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Thursday, 13 April 2017

‘लेनरो’ वो जगह जहां पर पुरानी किताब दें और बदले में लें दूसरी किताब

अगर आप किताब पढ़ने के शौकिन हैं और धीरे धीरे आपके पास किताबों का ढेर लग जाये तो आप क्या करेंगे। शायद आप उन किताबों को बुक शेल्फ या किसी बॉक्स में संभाल कर रख देंगे। लेकिन अगर आपको एक ऐसा प्लेटफॉर्म मिल जाये जहां पर आप अपनी पढ़ी हुई किताब ऐसे किसी व्यक्ति को दें जिसने वो किताब ना पढ़ी हो और वो व्यक्ति आपको ऐसी किताब दे जो आप पढ़ना चाहे तो कैसा हो। इससे ना सिर्फ एक दूसरे को मुफ्त में अच्छी किताब पढ़ने को मिलेगी बल्कि आपका अपना सामाजिक दायरा भी बढ़ेगा। कुछ ऐसी ही कोशिश की है दिल्ली में रहने वाले सौरव हुड्डा ने। जिन्होने ‘लेनरो’ नाम से एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार किया है जहां पर एक लाख से भी ज्यादा किताबें पढ़ने को मिल जाएंगी।


सौरव शुरूआत से ही अपना कुछ करना चाहते थे, जब उन्हें इस प्लेटफार्म का आइडिया आया तब उन्होंने ‘इंफोसिस’ से इस्तीफा देकर अगस्त,2015 में अपनी एक कंपनी ‘लेनरो’ बनाई। सौरव ने इस काम शुरू करने से पहले द्वारिका के एक अपार्टमेंट में करीब 100 लोगों के बीच सर्वे किया। सर्वे में 75 प्रतिशत लोग आपस में किताबों का आदान प्रदान करना चाहते थे, लेकिन उनका कहना था कि अपार्टमेंट में वे किसी को जानते ही नहीं इस वजह से वे किताबों को यूं ही संभाल कर रख देते हैं।

सौरव का कहना है कि 80 प्रतिशत लोग मशहूर लेखकों की किताबें पढ़ते हैं और एक ही सोसाइटी में एक ही लेखक की किताब कई लोगों के पास होती है और इसी किताब को अगर एक दूसरे के साथ बांट कर पढ़ा जाये तो ना सिर्फ उनका पैसा बचेगा बल्कि समय की भी बचत होगी, क्योंकि पढ़ने के बाद वे किताबें एक तरीके से उनके लिए बेकार ही हो जाती हैं।

अपने काम करने के तरीके के बारे में सौरव का कहना है कि इनकी वैवसाइट में रजिस्ट्रेशन के बाद किसी व्यक्ति को अगर किताब लेनी होती है तो वो बोरो का बटन दबाकर अपनी ओर से किताब के लिए अनुरोध कर सकता है। जिसके बाद वो किताब जिसके भी पास होगी वो उस अनुरोध को स्वीकार कर लेता है। जिसके बाद दोनों लोग मिलने का स्थान, दिन और वक्त तय कर मिलते हैं और किताबों का अदान-प्रदान करते हैं।

अभी तक ‘लेनरो’ में देशभर के करीब 4500 लोग जुड़ कर किताबों की अदला बदली कर रहे हैं। इसमें सबसे ज्यादा लोग दिल्ली और बेंगलुरू के लोग हैं जबकि हैदराबाद, चेन्नई, अहमदाबाद, कोलकाता और इंदौर ऐसे दूसरे शहर हैं जहां पर लोग इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर किताबों की अदला बदली करते हैं।सौरव की कोशिश है कि वो लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करें कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस प्लेटफॉर्म पर रजिस्टर्ड हों जिससे ज्यादा लोग के बीच किताबों का आदान प्रदान हो सके।

सौरव के मुताबिक अभी ‘लेनरो’ में 5 लोगों की टीम है। अपनी फंडिंग के बारे में उनका कहना है कि शुरूआती निवेश उन्होंने खुद किया है। अभी उनका सारा ध्यान लोगों के विचार लेने और उनकी समस्याओं को समझने पर है। उनका कहना है कि वो कुछ वक्त बाद अपने काम के विस्तार के लिए फंडिंग के विकल्प तलाशने की कोशिश करेंगे। भविष्य की योजनाओं के बारे में उनका कहना है कि फिलहाल उनका सारा ध्यान भारत में इसके विस्तार को लेकर है। उसके बाद वो चाहते हैं कि इस काम को वे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक भी ले जायें। ताकि हर देश के लोग अपने आस पास के एरिया में किताबों का आदान प्रदान कर सकें।

किसानों को बेहतर जीवन और लोगों को जैविक खाद्य पदार्थ देने की कोशिश है ’अनुबल एग्रो’

हर किसी के जीवन में एक समय ऐसा भी आता है जब सही समय, सही स्थान और सही कारणों का एक संगम होता है। जितेंद्र सांगवान के जीवन में वह समय तब आया जब वे आईसीआईसीआई लोम्बार्ड और अवीवा जैसी कंपनियों के साथ एक बेहद सफल काॅर्पोरेट करियर के अनुभव के बावजूद अपनी मनमर्जी की नौकरी पाने में असफल रहे। बस उसी समय उन्होंने अपना कुछ काम करने के बारे में सोचा लेकिन क्या करना चाहिये इसे लेकर वे संशय में थे। हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित अपने पैत्रक गांव थोल की एक यात्रा के दौरान उन्होंने खेती को एक विकल्प के रूप में अपनाने के बारे में सोचा।


उस समय को याद करते हुए वे कहते हैं, ‘‘जब भी मैं थोल जाता तो एक बात मेरी समझ में बिल्कुल स्पष्ट तरीके से आती कि वहां के किसान खुश नहीं हैं। वे अपने बच्चों को खेती से दूर रखने के इच्छुक रहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि इसमें एक उज्जवल भविष्य नहीं है।’’ उन्होंने जितना अधिक इस बारे में विचार किया वे खुद को उतना ही अधिक समझाने में सफल रहे कि अगर उन्हें अपने दम पर कुछ करना ही है तो उन्हें खेती से संबंधित एक वैकल्पिक मार्ग को चुनना ही होगा। और बस इसी दौरान उनके मन में जैविक खेती (आॅर्गेनिक फार्मिंग) के साथ आगे बढ़ने का विचार आया।

साथ जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिये एक बिल्कुल नया अनुभव
उनके सामने सिर्फ एक समस्या थी और वह यह थी कि उन्हें खेती के क्षेत्र में कोई भी पुराना अनुभव नहीं था। उनके पिता भारतीय वायुसेना में एक अधिकारी के पद पर तैनात रहे थे और केंद्रीय विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने स्नातक किया। स्नातक के बाद उन्होंने सिंबायोसिस पुणे से एमबीए किया जो बाद में जाकर उनके व्यवसायिक करियर के लिये एक प्रवेश द्वार साबित हुआ। स्वाभाविक रूप से उनके माता-पिता और मित्र भी उनके इस फैसले को लेकर सशंकित थे। वे हंसते हुए कहते हैं, ‘‘मैंने न सिर्फ अपने करियर को पीछे छोड़ दिया था बल्कि मैंने एक ऐसे गांव में रहने का फैसला किया था जहां इंटरनेट तो दूर की बात है बिजली भी नहीं थी।’’ आखिरकार वे अपने समर्थकों को अपने साथ लाने में सफल रहे जिन्होंने उन्हें भावनात्मक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर मदद की क्योंकि उन्हें अपने इरादे पर पूरा भरोसा था।

आखिरकार नवंबर 2012 में मात्र एक लाख रुपये की प्रारंभिक पूंजी के साथ कुरुक्षेत्र के अपने फार्म से सीधे दिल्ली और एनसीआर के घरों को जैविक खाद्य पदार्थ उपलब्ध करवाने के एकमात्र उद्देश्य के साथ अनुबल एग्रो प्रोडक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की गई। अपने तमाम अनुसंधानों के बावजूद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती जैविक खेती से संबंधित जानकारी को जुटाने की थी क्योंकि यहां पर लगभग हर कोई रसायनों और कीटनाशकों का प्रयोग करते हुए पारंपरिक खेती ही कर रहा था।

हालांकि उनका सफर प्रारंभ में काफी धीमा रहा लेकिन समय के साथ स्थितियां इनके अनुकूल होती गईं और अनुबल ने दिल्ली और एनसीआर के क्षेत्र में रहने वालों के लिये उत्पादों को उगाना और बेचना प्रारंभ कर दिया। अनुबल एग्रो का इरादा भारत में जैविक खेती को बढ़ावा देते हुए एक ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र की स्थापना करना है जहां किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरकों, विकास कारकों और कीटनाशकों जैसे कृत्रिम बाहरी तत्वों का प्रयोग किये बिना सतत उत्पादकता हासिल करने मेें मदद करने का है। ये अपने उपभोक्ताओं को प्रमाणिक जैविक खाद्य पदार्थ उपलब्ध करवाना चाहते हैं और इसी क्रम में वे किसानों को भी जैविक खेती अपनाकर आत्मनिर्भर बनने में मदद करना चाहते हैं।

खेत से लेकर आपकी प्लेट तक सिर्फ जैविक
पारंपरिक किसान मंडी के दामों, मौसमी कटावों और निष्क्रिय कीटनाशकों पर काफी हद तक निर्भर रहते हैं। हालांकि शहरी इलाकों में रहने वाले भारतीय अब जैविक खाद्य पदार्थों का उपयोग प्रारंभ कर रहे हैं और अब वे उच्च गुणवत्ता वाले प्राकृतिक खानों को प्राथमिकता दे रहे हैं। जितेंप्र अपने आसपास के क्षेत्र के किसानों को जैविक खेती के लिये प्रोत्साहित करना चाहते थे और उन्होंने निःशुल्क बीज, बायो इनपुट और परामर्श के माध्यम से इन किसानों की मदद में कोई कसर नहीं छोड़ी। जितेंद्र का दावा है कि प्रारंभिक दौर में कम उपज की क्षतिपूर्ति करने के लिये वे इन किसानों को अपनी जेब से बाजार दाम से 10 प्रतिशत अधिक का भुगतान करते हैं।

‘‘हम अपने प्रतिस्पर्धियों की तुलना में अपेन उत्पादों को 20 से 30 प्रतिशत कम दरों पर बेचते हैं। चूंकि हमें किसी भी बिचैलिये या खुदरा विक्रेता को कैसा भी कोई कमीशन नहीं देना पड़ता और इसके अलावा हमारा मार्केटिंग इत्यादि का भी कोई खर्चा नहीं है ऐसे में हम उस लाभ को अपने अंत अपभोक्ता तक आसानी से पहुंचाते हैं। इस प्रकार से बचे हुए पैसे को हम किसानों के लिसे बीज और अन्य सामग्री खरीदने में प्रयोग करते हैं और उन्हें जैविक खेती प्रारंभ करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। हम रुचि दिखाने वाले किसानों के साथ 10 वर्ष का करार करते हैं और उनकी जमीनों को अपने लाईसेंस के अंतर्गत प्रमाणित करते हैं।’’

अनुबल फसलों की कई किस्मों को उगाते हैं और फिर खाद्य पदार्थों को प्रोसेस करके पैक करते हैं। इनके उत्पादों में गेहूं, होल वीट आटा, बासमती चावल, चावल का आटा, काला चना, साबुत मूंग, लाल आलू और दलिया शामिल हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अनुबल अपने उत्पाद सीधे अपने उपभोक्ताओं को बेचते हैं ओर फिलहाल ये सप्ताहांतों में विभिन्न सोसाइटियों के बाहर कियोस्क लगाकर बिक्री करते हैं। इनके पास कोई भी स्थाई कर्मचारी नहीं है क्योंकि सारा काम अस्थाई कर्मचारियों की मदद से पूरा हो जाता है। प्रति सप्ताहांत में होने वाली बिक्रीः दालेंः 2 से 3 किं्वटल, आलूः 4 से 5 किं्वटल, चावलः 2 से 3 किं्वटल, चावल का आटा 2 से 3 किं्वटल और दलियाः 50 किलो से 1 किं्वटल।

बदलाव के वाहक
जितेंद्र कहते हैं, ‘‘हमनें खेती के पारंपरिक तरीके को बिल्कुल बदल दिया है और अब हम अपनी उपज को बिना किसी मध्यस्थ के एएनएम सिद्धांत के आधार पर बेचते हैं। भारतीय किसान काफी लंबे समय से ऐसे ही किसी माॅडल की तलाश में थे लेकिन बिना सरकारी या किसी काॅर्पोरेट सहायता के उनके लिये ऐसा कर पाना नामुमकिन है। इस पारिस्थितिकितंत्र से बिचैलियों को बाहर करके हमनें एक ऐसी व्यवस्था प्रारंभ की है जहां उपभोक्ता सीधे किसानों से बात कर सकते हैं और यहां तक कि अगर वे चाहें तो उनके खेतों तक भी आ सकते हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है और हमें यकीन है कि यह भारतीय खेती की दुनिया में एक बड़े परिवर्तन का वाहक बनेगा क्योंकि इसकी मदद से किसानों के रहन-सहन के स्तर में सुधार आएगा और वे दोबारा खेती को एक काम के रूप में अपनाने के लिये प्रेरित होंगे।’’

अगर भारतीय कृषि उद्योग की वर्तमान परिस्थिति पर नजर डालें तो एक ऐसे माहौल में जहां परेशानहाल किसान लगातार आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं ऐसे में बिना किसी भी प्रकार की वित्तीय मदद और सरकारी सहयोग के किसी को भी अपने ब्रांड के तहत सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिये उन्हें जैविक खाद्य पदार्थों की खेती के लिये प्रोत्साहित करना काफी मुश्किल काम है। ऐसे में अनुबल जैसे उद्यम किसानों को अधिकाधिक जैविक खाद्य पदार्थों का उत्पादन करने और उन्हें वितरित करने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा वे कई बड़े औद्योगिक घरानों को भी इस क्षेत्र में कदम बढ़ाने के लिये आमंत्रित कर रहे हैं जो सीधे किसानों के साथ डील करने के लिये निवेश करने के इच्छुक हों।

विस्तार की योजनाएं
इनके पास आने वाले 80 प्रतिशत से भी अधिक उपभोक्ता वे होते हैं जो पूर्व में इनके उत्पाद प्रयोग कर चुके होते हैं। अब अनुबल एग्रो अपने उत्पादों को यूरोपीय और अन्य एशियाई देशों में निर्यात करने पर भी विचार कर रहे हैं। भारतवर्ष की बात करें तो ये अपना विस्तार मुंबई, बैंगलोर, पुणे, हैदराबाद और कोलकाता जैसे मेट्रो शहरों में करने के लिये प्रयासरत हैं और इनका इरादा नूडल्स, पास्ता, जूस और मसालों के अलावा काॅर्नफ्लेक्स और नाश्ते के काम आने वाले अन्य प्रकार के जैविक प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को भी अपनी उत्पाद श्रृंखला में का हिस्सा बनाने का है। इन्हें उम्मीद है कि ये वर्ष 2016 में 50 लाख रुपये से अधिक का व्यापार करने में सफल रहेंगे।

Wednesday, 12 April 2017

देश कि मिट्टी को बचाओ

हम लोगो मे से अधिकांश को पता है कि बिना मिट्टी के इस पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है। पिछले कुछ सालों मे हमारे द्वारा अपनायी गयी तकनीकों के कारण हमारी मिट्टी से आवश्यक पोषक तत्व नष्ट होते जा रहे है और उसकी वजह से पूरे विश्व मे अकाल और भुखमरी का दौर चल रहा है। यह बात उन लोगों को शायद समझ नहीं आएगी जिनका मिट्टी से कोई सीधा संपर्क या रिश्ता नहीं है। जिनके लिए उनका खाना रिलायंस फ्रेश जैसे बड़े स्टोर से आता है या जो रेस्टोरंट मे खाने के आदि हो चुके है पर जिसने अपने जीवन को अगर थोड़ी बहुत भी बागवानी की है वो अच्छी तरह जनता है की मिट्टी की अच्छी गुणवत्ता फसल के परिणामों को पूरी तरह बदल सकती है। वो यह भी जनता है कि मिट्टी का काम सिर्फ खाना उगाने तक ही सीमित नहीं है। यह जंगलों, झीलों, नदियों और घास के मैदानों में पायी जाने वाली अद्भुत वनस्पति और जैव विविधता के संरक्षण में अहम भूमिका निभाती है। यहीं पेड़-पौधे बड़े होकर मिट्टी को वर्षा के जल के साथ बह जाने से रोकने का काम करते है। इसके अलावा मिट्टी भू-जल संरक्षण, नदियों के पानी के संरक्षण और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने मे भी बेहद मददगार साबित होती है।


हमारी मिट्टी मे पृथ्वी का इतिहास छुपा हुआ है। लाखों सालों से पृथ्वी द्वारा तैयार किए गए खनिज इसी मिट्टी मे सुरक्षित है। पृथ्वी के भविष्य के लिए भी मिट्टी का जिंदा रहना बेहद आवश्यक है क्योंकि मिट्टी मे पाये जाने जैविक पदार्थ, विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म और अति-सूक्ष्म जीवाणु कार्बन के मुखी स्त्रौत है, जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। जब तक यह जीवाणु मिट्टी में मौजूद रहेंगे तब तक क्लाइमेट चेंज की समस्या से जंग जीतने की हमारी उम्मीद भी जिंदा है। परंतु जब से हमने अपने खेती के तौर तरीकों को बदलना शुरू किया है और खेती मे कई तरह के रसायनों का प्रयोग शुरू किया है, हम लगातार मिट्टी की हत्या करने की कोशिश कर रहें है पर हकीकत यह है की हम आत्महत्या कर रहें है। हम अपने ही विनाश को हँसते हुए आमंत्रित कर रहे है।

इश्तियाक अहमद जो लंबे समय से किसानों के साथ देशी बीजों के संरक्षण पर काम कर रहे थे, को आधुनिक खेती के तौर-तरीकों से मिट्टी को होने वाले नुकसान का भान हुआ तब वे ग्रीनपीस नाम की संस्था के साथ जुड़कर मिट्टी की सेहत को सुधारने का काम कर रहे है।


इश्तियाक जी बताते है की जब वे इस काम को शुरू कर रहे थे तब उन्होने बिहार के हजारों गाँवो मे किसानो के साथ मिलकर इस बात पर चर्चा की थी। वे आगे कहते है की हर जगह से एक ही बात निकल कर आ रही थी की मिट्टी की हालत बहुत ही ज्यादा खराब है पर किसानों के पास इस समस्या का कोई समाधान नही है। किसान जानते थे की मिट्टी की खराब सेहत की वजह से केंचुए मिट्टी से गायब हो चुके थे। कई सारे कीट-पतंग और उन्हे खाने वाले पक्षी गाँव को छोड़कर जा चुके थे। रसायनिक खाद की वजह से उनके कुओं का पानी दूषित हो चुका था। फिर भी किसान देशी तरीकों की तरफ लौटना नहीं चाह रहा था क्योंकि उसे भरोसा नहीं था की उन तरीकों से उसे पर्याप्त उपज मिल पाएगी। दूसरी तरफ समस्या यह भी थी की पिछले कुछ समय मे गाँवो मे पशुओं की संख्या मे बेहद कमी आ चुकी थी जिस वजह से किसानो के पास खाद के लिए पर्याप्त गोबर भी उपलब्ध नही रहता था। जो भी गोबर किसानो के पास उपलब्ध होता था वे उसे ईंधन के रूप मे प्रयोग कर लेते थे।

तब उन्होने ग्रीनपीस के साथ मिलकर तय किया की एक गाँव को चुना जाए और वहाँ पर किसानों के साथ मिलकर सरकारी स्कीमों का प्रयोग  करते हुए एक मॉडल विकसित किया जाए जिससे दूसरे गाँव के किसान प्रेरित होकर पारंपरिक खेती की पारंपरिक तकनीकों की और लौट सकें। तब उन्होने झमूई जिले के केडीया गाँव के किसानो के साथ बात कर के वहाँ पर काम करना शुरू किया। वे बताते है की किसानों के साथ काम करना इतना आसान नहीं है क्योंकि आप किसान को यह नहीं कह सकते हो की परिणामों के लिए इंतजार करे। उसके लिए तो उसकी आने वाली फसल उसकी पूरी जमा पूंजी होती है। इसलिए हमने शुरुआत मे प्रयोग के तौर पर अमरूत पानी का निर्माण किया और उसे एक खेत पर प्रयोग कर किसानो को दिखाया। जब किसानों को इसके परिणाम दिखने लगे तो वे भी धीरे-धीरे कीटनाशकों का प्रयोग कम करने लगे है। 


आज बीस महीनों की मेहनत के बाद हालत यह है कि पूरे गांव मे एक भी किसान कीटनाशक का प्रयोग अपने खेत मे नहीं कर रहा है। इसके बाद हमने किसानो से बात की कि अब हमे मिट्टी कि सेहत पर काम करना चाहिए। इसके लिए हमने वर्मी कम्पोस्ट तैयार करे। चूंकि अत्यधिक रसायनों कि वजह से केंचुए खेतो से पूरी तरह गायब हो चुके थे और वर्मी बेड बनाने कि लागत किसान व्यय नहीं कर सकता था तो हमने सरकारी योजनाओं का सहारा लिया। सरकारी योजनाओं कि ही मदद से हमने पालतू जानवरो के रख-रखाव के लिए छोटी-छोटी गौशालाओं का निर्माण किया और अब हम गाँव मे किसानों के लिए बायो गैस प्लांट और कम्पोस्ट टॉइलेट का निर्माण करवा रहे है। गोबर गैस कि वजह से किसानो कि ईंधन कि समस्या सुलझ गयी है और प्लांट से निकले अपशिष्ट को वो खाद के रूप मे प्रयोग कर रहा है यही कम्पोस्ट टॉइलेट कि वजह से किसान मानव विष्टा को भी खाद बनाकर उसे खेतों मे प्रयोग कर रहा है। पानी कि समस्या के लिए हमने तालाब बनवाए है। केडीया गाँव मे अब तक किसानों ने सरकारी योजनाओं का लाभ लेते हुए अबतक 282 वर्मी खाद के बेड, 11 बायो गैस प्लांट, 5 तालाब, 5 गौशालाएँ, एक कोल्ड-स्टोरेज और कई कम्पोस्ट टॉइलेट का निर्माण कर चुके है। आज केडीया गाँव का किसान आत्मनिर्भर है। उसकी लागत बेहद का कम हो चुकी है। उसे खाद बीज और पानी के लिए बाजार पर निर्भर नहीं होना पड़ रहा है। वही दूसरी तरफ उसकी उपज भी पहले बढ़ गयी है।

इश्तियाक जी आगे जोड़ते हुए कहते है कि जब यहाँ के किसानों ने प्रकृति के साथ जुड़कर फिर से जीना शुरू किया है प्रकृति ने भी अपना पूरा आशीर्वाद इनको दिया है। खेतों अब केंचुए फिर से आने लगे है, कई तरह के पक्षी और तितलियाँ जो गाँव से लुप्त हो चुकी थी वो फिर से गाँव मे अपना घर बनाने लगे है। इश्तियाक जी बताते है कि इन सब कामों के लिए किसानों ने बेहद मेहनत की है और उन्होने सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ उठाया है, पर समस्या यह है कि पर्याप्त प्रचार के अभाव मे और सरकारी अफसरों कि अरुचियों के कारण किसान इन योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाता। सरकार योजनाएँ तो खूब बनाती है पर उसे किसानों तक पहुंचाने मे असमर्थ रही है। यहाँ पर समाज के पढे-लिखे और जागरूक लोगों कि जिम्मेदारी बनती है कैसे वे सरकार और किसान के बीच की दूरी को कम कर सकें। हमने भी केडीया गाँव में यही काम किया, जिसका नतीजा आज सबके सामने है और सरकार भी आज अपनी सभाओं मे इस गाँव का उदाहरण देती है।

5वीं फेल शख्स ने बनाया घूमने वाला घर

आज के समय में देश का हर युवा इंजीनियर बनने सपने देखता है। अपने सपने को पूरा करने के लिए वह अपनी आधी लाइफ तो पढ़ाई में लगा देता है और लाखों रुपए फीस में भरकर भी नौकरी मिलती है कुछ हजार रुपए की। लेकिन प्रतिभा किसी कॉलेज या स्कूल में मिलने वाली शिक्षा की मोहताज नही होती है। प्रतिभा व्यक्ति के अंदर बसती है। कुछ ऐसे होते हैं। जो पढ़ाई करके भी वो हासिल नही कर पाते जो बिना पढ़े लिखे हासिल कर लेते हैं। एक ऐसे ही शख्स हैं तमिलनाडु के मेलापुदुवक्कुदी गांव मे रहने वाले 65 वर्षीय मोहम्मद सहुल हमीद। पांचवी कक्षा में फेल होने के बाद मोहम्मद सहुल हमीद ने आर्थिक तंगी की वजह से पढ़ाई छोड़ दी थी। जब ये छोटे थे तब इनके घर के हालात ठीक नहीं थे। घर खर्च चलाने के लिए जब काम ढूंढने निकले तो उन्हें काम नहीं मिला तो ये मजदूरी करने लगे। मजदूरी करते-करते मोहम्मद सहुल हमीद घर बनाने में रूचि लेने लगे। इसके बाद मोहम्मद सहुल हमीद अरब देश जाकर रहने लगे। 20 साल वहां रहने के बाद उन्होंने घर बनाने का काम सीख लिया। अरब देश में काम करने से उन्हें वहां की नई टेक्नोलॉजी का अनुभव हो गया और फिर अपने देश वापस आकर उन्होंने यह प्रण लिया की वो भी एक ऐसा घर बनाएंगे जिसे देखने के लिए दूर-दराज के लोग आएंगे।


देखने के लिए आते हैं दूर-दूर से इजीनियर :
विदेश मे कई सालों तक काम सीखने के बाद अपने गांव लौट कर उन्होंने इंजीनियरिंग का एक ऐसा नमूना खड़ा किया जिसे देखने के लिए दूर-दूर से इंजीनियर आते हैं। मोहम्मद सहुल हमीद के परिवार की आर्थिक स्थिती ठीक ना होने की वजह से उन्हें अपना स्कूल कक्षा पांच में ही छोड़ना पड़ा और कुछ कर नहीं सकते थे। कुछ आता भी नहीं था तो मजदूरी करने लग गए। मजदूरी करते-करते घर बनाना अच्छा लगने लगा। कुछ ही दिनों में ये शौक बन गया। इसलिए उन्होंने कंस्ट्रेशन लाइन मे अपना कॅरियर बनाने की सोची।

प्री फैब्रिकेटेड संरचना :
गांव लौटने पर हमीद ने एक ऐसा घर बनाया जो मूव कर सकता है। इसे मूविंग टाइप हाउस कहा जाता है। इसे प्री फैब्रिकेटेड संरचना भी कहा जाता है। जब हमीद ने ऐसा घर बनाने की बात अपने दोस्तों और परीवार के सामने रखी तो सब उनका मजाक उड़ाने लगे। हमीद ने इस मूविंग हाउस को बनाने के लिए राफ्ट फाउंडेशन टेक्नॉलाजी का प्रयोग किया। मोहम्मद सहुल हमीद द्वारा बनाये इस घर में ग्राउंड फ्लोर पर 3 तथा फर्स्ट फ्लोर पर 2 बेडरूम हैं। फर्स्ट फ्लोर को आयरन रोलर की मदद से किसी अन्य दिशा में भी घुमाया जा सकता है। मुहम्मद हमीद अपने इस घर के बारे में बताते हुए कहते हैं कि ” मैं कुछ नया करना चाहता था इसलिए मैंने ये मूविंग हाउस बनाकर सबको गलत साबित कर दिया। इस अनोखे निर्माण से प्रभावित होकर राज्य के विभिन्न जगहों से इंजीनियर हमीद का घर देखने आते हैं।” 25 लाख रुपये में तैयार उनका ये प्रोजेक्ट तमिलनाडु के मेलापुदुवक्कुदी गांव में 1080 स्क्वायर फीट जमीन पर खड़ा है।

उबाऊ होती शिक्षा को एक मजेदार अनुभव बनाने की कामयाब कोशिश 'इंफाइनाइट इंजिनियर्स'

क्या आप भी यह मानते हैं कि क्लास में पीछे बैठने वाले छात्र पढ़ाई में कमजोर होते हैं? क्या पीछेे बैठने वाले छात्र जिंदगी में पीछे ही रह जाते हैं? या वे कुछ नया करने के लायक नहीं होते? अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप बिल्कुल गलत हैं। क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जो हमेशा क्लास में पीछे बैठे लेकिन अपनी नवीन सोच और आइडिया ने उन्हें जिंदगी में सफल बना दिया।

एमसी जयकांत बचपन से उन बच्चों में शुमार रहे जो क्लास में हमेशा अपने लिए पीछे वाली सीट की तलाश मेें रहते हैं। क्लास में हमेशा उन्होंने औसत अंक ही पाए। स्कूल के बाद उन्होंने एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमीशन लिया। जब वे इंजीनियरिंग के तीसरे साल में थे तब छात्रों को डिज़ाइन और फ्रैब्रिकेशन के अंतर्गत प्रोजेक्ट्स दिए गए। जयकांत ने सोच क्यों न कुछ अलग बनाया जाए जो किसी ने न बनाया हो। कुछ नया करने की इच्छा मन में लेकर जयकांत ने ब्लेडलेस विंड टर्बाइन विषय को अपना प्रोजेक्ट चुना और अपना प्रोजेक्ट बनाया। कुछ समय बाद एक दिन जयकांत को उनके दोस्त ने बताया कि सेमिनार हॉल में प्रोजेक्ट की प्रेजेंटेशन चल रही है। फिर वे लोग भी सेमिनार हॉल पहुंच गए और पीछे जाकर बैठ गए ताकि उनका समय एक एसी हॉल की ठंडक में आसानी से कट सके और उन पर किसी का ध्यान भी न जाए। लेकिन एक स्टाफ कर्मचारी ने उन्हें वहां देख लिया और फिर जयकांत ने उन्हें बताया कि उनका प्रेजेंटेशन भी तैयार है और वे पे्रजेंटेशन देने आए हैं। जयकांत ने सोचा कि वे उनकी बात को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेंगे लेकिन थोड़ी ही देर बाद जब जयकांत का नाम पुकारा गया तो वे हैरान रह गए और थोड़ा घबरा भी गए। फिर किसी तरह उन्होंने खुद को बैलेंस किया और स्टेज पर आ गए। जहां उन्होंने पांच मिनट में अपना प्रेजेंटेशन दिया। लगभग एक सप्ताह बाद जयकांत को पता चला कि उस दिन के सभी प्रेजेंटेशन्स में जयकांत के प्रेजेंटेशन को सबसे अधिक अंक मिले हैं। यह खबर सुनकर जयकांत बहुत हैरान हो गए। जयकांत ने इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। बार-बार वे खुद से यही सवाल कर रहे थे कि यह कैसे हो गया? जयकांत की इस हैरानी की एक वजह यह भी थी कि जिंदगी में पहली बार वे किसी परीक्षा में प्रथम आए थे। बेशक किसी प्रेजेंटेशन में पहले स्थान पर आना कोई इतनी बड़ी घटना नहीं है लेकिन जयकांत के लिए यह पल उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट बन गया। उसके बाद जयकांत ने खुद से सवाल करने शुरु किए। खुद को टेस्ट करना शुरु किया और फिर सारे कॉलेज व और इंटर कॉलेज प्रेजेटेंशन में भाग लेना शुरु कर दिया।

इस दौरान जयकांत अपने दोस्त के साथ गोवा गये और जब वे गोवा से वापस चेन्नई लौट रहे थे कई तरह के विचार उनके दिमाग में आते जा रहे थे। चेन्नई लौटते ही उन्होंने तय किया कि अब उनके दिमाग में जैसे ही कोई क्रिएटिव आइडिया आएगा वे सभी आइडियाज को नोट करते चले जाएंगे और उन आइडियाज पर काम करेंगे। साथ ही जयकांत के दिमाग में यह सवाल भी बार-बार खड़ा हो रहा था कि आखिर क्यों आज के छात्र कुछ अलग नहीं सोच रहे हैं? क्यों वे केवल वही काम कर रहे हैं जो सालों से सभी करते आ रहे हैं? और आखिर क्यों वे खुद को केवल वहीं तक सीमित रखना चाहते हैं? जबकि सभी छात्र पढ़ने में अच्छे हैं। जयकांत इसका उत्तर पाना चाहते थे। आखिरकार उन्होंने खुद इसका जवाब भी खोजा और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस सब की वजह हैं हमारे स्कूल और शिक्षा देने का हमारा पुराना तरीका। हमारे स्कूल शुरु से बच्चे को केवल पढ़ने में ज़ोर देते हैं कुछ नया सीखने पर नहीं। ज्यादा अंक लाने के चक्कर में किसी का ध्यान इस ओर नहीं जाता कि बच्चे ने सीखा क्या। क्या केवल पढ़कर या रटकर अच्छे अंक लाना ही शिक्षा प्राप्त करना है? क्या अच्छे अंक लाने की होड़ में हम उस आनंद से वंचित नहीं हो रहे जो सच में हमें पढ़ते समय आना चाहिए?

अब जयकांत को अपने सवाल का जवाब मिल चुका था, और इसी जवाब को जयकांत ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। अब वे नई पीढ़ी के लिए इस दिशा में तर्कसंगत तरीके से काम करना चाहते थे। छात्र जो भी पढ़े उसे तर्कसंगत तरीके से व्यवहारिक तौर पर करे जिससे उसे पढ़ाई में भी मज़ा आए और उसे सभी विषय आसानी से समझ भी आएं। शिक्षा का मतलब केवल अच्छे अंक लाने तक सीमित न हो बल्कि उसका सही इस्तेमाल हो। जब जयकांत ने इस विचार को अपने दोस्तों के साथ शेयर किया तो सभी तुरंत इस विषय पर काम करने को तैयार हो गए। फिर जयकांत ने अपने दोस्त हरीश के साथ १५ सिंतबर २०१३ में 'इंफाइनाइट इंजिनियर्स' की शुरुआत की।

'इंफाइनाइट इंजिनियर्सÓ का मकसद व्यवहारिक विज्ञान को जमीनी स्तर यानी उनका प्रयोग करके छात्रों के समक्ष सरल तरीके से समझाकर पेश करना था ताकि बच्चे भी कुछ नया सोचें और उनका दृष्टिकोण रचनात्मक हो सके।

जयकांत और हरीश के अलावा एस जयविगनेश, ए किशोर बालागुरु और एन अमरीश भी 'इंफाइनाइट इंजिनियर्स' के सह संस्थापक हैं। वर्तमान में यह लोग कई ट्रेनिंग सेंटर्स, रोबोटिक और ऐरो मॉडलिंग की शिक्षा स्कूल स्टूडेंटस को दे रहे हैं। इंफाइनाइट इंजीनियर्स का मकसद स्कूल के सिलेबस के साथ जुड़कर छात्रों को बेहतरीन शिक्षा अनुभव देना है जो छात्रों के लिए उपयोगी हो। मकसद शिक्षा को किताबों या ब्लैकबोर्ड तक सीमित न रखते हुए उसके प्रैक्टिकल इंप्लीमेंटेशन से उसे समझाना है। शिक्षा को बोझ नहीं बल्कि मजेदार अनुभव बनाना है।

कंपनी ने शुरुआत दो स्कूलों से की थी, लेकिन आज यह चेन्नई के लगभग अस्सी स्कूलों में काम कर रही है। जल्दी ही कंपनी अप्लाइड साइंस रिसर्च इंस्टीट्यूट बनाने की दिशा में काम कर रही है ताकि किसी भी स्कूल का छात्र यहां आकर शिक्षा प्राप्त कर सके और अपने क्रिएटिव आइडियाज से सफलता की नई ऊंचाईयों को छू सके।



सफलता का श्रेय -

कंपनी के सभी लोग अपनी सफलता का श्रेय उन लोगों को देना चाहते हैं जो उनकी आलोचना करते हैं क्योंकि यही आलोचना कंपनी को और बेहतर करने की प्रेरणा देती है। एक बार कंपनी के प्रयासों को लेकर एक प्रोफेसर ने कहा कि इंफाइनाइट इंजीनियर्स एक व्यर्थ का प्रयास है जो चलने वाला नहीं है। प्रोफेसर द्वारा की गई इस आलोचना को इंफाइनाइट इंजीनियर्स के सभी सदस्यों ने संकल्प के तौर पर स्वीकार किया और अपने काम के प्रति और दृढ़ हो गए इसलिए कंपनी उक्त प्रोफेसर साहब को भी अपनी सफलता का श्रेय देती है जिन्होंने उन्हें जुनून की हद तक इस दिशा में काम करने के लिए प्रेरित किया।

सही बात तो यह है कि पढ़ाई करने का असली तरीका क्या हो? इस सवाल का सबसे सही जवाब तो क्लास में पीछे बैठने वाले छात्र ही बेहतर तरीके से समझा सकते हैं क्योंकि वही इस सच को जानते हैं कि अध्यापकों की कौन सी बातें पीछे बैठे छात्रों को सालों से सोने पर मजबूर करती रही हैं।

सुनिए, बोलने में अक्षम बच्चों की ‘आवाज़’


अजीत नारायणन, संस्थापक
आज के समय में शिक्षा के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के साथ ही क्रांति आ गई है और स्मार्टफोन और टैबलेट के प्रयोग ने इसे और भी रोचक और मनोरंजक बना दिया है। विभिन्न शारीरिक अक्षमताओं और लकवाग्रस्त बच्चों को शिक्षा देने के लिये इन तकनीकी यंत्रों और एप्लीकेशन्स का इस्तेमाल हमें एक नये युग की ओर ले जा रहा है। ऐसे बच्चे जिनको बोलने में परेशानी होती है और जिन्हें छोटी-छोटी बातें समझने में काफी समय लगता है, अब उनकी समस्या का समाधान मिल गया है। एक चित्र आधारित सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन ‘आवाज़’ ने उनकी जिंदगी ही बदल दी है।


25 वाक् चिकित्सक (स्पीच थिरेपिस्ट) और 300 लकवाग्रस्त बच्चों के साथ काम करते हुए चेन्नई की इनवेंशन लैब्स की टीम ने ऐसे टेबलेट सॉफ्टवेयर ‘आवाज़’ का ईजाद किया जिसकी मदद से ये बच्चे अपने शब्दों को तस्वीरों में बदलकर दूसरों को अपने मन के भाव समझा सकते हैं। ‘आवाज़’ तस्वीरों और बढि़या क्वालिटी वाले वाइस सिंथेसिस का इस्तेमाल कर संदेश बनाता है और भाषा को बेहतर बनाता है।

इसका पूरा श्रेय जाता है इनवेंशन लैब्स के संस्थापक अजीत नारायणन को। अजीत नारायण पहले प्रसिद्ध अमरीकन मेगाट्रेड्स कंपनी में नौकरी करते थे और वर्ष 2007 में उन्होंने अपनी कंपनी शुरू की। आईआईटी चेन्नई के स्नातक अजीत ने वर्ष 2009 में गूंगे लोगों की सहायता के लिये एक संचार उपकरण बनाने के साथ ही इस दिशा में अपने कदम बढ़ाए। इसके बाद उन्होंने अपनी दिशा बदली और टैबलेट और स्मार्टफोन के सॉफ्टवेयर में विशेज्ञता हासिल की।

अजीत नारायणन का कहना है कि आईपैड और एंड्रॉयड आधारित टैबलेट जैसे उपकरण विशिष्ट जरूरतों वाले बच्चों के संचार की प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन ला रहे हैं। वे कहते हैं, ‘‘यह प्रोडक्ट तस्वीरों और हाथों के संकेतों के जरिए एक दूसरे से बात करने में बच्चों की मदद करता है। वे अलग अलग तस्वीर लेते हैं, उन्हें क्रमबद्ध करते हैं, फिर ये क्रम वाक्य में बदल जाता है और फिर उसे पढ़ा जाता है।’’

इस समय ‘आवाज़’ तीन ग्रेड वाला रिसर्च आधारित शब्दकोश ऑफर करता है जिसमें मूल और अतिरिक्त शब्द विभिन्न कोटियों में इकट्ठा किए गए हैं। भारत के अलावा, इनवेंशन लैब्स अब यूरोप, अमरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित बाजारों में सॉफ्टवेयर अनुप्रयोग के लिए बेचता है। अजीत का दावा है कि डेनमार्क और इटली में सिर्फ ‘आवाज’ ही लकवाग्रस्त बच्चों के लिये मौजूद एप्लीकेशन है। इसके इस्तेमाल से माता पिता और बच्चों के जीवन में बहुत सुधार हुआ है।

अजीत आगे जोड़ते हुए बताते हैं ‘‘लकवाग्रस्त बच्चे और सुनने में दिक्कत का सामना करने वाले बच्चे खुद को अभिव्यक्त करने में बहुत मुश्किलों का सामना करते हैं। हालांकि उनके माता-पिता, रिश्तेदार और विशेष स्कूलों के शिक्षक संकेतों के जरिए उनकी अभिव्यक्ति को समझ सकते हैं, लेकिन यह उपकरण इस मुश्किल का हल करने में बहुत उपयोगी है,’’।

अपने इस काम के लिए अजित को 2011 में एमआईटी टैक्नोलॉजी की नवीन आविष्कारों की वैश्विक सूची में भी नामित किया गया था। इसके अलावा उन्हें भारत के राष्ट्रपति से विकलांगों के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।

‘आवाज़’ मुख्य रूप से दो घटकों, एक स्पीच सिंथेसाइजर और उसकी सहायता से संचालित होने वाले लिखित पूर्वानुमान सॉफ्टवेयर को मिलाकर बनाया गया है। स्पीच सिंथेसाइजर को विभिन्न क्षमताओं वाले अक्षम बच्चों लिये डिजाइन किया गया है। इसमें एक 7इंच की टचस्क्रीन एलसीडी, वॉयस आउटपुट के लिये स्पीकर और ऑडियो संकेतों के लिए ऑडियो जैक, यूएसबी पोर्ट, मोनो जैक पोर्ट, रिचार्जेबल बैटरी के अलावा पहिएदार कुर्सी में लगाने का विकल्प उपलब्ध रहता है। लिखित पूर्वानुमान सॉफ्टवेयर अक्षम बच्चों को वाक्य बनाने ओर फिर उन्हें दूसरों को समझाने में मदद करता है। ‘आवाज़’ में स्कैनिंग तकनीक का इस्तेमाल कर वाक्यों को तैयार किया जाता है। यह एपलीकेशन वर्तमान में अंग्रेजी भाषा में लगभग 10000 शब्दों का समर्थन करता है। इसके अलावा इसमें बच्चे की सुविधा के हिसाब से और भी शब्दों को जोड़ा जा सकता है।

इस तरह से ‘आवाज़’ उन बच्चों की आवाज बनने में सफल रहा है जो अबतक अपनी बात दूसरों तक नहीं पहुंचा पाते थे। ‘आवाज़’ की मदद से ऐसे बच्चे अब अपने दिल और दिमाग में चल रहे विचारों को स्पीच सिंथेसाइजर के जरिये दूसरों के समाने अभिव्यक्त कर सकते हैं।

अक्षम बच्चों के माता-पिता या उनके शुभचिंतक इस एप को सिर्फ 9.99 डॉलर (5 हजार रुपये) प्रतिमाह का खर्चा करके इसका प्रयोग कर सकते हैं। इसे खरीदने से पहले अगर चाहें तो परीक्षण के लिये वे पहले इसे एक सप्ताह के लिये मुफ्त में प्रयोग कर सकते हैं।

फिलहाल ‘आवाज़’ अंग्रेजी और छह भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है, लेकिन इसे और भाषाओं में भी लाने की योजना पर काम च

गजब आविष्कार : धरती से 'जहर' पीकर 'अमृत' देगा 'नीलकंठ'

हरियाणा के कैथल जिले के सातवींं पास किसान लक्ष्मण सिंह ने 'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनाने का फॉर्मूला खोज लिया है। खास बात यह है कि बिना बिजली के इस यंत्र पर लागत भी ज्यादा नहीं आती।

कैथल (सुधीर तंवर)। प्रतिभा को किसी स्कूल और कॉलेज की जरूरत नहीं। वैसे भी ज्यादातर अविष्कार अनपढ़ों और कॉलेज ड्रॉपर्स के नाम दर्ज हैं। ठीक ऐसेे ही हरियाणा के कैथल जिलेे में रहने वाले एक किसान ने भी एक नया 'अविष्कार' किया है। जो काम आज तक बड़ी-ब़ड़ी कंपनियों में करोड़ों की तनख्वाह लेने वाले इंजीनियर नहीं कर पाए इस सातवीं पास किसान ने वो काम महज तीस हजार रुपये में कर दिया।


'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनानेे का फॉर्मूला निकाला

सौंगल के किसान लक्ष्मण सिंह ने 'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनानेे का रास्ता खोज लिया है। दरअसल, रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से भूजल 'जहरीला' होता जा रहा है। इसी 'जहरीले' पानी को हम पीते हैं, जिसका दुष्प्रभाव शरीर पर पड़ता है। इसी को मीठा बनाने के लिए लक्ष्मण ने महादेव नीलकंठ वाटर प्यूरीफायर बनाया है।


सिरमिक पाउडर और कोयले से शुद्ध होगा पानी


लक्ष्मण सिंह ने अपने इस यंत्र में पांच तरह के फिल्टर लगाए हैं। इसमें टंकी से पाइप के जरिए पानी आता है। पांचों फिल्टर पीवीसी पाइप के जरिए आपस में जुड़े होंगे। इन्हीं पांचों फिल्टरों से गुजर कर पानी शुद्ध होगा। पहले चार फिल्टरों में मौजूद ईंट-पत्थर और सिरमिक का पाउडर व लकड़ी का कोयला पानी को शुद्ध करेंंंगे। जबकि पांचवां फिल्टर पानी को पूरी तरह शुद्ध कर इसमें ऑक्सीजन भर देगा।


बिना बिजली 15 साल तक मिलेगा स्वच्छ पानी


यह वाटर प्यूरीफायर 15 साल तक स्वच्छ पानी मुहैया कराएगा। खास बात यह कि न तो इसके लिए बिजली की जरूरत होगी और न मेंटीनेंस की।


बचा हुआ पानी भी खेती के लिए फायदेमंद


प्यूरीफायर में पानी के शुद्धीकरण के बाद बचे हुए पानी को खेती में प्रयोग किया जा सकता है। दावा है कि इसमें मौजूद फ्लोराइड साल्ट, टीडीएस, जंक और ऑक्सीजन की उपस्थिति उर्वरक का काम कर जमीन की उत्पादन क्षमता को कई गुणा बढ़ा देगी। लक्ष्मण सिंह ने कहा कि उनके खेत में खड़ा 25 फीट ऊंचा गन्ना हो या भुट्टों व गेहूं की बालियों से लदे मक्की और गेहूं के पौधे या फिर कचरियों व लौकी से लदी बेल, इस दावे को पुख्ता करती हैं।


तीस हजार आती है लागत


एक इंच पाइप वाला महादेव नीलकंठ प्यूरीफायर करीब 30 हजार रुपये में तैयार हो जाता है। दावा है कि यह एक घंटे में करीब पांच हजार लीटर पानी को शुद्ध कर देता है। इसी तरह दो, तीन, चार, पांच इंच पाइप वाले यंत्र का खर्च और पानी को शुद्धिकरण करने की क्षमता उसी अनुपात में बढ़ती जाती है।


कई कंपनियों ने दिए लुभावने ऑफर


लक्ष्मण सिंह से उनके प्यूरीफायर की तकनीक साझा करने के लिए कई नामी गिरामी कंपनियों ने मोटी धनराशि की पेशकश की, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। लक्ष्मण ने इस प्यूरीफायर का बाकायदा पेटेंट करा लिया है। वहीं, विशेषज्ञों ने भी इस पर मुहर लगाते हुए इसे किफायती बताया है।


समाजसेवा के साथ-साथ रोजगार देने का सपना


लक्ष्मण सिंह ने अपने इस अविष्कार के जरिए समाजसेवा के साथ-साथ युवाओं को रोजगार देने की भी योजना बनाई है। लक्ष्मण सिंह इस प्यूरीफायर का व्यापक स्तर पर उत्पादन और प्रचार करने की योजना पर काम कर रहे हैं। इसके लिए पहले वो छोटे स्तर से शुरूआत करेंगे। इसके बाद पूरे राज्य में नेटवर्क बनाया जाएगा और फिर दूसरे प्रदेशों के युवाओं को इस मुहिम से जोड़ा जाएगा। लक्ष्मण सिंह ने कहा कि देश भर में इसका प्रसार कर देने के बाद जापान जैसे दूसरे देशों के साथ इस तकनीक को साझा किया जाएगा।


फिलहाल ब्लॉक और ग्राम स्तर से करेंगे शुरुआत


लक्ष्मण सिंह ने अभी एमटेक पास पांच युवाओं की टीम बनाई है। जो कि 15 जून से विभिन्न जिलों के पांच-पांच युवाओं को पंचायती जमीन पर प्यूरीफायर बनाने का प्रशिक्षण देगी। इसके बाद ये टीमें ब्लॉक और ग्राम स्तर पर बीटेक/एमटेक युवाओं को प्रशिक्षण देंगी। जो प्यूरीफायर का निर्माण कर इसकी बिक्री करेंगी। इसे बनाने वाले युवकों को कच्चा माल लक्ष्मण सिंह ही उपलब्ध करवाएंगे

रामगढ़ की 12 वर्षीय काव्या विग्नेश करेंगी डेनमार्क में यूरोपीय रोबोटिक्स चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व

काव्या विग्नेश और उसके दोस्त डेनमार्क में रोबोटिक्स प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले सबसे कम उम्र की टीम में शामिल हैं। मधुमक्खियों को बचाने के अनूठे समाधान के साथ वे इस प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

"दिल्ली पब्लिक स्कूल, नई दिल्ली की क्लास 7 में पढ़ने वाली काव्या विग्नेश को आर्ट्स, डांसिंग और सिंगिग साथ-साथ रोबोटिक्स भी पसंद है। अच्छी एजुकेशन सिर्फ रोबोटिक्स के बारे में जानना ही नहीं, बल्कि वो सब कुछ करना होता है जो आपका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है और जिसके बारे में और अधिक जानने के लिए आप उत्सुक रहते हैं।"
12 साल की काव्या विग्नेश

काव्या और उसकी टीम फर्स्ट लेगो लीग का हिस्सा होगी। ये एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता है, जिसमें 60 देशों के 9 से 16 वर्ष के बीच के लगभग 200,000 बच्चे भाग लेंगे।

काव्या विग्नेश जब नौ साल की थी उन दिनों गर्मियों की छुट्टी के दौरान उसकी माँ ने उसे रोबोलैब के रोबोटिक्स क्लासेस के लिए एनरॉल करवाया और तभी से काव्या ने मुड़ कर कभी पीछे नहीं देखा। वो अपने शौक और जुनून के साथ आगे बढ़ने लगी। काव्या अब 12 साल की है और उसकी टीम सुपरकिलफ्रागिलिस्टिक्सएक्सपीआईडियोगुसीज (Supercalifragilisticexpialidocious) फर्स्ट लेगो लीग (FLL) में शामिल होने वाली भारत की सबसे कम उम्र की टीम है। यूरोपीय ओपन चैंपियनशिप (ईओसी) की ये प्रतियोगिता इस साल के मई माह में डेनमार्क में आयोजित होने जा रही है।

हालांकि टीम के नाम सुपरकिलिफ्रैजिलिस्टीक्सस्पिअडोगुसीज़ (Supercalifragilisticexpialidocious) का उच्चारण थोड़ा मुश्किल है, लेकिन काव्या के लिए यह ज्यादा कठिन नहीं है। काव्या कहती है, "ये नाम मजाक के रूप में सुझाया गया था, लेकिन हमें यह जंच गया और फिर निरंतरता बनाये रखने के लिए हमने इसे ही आगे बढ़ाया, जिसका अर्थ है- बहुत बढ़िया या अद्भुत।

डेनमार्क में प्रतिस्पर्धा के लिए, टीम को अपने प्रोटोटाइप, यात्रा और अन्य खर्चों के लिए धन की आवश्यकता है। अन्य माता-पिता के विपरीत काव्या के माता-पिता क्राउड फंडिंग के माध्यम से धन जुटाने का समर्थन करते हैं, जिसके लिए काव्या ने भी अपनी टीम के साथ मिलकर धन जुटाने का काम शुरू कर दिया है।


क्या है फर्स्ट लेगो लीग


काव्या और उसकी टीम फर्स्ट लेगो लीग का हिस्सा होगी। ये एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता है, जिसमें 60 देशों के 9 से 16 वर्ष के बीच के लगभग 200,000 बच्चे भाग लेंगे। इसके लिए प्रत्येक देश में राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। राष्ट्रीय प्रतियोगिता के विजेता को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए चुना जाता है, जहां दुनिया भर की टीमें एक-दूसरे के खिलाफ अपना कौशल दिखती हैं। काव्या और उनकी टीम ने टॉप 8 में अफनी जगह बनाई है और सूची में सबसे काम उम्र की टीम है। काव्या की ये टीम अब डेनमार्क में होने वाली एफएलएल-ईओसी प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करेगी। इस टीम में में 6 स्टूडेंट्स और 2 टीचर शामिल हैं और ये सभी सभी उस रोबोक्लब से जुड़े हुए हैं, जिससे काव्या नौ साल की उम्र से जुड़ी हुई है।
फर्स्ट लेगो लीग प्रतियोगिता इस तरह की टीमों को, ध्यान केंद्रित करने और अनुसंधान के लिए एक वैज्ञानिक और वास्तविक चुनौती देता है। प्रतियोगिता के रोबोटिक्स भाग में कार्यों को पूरा करने के लिए लेगो माइंडस्टॉर्म रोबोट की डिजाइनिंग और प्रोग्रामिंग शामिल है। छात्र उनको दी गई विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए काम करते हैं और फिर अपने ज्ञान को सभी के साथ साझा करने, विचारों की तुलना करने और अपने रोबोट को प्रदर्शित करने के लिए क्षेत्रीय टूर्नामेंट में मिलते हैं।

काव्या और उनकी टीम जिस परियोजना पर काम कर रहे हैं, उसे बी सेवर बॉट कहा जाता है, जो मधुमक्खियों को या मनुष्यों को नुकसान पहुंचाये बिना उन्हें सुरक्षित और सावधानीपूर्वक हटा देता है।

काव्या कहती हैं, "जब भी लोग अपने घरों में मधुमक्खी देखते हैं, तो वे कीट नियंत्रण वालों को बुलाते हैं और मधु मक्खियों के छत्तों को जला देते हैं। इससे लगभग 20,000 - 80,000 मधुमक्खियां मर जाती है। इसलिए हमने इस समस्या का एक ऐसा समाधान खोजने के बारे में सोचा जो मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचाये बिना ही उन्हें सुरक्षित रूप से वहां से स्थानांतरित कर सके। क्योंकि दुनिया की 85 प्रतिशत से अधिक फसलों का परागण मधुमक्खियों द्वारा ही किया जाता है। भोजन का हर तीसरा टुकड़ा मधुमक्खी द्वारा परागण की गयी फसल या जानवरों (जो कि मधु मक्खियों द्वारा किये गए परागण किये गए हों) पर निर्भर करता है।"

टीम 'सुपरक्लिफ़्रॉगइलिस्टिकएक्सपिअलइडोसियस'

अनुसंधान के एक भाग के रूप में इस युवा दल ने उत्तर प्रदेश के एक मधुमक्खी पालन व प्रशिक्षण केंद्र का दौरा किया। मधुमक्खियों के बारे में बहुत कुछ सीखा और अपने बी सेवर बॉट का निर्माण किया। बी सेवर बॉट किसी भी मनुष्य या मधुमक्खी को नुकसान पहुंचाये बिना, घरों या ऊँची इमारतों से मधुमक्खियों को हटा देता है।

प्रोटोटाइप जिस पर वे काम कर रहे हैं और जिस को मई में प्रतियोगिता के लिए तैयार होने की आवश्यकता है, वो एक क्वाडकोप्टर है। ये 3 डी कैमरे वाला एक उड़ने वाला ड्रोन है, जो हाइव (छत्ते) को स्कैन करता है और उसके आस-पास के क्षेत्र का 3 डी माप तैयार करता है, उसके बाद इस माप को एक सीएडी-सीएएम सॉफ्टवेयर में डाला जाता है जो उस एन्क्लोज़र के आकार को डिज़ाइन करता है, जिसमें कि हाइव और मधुमक्खियों को पूरी तरह से कवर किया जा सके। काव्या के अनुसार इस डिजाइन को एक लकड़ी आधारित 3 डी प्रिंटर में डाला जाता है, जो एक बायोडिग्रेडेबल, सांस लेने योग्य और पुन: प्रयोज्य बाड़े को प्रिंट कर देता है। क्वाडकॉप्टर एक बार फिर से हाइव (छत्ते) के पास जाता है और इसकी दो बाहें छत्ते को पूरी तरह से ढँक लेती है, जबकि एक तीसरी बांह एक तीखी ब्लेड का इस्तेमाल करती है ताकि दीवार के पास से हाइव को काट कर एन्क्लोज़र को बंद किया जा सके और फिर इसे निकटतम मधुमक्खी फार्म में ले जाने के लिए एक वाहन में रख दिया जाता है।

Lightning McQueen कहे जाने वाली इस लाल रंग के रोबोट का निर्माण Lego Mindstorms EV3 के साथ किया जायेगा। काव्या कहती है, “हम बड़े मोटर्स ईवी3 रंग सेंसर का प्रयोग कर रहे हैं जो कि लाइन फॉलोइंग के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसके साथ ही हम सटीक मोड़ लेने के लिए gyro sensor और बहु-कार्य करने के लिए न्यूमेटिक्स का इस्तेमाल कर रहे है। न्यूमेटिक्स, हाइड्रोलिक्स की तरह ही होते हैं, जो अपने भीतर हवा को स्टोर करते हैं और फिर इसे विभिन्न कार्यों के लिए उपयोग करते हैं। हमारे रोबोट में गियर, ढलान वाली सतह और लीवर जैसे सरल तंत्र शामिल हैं। हमने ऐसा कार्यों के दौरान मोटर्स के इस्तेमाल को कम करने के लिए किया था।"

आगे काव्या कहती है, कि "हमारे इस तंत्र में भोजन संग्रह मिशन है। हमने एक पारस्परिक तंत्र का उपयोग किया है, जिसमें रोबोट ऊपर उठता है और एक एनक्लोजर जानवरों को फंसा लेता है। फिर, रोबोट दीवार की सीध में आकर रेफ्रिजरेटर तक पहुंचता है और फिर पारस्परिक तंत्र सक्रिय होकर उसी बाड़े (एनक्लोजर) में भोजन इकट्ठा करता है।”

काव्या अपनी स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ इस काम को भी बखूबी अंजाम दे रही है। शुरूआती दिनों में टीम सप्ताह में दो-चार घंटे का सप्ताहांत सत्र करती थी, लेकिन जैसे-जैसे प्रतियोगिता करीब आती जा रही है वे औसतन पांच दिन और 18-24 घंटे प्रति सप्ताह अभ्यास कर रहे हैं।

काव्या विग्नेश की इस बेहतरीन कोशिश ने सरकार का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। केंद्र सरकार में नागर विमानन राज्य मंत्री जयन्त सिन्हा ने ट्वीट करके काव्या और उनकी टीम का उत्साह वर्धन भी किया है। अपने ट्वीट में उन्होंने कहा है, रामगढ़ की 12 साल की काव्या विग्नेश पर हमें गर्व है, जो डेनमार्क में यूरोपीय रोबोटिक्स चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही है।

केंद्र सरकार में नागर विमानन राज्य मंत्री जयंत सिन्हा का ट्वीट
एक बड़ी जीत की ओर बढ़ते हुए 12 वर्षीय काव्या विग्नेश प्रोटोटाइप के डेनमार्क में अपना कौशल दिखाने के बाद भारत में मधुमक्खियों के ऊपर काम करने वाले सरकारी अधिकारियों से मिलना चाहती है और उनके साथ सहयोग कर के उन्हें 'बी सेवर बॉट' का इस्तेमाल करने के लिए कहना चाहती है। उसे ये उम्मीद है कि वो और उसकी टीम इस प्रतियोगिता को जीत लेंगे। 

काव्या और काव्या की टीम देश के हर अभिभावक से ये कहना चाहती है, कि 'अपने बच्चों के बारे में चिंता नहीं करें। उन्हें वो करने दें, जो वे करना चाहते हैं और फिर उन्हें सफल होते हुए देख कर संतुष्ट हों।

अनपढ़ किसान का अनोखा अविष्कार, तैयार किया चलता-फिरता बाजार

कर्ज और गरीबी ने झकझोरा तो आवश्यकता ने ‘अविष्कार’ को जन्म दिया। किसान बलबीर ने अपनेे ट्रैक्टर-ट्रॉली को ही मल्टीटास्किंग व्हीकल बना दिया। अब यहां जूस से लेकर आइसक्रीम तक और चाय की चुस्की से लेकर बाइक वाशिंग तक की सुविधा है।


दो लाख में तैयार हुआ चलता-फिरता बाजार :

कैथल जिले के पिलनी गांव के किसान बलबीर को गरीबी और कर्ज ने इस कदर झकझोर डाला कि परिवार में दो वक्त की रोटी भी मुश्किल हो गई। सिर पर 17 लाख रुपये का कर्ज था और पास में थी सिर्फ आधा एकड़ जमीन। इससे न खेती हो पाती थी और न ही कर्ज उतर पा रहा था। आखिर में कर्ज चुकाने के लिए जमीन भी बेचनी पड़ी। इसके बाद जानकारों से थोड़े-बहुत पैसे उधार लिये और अपनी ट्रैक्टर-ट्रॉली को चलते फिरते बाजार का रूप दे दिया। उसने इसे अपने हिसाब से डिजाइन कराया है। इसे तैयार करने में सवा दो लाख रुपये खर्च हुए हैं। वह आशान्वित है कि इससे परिवार की गुजर-बसर अच्छे से हो जाएगी।

ये सब है ‘बाजार’ में :
बलबीर की ट्रॉली में गन्ने का रस निकालने की मशीन, जूस कॉर्नर, आइसक्रीम पार्लर, चाय की दुकान और गाडियां धोने के लिए वाशिंग स्टेशन की सुविधा है। वह जूस और आइसक्रीम लेने वालों के वाहन भी निश्शुल्क धो देता है। ट्रॉली में ही उसने एक केबिन भी बनाया है। उसका कहना है कि अगर कहीं उसे रात को देर हो जाती है तो अंदर ही गैस चूल्हे पर खाना पका लेता है और खाकर सो जाता है। इस कमरे में उसने कूलर लगाया हुआ है।

बिजली भी अपनी :
बलबीर ने इस पूरे सिस्टम को ट्रैक्टर से जोड़ रखा है। बीच में जनरेटर रखा है, जो बिजली बनाता रहता है। गन्ने का रस निकालने की मशीन पर ही मोटर रखी है। इसी मशीन से वाहन धोने वाले पाइप में पानी का प्रेशर बनता है। बैटरी और इन्वर्टर रखा हुआ है। ट्रैक्टर के चलने से इन्वर्टर भी चार्ज होता रहता है। बलबीर ङ्क्षसह ने इसे ‘गुरु ब्रह्मानंद जूस भंडार’ नाम दिया है।

खुद तैयार करवाया डिजाइन :
बलबीर ने बताया कि ट्रॉली का यह डिजाइन उसने खुद मिस्त्री से तैयार कराया है। हालांकि शुरू में मिस्त्री ने हाथ खड़े कर दिए थे। मगर बाद में जैसे-जैसे वह बताता गया मिस्त्री वेल्डिंग करता गया। बलबीर का कहना है कि वह अनपढ़ जरूर है, लेकिन दिमाग तो है।

700 रुपये तक की हो जाती है बचत :
बलबीर के मुताबिक प्रतिदिन वह एक हजार से 1200 रुपये तक कमा लेता है। लागत निकालकर करीब 700 रुपये प्रतिदिन बचत हो जाती है। वह दिन में करीब 80 किलोमीटर का सफर तय करता है। बलबीर के परिवार में पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है। उसकी बड़ी लड़की ज्योति बीए में, उससे छोटी बेटी शिवानी दसवीं में और सबसे छोटा बेटा ललित चैथी कक्षा में पढ़ता है

‘‘प्रकृति में दिखता है जीवन’’ - बकुल गोगोइ |

आज से करीब दो दशक पहले असम के तेजपुर जिले के एक छोटे से गाँव के रहने वाला एक युवा अपने आस-पास लगातार कटते हुए पेड़ों और घटते हुए जंगलों को देखकर बेहद दुखी रहने लगा था। वह यह सब देखकर इतना विचलित रहने लगा था की उसे सपनों मे भी पेड़-पौधे, जंगल, नदियाँ रोते-तड़पते हुए दिखाई देते थे। एक दिन इसी तरह के सपने की वजह से जब वे आधी रात में नींद से जाग गए तब उन्होने उस दिन निश्चय कर लिया की आज से उनका पूरा जीवन प्रकृति की सेवा मे समर्पित होगा। 


बकुल गोगोई को पेड़ लगाने का जुनून है। वे बताते है कि बीस साल पहले जब उन्होने पेड़ लगाने कि यह मुहिम शुरू की थी, तब वे गुवाहाटी मे पढ़ाई कर रहे थे। उस वक्त उनके पास इतने भी पैसे नहीं होते थे कि वो  किसी नर्सरी से एक पौधा खरीद कर कहीं रौंप सके। उस वक्त वे अपने खाने के पैसों मे से बचत करके पौधे खरीदते थे और उन्हे शहर मे जहां भी खाली जगह दिखती थी वहाँ जाकर लगा देते थे। पर वो जानते थे कि ऐसा लंबे समय तक नहीं चल सकता है। जल्द ही उनकी पढ़ाई खत्म हो जाएगी और घर से मिलने वाला जो थोड़ा बहुत पैसा है वो भी मिलना बंद हो जाएगा। तब वो सोचने लगे की कैसे वो इस काम को आगे कर सकते है। उसी समय उन्होने अपनी खुद की नर्सरी शुरू कर दी। वो कहते है कि “पौधे लगाने के लिए हमे पैसों की जरूरत नहीं होती।

पौधा खुद अपने बीज तैयार करता है, हमे तो बस थोड़ी सी उसकी सहायता करनी होती है, की वो बीज सही जगह पहुँच जाए और उसके वयस्क होने तक उसका ख्याल रखा जाए। फिर तो वो अपने आप मे इतना सक्षम हो जाता है की खुद कहीं सारे पौधों को जन्म दे सकता है, उनका खयाल रख सकता है। मैं भी तो यहीं कर रहा हूँ। इस प्रकृति से हमें इतना कुछ मिला है, इसने हम सब को माँ कि तरह पाला है। आज जब हमारी जब तकलीफ में ये साथ है, तो हमारा यह फर्ज बनता है कि हम उसकी सेवा करे।”

अपनी इसी मुहिम में लोगों को शामिल करने के लिए इन्होने कई अनोखे तरीके ईजाद किए है। इनके आस-पास के इलाकों में जब भी किसी घर में कोई शुभ कार्य हो रहा होता है तो, यह वहाँ कुछ पौधे लेकर पहुँच जाते है और लोगों से अपील करते है इस शुभ कार्य कि शुरुआत पौधे लगा कर कि जाए। चाहे वो किसी का जन्मदिन, हो शादी हो या किसी भी तरह का कोई और शुभ कार्य, वो कहते है कि जब लोग इन अवसरों पर पौधरोपन करते है तो वह पौधा लोगों के लिए एक जीवित प्रलेख बन जाता है, जिससे उन लोगों कि यादें जुड़ जाती है। वही दूसरी तरफ जब किसी कि मृत्यु हो जाती है तो अंतिम यात्रा मे भी वे लोगों से कहते है कि मरने वाले व्यक्ति को सदा के लिए अमर बनाने के लिए उनकी याद मे परिवार को कम से कम एक पौधा लगवाते है। उनके इन्हीं प्रयासों कि वजह से स्थानीय लोगों ने उन्हे पेड़ वाले बाबा का उपनाम दे दिया है वही दूसरी तरफ समाज के बुजुर्ग लोग उन्हे वृक्ष-मानव कहकर बुलाने लगे है।

अब तक अपने हाथों से दस लाख से भी ज्यादा पौधों को रौपने के बाद अब वे अपनी इस मुहिम को वृहद स्टार पर ले जाना चाहते है। इसके लिए वे असम सरकार से दो चीजों को लागू करवाने का प्रयास कर रहे है कि स्कूल मे दाखिला लेते वक्त हर बच्चे से कम से कम दो पौधे लगवाए जाए और उनकी शिक्षा पूरी होने तक उन पौधों कि जिम्मेदारी उन बच्चों को ही सौंप दी जाए। वे कहते है कि कच्ची उम्र मे जन बच्चों को पेड़-पौधो, प्रकृति से जोड़ा जाएगा तो वे आगे चलकर अपने आप ही प्रकृति के प्रति जागरूक और संवेदनशील हो जाएगा। वहीं दूसरी तरफ उनकी कोशिश है कि असम में होने वाले बीहू महोत्सव के दिन को आधिकारिक रूप से पौधारोपण दिवस घोषित कर दिया जाए और असम का हर परिवार कम से कम एक पौधा उस दिन जरूर लगाए। वो बताते है कि बीहू महोत्सव का आधार मानव के प्रकृति के साथ रिश्ते को हर्षोल्लास से माना रहा है, परंतु आज हम इस रिश्ते को ही भूल गए है। उत्सव के नाम पर हम आज  कई सारी ऐसे कार्य कर रहे है जो सीधे तौर पर प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहे है। ऐसे मे यह जरूरी है कि हम फिर से कैसे इस मरती हुई संस्कृति को जीवित कर सकें, मानव संस्कृति को फिर से प्रकृति के साथ जोड़ सकें। अन्यथा इस संस्कृति कि मृत्यु के साथ मानव कि मृत्यु निश्चित है।