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Tuesday, 28 March 2017

सूरज की तपिस से जमी रहेगी आइसक्रीम और ठंडा रहेगा पानी

गर्मियों में जब कभी हम और आप बाहर घूमने या काम पर निकलते है तो सबसे पहले हमें जरूरत होती है ठंडे पानी या फिर आइसक्रीम की…लेकिन कई बार सड़क किनारे आइसक्रीम कार्ट से मिलने वाली मनपसंद आइसक्रीम हमें पिघली हुई मिलती है...इसी तरह सड़क किनारे मिलने वाला पानी कितना शुद्ध होता है, हमें पता नहीं होता, क्योंकि हर आदमी बोतल बंद पानी नहीं खरीद सकता। इसी समस्या का समाधान लेकर आये हैं मुम्बई के इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर महेश राठी। जो पिछले कई सालों से सोलर विंड और बायोमास के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।

महेश राठी ने बताया, “कुछ नया करने की चाहत में जब एक दिन मैं गुजरात के भुज में विंज टरबाईन के रखरखाव का काम कर रहा था तो फिल्ड में काम करते हुए मुझे एहसास हुआ कि गर्मी में ठंडे पानी की कितनी जरूरत होती है, इसलिए क्यों ना सोलर सिस्टम के जरिये पानी ठंडा करने वाला कोई उपकरण बनाया जाये। तब मैंने इस क्षेत्र में काम करने के बारे में सोचा।”


महेश राठी बताते हैं कि “जब करीब 2 साल पहले गर्मियों के दिनों में काम के सिलसिले में मैं दिल्ली गया तो सड़क किनारे आईसक्रीम कार्ट ने मुझे पिघली हुई आइसक्रीम दी और जब मैंने वेंडर से कहा कि इस पिघली हुई आइसक्रीम के जगह मुझे दूसरी आइसक्रीम दे तो उसके कहा कि दिल्ली की इतनी गर्मी में सब आइसक्रीम का हाल ऐसा ही हो जाता है। इसी तरह मैं घुमते घुमते जब आगे बढ़ा तो मैंने देखा की सड़क किनारे एक पानी के डिस्पेंसर वाला 2 रुपये गिलास पानी बेच रहा था, लेकिन वो पानी कितना साफ था मैं नहीं जानता था। तब मैंने सोचा कि क्यों ना कूलिंग रेफ्रिजिरेटर बनाया जाये जिससे ना सिर्फ साफ पानी मिले बल्कि वो ठंडा भी हो।”


इस तरह महेश राठी ने कूलिंग सिस्टम पर काम करना शुरू कर दिया। शुरूआत में उनको इसे बनाते हुए कई तरह की दिक्कत आई, इसके कई पुर्जें उन्हें चीन व अमेरिका से मंगाने पड़े थे, कुछ चीजों की तकनीक तो सिर्फ अमेरिका के ही पास थी। इसमें उनका काफी पैसा और समय बर्बाद हुआ। इस तरह करीब 5 लाख रूपये खर्च करने और डेढ साल की कड़ी मेहनत के बाद उन्होने एक ऐसा कूलिंग सिस्टम तैयार किया जिसमें आइसक्रीम भी नही पिघलती थी और पानी भी ठंडा मिलता था। अब वो इसे बाजार में उतारने के लिए तैयार थे। खास बात ये थी कि इस आइस कार्ट को सोलर पैनल से चार्ज किया जा सकता है, बारिश के समय इसे बिजली से भी चार्ज किया जा सकता है। इसमें लगने वाली 12 वोल्ट की बैटरी केवल आधा यूनिट में ही चार्ज हो जाती है...इस कार्ट में ना सिर्फ आइसक्रीम और पानी को ठंडा करने की सुविधा है बल्कि कोई चाहे तो अपना मोबाईल भी चार्ज कर सकता है।

महेश के मुताबिक इस कार्ट को बनाते समय सबसे बड़ी दिक्कत निवेश की आई और उनको कोई ऐसा निवेशक नहीं मिल रहा था जो इनके प्रोजेक्ट पर निवेश कर सके। जिसके बाद उन्होने पब्लिक प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया और कार्ट से जुड़े पोस्ट डाले। जिसके बाद ‘मिलाप’ को उनका ये आइडिया पसंद आया और उन्होने इस तरह के कार्ट बनवाने में रूची दिखाई। महेश आगे बताते हुए कहते हैं कि- “मैने उनसे कहा कि अगर पैसा मिल जाय तो वह इस तरह की कम से कम 10 कार्ट बनाना चाहते हैं और इस तरह के कार्ट को किसी एनजीओ को किराये पर दे सकते हैं। ऐसा करने से कई बेरोजगारों को रोजगार के मौके मिल सकते हैं जिससे हर महिने उनको एक नियमित आमदनी भी होगी।”

महेश यहीं नहीं रूके वो अब एक ऐसा सोलर कार्ट बना रहे हैं जो ‘सोलन’ मछलियों को रखने के लिए होगा। इस कार्ट के जरिये सड़क किनारे मछली बेचने वालों की मछलियां लम्बे समय तक खराब नहीं होंगी। इस तरह से उनकी आमदनी बढ़ा सकती है।अपनी योजनाओं के बारे में महेश बताते हैं कि वह सोलर विंड व बायो मास पर काम कर रहे हैं। वो सोलर एयर कंडीशनर और एक ऐसा सोलर एयर कूलर बाजार में उतार रहे हैं जो फोर इन वन है। इस उपकरण में कूलर के साथ ही सोलर पैनल, बैट्री, कूलर, इन्वर्टर लगा है। इनके बनाये एयर कूलर की खासियत है कि ये गर्मी में तो कमरे को ठंडा करता है और अगर सीजन खत्म होने के बाद ये इनवर्टर का काम करता है। महेश ने इस खास तरह के कूलर की कीमत साढ़े बारह हजार रुपये से शुरू होती है।


महेश के मुताबिक उनका बनाया सबसे छोटा आइस कार्ट 108 लीटर का है। जो एक बार चार्ज हो जाने के बाद 16 से 17 घंटे तक आइसक्रीम को जमाये रखता है। इसके अलावा इसमें एक बार में 50 से 60 लीटर पानी स्टोर किया जा सकता है। जो ना सिर्फ साफ होता है बल्कि ठंडा भी रहता है। इस आइसकार्ट की शुरूआती कीमत 1 लाख से शुरू होती है। महेश बताते हैं कि उन्होने अब तक करीब 15 आईसकार्ट (डिप फ्रिजर) होटल वालों को बेच दिये हैं, ये फ्रिजर 500 से 1000 लीटर साइज के हैं। इसके अलावा कुछ बड़ी आईसक्रीम कम्पनियों के साथ उनकी बातचीत चल रही है। मुंबई में रहने वाले महेश अपना कारोबार विश्वामित्र इलेक्ट्रिकल एंड इंजीनियर्स प्राइवेट लिमिटेड के जरिये कर रहे हैं। अब उनकी योजना क्राउड फंडिग के जरिये पैसा इकट्ठा कर कंपनी का विस्तार करने की है।

11 साल के बच्चे ने लैपटॉप की बेकार बैटरी से बनाई सोलर लाइट, सिर्फ 400 रु में रौशन हुआ घर

कुछ बच्चे अनोखे होते हैं। कम उम्र में ही वो अपनी सोच और समझ से दुनिया को सकते में डाल देते हैं। वेदांत ऐसे ही बच्चों में से एक हैं। वो अपनी उम्र के दूसरे बच्चों से थोड़ा हटकर हैं। उसकी उम्र के जो बच्चे खिलौनों से खेलते हैं और टूट जाने पर फेंक देते हैं वहीं वहीं वेंदात उन खिलौनों से दूसरी चीजों को बनाने की कोशिश करता है। वेदांत मीरा रोड़, मुंबई के शांतिनगर हाईस्कूल की छठी क्लास का छात्र है। वेदांत ने ऐसी सोलर लाइट को विकसित किया है जिसे बहुत कम खर्चे में ना सिर्फ बनाया जा सकता है बल्कि जिन इलाकों में बिजली की काफी किल्लत है वहां पर इसका इस्तेमाल बच्चे अपनी पढ़ाई के लिए और महिलाएं घर में खाना बनाने के लिए कर सकती हैं। 11 साल के वेदांत ने यही नहीं बनाया बल्कि अपनी जरूरत के मुताबिक ऐसा रिमोट डोर अनलॉकिंग सिस्टम को भी ईजाद किया है जिसके जरिये दूर से बैठ घर का दरवाजा खोला या बंद किया जा सकता है।


“वेदांत को बचपन से ही विभिन्न तरह की चीज़ों से खेलने और उसके बारे में पूरी जानकारी हासिस करने का शौक रहा है। बचपन से ही उसको बिजली के उत्पाद बनाना, सरल तरीके से बिजली तैयार करना और जरूरमंद लोगों की मदद करना उसके व्यवहार में रहा है। पहले वो सही सलामत चीजों को तोड़ देता था लेकिन अब वो टूटी हुई चीजों को इकट्ठा कर कुछ ना कुछ बनाते रहता है।” ये कहना है वेदांत के पिता धीरेन ठक्कर का। जो पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर भी हैं। वो बताते हैं कि "एक दिन मेरा लैपटॉप खराब हो गया था। इस कारण मैं उसको मैकेनिक के पास ले गये। जहां पर मुझे बताया गया कि लैपटॉप की बैटरी खराब हो गई है और मैकेनिक ने उस बैटरी के जगह नई बैटरी लगा दी। लेकिन वेदांत ने उस पुरानी बैटरी को फेंकने नहीं दिया और उसे अपने पास रख लिया।"

वेदांत ने उस खराब बैटरी को घर लाकर खोलना शुरू किया। जहां उसको छह इलेक्ट्रिक सेल मिले। उसने मीटर से इन सेल को चेक किया, क्योंकि उसे इस तरह के सारे काम पहले से आते थे। इसकी वजह थी कि एक तो उसे खुद इलेक्ट्रॉनिक का शौक रहा है दूसरा उसके पिता भी इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर रह चुके हैं। इसलिए उनके पास पहले से ही ढेर सारे उपकरण घर में मौजूद हैं। जब वेदांत ने इन सेल को चेक किया तो उसे पता चला कि बैटरी में लगे 5 सेल ठीक हैं जबकि उनमें से सिर्फ 1 सेल खराब है और ये सभी सेल एक लाइन में लगती है। ऐसे में अगर कोई भी एक सेल खराब हो जाये तो करंट आगे नहीं दौड़ पाता इसलिए बैटरी को फेंकना पड़ता है।


वेदांत ने इन छह सेल में से जो सेल खराब था उसे अलग किया और घर में रखी एक पुरानी सीएफएल लगी इमरजेंसी लाइट जो पहले से खराब थी उसे ढूंढा और लैपटॉप के 2 सही सेल्स को उसमें लगाया। वेदांत का ये तरीका काम कर गया और लाइट जलने लगी। जब वेदांत ने अपने पिता को इसकी जानकारी दी तो पहले उनको ताज्जुब हुआ कि कैसे उसने खराब बैटरी से लाइट चालू की। उसके बाद जब वेदांत ने उनको सारी कहानी बताई तो वो बहुत खुश हुए। वेदांत ने उनको ये भी बताया कि एक बार इसके सेल खराब हो जाये तो ये लैपटॉप में दोबारा इस्तेमाल नहीं हो सकते बावजूद इसमें इतनी बिजली होती है कि अगर किसी घर में लाइट ना हो तो वहां पर एलईडी लाइट लगाकर कोई बच्चा पढ़ाई कर सकता है या कोई मां अपने बच्चे के लिए खाना बना सकती है।

वेदांत साल में दो बार गांव जाते हैं जहां पर वो देखते थे कि रात में अक्सर लाइट की समस्या रहती है। ऐसे में बच्चे रात में पढ़ाई नहीं कर पाते थे, महिलाओं को खाना बनाने में दिक्कत आती थी और हादसे का डर रहता था। तब उन्होने सोचा कि क्यों ना ऐसे जगहों के लिए मुफ्त में बिजली की व्यवस्था की जाए। इसके लिए वेदांत ने अपने पिता से मदद मांगी और उनसे कहां कि वो उनको एलईडी लाइट और एक छोटा सोलर पैनल लाकर दें। जिसके बाद वेदांत ने सोलर पैनल का चार्जिंग सर्किट तैयार किया। जिसके बाद उसने एक ऐसा लाइट बनाई जो 5 घंटे से लेकर 48 घंटे तक सौर ऊर्जा के जरिये जल सकती है। खास बात ये है कि इसे बनाने में खर्चा भी सिर्फ 4 सौ रुपये तक आता है। वेदांत के पिता का कहना है कि “उसका मकसद है कि बच्चे रात में पढ़ाई कर सकें और उनके लिये मुफ्त में बिजली का उत्पादन किया जा सके।”


खास बात ये है कि लैपटॉप की बैटरी में लिथियम आयन होता है जो पर्यावरण के लिए काफी खतरनाक होता है। वहीं हमारे देश में ई-वेस्ट के खात्मे के लिए कोई भी सही तरीका नहीं है। ऐसे में अगर वेदांत की कोशिश का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल हो तो ना सिर्फ पर्यावरण की रक्षा होगी बल्कि जरूरमंद लोगों को मुफ्त में बिजली भी मिलेगी। इसी बात को देखते हुए वेदांत के पिता ने पेटेंट के लिए भी आवेदन किया है। वेदांत के पिता धीरेन का कहना है कि “उसका ध्यान पढ़ाई में कम और इनोवेशन में ज्यादा रहता है, बावजूद उसका साइंस मनपसंद विषय है।”


वेदांत ने सिर्फ यही नहीं बनाया बल्कि कई ऐसी चीजें बनाई हैं जो रोजमर्रा के इस्तेमाल में काफी मददगार हैं। इस कड़ी में वेदांत के पिता बताते हैं कि अक्सर उनके घर में लोगों का आना जाना लगा रहता है ऐसे में घर का दरवाजा खोलने और बंद करने के लिए वेदांत की मां को अपना काम छोड़ बार बार दरवाजे के पास जाना पड़ता था। ये देख वेदांत ने फैसला लिया कि वो कुछ ऐसा करेगा कि उसकी मां की ये दिक्कत थोड़ी दूर हो जाएगी। जिसके बाद उसने घर का मुख्य दरवाजा खोलने के लिए रिमोट कंट्रोल से चलने वाला लॉक बनाया है। इसके लिए वेदांत ने एक रिमोट कंट्रोल से चलने वाले खिलौने को लिया और उसे तोड़ उसका सर्किट निकाला। जिसके बाद उसने उसमें थोड़े से बदलाव कर घर के दरवाजे पर लगा दिया। जिसके बाद ये दरवाजा अब रिमोट कंट्रोल से ही खुल जाता है। इसके लिए वेदांत की मां को बार बार घर के मुख्य दरवाजे तक आने की जरूरत नहीं पड़ती। खास बात ये है कि ये रिमोट घर में 25 मीटर की दूरी तक काम करता है। अब वेदांत की तमन्ना है कि वो बड़ा होकर इंजीनियर बने ताकि वो देश को बिजली के मामले में आत्मनिर्भर बना सके।

टूटे नारियल से बदली अपनी ज़िंदगी, अब पूरी दुनिया में कमा रहे हैं नाम

सूरजकुंड मेले में आए ये निकुंज हैं। इन्हें 25 साल पहले नारियल के टूटने पर उसे नए रूप में ढालने का आइडिया आया। फिर क्या था, उन्होंने इस पर काम शुरू किया और कुछ वक्त के भीतर ही खुद को एक एग्रो आर्टिस्ट के रूप में स्थापित किया। कुछ सालों बाद इस काम में वे इतने स्किल्ड हो गए कि 2008 में नेशनल अवॉर्ड भी हासिल किया। अब अपनी इस हुनर के जरिए दूसरों का भविष्य संवार रहे हैं। 

टूटे नारियल ने  बदली इनकी Life,  अब पूरे वर्ल्ड में कमा रहे हैं नाम

- निकुंज को शुरू से ही कचरा जमा करने का शौक था।
- पहले वे मेडिकल स्टोर में काम करते थे और उसी से घर का गुजारा चलता था।
- एक वक्त ऐसा भी आया कि उन्हें रोटी को तरसना पड़ा।
- इसी दौरान एक दिन वह ऐसे ही मंदिर में बैठे थे कि किसी ने नारियल तोड़ा।
- टूटे हुए नारियल का गोल भाग उनके पास आ गया जिससे उन्होंने पुरानी घड़ी का कब्जा लगाकर एक पॉट बना दिया।
-उनके एक दोस्त को वह बहुत पसंद आया। आगे चलाकर यही उनका रोजगार बन गया। अब इनके सामानों की विदेशों में भी धूम हैं।

नाबार्ड ने किया फाइनेंशियल सपोर्ट

नाबार्ड ने उनके आर्ट को समझा और उन्हें इसमें बेहतर करने के लिए फाइनेंशियल सपोर्ट दिया। सूरजकुंड मेले में वे अपनी यूनीक कला का नमूना पेश कर रहे हैं। उनके साथ मालाकुमारी वर्मा भी आई हैं, जो 2011 में स्टेट अवॉर्ड जीत चुकी हैं।

टूटे नारियल ने  बदली इनकी Life,  अब पूरे वर्ल्ड में कमा रहे हैं नाम

वर्ल्ड में पेटेंट है लॉक गुल्लक

निकुंज की लॉक वाली गुल्लक पेटेंट हैं। इसमें नंबर वाले लॉक लगे हैं। नारियल के इस गुल्लक को बनाने वाले वह दुनिया में एक मात्र आर्टिस्ट हैं। जबकि गणपति-शिवा की बनाई मूर्ति के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया है।

ऐसे बदली लोगों की जिंदगी

निकुंज बताते हैं कि फिर उनका ये काम अब नशा बन गया। उन्होंने आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को भी इस कला काे सिखाने का निश्चय किया। अब तक उनके साथ 1000 लोग जुड़कर काम कर रहे हैं। इन लोगों को उन्होंने स्वयं ही ढूंढ़ा है। इसके तहत उन्होंने नाबार्ड के सहयोग से ही प्रणव प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड की इन सभी आर्टिस्ट को लेकर एक संस्था बनाई है। केरल कोकोनट बोर्ड से भी उन्हें अब हेल्प मिल रही है। जिसके द्वारा उनसे जुड़े लोगों की चीजों को देश-विदेश में भेजा जाता है।

बना चुके 6000 आइटम

निकुंज ने बताया अभी तक वह किचन, सजाने, ज्वैलरी एवं विभिन्न प्रकार के 6 हजार से अधिक नारियल के आइटम बना चुके हैं। इन्हीं आइटमों का 25 फीसदी वे मेले में लेकर आए हैं। उनके बनाए किचन के सामान में माउस्चर नहीं आता।

Monday, 27 March 2017

हाईस्कूल फेल मनसुख ने मिट्टी का फ्रिज व अन्य समान बना कर बदली गरीबों की ज़िंदगी

मिट्टी से फ्रिज और अन्य सामान बना बदली गरीबों की जिंदगीहाईस्कूल फेल मनसुख ने परिवार पालने के लिये सड़क किनारे बेची चायटाइल बनाने के कारखाने में काम करते समय आये विचार ने बदला जीवन का रुखकुम्हार के पुश्तैनी काम को अपनाकर किया देश-विदेश में नाम रोशन

माटी कहे कुम्हार से तों कया रौंदे मोहे

इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदोंगी तोहे 

भक्त रैदास की इन पंक्तियों को गुजरात के एक छोटे से शहर वांकानेर के रहने वाले मनसुख लाल प्रजापति ने बदल दिया है। ये मेरा दावा है कि आप कहानी पढ़ते जाएंगे और आपका शक यकीन में बदलता चला जाएगा।

मनसुख लाल प्रजापति अपनी सुसराल वालों को आता देख राजमार्ग के किनारे स्थित अपनी चाय की दुकान के कोने में सिमटकर खुद को छिपाने की नाकाम कोशिश करते थे। जीवन के 48 बसंत पार कर चुके मनसुख जिंदगी के कई इम्तिहानों में शिकस्त खा चुके थे। छात्र जीवन में दसवीं परीक्षा पास न कर पाने के बाद उन्होंने मजदूरी करनी शुरू की। इसके बाद उन्होंने अपने परिवार का पेट पालने के लिये एक छोटी सी चाय की दुकान खोल ली।

लेकिन अपने सुसराल वालों के सामने सड़क के किनारे चाय बेचने का काम करना उन्हें अपमानजनक लगता। ‘‘मेरे सुसराल वाले मुझसे बहुत बेहतर स्थिति में थे। उनका खिलौने बनाने का खुद का व्यवसाय था और मैं यहां चाय बेच रहा था। उनके सामने मैं बहुत शर्मिंदगी महसूस करता था,’’ मनसुख बताते हैं।
मनसुख लाल प्रजापति

शर्मिंदगी की इसी भावना ने उन्हें जीवन में कुछ करने के लिये प्रेरित किया और आज वे एक सफल और नामचीन उद्यमी हैं। प्रजापति ने कुछ नया करने की ठानी और वर्तमान में वे रेफ्रिजरेटर, प्रेशर कुकर, नाॅन-स्टिक पैन सहित रोजमर्रा के कामकाज के कई घरेलू उपकरणों को बनाने के कारोबार में हैं। रोचक बात यह है कि वे इन सब चीजों को मिट्टी से तैयार करते हैं। ‘मिट्टीकूल’ के नाम से तैयार होकर बिकने वाले ये उपकरण पर्यावरण के अनुकूल, टिकाऊ और प्रभावी होने के साथ बहुत सस्ते भी हैं।

उदाहरण के लिये हम उनके मुख्य और सबसे प्रसिद्ध उत्पाद मिट्टी के रेफ्रिजरेटर को ले लेते हैं जिसके वे अबतक 9 हजार से अधिक पीस देशभर में बेच चुके हैं। 3 हजार रुपये से कुछ अधिक के दाम वाला यह उत्पाद सही मायनों में गरीब के घर का फ्रीज है। ‘‘पैसे वाला तो कुछ भी खरीद सकता है लेकिन गरीब के लिये एक फ्रिज खरीदना बहुत टेढ़ी खीर है। इसलिये मैंने सोचा कि क्यों न एक ऐसी चीज तैयार करूं जो गरीब से गरीब व्यक्ति की पहुंच में हो और वह खरीदकर उसका उपयोग कर सके,’’ प्रजापति कहते हैं।

मिट्टी के इस फ्रिज के अंदर का तापमान कमरे के तापमान की तुलना में लगभग आठ डिग्री कम रहता है। इसमें सब्जियां चार दिन और दूध दो दिन तक ताजा रहते हैं। यह 15 इंच चैड़ा, 12 इंच गहरा और 26 इंच लंबा है जिसे आराम से रसोईघर में या घर के किसी भी कोने में आराम से रखा जा सकता है। अधिकतर खरीददार इसे रसोईघर में स्लैब पर रखना पसंद करते हैं।
अपने मिट्टीकूल फ्रिज के साथ मनसुखलाल प्रजापति

यह फ्रिज एक साधारण वैज्ञानिक सिद्धांत पर काम करता है जिसमें वाष्पीकरण ठंडा करने का कारण बनता है। मिट्टी के इस फ्रिज की छत, दीवार और तल में भरा पानी वाष्पीकृत होकर इसे ठंडा रखने में मदद करता है। इस तरह से इस दो संभागों में बंटे फ्रिज में रखी सब्जियां और खाने का सामान लंबे समय तक ताजा और ठंडा बना रहता है।

प्रजापति फ्रिज और अन्य घरेलू उपकरणों को सिर्फ साधारण मिट्टी से बनाते हैं। उनके पूर्वज कुम्हार थे और उन्होंने मिट्टी के बने उत्पादों के महत्व को प्लास्टिक के बने सामान के सामने ढेर होते बहुत नजदीकी से देखा है। भारत में बढ़ते भूमंडलीकरण के चलते कई कारीगरों को अपना पुश्तैनी काम छोड़ने के लिये मजबूर होना पड़ा। प्रजापति के पिता भी उनमें से एक थे। ‘‘मेरे पिता ने भी कुम्हार का पुश्तैनी काम छोड़कर घर का खर्चा उठाने के लिये मजदूरी करनी शुरू कर दी थी,’’ प्रजापति कहते हैं।

इदलते सूय के साथ प्रजापति ने न केवल अपने पुश्तैनी हुनर को पुर्नजीवित किया है बल्कि यह भी साबित कर दिया है कि हाथ के कारीगरों के लिये अभी आशा की किरण बाकी है। करीब एक साल तक चाय की दुकान चलाने के बाद प्रजापति ने एक टाइल बनाने के कारखाने में एक पर्यवेक्षक के रूप में काम किया जहां उनकी अचेतन पड़ी कुम्हार की प्रवृति दोबारा जागी। ‘‘वहां काम करते समय मुझे महसूस हुआ कि मैं पुश्तैनी रूप से तो कुम्हार हूँ और अगर मिट्टी से सफलतापूर्वक टाइलें बन सकती हैं तो अन्य उत्पाद क्यों नहीं बन सकते।’’

1989 में 24 साल की उम्र में उन्होंने मिट्टी के साथ अपने प्रयोगों को करना शुरू किया। प्रारंभ में उन्होंने मिट्टी से नाॅन-स्टिक पैन बनाने की कोशिश की और धीरे-धीरे वे कई तरह की मिट्टी के साथ प्रयोग करने लगे।

वर्तमान में उनके बनाए उत्पाद इतने सफल हैं कि ग्राहकों की बढ़ती मांग को पूरा करने और मिट्टी के असंख्य उत्पाद तैयार करने के लिये इन्हें कई कारखाने खोलने पड़े हैं। प्रजापति द्वारा खुद तैयार की गई बड़ी मशीनें कुछ ही पलों में मिट्टी को सैंकड़ों की संख्या में उत्पादों में ढाल देती हैं जिससे वे बढ़ती हुई मांग को समय से पूरा कर सकें। वर्तमान में इनका कारोबार 45 लाख रुपये सालाना से अधिक का है और इनके यहां 35 से अधिक लोग काम कर रहे हैं।

लेकिन शीर्ष तक का इनका सफर इतना आसान नहीं था। इस काम को शुरू करने के लिये उन्हें 19 लाख रूपये का कर्ज लेना पड़ा था। प्रारंभिक असफलताओं से घबराए बिना इन्होंने अपना सफर जारी रखा और लोगों के प्रोत्साहन के बाद वे एक के बाद एक सफल उत्पाद बनाते गए।

इनके उत्पाद पूरे भारतवर्ष के अलावा विदेश में भी अपना डंका बजा रहे हैं। इस वर्ष प्रजापति के बनाए उत्पाद अफ्रीका के लिये निर्यात हुए हैं और इन्होंने दुबई के लिये मिट्टी के बने 100 फ्रिज की पहली खेप भी भेजी है।

घरेलू उत्पादों की सफलता के बाद अब प्रजापति मिट्टी से बने एक घर का निर्माण करने की दिशा में मेहनत कर रहे हैं जिसे वे मिट्टीकूल घर के नाम से दुनिया के सामने लाना चाहते हैं। यह मिट्टी का बना एक ऐसा घर होगा जो प्राकृतिक रूप से गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्म रहेगा।

जहां तक उनके सुसराल वालों की बात है तो आज वे प्रजापति की सफलता के से बहुत खुश हैं और उनपर गर्व करते हैं

500 वॉट तक बिजली के झटके कर लेता है बर्दाश्त यह इलैक्ट्रो मैन!

दुनियाभर में कई ऐसे लोग हैं, जो अपने अजीबोगरीब कारनामों के कारण चर्चा में रहते हैं। ऐसे ही एक शख्स केरल के रहने वाले राजमोहन नायर हैं। आपको जानकर हैरानी होगी, लेकिन बता दें कि केरल के कोल्लम के रहने वाले राजमोहन 500 वॉट तक बिजली के झटके को बर्दाश्त कर लेते हैं। इस कारण से राजमोहन के कारनामे की चर्चा देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी खूब होती है।

ये हैं भारत के सुपर ह्यूमन, बर्दाश्त कर लेते हैं बिजली के जोरदार झटके

हिस्ट्री चैनल के प्रमुख रियलिटी शो ‘स्टैन लीज सुपरह्यूमन्स’ में भी राजमोहन अपना परफॉर्मेंस दिखा चुके हैं। इस शो में उन्हें इलेक्ट्रोमैन के नाम से इंट्रोड्यूस कराया गया था। हालांकि, कुछ लोग इलेक्ट्रिसिटी मोहन के नाम भी जानते हैं। राजमोहन अपनी बॉडी पर बिजली के तार लपेटकर बल्ब जलाने का कारनामा दिखा चुके हैं। हालांकि, खतरनाक स्टंट करने वाले राजमोहन दूसरों को ऐसा नहीं करने की सलाह देते हैं।

मां की मौत के बाद करने वाले थे सुसाइड

ये हैं भारत के सुपर ह्यूमन, बर्दाश्त कर लेते हैं बिजली के जोरदार झटके

राजमोहन बताते हैं कि सात साल की उम्र में उनकी मां की मौत हो गई थी। इस घटना से वे काफी टूट गए थे और सुसाइड करने के लिए ट्रांसफार्मर पर चढ़ गए। इस दौरान जब उन्होंने बिजली के तार को पकड़ा तो उन्हें कुछ नहीं हुआ। वे हैरान हो गए। कई बार तारों को पकड़ा, लेकिन कुछ नहीं हुआ। तभी उन्हें लगा कि भगवान ने उन्हें ये स्पेशल पावर दी है, जो औरों से अलग बनाती है। ऐसे में उन्होंने सुसाइड की इच्छा छोड़ दिया।

भूख के खिलाफ जंग में उतरा ‘‘महोबा रोटी बैंक’’

किसानों की दुर्दशा के अपने किस्सों के चलते देश और दुनिया की नजरों में आने वाले बुंदेलखंड के अति पिछड़े हुए इलाकों में से एक महोबा में स्थानीय युवा और कुछ बुजुर्ग ऐसा अनोखा बैंक संचालित कर रहे हैं जिसका सिर्फ एक ही मकसद है कि ‘‘भूख से किसी की जान न जाए’’। महोबा का बुंदेली समाज अपनी अनोखी पहल ‘महोबा रोटी बैंक‘ के माध्यम से यह सुनिश्चित कर रहा है कि क्षेत्र में कोई भी व्यक्ति गरीबी के चलते भूखा न सोए और इस प्रकार से यह लोग ‘‘भूख के खिलाफ जंग’’ का आगाज किये हुए हैं। महोबा का यह रोटी बैंक प्रतिदिन जरूरतमंदों और भूखों को घर की पकी हुई रोटी और सब्जी के स्वाद से रूबरू करवाता है।


इस बैंक के मुखिया और महोबा बुंदेली समाज के अध्यक्ष हाजी परवेज़ अहमद यारस्टोरी को बताते हैं, ‘‘आज के समय में देश और दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूखे पेट सोने के मजबूर है। मुझे अपने आसपास के गरीब और लाचार लोगों की टीस काफी दिनों से कचोट रही थी। हमारे आसपास का कोई की बाशिंदा गरीबी या लाचारी के कारण भूखे पेट न सोने को मजबूर हो यही इरादा बनाकर मैंने अपने आसपास के 10-12 युवाओं को अपने साथ जोड़कर हजरल अली के जन्मदिन 15 अप्रैल से रोटी बैंक की शुरुआत की।’’ प्रारंभ में करीब दर्जन भर युवाओं को जोड़कर शुरू की गई यह सकारात्मक पहल जल्द ही पूरे इलाके के लोगों के बीच अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही और वर्तमान में 60 से भी अधिक युवा उनके इस रोटी बैंक के सदस्य हैं।

महोबा रोटी बैंक से जुड़े करीब 60 से भी अधिक युवा अपने 5 बुजुर्ग अलम्बरदारों की रहनुमाई में प्रतिदिन शाम के समय महोबा के विभिन्न इलाकों में निकलते हैं और दो रोटी और थोड़ी सी सब्जी की आस में 700 से 800 घरों का दरवाजा खटखटाते हैं। इस प्रकार ये युवा कुछ घंटो की मेहनत करते हैं और फिर जमा की हुई रोटी और सब्जी को भाटीपुरा के अपने बैंक पर ले आते हैं जहां इनके पैकेट तैयार किये जाते हैं। रोटी बैंक से जुड़े एक सदस्य ओम नारायाण बताते हैं, ‘‘सबसे रोचक बात यह है कि हम किसी से भी रखी हुई या बासी रोट और सब्जी नहीं लेते हैं। जो भी व्यक्ति अपनी खुशी से गरीबों के लिये रोटी या सब्जी दान देना चाहता है वह अपने घर पर ताजी बनी हुई रोटी और सब्जी ही देता है।’’


इस बैंक के प्रारंभिक दिनों के बारे में बताते हुए हाजी परवेज़ कहते हैं, ‘‘एक दिन मैं अपने कुछ साथियों के साथ बस अड्डे पर खड़ा था कि तभी कुछ बच्चे भीख मांगने हमारे पास आए। हमनें उन्हें कहा कि हम तुम्हें भीख में पैसे तो नहीं देंगे लेकिन अगर खाना खाओ तो पेटभर खिलाएंगे। जब वे बच्चे खाना खाने की बात मान गए और उन्होंने दो वक्त की रोटी का इंतजाम होने पर भीख मांगना छोड़ने का वायदा किया तो हमारे मन में ख्याल आया कि क्यों न भूखे पेट रहने वालों की सहायता की जाए और फिर हमनें अपना रोटी बैंक प्रारंभ करने की सोची।’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘शुरुआत में हमारे साथ सिर्फ दर्जन भर युवा थे और पहले दिन हमारे पास दो मोहल्लों से सिर्फ इतनी रोटी और सब्जी ही इकट्ठी हुई जो मात्र 50 लोगों का पेट करने लायक थी। हमनें अपने आसपास के निःशक्त लोगों तलाशा और उन्हें खाना खिलाया। धीरे-धीरे हमारा यह अभियान लोगों के बीच अपनी पैठ बनाने में सफल हुआ और आज की तारीख में मात्र दो मोहल्लों से प्रारंभ हुआ यह अभियान आसपास के इलाकों में भी फैल गया है। अब तो लोग खुद ही इस बैंक से जुड़़े लोगों केा अपने यहां बुलाते हैं और रोटी और सब्जी देते हैं।’’

भाटीपुरा में इन रोटियों और सब्जियों के पैकेट तैयार होने के बाद युवाओं की यह टोली इन्हें लेकर शहर के विभिन्न इलाकों में बेबस, लाचार और भूखे लोगों की तलाश में निकल पड़ती है। ओम बताते हैं, ‘‘हमनें पूरे शहर को आठ विभिन्न सेक्टरों में बांटा है। भाटीपुरा में भोजन के पैकेट तैयार होने के बाद वितरण के काम में लगा स्वयंसेवक खाने को एक निर्धारित स्थान पर लाता है और फिर शुरू होता है जमा किये हुए खाने को भूखे लोगों तक पहुंचाने का काम। हम प्रतिदिन पूरे क्षेत्र में करीब 400 से 450 लोगों का पेट भरने में कामयाब हो रहे हैं।’’


ओम आगे बताते हैं, ‘‘आठों क्षेत्रों के वितरण केंद्र पर पैकेट पहुंचने के बाद हम लोग आसपास के रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, इत्यादि पर रहकर जीवन गुजारने वालों और भीख मांगकर गुजारा करने वालों को तलाशते हैं जो विभिन्न कारणों के चलते भूखे पेट सोने को मजबूर होते हैं। हमारे स्वयंसेवक इन लोगों को रोटी और सब्जी के पैकेट देते हैं और प्रयास करते हैं कि अपने सामने ही इनमें से अधिकतर को खाना खिलाएं। अपने इस बैंक के जरिये हमारा प्रयास है कि कोई भी भूखा न सोने पाए और हम अपने इस अभियान के माध्यम से यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि वास्तव में ऐसा ही हो।’’


इस काम में लगे युवा घर-घर जाकर खाना इकट्ठा करने और फिर उसे जरूरतमंदों तक पहुंचाने के सारे काम खुद ही अपने खर्चे पर करते हें और किसी से भी कैसी भी कोई मदद नहीं लेते हैं। ओम बताते हैं, ‘‘इस बैंक के लिये खाना जमा करने का काम करने वाले अधिकतर युवा अभी पढ़ ही रहे हैं या फिर पढ़ाई खत्म करके विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में लगे हुए हैं। इस बेंक के माध्यम से हमारा इरादा सिर्फ इतना ही है कि कोई भूखे न सोने पाए और भूख से किसी की जान न जाए।’’


ओम और इनके जैसे अन्य युवाओं का इस अभियान का एक भाग बनने के भी बड़े रोचक कारण हैं। इस बारे में बात करते हुए ओम कहते हैं, ‘‘अधिकतर होता यह था कि हम लोग शाम का समय ऐसे ही दोस्तों के साथ गप्पे लड़ाने में और फालतू घूमने-फिरने में गंवा रहे थे। ऐसे में जब हमनें इन लोगों को एक सकारात्मक काम में अपना समय लगाते हुए देखा तो हमारे मन में भी इनका साथ देने का इरादा आया और अब हममें से अधिकतर को लगता हैं कि हमारा यह फैसला बिल्कुल ठीक था। अगर हमारे थोड़े से प्रयास से किसी भूखे का पेट भरता है तो इससे बड़े पुण्य का कोई काम नहीं है।’’

इसके अलावा इनका यह पूरा अभियान पूरी तरह से अपने खुद के पैसों से संचालित किया जा रहा है और इन्होंने किसी भी सरकारी विभाग से या फिर निजी क्षेत्र से कैसी भी मदद नहीं ली है। साथ ही बहुत ही कम समय में इनका यह अभियान दूर-दूर तक अपनी पहचान बनाने में सफल रहा है और इनसे प्रेरित होकर उरई, उत्तराखंड और दिल्ली में भी ऐसे ही रोटी बैंक स्थापित किये गए हैं। ओम बताते हैं, ‘‘हमारे इस बैंक को प्रारंभ करने के कुछ दिनों बाद ही इसकी प्रसिद्धी फैली और उत्तराखंड के कुछ इलाकों के अलावा दिल्ली से भी कुछ लोगों ने अपने क्षेत्र में ऐसे ही बैंक को स्थापित करने के बारे में पूछताछ की और अपने-अपने क्षेत्रों में इस अभियान को प्रारंभ किया।’’

अंत में हाजी परवेज़ कहते हैं, ‘‘रोटी बैंक महोबा, न तो सरकारी और न गैर सरकारी संस्थान है, यह तो महोबा के कुछ लोगों के द्वारा चलाया जा रहा एक अभियान है, एक पहल है, एक सोच है ताकि महोबा का वो गरीब तबका खाली पेट न सोये। उन 400 गरीब परिवारों को खाना मिल सके जिनके पास खाने के लिए दो वक्त की रोटी भी नहीं। वो रोटी जो इंसान को कुछ भी करने पर मजबूर कर देती है, वो रोटी जिसके लिए इंसान दर दर भटकता फिरता है, वो रोटी जो इंसान को इंसानियत तक छोड़ने में मजबूर कर देती है। हमारा रोटी बैंक न तो किसी धर्म विशेष के लोगों का काम है और न ही किसी धार्मिक गुरुओं का। यह बेडा उठाया है महोबा के उन लोगों ने जिन्हे सिर्फ इंसानियत और सिर्फ इंसानियत से मतलब है। वो रोटी (खाना) देते वक्त ये नहीं देखते के लेने वाले ने सर पर टोपी पहन रखी है या गले में माला, उस औरत के माथे पर सिन्दूर था या उसके सर पर दुपट्टा, उस बच्चे के हाथ में भगवान कृष्ण की मूरत है या हरा झंडा! वो देखते हैं तो सिर्फ इतना की उस इंसान ने कितने दिनों से कुछ नहीं खाया, उस औरत ने जो कमाया अपने बच्चों को खिलाया और खुद खाली पेट रह गयी, उस बच्चे ने बिलख-बिलख कर अपनी माँ से खाना माँगा लेकिन वो माँ कहाँ से उसे लेकर कुछ दे जिसके घर में एक वक्त की रोटी तक नहीं।’’

12वीं पास शख्स ने मात्र 10 हज़ार में बनाया एक टन का एसी, जिससे बिजली की खपत हुई 10 गुना कम

कहते हैं ईमानदारी और सही दिशा में किया गया काम अकसर सफलता और सार्थकता की मंजिल तक ले जाता है। इसके लिए ज़रूरी है निरंतर कोशिश और सफलता के लिए जुनून। इस दौरान कई बार मिलने वाली असफलता असल में दवा का काम करती है और समझदार शख्स को मंजिल की तरफ अग्रसर करती है। ऐसी ही एक कहानी है राजस्थान के सरदारशहर के त्रिलोक कटारिया की। त्रिलोक कटारिया ने कम कीमत और कम बिजली के इस्तेमाल से चलने वाले एयरंकडीशनर बनाने का बीड़ा उठाया था। उन्होंने तीन साल तक एसी बनाने में पूरी लगन से रिसर्च की। इन तीन वर्षों में त्रिलोक ने करीब आठ से 10 लाख रुपये खर्च किए। उनके जुनून को बाद में सफलता मिली और उन्होंने 10 गुना कम बिजली खपत करने वाला एक टन एसी तैयार किया। इस एसी के निर्माण में मात्र दस हजार रुपये का खर्च आया है। ऐसे में यदि इस उत्पाद को व्यावसायिक तौर पर मार्केट में उतारने के लिए बनाया जाएगा तो विभिन्न खर्चों के साथ इसकी कीमत अधिकतम 15 हजार रुपये तक जा सकती है, जो बाजार में उपलब्ध 25 से 35 हजार रुपये के एसी से काफी कम है।

त्रिलोक ने  बताया, लगातार बढ़ती महंगाई और बिजली की दरों में प्रत्येक वर्ष होने वाली बढ़ोतरी की वजह से आम उपभोक्ता एसी की चाहत के बाद भी उसके बिल से डरा सा रहता है। इसी डर को दूर करने और आम उपभोक्ता को एसी की हवा दिलाने के लिए मैंने इस एसी को बनाने का सपना देखा था।


त्रिलोक कई सालों से एसी ठीक करने का काम करते हैं। उन्होंने बताया कि वह जिस घर में भी एसी ठीक करने जाते, वहां सभी एक ही बात कहते थे कि एसी लगवाने के बाद बिजली का बिल बहुत अधिक आता है। बार-बार यही बातें सुनकर मैंने मन में कम बिजली खपत करने वाले एसी बनाने की ठान ली थी। उन्‍होंने बताया कि इस एसी की एक महत्वपूर्ण खासियत इसका इको फ्रैंडली होना भी है। बाजार में उपलब्ध एसी में सामान्य तौर पर आर-22 गैसों का उपयोग किया जाता है, जोकि ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती हैं, जबकि उनके एसी में हाइड्रोकार्बन गैसों का इस्तेमाल किया है। ये गैसे पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाती हैं।

बिजली की खपत 10 गुना कम


एक एसी बनाने वाली कंपनी में काम करने वाले एक टेक्नीकल इंजीनियर के मुताबिक यह एसी अन्य एसी की तुलना में करीब आठ से 10 गुना कम बिजली खपत करता है। 10 एम्पीयर की बजाय यह 0.08-0.09 तक ही है। एसी में कम्प्रेशर इस तरीके से लगाए गए हैं, कि यह कम वॉल्ट में भी चालू हो जाता है। एक टन का एसी दो हजार वाट बिजली खपत करता है। यह एसी दो सौ वाट बिजली खपत करता है। इसके लिए किसी तरह के स्टेबलाइजर की भी जरूरत नहीं है। यानी बिजली की उपलब्धता में आने वाले उतार-चढ़ाव से भी ये एसी सुरिक्षत है।
12वीं पास हैं त्रिलोक

नेशनल स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग से 12वीं कक्षा पास करने के बाद त्रिलोक कटारिया ने राजस्थान में आईटीआई से एयरकंडीशनर से संबंधित पार्टटाइम डिप्लोमा कोर्स किया। इसके बाद उन्हों ने देहरादून, फरीदाबाद, दिल्ली और नोएडा में एसी बनाने वाली कई कंपनियों में काम किया। यहां रहकर एसी बनाने के तरीके इससे जुड़ी बारीकियां सीखीं। काम करने के साथ-साथ उन्होंने ऐसा एसी बनाना शुरू किया, जो बाजार में उपलब्ध उत्पादों के मुकाबले बेहतर हो।

पेटेंट कराने की प्रक्रिया शुरू

त्रिलोक ने अपनी इस खोज को पेटेंट कराने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। उन्होंने बताया कि जब तक ये काम पूरा नहीं होता है तब तक इसे मार्केट में नहीं उतारा जाएगा। उनकी इस खोज को मार्केट में उतारने के लिए कई कंपनियों ने उनसे संपर्क भी किया है, लेकिन फिलहाल वह इसके लिए तैयार नहीं हैं।

राजस्थान के जलौर जिले के नून गांव में गढ़े जाते हैं हस्तकला के बेजोड़ नमूने

हाथों में ऐसी कलात्मकता की लकड़े में प्राण फूंक कर सजीवता का चैला पहनाने दें और लोगों के मुंह से प्रशंसा में निकलें वाह-वाह। कमोबेश कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है निकटवर्ती नून गांव में। यहां के रहने वाले रतनलाल सुथार व देवीलाल सुथार के कारखानों में लकड़ी पर नक्‍काशी का काम लकड़ी की कीमत को कई गुणा बढ़ाकर विदेशों में निर्यात होकर भारतीय हस्तकला का परिचय दे रहा है।

रतनलाल सुथार ने बताया कि कारखाने में लकड़ी के हाथी, घोड़ा, झूले, मुंह देखने वाले दर्पण की फ्रेम, नक्काशी की हुई कुर्सी व टेबल सहित नाना प्रकार की सामग्रियां निर्मित होकर विदेशों में निर्यात की जा रहा है।


मेहनत की कमाई : हस्तकला में महारथ रखने वाले देवीलाल सुथार का कहना है कि हस्तकला का धंधा मेहनत का धंधा है। इस काम से घर चलने जितने मजदूर व नफा हो जाता है। सामग्री निर्माण का ऑर्डर समय पर मिल जाता है, तो काम की गति बनी रहती है। वरना काम के अभाव में खाली हाथ बैठने पड़ता है।


कद्र में आ रही कमी : रतनलाल सुथार का कहना है कि समय के साथ लोगों के द्वारा हस्तकला की कद्र में कमी आ रही है। कलाकार व कलाकृति की कीमत मशीनी युग में गिर चुकी है। लोग अब कलाकार को उस नजर से नहीं देखते है जो पहले देखा करते थे।


सरकार दे प्रोत्साहन : कलाकारों का कहना है कि सरकार को हस्तकला के विलुप्त होने पर ध्यान देना चाहिए। यह कला एकबार विलुप्त होने पर बार-बार जीवित नहीं हो सकती है। भारत सदियों से हस्तकला के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। इसे पुन; अग्रणी बनाने पर सरकार प्रोत्साहन दें।

सैनिकों ने राइफलों में सुधार कर इंसास और ए.के. 47 को बनाया बेहतर, खुश हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है, इस कहावत को भारतीय सेना ने एक बार फिर साबित किया है। सेना के सामने इस समय आतंकवाद और घुसपैठ का मुकाबला करना महत्वपूर्ण है जिसके लिए उसे बेहतरीन हथियारों की जरूरत है। मगर पिछले साल इंसास ( इंडियन स्माल आर्म्स सिस्टम)राइफलों की जगह आनेवाले लगभग पौने दो लाख हथियार खरीदने की निविदा रद्द होने के कारण सटीक मार करनेवाले हथियारों की जरूरत शिद्दत से सामने आई। बजाय हथियारों के आने का इंतजार करने के, सेना ने खुद ही पुरानी इंसास राइफलों में बदलाव कर उसकी मारक क्षमता बेहतरीन कर ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस नवोन्मेष से काफी प्रभावित हुए और ऐसा करने वाले को ‘नवाचार प्रमाणपत्र’ भी दिया है।


सेना में इंसास राइफलों की जगह नई राइफल लाने में हो रही देरी को देखते हुए सैनिकों ने खुद ही वर्तमान हथियारों की कुल लंबाई और वजन को घटाने के नए तरीके इजाद किए। इन बदलावों से राइफल पकड़ने के दौरान होनेवाली थकाम के साथ ही उसकी सटीकता बढ़ी है। इंसास में हुए बदलाव के बाद सैनिक आसपास गोलीबारी कर सकते हैं। हालांकि सेना ने अब तक अन्वेषक और ब्योरे की जानकारी नहीं दी है। मगर सूत्रों का कहना है कि आतंक विरोधी अभियानों के लिए संशोधित इंसास एके-47 राइफल वर्तमान हथियारों की कुल लंबाई और वजन को कम करने के उद्देश्य से डिजाइन की गई है। इस बदलाव के अपने फायदे हैं। मसलन आतंक विरोधी अभियानों में इन राइफलों को इस्तेमाल किए जाने के दौरान उसका गुरुत्वाकर्षण का केंद्र सीध में आ जाता है। इसके चलते इंसास चलानेवाले सैनिकों को ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता है और उन्हें थकान कम होती है। साथ ही इससे राइफल की सटीकता भी बेहतर हो जाती है। सूत्रों ने कहा, ‘इंसास एके-47 राइफलों में बदलाव कॉर्नर शॉट क्षमता शामिल करने के लिए किए गए हैं। संशोधित राइफल गोलीबारी के समय ज्यादा स्थिर, चुस्त, आसानी से पकड़ी जाने योग्य और बेहतर सटीकता वाली हैं।’

कॉर्नर शॉट सैनिकों को खतरे में डाले बिना आसपास गोली मारने में सक्षम करता है। कॉर्नर शॉट वाली बंदूकों में आमतौर पर कैमरा और वीडियो मॉनिटर होता है ताकि शूटर आसपास देख सके। सेना ने पिछले साल इंसास की जगह लेने के लिए बहु क्षमता वाले 1.8 लाख हथियार खरीदने की चार साल पुरानी एक निविदा रद्द कर दी थी। इंसास राइफल 1990 के दशक में सेना के हथियारों में शामिल की गई थी।

कब तक करते इंतजार: सेना ने अब तक अन्वेषक और ब्योरे की जानकारी नहीं दी है, सूत्रों ने कहा कि आतंक विरोधी अभियानों के लिए संशोधित इंसास..एके-47 राइफल वर्तमान हथियारों की कुल लंबाई और वजन को कम करने के उद्देश्य से डिजाइन किए गए हैं ताकि आतंक विरोधी अभियानों में इस्तेमाल किए जाने के दौरान गुरुत्वाकर्षण का केंद्र सीध में लाकर सैनिकों की थकावट कम की जा सके और हथियारों की सटीकता बेहतर की जा सके।

मदनलाल का अनूठा बांध, टरबाइन और बिजली

गांव के एक किसान ने 2 साल में 10 लाख रुपए खर्च कर नदी पर छोटा बांध बनाया और उसपर टरबाइन लगा दी। इससे वह खेतों में सिंचाई करते हैं और जो बिजली बनती है, उससे 10 हॉर्स पावर की मोटर भी चलाते हैं।
8वीं फेल किसान ने अकेले बनाया बांध, लगाई टरबाइन और पैदा कर दी बिजली

8वीं फेल किसान ने कैसे बनाया बांध और टरबाइन...

- मध्य प्रदेश के गांव निरखी में रहने वाले मदनलाल बताते हैं कि मेरा परिवार खेती पर ही निर्भर है। हमारे इलाके में पानी तो है पर सिंचाई के लिए पर्याप्त बिजली नहीं मिलती।
-डीजल से सिंचाई पर करने पर फसल की लागत इतनी बढ़ जाती है कि हाथ में कुछ भी नहीं आता।
-बात जनवरी 2014 की है। किसी काम से तवा बांध जाना हुआ। यहां मैंने टरबाइन से बिजली बनती देखी। बस यहीं से आइडिया आया।

आसान नहीं था टरबाइन लगाना....

मदनलाल कहते हैं, मेरा खेत जहां है, वहां टरबाइन लगाना आसान नहीं था। हमेशा पानी का बहाव रहता है और यहां पहुंचने के लिए रास्ता भी नहीं था। कमर तक गहरे पानी के बीच लोहा, सीमेंट, गिट्टी और रेत नदी के मुहाने तक ले गया। पहले नदी का बेस मजबूत किया। उस पर 40 क्विंटल लोहे से टरबाइन बनाया। उसके बीच से प्रेशर के साथ पानी निकालने के लिए बांध तैयार किया। पिछले 25 दिसंबर को बांध और टरबाइन तैयार हो गया।

प्रेशर से घूमता है टरबाइन....

खेत तक रास्ता होता तो काम और पहले हो जाता। टरबाइन को घुमाने के लिए मैंने उसके दोनों तरफ सीमेंट की दीवार बनाई। बांध से पानी टरबाइन से गुजरता है। प्रेशर से टरबाइन घूमता है। इससे सॉफ्ट को जोड़ा। साफ्ट को गियर बॉक्स से। गियर बॉक्स गुणात्मक वृद्धि कर राउंड/मिनट (आरपीएम) बढ़ाता है। वाटर पंप जोड़ने पर पानी खेतों में पहुंचने लगता है। अल्टीनेटर जोड़ने पर बिजली बनती है।’

मदनलाल बताते हैं, ‘पहले 10 एकड़ जमीन की सिंचाई बिजली से करने पर 25 दिन लगते थे। डीजल पंप से 16 से 18 दिन। 30 हजार रुपए का डीजल भी जलता था। इस बार 4 दिन में ही 10 एकड़ जमीन की सिंचाई हो गई। टरबाइन की बिजली से नदी से दूर स्थित खेत के ट्यूबवेल की मोटर भी चलाई। वहां की सिंचाई भी हो गई। कुछ खर्च नहीं करना पड़ा।’