार नितिन और भी कई तरह के घरेलू प्रयोग अपनी दिल अजीज़ फसलों को उगाने और बड़ा करने में लाते हैं, साथ ही यह नुस्खे वह उन किसानों से भी साझा करते हैं, जो बकायदा उनके पास ट्रेनिंग लेने आते हैं।

नितिन की मेहनत और लगन के चलते परिणाम कुछ समय बात ही अच्छे मिलने लगे थे। अब समय था नितिन के प्रयोगों को खेत-खेत पहुंचाने का। ऐसे में उन्हें एक आइडिया सूझा और उन्होंने अपने कुछ सोशल मीडिया के दोस्तों के साथ मिलकर अपनी एक ऐसी टीम बनाई जो किसानों को आर्गेनिक फार्मिंग के लिए प्रेरित करती है। डीजिटल मीडिया के समय में सोशल नेटवर्किग का भरपूर इस्तेमाल करते हुए नितिन ने फेसबुक पर एक पेज बनाया तथा व्हाट्ज़-एप पर अपने किसान भाईयों का ग्रुप बनाया और व्हाट्ज़-एप और फेसबुक के माध्यम से किसानों को फ्री ऑनलाइन ट्रेनिंग देनी शुरु कर दी। 


नितिन के बताये नुस्खे किसानों ने जब अपनी खेती में इस्तेमाल करने शुरु किए तो परिणाम सकारात्मक निकले और यहीं से उनकी मेहनत ने रंग लाना शुरु कर दिया। अब यह नाम घर-घर में न सही, लेकिन खेत-खेत में जाना जाने लगा।

फ्री अॉनलाईन ट्रेनिंग ने नितिन को किसानों की दुनिया में चर्चित चेहरा बना दिया। फेसबुक पेज और व्हाट्ज़ एप ग्रुप की लोकप्रियता बढ़ी तो नितिन की जिम्मेदारियां भी बढ़ गईं, जिसके चलते उन्हें अपनी टीम बढ़ानी पड़ी। अब नितिन के सपनों का आकार मिलने लगा था। काम और समय की उपयोगिता को ध्यान में रखकर नितिन ने साकेत नामक संस्था की नींव रखी। संस्था के सभी सदस्यों ने नितिन की काबिलियत को ध्यान में रखते हुए नितिन को संस्था का चेयरमैन नियुक्त किया। आज साकेत के फेसबुक ग्रुप में दो लाख के आस-पास लोग जुड़े हुए हैं और दस हज़ार से ज्यादा किसान हर दिन आपस में अॉर्गेनिक फार्मिंग पर चर्चा करते हैं, साथ ही अपने अनुभवों को एक दूसरे से साझा करते हैं। 

साकेत नामक इस संस्था से जुड़े किसानों को जहाँ एक तरफ किसानी के गुण सिखाये जाते हैं वहीं दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को जहरीले रसायनों से उगे भोजन के नुकसान और आर्गेनिक भोजन के फायदे बताने के कैम्पेन भी चल रहे हैं। पूरे भारत से जुड़े किसान साथियों के आग्रह पर साकेत टीम समय समय पर 200 से 500 किसानों की 2 दिन की नि:शुल्क वर्कशॉप भी करती है। इसमें आर्गेनिक फार्मिंग की थ्योरी और प्रैक्टिकल के माध्यम से ट्रेनिंग दी जाती है। अब तक यूपी, उत्तराखण्ड, हरियाणा, राजस्थान व मध्यप्रदेश में 1500 से ज्यादा किसान इन वर्कशॉप्स में ट्रेनिंग ले चुके हैं और अच्छे से आर्गेनिक फार्मिंग कर रहे हैं।

साकेत संस्था किसानों को इंटीग्रेटेड अॉर्गेनिक फार्मिंग नाम की ट्रेनिंग देती है। यह ट्रेनिंग दो प्रकार से दी जाती है, पहली और दूसरी बेसिक ट्रेनिंग ज्यादा से ज्यादा उन किसानो को दी जाती है जो अभी रसायनिक खेती कर रहे और आर्गेनिक की ओर जाना चाह रहे हैं।इस ट्रेनिंग में रसायनिक खाद और कीटनाशकों के नुक्सान, जैविक भोजन के फायदे बताये जाते हैं। किसानों को भूमि की संरचना से लेकर सभी प्रकार के पोषक खाद और कीटनाशक बनाने के साथ स्वयं का बीज बनाने तक की ट्रेनिंग दी जाती है। किसानों को कम से कम स्वयं के लिए सही एक एकड़ भूमि में आर्गेनिक फार्मिंग के लिए उत्साहित किया जाता है। एडवांस ट्रेनिंग उन किसानों को दी जाती है, जो आर्गेनिक फार्मिंग कर रहे हैं, साथ ही इस ट्रेनिंग में उन किसानों को भी शामिल किया जाता है जो आर्गेनिक फार्मिंग को अपना कैरियर बनाना चाहते हैं। इसमें किसानों को खेती में आ रही समस्याओं का निवारण, अपने उत्पाद की ग्रेडिंग, पैकिंग और मार्केटिंग के गुर सिखाये जाते हैं। साकेत किसान साथियों को आर्गेनिक फार्मिंग के सर्टिफिकेशन और मार्केटिंग में भी सहयोग करता है। इन्हीं सबके बीच साकेत संस्था ने सार्थक कदम उठाते हुए साकेत मार्गदर्शिका के नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित की है, जो पूरी तरह अॉर्गेनिक फार्मिंग पर आधारित है। 
नितिन अपनी टीम के साथ
साकेत का पूरा मॉडल किसान की बाजार पर निर्भरता को खत्म करता है।

वहीं दूसरी तरफ किसान का उत्पाद ग्राहक तक पहुंचाने पर कार्य चल रहा है। नितिन और उनकी टीम का अगला लक्ष्य एक ऐसा प्लेटफार्म विकसित करना है, जहाँ किसान और उपभोक्ता एक दूसरे से सहकारी मॉडल से सीधे सीधे जुड़ें और किसान को फसल का उचित मूल्य मिले साथ ही उपभोक्ता को भी उचित मूल्य में शुद्ध और पोषक भोजन मिले। आजकल नितिन एक ऐसे एप पर काम कर रहे हैं, जिसमें किसानों की समस्याओं के समाधान के साथ-साथ ज़हरमुक्त प्राकृतिक अन्न को बेचा जा सके। यह एप बहुत जल्द ही हमारे सामने होगा। 

नितिन अपनी सफलता का श्रेय अपनी टीम के सदस्य दशरथ नन्दन पाण्डेय, डॉ जितेंद्र सिंह ,अशोक कुमार समेत 20 से अधिक साथियों के समर्पित सहयोग को देते हैं

कम खर्च में ज्यादा तेल निकालने वाली मशीन


 श्री कल्पेश गज्जर स्वास्तिक इंटरप्राइजेज के प्रबंध निदेशक हैं। हालांकि वह केवल एसएससी ही पास हैं, उन्होंने अपने दम पर प्रयोग और विकास से सीखा है। गुजरात सरकार से उन्हें साराभाई सम्मान मिला। ज्ञान ने उनकी प्रौद्योगिकी को सुधारने के लिए टीईपीपी कार्यक्रम के तहत अनुदान दिया। स्वास्तिक तेल निकालने वाली मशीन परंपरागत तेल निकालने वाली मशीन की तुलना में तीन गुना तेज, बिजली की केवल 2/3 खपत करने वाली तथा आकार में आधी है। यह 30 एचपी के बिजली मोटर से चलती है और प्रतिदिन 18 से 28 एमटी तिलहन निचोड़ती है। परंपरागत रूप से इस मशीन को चलाने के लिए छह मजदूर की जगह केवल तीन मजदूरों की ही जरूरत होती है। तेल मिल मालिकों को यह कॉम्पैक्ट आकार में उच्चतम क्षमता प्रदान करती है। मोटर कोल्हू के लिए प्लेनेटरी गेयर व्यवस्था से ऊर्जा स्थानांतरित करता है जो औसत गति और उच्च टोर्क देता है जिससे दक्षता बढ़ती है और 200 प्रतिशत तक पारेषण क्षति कम हो जाती है। यह तेल निकालने वाली मशीन इस तरह डिजाइन की गई है कि सभी प्रकार के बीजों के लिए उपयोग हो सके, यहां तक कि कपास के बीज जो कि निचोडऩे के लिए सबसे कठिन बीज के रूप में जाने जाते हैं। भारतीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में उपलब्ध किसी दूसरे तेल निकालने वाली मशीन की तुलना में इस मशीन की ऊर्जा क्षमता कम से कम तीन गुना ज्यादा है व केवल एक तिहाई जगह घेरती है। इस मशीन के लिए आवश्यक रखरखाव व्यय भी किसी दूसरे तेल निकालने वाली मशीन की तुलना में काफी कम है। इसमें तीन एकीकृत कोल्हू हैं जो 18 एमटी/दिन कपास के बीज के लिए और 28 एमटी/दिन मूंगफली और दूसरे अन्य बीज के लिए है। मशीन के मुख्य भाग का अभिन्न हिस्सा 30 एचपी का मोटर है जो मशीन को शक्ति देता है। मोटर तीन स्तरीय प्लेनेटरी गेयर व्यवस्था के द्वारा तीन कोल्हू से जुड़ा होता है। प्लेनेटरी गेयर सिस्टम होने से मशीन के द्वारा उत्पन्न पावर के उपयोग की क्षमता बढ़ती है। यह परंपरागत हूपर के माध्यम से फीड प्राप्त करता है। हूपर से मिले बीज चैंबर में भाप से पकते हैं। मशीन में बीज को भाप से पकाने के लिए तीन समानांतर चैंबर हैं। सभी चैंबर एक अलग-अलग कोल्हू की ओर जाता है। चैंबर को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि बीज सभी कोणों से भाप से पकते हैं। दबाने वाली मशीन सभी भाप चैंबर का अनुसरण करती है और प्रत्येक चैंबर भाप चैंबर से एक दबाने वाली मशीन जुड़ी होती है। दबाने वाली मशीन बीजों को कोल्हू में धकेलती है ताकि कोई भी बीज वापस नहीं आए। दबाने वाली मशीन बीजों को कॉम्पैक्ट कर कोल्हू को अधिक आपूर्ति सुनिश्चित करती है। इसके बाद बीज स्क्रू प्रेस में निचोड़ा जाता है। स्क्रू प्रेस की डिजाइन इस तरह का है कि यह तेल को बाहर आने के लिए अधिकतम जगह देता है। मशीन की लंबाई 3055 मिमि व चौड़ाई 1045 मिमि है। मशीन के कार्यजीवन को बढ़ाने के लिए इसके निर्माण में मिश्र इस्पात का प्रयोग किया जाता है।


नवप्रवर्तक की तेल निकालने वाली मशीन स्क्रू प्रेस से जुड़े प्लेनेटरी गेयर व्यवस्था का प्रयोग कर किसी भी प्रकार के बीजों को निचोड़ सकती है। इसी क्षमता के पारंपरिक तेल निकालने की मशीन की तुलना में यह औसतन 40 प्रतिशत बिजली बचाती है। इसकी उत्पादन दक्षता उच्च होती है जो कॉम्पैक्ट डिजाइन में बने एक कुशल ऊर्जा संचरण तंत्र के द्वारा संभव हो पाता है। यह पारंपरिक मशीन की तुलना में एक तिहाई जगह घेरती है और इसका रखरखाव खर्च भी न्यूनतम है। इस खोज के द्वारा ऊर्जा संरक्षण से तेल मिलों में बिजली की जरूरतों में कमी होगी। उपयोगकर्ता की सिरे पर यदि एक किलोवाट प्रतिघंटे की बचत होती है तो उत्पादन क्षमता को 2-4 किलोवाट प्रति घंटे की राहत मिल सकती है। हम कल्पना कर सकते हैं कि इस प्रौद्योगिकी से 50 प्रतिशत की बचत बिजली की मांग और आपूर्ति के बीच के अंतर को कम करने की लागत को घटाया जा सकता है। 
 

पारंपरिक तेल निकालने वाली मशीन पुली और बेल्ट वाली प्रौद्योगिकी से 30 एचपी के बिजली मोटर से प्रतिदिन 6 से 10 एमटी तिलहन निचोड़ती है। इन मशीनों के लिए 9.2 मि X 3.8 मि. के औसत जगह और दो मजदूरों की इसको संभालने के लिए जरूरत होती है। इसके अलावा पुली और बेल्ट प्रौद्योगिकी से होनेवाले संचरण क्षय से अंतत: परिचालन लागत बढ़ता है। बेल्ट की वजह से होनेवाले कंपन को अवशोषित करने के लिए मशीनों को एक ठोस नींव रखने की जरूरत होती है। बेल्ट और काउंटर शाफ्ट की वजह से अधिक कंपन होने के कारण टूट-फूट की आशंका उच्च रहती है।  इसके अलावे इसमें टिकिया की मोटाई को समायोजित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। टिकिया में तेल के प्रतिशत को 6-7 प्रतिशत के बीच रखना कठिन है।
 
बीज के प्रकारमोटर एचपी प्रति 24 घंटे में निचोडऩे की क्षमता एमटी में24 घंटे में तेल उत्पादन
कपास और सोयाबीन के बीज50-60 18-2214 प्रतिशत
केस्टर40-50 30-3536 प्रतिशत
मूंगफली40-30 50-3542 प्रतिशत
सरसों40-50 30-3535 प्रतिशत
रेपसीड40-50 30-3537 प्रतिशत
तिल40-50 30-3550 प्रतिशत
नारियल गरी40-50 30-3562 प्रतिशत
लिन बीज40-50 30-3542 प्रतिशत
पाम कर्नेल50 28 60-3236 प्रतिशत
क्रशिंग चैंबरप्रत्येक क्रशिंग चैंबर का आकार 33 X 6।
क्लच यंत्र संरचनाजरूरत के अनुसार तीनों में से किसी चैंबर को शुरू और बंद करते हैं।
टिकिया मोटाई उपकरणजरूरत के अनुसार टिकिया की मोटाई को व्यवस्थित करने के लिए, मशीन को रोकने की जरूरत नहीं होती है।
वजनलगभग 6000 किग्रा - मोटर और कुकिंग केतली के साथ।
उपरोक्त विवरण की गणना केवल सूखे और अच्छी गुणवत्ता वाले तिलहन के लिए ही है। 
मशीन में प्रयुक्त मोटर की तुलना में थोड़ी अधिक शक्ति वाले डीजल इंजन से भी इसे चलाया जा सकता है।
तेल का उत्पादन गणना सभी बीज की अधिकतम पेराई के बाद की जाती है।
यह क्षमता एक बार की पेराई की है, कुछ बीज को दो बार की पेराई की जरूरत होती है। 

  • इसमें तीन एकीकृत कोल्हू होते हैं जिसकी कुल पेराई क्षमता कपास के बीज के लिए 18 एमटी प्रतिदिन और मूंगफली तथा अन्य बीजों के लिए 32 एमटी प्रतिदिन होती है।
  • 50 एचपी का मोटर जो मशीन को ऊर्जा प्रदान करता वह मशीन के मुख्य भाग का अभिन्न हिस्सा होता है।
  • प्लेनेटरी गेयर व्यवस्था के साथ यह मोटर तीन कोल्हुओं से जुड़ा होता है।
  • मशीन में बीजों को भाप से पकाने के लिए तीन समानांतर चैंबर होते हैं।
  • प्रेशिंग मशीन भाप वाले चैंबर से जुड़ा होता और एक प्रशिंग मशीन प्रत्येक चैंबर से जुड़ा होता है।
  • अंतत: एक स्क्रू प्रेश होता जहां बीज को निचोड़ा जाता है।
  • मिश्र इस्पात का प्रयोग मशीन के कार्यजीवन को बढ़ाने के लिए किया जाता है।
  • इस मशीन की अतिरिक्त तकनीकी विशिष्टताएं और उत्पादन क्षमता निम्न प्रकार है।
  • कम से कम 50 प्रतिशत बिजली और 70 प्रतिशत जगह बचाती है।
  • कपास के बीज को 18 एमटी/24 घंटे की दर से प्रोसेस करती है।
  • उत्तम पेराई उच्च गुणवत्ता की टिकिया को बिना उसके पोषक गुणों को नष्ट किए सुनिश्चित करती है।
  • भारी बीयरिंग और गर्म शाफ्ट के इस्पात का विशेष मिश्रधातु सुचारू संचालन को सुनिश्चित करती है।
  • टिकिया की मोटाई को मशीन की चालू अवस्था में भी समायोजित किया जा सकता है।
  • मशीन के संचालन के लिए कम संख्या में मजदूर की आवश्यकता होती है।
  • मशीन के परिचालन लागत को एक तिहाई तक कम कर देता है।
  • बेहतर रखरखाव और हैडलिंग प्रदान करता है।

अपनी खेती अपना खाद, अपना बीज अपना स्वाद - प्रकाश सिंह रघुवंशी

प्रकाश सिंह रघुवंशी (49) ने किसानों के लिए बेहतर बीजों का विकास करने के लिए हमेशा कठोर परिश्रम किया है. उन्होंने गेहूँ, धान, सरसों और तुअर की उच्च उपज वाली किस्मों का विकास किया है. प्रकाश अपनी माँ, पत्नी, छ: बच्चों और भाई के साथ वाराणसी के टांडिया गाँव में एक संयुक्त परिवार में रहते हैं. उनके दो अन्य भाई भी हैं जो कि किसान हैं जबकि साथ रहने वाले भाई की स्वयं की बीज की कंपनी है जिसके द्वारा विकसित बीज बेचे जाते हैं.

रघुवंशी के पास साढ़े तीन एकड़ भूमि है जिस पर वह गेहूँ, धान और तुअर की खेती करते हैं. उसके परिवार के सदस्य विशेष रूप से उनका बड़ा पुत्र रणजीत, खेती कार्य में उनकी सहायता करता है. उनके सभी बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं.

अनुसंधान के लिए प्रेरणा

कृषि में नई बातों के साथ स्वयं को अद्यतन रखने के लिए, रघुवंशी नियमित रूप से कृषि मेलों में भाग ले रहे हैं और वैज्ञानिकों एवं कृषि अधिकारियों से मिल रहते हैं.

नई किस्मों का विकास करने की उनकी प्रेरणा - डॉ. महातिम सिंह, पूर्व प्राध्यापक, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू.) और पूर्व उपकुलपति, जी.बी. पंत कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (GBPUAT) से आई. डॉ. सिंह ने उन्हें बेहतर किस्मों का विकास करने के लिए प्रेरित किया जिनका उपयोग अन्य किसानों द्वारा अपना जीवन बेहतर करने के लिए किया जा सके.

नवप्रवर्तन

रघुवंशी ने कई बेहतर उच्च उपज वाली गेहूँ, धान, सरसों और तुअर की किस्मों का विकास किया है जो बड़ी महामारियों और बीमारियों के लिए प्रतिरोधी हैं और उनमें अच्छी गंध और स्वाद वाले बीज होते हैं. इन किस्मों को पौधों की विशिष्ट चारित्रिक विशेषताओं पर आधारित सरल चयन का उपयोग करके विकसित किया गया है.

गेहूँ की बेहतर किस्में

तीन गेहूँ की किस्में - कुदरत 5, कुदरत 9, कुदरत 17 का विकास कल्याण सोना और RR21 किस्मों से किया गया है. कुदरत 9, कुदरत 5, कुदरत 17 के पौधे की ऊँचाई क्रमश: 85-90 सेमी., 95-100 सेमी. और 90-95 सेमी है जबकि बालियों की लंबाई 9 सेमी, 6 सेमी और 10 सेमी; 1000 बीजों का वजन 70-72 ग्राम, 58-60 ग्राम, 60-62 ग्राम है; और प्रति एकड़ उपज 20-25 क्विंटल है, 15-20 क्विंटल और 22-27 क्विंटल क्रमश: है.

सामान्यत: गेहूँ की किस्मों को बालीधानों की उच्च संख्या, लंबी बालियों और प्रति बाली बीजों की अधिक संख्या, कठोर तना और उच्च प्रोटीन मात्रा के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है.

धान की बेहतर किस्में

धान की तीन किस्में - कुदरत 1, कुदरत 2 और लाल बासमती का विकास HUVR-2-1 और पूसा बासमती किस्मों से किया गया है. कुदरत 1, कुदरत 2 और लाल बासमती किस्मों की स्थिति में परिपक्व होने के लिए दिनों की संख्या क्रमश:130-135 दिन, 115-120 दिन और 90-100 दिन है जबकि प्रत्येक की प्रति एकड़ उपज (क्रम में बताई गई) 25-30 क्विंटल, 20-22 क्विंटल और 15-17 क्विंटल है. धान की किस्मों में बालियों की उच्च संख्या और प्रति बाली बीजों की अधिक संख्या होती है.

तुअर की बेहतर किस्में

तीन तुअर की किस्में - कुदरत 3, चमत्कार, करिश्मा का विकास आशा और मालवीय 13 किस्मों से किया गया है. कुदरत 3 एक चिरस्थायी किस्म है जबकि अन्य दो वार्षिकी हैं. कुदरत 3, चमत्कार और करिश्मा की स्थिति में प्रति पौधा फलियों की संख्या क्रमश: 500-1000, 400-600 और 450-650 है जबकि उपज प्रति एकड़ 12-15 क्विंटल, 10-12 क्विंटल और 10-12 क्विंटल है. इन किस्मों में मोटे बीज, दृढ़ तने और प्रति पौधा फलियों की अधिक संख्या होती है.

सरसों की बेहतर किस्में

तीन सरसों की किस्में - कुदरत वंदना, कुदरत गीता, कुदरत सोनी का विकास सरल चयन का उपयोग करके उनके द्वारा किया गया है. किस्मों की औसत बीज उपज क्रमश: 1430.52 किग्रा /हेक्ट, 1405.24 किग्रा /हेक्ट और 742.23 किग्रा/हेक्ट; औसत तेल मात्रा 42.30 प्रतिशत, 39.00 प्रतिशत और 35.50 प्रतिशत के साथ है. कुदरत वंदना का विशेष गुण प्रति फली बीजों की अधिक संख्या और उच्च तेल मात्रा है जबकि कुदरत गीता और कुदरत सोनी के लिए उनकी विशेषता है गुच्छेदार फलियां और मोटे बीज. सरसों की किस्मों का आकलन एन.आर.सी.आर.एम्., भरतपुर में किया गया है.

प्रसार और प्रतिक्रिया

रघुवंशी एक नवप्रवर्तनकारी किसान हैं और उन्होंने उत्तर भारत में कई किसान मेलों और कृषि मेलों में भाग लिया है. उन्होंने उ.प्र. में वाराणसी, इलाहाबाद; मध्यप्रदेश में जबलपुर, नरसिंहपुर, खरगोन, इन्दौर, भोपाल; छत्तीसगढ़ में रायपुर, भिलाई, धमतरी; महाराष्ट्र में जलगाँव, यवतमाल, अमरावती और पुणे; तथा राजस्थान में कोटा, भरतपुर, डूँगरपुर, जयपुर और सीकर; एवं गुजरात में अहमदाबाद, गाँधीनगर, अमरेली, सबरकंथा; तथा बिहार, हरियाणा व पंजाब के कुछ भागों में अपने गेहूँ की किस्मों के बीच वितरित किए हैं जहाँ से रिपोर्ट और किसानों की प्रतिक्रियाएँ प्रशंसनीय रहीं हैं.

उनकी सरसों और तुअर की किस्मों के लिए यू.पी., राजस्थान, पंजाब, बिहार और हरियाणा से किसानों से प्रोत्साहनवर्धक प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है. उनकी नई फसल की किस्मों को एक किसान मेले में और वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान से प्रशंसा प्राप्त हुई है जिन्होंने उनकी गेहूँ की किस्मों का परीक्षण किया.

वह चौथी प्रतिस्पर्धा के लिए तकनीकों का आकलन करने हेतु रा.न.प्र की सूचना अनुसंधान सलाहकार समिति (RAC) का भाग रहे हैं. रघुवंशी ने 2006 में श्रृष्टि-रा.न.प्र. द्वारा आयोजित पारंपरिक भोज उत्सव ‘सात्विक’ में भाग लिया जहाँ उन्होंने उनकी किस्मों के लिए अच्छा प्रतिसाद प्राप्त किया. उन्होंने 2007 में मूलभूत नवप्रवर्तनों और पारंपरिक ज्ञान के लिए रा.न.प्र. के चौथे राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में सांत्वना पुरस्कार जीता था. रा.न.प्र. ने उनकी गेहूँ की किस्मों - कुदरत 7, कुदरत 11 और तुअर की किस्म कुदरत 3 के पीपीवीएफआर अधिनियम 2002 के अंतर्गत आवेदन फाइल किया है.

उन्हें नर्सरी विकास, खेती और उनकी बेहतर किस्मों के लिए निर्माण माध्यमों को बढ़ावा देने के लिए सूक्ष्म उपक्रम नवप्रर्वतन कोष (एमवीआईएफ) के तहत 1,90,000/- रु. की वित्तीय सहायता प्रदान की गई.

संपूर्ण कठोर कार्य जो वह विभिन्न फसलों की बेहतर किस्मों का विकास करने के लिए करते हैं वो एक एकल साधारण परिसर पर आधारित होते है. वह कामना करते हैं कि प्रत्येक किसान को फसलों की उच्च उपज वाली किस्मों के बेहतर गुणवत्ता बीजों पर पहुँच प्राप्त होना चाहिए ताकि यह किसान के साथ-साथ देश के लिए भी लाभदायक हो.

'मेरे बीजों से गर हो किसी का भला, तो फिर क्यूं रहे मुझको गिला।‘ प्रगतिशील किसान बलवान सिंह

हरियाणा स्थित भिवानी निवासी बलवान सिंह (50) एक नवप्रवर्तक और प्रगतिशील किसान हैं। उन्होंने अच्छी गुणवत्ता वाली उच्च उपजी प्याज की प्रजाति विकसित की है। किसान परिवार में जन्मे बलवान सिंह एक नटखट बच्चे थे और हॉकी के समान एक स्थानीय खेल ‘पिल्ला खुर्दा’ तथा ‘कबड्डी’ खेलना पसंद करते थे। यद्यपि स्कूल भेजने की अपेक्षा उनके माता-पिता उन्हें अपने कार्य में एक सहयोगी के रूप में रखना चाहते थे, लेकिन छोटे बलवान का पढ़ाई के प्रति खास झुकाव था। वह अपने प्रिय शिक्षक भीम सिंह के साथ गांव के स्कूल बारम्बार चले जाते थे। उनकी सादगी और उनके सिखाने के तरीके से बलवान सिंह बहुत प्रभावित थे। विज्ञान उनका प्रिय विषय था, लेकिन अनिश्चित आर्थिक स्थिति के कारण वह अपनी पढ़ाई 10वीं के बाद जारी नहीं रख सके। उनके माता-पिता भी चाहते थे कि वह उनके दैनिक काम में मदद करें।

तुरंत, उन्होंने जिंदल स्टील में नौकरी कर ली, लेकिन कुछ महीनों से अधिक दिन तक वह उसे जारी नहीं रख सके। वह पुलिस और सेना में भी चयनित हुए, लेकिन यह किस्मत ही थी कि कभी इसे ज्वाइन नहीं किया और कृषक बने रहे। पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के बाद मिले एक एकड़ जमीन के साथ बलवान ने खेती के लिए खेत किराए पर लिया और कभी-कभी खेतों में मजदूर के रूप में भी काम किया। जहां कहीं भी उन्होंने काम किया वहां से कुछ बेहतर सीखा, खेती में उनकी अभिरुचि बढऩे लगी। पौधे की विभिन्न प्रजातियों पर शोध और उसका विश्लेषण ऐसी चीजें है जिसमें उन्हें आनंद आने लगा। जैविक खेती के समर्थन में उन्होंने नीम के पते व फल, गाय के गोबर, गोमूत्र का एक मिश्रण तैयार किया और खेतों में छिड़काव किया। पौधे की वृद्धि के लिए उन्होंने खरपतवार निकालने और सिंचाई जैसे दो महत्वपूर्ण काम को किया। जल की कमी के कारण उन्होंने वैकल्पिक ढंग से सिंचाई की। बलवान बताते हैं कि उस क्षेत्र में जल स्तर 60 फीट नीचे है और पानी नमकीन है जो पीएच बढ़ाता है। इसलिए अधिकतर सिंचाई नहर सिंचाई के माध्यम से की जाती है जो सूर्यास्त के बाद होती है। कृषि के अलावा अपने परिवार की वंशावली का पता लगाना उनकी रोचक पूर्वव्यस्तता थी। वह 200 साल पहले के अपने पारिवारिक इतिहास का पता लगाने का दावा करते हैं।

उत्पति

विभिन्न कंपनियों द्वारा आपूर्ति की जाने वाली बीज की गुणवत्ता और किसानों की अपेक्षाओं के बीच मेल नहीं होने के कारण बलवान सिंह ने खुद ही कुछ प्रजातियों को विकसित करने के बारे में सोचा। बाजार का सावधानीपूर्वक अवलोकन करने के बाद उन्होंने पाया कि प्याज की फसल उनके प्रयोग के लिए अधिक उपयुक्त रहेगी। 1984 के आसपास उनके भाई ने पड़ोस के गांव से कुछ प्याज लाया। बलवान ने पाया कि बड़ा और सुगठित आकार के कंद, लाल रंग, मोटा और घनिष्ट छिलका इस प्याज की विशेषताएं हैं। एक अनुभवी किसान होने के नाते वह जानते थे कि अच्छी गुणवत्ता वाले पौधे से अच्छे फल का उत्पादन होता है। पौधे के स्वास्थ्य, कसा हुआ छिलका, बड़े और बेहतर आकार के लाल कंद के मापदंडों पर पौधों को श्रेणीबद्ध करना और अंकुर तैयार करना शुरू किया। साल दर साल वह इसी प्रक्रिया को प्रजाति को परिशुद्ध करने और इसकी विशिष्टता को स्थाई करने के लिए दोहराते रहे। 17 वर्षों के श्रमसाध्य प्रयास के बाद अंतत: वह प्याज की अपनी प्रजाति की विशेषताओं को स्थापित करने में सफल रहे। इसने लंबा समय लिया लेकिन निरंतर प्रयास और परिवार के समर्थन से मुकाम हासिल किया। परिवार के लोग भी फसल के प्रदर्शन का वर्षवार आंकड़ा बनाकर रखते थे, जो अच्छा प्रदर्शन दिखाता था। पूरे समय उन्हें अपनी पत्नी से योग्यतपूर्ण समर्थन मिला जो कई बार खुद ही परिवार का और खेत का ख्याल रखती थीं। जब बलवान काम के सिलसिले में यात्रा पर जाते थे, वह हमेशा उनकी प्रयोग में असफलता और बीमारी या अवसाद के सिलसिले में उनके पक्ष में खड़ी रहती थी।

बलवान प्याज

इस प्याज की प्रजाति कसे हुए छिलके के कारण सभी गुणों से युक्त एक उच्च उपजी प्रजाति है। इसकी उपज 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है और छल्ले की मोटाई, नुकसान को सहने की क्षमता और उदारवादी तीखापन कुछ ऐसी विशेषताएं जो चिह्नित की गईं हैं। इसके लगभग पांच सेमी व्यास के गहरे लाल गोलाकार कंद, 0.8 सेमी मोटाई की गर्दन और 50-60 ग्राम वजन इसे परंपरागत चमकीले लाल, कम तीखे कंद के 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन की तुलना में अधिक आकर्षक बनाता है। रा.न.प्र. ने रबी मौसम 2010-11 के दौरान सब्जी शोध फार्म, सब्जी विज्ञान विभाग, एसीएसएचएयू हरियाणा में प्रजाति की जांच की सुविधा उपलब्ध कराया। परिणाम के अनुसार प्याज की प्रजाति ने कंद की उच्च उपज (368.1 क्विंटल प्रति हेक्टेयर), कंद का वजन और व्यास हिसार-2 की तुलना में काफी अधिक है। अन्य विशेषताएं जो इस प्रजाति को अलग करती हैं वह हैं कंद का गहरा लाल रंग, सूखा छिलका और पत्ते का गहरा हरा रंग। हालांकि बलवान सिंह के पास छोटा खेत था और नई प्रौद्योगिकियों की उपलब्धता भी सीमित थी, लेकिन वह दूसरे किसानों के प्रजातियों की तुलना उच्च उत्पादन देने वाली प्रजाति विकसित करने में सफल हुए। वह हरियाणा और आसपास के करीब एक हजार किसानों में इस प्रजाति की बीज को वितरित कर चुके हैं। हिसार, भिवानी और इससे सटे इलाकों में ‘बलवान प्याज’ इसका जाना माना नाम है।

मान्यता दिलाने का प्रयास

बलवान सिंह ने अपने मनभावन स्वभाव के कारण अपने गांव, समुदाय और स्थानीय प्रशासन में एक सम्मानित स्थान हासिल किया। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कर्मियों के समर्थन को विशेष तौर पर माना जो समय-समय पर मार्गदर्शन देने के साथ-साथ उन्हें नवीनतम प्रौद्योगिक से मदद करते थे। 2011 में राष्ट्रपति भवन में आयोजित नवप्रवर्तन प्रदर्शनी में अपनी प्रजाति प्रदर्शित करने का मौका रा.न.प्र. ने उपलब्ध कराया। वह विभिन्न कृषि उत्पादों की प्रदर्शनी में हिस्सा ले चुके हैं और पुरस्कार भी जीत चुके हैं। उनके कार्य को स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया ने उसी रूप में प्रसारित किया है। उदार व्यक्ति होने के कारण वह अपने ज्ञान और बीज को दूसरों की संपन्नता के लिए बांटने से नहीं हिचकते हैं।


क्या बिना जुताई के खेती है संभव?

मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है- टाईटस फार्म। यहां पिछले 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग किया जा रहा है। राजू टाईटस जो स्वयं पहले रासायनिक खेती करते थे, अब कुदरती खेती के लिए विख्यात हो गए हैं। उनके फार्म को देखने देश-विदेश से लोग आते हैं। होशंगाबाद जिले में हाल ही में 3 किसानों द्वारा आत्महत्या की गई। इससे वे विचलित हैं, पर निराश नहीं। वे कुदरती खेती को विकल्प के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि अब रासायनिक खेती के दिन लद गए हैं।

बेजा रासायनिक खाद, कीटनाशक, नींदानाशक और जुताई से मिट्टी की उर्वरक शक्ति कम हो गई है। तवा बांध की सिंचाई से शुरूआत में समृद्धि जरूर दिखाई दी, लेकिन अब वह दिवास्वप्न में बदल गई है। ऐसे में वैकल्पिक खेती के बारे में विचार करना जरूरी है। इसी परिप्रेक्ष्य में कुदरती खेती का प्रयोग ध्यान खींचता है। राजू और उनककी पत्नी शालिनी दोनों मिलकर अपने इस फार्म पर प्राकृतिक खेती करते हैं। उनके फार्म के चारों ओर हरे-भरे आमरूद के लहलहाते वृक्ष खड़े हैं। जब वे खेत में गेहूं की बोवनी करते हैं तो खेत में ग्रीन ग्राउंड कवर भी करते हैं। यानी खरपतवार से ढंककर खेत को रखना। यहां खेत को धान के पुआल से ढंक कर रखा जाता है।


इसमें गाजरघास जैसी खरपतवार का इस्तेमाल किया जाता है। राजू जी ने बताया कि सामान्य सिंचाई के बाद पुआल या खरपतवार ढंक दी जाती है। सूर्य की किरणों से ऊर्जा पाकर सूखे पुआल के बीच से हरे गेहूं के पौधे ऊपर आ जाते हैं। उन्होंने बताया कि खेत में पुआल ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं, जिससे फसल अच्छी होती है। उनका कहना है कि रासायनिक खेती में धान के खेत में पानी भरकर उसे मचाया जाता है, जिससे पानी नीचे नहीं जा पाता। धरती में नहीं समाता। खेत का ढकाव एक ओर जहां जमीन में जल संरक्षण करता है, यहां के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है, वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है, क्योंकि वहां अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं।

जिससे रोग लगते ही नहीं हैं। उनके मुताबिक जब भी खेत में जुताई और बखरनी की जाती है, बारीक मिट्टी को बारिश बहा ले जाती है। साल दर साल खाद-मिट्टी की उपजाऊ परत बारिश में बह जाती है। जिससे खेत भूखे-प्यासे रह जाते हैं और इसलिए इसमें बाहरी निवेश की जरूरत पड़ती है। यानी बाहर से रासायनिक खाद वगैरह डालने की जरूरत पड़ती है। जमीन के अंदर की जैविक खाद, जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते हैं, जुताई से गैस बनकर उड़ जाती है, जो धरती के गरम होने और मौसम परिवर्तन में सहायक होती है। ग्लोबल वार्मिंग और मौसम परिवर्तन इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा चिंता का सबब बने हुए हैं। लेकिन अगर बिना जुताई (नो टिलिंग) की पद्धति से खेती की जाए तो यह समस्या नहीं होगी और अब तो जिले में जो ट्रेक्टर-हारवैस्टर की खेती हो रही है, वह ग्लोबल वार्मिंग के हिसाब से उचित नहीं मानी जा सकती।


राजू टाईटस के पास 13.5 एकड़ जमीन है, जिसमें 12 एकड़ में खेती करते हैं। इस साल वह पड़ोसी की कुछ जमीन पर यह प्रयोग कर रहे हैं। इस 12 एकड़ जमीन में से 11 एकड़ में सुबबूल (आस्ट्रेलियन अगेसिया) का घना जंगल है। यह चारे की एक प्रजाति है। इससे पशुओं के लिए चारा और ईंधन के लिए लकड़ियां मिलती हैं। जिन्हें वे सस्ते दामों पर गरीब मजदूरों को बेच देते हैं। उनके अनुसार सिर्फ लकड़ी बेचने से सालाना आय ढाई लाख की हो जाती है। सिर्फ एक एकड़ जमीन पर ही खेती की जा रही है। राजू बताते हैं कि वह खेती भोजन की जरूरत के अनुसार करते हैं, बाजार के अनुसार नहीं। उनकी जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से उन्हें अनाज, फल, दूध और सब्जियां मिल जाते हैं, जो परिवार की जरूरत को पूरा कर देते हैं।

सर्दियों में गेहूं, गर्मी में मक्का व मूंग और बारिश में धान की फसल भोजन की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। कुदरती खेती को ऋषि खेती भी कहते हैं। राजू टाईटस इसे कुदरती-जैविक खेती कहते हैं। जिसमें बाहरी निवेश कुछ भी नहीं डाला जाता। न ही खेत की हल से जुताई की जाती है और न बाहर से किसी प्रकार की मानव निर्मित खाद डाली जाती है। नो टिलिंग यानी बिना जुताई के खेती। पिछले 25 साल से उन्होंने अपने खेत में हल नहीं चलाया और न ही कीटों को मारने के लिए कीटनाशक व दवा का इस्तेमाल किया। यह पूरी तरह अहिंसक कुदरती खेती है। इसकी शुरूआत जापान के मशहूर कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओवा ने की थी, जो स्वयं यहां आए थे। फुकुओवा ने बरसों तक अपने खेत में प्रयोग किया और एक किताब लिखी- ‘वन स्ट्रा रेवोल्यूशन’ यानी एक तिनके से आई क्रांति। यह पद्धति इतनी सफल हुई है कि अमेरिका में भी अब इसका प्रयोग किया जा रहा है, जहां बिना जुताई की खेती का तेजी से चलन बढ़ा है।

आमतौर से खेती में फसल के अलावा किसी भी तरह के खरपतवार, पेड़-पौधों को दुश्मन माना जाता है, लेकिन कुदरती खेती इन्हीं के सहअस्तित्व से होती है। इन सबसे मित्रवत व्यवहार किया जाता है। पेड़-पौधों को काटा नहीं जाता। जिससे खेत में हरियाली बनी रहती है। राजू बताते हैं कि पेड़ों के कारण खेतों में गहराई तक जड़ों का जाल बुना रहता है, जिससे जमीन ताकतवर बनती जाती है। अनाज और फसलों के पौधे पेड़ों की छाया तले अच्छे होते हैं। छाया का असर जमीन के उपजाऊ होने पर निर्भर करता है। चूंकि हमारी जमीन की उर्वरता और ताकत अधिक है, इसलिए पेड़ों की छाया का फसल पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। बिना जुताई (नो टिलिंग) के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। उन्होंने बताया कि जब पहली बार उन्होंने ऐसा सुना था, तब उन्हें भी विश्वास नहीं हुआ था।

लेकिन अब सब देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो गईं। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रमशः घटती जाती है और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं उपजता। वह बंजर हो जाती है। वास्तव में कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। इससे शुद्ध हवा और पानी मिलता है। धरती को गर्म होने से बचाने और मौसम को नियंत्रण करने में भी मददगार है।

इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है क्योंकि ऋषि-मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे। उसे धरती माता कहते थे। उससे उतना ही लेते थे, जितनी जरूरत होती थी। सब कुछ निचोड़ने की नीयत नहीं होती थी। इस सबके मद्देनजर कुदरती खेती भी एक रास्ता हो सकता है। भले ही आज यह व्यावहारिक न लगे लेकिन इसमें वैकल्पिक खेती के सूत्र दिखाई देते हैं।

विक्रम राठोर ने विकसित किया साइकिल से चालित पानी वाला पंप

विक्रम राठोर (49) आंध्र प्रदेश में नरसापुर गाँव, उतनूर मंडल, अदीलाबाद से एक छोटे आदिवासी किसान है। वह बंजारा समुदाय से संबंधित हैं जो अर्द्ध-खानाबदोश समुदाय है जो कई सौ वर्ष पूर्व राजस्थान से प्रवासित हुए थे। वह साइकिलों और अन्य छोटी मशीनों को सुधारकर अपनी जीविका अर्जित करते हैं। उन्होंने पांचवीं कक्षा तक पढ़ाई की और फिर वित्तीय बाधाओं के कारण अपना अध्ययन छोड़ दिया। उन्हें अपनी पहली पत्नी से कोई बच्चा नहीं था और इसलिए पुनरू विवाह किया और अब पाँच बच्चे हैं।

प्रारंभ से ही विक्रम राठोर के पास चार एकड़ भूमि है जिस पर वह कपास की खेती करते हैं। कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने एक एकड़ पर धान उगाई थी जिसने वर्षा की कमी के कारण मुरझाना शुरु कर दिया । किंतु पानी को पंप करने के लिए उनके पास कोई विद्युत मोटर या डीजल इंजन नहीं था। इसलिए उन्होंने अपनी फसलों में पानी देने के लिए अपने भाई से उसकी विद्युत मोटर देने को कहा किंतु उनके भाई ने इसको उन्हें देने से मना कर दिया। चूँकि बचपन से ही, विक्रम राठोर पंक्चर सुधारते रहे हैं और विभिन्न उत्पादों के बारे में स्वप्न देखते रहे हैं। उन्होंने इस अवरोध से पार पाने के लिए बेहतर उपयोग करने हेतु मन में तकनीकी झुकाव सोचना शुरू कर दिया। उन्होंने एक विद्युत मोटर का उपयोग करके जमीन से पानी खींचने की यांत्रिकी का अवलोकन किया जिसमें एक इंजन पंखा घुमाता है जो पानी को जमीन से बहार खींचने को सक्षम करता है।


इसने उन्हें यह देखने के लिए विचार दिया कि क्या हाथ से पंखा घुमाने पर पानी ऊपर आएगा कि नहीं। उन्होंने इसका प्रयास किया और देखा कि कुछ पानी ऊपर आ रहा है। फिर उन्होंने पंखे को तेज घुमाया और अवलोकन किया कि पानी तेज दाब से ऊपर आ रहा था। फिर उन्होंने पानी पंप करने के लिए एक साइकिल का उपयोग करने का सोचा, किंतु उनके पास कोई साइकिल नहीं थी। उस समय, उनकी वित्तीय स्थिति इतनी कसी हुई थी कि उन्हें उनके घर में रखी ज्वार बेचना पड़ी जिसे उन्होंने भोजन के लिए संग्रहित किया था और एक पुरानी साइकिल खरीदी। उन्होंने एक तेल मिल के परिसर में कुछ पुराने गियर डले हुए देखे थे और उन्होंने मालिक से इन गियरों को उन्हें देने का अनुरोध किया और एक कबाड़ की दुकान से कुछ अन्य पार्ट्स खरीदे। उन्होंने एक एचपी मोटर भी खरीदी और फिर अपने पंप पर कार्य करना शुरु किया।

उन्होंने साइकिल की पिछली रिम को एक रस्सी के साथ पंखे में जोड़ दिया और साइकिलों के वलयों को घुमाया जिससे वह धान की सिंचाई करने के लिए एक धारा से जल की अच्छी मात्रा पंप करने में सक्षम थे। लाभ पारंपरिक सेंट्रीफ्यूगल पंप को बिजली या डीजल इंजन की आवश्यकता होती है, किंतु वर्तमान नवप्रवर्तन पेडल चलाने पर कार्य करता है। यह प्रदूषण रहित और पर्यावरण के अनुकूल युक्ति है। चूँकि यह सामान्य रूप से उपलब्ध सामग्री से बनी होती है और कीमत रु. 3000 है इसलिए यह आम लोगों के लिए वहनीय है। इसमें कम रखरखाव की आवश्यकता होती है और जल का अधिकतम परिणाम प्राप्त करने के लिए न्यूनतम निवेश ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इस युक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से लाया ले जाया जा सकता है। सिस्टम का उपयोग आटा चक्की में किया जा सकता है। पहचान अदीलाबाद जिला, जहाँ से विक्रम राठोर आते हैं, एक सूखाग्रस्त क्षेत्र है जहाँ मुश्किल से 20” वर्षा होती है और जो बहुत असमतल रूप से वितरित भी है।


इसलिए इस डिवाइस की क्षेत्र में बहुत संगतता है और उनके गाँव के लोगों ने डिवाइस का कार्य करना देखकर उनमें विश्वास करना शुरु कर दिया। लगभग उसी समय उतनूर के आईटीडीए परियोजना अधिकारी को इस नवप्रर्वतन के बारे में पता चला और इस पंप का प्रदर्शन देखने पर वह बहुत प्रभावित थे। आईटीडीए ने विक्रम को उनकी डिजाइन सुधारने के लिए वित्तीय रूप से सहायता की और उनकी सहायता से उन्होंने कुछ और साइकिल रिंग्स खरीदीं और एक नया मॉडल डिजाइन किया जिसके साथ वह पानी की उतनी ही मात्रा उठाने में सक्षम थे जितनी एक 3एचपी विद्युत मोटर उठा सकती थी।

उनके नवप्रवर्तन ने बहुतों का ध्यान खींचा और कुछ वर्ष पूर्व, हैदराबाद से कुछ लोग उन्हें एक बड़े पुरस्कार का वायदा करते हुए उनके पास आए। वे उन्हें उनके साथ ले गए और उन्हें छरू दृ सात दिनों तक एक घर में रखा जहाँ उन्हें उचित रूप से खाना भी नहीं दिया। वह किसी तरह वह से बाख निकले और अपने गाँव वापस लौटे। इस बीच किसी ने उन्हें और आगे कोई कार्य करने से पहले अपने पंप के लिए पैटेंट फाइल करने की सलाह दी। वह जिलाधीश श्री सुकुमार के पास गए जिन्होंने पैटेंट करने में उनकी सहायता करने के लिए हैदराबाद में उच्च अधिकारियों को लिखा किंतु दुर्भाग्यवश कुछ नहीं हुआ।

नवप्रवर्तन जो उन्होंने बनाया था वह किसी तरह स्थानीयकृत रहा और लोगों के बीच अत्यधिक रुचि के बावजूद प्रचलित नहीं हुआ क्योंकि वह सुनिश्चित नहीं थे कि पैटेंट कराये बिना उन्हें श्रेय मिलेगा। राष्ट्रीय नवप्रर्वतन ने अब नवप्रवर्तन के लिए एक पैटेंट फाइल किया है। कई बाधाएँ जिनका उन्होंने सामना किया, नवप्रर्वतन के लिए उनके जोश को जारी रखने से उन्हें रोक नहीं सकीं। तद्ानुसार उन्होंने एक हाथ से चलाने वाली आटा चक्की का विकास किया जो साइकिल के पैडल के घूमने से चलती है। इस आटा चक्की को विद्युत या किसी अन्य संसाधन की आवश्यकता नहीं होती है। यह दक्ष है और लगभग पाँच-छः मिनटों में एक किलोग्राम अनाज को चूर्ण में पीसती है। महान कल्पना और दृढ़ता के व्यक्ति, वर्तमान में उन्हें एक साइकिल का उपयोग करके विद्युत उत्पन्न करने का विचार आया है और वायदा करते हैं कि यदि उन्हें वित्तीय सहायता दी जाती है, तो वे अपने संपूर्ण गाँव में प्रदान करने के लिए पर्याप्त विद्युत उत्पन्न कर सकते हैं।

यह नवप्रर्वतनशील उत्साह का एक प्रशंसनीय उदाहरण है जो दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में फैलता है। जहाँ एक व्यक्ति की रचनात्मकता जीवन को सुधारने और नौकरियाँ उत्पन्न करने के लिए आधार बन सकती हैं। यह एक सेंट्रीफ्यूगल वाटर पंप है जिसे एक साइकिल के पैडल को घुमाकर चलाया जाता है। प्रणाली में एक साइकिल, रिम, बेल्ट, घिरनी, इंपेलर और प्रवेश एवं निकासी पाइप होते हैं। एक खाली रिम साइकिल के पिछले पहिए को प्रतिस्थापित करती है। रिम को छोटे व्यास वाली अन्य घिरनी से जोड़ा जाता है। छोटी घिरनी के सहायक शैफ्ट अन्य रिम को दूसरे चरण वाली गति वृद्धि के लिए ले जाते हैं। प्रणाली का संवेग बढ़ाने के लिए शैफ्ट एक फ्लायव्हील को भी ले जाता है।

अंतिम सहायक शैफ्ट को एक इंपेलर से जोड़ा जाता है जो उच्च गति पर घूमता है और पानी को पंप करता है। पैडल करने की इस प्रक्रिया से उत्पन्न विद्युत (ऊर्जा) का उपयोग पानी को उठाने के लिए और पानी को किसी पाइप से खेत में कृषि के लिए ले जाने के लिए किया जाता है। यह नवप्रवर्तन नदियों, तालाबों, कुओं और समान जल स्रोतों से पानी को पंप करने के लिए उपयोगी है इस प्रकार सिंचाई और कृषि के लिए पानी पंप करने के लिए गरीब किसानों को सक्षम करता है।

एक गाय से तीस एकड़ की खेती : सुभाष पालेकर

देश के प्रख्यात शोध कृषक व शून्य लागत खेती के जनक सुभाष पालेकर ने कहा कि जैविक व रसायनिक खेती प्राकृतिक संसाधनों के लिए खतरा है। इनसे अधिक लागत पर जहरीला अनाज पैदा होता है। जिसे खाकर मानव बीमार और धरती बंजर हो रही है। जीव, जमीन, पानी और पर्यावरण को बचाने तथा सुस्वास्थ्य के लिए एक मात्र उपाय है कि शून्य लागत प्राकृतिक खेती की जाये।


इसके लिए तीस एकड़ पर सिर्फ एक गाय पालने की जरूरत है। एक गाय से ही शून्य लागत पर प्राकृतिक खेती करके प्रत्येक किसान हजारों की बचत के साथ देश व समाज की भलाई भी कर सकता है। शोध कृषक श्री पालेकर जी कहा कि जैविक व रसायनिक खेती के चलन से औसत उपज स्थिर हो रही है। जहरीला अनाज पैदा हो रहा है। इसकी वजह से बीमारियां भी बढ़ रही है। परंपरागत खेती किसानों के लिए घाटा साबित हो रही है। नतीजतन उनका खेती से मोहभंग हो रहा है। वे शहर की ओर पलायन को मजबूर है। किसान आत्महत्या को भी मजबूर है। ऐसे में शून्य लागत प्राकृतिक खेती उनके जीवन को बदल रही है। उन्होंने बताया कि गाय के एक ग्राम गोबर में असंख्य सूक्ष्म जीव है। जो फसल के लिए जरूरी 16 तत्वों की पूर्ति करते हैं।

इस विधि में फसलों को भोजन देने के बजाय भोजन बनाने वाले सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ा दी जाती है। इससे 90 फीसदी पानी और खाद की बचत होती है। देश में अब सिर्फ 42 करोड़ एकड़ जमीन बची है। यदि सरकार ने कृषि के लिए इस जमीन को सुरक्षित नहीं रखा तो भविष्य में देश को भयानक खाद्यान्न संकट से जूझना पड़ेगा। विदेशों में भी प्रिय है पालेकर का प्रयोग अमरावती महाराष्ट्र निवासी सुभाष पालेकर ने वर्ष 1988 से 1995 तक शून्य लागत खेती पर प्रयोग किया। इसके बाद अन्य प्रांतों के किसानों के साथ भी इसे साझा किया गया। चौंकाने वाले परिणाम आने पर पालेकर ने शून्य लागत प्राकृतिक खेती को जनांदोलन बनाने का निश्चय कर लिया। पालेकर बताते है कि सोशल मीडिया व वेबसाइट डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डाट पालेकरजीरोबजट्सस्प्रिचुअलफार्मि ग डाट ओआरजी से जानकारी जुटाकर विदेशों में प्रयोग शुरू कर दिया गया।


उन्होंने बताया कि अमेरिका, अफ्रीका समेत आधा दर्जन देशों में प्राकृतिक खेती लोक प्रिय हो रही है। सरकार से नहीं मिला संबल पालेकर को इस बात का मलाल है कि विदेशों ने जिस तकनीक को अपने यहां फार्मिग का हिस्सा बना लिया, उसे अपने देश की सरकार से अपेक्षित प्रोत्साहन नहीं मिल रहा। उन्होंने बताया कि अब तक वह देश में भ्रमण करके 40 लाख किसानों को शून्य लागत प्राकृतिक खेती से जोड़ चुके हैं। सूखे को मात देने में सक्षम तकनीक शोध कृषक सुभाष पालेकर ने दावा किया कि सूखे को मात देने में शून्य लागत प्राकृतिक खेती कारगर है। दरअसल इस विधि में अपेक्षाकृत मात्र दस फीसद पानी की जरूरत पड़ती है। कीट रोगों का भय एकदम समाप्त हो जाता है।

ड्योढा उत्पादन, दूनी कीमत पालेकर जी ने दावा किया कि शून्य लागत प्राकृतिक खेती से जैविक व रसायनिक ख्ेती के सापेक्ष ड्योढी पैदावार होती है। बाजार में खाद्यान्न का मूल्य दो गुना से अधिक मिलता है। शून्य लागत खेती पर एक नजर -मुख्य फसल का लागत मूल्य, साथ में उत्पादित सह फसलों को विक्रय मूल्य से निकाल कर लागत को शून्य करना तथा मुख्य फसल को बोनस के रूप में लेना। - खेती के लिए कोई भी संसाधन (खाद, बीज, कीटनाशक आदि) बाजार से न लाकर इसका निर्माण घर पर ही करने से लागत शून्य हो जाती और गांव का पैसा गांव में रहता है। शून्य लागत खेती के चरण 1. बीजामृत (बीजशोधन) रू 5 किलो देशी गाय का गोबर, 5 लीटर गोमूत्र, 50 ग्राम चूना, एक मुट्ठी पीपल के नीचे अथवा मेड़ की मिट्टी, 20 लीटर पानी में मिलाकर चौबीस घंटे रखे। दिन में दो बार लकड़ी से हिलाकर बीजामृत तैयार किया जाता। 100 किलो बीज का उपचार करके बुवाई की जाती है। इससे डीएपी, एनपीके समेत सूक्ष्म पोषक तत्वों की पूर्ति होती है और कीटरोग की संभावना नगण्य हो जाती है। 2. जीवामृत रूइसे सूक्ष्म जीवाणुओं का महासागर कहा गया है।

5 से 10 लीटर गोमूत्र, 10 किलो देशी गाय का गोबर, 1 से दो किलो गुड़, 1 से दो किलो दलहन आटा, एक मुट्ठी जीवाणुयुक्त मिट्टी, 200 लीटर पानी। सभी को एक में मिलाकर ड्रम में जूट की बोरी से ढके। दो दिन बाद जीवामृत को टपक सिंचाई के साथ प्रयोग करे। जीवामृत का स्प्रे भी किया जा सकता है। घन जीवनामृत - 100 किलो गोबर, एक किलो गुड़, एक किलो दलहन आटा, 100 ग्राम जीवाणुयुक्त मिट्टी को पांच लीटर गोमूत्र में मिलाकर पेस्ट बनाए। दो दिन छाया में सुखाकर बारीक करके बोरी में भर ले। एक एकड़ में एक कुंतल की दर से बुवाई करें। इससे पैदावार दो गुनी तक बढ जाएगी।

रेशम सिंह और कुलदीप सिंह ने असमतल कृषि भूमि को समतल बनाने के लिए विकसित की मशीन

असमतल कृषि भूमि पर बुवाई करना कठिन होता है। कभी-कभी अतिरिक्त मृदा को निकालना महत्वपूर्ण हो जाता है, जो वर्षा के बाद सतह पर जम गई हो। रेशम सिंह और कुलदीप सिंह ने स्वतंत्रतापूर्वक मशीनों का विकास किया है, जो न केवल मृदा को अलग और समतल कर सकती है बल्कि अलग की गई मृदा से ट्रैक्टर ट्रैलर्स को भी भर सकती है।


लैंड लेवलर और लोडर एक पीटीओ चलित ट्रैक्टर के पीछे चढ़ा हुआ संलग्नक है जो स्क्रैपर ब्लेड के द्वारा सतह से रेत को एकत्रित करता है और एक कन्वेयर व्यवस्था के द्वारा ट्रैक्टर के ट्रैलर में भरता है। इसमें दो कन्वेयर होते हैं जो उस समतल में एक-दूसरे के लंबवत् होते हैं, जो भूमि के समतल पर लंबवत् होता है। कन्वेयर 1 भूमि की ओर 55 अंश पर होता है जबकि कन्वेयर 2 भूमि की ओर क्षैतिज होता है और कन्वेयर 1 के परिणामी पर स्थित होता है। कन्वेयर 2 को भूमि से छः फीट की ऊँचाई के आसपास रखा जाता है। रेत को जमीन से स्क्रैपर ब्लेड द्वारा संग्रहित किया जाता है और कोणों द्वारा एकत्रित किया जाता है जो कन्वेयर 1 के बेल्ट पर स्थित होते है। इस रेत को कन्वेयर 2 की श्रृंखला के साथ-साथ ले जाया जाता है जो इसे समांतर रूप से चलते हुए ट्रैक्टर के ट्रैलर में आठ फीट की ऊँचाई से गिराता है।

उन कुछ क्षेत्रों में इसके उपयोग की अधिक संभावना लगती है जहाँ नहर का पानी उठाने के लिए, साथ ही मार्गों, घर इत्यादि के निर्माण में मृदा को अलग किया जाना हो। औसतन, मशीन रेत के 150 ट्रैलर निकालकर एक दिन में 1 बीघा भूमि (5.8 एकड़) समतल कर सकती है। इसे कस्टम हायरिंग के लिए भी उपयोग किया जा सकता है। कोई व्यक्ति 2रु. प्रति वर्गफीट, प्रति फीट गहराई शुल्क ले सकता है। अलग की गई मृदा को रु. 250-300 प्रति ट्रैलर के मूल्य पर बेचा जाता है। राष्ट्रीय नवप्रर्वतन ने रेशम सिंह और कुलदीप सिंह को अपने सातवें द्विर्षीय पुरस्कार में सम्मानित किया।


उनके इस नवप्रर्वतन को भारतीय पैटेंट के लिए आवेदन किया गया है। कन्वेयर में श्रृंखलाओं का एक सेट होता है। यह एक समय में 4’’ फीट गहरा काट सकता है और 11 फीट लंबा 6 फीट चौड़ा और 2.25 फीट उंचा आकार का ट्रैलर को भरने में लगभग दो मिनट लेता है। इसे 50 एचपी और ऊपर के किसी ट्रैक्टर में लगाया जा सकता है। इस मशीन का उपयोग करते समय, ट्रैक्टर एक घंटे में लगभग पाँच से छः लीटर डीजल का उपभोग करता है। मशीन में 4 फीट की कटिंग चौड़ाई होती है और रेत को 8.5 फीट की ऊँचाई से गिराया जाता है।