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Monday 27 March 2017

शहर के थकान भरे अस्त-व्यस्त जीवन को छोड़ इस परिवार ने केरल में रखी प्रदूषण मुक्त गाँव की नींव!

ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के बढ़ते कहर के बारे में जहाँ एक तरफ हम सिर्फ चिंता कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओरकेरल के कुछ परिवार जुटे हैं एक जैविक गाँव बनाने में। मोहन चावड़ा के मार्गदर्शन में बन रहा यह गाँव एकप्रेरणा हैं आने वाली पीढ़ियों को एक खूबसूरत दुनिया सौंपने का और बेहतर भारत बनाने का।

भरतपुजा नदी का खूबसूरत किनारा, घने हरे-भरे पेड़ों की छाया और उनके बीच एक स्व-निर्मित ट्री-हाऊस।अंदर मोहन चावड़ा और उनका परिवार अपने जैविक बगीचे की ताजा उपज से भोजन पका रहा है।


मोहन चावड़ा का परिवार केरल के पालक्काड़ जिले में उभरते इस जैविक गाँव का पहला निवासी हैं। चावड़ा द्वाराही अवधारित और स्थापित यह गाँव ढाई एकड़ के प्राकृतिक ग्रामीण क्षेत्र के बीच में और मन्नंनूर रेलवे स्टेशन सेकुछ ही दूरी पर बसा हुआ है।
पढ़िए वह कहानी कि कैसे मोहन चावड़ा, एक प्रतिभाशाली मूर्तिकार, बना रहे हैं एक अनोखा जैविक गाँव जो आधारित है स्थिरता, साधारण जीवन और प्राकृतिक सामंजस्य जैसे मूल्यों पर।

चावड़ा और उनकी पत्नी रुक्मिणी (एक नर्सिंग कॉलेज की पूर्व प्रधानाध्यापिका) ने बहुत समय से एक सपनासंजोया था — ऐसे लोगों का समुदाय बनाने का, जो समर्पित हो पर्यावरण-अनुकूलित और हरित जीवन जीने केलिए। 2013 में उन्होंने अपनी ही तरह सोचने वाले 14 परिवारों से अपने लिए एक स्व-निर्वाहित जैविक गाँव बनानेकी बात की। वे सब प्रदूषण, संसाधित खाद्य पदार्थ और शहर की अव्यवस्थाओं को छोड़कर प्रकृति की गोद मेंएक नया और स्वस्थ जीवन जीना शुरू करना चाहते हैं।


जब उन्हे भरतपुजा नदी के किनारे की खूबसूरत ढाई एकड़ जमीन का पता लगा, उन्हें वह जगह जैविक गाँवबनाने के लिए सबसे बढ़िया लगी । अपनी पूँजी इकट्ठी कर उन्होंने वो जमीन खरीद ली, जहाँ पहले एक रबड़बागान हुआ करता था।

उनके ग्रुप ने शुरूआत उन रबड़ के पेड़ों को काटने और हटाने से की जो मिट्टी के लिए हानिकारक थे। फिरफलदार पेड़ और सब्जी के बगीचे लगाने से पहले उन्होने अपने ही हाथों से अपना एक ट्री-हाऊस बनाया।
2015 में मोहन, रुक्मिणी और उनकी दो बेटियां — 18 वर्षीय सूर्या और 11 वर्षीय स्रेया इस उभरते गाँव में रहने आ गए, ऐसा करने वाले वे पहले थे।


इस जैविक गाँव का प्रारूप साझेदारी और एकजुटता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इसकीशुरुआत से ही यहां प्रशंसकों का आना जाना लगा रहा है, इसलिए चावड़ा परिवार और बाकी सभी परिवारों ने मिलकर एक गेस्ट हाउस और एक बड़ा सामुदायिक किचन (रसोईघर) बनाना तय किया, जहाँ सब मिलकर पका औरखा सके। इन परिवारों ने कलाकारों, कार्यकर्ताओं और पड़ोसी गांवों के लोगों को भी गाँव में आयोजित होने वालेसाप्ताहिक कला सम्मेलनों में आमंत्रित करने की योजना बनाई है।

हाल ही में, चावड़ा परिवार ने छत डालने के लिए थोड़ी बाहरी मदद लेकर, अपने लिए एक साधारण सा कच्चामकान बनाना शुरू किया। फल, सब्जियाँ और दालें लगाने के अलावा चावड़ा परिवार गाय, बकरियाँ और मुर्गीपालन भी करता हैं।
गाँव में आने वाले हर मेहमान का स्वागत रुक्मिणी द्वारा जैविक बगीचे कीताजा पैदावार से बनाए स्वादिष्ट खाने से होता है। शाम का खाना अक्सरस्थानीय सुरीले गीतों और उत्साहपूर्ण कला चर्चा के साथ होता है।


चावड़ा परिवार का मानना है कि प्रेम, मानवता और दया जैसी भावनाओं के बारे में हम नियमित स्कूलों के बजाय प्रकृति के बीच रहकर ज्यादा सीख सकते हैं। यही कारण है कि स्रेया और सूर्या स्कूल छोड़कर यह प्राकृतिकजीवन जी रही है। हालाँकि सूर्या अपनी क्लास की टाॅपर थी जब उसने आठवीं में स्कूल छोड़ा, लेकिन वह इसवैकल्पिक और अनौपचारिक शैक्षिक पद्धति के साथ ज्यादा सहज और खुश हैं ।

दूसरी तरफ स्रेया डिस्लेक्सिया से ग्रसित है। उसके शिक्षक हमेशा उसकी क्षमताओं को समझने और उनके साथकाम करने में असमर्थ रहे, लेकिन इस जैविक गाँव ने उसके सामने इतनी राहें खोल दी है कि वह धीरे-धीरेविकसित हो रही है। 
दोनों ही बहनों को प्रकृति को निहारना, काम करते हुए पक्षियों का कलरवसुनना और ट्री-हाऊस में रहकर ताजा हवा का आनंद लेना बहुत पसंद है।


सूर्या और स्रेया लगातार घूमती भी रहती है ताकि अपने प्रदेश की सांस्कृतिक और सामाजिक विभिन्नता के बारे मेंजान सके। 2013 में उन्होंने अरनमूल तक एक बाल-रैली का नेतृत्व किया था और प्रतीक स्वरूप धान के पौधेलगाकर एक प्रोजेक्ट, जिससे उस इलाके की जैव-विविधता को नुकसान पहुंचता, के प्रति जागरूकता फैलायी थी।

अपने पिता से सीखकर सूर्या और स्रेया मूर्तियाँ बनाने और दूसरी कलाओं में भी काफी कुशल हो गई है। अपनीसृजनात्मकता को माता – पिता द्वारा हौसला बढ़ाने के चलते, दोनों बहनों ने अपने कच्चे मिट्टी के मकान की दीवारेंमूर्तियों और तस्वीरों से सजा दी हैं। शहर की भागमभाग से दूर एक शांत जगह बसाकर, मोहन चावड़ा ने अपनेप्रयासों से गाँव को पारंपरिक वन्य-जीवन और कलात्मक रचना का आकर्षक मिश्रण बना दिया है।

अपने बच्चों पर इस साधारण जीवनशैली का सकारात्मक प्रभाव देखकर चावड़ा और बाकी परिवारों ने खुद कीशिक्षा प्रणाली (जिसमे कला और शिल्प वर्कशॉप, बागबानी, आदि भी सम्मिलित होंगी) जिससे कि बच्चे साथमिलकर रहने के लिए प्रोत्साहित हो न कि एक दूसरे से मुकाबला करने के लिए।


अपनी इस साहस, स्थिरता और प्रेम की कहानी से चावड़ा परिवार ने जैविक जीवनशैली का एक अनोखा उदाहरणपेश किया है जो कि वाकई में पूरे भारत में कई लोगों को अपनी जड़ों की तरफ लौटने की प्रेरणा देगा।

किसान जिसने चावल की 850 से भी ज्यादा किस्मों को सहेज कर म्यूजियम बना डाला

मांड्या जिले के छोटे से गाँव में रहने वाले सैयद गनी खान एक संग्रहालय (म्यूज़ियम) में संरक्षक है। उन्होंने एक अनूठी पहल की और एक ऐसा म्यूज़ियम तैयार कर दिया जहां आज चावल की 850 व 115 के आसपास आम की विभिन्न किस्मों को ना सिर्फ संरक्षित किया गया है, बल्कि उनकी खेती भी की जाती है। यह किसान चाहता हैं कि ना सिर्फ हमारी पुरानी लुप्त होती पारंपरिक किस्मों को बचाया जाए बल्कि उन किस्मों को दुबारा उगा कर हमारे पूर्वजों के पुराने ज्ञान से आज की पीढ़ी के किसानों को अवगत कराया जाए।

एक किसान के बेटे सैयद गनी खान ने हमेशा ही एक म्यूज़ियम में संरक्षक बनने का सपना देखा था। उन्होंने पुरातत्व-विज्ञान व संग्रहालय विज्ञान की पढ़ाई की, इस सपने के साथ कि वह कभी खुद का संग्रहालय खोलेंगे जहां आने वाले लोगो को वे प्राचीन परंपराओं की जानकारी देंगे।

जब वे 22 साल के थे तब सैयद के पिता को ब्रेन हैमरेज हो गया जिसके कारण भाई-बहनों में सबसे बड़े सैयद पर परिवार व खेती की सारी ज़िम्मेदारी आ गयी। उन्होंने अपने सपनों को पूरा करना छोड़, खेती करना शुरू किया।

अपने क्षेत्र के दूसरे किसानों की तरह उन्होंने भी हायब्रीड खेती के तरीकों से चावल उगाना शुरू कर दिया। एक दिन अपने खेत में कीटनाशकों का छिड़काव करते समय, उन्हें चक्कर आने लगे और वे गिर कर बेहोश हो गए। यही वह दिन था जब उन्हें कीटनाशकों के बुरे प्रभाव का एहसास हुआ।

“हम किसानों को सभी ‘अन्नदाता’ कहते हैं। लेकिन उस दिन मुझे एहसास हुआ कि मैं अन्नदाता नहीं हूँ; मैं तो विष-दाता बन चुका हूँ। इन सभी हानिकारक खाद और कीटनाशकों के उपयोग से मैं ज़हर वाली फसल उगा रहा था। उस दिन मैंने निश्चय कर लिया कि मैं अपने खेती करने के तरीके को बदल दूंगा ,” सैयद कहते हैं।

उन्होंने जैविक खाद (organic manure) का उपयोग करना शुरू किया, परंतु कुछ महीनों बाद भी उन्हें अपनी फसल पर इसके कुछ परिणाम नहीं दिखाई दिये। जब उन्होंने इसकी और जांच-पड़ताल की तो उन्हें पता चला कि हायब्रीड बीजों से उगने वाली फसल पर इस प्राकृतिक खाद का कोई असर नहीं हो रहा था। तब उन्होंने हाइब्रीड किस्मों को छोड़कर लोकल ऐसे किस्मों की तरफ रुख किया जो अधिक पौष्टिक हो व खेती के परंपरागत तरीकों को अपनाकर भी की जा सकती हो। 

जब उन्होंने परंपरागत किस्मों की खोज करना शुरू किया, तो उन्हें पता चला कि सूखे क्षेत्र में उगने वाली अकाल-रोधी किस्में जैसे राजभोग बाथा, कड़ी बाथा, डोड्डी बाथा विलुप्त हो चुकी हैं। हाइब्रीड किस्मों के उपयोग बढ्ने के कारण (जो कि परंपरागत किस्मों के बदले ज्यादा उत्पादन देती थी परंतु दुबारा उगाये जाने के योग्य नहीं थी) किसानों ने उन परंपरागत किस्मों को भुला दिया था जो कि कम उत्पादन देती थी परंतु कई पीढ़ियों बाद भी दुबारा उगाई जा सकती थी। सैयद को ऐसी परंपरागत किस्मों के बीजों की खोज करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा जिनमें कीटनाशकों के प्रयोग की आवश्यकता न पड़े।

उन्होंने अपने संग्रहण की शुरुआत ऐसी किस्म के साथ की, जिसके बारे में उन्हें कोई भी कुछ बता पाने में सक्षम नहीं था। इसे पहचानने में एक वैज्ञानिक ने उनकी मदद की। यह मांड्या में उगाई जाने वाली एक मूल किस्म थी, जो कि अब लगभग विलुप्त हो चुकी है।

“मुझे चिंता होने लगी! एक किसान के परिवार में बढ़ा होने की वजह से मैंने चावल की कई किस्मों के नाम सुने थे। और अब, जब मैं उन्हें उगाना चाहता था तो मुझे पता चला कि ये किस्में अब उपलब्ध ही नहीं है! इस बारे में कुछ करने की आवश्यकता थी,” सैयद कहते हैं।
उन्होंने चावल की इन लगभग विलुप्त हो चुकी क़िस्मों का न सिर्फ पता लगाना शुरू किया बल्कि उन्हें एकत्रित कर उनका संग्रहण किया तथा उन्हें फिर से उगाना शुरू किया।

चावल कि विभिन्न किस्में

तब उन्हें यह लगा कि वे इन परंपरागत किस्मों का संग्रह कर अपने संग्रहकर्ता बनने के सपने को सच कर सकते है और अपना एक म्यूज़ियम खोल सकते हैं।

उन्होंने कई तरह के चावलों की किस्में मांड्या जिले के आसपास के गांवों से एकत्रित कर ली पर वे यहीं नहीं रुकने वाले थे। उन्होंने कई दूसरे जिलों और राज्यो में भी इनकी खोज की। चार साल के अंदर ही उन्होंने चावल की 140 से ज्यादा किस्में अपने म्यूज़ियम के लिए खोज निकाली और उनमे से हर एक का मूल स्वाद, आकार व खुशबू के साथ उन्हें सहेजा।

परंपरागत किस्में हाइब्रीड किस्मों की तुलना में कहीं बेहतर होतीं है। इनमें पानी की आवश्यकता कम होती है। कुछ किस्मों के तो अपने औषधीय गुण भी है।

“परंपरागत किस्मों ने मौसमी परिवर्तनों के हिसाब से अपने आप को ढाला है, और ये किस्में सूखा, बाढ़ जैसी अन्य प्राकृतिक आपदाओं का बेहतर तरीके से सामना कर सकती है, वहीं हाइब्रीड किस्में ऐसे में नहीं टिक पाती। मैं हर साल अपनी फसल के सबसे अच्छे बीजों को चुनता हूँ और अपने साथी किसानों को देकर उन्हें बढ़ने में मदद करता हूँ। मैं साथी किसानों को इन किस्मों के फायदे समझाने की भी कोशिश करता हूँ। कई बड़ी कंपनियां मुझे इनके लिए बड़ी रकम देने की पेशकश कर चुकी हैं पर मैं उन्हें यह नहीं देता,” वे कहते हैं।
अपने कई सालों के संरक्षण के काम के बाद आज उन्हें किसान बहुत अच्छे से पहचानते हैं और उनसे सलाह-मशवरा भी करते हैं।

मांड्या जिले के किरुगुवूलु गाँव में स्थित सैयद के चावल म्यूज़ियम के साथ ही ‘बड़ा बाग़’ नाम से जाना जाने वाला उनका एक बग़ीचा भी है। इस बगीचे के 116 प्रकार के आमों आम के कारण किसानों व कृषि में शोध करने वाले लोगों के बीच सैयद काफी प्रसिद्ध है।

आज उनका म्यूज़ियम 850 से भी ज्यादा चावल की किस्मों का घर है। जहां ज़्यादातर चावलों की किस्में भारत की मूल किस्में है, वहीं सैयद के इस म्यूज़ियम में म्यामांर, थायलैंड, पाकिस्तान व कई अन्य देशों की किस्में भी उपलब्ध है। सैयद की मेहनत से आज उनका यह बाग़ कई विविध तरह के जीवो का घर बन चुका है, जो की आज 60 से भी ज्यादा पक्षियों की मेजबानी करता है। अपने इस म्यूज़ियम की देखभाल करना व अपनी परंपरागत जानकारी को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाना ही आज सैयद के जीवन का उद्देश्य बन चुका है।

गरीब और बेसहारा लोगों के लिए “इन्साफ दिलाने वाला मसीहा” है प्रबीर दास

प्रबीर कुमार दास उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर शहर में एक कमरे वाले मकान में रहते हैं। मकान भी किराए का है। मकान में गुसलखाना भी नहीं है। गुसलखाना और शौचघर मकान के बाहर हैं और प्रबीर को दूसरे किरायदारों के साथ इन्हें ‘शेयर’ करना पड़ता हैं। यानी, गुसलखाना और शौचघर किरायेदारों के लिए ‘कॉमन’ हैं। प्रबीर का जो एक कमरे का मकान है वो भी किताबों से भरा पड़ा है। इन किताबों में ज्यादातर किताबें कानून की हैं। कमरानुमा मकान में कई सारे कानूनी कागज़ात भी हैं। सैकड़ों, शायद हजारों, मामलों से जुड़े कानूनी कागज़ात और दस्तावेजों से भरा पड़ा है प्रबीर का मकान। कमरे में एक मेज़ है और इसी मेज़ पर प्रबीर लिखाई-पढ़ाई का काम भी करते हैं और इसी पर सो भी जाते हैं। किताबें और कानूनी कागज़ात ही प्रबीर की धन-दौलत और जायजाद हैं। उनके बैंक खाते में न तगड़ी रकम है और न ही उनके नाम कोई बेशकीमती ज़मीन। प्रबीर ने ज़िंदगी में अगर कुछ कमाया है तो वो है शोहरत और इज्ज़त। लेकिन, सबसे ज्यादा अहमियत रखने वाली बात ये है कि जिस तरह से प्रबीर ने लोगों की मदद करते हुए उनके दिलोदिमाग में अपनी बेहद ख़ास और पक्की जगह बनाई है, वैसा कर पाना अच्छे-अच्छों के लिए बहुत मुश्किल होता है।प्रबीर ने गरीब, बेसहारा और अशिक्षित लोगों के लिए अपना जीवन समर्पित किया है। उन्होंने गरीबी, अशिक्षा और अज्ञानता की वजह से इन्साफ से वंचित लोगों को इन्साफ दिलवाना का बीड़ा उठाया है। पिछले कई सालों से प्रबीर दास गरीब, बेसहारा और अशिक्षित लोगों को इन्साफ दिलवाने के लिए अलग-अलग अदालतों में कानूनी लडाइयां लड़ रहे हैं। हजारों लोगों को इन्साफ दिलाने में वे कामयाब भी रहे हैं। बड़ी बात ये भी है कि इन्साफ दिलाने की जंग में अपने गरीब मुवक्किलों का वकील बनने और अदालतों में उनकी वकालत करने के लिए प्रबीर कोई फीस भी नहीं लेते। फीस लेते भी कैसे, उनके मुव्वकिल ऐसे होते हैं कि जिनके पास दो जून की रोटी जुटाने के लिए रुपये भी नहीं होते। यानी गरीबों में भी सबसे गरीब लोगों को अदालतों में इन्साफ दिलाने का काम करते हैं प्रबीर कुमार। कोई भी इंसान अगर इन्साफ से वंचित है या फिर उसके अधिकारों का हनन हुआ है, प्रबीर कुमार उसके वकील बन जाते हैं। प्रबीर ये नहीं देखते थे कि पीड़ित और शोषित का वकील बनकर उन्हें क्या मुनाफा मिलेगा, वे बस यही चाहते हैं कि हर हकदार को इन्साफ मिला और हर इंसान को उसका हक़। दिलचस्प बात तो ये भी है कि प्रबीर ने कानून की पढ़ाई भी इसी वजह से की क्योंकि वे अदालतों में गरीबों और बेसहारा लोगों की आवाज़ बनकर उन्हें इन्साफ दिलाना चाहते थे। प्रबीर कहते हैं, “मेरे लिए वकालत एक पेशा नहीं है, मेरे लिए वकालत एक मिशन है, मिशन है गरीब लोगों को इन्साफ दिलाने का। ये मिशन है -जागरूकता की कमी और संसाधनों के अभाव की वजह से नाइंसाफी का शिकार हो रहे लोगों को उनका हक़ दिलाने को।“ काफी पढ़े-लिखे और काबिल प्रबीर चाहते तो जीवन में तगड़ी तनख्वाह वाली अच्छी नौकरी हासिल कर सकते थे।अपना खुद का शिक्षा संस्थान शुरू कर सकते थे या फिर खुद की लीगल फर्म चालू कर सकते थे। कॉर्पोरेट या क्रिमिनल लॉयर बनकर करोड़ों रुपये कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने जीवन सब सुख-सुविधाओं का त्याग किया और समाज-सेवा का मार्ग अपनाया। प्रबीर ने जो मार्ग चुना उसपर चलना आसान नहीं है। रास्ते में कई सारी कठिनाईयां हैं, चुनौतियां हैं, और इन कठिनाईयों और चुनौतियों का अंत भी नहीं है। लेकिन, प्रबीर ने सबसे मुश्किल-भरा रास्ता चुना। शायद इसी रास्ते पर चलने की वजह से वे आज समाज में अपनी बेहद ख़ास पहचान रखते हैं। सभी लोग उनका सम्मान करते हैं। गरीब और बेसहारा लोगों के लिए प्रबीर “इन्साफ दिलाने वाले मसीहा” हैं। गरीबों और बेसहारा लोगों के वकील के नाम से मशहूर प्रबीर कुमार दास की कहानी अनूठी कहानियों में भी अनूठी है। प्रबीर की कामयाबी की बेहद अनूठी कहानी शुरू होती है उड़ीसा से जहाँ उनका जन्म हुआ।

प्रबीर कुमार दास का जन्म 30 दिसंबर, 1964 को उड़ीसा के एक आदिवासी बहुल इलाके में हुआ। शहर की चकाचौन्द से अछूते एक आदिवासी गाँव घुमा में जन्मे प्रबीर का परिवार गैर-आदिवासी था। प्रबीर के शुरूआती छह साल इसी गाँव में बीते। इसे बाद वे उड़ीसा में अपने पैतृक गाँव बहल्दा आ गए, जोकि आदिवासी बहुल मयूरभंज जिले में पड़ता है। पिता सोमनाथ दास शिक्षक थे और माँ अनुसया दास गृहिणी। सोमनाथ और अनुसया को कुल साथ संतानें हुईं और इन सभी में प्रबीर सबसे बड़े हैं। प्रबीर की दो छोटी बहनें और चार छोटे भाई हैं । प्रबीर के मुताबिक, उनके पिता आदर्शवादी थे और उनका जीवन सीधा-सादा था। प्रबीर बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज़ थे और उन्हें स्कूल की हर परीक्षा में अव्वल नंबर आये। चूँकि पिता शिक्षक थे और उनकी साहित्य में काफी रुची थी, जाने-अनजाने प्रबीर भी साहित्य पढ़ने लगे। इतना ही ही, बचपन में ही उन्हें आदिवासी लोगों की परेशानियों को जानने और समझने का मौका मिला। प्रबीर के पिता ने आदिवासी लोगों की हर मुमकिन मदद की और उन्हें अपने बच्चों को स्कूल भेजने और पढ़ाने-लिखाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया। प्रबीर के शिक्षक पिता ने लोगों को ये समझाने की मुहीम चलाई कि शिक्षा के ज़रिये गरीबी और पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है।

प्रबीर जिन दिनों स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे उन दिनों ज्यादातर पढ़े-लिखे लोग अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर या फिर प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहते थे। प्रबीर के मुताबिक, अल्प विकसित उड़ीसा राज्य में उन दिनों कई सारे शिक्षित अभिभावक अपने बच्चों को आईएएस या फिर आईपीएस अफसर का सपना देखते थे। प्रबीर जब दसवीं कक्षा में थे तब उड़ीसा राज्य से युवक डॉ ऋषिकेश पांडा ने आईएएस की परीक्षा में टॉप किया था। और जब प्रबीर कॉलेज में थे तब उड़ीसा राज्य के एक और युवक ने आईएएस की परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। ये युवक उड़ीसा के एक बहुत ही पिछड़े इलाके बारिपदा से था। इन दो युवकों की कामयाबी ने पिछड़े इलाकों के उड़िया विद्यार्थियों और युवाओं में एक नए उत्साह का संचार किया । लोक सेवा की परीक्षा में अव्वल आने वाले इन दो युवाओं ने कई सारे विद्यार्थियों और युवाओं के लिए जीवन का एक नया लक्ष्य दिया ... और ये लक्ष्य था - लोक सेवा की परीक्षा पास कर आईएएस या आईपीएस अफसर बनाना। अपने राज्य के इन्हीं दोनों युवाओं की नायाब कामयाबी से प्रेरित होकर प्रबीर ने भी केन्द्रीय लोक सेवा की परीक्षा की तैयारी शुरू की और आईएएस अफसर बनाने का सपना देखना शुरू किया। दिन-रात की मेहनत और ज़ोरदार तैयारी के बावजूद प्रबीर लोक सेवा की परीक्षा पास नहीं कर पाए। आईएएस अफसर बनने का उनका सपना टूट गया प्रबीर कहते हैं, “जीत मुझे धोका दे गयी।”

प्रबीर के कई साथी लोक सेवा की परीक्षा पास कर प्रशासनिक अधिकारी बनने में कामयाब हुए थे, लेकिन प्रबीर छात्र जीवन के अपने सबसे बड़े सपने को साकार नहीं कर पाए । प्रबीर निराश तो हुए, मायूसी ने भी उन्हें कई दिनों तक सताया, लेकिन उन्होंने अपने जीवन के लिए नया लक्ष्य तय कर लिया। प्रबीर ने लोक सेवा की परीक्षा के लिए कई सारी किताबें पढ़ीं थीं, इन किताबों के ज़रिये काफी सारा ज्ञान हासिल किया था। भले ही वे परीक्षा पास न कर पाए हों लेकिन उनके पास कई विषयों का असीम ज्ञान था। ऐसे में प्रबीर ने फैसला किया कि वे अपनी व्यक्तिगत नाकामी को सामूहिक कामयाबी में तब्दील करेंगे । प्रबीर ने अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा फैसला लिया । उन्होंने ठान ली कि वे अर्जित ज्ञान को युवाओं में बाटेंगे और उन्हें उनके आईएएस अफसर बनने के सपने को पूरा करने में उनकी मदद करेंगे। अपने फैसले के अनुरूप प्रबीर ने लोक सेवा की परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवाओं को पढ़ाना शुरू किया। प्रबीर ने कई छात्रों का मार्ग दर्शन किया । गरीबी और सुविधाओं के अभाव में सही तरह से परीक्षाओं की तैयारी नहीं कर पा रहे विद्यार्थियों और परीक्षार्थियों की हर मुमकिन मदद की। प्रबीर खुद तो प्रशासनिक अधिकारी नहीं बन पाए लेकिन उन्होंने अपनी शिक्षा और मार्ग-दर्शन से एक दर्जन युवाओं को आईएएस या आईपीएस अफसर बनाने में कामयाबी हासिल की। प्रबीर ने कई सारे युवाओं को राज्य स्तर पर प्राशासनिक अधिकारी बनाने में भी उनकी मदद की। प्रबीर कहते हैं, “मैंने ऐसे लोगों को चुना जो कि दिल्ली जाकर सिविल सर्विसेज की तैयारी नहीं कर सकते थे । ये लोग बहुत तेज़ थे, इनकी बौद्धिक श्रमता भी बहुत ज्यादा थी लेकिन इनके पास परीक्षा की सही तैयारी के लिए संसाधनों का अभाव था। मैं इन लोगों के लिए उनका ‘फ्रेंड, फिलोसोफेर और गाइड’ बना । इन युवाओं को प्रशासनिक अधिकारी बनाकर मैंने आईएएस अफसर न बन पाने की अपनी भड़ास मिटाई है।”

जिस तरह से कई सारे विद्यार्थियों और युवाओं के लिए प्रबीर 'फ्रेंड, फिलोसोफेर और गाइड' बन गए थे कई लोगों को लगाने लगा था कि उनका सारा जीवन शिक्षा के क्षेत्र में भी चला जाएगा। लेकिन, संयोगवश प्रबीर वकील बन गए। प्रबीर वकालत के पेशे में आना ही नहीं चाहते थे। लेकिन, कुछ घटनाएं ऐसी हुईं कि जिनके प्रभाव में वे वकील बन गए। वे कहते हैं, “मैं एक शिक्षक का बेटा हूँ और मेरे लिए जीवन में नैतिकता काफी मायने रखती हैं। जब से मैंने वकालत के बारे में जाना है तब से मेरे मन में एक पेशे को लेकर बुरा अभिमत ही रहा है। मालूम नहीं कहाँ से मेरे मन में ये ख्याल घर कर गया था कि वकील अनैतिक काम करते हैं, मुझे लगता था कि वकीलों का काम अपराधियों और बदमाशों को बचाना होता है। मुझे लगता था कि वकील लोग रुपयों के लिए कुछ भी कर सकते हैं, उनमें कोई नैतिकता नहीं होती और वे अपराधियों को बचाने में लग जाते हैं।“ लेकिन, जब प्रबीर को उड़ीसा उच्च न्यायालय जाने का मौका मिला और उनका सीधा संपर्क वकीलों से हुआ तब वकीलों को लेकर उनके मन में बनी धारणा टूट गयी । हुआ यूँ था कि उन दिनों कुछ परीक्षार्थियों ने धांधली का आरोप लगाते हुए उड़ीसा लोक सेवा आयोग के खिलाफ उड़ीसा उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। इन परीक्षार्थियों में कुछ प्रबीर के वो शिष्य भी थे जो लोक सेवा की परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे । चूँकि कोर्ट आने -जाने में काफी समय लग जाता था और इससे परीक्षा की तैयारी में दिक्कतें पेश आती थीं, प्रबीर ने कोर्ट जाने और मामले की दशा-दिशा जानने का बीड़ा उठाया । न्यायालय परिसर में जाने के बाद प्रबीर को कई सारी नई जानकारियाँ मिली। उन्हें बहुत कुछ जानने, सीखने और समझने का मौका मिला । प्रबीर के मुताबिक, जो सबसे बड़ी बात उन्होंने जानी वो ये थे कि कई लोगों को सिर्फ इस वजह से इन्साफ नहीं मिल पा रहा है क्योंकि उनके पास वकील रखने के लिए भी रुपये नहीं थे । प्रबीर की मुलाक़ात ऐसे कई लोगों से हुई जोकि गरीब थे और रुपयों की किल्लत की वजह से वकील नहीं रख पा रहे थे । वकील न रख पाने से कोर्ट में इन लोगों की आवाज़ सुनाने वाला कोई नहीं था। गरीब लोग कोर्ट में भी गरीबी की मार खा रहे थे और इन्साफ के हकदार होने के बावजूद इन्साफ से वंचित थे। हकदारों को इन्साफ न मिलने की घटानाओं और अनेकानेक उदाहरणों ने प्रबीर को हिलाकर रख दिया। कोर्ट में गरीब लोगों के साथ नाइंसाफी के बारे में जानकार उन्हें गहरा सदमा पहुंचा। कोर्ट परिसर में ही प्रबीर ने फैसला कर लिया कि वे कानून की पढ़ाई करेंगे और कोर्ट में गरीबों की आवाज़ बनेंगे। कानून की डिग्री लेने के बाद साल 2001 में प्रबीर ने कोर्ट में बतौर वकील अपना नाम दर्ज करवाया और वकालत शुरू की ।

एक दिन उत्कल विश्वविद्यालय के एक छात्र ने प्रबीर को बांका इलाके की एक ऐसी बूढ़ी औरत के बारे में बताया जोकि एक समय की रोटी को भी लाचार थी। उसी मदद करने वाला कोई नहीं था और वो दाने-दाने को मोहताज थी। हालत इतनी खराब हो गयी थी कि भूख के कारण उसकी मौत भी हो सकती थी । गुहार के बावजूद स्थानीय प्रशासन से भी उस बूढ़ी महिला को कोई मदद नहीं मिल रही थी । ऐसी हालत में प्रबीर ने इस महिला को भुखमरी की मौत का शिकार होने से बचाने के लिए न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया । हाई कोर्ट के दखल के बाद प्रशासन हरकत में आया और उसने बूढ़ी महिला को इन्साफ दिलाया। हाई कोर्ट के आदेश पर प्रशासन ने उस बूढ़ी महिला की मदद की । प्रबीर के लिए ये पहली कानूनी लड़ाई थी। लड़ाई थी प्रशासन के खिलाफ और एक बूढ़ी महिला को इन्साफ दिलाने के लिए, ताकि वो भुखमरी का शिकार न हो सके। अपनी पहली ही कानूनी लड़ाई में कामयाबी से प्रबीर बहुत ही उत्साहित हुए। उनकी ख़ुशी को कोई ठिकाना नहीं रहा। इस खुशी के मौके पर प्रबीर से संकल्प ले लिए कि वे नाइंसाफी का शिकार हुए गरीब, निस्साहय और अशिक्षित लोगों के वकील बनेंगे और उन्हें इन्साफ दिलाने के लिए अदालतों में कानूनी लड़ाई लड़ेंगे।

कुछ ही दिनों में प्रबीर ‘गरीबों का वकील’ के नाम से मशहूर हो गए। उनकी लोकप्रियता दिनबदिन बढ़ती गयी। अदालतों में वे गरीबों, नाइंसाफी का शिकार और इन्साफ से महरूम लोगों की आवाज़ बन गए। बड़ी बात तो ये है कि प्रबीर गरीब मुवक्किलों से मेहनताना और फीस भी नहीं लेते हैं। प्रबीर अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके गरीब मुवक्किलों के पास एक समय का भोजन जुटाने के लिए भी रुपये नहीं हैं, ऐसे में वे उनके क्या लेंगे। प्रबीर का मकसद और लक्ष्य था कि रुपयों की किल्लत की वजह से कोई भी गरीब इंसाफ से महरूम न रह जाए। जैसे-जैसे प्रबीर की लोकप्रियता बढ़ती गयी वैसे-वैसे मदद और इन्साफ की गुहार लेकर बड़ी संख्या में गरीब लोग उनके पास पहुँचने लगे। प्रबीर ने भी मदद करने में अपनी ओर से कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी। प्रबीर ने उड़ीसा में मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामलों को भी काफी गंभीरता से लेना शुरू किया। मानव अधिकार के उल्लंघन का जो कोई मामला उनकी नज़र में आता वे इन्साफ के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाते। मानव अधिकार कार्यकर्त्ता के रूप में भी उनकी एक अलग पहचान बन गयी।


प्रबीर ने आम लोगों, गरीब और पिछड़े जनों को इन्साफ दिलाने के लिए कई मुकदमे लड़ें हैं और इनमें से कई सारे मुकदमों की चर्चा देश-भर में हुई है। कुछ मुकदमे ऐसे भी हैं जिनकी चर्चा दुनिया-भर में हुई है। प्रबीर का जो पहला मुक़दमा जिसकी चर्चा दुनिया-भर भी हुई वो प्रताप नायक नाम के एक कैदी से जुड़ा था। प्रताप नायक की कहानी दिल को देहला देने वाली है। साल 1989 में जब 13 साल के प्रताप नायक एक दिन अपने स्कूल से वापस अपने घर लौट रहे थे तभी कुछ लोगों ने मिलकर एक शख्स ही हत्या कर दी थी। ज़मीन को लेकर दो गुटों के बीच में चल रहे विवाद और घमासान में एक शख्स ही हत्या कर दी गयी थी। पुलिस ने हत्या के इस मामले में छह लोगों को गिरफ्तार किया जिसमें 13 साल के दलित विद्यार्थी प्रताप नायक भी एक थे। प्रताप नायक ने पुलिस को ये समझाने की हर मुमकिन कोशिश की कि हत्या के इस मामले से उनका कोई लेना देना नहीं है और वे सिर्फ इस वारदात के गवाह हैं। लेकिन, पुलिस ने प्रताप नायक की एक न सूनी और 13 साल के किशोर को गिरफ्तार कर जेल भिजवा दिया। जिला अदालत में मुक़दमा चला और प्रताप नायक को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। बाकी सारे आरोपियों को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी लेकिन कुछ दिनों बाद वे सभी बेल/ज़मानत पर रिहा हो गए। प्रताप नायक बेल नहीं हासिल कर पाए। उनके माता-पिता गरीब और अशिक्षित थे और उनकी मदद करने वाला भी कोई नहीं था, ज़मानत की रकम जुटाने में वे असमर्थ थे। बेल लेने की प्रक्रिया के बारे में भी प्रताप के माता-पिता कुछ नहीं जानते थे। इसी वजह से प्रताप को स्थानीय जेल में भी रहना पड़ा। बाकी पाँचों आरोपियों ने जिला अदालत के फैसले को चुनौती देते हुए उड़ीसा उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। इस याचिका पर अंतिम फैसला साल 1994 में आया। उच्च न्यायालय ने ‘सबूतों के अभाव’ की वजह से सभी आरोपियों को बरी कर दिया। उच्च न्यायालय ने इस फैसले की जानकारी उस जेल के अधिकारियों को नहीं दी जहाँ 1989 से प्रताप नायक सलाखों के पीछे बंद थे। शायद न्यायालय के अधिकारियों को लगा कि सभी आरोपी बेल पर बाहर हैं और उन्हें लगा कि फैसला की कॉपी जेल अधिकारियों को देने की ज़रुरत नहीं हैं। बहरहाल, जेल के अधिकारियों को उच्च न्यायालय के फैसले/आदेश की कॉपी नहीं मिली और उन्होंने प्रताप नायक को कैदी बनाकर ही रखा। संतोष पाढ़ी नामक एक स्थानीय वकील को जब ये पता चला कि उच्च न्यायालय द्वारा बरी कर जिए जाने के बावजूद प्रताप नायक जेल में बंद हैं तब उन्होंने स्वतः ही उनकी रिहाई की कोशिशें शुरू कीं । संतोष की पहल की वजह से 22 जनवरी, 2003 को प्रताप नायक जेल से रिहा हुआ। लेकिन, सच्चाई यही है कि बरी हो जाने के बाद भी वे 8 साल तक जेल में रहे और उनके करीब 14 साल जेल में ही बीते। उच्च न्यायालय के अधिकारियों की लापरवाही की वजह से प्रताप नायक को 8 साल तक बिना वजह जेल में रहना पड़ा था। प्रताप के माता-पिता को भी ये पता नहीं चल पाया था कि उनका बेटा बरी हो गया है। प्रबीर दास को प्रताप नायक के साथ हुई नाइंसाफी के बारे में पता चला तब उन्होंने इस मामले को अपने हाथों में लिया और इन्साफ की लड़ाई नए सिरे से शुरू की। प्रबीर को लगा कि उच्च न्यायालय के अधिकारियों की लापरवाही की वजह से प्रताप नायक को ८ साल तक जेल में रहना पड़ा था। अगर ये अधिकारी उच्च न्यायालय के फैसले की जानकारी जेल अधिकारियों को दे देते तो प्रताप नायक रिहा हो जाते, लेकिन इन अधिकारियों द्वारा अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन न किये जाने की वजह से एक बेक़सूर व्यक्ति को अपनी जवानी के ८ महत्वपूर्ण साल जेल में बिताने के लिए मजबूर होना पड़ा था। प्रबीर को चौकाने वाली सबसे बड़ी बात ये थे कि १४ साल तक जेल में रहने की वजह से प्रताप नायक की मानसिक स्थिति बिगड़ गयी थी और वे ‘नेगेटिव सीजोफ्रेनिया’ नामक बीमारी का शिकार हो गए थे, यानी प्रताप एक तरह के पागलपन के शिकार बन गए। पहले से ही गरीबी और पिछड़ेपन की मार झेल रहे माता-पिता के लिए प्रताप नायक की देख-रेख करना और भी दिक्कतों भरा काम हो गया। प्रबीर दास ने प्रताप नायक और उनके माता-पिता को इन्साफ दिलाने का संकल्प लिया। प्रबीर ने सबसे पहले सारे सबूत जुटाये और फिर प्रताप नायक को इन्साफ दिलाने की गुहार लगते हुए उड़ीसा उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया। उड़ीसा उच्च न्यायालय ने प्रबीर की जनहित याचिका को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि प्रताप नायक से प्रबीर का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है और वे उस व्यक्ति को लेकर कोई याचिका नहीं दायर कर सकते जिनसे उनका कोई ताल्लुक नहीं है। उच्च न्यायालय से मदद न मिलने पर प्रबीर ने हिम्मत नहीं हारी और हार भी नहीं मानी, वे सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे और न्याय की गुहार लगते हुए याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने उड़ीसा उच्च न्यायालय को प्रबीर की याचिका पर सुनवाई करने और न्योचित फैसला देने का निर्देश दिया। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उच्च न्यायालय ने प्रबीर की याचिका पर सुनवाई की और अपने फैसले में प्रताप नायक को ८ लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया। उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, सारी रकम १० साल की मियादी जमा के लिए एक बैंक में रखी जाएगी और इस रकम पर बैंक से मिलने वाले मासिक ब्याज का ७५% हिस्सा प्रताप के माता-पिता को देने का प्रबंध किया गया, ताकि वे प्रताप के इलाज और दूसरी ज़रूरतों पर होने वाले खर्च का वहन कर सकें।

प्रताप नायक मामले की वजह से प्रबीर दास की ख्याति दुनिया-भर में फ़ैल गयी। इस मामले में पीड़ित को इन्साफ दिलाने के बाद प्रबीर पर काम का बोझ काफी बढ़ गया। उड़ीसा राज्य के अलग-अलग हिस्सों से लोग उनके पास मदद की गुहार लेकर आने लगे। बड़ी महत्वपूर्ण बात ये है कि जो लोग प्रबीर के पास आते वे उनकी मदद तो करते ही, वे उन लोगों की मदद भी करते जो उनके पास नहीं आते थे लेकिन प्रबीर को इन लोगों के साथ हुई नाइंसाफी का पता चल जाता था। जैसे ही प्रबीर को पता चलता कि किसी के साथ नाइंसाफी हुई है या फिर मानव अधिकार का उल्लंघन हुआ तब प्रबीर मामले को अपने हाथों में लेते और पीड़ितों को इन्साफ दिलाने के लिए कानूनी जंग लड़ते।

एक और मामले जिसने प्रबीर की लोकप्रियता और ख्याति को चार चाँद लगाये थे वो था कालाहांडी जिले में डाक्टरों की लापरवाही का एक मामला। हुआ यूँ था कि जनवरी, २००७ में कालाहांडी जिले के धरमगढ़ इलाके में एक गैर-सरकारी संस्था ने प्रशासन की देख-रेख में एक नेत्र-चिकित्सा शिविर का आयोजन किया था। नेत्र-चिकित्सा शिविर गरीबों के लिए था और लोगों से बिना फीस लिए ही डॉक्टर उनके आँखों की जांच कर रहे थे। आँखों की जांच के अलावा मोतियाबिंद के ऑपरेशन का भी प्रबंध था। कई मरीजों की आँखों को ऑपरेशन भी किया गया। लेकिन, डॉक्टरों की लापरवाही की वजह से कुछ मरीजों की आँखों की रोशनी चली गयी। जिन लोगों की आँखों की रोशनी चली गयी वे सभी उमरदराज थे और गरीब भी। जैसे ही इस घटना की जानकारी प्रबीर को मिली उन्होंने पीड़ितों को इन्साफ और मुआवजा दिलाने के लिए उड़ीसा उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर दी। याचिका दायर करने का मकसद न सिर्फ पीड़ितों को इन्साफ और मुआवजा दिलवाना था बल्कि ये भी सुनिश्चित करवाना था कि इस तरह की घटनाएं दुबारा न हों। प्रबीर की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने पीड़ितों को मुआवजा देने का निर्देश दिया और साथ ही इस तरह की घटनाएं दुबारा न हों इसके लिए सरकार को सख्त दिशा-निर्देश दिए। स्वास्थ-चिकित्सा शिविरों के आयोजन के लिए कड़े नियम-कायदे तय करने का भी आदेश दिया गया। प्रबीर ने बताया कि नेत्र-चिकित्सा शिविर में आँखों की रोशनी गवाने वाले लोगों को ये नहीं मालूम था कि अदालत में किसने उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ी है। लेकिन, जैसे ही लोगों को मालूम हुआ कि प्रबीर ने उन्हें इन्साफ दिलाया है तब सभी ने प्रबीर को आशीर्वाद दिया, दुआएं दीं। प्रबीर कहते हैं, “उन गरीब लोगों के आशीर्वाद से मुझे बहुत खुशी हुई और मेरी ताकत बढ़ी।“ प्रबीर के अनुसार, एक स्थानीय पत्रकार ने पीड़ितों को बताया था कि प्रबीर दास ने ही उन्हें मुआवजा दिलवाया है। इसके बाद पीड़ितों ने कैमरे के सामने प्रबीर को दुआएं दीं। तब एक खबरिया चैनल पर प्रबीर को पीड़ितों के दुआ देने की खबर दिखाई गयी तभी वे लोगों के आशीर्वचन सुन पाए। प्रबीर ने कहा, “तगड़ी रकम वाला मेहनताना भी उन आशीर्वचनों के सामने बेकार है।“


इसी तरह के कई मामले प्रबीर ने अपने हाथों में लिये हैं और पीड़ितों को इन्साफ दिलाया है। इन्हीं मामलों में से एक मामला है – नयागढ़ जिले में एक आंगनवाड़ी केंद्र में हुए एक हादसे का। एक भवन, जहाँ एकआंगनवाड़ी केंद्र चल रहा था, उसकी एक दीवार अचानक ढह गयी। दीवार के अचानक गिर जाने से कई बच्चे उसकी चपेट में आ गए। इस हादसे में कई बच्चे ज़ख़्मी हो गए। सात बच्चों की मौत भी हो गयी। इस हादसे की जानकारी मिलते हुई प्रबीर ने उच्च न्यायालय में एक और जनहित याचिका दायर की। इस याचिका की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने हादसे में मारे गए बच्चों के परिजनों को मुआवजा देने का आदेश दिया। इतना ही नहीं उच्च न्यायालय ने सरकार को आंगनवाड़ी केन्द्रों में बच्चों की सुरक्षा के लिए सख्त दिशा-निर्देश जारी किये और वे सारे कदम उठाने को कहा जिससे इस तरह की घटना कहीं पर भी दुबारा न हो।

और एक घटना में प्रबीर ने बलात्कार का शिकार हुई एक दलित युवती की जान बचाई थी। पीपली में कुछ बदमाशों ने एक दलित युवती का बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या करने की कोशिश की थी। किसी तरह से उस युवती की जान बच गयी थी, लेकिन उसकी हालत काफी नाजुक थी। जैसे ही प्रबीर को युवती की हालत के बारे में पता चला उन्होंने एक बार फिर से उच्च न्यायालय की चौखट पर दस्तक दी। प्रबीर की गुहार पर उच्च न्यायालय ने बलात्कार के मामले के जांच करने और दोषियों को पकड़ कर उनके खिलाफ कार्यवाही करने का आदेश दिया। इतना ही नहीं न्यायालय ने पीड़ित युवती का इलाज करवाने के भी आदेश दिए। न्यायालय के पर्यावेक्षण में डॉक्टरों की एक टीम ने उस युवती का इलाज किया था। इस इलाज की वजह से उस युवती की जान बच पायी थी। प्रबीर कहते हैं, एक बहुत ही गरीब लड़की का इलाज न्यायालय की देख-रेख में करवाया जाना राज्य के इतिहास में अपने किस्म की पहली और बहुत बड़ी घटना थी।

भारत में मानवरहित रेलवे क्रासिंग पर भी सुरक्षा के इंतज़ाम करवाने में प्रबीर दास की काफी महत्वपूर्ण भूमिका है। उड़ीसा में मानवरहित एक रेलवे क्रासिंग पर एक बार एक बहुत बड़ा हादसा हो गया। 19 महिला कृषि मजदूरों को ले जा रहा एक ऑटो रेलवे क्रासिंग पर इंटरसिटी एक्सप्रेस की चपेट में आ गया। इस हादसे में 13 महिलाओं की मौत हो गयी। प्रबीर ने एक बार फिर से जनहित याचिका का सहारा लिया और पीड़ितों के परिजनों को मुआवजा दिलवाया। इतना ही नहीं प्रबीर ने न्यायालय से मानव रहित रेलवे क्रासिंग पर लोगों की सुरक्षा के लिए फौरी तौर पर कदम उठाने के लिए रेल मंत्रालय को आदेश देने का भी आग्रह किया। प्रबीर की गुहार पर न्यायालय ने रेल मंत्रालय से सारे रेलवे क्रासिंग पर लोगों की सुरक्षा के लिए तगड़े इंतज़ाम करने और हादसों की आशंकाओं को पूरी तरह से मिटाने का काम करने का निर्देश दिया । न्यायालय के आदेश पर रेल मंत्रालय ने मानवरहित रेलवे क्रासिंग लोगों की सुरक्षा के लिए इंतज़ाम करने शुरू किये।

प्रबीर दास इस बात के लिए भी मशहूर हो चुके हैं कि वे ऐसे मामले अपने हाथों में लेते हैं जिनसे किसी भी वकील को कोई फायदा नहीं होता। प्रबीर ये नहीं देखते कि मामले को अपने हाथ में लेने से उन्हें कुछ मिलेगा या नहीं, उनका मकसद सिर्फ इतना होता है कि पीड़ित को इन्साफ मिलना चाहिए। एक बार प्रबीर ने एक ऐसा मामला अपने हाथ में लिया जहाँ सामूहिक बलात्कार का शिकार एक महिला इन्साफ के लिए सालों से तड़प रही थी। बलात्कार के इस मामले पर निचली अदालत में सुनवाई ही नहीं हो रही थी। मामला १६ सालों से खुर्दा जिले की एक अदालत में ही लंबित पड़ा हुआ था। प्रबीर ने उच्च न्यायालय से हस्तक्षेप करने और पीड़ित महिला को इन्साफ दिलाने की अर्जी दी। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत को बलात्कार के इस मामले में सुनवाई शुरू करने और न्योचित आदेश देने का निर्देश दिया। सुनवाई के बाद निचली अदालत ने आरोपियों को बलात्कार का दोषी पाया और उन्हें सज़ा सुनाई।

अति महत्वपूर्ण बात ये है कि गरीब और अशिक्षित लोगों को इन्साफ दिलवाने के लिए प्रबीर ने अपनी ज़िंदगी में कई सारे त्याग किये हैं। अदालतों में गरीबों के हक़ की लड़ाई लड़ते-लड़ते उन्हें शादी करने का समय ही नहीं मिला। न ही वे अपने लिए कोई मकान या गाड़ी खरीद पाए हैं। न उनके नाम कोई ज़मीन है ना जायजाद। उनके साथी और मित्र कहते हैं कि अगर प्रबीर कॉर्पोरेट या क्रिमिनल एडवोकेट बनते तो आज वे करोड़पति होते, लेकिन उन्होंने समाज-सेवा का रास्ता चुना। और, हकीकत भी यही है, प्रबीर के लिए धन-दौलत कोई मायने नहीं रखती। वे गरीबों, निर्धनों, अशिक्षित लोगों को इन्साफ दिलाने में ही अपनी खुशी देखते हैं।

एक सवाल के जवाब में प्रबीर ने कहा, “बहुत ही कम लोगों को मौका मिलता है लोगों की सेवा करने का, बहुत ही कम लोगों को मौका मिलता है अपनी ज़िंदगी अपने चुने सिद्धांतों और अपनी तय की हुई विचारधारा के मुताबिक जीने का। बहुत ही कम लोग ऐसे होते हैं जोकि अपनी मनमर्जी के मुताबिक जी पाते हैं। मैं खुश हूँ कि मैं वो कर रहा हूँ जो मुझे अच्छा लगता है।“ प्रबीर दास ने ये भी कहा, “मेरी ज़िंदगी कैसी होगी इसका फैसला मैंने खुद किया है। और, मुझे इस तरह की ज़िंदगी जीने में बहुत कष्ट भी हो रहा है। कई सारी तकलीफें भी हैं, लेकिन अपने सिद्धांतों के लिए तकलीफें उठाने में भी आनंद मिलता है।“ गरीबों और अशिक्षित लोगों की नज़र में ‘इन्साफ दिलाने वाला मसीहा’ बन चुके प्रबीर दास कहते हैं, “मैं अविवाहित हूँ। मेरे खर्चे भी बहुत ही कम हैं। मेरी कोशिश रहती है कि मैं कम से कम खर्चा करूं। मेरा ज्यादा खर्च किताबें खरीदने में ही होता है। मेरी माँ को पेशन मिलती है, वो भी मेरी मदद कर देती हैं। मेरा भाई भी मदद कर देता है। मैं मानव अधिकार के संरक्षण के लिए काम कर रहे कुछ गैर सरकारी संगठनों को कानूनी सलाह देता हूँ और इसे लिए मुझे फीस मिलती है। इन सब से मेरा काम चल जाता है।“ प्रबीर दास अपने आगे की ज़िंदगी भी वैसे ही जीना चाहते है जैसे कि वे अब जी रहे हैं । वे जोर देकर ये कहते हैं कि “I want to work without any ambition, without any expectation and without any designation.”

71 वर्षीय सुरेश ने बनाया एक असाधारण आशियाना

"डी सुरेश चेन्‍नई के किलपॉक में न्‍यू 17 वासू स्‍ट्रीट में अपनी पत्‍नी, पुत्र और पुत्रवधु के साथ रहते हैं, जो उनके प्रयासों में उनकी सहायता तो करते ही हैं साथ ही उन्‍हें प्रोत्‍साहित करने का भी काम करते हैं।"

सुरेश 45 साल तक नौकरी करने के बाद 2015 में सेवानिवृत्‍त हो गए। सुरेश आईआईटी मद्रास और आईआईएम से स्‍नातक हैं। इन्होंने एमडी और सीईओ सहित अनेक पदों पर टेक्‍सटाइल मार्केटिंग में काम भी किया है। साथ ही SAKS Ancillaries Ltd की स्‍थापना में अपने उद्यम संबंधी ज्ञान का उपयोग किया और एक अन्‍य उद्यम की अगुआई की। अब इनके जान-पहचान वाले इन्हें सोलर सुरेश के नाम से जानते हैं।

सुरेश कहते हैं, "यह सही-सही याद कर पाना मुश्किल है, कि कब मेरे मन में “self-sufficient home” (स्व निर्भर घर) बनाने का विचार आया, लेकिन जहां तक मुझे याद है कि इस सोच को पंख 20 साल पहले मेरी जर्मनी यात्रा के दौरान लग गये थे। जब मैंने जर्मनी में छतों पर लगे सौर ऊर्जा संयंत्र देखे, तो मैंने सोचा कि जब जर्मनी जैसा कम धूप वाला देश इन्‍हें लगा सकता है, तो भारत क्‍यों नहीं, जहां सौर ऊर्जा प्रचुरता में है।" और सुरेश के इस आइडिया ने उन्हें आगे बढ़ने और बिजली बनाने के लिए छत पर एक सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने के लिए विक्रेता खोजने को प्रेरित किया।

सुरेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी छत पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने वाले उचित विक्रेता की खोज और सौर ऊर्जा इनवर्टर लगाने की। वे कहते हैं, कि टाटा बीपी सोलर, सू कैम और कई बड़े नामों ने उनके काम में कोई दिलचस्‍पी और प्रोत्‍साहन नहीं दिखाया। फिर अपने घर के लिए सौर ऊर्जा संयंत्र डिज़ाइन करने और बनाने के लिए उन्होंने एक साल तक कड़ी मेहनत की। जनवरी 2012 तक सुरेश ने अपना 1 किलोवॉट का संयंत्र लगा लिया था और छत पर सौर विद्युत उत्‍पन्‍न करना आधिकारिक तौर पर शुरू कर दिया। संयंत्र लगाने के लिए मात्र एक छायामुक्‍त जगह चाहिए थी, यानी कि प्रति किलोवॉट के लिए 80 वर्गफुट, जिसके लिए छत बेहतर विकल्प थी और उन्होंन छत पर ही अपने सपनों को आकार देना शुरू कर दिया। कई विशेषज्ञ और तमिलनाडु ऊर्जा विकास प्राधिकरण के चेयरमेन जैसे वरिष्‍ठ सरकारी अधिकारी सुरेश के संयंत्र को काम करता देखने के लिए आये।
"अप्रैल 2015 तक सुरेश ने अपनी solar electricity को 3 किलोवॉट तक बढ़ा दिया और अब यह 11 पंखे, 25 लाइटें, एक फ्रिज, दो कम्‍प्‍यूटर, एक वॉटर पंप, दो टीवी, एक मिक्‍सर-ग्राइंडर, एक वॉशिंग मशीन और एक इंवर्टर एसी को ऊर्जा देता है।"

सुरेश की मेहनत और लगन ने कमाल कर दिया, जिस काम को करने में काफी लंबा समय बीता उसी काम को करने में अब सिर्फ एक दिन का समय लगता है। सुरेश के अनुसार मेंटीनेंस पैनल्स की हर तीन महीने में सफाई ज़रूरी है। इस संयंत्र की सबसे खास बात ये है, कि ये हल्की बारिश के दौरान भी बिजली पैदा करता है, क्‍योंकि यह पैनलों पर पड़ने वाली यूवी किरणों पर आ‍धारित है न कि गर्मी या प्रकाश की तेजी पर। तेज़ बारिश के समय (जोकि चेन्‍नई में कम ही होती है) लोड बैटरी द्वारा उठाया जाता है, जिसे चार्ज करने के लिए सौर ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाता है न कि ग्रिड का।

"एक ऐसे शहर में रहने के बावजूद जो, कि बिजली की समस्‍या के लिए बदनाम है उस शहर में मैंने पिछले चार वर्ष से एक मिनिट भी बिजली गुल नहीं देखी है। मैं हर दिन 12 से 16 यूनिट उत्‍पादन कर बिजली का खर्च बचाता हूं। यह एक टिकाऊ, वहनीय, व्‍यवहार्य परियोजना है, जो कि वर्तमान में बैटरी के बदलने सहित छह प्रतिशत कर-मुक्‍त मुनाफ़ा दे रही है: सोलर सुरेश"
बायोगैस सेटअप और रेन वॉटर हार्वेस्टिंग उपकरण

"बायोगैस एक सुरक्षित गैस है, जिससे विस्‍फोट या गैस के रिसाव जैसा कोई ख़तरा नहीं होता है। यहां तक कि गैस का नॉब खुला रह जाने पर भी। साथ ही यह प्रदूषणकारी भी नहीं है और खनिज ईंधन पर निर्भरता को कम करके यह देश के लिए विदेशी मुद्रा भी बचाती है।"

सुरेश ने प्रतिदिन लगभग 10 कि ग्रा जैविक कचरे का इस्‍तेमाल करके और 20 कि ग्रा गैस हर महीने उत्‍पादित करने के लिए एक घरेलू बायोगैस संयंत्र लगाकर अपनी बाहरी गैस की आवश्‍यकताओं का समाधान करने का निर्णय किया है। उन्‍होंने यह सिद्ध करके इस मिथक को भी तोड़ा है, कि कोई बदबू उत्‍पन्‍न होती है। संयंत्र में पका और बिन पका भोजन, खराब भोजन, सब्जियां और फलों के छिलके आदि डाले जाते हैं। इन सबके बीच सिर्फ एक ही बात याद रखने की है, कि इसमें साइट्रस फल जैसे नीबू, संतरा, और प्‍याज, अंडे के छिलके, हड्डियां या साधारण पत्तियां इसमें नहीं डालनी चाहिए।

इस संयंत्र से दो उपयोगी संसाधन उत्‍पन्‍न होते हैं, कुकिंग गैस और जैविक खाद। सुरेश ने अपने आसपास में कुछ ऐसे सब्‍जी विक्रेताओं को खोज निकाला है, जिन्‍हें अपने कचरे के निस्‍तारण के लिए धन खर्च करना पड़ता था, लेकिन अब ऐसा नहीं होता क्योंकि अब वे अपना कचरा सुरेश के बायोगैस संयंत्र पर छोड़ देते हैं। इन सबके बीच सबसे अच्छी बात ये है, कि बायोगैस एक सुरक्षित गैस है, जिससे विस्‍फोट या गैस के रिसाव जैसा कोई ख़तरा नहीं होता है। यहां तक कि गैस का नॉब खुला रह जाने पर भी। साथ ही यह प्रदूषणकारी भी नहीं है और खनिज ईंधन पर निर्भरता को कम करके यह देश के लिए विदेशी मुद्रा भी बचाती है।

साथ ही सुरेश ने अपना रेनवॉटर हार्वेस्टिंग संयंत्र 20 वर्ष पहले लगाया था। इसके बारे में चर्चा करते हुए वे कहते हैं, कि "इसमें भी दैनिक मेंटीनेंस की ज़रूरत नहीं है, सिर्फ छत की आवश्यकता होती है। संयंत्र को सिर्फ मानसून से पहले साफ करना होता है।"

इन्हीं सबके साथ सुरेश ने मोटे बांस के पेड़ों की बाड़ और लताओं से अपने घर को घेरकर एक जंगल जैसा रूप प्रदान किया है। उनकी छत ऐसी है, जिसे देखकर यह एहसास होता है, कि हम किसी जंगल में खड़े हैं, जोकि भीड़ भरे शहर की आपाधापी का हिस्‍सा नहीं है। छत पर आने के बाद आसपास की गगनचुंबी इमारतें और ट्रैफिक दिखाई ही नहीं गेता है, यदि कुछ होता है तो सिर्फ हरियाली और कुछ नहीं। सुरेश का घरेलू जंगल बेहद प्रशंसनीय और अद्भुत है। इस गार्डन की शुरूआत हुई तो भिण्‍डी और टमाटर की खेती के साथ थी, लेकिन आज की तारीख में यह बाग हो गया है। अब सुरेश इनमें जैविक ढंग से 15 से 20 प्रकार की सब्जियां उगाते हैं। घर में होने वाली अधिकांश कुकिंग की आवश्यकताएं उनके किचन गार्डन से ही पूरी हो जाती हैं।

"छत पर लगी solar electricity की मदद सेे सुरेश अच्छा-खासा धन बचा रहे हैं। इससे पहले उनके घर में बिजली की खपत 8,100 यूनिट थी, लेकिन 1 किलोवॉट का संयंत्र लगाने पर खपत 2016 तक घटकर 5,550 यूनिट ही रह गई है और 3 किलोवॉट का संयंत्र लगाने पर यह खपत 3,450 यूनिट हो गई।
सुरेश अपने किचिन गार्डन में

सुरेश अपने इस सफल और क्रांतिकारी प्रयास को अवेतनिक आधार पर शिक्षा और प्रोत्‍साहन के जरिए अधिक से अधिक लोगों, स्थानों और संस्‍थाओं तक पहुंचाने की कोशिश में लगे हुए हैं। अब तक सुरेश ने बंगलूरू, हैदराबाद और चेन्‍नई में तीन ऑफिसों, चार स्‍कूलों और सात घरों में solar electricity लगाये हैं, साथ ही हैदराबाद के छ: संस्‍थानों में बायोगैस संयंत्र और चेन्‍नई में छ: स्‍थानों पर किचन गार्डन लगाये हैं और लोगों ने आगे बढ़ कर इनके प्रयासों का स्वागत किया है।

सुरेश को अब उनकी पहलकदमियों के लाभों पर प्रकाश डालने के लिए चेन्‍नई में कई संस्‍थानों द्वारा आमंत्रित किया जाता है। न्‍यू 17 वासु स्‍ट्रीट अब स्‍कूल के छात्रों के लिए स्‍टडी टूर के लिए एक लोकप्रिय गंतव्‍य है और उनके संयंत्र को काम करते देखने के लिए 500 से अधिक लोग उनके घर जा चुके हैं। भविष्‍य में, सुरेश दो परियोजनाओं से जुड़ेंगे– सौर ऊर्जा का प्रयोग कर वातावरण की हवा से पेयजल प्राप्‍त करना और दुपहिया वाहनों के लिए एक डिजिटल कुंजी विकसित करना, जिसमें वाहन को केवल चार अंकों का एक विशिष्‍ट पासवर्ड डालकर ही स्‍टार्ट किया जा सकेगा

आँखों की रोशनी चली गई पर सफलता की राह नहीं छोड़ी, बने दुनिया के पहले ‘‘ब्लाइंड ट्रेडर’’

इंसान की ज़िंदगी में मुसीबत किसी भी रूप में कभी भी आ सकती है। कई बार तो इतनी बड़ी मुसीबत आ पड़ती है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कई लोग इन मुसीबतों से इतने परेशान और हताश हो जाते हैं कि उनकी ज़िंदगी से जोश, उम्मीद , विश्वास जैसे जज़बात ही गायब हो जाते हैं। लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि अगर इंसान के हौसले बुलंद हो और उसकी इच्छा शक्ति मजबूत, तो बड़ी से बड़ी मुश्किल भी छोटी लगने लगती है।

मुंबई के आशीष गोयल एक ऐसे ही शख्स का नाम है जिसने बुलंद हौसलों और मजबूद इच्छा शक्ति से ऐसी ही एक अकल्पनीय और बड़ी मुसीबत को मात दी।


आशीष ने अपने जीवन में बड़े-बड़े हसीन और रंगीन सपने देखे थे। उसे पूरा भरोसा भी था कि वो अपनी काबिलियत के बल पर अपने सपने साकार कर लेगा। लेकिन, उसकी ज़िंदगी में एक ऐसी बड़ी मुसीबत आयी जिसकी कल्पना वो अपने सबसे बड़े दुस्स्वप्न में भी नहीं कर सकता था। ९ साल की उम्र में उसकी आँखों से रोशनी कम होने लगी। रोशनी लगातार कम होती गयी। २२ साल की उम्र में आशीष पूरी तरह दृष्टिहीन हो गया। लेकिन, उसने हार नहीं मानी और आगे बढ़ा। पढ़ाई-लिखाई की। दृष्टिहीनता को अपनी प्रगति में बाधक बनने नहीं दिया। और, आशीष ने जो कामयाबी हासिल की वो आज लोगों के सामने प्रेरणा का स्रोत बनकर खड़ी है।

आशीष गोयल का जन्म मुंबई में हुआ। परिवार संपन्न था और माता-पिता शिक्षित थे। जन्म के समय आशीष बिलकुल सामान्य था। बचपन में उसकी दिलचस्पी पढ़ाई-लिखाई में कम और खेल-कूद में ज्यादा थी। खेलना-कूदना उसे इतना पसंद था कि उसने महज़ पांच साल की उम्र में तैरना, साइकिल चलाना, निशाना लगाना और घोड़े के सवारी करना सीख लिया था। आशीष को क्रिकेट में भी काफी दिलचस्पी थी। उसका मन करता कि वो सारा दिन क्रिकेट के मैदान में ही बिताये। लेकिन, उसका सपना था टेनिस का चैंपियन खिलाड़ी बनना।

लेकिन, जब आशीष ९ साल का हुआ तब अचानक सब कुछ बदलने लगा। सब कुछ असामान्य होने लगा। डाक्टरों ने आशीष की जांच करने के बाद उसके माता-पिता को बताया कि आशीष को आँखों की एक ऐसी बीमारी हो गयी है जिससे धीरे-धीरे उसके आँखों की रोशनी चली जाएगी। और हुआ भी ऐसे ही। धीरे-धीरे आशीष के आँखों की रोशनी कम होती गयी। टेनिस कोर्ट पर अब उसे दूसरे पाले की गेंद नहीं दिखाई देते थी। किताबों की लकीरें भी धुंधली होने लगी। धीरे-धीरे उसे पास खड़े अपने माता-पिता भी ठीक से नहीं दिखने लगे। अचानक सब कुछ बदल गया। एक प्रतिभाशाली और होनहार बालक की दृष्टि अचानक ही कमज़ोर हो गयी । आँखों पर मोटे-मोटे चश्मों के बावजूद उसे बहुत ही कम दिखाई देता था। दृष्टि कमज़ोर होने ही वजह से आशीष को मैदान से दूर होना पड़ा। खेलना-कूदना पूरी तरह बंद हो गया।

अचानक ही आशीष अलग -थलग पड़ गया। उसके सारे दोस्त सामान्य बच्चों की तरह काम-काज, पढ़ाई-लिखाई और खेलकूद कर रहे थे। लेकिन, आशीष अक्सर ठोकरें खाता, चलते-चलते गिर-फिसल जाता। सब कुछ धुंधला-धुंधला हो गया। सपने भी अन्धकार में खो गये। चैंपियन बनना तो दूर की बात मैदान पर जाना भी मुश्किल हो गया।फिर भी आशीष ने माँ-बाप की मदद और उनके परिश्रम की वजह से पढ़ाई-लिखाई जारी रही।

बड़ी मेहनत से स्कूल की पढ़ाई पूरी कर आशीष जब कालेज पहुंचा तो उसके लिए रास्ते और भी मुश्किल-भरे हो गये। उसके सारे दोस्त और साथी अपने भविष्य और करियर को लेकर बड़ी-बड़ी योजनाएँ बना रहे थे। कोई बड़ा खिलाड़ी बनाना चाहता , तो कोई इंजीनियर। कईयों ने डाक्टर बनने के इरादे से पढ़ाई आगे बढ़ाई।

लेकिन, लगातार कमजोर होती आँखों की रोशनी आशीष की परेशानियां बढ़ा रही थी। दृष्टिहीनता की वजह से वो न खिलाड़ी बन सकता था और न ही इंजीनियर या फिर डाक्टर। उसके लिए भविष्य और भी मुश्किलों से भरा नज़र आ रहा था।

किशोरावस्था में दूसरे दोस्त जहाँ पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ मौज़-मस्ती कर रहे थे , आशीष अकेला पड़ गया था। नए सामजिक माहौल में एकाकी होकर मानसिक पीड़ा का अनुभव कर रहा था आशीष। वो अक्सर 'भगवान' से ये सवाल पूछने लगा कि आखिर उसी के साथ ऐसा क्यों हुआ ?

इसी अवस्था में आध्यात्मिक गुरु बालाजी ताम्बे के वचनों ने आशीष में एक नयी उम्मीद जगाई। उन्होंने आशीष से कहा कि समस्या को सिर्फ समस्या की तरह मत देखो , समस्या का हल निकालने की कोशिश करो। इस कोशिश से ही कामयाबी मिलेगी। आध्यात्मिक गुरु ने आशीष से ये भी कहा कि उसकी सिर्फ एक ही इन्द्रीय ने काम करना बंद किया है और शरीर के बाकी सारे अंग बिलकुल ठीक हैं। इस वजह से उसे अपने बाकी सारे अंगों का सदुपयोग करते हुए आगे बढ़ना चाहिए ना कि निराशा में जीना।

आध्यात्मिक गुरु की इन बातों से प्रभावित आशीष ने नयी उम्मीदों, नए संकल्प और नए उत्साह के साथ काम करना शुरू किया। आशीष ने दृष्टिहीनता पर अफ़सोस करने के बजाय जिंदगी में कुछ बड़ा हासिल करने की ठान ली। दृष्टिहीनता के बावजूद आशीष ने नए सपने संजोये और उन्हें साकार करने के लिए मेहनत करना शुरू किया।

आशीष के माता-पिता के अलावा एक और बहन ने पढ़ाई में उसकी मदद की। ये बहन आगे चलकर डर्मिटोलॉजिस्ट बनीं। बिज़नेस, इकोनॉमिक्स और मैनेजमेंट की पढ़ाई में आशीष की मदद करते करते ये बहन भी इन विषयों की जानकार बन गयी।

लेकिन, आशीष की दूसरी बहन गरिमा भी उसी बीमारी का शिकार थी जिसने आशीष की आँखों की रोशनी छीनी थी। आशीष की तरह ही गरिमा ने भी अपने परिवारवालों की मदद से पढ़ाई-लिखाई जारी रखी और आगे चलकर लेखक-पत्रकार बनीं। गरिमा अब आयुर्वेदिक डाक्टर हैं और इन दिनों आध्यात्मिक गुरु बालाजी तांबे की संस्था में काम कर रही हैं।

ये आशीष की मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि उसने मुंबई के नरसी मोनजी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट स्टडीज की अपनी क्लास में सेकंड रैंक हासिल किया। आशीष को उसके शानदार प्रदर्शन के लिए डन एंड ब्रैडस्ट्रीट बेस्ट स्टूडेंट अवार्ड दिया गया। लेकिन, नरसी मोनजी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट स्टडीज में प्लेसमेंट के दौरान एक कॉर्पोरेट संस्था के अधिकारियों ने आशीष को सरकारी नौकरी ढूंढने की सलाह दी थी। इन अधिकारियों का कहना था कि केवल सरकार नौकरियों में विकलांग लोगों के लिए आरक्षण होता है। चूँकि आशीष को अपने आध्यात्मिक गुरु की बातें याद थीं वो निराश नहीं हुआ और अपने काम को आगे बढ़ाया। आशीष को उसकी प्रतिभा के बल पर आईएनजी वैश्य बैंक में नौकरी मिल गयी। लेकिन , इस नौकरी ने आशीष को पूरी तरह से सन्तुष्ट नहीं किया। वो ज़िंदगी में और भी बड़ी कामयाबी हासिल करने के सपने देखने लगा।

आशीष ने नौकरी छोड़ दी और उन्नत स्तर की पढ़ाई के लिए अमेरिका के व्हार्टन स्कूल ऑफ बिजनेस में दाखिल लिया। बड़े और दुनिया-भर में मशहूर इस शैक्षणिक संस्थान से आशीष ने एमबीए की पढ़ाई की। महत्वपूर्ण बात ये है कि व्हार्टन स्कूल ऑफ बिजनेस में दाखिला पाना आसान बात नहीं है। अच्छे से अच्छे और बड़े ही तेज़ विद्यार्थी भी इस संस्थान में दाखिल पाने से चूक जाते हैं।

एमबीए की डिग्री हासिल करने के बाद आशीष को दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित बैंकिंग संस्थानों में एक जेपी मोर्गन के लंदन ऑफिस में नौकरी मिल गयी। आशीष जेपी मोर्गन में काम करते हुए दुनिया का पहला दृष्टिहीन ट्रेडर बन गया। ये एक बड़ी कामयाबी थी। इस कामयाबी की वजह से आशीष का नाम दुनिया-भर में पहले दृष्टिहीन ट्रेडर का रूप में मशहूर हो गया। दृष्टिहीनता को आशीष ने अपनी तरक्की में आड़े आने नहीं दिया। अपनी प्रतिभा और बिज़नेस ट्रिक्स से सभी को प्रभावित किया। अपने बॉस को भी कभी निराश होने नहीं दिया।

2010 में आशीष को विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा आशीष को एक समारोह में ये पुरस्कार दिया गया। आशीष को कई संस्थाओं ने भी सम्मान और पुरस्कार दिए। आशीष के बारे में एक दिलचस्प बात ये भी है कि वे नेत्रहीनों के लिए बनाई जाने वाली छड़ी का बहुत बढ़िया तरीके से इस्तेमाल करते हैं। और तो और उनकी बहन गरिमा तो छड़ी का इस्तेमाल ही नहीं करतीं। कई बार कई लोगों को शक होता है कि गरिमा वाकई दृस्तिहीन हैं या नहीं।

आशीष और गरिमा दोनों इन दिनों विकलांग लोगों को उनकी ताकत का एहसास दिलाने के लिए अपनी और से हर संभव प्रयास कर रहे हैं। दोनों का कहना है कि विज्ञान और प्रोद्योगिकी में इतनी तरक्की हो गयी है कि विकलांग व्यक्तियों को अब पहले जितनी तकलीफें नहीं होतीं।

एक और महवपूर्ण बात दृष्टिहीन होने के बावजूद आशीष स्क्रीन रीडिंग सॉफ्टवेयर की मदद से कंप्यूटर पर अपने ई मेल पढ़ते है। सारी रिपोर्ट्स का अध्ययन करते हैं। दूसरों के प्रेजेंटेशन समझ जाते हैं। और तो और अरबों रुपयों के ट्रांसक्शन्स की जानकारी रखते हैं और उन्हें संचालित भी। फुर्सत के समय में आशीष दूसरे दृष्टिहीन लोगों के साथ क्रिकेट खेलते हैं और टैंगो भी बजाते हैं। अपने कुछ दोस्तों के साथ वे क्लब जाकर पार्टी भी करते हैं।

जज्बा और जुनून का दूसरा नाम ‘‘गोदावरी सिंह’’, 35 साल से जुटे हैं काशी की अनोखी कला को बचाने में

कहते हैं एक समाज दुनिया का है, एक समाज देश का, एक अमीरों का, एक गरीबों का और एक जाति का समाज है। लेकिन इन सब समाजों से भिन्न एक समाज है बनारस का। सबसे अलग सबसे अलहदा। धर्म, संस्कृति, संगीत, साहित्य, कला और इन सबके साथ हर सांस में बहने वाली गंगा। दुनिया के सबसे पुराने शहरों में शुमार इस नगरी की हर चीज़ अलग और अपने ढंग की है। सोलह महाजनपदों में आने वाले इस शहर की हवा में कुछ तो ऐसा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही काम करते लोगों का उत्साह कभी कम नहीं होता। ऐसी ही एक कला है जिस पर हर बनारसी को फ़क्र है। आज भी उस कला का डंका पूरी दुनिया में बजता है। इस कला ने पूरी दुनिया में बनारस को एक अलग पहचान दी। काष्ट कला यानी लकड़ी के खिलौने का कारोबार। जी हां, हमारी नई पीढ़ी के लिए लकड़ी के खिलौने जरुर नए हों, लेकिन हममें से बहुत से ऐसे लोग होंगे, जिनका बचपन इन खिलौनों के साथ बीता होगा। कभी गुड्डे -गुड़िया तो कभी राजा-रानी की शक्ल में ये खिलौने बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करते थे। घर की आंगन में लट्टू नचाते और खड़खड़ऊवा बजाते बच्चों का शोर आज भी हमारे कानों में सुनाई पड़ता है। लेकिन वो दिन अब लद चूके हैं। आधुनिकता के इस दौर में लकड़ी के खिलौनों की जगह प्लास्टिक के बने महंगे खिलौनों ने ले ली। बच्चों की पसंद लकड़ी के बने गुड्डे गुड़िया नहीं बल्कि प्लास्टिक के बने ट्वॉय और टैडीवियर्स है। बदले दौर का ही असर है कि काशी की ये नायाब कला लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी है। ऐसे में दम तोड़ते खिलौना उद्योग को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं 75 साल के गोदावरी सिंह। उम्र के आखिर मंजिल पर खड़े गोदावरी सिंह को यकीन है वक्त फिर बदलेगा। फिर घर-घर में लकड़ी के खिलौने होंगे। गोदावरी सिंह के संघर्ष की गाथा आपको बताए, इससे पहले बनारस के इस बेमिसाल कला से आपको वाकिफ करा देते हैं....


दरअसल बनारस दुनिया का ऐसा इकलौता शहर है, जहां दस्तकारी के साथ हाथ का काम करने के तकरीबन 60 तरह के दूसरे कारोबार सदियों से देश ही नहीं, बल्कि दुनिया में अपनी धाक जमाये हुए थे, लेकिन आज इनमें से ज़्यादातर कारोबार या तो बंद हो गए या बंद होने की कगार पर हैं। इन्हीं में से एक है बनारस का लकड़ी के खिलौनों का कारोबार। अगर हम इन खिलौनों की बात करें तो इनकी बनावट इतनी सुन्दर होती है कि ये आपसे बात करते नज़र आते हैं। यही वजह है कि अपनी तरफ बरबस खींचते ये खिलौने अगर बोल सकते तो अपने गढ़ने वाले की बेबसी भी ज़रूर बयां करते। इन खिलौनों को गढ़ने वाले कलाकार आज मुफलिसी में जी रहे हैं। कभी अरबों में होने वाला ये कारोबार अब लाखों तक सिमट गया है। 


ऐसे में गोदावरी सिंह संकटमोचक बन कर इस पुराने कारोबार को बचाने में जुटे हैं। इस कारोबार की उखड़ती सांसों को बचाने के लिए गोदावरी सिंह ने हर वो जतन किए, जो उनसे हो पा रहा है। गोरखपुर के रहने वाले गोदावरी सिंह आज से लगभग साठ साल पहले बनारस के कश्मीरीगंज मोहल्ले में पहुंचे थे। गोदावरी सिंह के दादा और उनके पिता इसी कारोबार से जुड़े थे। पिता और दादा की सरपरस्ती में ही गोदावरी सिंह ने इस कारोबार की बारीकियों को सीखा। कुछ दिनों तक तो सब ठीक चला, लेकिन फिर अचानक खिलौनों का शोर गुम होने लगा। मंदी और आधुनिकता की काली छाया ने काशी के इस कारोबार पर ग्रहण लगा दिया। 1980 के दशक के बाद से लकड़ी के खिलौना का कारोबार तेजी से घटने लगा। ऐसे में इस डूबते कारोबार को बचाने के लिए गोदावरी सिंह आगे आए। उन्होंने इस उद्योग को अपनी जिंदगी का मिशन बनाया। 75 साल के बुजुर्ग गोदावरी सिंह करीब 35 सालों से दिन रात, खत्म होती इस कला को बचाने में लगे हैं।


गोदावरी सिंह हर उस दरवाजे पर दस्तक देते हैं, जहां से उन्हें थोड़ी सी भी उम्मीद की किरण नजर आती है। गोदावरी सिंह हर उस शख्स से मिलते हैं, जिससे उन्हें मदद की आस जगती है। बनारस में ट्वॉय मैन के रुप में मशहूर गोदावरी सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दरबार में अर्जी लगाई। उन्होंने अपने सांसद और देश के पीएम नरेंद्र मोदी से लुप्त होती इस कला को बचाने की गुहार लगाई। गोदावरी सिंह ने योरस्टोरी को बताया, 
"पिछले एक साल में मैं नरेंद्र मोदी से दो बार मिल चुका हूँ। काशी प्रवास के दौरान मोदी जी ने मुझे मिलने के लिए बुलाया था। मुलाकात के दौरान उन्होंने मेरी बातें गौर से सुनीं और इस कारोबार को बचाने का वादा किया, लेकिन अफसोस है कि अब तक कोई ठोस काम नहीं हुआ है। हालांकि मुझे उम्मीद है कि मोदी साहब मेरे जैसे हज़ारों कारीगरों को मायूस नहीं करेंगे" 


दरअसल लकड़ी के खिलौना कारोबार से बनारस के लगभग तीन हजार कारीगर जुड़े हैं। शहर के कश्मीरीगंज, खोजवां, भेलूपुर, सरायनंदन इलाके में ये कारोबार दशकों से होता चला आया है। लेकिन अब इन कारीगरों के आगे रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है। इस कारोबार के पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण सरकार की उदासीनता है। पिछले कुछ सालों से इन खूबसूरत खिलौनों को बनाने में इस्तेमाल होने वाली कोरइया की लकड़ी की कटाई पर सरकार ने रोक लगा दी। हैरानी की बात यह कि इस लकड़ी का किसी दूसरी चीज में इस्तेमाल भी नहीं होता, बावजूद इसके इस पर रोक लगा दी गई। लिहाजा अब यूकेलिप्टस की लकड़ी का इस्तेमाल होने लगा जिससे खिलौने से चमक गायब हो गई.. इसका परिणाम यह हुआ कि जो खिलौने सदियों से बच्चों को पसंद आते थे, अचानक वो अपनापन खत्म हो गया। गोदावरी सिंह बताते हैं, "सरकार अगर चाहे तो ये कारोबार फिर से खड़ा हो सकता है, लेकिन उसकी नीतियों से शायद ऐसा नहीं लगता।" 


इन कठिनाईयों के बावजूद गोदावरी सिंह हार मानने वालों में नहीं है। पिछले 35 सालों से उनका संघर्ष लगातार जारी है। उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि साल 2005 में गणतंत्र दिवस की झांकी में यूपी की ओर से लकड़ी के खिलौना उद्योग को थीम बनाया गया। इस झांकी में खुद गोदावरी सिंह अपनी पत्नी के साथ मौजूद थे। बेहतरीन कला के लिए इस झांकी को तीसरा स्थान मिला और पूरे देश में यूपी का डंका बजा। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें सम्मान से नवाजा। कला के क्षेत्र में उत्कृष्ठ काम के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और चंद्रशेखर ने भी सम्मानित किया। 


गोदावरी सिंह का जुनून और जज्बा ही है कि उन्होंने इस कला को बचाने के लिए एक समिति बनाई। खुद के पैसे से 300 से ज्यादा लोगों को प्रशिक्षित किया। उन्हें खिलौना बनाने में इस्तेमाल किए जाने वाले औजार दिए। मशीनें लगवाई और आज हजारों लोगों के लिए मसीहा बन चुके हैं। गोदावरी सिंह के संघर्षों का ही असर है कि अब लकड़ी का खिलौना कारोबार बनारस के कारीगरों की बौद्धिक संपदा बन चुकी है। मार्च 2015 में कुछ समाजिक संगठनों की मदद से गोदावरी सिंह ने इस कला को पेटेंट करा लिया। गोदावरी सिंह की चाहत यही है कि ये कारोबार फिर से खड़ा हो जाए। इसके लिए गोदावरी सिंह घर की नई पीढ़ी को आगे ला रहे हैं। अपने बूढ़े नाना के ख्वाबों को पूरा करने के लिए उनका नाती उदयराज लगा हुआ है। एमबीए की पढ़ाई करने वाला उदयराज अब इस कारोबार को हाईटेक करने में लगा हुआ है। आम तौर पर इस कारोबार में गरीब और मजदूर तबके के लोग जुड़े हैं, लिहाजा इसकी मार्केटिंग और ब्रांडिंग नहीं होती पाती।


लेकिन जब से गोदावरी सिंह की नई पीढ़ी इस कारोबार से जुड़ी है, उन्हें एक उम्मीद बंधी है। गोदावरी सिंह की मेहनत का ही असर है कि वाराणसी के फाइव स्टार होटल गेटवे इन ने भी अपनी एक गैलरी काशी की इस अनोखी कला के नाम कर दिया। अब पूरे साल गैलरी में इस कला की नुमाइश होती है। यही कारण है कि बाहर से आने वाले सैलानी भी लकड़ी के खिलौनों में दिलचस्पी ले रहे हैं। यकीनन ये कला हमेशा ही गोदावरी सिंह की मेहनत और उनके जज्बे की कर्जदार रहेगी। उम्मीद है कि काशी की इस कला में गोदावरी सिंह ने जो रंग भरे है, वक्त के साथ वो और गाढ़ा होता जाएगा।

गरीबी के थपेड़े खाते हुए भी निस्सहायों की मदद कर मणिमारन ने कायम की अनोखी मिसाल

कुष्ट रोग से पीड़ित कई लोगों को दिया नया जीवनबेसहारा लोगों का सहारा बनकर खुशियाँ बांटीबचपन में ही ले लिया था समाज-सेवा का संकल्प|आम तौर पर कई लोगों में ये धारणा बनी हुई है कि समाज-सेवा के लिए खूब धन-दौलत की ज़रुरत होती है। जिनके पास रुपये हैं वे ही ज़रूरतमंद लोगों की मदद कर समाज-सेवा कर सकते हैं। लेकिन, इस धारणा को तोड़ा है तमिलनाडू के एक नौजवान ने। इस नौजवान का नाम है मणिमारन।



मणिमारन का जन्म तमिलनाडू में तिरुवन्नामलई जिले के थलयमपल्लम गाँव के एक किसान परिवार में हुआ। परिवार गरीब था - इतना गरीब कि उसकी गिनती गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों में होती थी। गरीबी के बावजूद घर के बड़ों ने मणिमारन को स्कूल भेजा। पिता चाहते थे कि मणिमारन खूब पढ़े और अच्छी नौकरी पर लगे। लेकिन, आगे चलकर हालत इतने खराब हो गए कि मणिमारन को बीच में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। गरीबी की वजह से मणिमारन ने नवीं कक्षा में पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और घर-परिवार चलाने में बड़ों की मदद में जुट गए। मणिमारन ने भी उसी कपड़ा मिल में नौकरी करनी शुरू की जहाँ उनके भाई नौकरी करते थे। मणिमारन को शुरूआत में एक हज़ार रुपये प्रति माह की तनख्वा पर काम दिया गया।

मणिमारन ने अपनी मासिक कमाई का आधा हिस्सा अपने पिता को देना शुरू किया। उन्होंने आधा हिस्सा यानी ५०० रुपये ज़रूरतमंद लोगों की मदद में लगाया ।

बचपन से ही मणिमारन को ज़रूरतमंद और निस्सहाय लोगों की मदद करने में दिलचस्पी थी। मणिमारन का परिवार गरीब था और परिवारवालों के लिए ५०० रुपये काफी मायने रखते थे। लेकिन, मणिमारन पर ज़रूरतमंदों की मदद करने का जूनून सवार था। मणिमारन ५०० रुपये अपने लिए भी खर्च कर सकते थे। नए कपड़े , जूते और दूसरे सामान जो बच्चे अक्सर अपने लिए चाहते हैं वो सभी खरीद सकते थे। लेकिन, मणिमारन के विचार कुछ अलग ही थे। छोटी-सी उम्र में वे थोड़े से ही काम चलाना जान गए थे और उनकी मदद को बेताब थे जिनके पास कुछ भी नहीं है।

अपनी मेहनत की कमाई के ५०० रुपये से मणिमारन ने सड़कों, गलियों , मंदिरों और दूसरी जगहों पर निस्सहाय पड़े रहने वाले लोगों की मदद करना शुरू किया। मणिमारन ने इन लोगों में कम्बल, कपड़े और दूसरे ज़रूरी सामान बांटे । मणिमारन ने कई दिनों ऐसे ही अपनी कमाई की आधा हिस्सा ज़रूरतमंद लोगों में लगाया।

गरीबी के उन हालातों में शायद ही कोई ऐसा करता। परिवारवालों ने भी मणिमारन को अपनी इच्छा के मुताबिक काम करने से नहीं रोक। मणिमारन ने ठान ली थी कि वो अपनी ज़िंदगी किसी अच्छे मकसद के लिए समर्पित करेंगे।

इसी दौरान एक घटना ने मणिमारन के जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल दी।

एक बार मणिमारन कोयंबटूर से तिरुपुर जा रहे थे। सफर बस से था। बस में कुछ खराबी आने की वजह से उसे ठीक करने के लिए उसे बीच रास्ते में ही रोका गया। बस में बैठे मणिमारन ने देखा कि एक बूढ़ी महिला,जो कि कुष्ठ रोग से पीड़ित थी, लोगों से पीने के लिए पानी मांग रही थी। उसके हाव-भाव से साफ़ था कि वो प्यासी है। लेकिन, इस प्यासी बुढ़िया की किसी ने मदद नहीं की। उलटे, लोग बुढ़िया को दूर भगाने लगे। कोई उसे सुनने को भी तैयार नहीं था। इतने में ही मणिमारन ने देखा कि वो बुढ़िया अपनी प्यास बुझाने के लिए एक नाले के पास गयी और वहीं से गन्दा पानी उठाने लगी। ये देख कर मणिमारन उस बुढ़िया के पास दौड़ा और उसे गंदा पानी पीने से रोका।

मणिमारन ने जब ये देखा कि बुढ़िया की शारीरिक हालत भी काफी खराब है और कुष्ट रोग की वजह से उसके शरीर पर कई ज़ख़्म है उसका दिल पसीज गया। उसने उस बूढ़ी महिला का मुँह साफ़ किया और उसे साफ़ पानी पिलाया। इस मदद से खुश उस महिला ने मणिमारन को अपने गले लगा लिया और गुज़ारिश की वो उसे अपने साथ ले चले। मणिमारन उस महिला को अपने साथ ले जाना चाहते थे लेकिन उस समय वो ले जाने की हालत में नहीं थे। इस वजह से मणिमारन ने एक ऑटो ड्राइवर को ३०० रूपए दिया और उससे दो दिन तक महिला की देखभाल करने को कहा। मणिमारन ने महिला भरोसा दिलाया वो तीसरे दिन आकर उन्हें अपने साथ ले जाएगा।

मणिमारन जब उस महिला को लेने उसी जगह पहुंचे तो वो वहां नहीं थी। मणिमारन ने महिला की तलाश शुरू की , लेकिन वो कई कोशिशों के बावजूद नहीं मिली। मणिमारन बहुत निराश हुए।

यहीं से उनके जीवन की दिशा बदली। मणिमारन ने एक बड़ा फैसला लिया। फैसला लिया- कुष्ट रोग से पीड़ित लोगों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने का । फिर क्या था अपने संकल्प के मुताबिक मणिमारन ने कुष्ट रोग से पीड़ित लोगों की मदद करना शुरू किया। जहाँ कहीं उन्हें कुष्ट रोग से पीड़ित लोग निस्सहाय स्थिति में दिखाई देते वे उन्हें अपने यहाँ लाकर उनकी मदद करते। मणिमारन ने इन लोगों का इलाज भी करवाना शुरू किया।

उन दिनों लोग कुष्ट रोग से पीड़ित लोगों को बहुत ही हीन भावना से देखते थे। कुष्ट रोग से पीड़ित होते ही व्यक्ति को घर से बाहर निकाल दिया जाता। इतना ही नहीं एक तरह से समाज भी उनका बहिष्कार करता। कोई भी उनकी मदद या फिर इलाज के लिए आगे नहीं आता। कुष्ट रोग से पीड़ित लोगों को छूने से भी लोग कतराते थे। अक्सर ऐसे लोग सड़कों या फिर मंदिरों के पास निस्सहाय हालत में भीख मांगते नज़र आते। मणिमारन ने ऐसी ही लोगों की मदद का सराहनीय और साहसी काम शुरू किया।

मदर थेरेसा और सिस्टर निर्मल का भी मणिमारन के जीवन पर काफी प्रभाव रहा है।

जब भारत के जाने-माने वैज्ञानिक डॉ अब्दुल कलाम को मणिमारन की सेवा के बारे में पता चला तो उन्होंने मणिमारन को एक संस्था खोलने की सलाह दी। इस सलाह को मानते हुए मणिमारन ने अपने कुछ दोस्तों के सहयोग से साल २००९ में वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर की स्थापना की।

इस संस्था की सेवाओं के बारे में जब तमिलनाडू सरकार को पता चला तब सरकार की ओर से ज़रूरमंदों की मदद में सहायक सिद्ध होने के लिए मणिमारन को जगह उपलब्ध कराई गयी।

मणिमारन ने वर्ल्ड पीपल सर्विस सेंटर के ज़रिये जिस तरह से गरीब और ज़रूरतमंदों की सेवा की उसकी वजह से उनकी ख्याति देश-भर में ही नहीं बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भी होने लगी। उनके काम के बार में जो भी सुनता वो उनकी प्रसंशा किया बिना नहीं रुकता। अपनी इस अनुपम और बड़ी समाज-सेवा की वजह से मणिमारन को कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। इस बात में दो राय नहीं कि गरीबी से झूझते हुए भी जिस तरह से मणिमारन ने लोगों की सेवा की है वो अपने आप में गज़ब की मिसाल है।

दवाई से मरता जीवन

स्वस्थ लोगों के मन मे अगर यह बैठा दिया जाए की वे बीमार है तो काफी पैसा बनाया जा सकता है। दवाई निर्माता कई वर्षों से यह खेल आम जनता के साथ खेल रहे है। साधारण मनुष्य के शरीर मे कई रासायनिक क्रियाओं की वजह से बुखार, जुखाम, सर्दी आम बात है। आमतौर पर यह हमारे शरीर को और मजबूत बनाने का कार्य करती है। बुखार मे हमारे शरीर से कई तरह के टोकसीन्स शरीर से बाहर निकलते है, पर जब हम दवाई लेकर इस क्रिया को रोक देते है तो यह टोकसीन्स हमारे शरीर मे ही रह जाते है। जिसका असर हमे लंबे समय बाद किसी बड़ी और जानलेवा बीमारी के रूप मे दिखाई देता है। परंतु दवाई निर्माता भय दिखाकर इस आम शारीरिक क्रिया को बीमारी के रूप मे परिभाषित करने का काम कर रहे है।


इसके माध्यम से वे अपने बाज़ार का विस्तार करते है और लोगों के जीवन के साथ खेलते है। अगर हम थोड़ा सा भी शोध करे तो हम जान सकते है की किस प्रकार ये दवाई निर्माता इस अनैतिक और अमानवीय कार्य को अंजाम दे रहे है। वे भय दिखाकर कर हमे दवाई लेने पर मजबूर करते है, हमारे शरीर मे नयी बीमारियों को जन्म देते है, फिर उन्हीं बीमारियों के इलाज के लिए अमानवीय तरीकों से दवाइयों का निर्माण करते है। उनका उद्देश्य सिर्फ मुनाफा कमाना रह गया है जबकि एक समय यह हमारे समाज सेवा का कार्य हुआ करता था। इस खेल मे देवता का दर्जा प्राप्त कई सारे चिकित्सक उनका पूरा साथ देते है। वे अपना कमिशन लेकर लोगों को किसी विशेष कंपनी की दवाई लेने को कहते है और बीमार करने का काम करते है जिससे उनकी दुकाने चल सकें। शायद आपको लग सकता है की मुझे हर व्यवस्था के खिलाफ लिखने की आदत हो गयी है। इसीलिए मैं इस पवित्र पेशे को बदनाम कर रहा हूँ। पर मैं जो भी लिख रहा हूँ अपने व्यक्तिगत अनुभव से लिख रहा हूँ। मैंने पिछले 5 सालों से कोई दवाई नहीं ली है और मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूँ। मैं खुदकों पहले से कई बेहतर महसूस कर रहा हूँ।

विपिन गुप्ता को भी कभी दवाइयों पर पूरा भरोसा था। वे खुद दवाई निर्माता कंपनियों के लिए शोध करते थे। विश्व की कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों मे उनके शोध को पढ़ाया जाता है। उन्होने कुछ नोबल पुरस्कार प्राप्त शोधकर्ताओं के साथ भी काम किया है। पर कुछ वर्ष पहले इन कंपनियों के कार्य करने के तरीकों पर उन्हें शक होने लगा। उन्होने मन मे इन प्रक्रियाओं पर कई सारे सवाल उठने लगे थे। उन्होने जब इस पर शोध करना शुरू किया तो धीरे-धीरे उनके सामने कई सारी सच्चाइयाँ सामने आने लगी। अपनी शोध मे उन्होने पाया की हर जीवित प्राणी की दो खासियत होती है। पहली प्रजनन(reproduction) की और दूसरी खुद के शरीर को स्वयं ठीक(repair) करने की। बशर्ते है की हमे शरीर को सही वातावरण और जीवनशैली उपलब्ध करवानी होगी। जब उन्हें यह मालूम पड़ा तब वे खुद के जीवन के साथ कई सारे प्रयोग करने लगे। वे अपनी नौकरी छोड़कर अपने जीवन को प्रकृति के करीब ले जाने की कोशिश करने लगे। जहाँ वे कोशिश कर रहे है की कैसे उनके शरीर को सही वातावरण मिल सके व कैसे उनकी जीवनशैली इस तरह हो सकें जहाँ उन्हे दवाइयों का गुलाम बनकर न जीना पड़े।


अपनी कोशिश को एक कदम आगे ले जाते हुए उन्होने देश के कई हिस्सों मे शिविर भी आयोजित किए। इन शिविरों के माध्यम से इन्होने लोगों से सीधे संपर्क किया, मधुमेह, रक्तचाप, हृदय जैसी कई सारी जीवनशैली संबंधी बीमारियों का बिना किसी दवाई का प्रयोग किए हुए इलाज़ किया है। इसी काम को आगे ले जाने के लिए उन्होने भोपाल के पास सेहतवन नाम की एक जगह शुरू की है जहाँ वे लोगों की जीवनशैली और खान-पान मे मामूली बदलाव करते हुए इन बीमारियों का इलाज़ कर रहे है।


वे कहते है कि “यह सब काम करते हुए एक बात जो मुझे समझ आयी है कि हमारे आस-पास दो तरह का पर्यावरण होता है। एक बाहरी, जिसमे पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, हवा-पानी आदि होते है और दूसरा जो हमारे शरीर के भीतर होता है जिसमे कई सारे जीव-जन्तु रहते है। इन्हे हम वैज्ञानिक भाषा मे माइक्रोबायोम(microbiom) और आम भाषा मे जर्म्स(germs) कहते है। यह हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते है। यह हमारे शरीर के लिए उतने ही आवश्यक है जितना कि हमारा बाहरी पर्यावरण है। यह विडम्बना ही है कि हम खुद ही इनका विनाश कर रहे है। पिछले 15-20 वर्षों से हमारे आस-पास विज्ञापनों के माध्यम से ऐसा माहौल बना दिया गया है कि हम इन्हे बुरा मानने लगे है। इन्हे मारने के लिए हम कई सारे सेनेटाइजर्स, साबुन, दवाइयों आदि का प्रयोग करने लगे है। इन वस्तुओं का प्रयोग करने कि वजह से हम धीरे-धीरे अपने ही शरीर को खोखला करते जा रहे है। हम सेहतवन मे लोगों के साथ इन्हीं सब विषयों पर चर्चा करते हुए उन्हे एक ऐसा माहौल और जीवनशैली से अवगत कराते है, जहाँ वे बाहर के पर्यावरण के बीच मे रहते हुए अपने भीतर के पर्यावरण को फिर से सजीव बनाने कि कोशिश करते है। हमे इसके कई नाटकीय नतीजे भी मिले है जहाँ लोगों कि मधूमेह, रक्तचाप जैसी जानलेवा बीमारिया ठीक हो गयी है। यही नहीं अगर सही जीवनशैली को अपनाया जाए तो कैंसर जैसी बीमारियों को भी हम ठीक कर सकते है।”

चलो वापस कृषि कि ओर

विवेक चतुर्वेदी के लिए एक समय पैसा ही सबकुछ था। उनका अपना व्यापार था, उस व्यापार से और अधिक पैसा कमाने की धुन में, उन्होने अपना समस्त जीवन उसमे झोंक रखा था। पैसा ही कमाने के लिए उन्होने कुछ साल पहले एक जमीन के टुकड़े मे निवेश किया था। जमीन खरीदने के कुछ समय बाद उन्हे “जीवन विद्या” नामक एक कार्यशाला मे भाग लिया था। इस कार्यशाला ने उन्हे जीवन के विभिन्न आयामों को देखने की एक दृष्टि प्रदान की। यहीं से उनके जीवन की एक नयी यात्रा की शुरुआत हुई, जहाँ रुपयों-पैसों से परे जाकर वे वास्तविक वस्तुओं के मूल्यों को समझने का प्रयास करने लगे।


वो कहते है की “जब मैं इस दिशा मे चिंतन-मनन कर रहा था तब मुझे समझ आया कि यह रुपया जो मैंने अभी तक कमाया है, जिसके पीछे पूरा मानव समाज भाग रहा है वो महज मानव की एक कल्पना मात्र है। यह एक माध्यम है जिससे हम अपनी जरूरतें पूरी कर सकते है। असली मूल्य तो उन वस्तुओं का है जिन्हें हम इससे खरीदते है। हमारी असली जरूरतें आज भी वहीं रोटी, कपड़ा और मकान है, जो मानव समाज के प्रारम्भिक काल में थी। और हमारी उन जरूरतों को हमने आज इस काल्पनिक धन से जोड़ दिया है। इस गैर-हक़ीकत वस्तु के पीछे भागते हुए हम उन सब वस्तुओं का विनाश करते जा रहे है जो कि हकीकत है।


जो सही मायनों मे हमारी जरूरतों को पूरा करती है। हमने हमारे खाने को जहरीला कर दिया है, हमारे पानी को दूषित कर दिया है, जो हवा हमारे जीवन का आधार है वो ही आज हमारे जीवन को लील लेने को तैयार बैठी है। इसका कारण सिर्फ एक है कि हमने धन-दौलत को हकीकत मान लिया है और इन सब वास्तविक चीजों को महज उपभोग कि एक वस्तु।”


जब उन्हे यह एहसास हुआ तब वे इसके रास्ते खोजने लगे। उन्हे इसका एकमात्र रास्ता यही नजर आया कि उन्हे फिर से जमीन से जुड़ना होगा। तब उन्होने कृषि की तरफ रुख किया। जब उन्होने कृषि कि तरफ रुख किया तो उन्हे समझ आया कि आज कृषि पहले के समान बिलकुल भी नहीं रहीं है। आज किसान खुद रुपयों के मायाजाल मे इस कदर फंस गया है कि उसके लिए रुपयों के बिना खेती करना असंभव सा हो गया है।


वो आगे कहते है कि जब उन्होने खेती करना शुरू किया तब उन्हें एक बात सबसे ज्यादा खटकने वाली लगी। एक बीज़ जो कि अपने आप मे इतना सक्षम है जो हजारो बीजों को जन्म दे सकता है, ऐसे काम मे किसान को नुकसान हो सकता है। जब वे इसके कारणों का अध्ययन कर रहे थे तब उन्हे पता चला कि आज किसान खेती में अपने हर कार्य के लिए बाज़ार पर निर्भर है। उसे हर बात पर पैसे खर्च करने पड़ते है, परंतु बाज़ार मे उसकी उपज को उचित मूल्य नहीं मिल पता है। ऐसे में वह अपनी लागत भी वसूल नहीं कर पाता है। तब वे खेती को सरल और सुगम बनाने के रास्ते खोजने लगे।


उन्होने शुरुआत बीजों और खाद पर अपनी आत्मनिर्भरता बढ़ाने से की। वे देशी बीजों का प्रयोग करते हुए अपने लिए अगले साल के लिए बीज़ तैयार करने लगे। खाद के लिए उन्होने गाय और बैलों का पालना शुरू किया। उनके गोबर से वे अपना ईंधन बनाने लगे और गोबर गैस बनने के बाद निकले अपशिष्ट को खाद के रूप मे प्रयोग करने लगे। जब उन्हें जुताई, सिंचाई और कटाई का कार्य के लिए उन्हे समस्या आने लगी तो उन्होने बैलो से जुताई करनी शुरू की। बैलों से जुताई करते समय उन्हे मालूम पड़ा कि बैलो कि दो जुताई और ट्रैक्टर कि पाँच जुताई बराबर है। वही दूसरी तरफ ट्रैक्टर से जुताई करते वक़्त मिट्टी मे रहने वाले कई सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते है जिसका दुष्प्रभाव फसल पर पड़ता है। उसके बाद सिंचाई के लिए उन्होने एक बैलों से चलने वाले पंप का ईज़ाद किया। बैल पंप बनाने के बाद उन्होने बैलो से ही चलने वाले थ्रेशर का ईज़ाद किया और एक कटाई यंत्र बनाया जो बिना किसी बाहरी वस्तु के किसान कि क्षमता को दस गुना तक बढ़ा सकता है।

विवेक कहते है कि “यह सब करने के बाद अब मेरी कोशिश है कि कैसे मैं ऐसी तकनीक तैयार कर सकूँ जिससे किसान बिजली और पेट्रोल-डीजल के मामले मे भी आत्म निर्भर हो सकें। इसके लिए हमने कुछ प्रयोग करे भी है। हमने एक गेसिफाइर बनाया है जिससे एक गाँव फसल के भूसे आदि से खुद के लिए बिजली बना सकता है और वो बिजली के मामले मे आत्म निर्भर हो सकता है। पेट्रोल-डीजल पर आत्मनिर्भर होने के लिए हमने एक प्रयोग किया है। इसमे हमने गुड बनाते वक़्त जो तरल द्रव्य निकलता है, जिससे अमूमन लोग शराब बनाते है, उसके साथ प्रयोग किया है। इसमे आपको गाड़ी के इंजन मे मामूली सा बदलाव करना होता है और आप इससे अपनी गाड़ी चला सकते है। अभी यह प्रयोग अपने प्रारंभिक दौर मे है और उम्मीद है कि हमे इसमे जल्द ही सफलता हासिल हो जाएगी। इसके अलावा हम एक ऐसी मशीन भी बना रहे है जिससे किसान कम से कम बीजों का प्रयोग करते हुए अधिक से अधिक फसल प्राप्त कर सकें।”

विवेक का मानना है कि वह वक़्त दूर नहीं है जब हम सबको अपनी जड़ों कि तरफ लौटना पड़ेगा और खेती को अपनाना पड़ेगा। क्योंकि रुपयों को हम खा, पहन या पी नहीं सकते है। हमारे पास बेहद सीमित संसाधन बचे हुए है। ऐसे मे हम इन तकनीकों के माध्यम से गावों और किसानो को न सिर्फ आत्मनिर्भर बना सकते है अपितु हमारे पास उपलब्ध सीमित संसाधनों का सदुपयोग भी कर सकते है।