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Tuesday, 28 March 2017

सूखे से त्रस्त 14000 किसानों के जीवन में परिवर्तन की ज्योति जगाने वाले बिप्लब केतन पॉल

आज जहाँ सारे देश में किसान विपरीत परिस्थितियों के कारण आत्महत्याएँ करने लगें हैं। पानी की कमी खराब फ़सलों और बैंकों के बढ़ते ऋण के कारण परेशान हैं, एक उद्यमी ने उनके लिए वरदान सिद्ध होने वाली तकनीक पेश की है। उत्तर गुजरात के निवासी बिप्लब केतन पॉल की भुंग्रु तकनीक के चर्चे आज देश भर में हैं। आइए जानते हैं बिप्लब केतन ने 14000 किसानों के जीवन में किस तरह परिवर्तन की ज्योति जगाई है। 

बात 2012 की है, जब लम्बे समय से जल प्रबंध की दिशा में काम करने वाले उत्तर गुजरात निवासी बिप्लब केतन पॉल की झोली में नौवाँ अनिल शाह ग्राम विकास पारितोषिक आया। डीएनए में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार भुंग्रू नाम की एक तकनीक के इस्तेमाल से इस क्षेत्र में लवणता को दुरुस्त कर पानी की कमी को दूर किया गया है। ये तकनीक सूखे की स्थिति में उन हिस्सों में एक बफ़र की तरह काम करती है, जहाँ जल का स्तर अपेक्षाकृत मानकों से नीचे है। ये एक ऐसी तकनीक का इस्तेमाल ही है, जिसके चलते आज प्रदेश का किसान उन हिस्सों से सालाना 3 फ़सलें निकाल रहा है, जहाँ किसी समय जल स्तर में भारी गिरावट देखने को मिली थी। आज आलम ये है कि इस तकनीक के इस्तेमाल से प्रदेश के किसानों को बड़ा मुनाफ़ा देखने को मिला है। इससे उनके बीच ख़ुशी की नयी लहर आई।


अब यदि बात इस बेहतरीन तकनीक के श्रेय की हो तो ये अनोखा काम किया है, अहमदाबाद के एक उद्यमी बिप्लब ने। बिप्लब एक कुशल उद्यमी होने के अलावा समाज सेवी भी हैं। बिप्लब की इस मुहीम की अगुवाही महिलाएँ करती हैं और अब तक इनके प्रयास ने 14,000 किसानों की 40,000 एकड़ से ज्यादा की बंजर जमीन को हरा भरा और उपजाऊ किया है। द वीकेंड लीडर में प्रकाशित एक रिपोर्ट की मानें तो 46 साल के बिप्लब के अनुसार “जल शक्तिशाली है, जिसपर नियंत्रण नहीं किया जा सकता” इसके बावजूद इस मिथक को तोड़ते हुए बिप्लब ने अपनी भुंग्रू तकनीक द्वारा जल संरक्षण की दिशा में काम किया और उसे कामयाबी के साथ जन – जन में पहुँचाया। इस तकनीक के अंतर्गत जमीन के अंदर मौजूद पानी को साफ़ करने के लिए पाइपों का इस्तेमाल किया जाता है। ज्ञात हो कि ऐसा करके केवल पाइपों में ही 40 मिलियन लीटर पानी संरक्षित किया जाता है।

इस तकनीक की खास बात यह है कि एक अकेला भुंग्रू साल में केवल 10 दिन पानी का संरक्षण कर पाता है। इसको 7 महीनों तक सुगमता के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है, जिससे पांच परिवार 25 साल तक साल में दो बार फ़सल तैयार कर सकते हैं। इसके अलावा ये तकनीक वर्षा जल में मौजूद नमक को भी कम करती है, जिसके चलते जहाँ एक तरफ़ इसका इस्तेमाल कृषि में किया जा सकता है तो वहीँ इसे पीने और खाना बनाने के लिए भी इस्तेमाल में लाया जा सकता है।

बताया जाता है कि वर्ष 2002 में 7 लाख रुपए प्रति यूनिट के हिसाब से खर्च करके गुजरात के पाटन जिले में इस तकनीक की पहली यूनिट को डाला गया था। वर्तमान में भुंग्रू यूनिट 17 अलग – अलग डिज़ाइन में उपलब्ध हैं और इनकी कीमत इनकी भिन्न विशेषताओं के अनुसार 4 लाख से 22 लाख रुपए के बीच है। इस यूनिट को इंस्टाल करने में 3 दिन का समय लगता है, जहाँ हर एक यूनिट से 15 एकड़ जमीन के लिए भरपूर पानी की व्यवस्था करी जा सकती है। साथ ही इससे ज़मीन की उत्पादन क्षमता को दो बार के लिए भी तैयार किया जा सकता है।

अंत में आपको बताते चलें कि जल संरक्षण की दिशा में काम करते हुए और जल की दशा को सुधारते हुए बिप्लब को 2012 में अशोक ग्लोबलाइज़र अवार्ड मिल चुका है। साथ ही इन्हें अपने प्रयासों के लिए वर्ल्ड बैंक, कॉमनवेल्थ, एशियाई डेवलपमेंट बैंक, यूएन द्वारा कई पुरस्कारों और अनुदानों से नवाज़ा जा चुका है।

उल्लेखनीय है कि बिप्लब केतन पॉल ने 2004 में विश्व बैंक के आईवीएलपी(इंटरनेशनल विजिटर लीडरशिप प्रोग्राम) का हिस्सा बने। उन्होंने गांधी जी के सिद्धांत अंत्योदय से सर्वोदय के सिद्धांत को अपनाते हुए समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े किसान की मदद के लिए अपने आपको समर्पित किया और वर्षाजल संरक्षण के एक बड़े अभियान पर निकल पड़े।

माँ की जान को जोखिम में पड़ने से बचाने के लिए किये संकल्प ने अय्यप्पा को बनाया 'जल-क्रांति का नायक'

कर्नाटक के एक सूखा पीड़ित गाँव में किसान के घर पैदा हुए अय्यप्पा मसगि ने बचपन में एक डरावना मंज़र देखा था। कई किलोमीटर पैदल चलकर जिस कुदरती कुएँ से माँ पानी निकालती थीं, वह मिट्टी के तोदों से भरा हुआ था, मिट्टी खिसकी कि इंसान उसमें दबकर खत्म। छोटा से बालक ने अपनी माँ को उस जोखिम में देखकर तय किया कि एक दिन वह माँ के साथ-साथ गाँव के सभी लोगों को उस जोखिम से बाहर निकालेगा और पानी की समस्या का ऐसा हल तलाश करेगा कि लोग मिट्टी के नीचे दबकर अपनी जान न गँवा बैठें। एक ऐसा अधनंगा बच्चा जिसे पहनने को केवल शर्ट मौजूद है, स्कूल में किताबें खरीदने के लिए रुपये नहीं हैं, पढ़ने के लिए अगर मिट्टी के दिये का भी इस्तेमाल करें तो पिता को फिज़ूलखर्ची लगती है, जिसे पढ़ने के दौरान रिश्तेदारों से मिले पुराने कपड़े पहन कर गुज़ारा करना पड़ता है, जिसे कॉलेज की फीस अदा करने के लिए माँ के गहने बेचने पड़ते हैं, यही बालक न केवल अपने स्कूल, अपने कॉलेज और अपनी कंपनी में नंबर वन बन जाता है, बल्कि नौकरी छोड़ने के बाद अपनी पत्नी और बेटी से पागल और नालायक जैसी अपशब्द और गालियाँ सुनकर भी विचलित नहीं होता और एक दिन अपने गाँव ही नहीं, बल्कि पूरे देश में सूखे और तूफान के बीच पानी को बचाने और उसके इस्तेमाल के तरीके तलाशने का ‘जलदूत’ बन जाता है। पुत्र के प्रति लापरवाह और कंजूस पिता, लेकिन चिंता करने वाली माँ के पुत्र अय्यप्पा मसगि आज कर्नाटक, तमिलनाडू, आंध्र-प्रदेश एवं तेलंगाना सहित विभिन्न राज्यों में ‘जलक्रांति के नायक’ बन गये हैं। उनकी संस्था सैकड़ों गाँवों में सूखे की समस्या से निपटने के लिए किसानों की मदद कर रही है। हौसला, हिम्मत, मेहनत, त्याग और बलिदान की प्रेरणादायी घटनाओं से भरपूर अय्यप्पा मसगि की कहानी बेहद अनोखी है। इस कहानी में सूखे की वजह से किसानों को होने वाली पीड़ा है, गरीबी की मार से ज़ख़्मी लोगों की कराह है, शहरों से दूर रहने की वजह से तरक्की के साधन-संसाधन न मिल पाने की बेबसी है। इस कहानी में संघर्ष है, सूखे और बाढ़ जैसी प्रकृति की मार से उभरने की चुनौती है। गरीबी के थपेड़े खाते हुए भी निरंतर आगे बढ़ने की कोशिश है। ये कहानी है बचपन में बूँद-बूँद पानी को तरसने वाले एक बच्चे के पानी की किल्लत दूर करने वाला एक मसीहा बनने की। ये कहानी है सूखा ग्रस्त इलाके के एक किसान के बेटे की, जिसने बंजर भूमि को भी उपजाऊ बनाने की काबिलियत हासिल की। एक मामूली किसान के बेटे से जल-क्रांति के नायक बने अय्यप्पा मसगि की कहानी नागरला गाँव से शुरू होती है।

अय्यप्पा मसगि का जन्म 1 जून, 1957 को कर्नाटक के गदग जिले के नागरला गाँव में हुआ। पिता महादेवरप्पा गरीब किसान थे। माँ पार्वतम्मा गृहिणी थीं। छह भाई-बहनों में अय्यप्पा सबसे बड़े थे। अय्यप्पा के चार छोटे भाई और एक छोटी बहन हैं। वैसे तो महादेवरप्पा और पार्वतम्मा को कुल 12 संतानें हुईं लेकिन 6 संतानों की शिशु-अवस्था या फिर बाल्यावस्था में ही मौत हो गयी। जो संतानें जीवित रहीं उनमें अय्यप्पा सबसे बड़े थे।

लिंगायत जाति के अय्यप्पा का परिवार संयुक्त-परिवार था। अय्यप्पा के पिता महादेवरप्पा के छह भाई थे और सभी मिलजुल कर रहते थे। परिवार के पास 80 एकड़ ज़मीन थी और इसी ज़मीन में खेती-बाड़ी से संयुक्त-परिवार का गुज़र-बसर होता था। लेकिन, सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि गाँव में अक्सर सूखा पड़ता और फसल नहीं हो पाती। सूखे की मार परिवार ने कई बार झेली थी। वैसे भी गदग जिला ही सूखे की वजह से जाना जाने लगा था। गदग जिले में सूखा आम बात हो गयी थी।



अय्यप्पा के माता-पिता दोनों अशिक्षित थे। माँ अय्यप्पा को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहती थीं। लेकिन,पिता चाहते थे कि अय्यप्पा खेती-बाड़ी में उनका साथ दें। अय्यप्पा कहते हैं, “मेरे पिता बहुत ही कंजूस इंसान थे। रुपये-पैसे उनको बहुत प्यारे थे। वे मेरी पढ़ाई-लिखाई पर खर्च करने को तैयार ही नहीं थे। वे खुदगरज़ इंसान थे। उन्हें दूसरों की फ़िक्र नहीं थी, वे बस अपने बारे में ही सोचते थे। माँ मेरी चाहती थी कि मैं खूब पढ़ाई-लिखाई करूँ। माँ की जिद की वजह से ही मैं स्कूल जा पाया था।”

पिता कितने बड़े कंजूस थे इस बात को बताने और समझाने के लिए अय्यप्पा मसगी ने एक घटना सुनायी। उन्होंने कहा, “हमारा मकान बहुत छोटा था। मिट्टी का बना हुआ मकान था। घर में बिजली नहीं थी। एक रात मैं कंदील की रोशनी में पढ़ाई कर रहा था। इतने में मेरे पिता आ गए और उन्होंने जैसे ही देखा कि मैं कंदील की रोशनी में पढ़ रहा हूँ वे आग-बबूला हो गए। उन्होंने गुस्से में सबसे पहले कंदील को बुझाया और फिर जोर से मुझे एक चांटा मारा। मुझे समझ में नहीं आया कि मेरे पिता ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया था। जब माँ ने पूछा कि मुझे किस बात की सजा मिली है तब पिता ने बताया कि कंदील की रोशनी में पढ़ाई कर मैं किरोसीन बर्बाद कर रहा हूँ। मेरे पिता की नज़र में किरोसीन जलाकर पढ़ाई करना फ़िज़ूल खर्च था। वे बिलकुल नहीं चाहते थे कि मैं स्कूल जाऊं और पढ़ाई-लिखाई करूँ। उनका मानना था कि किसान का बेटा पढ़-लिखकर भी किसान ही बनेगा और जब किसान के बेटे को किसान ही बनना है तब स्कूल जाकर पढ़ने-लिखने की क्या ज़रुरत है।”

लेकिन, अय्यप्पा मसगी की माँ के ख्यालात दूसरे थे। उन्हें लगता था कि अगर उनका बेटा पढ़-लिख जाएगा तो उसे नौकरी मिलेगी। नौकरी करने से हर महीने निर्धारित समय पर तनख्वाह मिल जायेगी और गदग जिले के किसानों की तरह मौसम पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। पार्वतम्मा अपने लड़के अय्यप्पा को पढ़ा-लिखा कर बड़ा अफसर बनाने का सपना देखती थीं।

अय्यप्पा भी अपनी माँ से बहुत प्रभावित थे। माँ घर-परिवार चलाने के लिए दिन-रात मेहनत करती थीं। सूखा-ग्रस्त इलाका होने की वजह से गाँव में पानी की इतनी किल्लत थी कि माँ को चार-पांच किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पड़ता। घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पानी बहुत ज़रूरी था। और, पानी के लिए गांववालों के बीच बहुत मारामारी भी होती थी। पानी जुटाने के लिए माँ हर दिन तड़के तीन बजे उठतीं और चार-पांच किलोमीटर दूर पैदल चलकर कुएं के पास जातीं। अक्सर अय्यप्पा भी माँ के साथ पैदल चार-पांच किलोमीटर दूर जाकर घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पानी लाते थे।


अय्यप्पा कहते हैं, “माँ जहाँ से पानी लाती थीं वे कुदरती कुएं थे।चारों तरफ मिट्टी ही मिट्टी होती और माँ को इस मिट्टी में नीचे उतर कर पानी बटोरना होता। इसमें जान को बहुत खतरा था। कई बार ऐसा हुआ था कि अचानक मिट्टी तेज़ी से फिसल जाती थी और इंसान उसी मिट्टी के नीचे दबकर मर जाते थे। माँ और मैं बहुत खुशनसीब थे कि हम जब भी पानी भरने गए तब मिट्टी नहीं फिसली।” इस तरह की घटनाओं की वजह से अय्यप्पा बचपन में ही पानी की अहमियत तो अच्छी तरह से समझ गए थे। पानी जुटाने के लिए माँ की दिन-रात की कोशिशों को देखकर अय्यप्पा ने बचपन में ही संकल्प ले लिया था कि वे बड़े होकर ऐसा कुछ काम करेंगे जिससे लोगों को उनकी माँ की तरह पानी के लिए मुसीबतें न उठानी पड़ें।

माँ की बदौलत ही अय्यप्पा स्कूल जाते थे और उन पर ये जुनून सवार हो गया था कि उन्हें अफसर बनकर अपनी माँ का सपना पूरा करना है। साथ ही उस संकल्प को भी पूरा करना है जहाँ लोगों को पानी के लिए तरसना न पड़े।

अय्यप्पा का दाखिला गाँव के ही सरकारी स्कूल में करवाया गया। उन दिनों ये स्कूल एक मस्जिद में चलता था और अय्यप्पा वहीं जाकर पढ़ते थे। गरीबी का आलम ये था कि अय्यप्पा सिर्फ शर्ट पहनकर ही स्कूल जाते थे। चौथी क्लास तक उन्होंने कभी चड्डी पहनी ही नहीं। अय्यप्पा मुस्कुराते हुए कहते हैं, “सभी बच्चे मेरे जैसे ही थे। आधे नंगे ही स्कूल आते थे सभी। घर में हम सभी ऐसे ही आधे नंगे घूमते-फिरते और खेलते-कूदते थे। उस समय कोई शर्म नहीं थी। हालत इतनी खराब थी कि एक ही शर्ट महीनों तक पहनते थे।”

बचपन की यादें अय्यप्पा के ज़हन में अब भी ताज़ा हैं। उन्हें वे दिन भी याद हैं जब वे मिट्टी में खेलते थे। बदन उनका सारा मिट्टी से सना हुआ होता था। लेकिन, एक मामले में अय्यप्पा गाँव के दूसरे बच्चों के बहुत अलग थे। शुरू से ही अय्यप्पा पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज़ थे। हर कोई टीचर जो भी पढ़ाता अय्यप्पा उसे अच्छे से समझ जाते और सारे पाठ को अपने ज़हन में कैद कर लेते। हर परीक्षा में वे अव्वाल रहते। यही वजह भी थी कि सारे टीचर उन्हें बहुत चाहते भी थे।

अय्यप्पा ने चौथी क्लास तक उसी मस्जिद वाली स्कूल में पढ़ाई की। वे जब पांचवीं में आये तब सरकारी स्कूल का भवन तैयार था। लेकिन, अब उनके सामने बड़ी मुसीबतें थीं। पढ़ाई-लिखाई का खर्च बढ़ गया था। पिता अब भी मदद करने को तैयार नहीं थे। माँ कोशिश तो बहुत कर रही थीं, लेकिन उनके लिए भी किताबें, कलम-दवात के लिए रुपये जुटाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में अय्यप्पा के मन में एक ख्याल आया। उन्होंने अपने टीचरों से मदद मांगने की सोची। टीचर जान चुके थे कि अय्यप्पा बहुत ही मेहनती, आज्ञाकारी और होशियार लड़का है और वो अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से आगे चलकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। इसी वजह से जब अय्यप्पा ने अपने शिक्षकों से मदद माँगी तो उन्होंने झट-से हाँ कर दी। लेकिन, अय्यप्पा स्वाभिमानी थे और उन्होंने इस मदद के बदले अपने शिक्षकों की भी मदद की। अय्यप्पा अपने शिक्षकों के घर जाते और वहां पर वे साफ़-सफाई का काम करते। अय्यप्पा अपने टीचरों के घर-परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कुएं से पानी भी लाते थे। अपने टीचरों के घर में जो काम उन्हें सौंपा जाता वे उसे मन लगाकर पूरा करते थे। टीचर भी अय्यप्पा की सेवा से बहुत खुश थे।

कई बार तो ऐसा भी हुआ कि टीचरों ने अय्यप्पा को अपने घर ही में रख लिया। कई दिनों बाद अय्यप्पा अपने घर जाते थे। माँ भी इस बात पर बहुत खुश थीं कि टीचर सारे अय्यप्पा को बहुत प्यार करते थे और वे उन पर मेहरबान भी थे। अय्यप्पा बताते हैं, “प्राइमरी स्कूल के दिनों में चार मास्टरों ने बहुत मदद की थी। गणप्पा मास्टर, टी.हेच.वाल्मीकि सर, एम.डी.गोगेरी मास्टर और वी.एम.मडीवालार मास्टर ने मुझे बहुत प्यार दिया। मैं कई दिनों तक इन्हीं लोगों के घर पर रहा था। उनका एहसान मैं ज़िंदगी-भर नहीं भूल सकता हूँ।”

हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान भी शिक्षकों ने अय्यप्पा की खूब मदद ही। एस.एल.हंचनाड, आर.एम.दिवाकर और सी.वी.वंकलकुंती शुरुआत में ही जान गए थे कि उनका शिष्य अपने नाम से साथ-साथ उनका नाम भी रोशन करेगा। लेकिन, शिक्षक इस बात को लेकर हैरान थे कि होनहार और तेज़ होने के बावजूद पिता अय्यप्पा की मदद क्यों नहीं कर रहे हैं। एक दिन हंचनाड मास्टर अय्यप्पा के पिता से मिले और उन्होंने कहा- “आपका लड़का बहुत मेहनती है¸, क्लास में हमेशा सबसे आगे रहता है। आगे चलकर ये बहुत बड़ा आदमी बन सकता है, आप इसकी मदद कीजिये और इसकी ओर ध्यान दीजिये।” इस अनुरोध के जवाब में जो बात अय्यप्पा के पिता ने कही उसे सुनकर हंचनाड मास्टर के होश उड़ गए। अय्यप्पा के पिता ने हंचनाड मास्टर से कहा, “आप अपना काम देखिये। मुझे अपना काम करने दीजिये। अय्यप्पा क्या बनेगा मुझे नहीं पता, लेकिन जब बनेगा तब देखेंगे। मैंने तो उसे पढ़ने के लिए नहीं कहा। वो पढ़ रहा सो वो जाने। मुझे आप क्यों परेशान कर रहे हैं? आप मेरे पास अगली बार आईयेगा भी मत।” 


अय्यप्पा अपने पिता की मानसिकता को पहले से जानते थे और इसी वजह से उनकी इन बातों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। अय्यप्पा ने अपने टीचरों की मदद से पढ़ाई-लिखाई जारी रखी। अय्यप्पा ने अपने शिक्षकों को कभी भी निराश नहीं किया। दसवीं की परीक्षा में शानदार प्रदर्शन कर अय्यप्पा ने अपने शिक्षकों का नाम खूब रोशन किया। अय्यप्पा ने वो काम कर दिखाया था जिसे इन शिक्षकों के किसी भी छात्र ने पहले नहीं किया था। अय्यप्पा ने डिस्टिंगक्शन में दसवीं की परीक्षा पास की। उस ज़माने में जहाँ दसवीं की परीक्षा पास करना ही बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जानी थी वहीं अय्यप्पा ने डिस्टिंगक्शन में दसवीं की परीक्षा पास कर न सिर्फ अपने स्कूल, अपने गाँव बल्कि सारे तालुक का नाम रोशन किया था। अपने प्रिय शिष्य की उपलब्धि पर सारे शिक्षक भी फूले नहीं समा रहे थे। गांववाले इतना खुश हुए थे कि सभी ने मिलकर एक भारी जुलूस भी निकाला। अय्यप्पा को गांववाले एक के बाद एक अपने कंधे पर बिठाकर उन्हें सारा गाँव घुमा रहे थे। जब पिता ने ये जुलूस देखा तब उन्होंने गांववालों से पूछा – “मेरे बेटे को लेकर तुम सब ये जुलूस क्यों निकाल रहे हो? मेरे बेटे के गले में फूलों की ये मालाएं क्यों पहनाई गयी हैं?” गांववाले भी जानते थे कि पिता को अय्यप्पा की पढ़ाई-लिखाई से कोई लेना-देना नहीं है। अय्यप्पा कहते हैं, “मेरे पिता कभी भी शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझ पाए। उन्हें लगता कि गाँव के लोगों को गाँव में ही रहना है और उन्हें वही काम करने हैं जो उनके पुरखे करते आये हैं। पिता को ये भी मालूम था कि उनका लड़का दसवीं की परीक्षा में पास हो गया है। डिस्टिंगक्शन क्या होता है ये तो उन्हें मालूम ही नहीं था। वे बस अपने में मस्त रहते थे। सारा गाँव खुश था, सभी जश्न मना रहे थे, पिता मेरे इन सब से बेपरवाह थे।”

अय्यप्पा से हमारी बेहद ख़ास मुलाकार बेंगलुरु में उनके घर पर हुई थी। इस मुलाक़ात के दौरान दो और घटनाओं का ज़िक्र कर वे बहुत भावुक हो गए थे। ये घटनाएं ऐसी थीं जहाँ उन्हें अपने मास्टर से मार पड़ी थी।

मास्टर के हाथों पिटाई की पहली घटना बताते हुए अय्यप्पा ने कहा, “मैं क्लास में सबसे तेज़ था। गणित में भी मैं सबसे आगे था। जब कोई लड़का टीचर के सवाल का गलत जवाब देता तब टीचर मुझे उनकी पिटाई करने को कहते। क्लास का एक नियम बन गया था- जो विद्यार्थी गलत जवाब देते थे उनकी पिटाई सही जवाब देने वाले विद्यार्थियों से कराई जाती। कई बार ऐसा होता कि मैं अकेला ही सही जवाब देने वाला विद्यार्थी होता और मुझे ही क्लास के बाकी सारे विद्यार्थियों को पीटना पड़ता। गणपति मास्टर मुझसे कहते दूसरे विद्यार्थियों की नाम पकड़ो और गालों पर जमकर तमाचे जड़ो। मैं ऐसा ही करता। और गाँववाले भी मुझे ये कहकर उकसाते थे – “अय्यप्पा, पीट, और जमकर पीट” । इन बातों से मुझमें ऐसा जोश आता कि मैं वाकई सहपाठियों की जमकर पिटाई कर देता, कसकर उनकी नाक पकड़ता और गालों पर जोर से चांटे मारता। इस पिटाई की वजह से कुछ विद्यार्थी मेरे दुश्मन हो गए। एक दिन जब मैं स्कूल से छुट्टी के बाद घर लौट रहा था था तब कुछ विद्यार्थियों ने मुझे पकड़ लिया और बदले की भावना से मुझे पीटने लगे। मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने पलटवार किया। वहां पर मुझे लोहे की एक सीख दिखाई दी और मैंने उसे उठा लिया। मैंने लोहे की सीख लेकर एक विद्यार्थी पर हमला कर दिया। हमला इतना ज़ोरदार था कि उसका मूंह फट गया। चेहरे के एक तरह का हिस्सा बिलकुल बिगड़ गया। इस हमले के बाद सारे विद्यार्थी वहां से भाग गए। मैं भी बहुत डर गया था। मेरी समझ में भी कुछ नहीं आ रहा था। तैश में मैंने अपने एक सहपाठी को खून-खून कर दिया था। मैं इतना घबरा गया था कि मैं मंदिर गया और वहीं छुप गया। लेकिन, टीचरों ने मुझे ढूँढ निकाला और मेरी जमकर धुनाई की। ये पहली बार ऐसा हुआ था जब मैंने किसी टीचर से मार खाई थी।”

अय्यप्पा ये कहते हुए बहुत खुश होते हैं कि “मैंने कभी पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में अपने शिक्षकों से मार नहीं खाई। मेरी पिटाई इस वजह से हुई क्योंकि मैंने कुछ बदमाशी की, या फिर मेरे टीचर किसी गलतफहमी का शिकार हुए। मैंने अपने स्कूल के दिनों में सिर्फ दो बार ही मास्टर से मार खाई थी।”

मास्टर के हाथों पिटाई की दूसरी घटना के बारे में बताते हुए अय्यपा ने कहा, “ये घटना उस समय की है जब मैं सातवीं क्लास में था। बसवलिंगय्या नाम के मास्टर हमें पढ़ा रहे थे। उन्होंने मुझसे मेरी पेन ली थी। मैं दूसरी बेंच में बैठता था और चूँकि मास्टर का हाथ मुझ तक नहीं पहुँचता था , उन्होंने पेन पहली बेंच पर मेरे सामने बैठे एक विद्यार्थी को थमा दी। वो विद्यार्थी मुझसे शरारत करने लगा। वो विधार्थी मेरी पेन मेरे सामने करता और जैसे ही मैं उसे लेने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाता वो पेन पीछे खींच लेता। कुछ देर तक ये सिलसिला चला। बसवलिंगय्या मास्टर जब ब्लैक बोर्ड पर लिख रहे थे तब ये सिलसिला चल रहा था, इसी वजह से वे नहीं देख पाए थे। सहपाठी की शरारत से जब मैं तंग आ गया तब मैंने जोर से उस पर झपटा मारा और पेन खींच ली। ये चीज़ बसवलिंगय्या मास्टर ने देख ली और उन्हें लगा कि मैंने बेवजह ही अपने सहपाठी पर झपटा मारकर उसे ज़ख़्मी किया है। इस बात के लिए मुझे चांटा मारा गया।”


सूडी के गुरु महंतेश्वर हाई स्कूल से डिस्टिंगक्शन में दसवीं पास करने के बाद अय्यप्पा प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स में साइंस पढ़ना चाहते थे। लेकिन, कॉलेज की फीस इतनी ज्यादा थी कि माँ उसका बोझ उठाने में असमर्थ थीं। गरीबी और हालात की मजबूरी में अय्यप्पा को साइंस के बजाय कॉमर्स लेना पड़ा। अय्यप्पा बताते हैं, “चूँकि मुझे डिस्टिंगक्शन मिला था कॉमर्स में मुझे मेरिट लिस्ट में जगह मिल गयी थी। फीस भी नहीं भरनी पड़ी और मुझे हॉस्टल में रहने के लिए भी मुफ्त में ही जगह मिल गयी। खाना-पीना, किताबें सब मुफ्त में ही मिला। अगर मैं साइंस लेता तो मुझे 450 रुपये अदा करने पड़ते। हमारे लिए उस समय ये बहुत बड़ी रकम थी। इतने रुपये जुटाना मेरी माँ के बस की बात नहीं थी।”

अय्यप्पा का दाखिला नवलगुंडा के शंकर आर्ट्स एंड साइंस कॉलेज में हुआ। इस कॉलेज में भी अय्यप्पा ने मन लगाकर पढ़ाई ली। हमेशा की तरह ही इस बार भी उनकी मेहनत रंग लाई और वे फर्स्ट क्लास में पास हुए।

पीयूसी पूरा करने के बाद अय्यप्पा दुविधा में पड़ गए। उन्हें ये समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें आगे क्या करना है। चूँकि उन्होंने कईयों से सुना था कि इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट यानी आईटीआई का कोर्स करने से नौकरी आसानी से मिल जाती है उन्होंने कॉमर्स में आगे की पढ़ाई करने के बजाय आईटीआई में दाखिला लिया। अय्यप्पा ने कहा, “ उस समय न मुझे एमबीए के बारे में पता था न एमसीए के बारे में। मैंने आईएएस और आईपीएस के बारे में भी कभी नहीं सुना था। गाँव के माहौल में पढ़ने-लिखने की वजह से मुझे कई चीज़ों के बारे में नहीं पता था। सही तरह से गाइड करने वाला भी कोई नहीं था। टीचर जितनी मदद कर सकते थे उन्होंने की। उस समय मुझे लगा कि आईटीआई करने से नौकरी जल्द ही मिल जायेगी मैंने ज्वाइन कर लिया।” 


उन दिनों इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों की बहुत मांग थी। बिजलीकरण का दौर था और राज्य सरकारें हर शहर और हर गाँव में बिजली पहुंचाने की कोशिश में जुटी थीं। इसी वजह से अय्यप्पा ने भी आईटीआई में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के लिए अपनी अर्जी दी। आईटीआई की प्रवेश परीक्षा में अय्यप्पा को 100 में से 98 नंबर मिले। लेकिन, एक प्रशासनिक गलती की वजह से अय्यप्पा को फिटर कोर्स यानी मेस्त्री वाले कोर्स में डाला गया। फिटर कोर्स में उन दिनों उन लोगों को भी दाखिला दिया जाता था जो कि दसवीं भी पास नहीं हैं। अय्यप्पा को 100 में से 98 नंबर पाने के बावजूद फिटर कोर्स में डाला गया जबकि वे इलेक्ट्रिकल कोर्स के हकदार थे।

अय्यप्पा ने बताया, “मुझे लगा कि भगवान मेरी परीक्षा ले रहे हैं। मैं फिटर कोर्स नहीं करना चाहता था। मेरे साफ़ नाइंसाफी हुई थी । मेरी हालत देखकर वी.जी. हीरेमठ नाम के एक लेक्चरर ने मेरी मदद करने की कोशिश की। उन्होंने आईटीआई के प्रिंसिपल से बात की और मेरी सिफारिश भी। लेकिन, इस सिफारिश का प्रिंसिपल पर कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने नियमों का हवाला देकर मुझे फिटर कोर्स में डाल दिया। गलती मेरी नहीं थी, गलती आईटीआई प्रशासन की थी। उन्होंने मुझे बुलाये बगैर ही रिकॉर्ड में ये लिख दिया था कि अय्यप्पा मसगि इंटरव्यू के लिए गैर-हाज़िर थे।”

अब चूँकि अय्यप्पा के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था उन्होंने फिटर कोर्स में दाखिले के लिए हाँ कर दी। लेकिन, अब उनके पास एक बड़ी चुनौती थी। फिटर कोर्स के लिए उन्हें फीस जमा करनी थी। फीस जमा करने के लिए अय्यप्पा को अपनी माँ के गहने बेचने पड़े। उस दिन के बारे में बताते हुए अय्यप्पा बहुत ही भावुक हो गए। उनकी आँखों से आंसुओं की धार निकल पड़ी। किसी तरह से अपने आप को संभालकर उन्होंने कहा, “ मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। मैंने सोने और चांदी के गहने बेच दिए। गहने बेचकर मुझे अस्सी रुपये मिले थे और इन्हीं रुपयों से मैंने आईटीआई में दाखिले की फीस भरी।”

उस दिन की यादें अभी भी अय्यप्पा को बहुत सताती हैं। अपनी माँ के त्याग की याद के तौर पर अय्यप्पा मसगी ने एक प्रण लिया था। उन्होंने फैसला लिया था कि वे जीवन-भर में कभी भी सोने या चांदी की कोई भी वस्तु अपने शरीर पर धारण नहीं करेंगे। अय्यप्पा अपने इस प्रण को अपनी मृत्यु तक निभाने के लिए संकल्पबद्ध हैं। वे कहते हैं, “माँ ने त्याग नहीं किये होते तो मैं कुछ भी न होता। मैं भी गाँव में खेती-बाड़ी ही कर रहा होता। माँ ने मेरी पढ़ाई-लिखाई के लिए बहुत त्याग किये। मैं जब कभी सोना या चांदी का कोई जेवर देखता हूँ तो मुझे माँ का त्याग ही याद आता है।” 


आईटीआई में दाखिले के बाद पहले दिन से ही अय्यप्पा ने अपने काम और अनुशासन से शिक्षकों का दिल जीतना शुरू कर दिया। नोट बुक्स देखकर तिमप्पा मास्टर इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने अय्यप्पा से पूछ लिया कि – “तुम तो बहुत इंटेलीजेंट हो, फिर फिटर का काम क्यों सीख रहे हो? इस सवाल के जवाब में अय्यप्पा ने उनके साथ हुई नाइंसाफी और प्रशासनिक गलती के बारे में बताया। इसके बाद तिमप्पा मास्टर आईटीआई के प्रिंसिपल के पास गए और अय्यप्पा को इंसाफ दिलाने की गुहार लगाई। प्रिंसिपल को इंसाफ करने के लिए बाध्य होना पड़ा, लेकिन वे अय्यप्पा का दाखिला इलेक्ट्रिकल्स में नहीं करवा पाए और अय्यप्पा को मैकेनिकल विभाग में जगह दी गयी जोकि फिटर से अच्छी थी। मैकेनिकल विभाग में दाखिले के बाद अय्यप्पा ने पढ़ाई-लिखाई में जी जान लगा दिया। आईटीआई के दिनों में हीरेमट मास्टर ने अय्यप्पा की खूब मदद की थी।

लेकिन, आईटीआई में भी अय्यप्पा को गरीबी की मार झेलनी पड़ी थी। उन दिनों रिकार्ड बुक और दूसरी ज़रूरी किताबें खरीदने के लिए भी उनके पास 40 रूपए तक नहीं थे। कॉलेज के 180 विद्यार्थियों में से अय्यप्पा को छोड़ सभी ने किताबें और रिकार्ड बुक्स खरीब ली थीं। जब ये बात तिमप्पा मास्टर को पता चली तो उन्होंने इसकी जानकारी हीरेमट मास्टर को दी। हीरेमट मास्टर को लगा कि अय्यप्पा ने उनके पिता के भेजे हुए रुपये खर्च कर दिए हैं और इसी वजह से उनके पास किताबें खरीदने को रुपये नहीं हैं। लेकिन, या बात सच नहीं थी। पिता ने अय्यप्पा को रुपये दिए ही नहीं थे। गलतफहमी का शिकार हीरेमट मास्टर ने अय्यप्पा को अपने पास बुलाया तो कसकर गाल पर चांटा जड़ दिया और पूछा कि पिता के भिजवाये रुपयों को कहाँ खर्च कर दिया। सवाल के जवाब में जब अय्यप्पा ने सच्चाई बताई तो हीरेमट मास्टर को बहुत पछतावा हुआ और वो रो बैठे। इसके बाद हीरेमट मास्टर ने अय्यप्पा को किताबें खरीदने के लिए अपनी जेब से रुपये दिए । अय्यप्पा कहते हैं, “किसी टीचर के हाथों ये मेरी तीसरी मार थी। बस मैंने तीन बार भी अपने टीचरों से मार खाई थी। हीरेमट मास्टर ने आगे भी मेरा बहुत ख्याल रखा था।”

वे अय्यप्पा की आर्थिक रूप से भी मदद करते थे। एक बार हीरेमट मास्टर के लड़के को भी गलतफहमी हो गयी थी। हुआ यूँ था कि अय्यप्पा को उनके कुछ अमीर रिश्तेदार अपने पुराने कपड़े पहनने के लिए दे देते थे। कहने को वे पुराने थे लेकिन नए सरीके दिखते थे और ये कपड़े ‘लेटेस्ट फैशन’ वाले भी थे। इन्हीं कपड़ों को देखकर एक दिन हीरेमट मास्टर के लड़के ने अपने पिता से पूछा – देखिये अय्यप्पा ‘लेटेस्ट फैशन’ वाले कपड़े पहनता है, वो अमीर है। आप उसको गरीब समझने की गलती कर रहे हैं। आप उसकी मदद करना बंद कर दीजिये। हीरेमट मास्टर हकीकत जानते थे और इसी वजह से उन्होंने अय्यप्पा की मदद करना बंद नहीं किया। अय्यप्पा ने बताया, “मेरे चाचा और बुवा अच्छा कमाने लगे थे। वे लोग इस्तेमाल किये हुए कुछ कपड़े मुझे दे देते थे और मैं वही पहनता भी था। मुझे उन दिनों अपने चाचा से दो ‘बटन वाले शर्ट’ भी मिले थे। यही ‘दो बटन वाले शर्ट’ उन दिनों में काफी लोकप्रिय थे और अमीर लोग ही इस तरह की शर्ट पहनते थे। जब मेरे मास्टर के लड़के ने देखा कि मैं भी ‘दो बटन वाली शर्ट’ पहन रहा हूँ तो उसे भी लगा कि मैं अमीर हूँ।” 


इन सब छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच अय्यप्पा ने आईटीआई को कोर्स पूरा कर लिया। आईटीआई की परीक्षाओं में भी अय्यप्पा ने शानदार प्रदर्शन कर अपने कॉलेज और टीचरों का नाम रोशन किया। इस बार भी वे डिस्टिंक्शन में पास हुए। चूँकि अय्यप्पा को आईटीआई की परीक्षाओं में शानदार नंबर मिले थे उन्हें ‘भारत अर्थ मूवर्स’ नाम की सरकारी संस्था में प्रशिक्षुता के लिए चुना गया। अय्यप्पा कहते हैं, “वो दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। वो मेरी पहली नौकरी थी। बेंगलुरु में मुझे नौकरी मिली थी। पिता ने मुझे सौ रुपये दिए थे बेंगलुरु जाने के लिए। अपने गाँव से जब मैं बेंगलुरु पहुंचा था तब मेरी जेब खाली थी। मेरा पेट भी खाली था। सारे रुपये रास्ते में ही ख़त्म हो गए थे। मेरे पास सिर्फ कपड़ों से भरा एक बकसा था। मैं भूखे पेट ही कंपनी गया और काम पर लग गया।”

‘भारत अर्थ मूवर्स’ में अय्यप्पा को प्रशिक्षु होने के नाते 150 रुपये महीना वजीफे के तौर पर दिए जाने लगे। इन डेढ़ सौ रुपयों में से अय्यप्पा सिर्फ 60 रुपये अपनी ज़रूरतों के लिए खर्च करते और बाकी 90 रुपये की बचत करते। बतौर प्रशिक्षु अय्यप्पा का काम इतना बढ़िया था कि जल्द ही ‘भारत अर्थ मूवर्स’ में उनकी नौकरी पक्की कर दी गयी। उनकी तनख्वाह महीने आठ सौ रुपये तय की गयी। जून, 1980 में अय्यप्पा को अपनी ज़िंदगी की पहली पगार मिली। उस दिन की यादें हमारे साथ साझा करते हुए अय्यप्पा ने बताया, “मैंने पहली बार आठ सौ रुपये अपने हाथ में लिए थे। नोट गिनते समय मेरे हाथ कांपने लगे थे। मैं बहुत खुश था। मुझे पहली बार लगा कि मैं अपने घर-परिवार की गरीबी दूर कर पाऊंगा।”

‘भारत अर्थ मूवर्स’ में भी अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर अय्यप्पा ने खूब नाम कमाया। ‘भारत अर्थ मूवर्स’ में नौकरी करने के दौरान उन्हें चेन्नई में होने जा रहे राज्य स्तरीय कौशल प्रतियोगिता के बारे में पता चला। अय्यप्पा ने भी इस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और उनका कौशल देखकर एल एंड टी कंपनी के अधिकारी इतना प्रभावित हुए कि उन्हें एक हज़ार एक सौ रुपये की मासिक तनख्वाह पर नौकरी देने की पेशकश की। चूँकि एल एंड टी कंपनी बहुत ही मशहूर और बड़ी कंपनी थी अय्यप्पा ने नौकरी की पेशकश को स्वीकार कर लिया। एल एंड टी कंपनी में भी अय्यप्पा ने अपने कौशल, अपनी ईमानदारी और मेहनत से खूब नाम कमाया और साल दर साल तरक्की की।

इसी दौरान अय्यप्पा की शादी शारदा देवी से की गयी। शारदा देवी के पिता कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम में काम करते थे और उनके पास अच्छी नौकरी के साथ-साथ अच्छी-खासी धन-दौलत भी थी। शादी से जुडी बातें बताते हुए अय्यप्पा के कहा, “मेरे ससुर ने मेरे बारे में जिस किसी से पूछताछ की थी उन सभी ने मेरे बारे में अच्छी रिपोर्ट दी । सभी ने मेरे बारे में कहा था कि मैं एक दिन बड़ा आदमी बनूंगा। मेरे ससुर को भी मेरा चाल-चलन और चरित्र बहुत पसंद आया और वे अपनी बेटी की शादी मुझसे करवाने के लिए राजी हो गए।” अय्यप्पा हमें ये बात बताने से भी नहीं हिचकिचाए कि उन्हें 1983 में शादी के समय दस हज़ार रुपये दहेज़ के तौर पर दिए गए थे। 


एल एंड टी कंपनी में काम करने के दौरान ही अय्यप्पा ने मैसूर एजुकेशनल इंस्टिट्यूट पॉलिटेक्निक से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा का कोर्स भी पूरा कर लिया। ये कोर्स भी अय्यप्पा ने डिस्टिंक्शन में पास किया। एल एंड टी कंपनी में काम करते हुए ही उन्हें बेंगलुरु विश्वविद्यालय से स्टटिस्टिकल क्वालिटी कंट्रोल में पोस्ट ग्रेजुएशन करने का मौका मिला। ये मौका अय्यप्पा के दूसरे सहकर्मियों को भी मिला था, लेकिन अय्यप्पा ही परीक्षा पास कर पाए थे। अय्यप्पा बताते हैं, “उन दिनों मेरा काम आठ घंटे का होता था और मैं अपने दफ्तर का काम चार घंटे में ही पूरा कर लेता था। बाकी के चार घंटे मैं टॉयलेट में जाकर बैठ जाता और वहीं पढ़ाई करता।”

टॉयलेट में बैठकर पढ़ाई करने का नतीजा भी अच्छा ही निकला। इस पढ़ाई की वजह से वे पोस्ट ग्रेजुएट भी बन गए। कंपनी में उनकी तरक्की हुई और वे कर्मचारी कैडर से मैनेजमेंट कैडर में आ गए। मैनेजमेंट कैडर में रहते हुए अय्यप्पा ने कंपनी के लिए लाखों रुपयों की बचत की। अय्यप्पा ने रद्दी सामग्री का दुबारा इस्तेमाल कर एक साल में दो करोड़ रूपये की बचत की थी। इसके लिए उनकी भूरि- भूरि प्रशंसा भी की गयी। इस तरह की प्रशंसा उन्हें कई बार मिली थी और वे इससे खुश भी होते।

लेकिन, उनकी दिलचस्पी तारीफों के कसीदे सुनने में नहीं थी। वे अपने एक मिशन को कामयाब बनाना चाहते थे। वो एक ऐसा मिशन था जोकि बचपन से उनके मन-मस्तिष्क को परेशान करता रहा था। माँ की तकलीफों को देखकर उन्होंने जो संकल्प लिया था वे उसे पूरा करना चाहते थे। अय्यप्पा ने जब एल एंड टी कंपनी में काम करते हुए अच्छी-खासी दौलत कमा ली और अपने घर-परिवार की गरीबी भी दूर कर ली तब उन्होंने फैसला लिया कि वे अब अपने मिशन पर काम करना शुरू कर देंगे। 


ये मिशन था- गाँवों और शहरों में पानी की किल्लत को दूर करना। मिशन आसान नहीं था, एक अकेला आदमी ऐसा करने की सोच भी नहीं सकता था। लेकिन, अय्यप्पा ने प्रण लिया कि वे इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए अपना जी जान लगा देंगे। वे बचपन से ही पानी की किल्लत से होने वाली समस्याओं और परेशानियों का अनुभव करते आ रहे थे। उन्होंने अपनी माँ को अपनी ज़िंदगी जोखिम में डालकर कई किलोमीटर दूर नंगे पाँव जाकर पानी लाते हुए देखा था। सूखे से पीड़ित किसानों की दुर्दशा देखी थी। सूखे की वजह से नुकसान झेलने वाले कई किसानों की खुदकुशी के बारे में सुना था। पानी के लिए होती मारा-मारी को अपनी आँखों से देखा था। इसी वजह से उन्होंने संकल्प ले लिया कि वे पानी की किल्लत को दूर करने के उपाय ढूँढेंगे और किसानों और दूसरे लोगों की मदद करेंगे।

अपने लक्ष्य को पाने के लिए अय्यप्पा ने एल एंड टी कंपनी से इस्तीफ़ा दे दिया और पानी की किल्लत दूर करने के उपाय खोजने शुरू किये। जब पत्नी को इस बात का पता चला कि अय्यप्पा ने नौकरी छोड़ दी है और पानी की समस्या दूर करने के उपाय ढूँढने निकले हैं तब उन्हें बहुत गुस्सा आया। पत्नी ने अय्यप्पा को खूब खरी-खोटी सुनायी। कई अपशब्द कहे। पत्नी ने अय्यप्पा को ‘नायालक’ और ‘पागल’ भी करार दिया। अय्यप्पा की बड़ी बेटी ने भी अपनी माँ का ही साथ दिया। पत्नी और बड़ी बेटी के अपशब्दों और निरुत्साह करने वाली बातों से अय्यप्पा को बहुत दुःख हुआ । लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी के अपशब्दों को चुनौती की तरह स्वीकार किया और ठान ली कि वे ये साबित करेंगे कि वे नालायक और पागल नहीं हैं। और इसके बाद अय्यप्पा अपने मिशन को कामयाब करने की कोशिश में जी-जान लगाकर जुट गए।

अय्यप्पा ने सबसे पहले अपने गाँव के करीब वीरापुरा में 6 एकड़ ज़मीन खरीदी और अपने प्रयोग शुरू किये। ये छह एकड़ ज़मीन उन्होंने 1.68 लाख रुपये में खरीदी थी। उन्होंने ये ज़मीन इस वजह से खरीदी थी क्योंकि इलाके में अक्सर सूखा पड़ता था और पानी की किल्लत रहती थी। सूखाग्रस्त इलाके से ही अय्यप्पा अपने प्रयोग शुरू करना चाहते थे। उन्होंने इस छह एकड़ ज़मीन में नारियल, केले, सुपारी, कॉफ़ी आदि के पेड़ लगाये। लेकिन, ज़मीन खरीदने के बाद लगातार तीन साल सूखा पड़ा। सूखा भी मामूली सूखा नहीं था। सारे कुएं, तालाब, नदी-नाले - सभी सूख गए थे। सारे बोर-वेल भी सूख गए। पानी था ही नहीं इसी वजह से फसल भी नहीं हो पायी थी। कई पेड़-पौधे भी सूखकर गिर गए। सूखे के दौरान अय्यप्पा ने अपनी ज़मीन पर एक झील बनाई ताकि जब भी बारिश आये तो ये झील पानी से भर जाए और उसी पानी से साल-भर खेतों और बाग़ में पानी का इस्तेमाल किया जा सके। 


तीन साल के सूखे के बाद यानी चौथे साल 2004 में बारिश हुई। लेकिन, बारिश इतनी ज्यादा हुई कि बाढ़ आ गयी। जो खेत सूखे थे और बूँद-बूँद पानी को तरस रहे थे वहीं बस पानी ही पानी था। पानी इतना ज्यादा था कि वो सब कुछ बर्बाद कर रहा था। कई मकान बाढ़ में बह गए थे, कईयों की जान चली गयी थी। वो बहुत भयानक स्थिति थी। अय्यप्पा ने उन दिनों को अपने जीवन के सबसे भयावह दिन बताते हुए कहा, “मेरी भी जान पर बन आयी थी। पानी इतना ज्यादा था कि हर तरफ पानी ही पानी दिखाई दे रहा था। गाँव में एक समय ऐसा था जब लोग बूँद-बूँद पानी को तरस रहे थे और वहीं वो दिन ऐसा था जहाँ लोग पानी से नफरत कर रहे थे। मेरा घर भी पानी में डूब गया था और मुझे अपनी जान बचाने के लिए पेड़ पर चढ़ना पड़ा था। पेड़ पर ही मैंने रात भी गुजारी थी। जब पानी का स्तर कम हो गया तब जाकर मैं नीचे उतरा था।” 


तीन साल के सूखे के बाद बाढ़ के अनुभव ने अय्यप्पा के दिमाग में नए विचारों और प्रयोगों को जन्म दिया। इस अनुभव से उन्हें आभास हुआ कि जब पानी है तब बहुत ज्यादा है और जब नहीं है तब कुछ भी नहीं है। उन्हें अहसास हुआ कि बारिश के मौसम में जो पानी बरसा वो बेकार चला गया। इस ज्ञानार्जन के बाद अय्यप्पा के मन में एक योजना सूझी। उन्होंने मानव निर्मित कुओं और तालाबों के ज़रिये बारिश के पानी को बचाकर रखने की योजना बनाई। उन्होंने अपनी छह एकड़ ज़मीन पर ऐसी जगह तालाब और कुएं बनवाये जहाँ बारिश का पानी आकर ठहर जाता था। अय्यप्पा की ये योजना कारगर साबित हुई और उनकी ज़मीन पर फसल, फलों के पेड़ों, बागवानी, कॉफ़ी,नारियल, केले, रबर आदि के पेड़ों के लिए भी साल-भर पानी उपलब्ध रहने लगा। अय्यप्पा ने अपने प्रयोग से ये साबित कर दिखाया था कि पानी की बचत से ही पानी की किल्लत को दूर किया जा सकता है। बारिश के पानी को बचाकर ही सूखे जैसे हालात में भी फसल उगाही की जा सकती है।

अपने कामयाब प्रयोग से उत्साहित अय्यप्पा ने जन संरक्षण के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए नया आन्दोलन शुरू करने का बड़ा फैसला लिया। अपने फैसले को अमलीजामा पहनाने के लिए उन्होंने साल 2005 में ‘वाटर लिटरेसी फाउंडेशन’ के नाम से एक गैर-सरकारी संस्था की स्थापना की और ‘जल साक्षरता आन्दोलन’ शुरू किया। इस आन्दोलन के तहत अय्यप्पा गाँव-गाँव और शहर-शहर जाकर लोगों में पानी की बचत और उसके सदुपयोग से होने वाले फायदे के बारे में बताने लगे। अय्यप्पा ने इस आन्दोलन के तहत लोगों को बारिश के पानी को बचाने की अलग-अलग तरकीबें भी बताईं-सिखाईं। अय्यप्पा की बताई तरकीबों को अमल में लाकर कई लोगों ने फायदा उठाना शुरू किया। अपने जल साक्षरता आन्दोलन की वजह से अय्यप्पा कुछ ही दिनों में काफी लोकप्रिय हो गए। दूर-दूर तक उनकी ख्याति पहुँची और दूर-दूर से लोग उन्हें अपने यहाँ बुलवाकर पानी की बचत के तौर-तरीके सीखने लगे। 


अय्यप्पा ज्यादातर मामलों में एक ख़ास और बेहद कारगर तकनीक/मॉडल का इस्तेमाल करते हैं। इस मॉडल के तहत अय्यप्पा जमीन में गड्ढे खोदते हैं और फिर उसमें रेत, मिट्‌टी, छोटे-बड़े कंकड़, पत्थर आदि डालते हैं। ऐसा करने से एक ऐसी संरचना बनती है जहाँ बारिश होने पर पानी आकर जमा होने लगता है। इस संरचना के भू-जल का स्तर भी बढ़ता है। यही तकनीक अब कई राज्यों में सरकारी संस्थाओं, आम लोगों, किसानों द्वारा भी इस्तेमाल में लाई जा रही है।

अय्यप्पा को एक बहुत बड़ी कामयाबी उस समय मिली जब उन्होंने बेंगलुरु से कुछ ही किलोमीटर दूर अर्देशनहल्ली गाँव में सारे सूखे बोर-वेल को पुनर्जीवित कर दिया। हुआ यूँ था कि अर्देशनहल्ली गाँव में सारे कुओं का पानी दूषित हो गया था। अर्देशनहल्ली गाँव के आसपास दवाईयां बनाने वाली कई फक्ट्रियाँ थीं और इन फक्ट्रियों से निकलने वाले रसायनों से गाँव के सारे कुएं और तालाब दूषित हो गए थे। पानी इतना दूषित हो गया था कि उसे पीने पर कई तरह की बीमारियाँ होने का खतरा था। अय्यप्पा को जब इस गाँव के बारे में पता चला उन्होंने इसे एक नयी चुनौती के तौर पर स्वीकार किया। सबसे पहले उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर दवाईयों की फक्ट्रियों के खिलाफ आन्दोलन किया और जल-वायु – दोनों को प्रदूषित कर रहीं फक्ट्रियों को बंद करवाया। इसके बाद अपनी ईजाद की हुई तकनीकों से पानी की बचत करवाई और बारिश के पानी से सारे कुओं को पुनर्जीवित किया। इस काम की चारों तरफ सराहना हुई। ‘जल-पुरुष’ के नाम से मशहूर राजेंद्र सिंह को जब इस कामयाब आन्दोलन और प्रयोग के बारे में पता चला तो वे भी अध्ययन करने अर्देशनहल्ली गाँव आये थे।

अय्यप्पा के काम और उनके जल साक्षरता आन्दोलन से प्रभावित होकर विश्वविख्यात ‘अशोका फाउंडेशन’ भी उनकी मदद को आगे आया। ‘अशोका फाउंडेशन’ ने अय्यप्पा को अपनी फ़ेलोशिप से नवाज़ा और तीन साल तक तीस हज़ार रुपये महीना आर्थिक सहायता राशि के तौर पर देने का एलान किया। ‘अशोका फाउंडेशन’ की फ़ेलोशिप मिलने के बाद अय्यप्पा की लोकप्रियता और भी बढ़ गयी। उनके काम का बड़ी तेज़ी के विस्तार होने लगा। अलग-अलग राज्यों की सरकारें उन्हें अपना यहाँ बुलवाकर उनसे जल-संरक्षण के तौर-तरीके और तकनीकें सीखने लगीं। कई सारे लोग और संस्थाओं ने भी अय्यप्पा की सेवाएं लेना शुरू किया। 


अय्यप्पा ने वर्षा-जल संचयन, कम पानी के इस्तेमाल से खेती-बाड़ी की नयी, कारगर और बेहद फायदेमद तकनीकों से अब तक लाखों किसानों और दूसरे लोगों को फायदा पहुंचाया है। जल-संरक्षण के लिए समर्पित अय्यप्पा को उनकी समाज-सेवा और जन-आन्दोलन के लिए कई अवार्डों और पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। वे प्रतिष्टित जमनालाल बजाज राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किये जा चुके हैं। उनके चाहने वाले और उनकी तरकीबों से फायदा पाने वाले लोग उन्हें अब ‘पानी का डाक्टर’ कहकर बुलाते हैं। जिस तरह के काम कर अय्यप्पा ने पानी की बचत को लेकर जागरूकता अभियान चलाया है उसकी व्यापकता, विस्तार और कामयाबी को ध्यान में रखकर कुछ लोग उन्हें ‘जल-गांधी’ कहते हैं और उनकी तुलना महात्मा गांधी से करते हैं। कई लोग अब उन्हें 'आधुनिक भगीरथ' के नाम से भी जानते-पहचानते हैं ।

अय्यप्पा के आन्दोलन से जुड़े आंकड़ों पर नज़र डाली जाय तब भी उनके काम की महत्ता का पता चलता है। वे जून, 2016 तक 7000 करोड़ लीटर बारिश के पानी का संचयन करवा चुके हैं। उन्होंने 500 से ज्यादा झीलें बनवाई हैं। 200 से ज्यादा शहरी अपार्टमेंट में वर्षा-जल संचयन परियोजना को लागू करवाया है। हज़ारों कुओं को पुनर्जीवित किया है। पचास से ज्यादा शैक्षणिक संस्थाओं और सत्तर से ज्यादा उद्योगों-कारखानों में बारिश के जल को संरक्षित करने के लिए भी सफलतापूर्वक परियोजना लागू की हैं।

अय्यप्पा नियमित रूप से अलग-अलग गाँवों और शहरों का दौरा कर लोगों में जल-संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने का काम बिना रुके करते रहते हैं। अय्यप्पा की वजह से कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, गोवा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पंजाब और राजस्थान राज्यों में लाखों किसान और दूसरे लोगों ने पानी की बचत कर अपने जीवन को तरक्कीनुमा, खुशहाल और सुखी बनाया है।


साल 2008 में अय्यप्पा ने ‘रेन वाटर कॉन्सेप्ट्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से एक कंपनी खोली। अय्यप्पा अपनी की कंपनी के ज़रिये अलग-अलग लोगों और संस्थाओं से फीस लेकर उन्हें पानी के बचत और सदुपयोग के तौर-तरीके बता रहे हैं।

अय्यप्पा की ख़ास बात ये है कि अगर मामला पानी का हो तो वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। उनके लिए न दिन मायने रखता है न रात। वे काम के लिए फौरी राजी हो जाते हैं। वे कहते हैं, “मेरा मिशन अभी पूरा नहीं हुआ है। मैं भारत को वो देश बनाना चाहता हूँ जहाँ पीने और सिंचाई के लिए पानी की किल्लत कभी न हो। मैं भारत में ऐसी स्थिति पैदा करना चाहता हूँ जहाँ आवश्यकता से अधिक पानी हो। भारत में कोई भी पानी को न तरसे।”

अय्यप्पा लोगों को सचेत करने से भी नहीं चूकते हैं। वे चेतावनी देते हुए कहते हैं, “अगर हम लोगों ने अभी से बारिश के पानी की बचत नहीं की और पानी का सही इस्तेमाल नहीं किया तो आने वाले दिनों में सारा देश बूँद-बूँद पानी को तरसेगा। पानी की बचत ही समय की मांग है।”


अय्यप्पा ये भी कहते हैं कि उनके जैसे कुछ कार्यकर्ताओं और आन्दोलनकारियों से पानी की बचत नहीं होगी। पानी की बचत सही मायने में तभी होगी जब देश का हर एक नागरिक पानी की बचत करेगा, पानी का संरक्षण करेगा। पानी का संरक्षण सिर्फ सरकारों या फिर कुछ संस्थाओं की ज़िम्मेदारी नहीं है बल्कि देश के हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है।

बड़ी बात ये भी है कि अय्यप्पा ने अपने मिशन के तहत बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने की कामयाब कोशिश भी है। उन्होंने आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में ये कामयाब प्रयोग किया है। अय्यप्पा ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर सूखाग्रस्त अनंतपुर जिले में अस्सी एकड़ ज़मीन खरीदी। ये ज़मीन ऐसी जगह खरीदी गयी जहाँ बारिश बहुत कम होती है और सारी ज़मीन पर पत्थरों के ढेर थे। लोग इसे बंजर भूमि करार देकर वहां से चले गए थे। आंध्रप्रदेश का अनंतपुर वो जिला है जहाँ राज्य के किसी भी जिले की तुलना में सबसे कम बारिश होती है। ऐसी जगह अय्यप्पा ने अपना प्रयोग शुरू किया। उन्होंने इस अस्सी एकड़ भूमि में कई सारे तालाब बनवाए। कई नए कुएं खुदवाए। पुराने सूखे कुओं को पुनर्जीवित किया। जब कभी बारिश हुई उसका सारा पानी बेकार जाने से बचाया। ये प्रयोग कामयाब भी हुआ। अय्यप्पा ने अपनी मेहनत से बंजर ज़मीन को उपजाऊ बना दिया। जहाँ एक पौधा भी जीवित नहीं रहता था वहां उन्होंने सब्जियां उगायीं। फलों के पेड़ लगाये। धान की भी खेती की और कर भी रहे हैं। अय्यप्पा का कहना है कि बंजर भूमि को उपजाऊ बनाना तभी संभव हुआ जब बारिश के पानी का संरक्षण किया गया। बारिश के पानी के सही संरक्षण से भू-जल का स्तर भी बढ़ा। 


अय्यप्पा बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के इस कामयाब प्रयोग/ मॉडल को अब देश के अलग-अलग बंजर इलाकों में लागू करने की योजना बना रहे हैं। कई जगह उन्होंने ये काम शुरू भी कर दिया है।

दिलचस्प बात ये भी है कि एक समय अय्यप्पा को नालायक और पागल कहने वाली उनकी पत्नी अब अपने पति की कामयाबियों पर बहुत फक्र महसूस करती हैं। अय्यप्पा की तीनों बेटियाँ – सुजाता, सुनीता और निवेदिता अब जल जागरूकता अभियान में अपने पिता की मदद करती हैं। बेटा नवीनचंद्रा सिविल इंजीनियर हैं।

अय्यप्पा के ‘कंजूस’ और ‘खुदगर्ज़’ पिता महादेवप्पा सौ साल से भी ज्यादा जिए और उनकी मृत्यु जनवरी, 2016 में हुई।

अय्यप्पा के हाथों लोहे की सीख से ज़ख़्मी हुए सहपाठी बागली वीरभद्र इन दिनों गाँव में किराना की दूकान चला रहे हैं। 

एक बड़ी बात ये भी है कि अय्यप्पा मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और जन-आंदोलनकारी अन्ना हजारे और जल-आंदोलनों के जाने-पहचाने जाने वाले ‘जल-पुरुष’ डॉ. राजेंद्र सिंह से भी मिले और अपने आंदोलन को कामयाब बनाने के लिए उनसे सुझाव और मार्ग-दर्शन लिया। अय्यप्पा विदेश जाकर अलग-अलग देशों में पानी के बचत की योजनाओं और परियोजनाओं का अध्ययन भी करना चाहते हैं।

अय्यप्पा एक और बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। अपने जल-संरक्षण आन्दोलन के तहत वे गाँव-गाँव, शहर-शहर जाकर ‘जल योद्धा’ तैयार कर रहे हैं। अपने आस-पड़ोस के लोगों को जल-संरक्षण के महत्त्व को समझाना और साथ ही लोगों को जल-संरक्षण के आसान और कारगर तौर-तरीके अपनाने के लिए प्रेरित करना ही इन जल योद्धाओं की ज़िम्मेदारी है।

शुभम के प्रयासों ने दिया एक आविष्कार को जन्म - टेलिविजन को कंट्रोल करेगा मोबाइल फोन

आपने अक्सर देखा होगा कि बच्चे अपने खिलौनों से खेलते-खेलते कुछ समय बाद उसके बारे में जानकारियां जुटाने की कोशिश करने लगते हैं। मसलन-कैसा बना है? क्या-क्या इस्तेमाल हुआ है बनाने में? वगैरह-वगैरह। हम सब के जीवन में ऐसे दौर आते हैं। शायद यही वजह है कि घरों में सबसे बदमाश बच्चों के खिलौने सबसे पहले टूटते हैं। कुछ ऐसा ही बचपन शुभम मल्होत्रा का भी गुज़रा। दसवीं पास करने के बाद शुभम के पास भविष्य के लिए दो विकल्प थे। पहला डॉक्टर और दूसरा इंजीनियर बनना। शुभम ने इंजीनियरिंग को चुना। हर चीज़ की गहनता से पड़ताल करना और खोज करने का गुण शुभम के अंदर अपने भाई से आया। उनके भाई खराब इलेक्ट्रॉनिक चीजों को खुद ही ठीक करने का प्रयास करते-करते कई नई चीजों के बारे में गहराई से जानने की कोशिश करते। दोनों भाईयों ने मिलकर खुद ही घर में इंटरकॉम सिस्टम भी बनाया था।

11वीं कक्षा में शुभम आईआईटी की तैयारी करने कानपुर आ गए। यह उनके लिए नया अनुभव था जहां हजारों बच्चे एक ऑडिटोरियम में साथ पढ़ाई करते थे। यहां शुभम ने आईआईटी प्रवेश परीक्षा का प्री पास कर लिया लेकिन मेन्स में पास नहीं हो पाए। इसके बाद शुभम ने बिट्स गोआ में प्रवेश लिया। यहां शुभम ने कॉलेज में बिट्स और बाईट्स नाम का कंप्यूटर क्लब ज्वाइन किया, जिसने उनकी बहुत मदद की। बिट्स गोआ के छात्रों ने तय किया कि वे कुछ नया करेंगे और उन्होंने रीयल सॉफ्टवेयर पर काम करना शुरु किया। फिर उन्होंने सोचा, क्यों न किसी नए प्रोजेक्ट पर काम किया जाए। उनकी इस योजना के लिए प्रशासन ने उन्हें अनुमति दे दी। उन्होंने कैंपस में ही एक सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट सेंटर खोला। अब शुभम और उनके मित्रों का अपना एक लैब था जहां वे लोग 24 घंटे बिना किसी रोकटोक के काम कर सकते थे। शुभम ने एक वोटिंग सॉफ्टवेयर तैयार किया जिसका उन्होंने कॉलेज इलेक्शन में प्रयोग किया, उनके इस काम की काफी सराहना हुई। बिट्स गोआ के अपने प्रथम वर्ष में वह ग्रिड कंप्यूटिंग की तरफ काफी आकर्षित हुए। द्वितीय वर्ष में शुभम ने माइक्रोसॉफ्ट इमेजिन कप में भाग लिया उनकी टीम ने एक 'एल बोट' का निर्माण किया जो पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दे सकता था। इस प्रतियोगिता में उनकी टीम को द्वितीय पुरस्कार मिला और पुरस्कार राशि के तौर पर अस्सी हजार रुपए उन्हें प्राप्त हुए जो कि चार लोगों की टीम के लिए काफी अच्छी राशि थी। उसके बाद शुभम और उनकी टीम ने आईआईटी कानपुर द्वारा आयोजित एक प्रतियोगिता में भाग लिया जहां उन्होंने दिन रात काम किया और अंत में उन्हें प्रथम पुरस्कार दिया गया।


आमतौर पर इंजीनियरिंग के छात्रों की कैंपस रिक्रूटमेंट हो जाती है लेकिन शुभम की नहीं हो पाई। उन्हें एक ऑफर सीएससी से आया जिसकी ज्वाइनिंग डेट काफी लेट थी। इस दौरान उनकी माइक्रोसॉफ्ट में भी बातचीत चली लेकिन बात नहीं बनी। बीएचईएल में नौकरी की संभावनाएं थीं लेकिन शुभम पब्लिक सेक्टर कंपनी के साथ नहीं जुडऩा चाहते थे। फिर शुभम और उनके मित्रों ने व्हाइट हैट सिक्योरिटी नाम से एक कंपनी शुरू की जोकि स्कूल और कॉलेज में सिक्योरिटी की वर्कशॉप आयोजित करती थी। लेकिन ये प्रयोग ज्यादा समय नहीं चल पाया क्योंकि इस दौरान उनके कुछ मित्रों की नौकरी लग गई और उन्होंने यह काम छोड़ दिया। इस दौरान शुभम की मुलाकात कृष्णा से हुई जो कि कैपिलेरी कंपनी में उच्च पद पर थे। कृष्णा ने शुभम को कैपिलेरी कंपनी ज्वाइन करने का ऑफर दिया। शुभम का काम दिल्ली की विभिन्न दुकानों पर क्लाइंट सॉफ्टवेयर इंस्टाल करना था। एक बार कोलकाता से एक सॉफ्टवेयर जिस सीडी से आया वो टूट गई और नई सीडी मंगवाने के लिए समय नहीं था तब शुभम ने अपनी सूझबूझ से इस दिक्कत को दूर किया। शुभम ने यहां तीन साल काम किया और कंपनी के लिए काफी उपयोगी साबित हुए। जब उन्होंने कंपनी ज्वाइन की थी तब कंपनी में मात्र दस लोग काम कर रहे थे और तीन साल के बाद संख्या सत्तर हो गई थी। शुभम को यहां रोज एक जैसा काम करना पड़ रहा था जिसे करते करते वे अब बोर हो चुके थे साथ ही थक भी गए थे इसलिए उन्होंने कैपिलेरी कंपनी छोड़ दी। फिर उसके बाद भारती सॉफ्ट बैंक ज्वाइन किया। शुभम ने यहां पर एंड्रोइड के लिए एक गेम 'सौंग क्वेस्ट' बनाया जो बहुत हिट रहा और एक मिलियन से ज्यादा डाउनलोड किया गया।


भारती सॉफ्ट बैंक में नौकरी करने के दौरान उन्हें धीरे-धीरे समझ आने लगा कि स्मार्ट टेलिविजन उपभोक्ताओं को किन -किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लोगों द्वारा प्रयोग किया गया रिमोर्ट इतना सुविधाजनक नहीं होता जितना उसे होना चाहिए। तब शुभम ने सोचा कि क्यों न वो इसी विषय पर कुछ काम करें ताकि उपभोक्ता को स्मार्ट टेलिविजन चलाने में आसानी हो। इसके बाद शुभम ने इसी विषय पर काम करना शुरु कर दिया। शुभम ने अपने एक दोस्त के साथ मिलकर 'टीवी' नाम की एक कंपनी की शुरुआत की जिसके वे सहसंस्थापक बने। फिर उन्होंने एक बॉक्स का निर्माण किया जो इस्तेमाल करने में काफी आसान और सुविधाजनक था। अब लोगों को अपने स्मार्ट टेलिविजन को कंट्रोल करने में आसानी हो रही थी। बॉक्स का साइज काफी बड़ा था जिसे बाद में छोटा कर वे एक डौंगल के आकार तक ले आए। 'टीवी' एक ऐसा डिवाइस है जो टेलिविजन पर आसानी से फिट हो जाता है। इसके बाद एक सॉफ्टवेयर डाउनलोड करना होता है जिसके बाद उपभोक्ता आसानी से अपने मोबाइल से ही टेलिविजन को कंट्रोल कर सकता है। मोबाइल के जरिए अपने टेलिविजन सेट में अपने मनपसंद वीडियो व फोटो देख सकता है। इंटरनेट चला सकता है और वो भी बड़ी आसानी से। यह एक ऐसा काम था जिसे शुभम हमेशा से करना चाहते थे।

जन्म से ही नेत्रहीन शख्स ने खडी कर दी 50 करोड़ की कम्पनी

सोचिये अगर आपकी आँखो पर पटटी बांध दी जाये तो आपको कैसा लगेगा ? आँखों पर पट्टी बाँध कर आप क्या-क्या काम कर सकते हैं ? अगर मैं अपनी बात करूँ तो मैं अपनी आखो पर पटटी बाँध कर सही तरह से खाना तक नहीं खा सकता |

अब जरा उन लोगों के बारे में सोचिये जो जन्म से ही नेत्रहीन है | वे लोग अपने दैनिक कार्य किस तरह से करते होंगे ? कितना कष्ट होता होगा उन्हें और कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता होगा ? और कितनी मुश्किल होती होगी जब लोग उनकी मदद ना करके उनका उपहास उड़ाते होंगे या उनको अपने से दूर करते होंगे |


आज Gyan Versha के माध्यम से मैं एक ऐसे साहसी और बहादुर शख्स के बारे में बताने जा रहा हूँ जो जन्म से ही नेत्रहीन है और अपनी नेत्रहीनता की वजह से उसे समाज के लगभग हर दरवाजे से मदद के बजाय निराशा और इनकार मिला | लेकिन अपने हौसले, साहस और जिद से उस शख्स ने समाज के उन लोगों को आईना दिखाया और मात्र 23 वर्ष की उम्र में 50 करोड़ की कम्पनी खड़ी कर दी और उसका CEO बना और देश दुनियाँ के लाखो करोड़ों लोगों का प्रेरणास्रोत बना |

उस शख्स का नाम है श्रीकांत बोला | जो जन्म से नेत्रहीन है और डिस्पोजल कंज्यूमर पैकेजिंग सॉल्यूशंस कम्पनी बोलांट इण्डस्ट्रीज के CEO हैं| आईये उनकी प्रेरणादायक जिन्दगी के बारे में जानते हैं |
श्रीकांत का बचपन

श्रीकांत का जन्म 7 जुलाई 1991 को आंध्रप्रदेश के कृष्णा जिले के सीतारामपुरम नामक गाँव में हुआ था | इनके माता पिता ज्यदा पढ़े लिखे नही थे और बहुत ही गरीब थे | श्रीकांत के जन्म के समय परिवार की मासिक आय लगभग 1600 रु० थी जो कि बहुत ही कम थी| जिस के कारण इनका बचपन बहुत ही कठिनाइयों में बीता | अमूमन जब किसी के घर पर लड़के का जन्म होता है तो उसके माँ बाप, पास पड़ोस, रिश्तेदार आदि सब बहुत खुश होते हैं लेकिन श्रीकांत के जन्म के समय ऐसा कुछ नही हुआ क्योंकि श्रीकांत जन्म से ही नेत्रहीन थे |
जिन्दगी की पहली मुश्किल ( जब गाँव वालों ने कहा कि इसे मार दो )

श्रीकांत की पहली मुसीबत इनके जन्म लेते ही आ गयी | श्रीकांत जन्म से ही नेत्रहीन थे | इसलिए जब पड़ोसियों को इनके नेत्रहीन होने का पता चला तो उन्होंने इनके माता पिता को सलाह दी कि इतनी गरीबी में सारी जिन्दगी की परेशानी और दुःख सहने से अच्छा है कि इस बच्चे का गला घोट कर अभी मार दो | लेकिन माँ बाप का दिल बड़ा महान होता है | इनके माता पिता ने पड़ोसियों की बात ना मान कर इन्हें पालने का निश्चय किया (I salute for them) और पूरी ममता और प्रेम से उनका पालन पोषण किया |

जिन्दगी की दूसरी मुश्किल (जब स्कूल में इनके साथ बुरा बर्ताव हुआ)

जब श्रीकांत बड़े हो रहे थे तो उनके पिता उन्हें अपने साथ खेतों में ले जाने लगे लेकिन वे अपने पिता की कोई मदद नहीं कर पाते थे| इसलिए उनके पिता ने तय किया कि वे उन्हें पढ़ाएंगे और उन्होंने गाँव के पास एक स्कूल में श्रीकांत का दाखिला करा दिया | वे गाँव से 5 कि०मी० दूर स्कूल जाते थे | लेकिन स्कूल में उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव होता था | उन्हें क्लास में सबसे पीछे वाली बैंच पर बिठाया जाता था | दूसरे बच्चे किसी भी खेल और प्रतियोगिता में उन्हें अपने साथ शामिल नहीं करते थे | शिक्षक भी उन्हें पसंद नहीं करते थे क्योंकि वे उन्हें देख नहीं पाते थे और कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाते थे |

तब इनके पिता को एहसास हुआ वे वहाँ पर कुछ भी नहीं सीख पा रहे हैं | इसके बाद इनके पिता ने कुछ पैसो की बचत करके उन्हें एक स्पेशल स्कूल में हैदराबाद भेज दिया जहाँ पर अशक्त बच्चों को शिक्षा दी जाती थी |
जिन्दगी की तीसरी मुश्किल (जब दसवी के बाद उन्हें साइंस पढने के लिए मना किया)

हैदराबाद के स्पेशल स्कूल में मिले प्यार, ममता और देखरेख के कारण वे बहुत जल्दी चीजो को सीखने लगे और पढाई लिखाई और खेलों में बेहतर होते गये | वे वहाँ पर शतरंज, क्रिकेट आदि खेल भी खेलने लगे | उन्होंने अपनी ज्यादातर क्लास में टॉप किया और दसवीं की परीक्षा 92% अंको के साथ पास की| इसके बाद उन्हें पूर्व राष्ट्रपति डॉ० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम के साथ लीड इंडिया प्रोजेक्ट में काम करने का मौका भी मिला | दसवी के बाद ये साइंस विषय पढना चाहते थे | लेकिन उन्हें साइंस साइड में प्रवेश नहीं मिला | आन्ध्र प्रदेश बोर्ड ने उनसे कहा कि वे विकलांग हैं इसलिए वे सिर्फ आर्ट साइड के विषय ही ले सकते हैं | इस पर उन्होंने आन्ध्र प्रदेश बोर्ड पर मुकदमा कर दिया और अपने हक के लिए 6 महीने तक लड़ाई लड़ी | आखिरकार सरकार की ओर से उन्हें ‘अपने रिस्क’ पर विज्ञान विषय लेने का आदेश मिला | इस तरह वे देश के पहले विकलांग बन गये जिसे दसवीं के बाद साइंस पढने के इजाजत मिली |

इसके बाद उन्होंने सारी किताबें Audio Format में हासिल की और दिन रात एक करके मेहनत से पढाई की तथा 12वी की परीक्षा 98% अंको के साथ पास की |

जिन्दगी की चौथी मुश्किल (जब IIT ने उन्हें दाखिला देने से मना किया )

बारहवीं करने के बाद उनके सामने एक बार फिर मुश्किल आई जब उन्होंने देश के सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों, बिट्स पिलानी तथा IIT के लिए apply किया | लेकिन प्रवेश परीक्षा के लिए उन्हें Admit Card नहीं मिला | इन सभी Colleges ने यह कहकर उन्हें मना कर दिया कि वे नेत्रहीन हैं इसलिए प्रतियोगी परीक्षा नहीं दे सकते |

MIT America में एडमिशन

भारत में इंजीनियरिंग करने की इजाजत नहीं मिलने के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने अमेरिका में प्रवेश के लिए कई संस्थानों में आवेदन किया, जो विशेष तौर से नि:शक्तो के लिए बने थे | उन्हें वहाँ के चार बड़े संस्थानों MIT, स्टैनफोर्ड, बर्कले तथा कार्नेगी मेलान में एडमिशन के लिए चुना गया | श्रीकांत ने इनमे से MIT को चुना और स्कॉलरशिप लेकर पढाई की | इस तरह वे स्कूल के इतिहास के और MIT में पढ़ने वाले भारत के पहले नेत्रहीन छात्र बनें |



एक कमरे से शुरुआत की और 50 करोड़ की कम्पनी खड़ी कर दी |

MIT में पढाई के दौरान उनके दिमाग में हमेशा ये चलता रहा कि कुछ ऐसा किया जाये जिससे लोगो को रोजगार मिले| जिससे विकलांग भी सम्मान के साथ अपनी जीविका चला सकें |

इसलिए श्रीकांत ने हैदराबाद में एक टीन के छत वाले छोटे से कमरे में 3 मशीनों और 8 लोगों के साथ 23 वर्ष की उम्र में शुरुआत की | धीरे धीरे यह शुरुआत एक कम्पनी में बदल गयी | उन्होंने इस कम्पनी का नाम बोलांट इंडस्ट्रीज रखा और इसके CEO बन गये | उनकी कम्पनी इको फ्रेंडली डिस्पोजल कंज्यूमर पैकेजिंग प्रोडक्ट बनाती है | उनकी कम्पनी अनपढ़ तथा नि:शक्त लोगो को रोजगार देती है |

आज श्रीकांत की कम्पनी 50 करोड़ की कम्पनी बन चुकी है और इनके हैदराबाद, हुबली तथा निजामाबाद में चार प्लांट हैं तथा एक प्लांट और शुरू करने की योजना बना रहे हैं |
श्रीकांत की सोच और विजन

श्रीकांत के अन्दर एक हार ना मानने वाला जज्बा है और उन्हें अपनी काबिलियत पर पूरा भरोसा है |

वे कहते हैं कि “जब दुनिया कहती थी कि ये कुछ नहीं कर सकता, तो मैं कहता था कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ | मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं है |”

2006 में एक बार डॉ० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने एक प्रोग्राम में बच्चों से एक प्रश्न पूछा कि “आप जीवन में क्या बनना चाहते हो ?” तब श्रीकांत ने सबसे तेज आवाज में जवाब दिया था कि “मैं भारत के पहला नेत्रहीन राष्ट्रपति बनना चाहता हूँ” |



“उनका कहना है कि मैं खुद को सबसे भाग्शाली मानता हूँ, इसलिए नहीं कि अब मैं करोड़पति हूँ, बल्कि इसलिए क्योंकि मेरे माता पिता ने कभी भी मेरे नेत्रहीन होने को अभिशाप नहीं समझा और मुझे इतनी गरीबी के बावजूद पढ़ाया | मेरी नजर में वे दुनिया के सबसे धनी लोग हैं |

श्रीकांत का मानना है कि अगर आपको अपनी जिन्दगी में सफल होना है तो अपने बुरे समय में धैर्य बना कर रखें, और समाज द्वारा तय सीमाओं को निडरता से तोड़ दीजिये |

तो दोस्तों आपने देखा कि कैसे जन्म से ही नेत्रहीन एक शख्स ने अपने हौंसले, कभी हार ना मानने वाले जज्बे से और अपने साहस से तमाम मुश्किलों , मुसीबतों को हराकर 23 वर्ष की उम्र में ही 50 करोड़ की कंपनी खड़ी कर दी और देश दुनियाँ के लाखों करोडो लोगों के लिए एक मिसाल और प्रेरणा का स्रोत बन गया |

दोस्तों अगर आपको अपनी काबिलियत पे भरोसा है , आपके अंदर अपने सपने को पूरा करने का हौंसला है, कभी हार ना मानने वाला जज्बा है तो दुनियां की कोई भी चुनौती , कोई भी मुश्किल, कोई भी मुसीबत आपका रास्ता नहीं रोक सकती , आपको सफल होने से नहीं रोक सकती |

एक प्रार्थना

दोस्तों आशक्त होना, विकलांग होना अपने आप में ही एक अभिशाप है | इसलिए अगर आपके आस पास भी कोई आशक्त या विकलांग है तो कृपया उसके साथ कभी भी बुरा बर्ताव ना करें | आपसे जितना भी हो सके उसकी मदद करें, उसे हमदर्दी का एहसास करायें, उसे ज़िन्दगी में आगे बढ़ने का रास्ता दिखायें | ऐसा करने से आपको बड़ा पुण्य मिलेगा | क्या पता आपके छोटे से प्रयास से , आपकी थोड़ी सी हमदर्दी से किसी विकलांग की ज़िन्दगी बदल जाये ?

स्कूल जाने की उम्र में एक सोफ्टवेयर कंपनी के सीईओ बने 16वर्षीय राहुल

16 वर्षीय राहुल डाॅमिनिक विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं और अपने बेडरूम से एक कंपनी का संचालन करते हैं। इतनी छोटी सी उम्र में एक कंपनी के सीईओ राहुल की सफलता किसी भी उम्र के उद्यमी के लिये एक मिसाल है। राहुल ने याॅरस्टोरी के साथ अपने सफर के प्रारब्द्ध, काम के प्रति उनकी सच्ची लगन, वर्तमान परियोजनाओं और भविष्य की योजनाओं के बारे में उत्साह के साथ विस्तार से बात करते हैं।


राहुल बताते हैं कि खिलौनें से खेलने की उम्र में वे कंप्यूटर पर काम करना सीख गए थे और नौ या दस साल की उम्र तक आते-आते वे प्रोग्रामिंग करना सीख गए थे। बचपन से ही मैं अपने पिता को कंप्यूटर पर काम करते हुए देखता था। हालांकि उस समय मैं उस काम के बारे में अधिक नहीं समझता था लेकिन स्क्रीन पर जो भी दिखता था वह मुझे मोहित कर देता था। पिताजी ने हमेश मेरी शंकाओं का समाधान किया और कभी मुझे कंप्यूटर का इस्तेमाल करने से मना नहीं किया।

बचपन से ही घर में कंप्यूटर का इस्तेमाल करने की आजादी मिलने से राहुल को इसके बारे में सीखने में काफी मदद मिली। ऐसा नहीं कि राहुल ने गलतियां नहीं की। हंसते हुए राहुल बचपन का एक ऐसा ही किस्सा हमारे साथ साझा करते हैं।

जब वे करीब 4 साल की उम्र के थे तब वे अपनी माँ के साथ उनकी एक की एक दोस्त, जो सन माइक्रोसिस्टम के आईटी विभाग में कंप्यूटर प्रोग्रामिंग का काम करती थीं से मिलने गए। उन दिनों वे एक प्रोग्राम तैयार करने में लगी हुई थीं और 18 घंटो की कोडिंग की मेहनत कंप्यूटर पर खुली हुई थी। राहुल की माँ और उनकी मित्र तो काॅफी पीने चले गए और राहुल उस कमरे में कंप्यूटर के साथ अकेले रह गए। राहुल उस समय के बारे में बताते हुए कहते हैं कि मुझे ठीक से तो याद नहीं कि मैंने क्या किया लेकिन मैंने जो किया वो देखने के बाद मेरी माँ की दोस्त बेहोश होते-होते बचीं। पता नहीं कैसे राहुल ने उनकी 18 घंटों की मेहनत को डिलीट कर दिया।

10 साल की उम्र में राहुल ने प्रतिष्ठित एनआईआईटी में ‘सी’ प्रोग्रामिंग सीखने के लिये दाखिला लिया। राहू बताते हैं, 
- मेरी छोटी उम्र को देखते हुए वहाँ के शिक्षकों और जीएम को मेरी योग्यता पर संदेह था। उन लोगों ने सोचा कि ये छोटा बच्चा क्या कर पाएगा लेकिन जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे वे लोग मेरी प्रतिभा के कायल होते गए और मैं तभी से कंप्यूटर प्रोग्रामिंग कर रहा हूँ।

शौकिया तौर पर प्रोग्रामिंग करना शुरू करने के बाद लगभग 12 साल की उम्र में उन्हें पहली बार व्यवसाईक तौर पर अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिला। उस समय उनके पिता ने एक फाईनेंशियल परामर्श कंपनी की नींव डाली और मैंने उनसे इस कंपनी की वेबसाइट तैयार करने के लिये कहा। मेरे पिता ने मुझे खुशी-खुशी मुझे अपनी नई कंपनी की वेबसाइट डिजाइन करने का मौका दिया।
- इस वेबसाइट को तैयार करने के करीब एक साल बाद मैंने बच्चों और किशोरों के लिये ग्राफिक डिजाइन टूल का निर्माण किया जिसका नाम ड्यूकोपेंट रख गया। इसका निर्माण घरेलू कंप्यूटर के लिये किया गया था और जल्द ही यह प्रोग्रम बड़े लोगों को भी भाने लगा। इस दौरान मैंने देखा कि नौकरी करने वाली माँ जब शाम को खाना बनाने की तैयारी करती है तो कई बार उसके समझ में यह नहीं आता कि आज खाने में क्या तैयार किया जाए। इसके बाद मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न पाकशास्त्र को लेकर एक एप्प तैयार की जाए। जल्द ही मैंने खाने को लेकर एक एप्प तैयार की जिसकी सहायता ये मेरी माँ जैसी कामकाजी महिलाओं का रसोई का काम काफी आसान हो गया। इस एप्प के द्वारा महिलाओं को उनकी रोई में उपलब्ध सामान के बारे में पता चलता है। साथ ही यह एप्प रसोई में उपलब्ध सामान के अनुसार ही बनने वाले खानों की रेसिपी दिखाता है।

एक बहुत पुरानी कहावत है ‘‘आवश्यकता अविष्कार की जननी है’’। बीते वर्ष राहुल और उनके एक मित्र स्कूल से एक दिन के अवकाश पर रहे और तब उन्हें महसूस हुआ कि दूसरो से नोट्स इकट्ठे करना और हर विषय का होमवर्क लेना कितना मुश्किल काम है। इस परेशानी से रूबरू होने के बाद मैंने विद्यर्थियों की इस मुश्किल को हल करने की दिशा में काम करना शुरू किया और जल्द ही अपने सबसे महत्वाकांक्षी और सफल प्रोजेक्ट ‘‘वियर्डइन’’ के साथ सामने था।

राहुल कहते हैं कि,‘‘हम विद्यार्थियों को एक ऐसा मंच उपलब्ध करवाना चाहते थे जिसकी सहायता से वे अपने मतलब की सभी जानकारियां एक ही स्थान पर सुगमता से हासिल कर सकें। अब कक्षा समाप्त होने के बाद हमारे अध्यापक जो भी जानकारी सभी छात्रों तक पहुंचाना चाहते हैं वे उसे बस टाइप कर देते हें और सभी छात्र उस जानकारी से रूबरू हो जाते हैं।’’

राहुल आगे बताते हैं कि ‘‘वियर्डइन’’ के इस्तेमाल को लेकर उन्होंने 300 अध्यापकों के के बीच एक सर्वेक्षण करवाया जिसके नतीजे काफी चैंकाने वाले रहे। इस सर्वेक्षण में करीब 86 प्रतिशत शिक्षकों ने इसे बहुत उपयोगी बताया। ‘‘हर किसी ने ‘‘वियर्डइन’’ को लेकर काफी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। अबतक सिर्फ एक ही बात ऐसी है जो नकारात्मक रही है और वो हे इसकी कीमत। हम लोग इस दिशा में भी काम कर रहे हैं और जल्द ही ‘‘वियर्डइन’’ सबकी जेब की पहुंच में होगा। ’’

‘‘वियर्डइन’’ को तैयार करने के पीछे मेरा मुख्य मकसद छात्रों को इंटरनेट पर ही कक्षा के जैसा माहौल देना है। इसकी सहायता से वे इंटरनेट पर अपनी पढ़ाई-लिखाई से संबंधित जानकारियों इत्यादि को दूसरों के सााि साझा कर सकते हैं और घर बैठे भी पढ़ाई कर सकते हैं।

एक तरफ तो राहुल अपने दोस्तों की पढ़ाई में ‘‘वियर्डइन’’ की मदद से सहायता कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ वे आम लोगों की मदद करने के लिये भी प्रयास कर रहे हैं। इसी दिशा में उन्होंने एक एप्प तैयार किया है जिसका नाम उन्होंने ‘‘वेरीसेफ’’ रखा है। यह एक वेब आधारित सुविधा है जिसकी मदद से आप देश या दुनिया के किसी भी कोने के मुख्य शहरों के सुरक्षित होने के विषय में जानकारी ले सकते हैं। आसान शब्दों में कहें तो आप किसी भी बड़े शहर में जाने से पहले वहां के हालात और माहौल के बारे में सावधान हो सकते हैं। ‘‘इस एप्प में आप किसी भी बड़े शहर में होने वाली आपराधिक घटनाओं के बारे में जानकारी ले सकते हैं। इसके अलावा इसमें आपको हर जगह के इमरजेंसी फोन नंबरों की डायरेक्ट्री भी मिलेगी जो किसी आकस्मिक स्थिति में आपका साथ देगी।’’ अंत में राहुल यह बताना नहीं भूलते कि यह एप्प आप बिना कोई कीमत चुकाए इंटरनेट से ले सकते हैं।

जानवरों में होने वाले अल्पकालिक बुखार के लिए हर्बल दवा


पेशे से किसान 62 वर्षीय नवल किशोर सिंह के पास पारम्परिक ज्ञान का भरपूर खजाना है। उन्होंने पशुओं को होने वाले अल्पकालिक बुखार (EPHEMERAL FEVER) के लिए एक असरदार हर्बल दवा तैयार किया है। उन्हें यह पारम्परिक ज्ञान अपने पिता स्व. कैलाश सिंह से मिला था। उनके पास क्षेत्र के लोग अपने पशुओं को होने वाली बीमारी के इलाज के लिए आते थे। यही वजह थी कि नवल किशोर को बहुत कम उम्र में ही हर्बल मेडिसिन के बारे में अच्छी समझ विकसित हो गई। गांव से प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद वह हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए नजदीक के इलाके वारसलिगंज चले गए, लेकिन वह परीक्षा पास नहीं कर पाए। इसके बाद परिवार के लोगों ने उनकी शादी कर दी और उन्होंने पारिवारिक जिम्मेदारियों में हाथ बटाना शुरू कर दिया। साल 1990 में पिता की मत्यु के बाद घर और खेती की पूरी जिम्मेदारी नवल किशोर पर आ गई। इसके अलावा उन्हें अपने घर में चलने वाले छोटे पशु चिकित्सालय को भी संभालना पड़ा। आय के लिहाज से परिवार की सदस्यों की संख्या काफी ज्यादा थी, ऐसे में शुरुआती समय में उन्होंने तमाम आर्थिक कठिनाइयां झेलनी पड़ी। इसके बावजूद भी नवल किशोर ने अपने मूल्यों से कोई समझौता नहीं किया और सेवा के लिए कभी किसी से कोई रकम नहीं मांगी। यहां तक की जरूरत पड़ने पर उनकी मदद अपने पैसों से की, यही वजह थी वह क्षेत्र में जल्द मशहूर हो गए। सकारात्मक सोच रखने वाले नवल किशोर जीवन में आने वाली कठिनाईयों को लेकर कहते हैं कि जो होता है वह भगवान की मर्जी से होता है। इसमें कोई क्या कर सकता है। उनकी पत्नी 57 वर्षीय जानकी देवी भी उनके स्वभाव की कायल हैं और कहती हैं कि वह एक विनम्र और मीठा बोलने वाले इंसान हैं, जिन्हें लोगों से मिलना जुलना खूब पसंद है। वह बताती हैं कि शादी के बाद शुरुआत में उन्हें छह संताने लड़की हुई। ऐसे में उन पर दूसरी शादी का दबाव बनने लगा, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। बाद में जानकी देवी को दो लड़के त्रिपुरारी और कन्हैया हुए। फिलहाल त्रिपुरारी स्नातक करने के बाद उच्च शिक्षा की तैयारी कर रहा है, जबकि कन्हैया दिहाड़ी मजदूर के रुप में काम करता है। तीन लड़कियों की शादी में खर्च के की वजह से उनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी बिगड़ गई, लेकिन नवल फिर भी दूसरों के मदद के लिए हमेशा तैयार रहते है। उन्होंने अपने कई अन्य पारम्परिक ज्ञान को राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान-भारत से साझा किया है।





नवल किशोर के पास पशुओं और मानव दोनों के लिए कई हर्बल दवाएं मौजूद है। इसमें से जानवरों को होने वाले अल्पकालिक बुखार के लिए बनाई दवा प्रायर आर्ट सर्च में अद्वितिय मिली, जिसके लिए राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान- भारत ने उनके नाम से पेटेंट के लिए आवेदन किया है। इस हर्बल फॉमूलेशन के क्लिनिकल परीक्षण के दौरान यह नतीजा आया कि इसके इस्तेमाल से लीवर के प्रमुख एंजाइम प्रभावित नहीं होते हैं और लीवर स्वस्थ बना रहता है। इस दौरान प्रोटीन का मेटाबोलिज्म भी सामान्य रहता है। परीक्षण में यह भी पुष्टि हुई की इसके इस्तेमाल से जानवरों के पैरों में होने वाले दर्द भी होता है, जिससे उनकी चाल में भी सुधार हुआ। नवल किशोर के हर्बल फॉमूलेशन के आधार पर जानवरों को मुंह से खिलाने वाली एक हर्बल दवा Ephelixin - 3D तैयार की गई है। राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान- भारत जानवरों में होने वाले अल्पकालिक बुखार को रोकने वाले की इस हर्बल फॉमूलेशन की तकनीक को हस्तांतरण करने की कोशिश कर रहा है।


Patent Application No: 2243/CHE/2008

12वीं पास शख्स ने मात्र दस हज़ार में बनाया एक टन का एसी, बिजली की खपत 10 गुना कम

कहते हैं ईमानदारी और सही दिशा में किया गया काम अकसर सफलता और सार्थकता की मंजिल तक ले जाता है। इसके लिए ज़रूरी है निरंतर कोशिश और सफलता के लिए जुनून। इस दौरान कई बार मिलने वाली असफलता असल में दवा का काम करती है और समझदार शख्स को मंजिल की तरफ अग्रसर करती है। ऐसी ही एक कहानी है राजस्थान के सरदारशहर के त्रिलोक कटारिया की। त्रिलोक कटारिया ने कम कीमत और कम बिजली के इस्तेमाल से चलने वाले एयरंकडीशनर बनाने का बीड़ा उठाया था। उन्होंने तीन साल तक एसी बनाने में पूरी लगन से रिसर्च की। इन तीन वर्षों में त्रिलोक ने करीब आठ से 10 लाख रुपये खर्च किए। उनके जुनून को बाद में सफलता मिली और उन्होंने 10 गुना कम बिजली खपत करने वाला एक टन एसी तैयार किया। इस एसी के निर्माण में मात्र दस हजार रुपये का खर्च आया है। ऐसे में यदि इस उत्पाद को व्यावसायिक तौर पर मार्केट में उतारने के लिए बनाया जाएगा तो विभिन्न खर्चों के साथ इसकी कीमत अधिकतम 15 हजार रुपये तक जा सकती है, जो बाजार में उपलब्ध 25 से 35 हजार रुपये के एसी से काफी कम है।

त्रिलोक ने बताया, लगातार बढ़ती महंगाई और बिजली की दरों में प्रत्येक वर्ष होने वाली बढ़ोतरी की वजह से आम उपभोक्ता एसी की चाहत के बाद भी उसके बिल से डरा सा रहता है। इसी डर को दूर करने और आम उपभोक्ता को एसी की हवा दिलाने के लिए मैंने इस एसी को बनाने का सपना देखा था।


त्रिलोक कई सालों से एसी ठीक करने का काम करते हैं। उन्होंने बताया कि वह जिस घर में भी एसी ठीक करने जाते, वहां सभी एक ही बात कहते थे कि एसी लगवाने के बाद बिजली का बिल बहुत अधिक आता है। बार-बार यही बातें सुनकर मैंने मन में कम बिजली खपत करने वाले एसी बनाने की ठान ली थी। उन्‍होंने बताया कि इस एसी की एक महत्वपूर्ण खासियत इसका इको फ्रैंडली होना भी है। बाजार में उपलब्ध एसी में सामान्य तौर पर आर-22 गैसों का उपयोग किया जाता है, जोकि ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती हैं, जबकि उनके एसी में हाइड्रोकार्बन गैसों का इस्तेमाल किया है। ये गैसे पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाती हैं।
बिजली की खपत 10 गुना कम


एक एसी बनाने वाली कंपनी में काम करने वाले एक टेक्नीकल इंजीनियर के मुताबिक यह एसी अन्य एसी की तुलना में करीब आठ से 10 गुना कम बिजली खपत करता है। 10 एम्पीयर की बजाय यह 0.08-0.09 तक ही है। एसी में कम्प्रेशर इस तरीके से लगाए गए हैं, कि यह कम वॉल्ट में भी चालू हो जाता है। एक टन का एसी दो हजार वाट बिजली खपत करता है। यह एसी दो सौ वाट बिजली खपत करता है। इसके लिए किसी तरह के स्टेबलाइजर की भी जरूरत नहीं है। यानी बिजली की उपलब्धता में आने वाले उतार-चढ़ाव से भी ये एसी सुरिक्षत है।

12वीं पास हैं त्रिलोक

नेशनल स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग से 12वीं कक्षा पास करने के बाद त्रिलोक कटारिया ने राजस्थान में आईटीआई से एयरकंडीशनर से संबंधित पार्टटाइम डिप्लोमा कोर्स किया। इसके बाद उन्हों ने देहरादून, फरीदाबाद, दिल्ली और नोएडा में एसी बनाने वाली कई कंपनियों में काम किया। यहां रहकर एसी बनाने के तरीके इससे जुड़ी बारीकियां सीखीं। काम करने के साथ-साथ उन्होंने ऐसा एसी बनाना शुरू किया, जो बाजार में उपलब्ध उत्पादों के मुकाबले बेहतर हो।

पेटेंट कराने की प्रक्रिया शुरू

त्रिलोक ने अपनी इस खोज को पेटेंट कराने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। उन्होंने बताया कि जब तक ये काम पूरा नहीं होता है तब तक इसे मार्केट में नहीं उतारा जाएगा। उनकी इस खोज को मार्केट में उतारने के लिए कई कंपनियों ने उनसे संपर्क भी किया है, लेकिन फिलहाल वह इसके लिए तैयार नहीं हैं।