सुभाष मनोहर लोढ़े अक्सर अपने गाँव आया-जाया करते हैं। अपनी ऐसी ही यात्रा के दौरान एक दिन उन्होंने अपने गाँव में ऐसा कुछ देखा, जो उन्हें बहुत ही अजीब लगा। सुभाष ने देखा कि एक चरवाहा स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर रहा है। उन्हें ये बात समझ में नहीं आयी कि कैसे एक कम पढ़ा-लिखा चरवाहा स्मार्ट फोन ख़रीद सकता है और अगर ख़रीद भी लेता है, तो वो इसका इस्तेमाल कैसे कर पाता है। इन्हीं सवालों का जवाब जानने के लिए सुभाष ने अपने भाई से बातचीत की। सुभाष को जो जानकारी मिली, उससे वेऔर भी आश्चर्यचकित हो गये। सुभाष को पता लगा कि वो चरवाहा स्मार्ट फोन के ज़रिये मटका जुआ खेलता है। स्मार्ट फोन ख़रीदने से पहले इस चरवाहे को जुए में अपना दाँव लगाने के लिए दूर जाना पड़ता था। वो अपनी मोटर साइकिल पर मटका जुआ के मैनेजर के पास जाकर अपना दाँव लगता था, लेकिन मोबाइल फोन खरीद लेने के बाद उसे दूर मोटर साइकिल पर मैनेजर के पास जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी। वो स्मार्ट फोन में व्हाट्सएप्प के ज़रिये अपना दाँव लगा देता था और उसे नतीजा भी मोबाइल फोन पर ही मिल जाता था। सुभाष को अहसास हो गया कि गाँव में भी अब मोबाइल फोन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होने लगा है, लेकिन उन्हें अफ़सोस था कि चरवाहा टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल ग़लत और ग़ैर-कानूनी काम के लिए कर रहा है। अपनी इसी तहकीकात के दौरान सुभाष को एक और बड़ी दिलचस्प बात का पता चला। जब चरवाहा मटका जुआ खेलने लगा था और मोटर साइकिल पर जाकर दूर कहीं दाँव लगाता था, तो गाँव के किसानों को बहुत नुकसान होता था, लेकिन जब चरवाहे ने मोटर साइकिल पर जाना बंद कर दिया और वो मोबाइल फोन पर ही जुआ खेलने लगा, तो गांववालों का नुकसान कम हुआ। ये बात चौंकाने वाली थी, लेकिन सच थी। होता यूँ था कि गाँव के किसान अपने जानवर चरवाहे के हवाले कर देते थे, ताकि वो उन्हें कहीं अच्छी जगह ले जाकर घाँस चरा दे। जानवरों को चरवाहे के हवाले करके किसान अपने खेतों में काम करने चले जाते थे। खेत में काम पूरा करने के बाद किसान चरवाहे से अपने जानवर वापस ले लेते थे। एक मायने में चरवाहा किसानों का बड़ा मददगार था, लेकिन जब से चरवाहे को जुए की लत लगी, किसानों की परेशानियां भी बढ़ गयीं। मटके में अपना दाँव लगाने की चरवाहे को इतनी जल्दी होती कि किसानों के जानवरों को समय से पहले ही छोड़कर वो मोटर साइकिल पर जुए के अड्डे पर चला जाता था। अपने जानवरों को संभालने के लिए किसानों को खेत का काम बीच में छोड़कर आना पड़ता था। चरवाहे की जुए की लत ने किसानों को बहुत बड़ी परेशानी में डाल दिया था, लेकिन जब से चरवाहे ने स्मार्ट फोन ख़रीदा किसानों की परेशानी दूर हो गयी। चरवाहा अब दाँव लगाने अड्डे पर नहीं जा रहा था और किसानों के जानवरों की देखभाल करते हुए ही मोबाइल फोन पर एप्प के ज़रिये जुआ खेलने लगा था। सुभाष को चरवाहे के बारे में जो जानकारियां मिलीं, उससे उनके मन में नए-नए विचार आने लगे। उन्होंने सोचा कि जब गाँव का एक चरवाहा मोबाइल स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर सकता है तो दूसरे गाँववाले क्यों नहीं कर सकते? चरवाहा तो स्मार्ट फोन का इस्तेमाल ग़लत काम के लिए कर रहा है, लेकिन दूसरे गाँववाले अच्छे कामों के लिए स्मार्ट फोन का इस्तेमाल क्यों नहीं कर सकते? स्मार्ट फोन के ज़रिये क्या किसानों तक वो जानकारियाँ नहीं पहुंचायी जा सकती हैं, जिनसे उन्हें फ़ायदा होता हो?
इन्हीं प्रश्नों का जवाब ढूँढ़ते समय सुभाष मनोहर लोढ़े के मन में एक क्रांतिकारी विचार आया। उन्होंने स्मार्ट फोन जैसे आधुनिक, लेकिन आसानी से उपलब्ध इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के ज़रिये किसानों तक वो जानकारियाँ उपलब्ध करवाने की सोची, जिससे उन्हें खेती-बाड़ी में फ़ायदा हो सके। और कुछ दिनों बाद अपने विचारों को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने काम भी करना शुरू कर दिया।
सुभाष ने मौसम, मिट्टी की गुणवत्ता, बींज, खाद , रसायन, बाज़ार में अलग-अलग उत्पादों का भाव जैसी बातों की जानकारी सूचना प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मदद से किसानों तक पहुँचाने की दिशा में काम शुरू कर दिया।
किसानों की मदद का इरादा इतना पक्का था कि सुभाष मनोहर लोढ़े ने लाखों की नौकरी छोड़ दी। मार्च, 2015 में नौकरी छोड़ने के बाद सुभाष ने देश के किसानों के विकास और कल्याण के लिए एग्रोबुक नाम से स्टार्टअप की शुरुआत की। Agrowbook.com के ज़रिये सुभाष ने पहली बार देश में आईटी टेक्नोलॉजी और स्मार्ट फोन के ज़रिये खेती-बाड़ी, बागवानी, पशु-पालन और मछली-पालन में लाभकारी सिद्ध होने वाली जानकारियाँ देने का सिलसिला शुरू किया। Agrowbook.com के ज़रिये ही सुभाष किसानों को ये जानकारी भी दे रहे हैं कि कैसे खेतों में उपज बढ़ायी जा सकती हैं। देश और दुनिया में कृषि के क्षेत्र में हो रहे अलग-अलग शोध और अनुसंधान के परिणाम भी अब किसान जान पा रहे हैं। agrowbook.com को राष्ट्रीय ग्रामीण अनुसंधान प्रबंधन अकादमी से भी मदद मिल रही है। इसी मदद से उन्हें देश में कृषि के क्षेत्र में हो रहे अगल-अलग अनुसंधानों के नतीजों का पता चल रहा है। इस स्टार्टअप का राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान से भी करार हुआ है। इस करार के तहत agrowbook.com रूरल टेक्नोलॉजी पार्क की जानकारियां देश-भर में प्रसारित कर रहा है।
सुभाष की कोशिश है कि आईटी टेक्नोलॉजी और आधुनिक और आसानी से उपलब्ध इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के ज़रिये देश के किसानों को भी जोड़ा जाय, ताकि वे आपस में ज्ञान-विज्ञान, अपने अनुभवों, कामयाब प्रयोगों की जानकारियाँ आपस में साझा कर लाभ उठाएं। Agrowbook.com एक ऐसा माध्यम भी बना है, जिसके ज़रिये किसान बिजली, पानी, खाद जैसे चीज़ों के सही समय पर सही इस्तेमाल की जानकारी भी पा सकते हैं। किसानों को संकट से उभरने के उपाय बताने का काम भी सुभाष अपने इस स्टार्टअप के माध्यम से कर रहे हैं। Agrowbook.com में सुभाष के ऐसे कई सारे वीडियो भी डाले हैं, जिन्हें देखकर किसान बहुत कुछ सीख सकते हैं। Agrowbook का एप्प भी लांच किया जा चुका है।
सुभाष मनोहर लोढ़े कहते हैं, "ये तो बस एक शुरुआत है। अभी बहुत काम करना बाकी है। ज्यादा से ज्यादा किसानों तक इसे पहुँचाने की ज़रुरत है। और भी जानकारियाँ जुटनी है।"
महत्वपूर्ण बात ये भी है कि सुभाष ने Agrowbook.com की गतिविधियों का विस्तार करते हुए ज्यादा से ज्यादा किसानों को विकास के नए मार्ग दिखाने के लिए बड़ी योजना भी बना ली है। इस योजना के तहत सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं, शोध और अनुसंधान केंद्रों, किसान संगठनों से गठजोड़ और समझौतों का भी प्रस्ताव है। किसानों के विकास के लिए इतनी बड़ी और अपने किस्म की पहली योजना बनाने वाले सुभाष मनोहर लोढ़े भी किसान-परिवार से ही हैं। बचपन से ही वे खेती-बाड़ी से जुड़े रहे और उन्होंने शुरू से ही किसानों की समस्याओं को अच्छी तरह से जाना और समझा है। सुभाष ने भी अपने जीवन में कई मुसीबतें झेली है। परेशानियों और चुनौतियों का सामना किया है। ग़रीबी, गाँव के पिछड़ेपन, सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं के थपेड़े खाये हैं। उनकी कहानी भी संघर्षों से भरी हुई है।
विपरीत परिस्थियों से लड़ने, उससे उबरने वाली प्रेरणादायक सुभाष की कहानी की शुरुआत महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के वणी से शुरू होती है। 7 दिसंबर, 1979 को सुभाष मनोहर लोढ़े का जन्म हुआ। पिता किसान थे और अपनी सात एकड़ ज़मीन में खेती-बाड़ी करते हुए घर-परिवार चलाते थे, लेकिन जिस इलाके में खेत थे, वहां बारिश सामान्य से कम होती थी। अक्सर सूखा रहता। यवतमाल जिला देश-भर में किसानों की आत्महत्याओं की वजह से भी हमेशा चर्चा में रहा है। इस जिले में मौसम बहुत की कम बार किसानों पर मेहरबान रहा है। किसान लगातार मौसम की मार झेलते ही रहे हैं। सूखा-ग्रस्त रहने वाले इलाके में पैदा हुए सुभाष के पिता शुरू से ही चाहते थे कि उनका बेटा पढ़े-लिखे और बड़ी डिग्रीयाँ लेकर नौकरी करे। पिता ने सुभाष का दाखिला जिला परिषद स्कूल में करवाया। यहाँ उन्होंने पांचवीं तक पढ़ाई की। सारी पढ़ाई मराठी मीडियम से ही हुई। इसके बाद सुभाष ने नवोदय विद्यालय की प्रवेश परीक्षा लिखी। चूँकि बचपन से ही दिमाग तेज़ था वे प्रवेश परीक्षा में पास हो गए और उन्हें नवोदय विद्यालय में दाखिला मिल गया। सुभाष ने छठीं से आठवीं तक की पढ़ाई यवतमाल टाउन के इसी विद्यालय से की। इसके बाद उन्हें स्कूल के एक कार्यक्रम/योजना के तहत जम्मू-कश्मीर में जाकर पढ़ने का मौका मिला। सुभाष ने दो साल तक जम्मू-कश्मीर के एक नवोदय विद्यालय में पढ़ाई की। यहाँ से दसवीं पास करने के बाद ये वापिस अपने यहाँ यानी वणी आ गये। वणी के लोकमान्य तिलक महाविद्यालय से उन्होंने दसवीं और बारहवीं की पढ़ाई पूरी की।
ख़ास बात ये रही कि स्कूली पढ़ाई के दौरान जब कभी मौक़ा मिलता, सुभाष अपने पिता के साथ खेत जाते और वहाँ काम करते। छोटी उम्र से ही सुभाष ने खेतों में जाना और खेती-बाड़ी का काम करना शुरू कर दिया था। जैसे-जैसे वे बड़े होते गये, उन्होंने खेती-बाड़ी के बड़े काम भी शुरू कर दिए। किशोरावस्था में ही सुभाष खेती-बाड़ी का सारा काम सीख गए थे। जुताई-बुआई के सारे काम से लेकर भैंस का दूध निकालना और फिर उसे ले जाकर बेचने, बैलों और दूसरे जानवरों का चारा खिलाना जैसे सभी काम करना सुभाष करते थे। पढ़ाई-लिखाई के बीच खेती-बाड़ी बदस्तूर जारी रही। खेतों से न कभी नाता छूटा न कभी मुहब्बत कम हुई।
बारहवीं की पढ़ाई के बाद सुभाष को उनकी काबिलियत और प्रवेश परीक्षा में रैंक की बदौलत शेगाँव इंजीनियरिंग कॉलेज में सीट मिल गयी। 1998 से 2002 तक सुभाष ने इस कॉलेज से पढ़ाई की। उन्होंने यहाँ से बीटेक (इलेक्ट्रिकल्स - पॉवर) की डिग्री हासिल ही।
बीटेक की डिग्री मिलते ही सुभाष और उनके घरवालों में उम्मीद जगी कि अब उन्हें अच्छी तनख्वा पर अच्छी जगह नौकरी मिलेगी। नौकरी की वजह से घर-परिवार की परेशानियाँ दूर होंगी। ग़रीबी से नाता टूटेगा लेकिन, सुभाष को तुरंत नौकरी नहीं मिली। नौकरी के लिए कई दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े। बीटेक की डिग्री होने बावजूद उन्हें नौकरी नहीं मिली। घर-परिवार से दबाव तो नहीं था, लेकिन सुभाष जानते थे कि परिवारवाले उनसे कमाई की आस लगाए हुए हैं। ये स्वाभाविक भी था। काफी खर्च कर, बड़ी उम्मीदों के साथ माता-पिता ने सुभाष को पढ़ाया था। नौकरी न मिलने से सुभाष भी बहुत परेशान हुए। उन्हें बेचैनी होने लगी। नौकरी की तलाश में वे नागपुर गए। जब वहाँ भी नौकरी नहीं मिली तो इतने हताश हुए कि कमाई के लिए सड़कों पर घड़ियाँ बेचने लगे।
परेशानियों से भरे उन दिनों के बारे में जानकारी देते हुए सुभाष मनोहर लोढ़े ने कहा,
" मैं नौकरी की तलाश में नागपुर गया था। वहां मैं अपने भाई के एक दोस्त के यहाँ रहा था। नौकरी के लिए बहुत जगह घूमा-फिरा, लेकिन नौकरी नहीं मिली। मुझे समझ में नहीं आ रहा था मैं क्या करूँ। खाली था और अलग-अलग विचार मन में आ रहे थे। ऐसी हालत मैं मैंने कुछ दिन के लिए सड़कों पर गैजेट भी बेचे, लेकिन जल्द ही मुझे लगा कि मैं इस काम के लिए नहीं बना हूँ।"
बिना नौकरी के वे दिन कितने दुःख और दर्द भरे थे इस बात का अहसास दिलाने के मकसद से सुभाष ने हमें ये भी बताया," सिर्फ दो समोसे खा कर मैंने दिन बिताए थे नागपुर में। उन सात-आठ महीनों को मैं नहीं भूल सकता।"
2003 में सुभाष को नौकरी मिली। मुंबई के ऐरोली इलाके में श्रीराम पॉलिटेक्निक कॉलेज में उन्हें लेक्चरर का काम मिला। यहाँ एक साल पढ़ाने के बाद उन्हें ठाणे के केसी कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग में प्लेसमेंट ऑफिसर की नौकरी मिली। यहाँ पर काम करते हुए उन्होंने कई छात्रों को नौकरियों पर लगवाया था। कॉलेज के छात्रों को इनफ़ोसिस, टीसीएस जैसे बड़ी कंपनी में नौकरियाँ दिलवाई थी सुभाष ने। ये नौकरियाँ दिलवाते समय सुभाष को इस बात का अहसास हुआ कि वे छात्रों को नौकरी दिलवा रहे हैं फिर भी उनकी तनख्वा उन छात्रों से बहुत कम है, जो पहली बार नौकरी करने जा रहे हैं। उन्हें ये भी लगा कि सॉफ्टवेयर की कंपनियाँ ज्यादा तनख्वा देती हैं और वहाँ रोज़गार के अवसर भी ज्यादा हैं। इसी वजह से सुभाष ने सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग भी सीखना शुरू किया। सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी की जानकारी हासिल करने की वजह से ही उन्हें यूनिसिस नाम की कंपनी में नौकरी मिल गयी। सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग सीखने का फैसला सुभाष के बहुत काम आया। वो सही समय पर लिया गया फैसला था। आगे चलकर सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए काम करते हुए ही उन्होंने तरक्की की। करीब चार साल तक यूनिसिस में काम करने के बाद उन्होंने कंपनी बदली। नौ महीनों तक उन्होंने हेक्सावेर टेक्नोलॉजीज में काम किया। फरवरी, 2011 में उन्होंने हारस्को कॉर्पोरेशन ज्वाइन किया।
नौकरी करते हुई सुभाष ने अपने ग्रामीण इलाके के पढ़े-लिखे नौजवानों की मदद के लिए एक ग्रामीण बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग कंपनी यानी रूरल बीपीओ खोला। ये बीपीओ मुंबई के एक रिसोर्ट में बिज़नेस को बढ़ावा देने के लिए मैत्रेया ग्रुप की मदद से खोला गया था। नौकरी के इन्हीं दिनों में जब सुभाष को एक बार गाँव जाना हुआ तो उन्हें चरवाहे के समार्ट फोन पर मटका जुआ खेलने की जानकारी मिली। और फिर अपने गाँव से ही नए-नए विचार लेकर वे शहर आये। लाखों रुपये वाली नौकरी छोड़ी और Agrowbook.com शुरू किया। Agrowbook.com की वजह से कृषि और उससे अनुबद्ध क्षेत्रों में एक नयी सकारात्मक क्रांति की शुरुआत हुई है।