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Monday 27 March 2017

देश के ‘‘श्वस्न तंत्र’’ हिमाचल को बना रहे हैं स्वस्थ : कुलभूषण उपमन्यु

हिमाचल प्रदेश के कामला गाँव के रहने वाले हमारे अगले परिंदे, कुलभूषण उपमन्यु पिछले 40 वर्षों से हिमाचल के पर्यावरण को बचाने का काम विभिन्न स्तरों पर कर रहे है, अपने कॉलेज के समय से ही उन्हे नौकरी शब्द पसंद नहीं था। उन्हे नौकरी गुलामी के समान लगती थी। इसलिए उन्होने स्नातक करने के बाद खेती करने का फैसला किया । उन्हे उस वक़्त सिर्फ एक यहीं पेशा नज़र आ रहा था, जिसमे उन्हें किसी भी प्रकार की व्यवस्था की गुलामी नहीं करनी पड़ती। जबकि उस वक़्त अगर कोई 12th भी कर लेता था तो उसकी सरकारी नौकरी लगनी लगभग सुनिश्चित थी।


खेती के साथ ही उन्होने एक कृषि उत्पादन को प्रसंस्कृत करने का उद्योग भी शुरू किया था और उसके साथ ही उन्होने गाँव मे एक छोटी सी परचून की दुकान भी शुरू की थी। पर व्यापार मे उनका मन नहीं रम सका क्योंकि उन्हें लगता था की झूठ बोले बिना व्यापार करना संभव नहीं है। जिस आर्थिक लाभ को कमाने के लिए व्यापार कर रहे थे उस आर्थिक लाभ पर भी उनके मन में कई सवाल थे। उन्हे लग रहा था की व्यापार भी एक तरह से आधुनिक व्यवस्था की गुलामी है। जल्द ही उन्होने अपना व्यापार बंद कर दिया। उसी वक़्त उन्हें लग रहा था की उन्हें गाँव के लिए कुछ करना चाहिए।


तब उन्होने 1973 में गाँव के लोगों के साथ मिलकर ग्राम उत्थान सभा का निर्माण किया। इसके माध्यम से वे गाँव की छोटी-छोटी समस्याओं को गाँव के ही स्तर पर सामूहिक तौर पर हल करने लगे। उनका इरादा था की गाँव की समस्याओं के लिए उन्हें बार-बार किसी सरकारी विभाग के सामने हाथ फैलाने के बजाय गाँव के स्तर पर ही हलकर लिया जाए तो गाँव आत्मनिर्भर हो सकते है। उनके इन प्रयासों से गाँव मे एक समुदाय की भावना पनपने लगी। उन्होने इसके बाद इसी तरह के सफल प्रयोग आस-पास के 10-12 गांवो मे और किए। इन सभाओं के माध्यम से एक जो मुख्य काम किया, वो यह था की उन्होने छुआछूत को उन गांवों से जड़ से उखाड़ दिया और कुटीर उद्योगों के माध्यम से गाँव की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का प्रयास करते रहें। कुछ समय बाद उन्हे लगने लगा की जिन समस्याओं पर वे काम कर रहें वे वे मुद्दे बेहद बड़े है। वे उन पर कार्य करने के लिए पर्याप्त ताकत नहीं जूटा पा रहे थे। तब वे सोचने लगें की उन्हे शायद किसी एक मुद्दे को पकड़कर अपनी पूरी ताकत उसमे लगा देनी चाहिए। जिससे वे एकाग्र होकर कार्य कर पाएंगे। उसी वक़्त उन्होने सुंदर लाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन पर एक लेख पड़ा था। उसे पड़ने के बाद उन्हे लगा की हिमाचल और हिमालय के पर्यावरण को बचाने के लिए यह काम वो काम है जिसके लिए वे अपना जीवन समर्पित कर सकते है। क्योंकि जंगल बचाने की उनकी जो अवधारणा थी वो गाँव को बचाने के लिए भी जरूरी थी। जंगलों से गाँव की कई सारी जरूरतें पूरी होती थी। तब उन्होने सुंदर लाल जी से समपर्क किया। 1981 में चिपको आंदोलन के साथ उन्होने पूरे हिमाचल और उत्तराखंड के कुछ इलाकों में पदयात्रा की। गाँव-गाँव जाकर उन्होने जंगल को बचाने की मुहिम मे अग्रिम पंक्ति मे खड़े होकर लड़ाई लड़ी। उस वक़्त हिमाचल मे सरकार वहाँ के प्रकृतिक जंगलों को काटकर चीड़ और सफेदा(युकलिप्टिस) के पेड़ लगा रही थी। यह पेड़ वहाँ के लोगों और जंगली जीवों के हित मे नहीं थे। इससे वहाँ की जैव-विविधता और पारिस्थितिक तंत्र खतरे मे पड़ गया था। 


इसके बावजूद सरकार इनसे आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए धड़ल्ले से इन्हे लगा रही थी। जिसकी वजह किसानो को जंगल से मिलने वाला चारा समाप्त हो गया था। तब उन्होने एक नारा दिया “चीड़, सफेदा बंद करो, चारे का प्रबंध करो।” इसी नारे के साथ उन्होने कई तरह के जुलूस, धरनों के माध्यम से व्यापक स्तर सरकार के साथ लड़ाई का आगाज किया। इस लड़ाई के दौरान उन्हें 2 महीनों तक जेल मे भी रहना पड़ा। उनके इलाके मे इस आंदोलन की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है की आज 30 वर्षों के बाद भी यह नारा लोगों की जुबान पर मौजूद है। उनके प्रयासों के चलते आज पूरे हिमाचल मे सफ़ेदा लगाने पर पाबंदी है और चीड़ भी आबादी क्षेत्रों के आस पास लगाने की पाबंदी है। उसके बाद उन्होने जंगल बचाने की अपनी इस मुहिम को आगे ले जाते हुए हिमाचल के कई संघठनों को मिलाकर नवरंचना नाम का एक मंच तैयार किया। जिसके माध्यम से वे सरकार की गलत नीतियों का विरोध करते है और नयी नीतियाँ बनाने मे उनकी मदद करते है। माना जाता है की हिमाचल प्रदेश की जो वन नीति है वो बेहद जटिल है जिसकी वजह से वहाँ जंगल काटना बेहद मुश्किल है। यह उपमन्यु जी के ही प्रयासों का नतीजा है की सरकार को यह वन नीति हिमाचल में लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा।


उपमन्यु जी कहते है की इतना कुछ करने के बावजूद सरकार कोई न कोई रास्ता निकालकर जंगलों को काटने का प्रयास करती रहती है। इसी वजह से 40 वर्षों से हमारी यह लड़ाई बदस्तूर जारी है। अब इसमे पानी, हवा, विकास जैसे कई और मुद्दे शामिल हो गए है। अब हम सरकार पर एक हिमालय नीति बनाने का दबाव बना रहे है। भले ही हम यह काम हिमाचल को बचाने के लिए कर रहे है पर यह समझना होगा की आधे भारत का मौसम और पारिस्थितिक तंत्र हिमालय पर निर्भर है। अगर वो बर्बाद हो गया तो देश को बर्बाद होने में समय नहीं लगेगा। वो कहते है की हिमालय देश के लिए फेफड़े का काम करता है। अगर यह खराब हो गए तो देश साँस नहीं ले पाएगा।

संरक्षित कर रहे हैं पारंपरिक अनाज के बीज : नेकराम

नेकराम शर्मा करसोग, हिमाचल प्रदेश के एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते है। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे खेती करने लग गये थे। 90 के दशक के शुरुआती दौर मे हिमाचल सरकार द्वारा साक्षारता अभियान चलाया गया । नेकराम जी इस अभियान से जुड़ गए । वे खेती के साथ गाँव-गाँव जाकर लोगों को साक्षर करने में लग गये थे। उसी दौरान उनकी मुलाक़ात हिमाचल के कुछ बुद्धिजीवियों और समाज सेवकों से हुई। उनसे मिलने के बाद, हिमाचल के लोगों की बदहाली के कारणों पर उनकी समझ विकसित हुई। तब वे लोगों को पढ़ाने के साथ-साथ इन मुद्दों पर भी गाँव के लोगों से चर्चा करने लगे। उन्होने देखा की गाँवों मे चारे की समस्या बढ़ती जा रही है। उन्होने जब इसके कारणों की खोज शुरू की, तब उन्हे पता चला की जंगल की अत्याधिक कटाई के कारण, पहाड़ उजड़ते जा रहे है और इस वजह से अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाने की वजह से चारा पर्याप्त नहीं हो पा रहा है। तब वे जंगल बचाने के लिए लोगों को जागरूक करने लगे। इन्होने खुदसे अपने गाँव के पास के पहाड़ों पर गाँव वालों के साथ मिलकर दो सौ हेक्टर से भी ज्यादा इलाके मे जंगल उगाया , जिससे उन के क्षेत्र मे चारे की समस्या खत्म हो गयी है।


जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया, उनकी समझ भी विकसित होती गयी। उन्होने देखा की धीरे-धीरे रासायनिक खाद का प्रयोग खेतों मे बढ़ता जा रहा है और इसी के साथ खेतों मे फसल भी बदलती जा रही है। लोग अब अपने खाने के लिए उगाने के बजाय बाज़ार मे बेचने के लिए उगाने लगे थे। देशी व पारंपरिक अनाज की जगह नगदी फसलों ने ले ली है। इसकी वजह से लोगों की थाली से पौष्टिक आहार गायब होता जा रहा है। विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ लोगों के शरीर मे जगह बनाने लगी है, जिनके बारे मे लोगों ने कभी सुना भी नहीं था। तब से वे खुद खेती करके इनके बीजों को बचाते है और लोगों को बाटते है, लोगों को गाँव-गाँव जाकर फिर से इन अनाजों को उगाने के लिए प्रेरित कर रहे है।


वो कहते है कि “ देशी या पारंपरिक अनाज अपने क्षेत्र के वातावरण मे रमा हुआ होता है। उनमे वो सारे पौष्टिक तत्व मौजूद होते है जो उस क्षेत्र मे स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक होते है। ये आपको मधुमेह, कैंसर, हृदय संबंधी बीमारियों से बचाकर रखते है। ये आपकी पाचन शक्ति बढ़ाते है एवं आपके शरीर को निरंतर detoxify करते रहते है। जिससे हमारी मांसपेशियाँ, श्वसन तंत्र व तंत्रिका तंत्र मजबूत होता है व हमारे शरीर कि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।

वे आगे बताते है कि भले ही आज ये देशी और पारंपरिक अनाज प्रचलन मे नहीं है। परंतु मानव समाज पिछले 10000 हजार सालों से इन्हे उगा रहा था, यह उनके भोजन का अहम हिस्सा था। इसकी वजह से कुपोषण जैसी समस्या उस वक़्त नहीं हुआ करती थी। इन्हें एक सोची-समझी साजिश के तहत हमारी थाली से गायब किया गया है। ये अनाज बिना खाद के भी उग सकते थे। लोगों कि थाली मे जब तक यह अनाज था तब तक बीज, रसायनिक खाद और दवाइयाँ बनाने वाली कंपनियाँ लाभ नहीं कमा सकती थी। आज जब लोग इन अनाजों को भूल चुके है तब ये कंपनियाँ दिन दूनी रात चौगनी दर से वृद्धि कर रही है। आज के समय ये सबसे ज्यादा लाभ कमाने वाली इंडस्ट्री है।”

इसी बीच हिमाचल मे विकास के नाम पर कई सारे जलविद्युत बिजली सयंत्र शुरू करने का एक दौर शुरू हुआ। इसकी वजह से कई सारी नदिओं, गावों पर बर्बाद होने का खतरा मंडराने लगा है। उनके गाँव के पास भी एक ऐसे ही सयन्त्र का काम शुरू हुआ था। इसकी वजह से उनके गाँव के साथ-साथ आस-पास के कई गाँवों पर उजड़ने का खतरा मंडराने लगा था। उसके साथ ही नदी और उसके साथ जुड़े पारिस्थितिक तंत्र पर भी खतरा बढ़ गया था। तब उन्होने उच्चतम न्यायालय और NGT तक इसकी लड़ाई लड़ते हुए उस योजना को क्रियान्वित होने से रुकवाया।


अब वे गाँव के लोगों के साथ मिलकर स्वरोजगार कि दिशा मे भी काम कर रहे है। उनके क्षेत्र मे बुनकरी का कार्य आम था। बाज़ारवाद कि इस अर्थव्यवस्था ने इस हुनर को लगभग बर्बाद कर दिया है। परंतु अभी भी गाँवों मे कई बुजुर्गों के पास ये हुनर जिंदा है। वे इन बुजुर्गों कि मदद से इस हुनर को फिर से जिंदा करने कि कोशिश कर रहे है और उनके द्वारा तैयार कपड़े को विभिन्न मेलों के मध्यम से लोगों तक पहुंचाकर लोगो के लिए नए आय के स्त्रौत तैयार करने के लिए प्रयासरत है।


नेकराम जी कहते है कि वे पिछले पच्चीस वर्षों से यह काम करते आ रहे है, अब तो यह उनकी आदत हो गयी है अगर वे गाँव-गाँव घूमकर लोगों से इन मुद्दों पर चर्चा न करे, उन्हे जागरूक करे तो उन्हें रात को नींद नहीं आती है। उन्होने अपना पूरा जीवन इसके लिए समर्पित कर दिया है और बचा हुआ जो समय है उनके पास वो भी वो इसी के लिए समर्पण कर चाहते है।

दुनिया कि भेडचाल से परे

हमारी अगली कहानी एक ऐसे परिवार की कहानी है जिन्होंने आपस मे मिलकर यह तय किया है की वे शहर की तेज़ भागती-दौड़ती जिंदगी से दूर किसी गाँव मे अपनी जिंदगी बसर करेंगे। वहाँ रहकर एक तरफ जहाँ वे अपनी जड़ों को तलाशेंगे वहीं दूसरी तरफ गाँव के लोगों के साथ मिलकर उनके हुनर को एक पहचान देने की कोशिश करेंगे। इसी के साथ वे उनके लिए आय के नए स्त्रौत व विकल्प खोजेंगे।


नवीन पांगति उतराखंड राज्य के मुनसियारी क्षेत्र के मूलनिवासी है। जब उन्होने इंजीनियरिंग मे दाखिला लिया था तभी उन्हे एहसास हो गया था की कुछ गड़बड़ हो गयी है। पर उन्हे उस वक़्त कोई रास्ता दिखने वाला नहीं था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद उन्होने सोश्ल कोम्म्यूनिकेशंस की पढ़ाई की फिर,ग्राफिक डिज़ाइनिंग एवं विडियो इंडस्ट्री मे कई तरह के काम करते हुए अपने करियर को दिशा देने की कोशिश करते रहे। इसी बीच उन्होने अपनी एक कंपनी भी शुरू की। अच्छी आय होने के बावजूद उनका मन उसमे नहीं लग रहा था। कुछ समय बाद उन्होने अपनी कंपनी बंद करके फ्रीलांसिंग करने का फैसला लिया। इसी बीच उनकी पत्नी दीप्ति जी ने भी अपनी फौज की नौकरी छोड़कर अपना समय बच्चों की परवरिश मे देने का मन बना लिया था। दोनों ने मिलकर यह पहले से ही तय कर लिया था की वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजेंगे।


वे उनकी शिक्षा घर पर ही करेंगे और उन्हे शिक्षण व्यवस्था द्वारा पैदा की जा रही मानसिक गुलामी से आज़ाद रखेंगे। वे चाहते थे की उनके बच्चों को अपनेआप को खोजने की पूरी आज़ादी मिले। वे उन्हे शिक्षा व्यवस्था के दबाव और भेड़चाल से मुक्त रखना चाहते थे। जब नवीन जी फ्रीलांसिंग करने लगे थे तब उन्हे भी वही आज़ादी और वक़्त मिला जो वे अपने बच्चों को देना चाहते थे। इस वक़्त का फायदा उठाकर उन्होने जीवन को समझाने की कोशिश की और स्वयं को खोजने की यात्रा पर निकल पड़े। इसी सफर पर यात्रा करते हुए उन्हे एहसास हो गया था की उन्हे जाना तो गाँव की और ही है। वही रहकर खेती करनी है और अपनी जड़ों को भी तलाशना है। दीप्ति जी की भी यही सोच थी। पर उनके लिए सबसे बड़ी समस्या यह थी की वे अपने बच्चों पर इस निर्णय को लादना नहीं चाहते थे। इसके लिए उन्होने अपने बच्चों से चर्चा की और उसके बाद पहले वे गुड़गांव से हल्द्वानी आकर रहने लगे और कुछ समय बाद वे हल्द्वानी से अलमोरा आ गए। इससे यह हुआ की उनके बच्चे धीरे-धीरे बड़े शहर की भागती हुई जिंदगी से छोटे शहर की धीमी और सरल जिंदगी मे ढल गए। जब उनके बच्चों ने इस जीवन को पूरी तरह अपना लिया तब उन्होने गुड़गांव मे अपना घर बेचकर अलमोरा की पहाड़ियों मे बसे एक छोटे से गाँव एक जमीन खरीद ली। अब उन्होने यही पर अपना घर बना लिया है और वही पर खेती भी शुरू कर दी है। वो चाहते है वो यहाँ पर एक फार्मस्टे बनाए जहाँ लोग जमीन से जुड़कर जीवन के महत्व को समझे और अपनी जड़ों की और लौट सकें। वही दूसरी तरफ उनकी कोशिश है की वे गाँव वालों से जुड़कर सहकारी स्तर पर कुछ छोटे-छोटे उद्योग शुरू करे। जिससे गाँव के लोगों को गाँव मे ही आय के नए साधन उपलब्ध हो सकें और उनका शहरों की और पलायन रुक सकें।


वो कहते है कि “हमारी कोशिश है कि पहले हम गाँव के लोगों के साथ एक रिश्ता बना सकें। हम नहीं चाहते कि गाँव वाले हमे बाहर वाला समझे। जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे तब तक वे हमारा विश्वास नहीं कर पाएंगे। उन्हे यही लगता रहेगा कि हमारे पास तो पैसा है, हम कुछ भी कर सकते है। यह एक हद तक सही भी है इसीलिए जब आप शहर से लौटकर गाँव जाते हो तो सबसे पहले उनसे बड़ी-बड़ी बाते करना, अपना किताबी ज्ञान उन पर थोपना, आपकों उनसे और ज्यादा दूर कर देता है। सबसे पहले यह जरूरी है कि आप खुद उनके जैसे हो जाए, उनके सुख-दुख मे शामिल हो। तभी जाकर के आप वो रिश्ता बना पाएंगे, जिसका आधार विश्वास होगा। अगर हम ऐसा नहीं करते है तो एक उंच-नीच का भाव हमेशा आपके दरमियान बना रहता है और फिर आप जितना चाहे कोशिश कर ले वो आपकी बातों का भरोसा नहीं करेंगे। आज से कुछ समय बाद जब हम उनका विश्वास पाने मे सफल हो जाएगे तब हम उनसे गाँव के महत्व, पर्यावरण के संरक्षण, उनके ज्ञान को एक पहचान देने कि बात करेंगे। तब तक हमारी कोशिश यही है कि हम उनकी प्राथमिक समस्या, जैसे आय, रोजगार, स्वास्थ्य आदि पर ही काम करें।”

नई शिक्षा व्यवस्था के साथ बच्चों को एक आविष्कारक की तरह सोचना सिखाते हैं सरित शर्मा और संध्या गुप्ता

हम चाहे किसी भी समस्या पर कितनी भी चर्चा कर ले, हम तब तक उसका हल नहीं खोज सकते है जब तक हम उस समस्या का पूरी तरह से अवलोकन नहीं कर लेते । किसी भी समस्या के हल को खोजने के लिए सबसे पहले जरूरी है की हम उससे जुड़े सवाल करें। उससे जुड़े विभिन्न पहलुओं का गहनता से अध्ययन करें। अध्ययन करने के बाद उससे प्राप्त नतीजों को आपस मे जोड़कर देखे। तब कहीं जाकर हम उस समस्या की जड़ों तक पहुँच पाएंगे और उसका निराकरण कर पाएंगे। शायद विज्ञान इसी प्रक्रिया को कहते है, जहां हम विभिन्न अध्ययनो से प्राप्त नतीजों को जोड़कर देखते है और किसी निष्कर्ष पर पहुँचते है।


पालमपुर से सरित शर्मा और संध्या गुप्ता इसी विज्ञान और गणित का प्रयोग करते हुए भावी पीढ़ी की सोच को विकसित करने का प्रयास कर रहे है। वे उन्हे तैयार कर रहे है, की वो स्वयं सही और गलत का निर्णय कर सकें। वो समाज मे खड़े होकर निर्भयता से सवाल कर सकें और उनके जवाब खोज सकें।


सरित शर्मा और संध्या गुप्ता पेशे से और शायद अपनी आत्मा से भी इंजीनियर है। इन्हे विज्ञान और गणित के साथ खेलते हुए नए-नए प्रयोग करना अच्छा लगता है। इन्होने भारत मे अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत मे ही कुछ साल काम किया। जब इनके पास कुछ पैसे एकत्रित हो गए तो यह आगे के अध्ययन के लिए अमेरिका चले गए। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे वहीं रहकर काम करने लगे। उन्होने पहले ही तय कर लिया था, की वे सिर्फ दस साल तक नौकरी करेंगे पर उन्होने यह नहीं सोचा था की वे उसके बाद क्या करेंगे। दस साल के पूरे होते-होते उनकी बेटी भी थोड़ी बड़ी हो गयी थी। वे चाहते थे की उनकी बेटी अपने देश, अपनी संस्कृति को जाने और उसकी परवरिश भी अपने ही देश मे हो। इसी विचार के सात उन्होने भारत लौटने का मन बना लिया था। भारत मे आकार वे क्या करेंगे, उन्होने इस बारे कुछ भी नहीं सोचा था। उन्होने बस भारत के नक्शे पर एक जगह चुन ली थी, पालमपुर। कारण सिर्फ इतना सा था की यहाँ का मौसम अच्छा था और यह जगह भागते हुए शहर से दूर थी।


जब वे पालमपुर आए तब सभी माता-पिता की तरह वे भी अपनी बेटी की श्किशा के बारे में सोच रहे थे। सरित जी को लगता था कि शिक्षा के लिए किसी विद्यालय आदि की आवश्यकता नहीं है। वो कहीं भी हो सकती है परंतु संध्या जी को लगता था कि बच्चे को स्कूल भेजना जरूरी है। तब संध्या जी आस-पास के कई स्कूल को जाँचने-परखने के बाद इस नतीजे पर पहुँची कि सरकारी स्कूल बच्चों का सबसे कम नुकसान करते है। तब उन्होने अपनी बेटी को अपने घर के पास के सरकारी स्कूल मे दाखिला करा दिया और वे दोनों भी उसी स्कूल मे बच्चों को पढ़ने का काम करने लगे। इस तरह से जब उनका नाता शिक्षा के जुड़ा तब उन्हें हमारी शिक्षण व्यवस्था मे कई तरह की कमियाँ दिखने लगी थी। तब उन्होने बच्चों को पढ़ाने के कई सारे नयी तरीके ईज़ाद किए। फिर धीरे-धीरे उनका ध्यान विज्ञान और गणित पर केन्द्रित हो गया। तब उन्होने पालमपुर मे आविष्कार नाम कि एक जगह शुरू करी जिसके अंतर्गत वे देश के विभिन्न हिस्सों से आए बच्चों को विज्ञान और गणित के माध्यम से सोचने, समझने और सवाल करने कि ताकत दे रहे है। उन्हें इस लायक बना रहे जहाँ से वे अपने और समाज के लिए सही निर्णय ले सकें और एक बेहतर जीवन जी सकें|


सरित जी कहते है कि “हम पढ़ने के साथ-साथ देश के विभिन्न हिस्सों मे विज्ञान मेलों का भी आयोजन करते है। वैसे तो हम सभी तरह के बच्चों के साथ कम करते है पर हमारी प्राथमिकता ऐसे बच्चों के साथ काम करने कि है जो समाज के पिछड़े वर्ग से आते है। इसका बड़ा कारण यह है कि हम इन बच्चों को शिक्षा के माध्यम से इतना ताकतवर बना दे कि यह स्वयं अपनी एक पहचान बना सकें। यह कल जाकर अपने समाज का प्रतिनिधित्व कर सकें। उनसे जुड़ी समस्याओं पर सवाल कर सकें। उनके जवाब खोज सकें और उनके साथ जुड़े “पिछड़े” शब्द को अपने जीवन से निकाल सकें। और हम लोगों ने यह करने का तरीका विज्ञान और गणित मे पाया है। विज्ञान और गणित का आधार सवाल होते है। विज्ञान और गणित आपको सोचने पर मजबूर करते है। जब आप सोचने पर मजबूर होते हो तो तब आप सवाल करते हो। जब तक आप सवाल नहीं करते हो तब तक आप उनके जवाब खोजने कि कोशिश नहीं करते हो। और आपको सही जवाब तब ही मिलते जब आप उस सवाल से जुड़े सभी पहलुओं का अवलोकन नहीं कर लेते है। और सही मायने विज्ञान और गणित का असली मकसद भी यही है कि बच्चे खुद चीजों को जाँच-परख सकें। उनका अवलोकन कर सकें और सहीं और गलत का निर्णय कर सकें।”

साइकिल चला कर 'जेंडर फ्रीडम' की एक अनोखी लड़ाई

क्या आप राइड फॉर जेंडर फ्रीडम वाले सिंह साहब को जानते हैं? नहीं जानते? लेकिन, ये तो आपके शहर से भी गुज़रे थे, आपने ध्यान नहीं दिया होगा। खैर कोई नहीं, योर स्टोरी मिलवाता है आपको एक ऐसे शख़्स से, जो बेहद अनोखे तरह से लड़ रहे हैं जेंडर फ्रीडम की लड़ाई। "न हो कुछ सिर्फ सपना हो तो भी हो सकती है शुरुआत, ये शुरुआत ही तो है कि यहाँ एक सपना है..."  -सुरजीत पातर 

सुरजीत पातर की ये पंक्तियां राकेश कुमार सिंह पर इकदम फिट बैठती हैं और ये पंक्तियां ही इनका फेसबुक स्टेटस भी हैं। यह सच है, कि शुरुआत सपनों से ही होती है। सपने नहीं होंगे तो नजाने कितनी शुरूआतें दम तोड़ती नज़र आयेंगी। ऐसी ही किसी शुरूआत का सपना राकेश कुमार सिंह ने तीन साल पहले देखा था, जिसे नाम दिया 'राईड फॉर जेंडर फ्रीडम'। राकेश की ये लड़ाई जेंडर बेस्ड वॉएलेंस यानी कि उस हिंसा के खिलाफ है जिसे हम लिंग भेद कहते हैं और यह आज़ादी सिर्फ स्त्री या सिर्फ पुरुष के लिए नहीं है, बल्कि उस तीसरे जेंडर के लिए भी है, जिसे अंग्रेजी में ट्रांसजेंडर कहा जाता है। हालांकि अधिकतर वजहें महिलाओं से जुड़ी हुई हैं।

राकेश बिहार के रहने वाले हैं और 15 मार्च 2014 से एक शहर से दूसरे शहर एक राज्य से दूसरे राज्य अपनी साइकिल से यात्रा कर रहे हैं। अब तक राकेश 11 राज्यों को कवर करते हुए 17900 किमी की यात्रा कर चुके हैं।


राकेश कुमार सिंह ने 15 मार्च 2014 को राइड फॉर जेंडर फ्रीडम के लिए चेन्नई से साइकिल यात्रा शुरू की।

उत्तर प्रदेश का एक ऐसा शहर की जहां लड़कियां पढ़-लिख कर देश-विदेश में अपनी सफलता के परचम लहरा रही हैं। उसी शहर के किसी घर में शादी हो रही है, शहनाई बज रही है, लड़का घोड़ी पर चढ़ रहा है और दुल्हन घर आ गई, लेकिन दुल्हन के आने के बाद शुरू होती है एक अलग तरह की लड़ाई, जिसे हम सामाजिक भाषा में दहेज कहते हैं। लड़की उतना दहेज नहीं लेकर आई, कि ससुराल वालों का मुंह बंद कर सके और एक दिन जानते हैं क्या हुआ? उस लड़की को जला दिया गया और पुलिस ने अपनी फाईल यह कह कर बंद कर दी, कि लड़की गलती से जल कर मर गई, क्योंकि ससुराल वालों के खिलाफ कोई सुबूत नहीं मिला। उसी दिन कर्नाटक के किसी शहर में लड़की के ऊपर लड़के ने तेज़ाब इसलिए फेंक दिया, क्योंकि लड़की किसी और से शादी करने जा रही थी। उसके एक दिन बाद उत्तराखंड में किसी आदमी ने अपनी पत्नी को सिर्फ इस बात पर पीटा, कि सब्जी में नमक कम था। उसने अपने बच्चों के ही सामने अपनी पत्नी को इतना मारा कि वह मर गई.... ये वही कड़वे सच हैं, जिनके खिलाफ है राकेश कुमार सिंह की लड़ाई और समाज में फैली इन कुरीतियों के खिलाफ वह अपनी साइकिल यात्रा द्वारा लोगों में जागरुकता फैला रहे हैं। 


राकेश कुमार सिंह 17 हज़ार 900 किलोमीटर तक की यात्रा कर चुके हैं।

राकेश कुमार कहते हैं, कि ऐसा कौन-सा संस्थान है, जहां छेड़खानी, भ्रूण हत्या, बलात्कार, जेंडर आधारित गर्भपात, तेज़ाब हमला और देहज प्रताड़ना की शिक्षा दी जाती है? ये ही सवाल राकेश की सोच का विषय हैं और इन्हीं सवालों के जवाब में राकेश एक शहर से दूसरे शहर, एक राज्य से दूसरे राज्य अपनी साइकिल से घूम रहे हैं। अब तक राकेश अपनी साइकिल यात्रा से ग्यारह राज्यों को नाप चुके हैं। राकेश की सबसे बड़ी लड़ाई है, कि बहुत बदलने के बाद भी हमारा भारतीय समाज नहीं बदला। सेहत बानने के लिए साइकिल चलाने वाले तो लाखों मिलेंग... या फिर वे भी जिनके पास स्कूटर और कार खरीदने का पैसा नहीं, लेकिन जेंडर फ्रीडम के लिए साइकिल से ऐसी अनोखी यात्रा करने वाले के बारे में शायद ही आपने कभी सुना हो।

राकेश के वे महत्वपूर्ण सवाल, जिन्हें वे अपनी यात्रा के दौरान मिलने वाले लोगों समझाना और बताना चाहते हैं,

सभी जेंडर की आज़ादी का सम्मान हो।

महिलाओं पर होने वाले अपराधों के देख कर अपनी चुप्पी तोड़ें और उसकी लड़ाई में उसका साथ दें।

लड़का-लड़की में फरक करने की बजाय उनमें समानता का संचार करें।

सभी के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत दायरों का सम्मान करें।


राकेश कुमार सिंह 60 से 80 किमी की साइकिल यात्रा प्रतिदिन करते हैं।

एक आम आदमी सारी ज़िंदगी अपना घर चलाने में निकाल देता है। थोड़ा और ज्यादा पैसा हुआ तो एक से दो और दो से तीन फ्लैट खरीद लेता है, वैगनआर से डस्टर और डस्टर से बीएमडबल्यू पर बैठने लगता है। स्ट्रीट फूड से फाइव स्टार होटल में पहुंच जाता है। समाजिक तौर पर हम आगे बढ़ना उसे कहते हैं, जो हमारे मासिक वेतन पर निर्भर करता हो, लेकिन राकेश जैसे लोग इन सबसे अपना पीछा छुड़ा चुके हैं। राकेश कई अच्छी कंपनियों में नौकरी कर चुके हैं, मीडिया हाउस से भी जुड़े रहे, लेकिन उनका मन समाज से जुड़कर कुछ करने का था। उनके लिए पैसा बेहद हल्की-फुल्की ज़रूरत रही। यह पूछने पर, कि आपकी रोटी, कपड़ा और मकान का जुगाड़ कैसे होते है? पैसे कहां से आते हैं? तो राकेश ने बड़ी निश्चिंतता से जवाब दिया, कि मैं इसकी चिंता नहीं करता। जिस राज्य, जिस शहर, जिस गांव जाता हूं, वहां कोई न कोई ऐसा मिल जाता है, उसके आंगन में एक रात बिता सकूं। कोई सुबह के नाश्ते का इंताम कर देता है, तो कोई दोपहर के खाने का। कहीं बैठकर शाम की चाय पी लेता हूं, तो कहीं रात का भोजन। भोजन और बिस्तर मेरी ज़रूरत नहीं। मेरी लड़ाई तो अलग ही दिशा में है। मेरे पास ऐसे कुछ दोस्त भी हैं, जो समय-समय पर मुझे आर्थिक मदद देते रहते हैं। साइकिल का चलते रहना ज़रूरी है।

राकेश B'twin की साइकिल से अपनी यात्रा पर निकले हैं। शुरूआती दिनों में इनके पास कोई और साइकिल थी, लेकिन बैंगलोर साइकिल यात्रा के दौरान B'twin कंपनी ने राइड फॉर जेंडर फ्रीडम साइकिल यात्रा में सहयोग देने के लिए राकेश को एक साइकिल भेंट की। यह पूछे जाने पर, कि ये लड़ाई इतनी देर से क्य़ों शुरू की? तो राकेश ने कहा, "देख, पढ़ और समझ तो बचपन से ही रहा था, लेकिन जब समझदारी के स्तर ने आकार लेना शुरू किया तो लगा कि जो कर रहा हूं, मैं वो करने के लिए नहीं बना, बल्कि मेरी लड़ाई तो किसी और से ही है। मुझे समाज के लिए कुछ करना है। अपने आसपास जब लैंगिक भेदभाव देखता हूं, तो भीतर तक एक तकलीफ से भर जाता हूं।"


एक दिन में सड़क पर चार सभाएं लगाते हैं, जिनके साथ जेंडर फ्रीडम से जुड़े मुद्दों पर बात करते हैं और संबंधित जानकारियों से उन्हें अवगत कराते हैं।

समाज में फैली लैंगिक असमानता राकेश को सबसे ज्यादा परेशान करती है। घर वाले भी अब स्वीकार चुके हैं, कि राकेश साइकिल यात्रा पर निकल चुके हैं और वापिस नहीं लौटेंगे। ये पूछने पर कि इस तरह यात्रा करने से क्या होगा? ऐसे कोई परिणाम थोड़े न निकलेगा। राकेश कहते हैं, मार्च 2014 से जनवरी 2017 तक यदि दस लोगों में भी मुझसे मिलने के बाद सुधार हुआ है, तो यही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है। मैं पूरे समाज पूरी दुनिया को बदलने की बात नहीं करता, क्योंकि ऐसा कर पाना नामुमकिन है। लेकिन यदि मैं कुछ लोगों ही बदल पा रहा हूं, तो ये मेरे लिए खुशी की बात है और यही मेरी कमाई है। वे लोग दस, बीस और पचास भी हो सकते हैं।

राइड फॉर जेंडर फ्रीडम साइकिल यात्रा के दौरान राकेश ने कुछ-कुछ रातें ऐसे भी गुज़ारी हैं, जब उन्हें भूखे पेट सोना पड़ा हो। कुछ सुबहें ऐसी भी निकल गईं जब मॉर्निंग टी न मिली हो। कोई भी मौसम रहा हो, बारिश हो या सर्दी, चिलचिलाती धूप हो या शीतलहरी राकेश चलते ही रहे हैं। जहां रात हुई वहीं तंबू गाड़ के सो गये, हुई सुबह और निकल पड़े। राकेश छोटी सी साइकिल पर ही अपनी सारी गृहस्थी जमा चुके हैं। और साइकिल के सामने एक बॉक्स है, जिसमें उनसे मिलने वाले लोग अपनी खुशी और सुविधानुसार पैसे डालते हैं। इन पैसों का इस्तेमाल वे कई नेक कामों में करते हैं। कहीं किसी गांव रुके तो बच्चों में किताबें बांट दीं, किसी गांव रुके तो बच्चों में टॉफियां और मिठाईयां बांट दीं। बच्चों के चेहरे की मुस्कुराहट राकेश को आगे बढ़ने और उनकी राइड फॉर जेंडर फ्रीडम लड़ाई में लड़ने की हिम्मत देती है।


मैं जितने लोगों से मिला, मेरे सोचने समझने का दायरा उतना ही विस्तृत होता गया और फिर मुझे समझ आया कि असल में शुरूआत होती कहां से है: राकेश कुमार सिंह

एक तरफ राकेश कहते हैं, कि ये संपूर्ण जेंडर की लड़ाई है, जिसमें स्त्री, पुरुष और तृतीय जेंडर भी शामिल हैं, लेकिन ये लड़ाई तो महिलाओं तक ही सिमट कर रह गई है? इस पर राकेश कहते हैं, "नहीं ऐसा नहीं है। असल में हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति सबसे खराब है, इसलिए मेरे चाहने के बावजूद मैं महिला अधिकारों और उनके अच्छे-बुरे से खुद को बाहर नहीं निकाल पाता। लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं है, कि मैं सिर्फ महिलाओं को लेकर ही चिंतित हूं। मेरी लड़ाई उस आदमी से भी है, जो मेहनतकश पुरुषों को उसकी मेहनत का सही-सही पैसा नहीं दे रहा। मेरी लड़ाई उस समाज से भी है, जिसने उस तीसरे वर्ग जिसे हम ट्रांसजेंडर कहते हैं, को समाज से पूरी तरह बाहर कर रखा है। मैं सबके लिए आवाज़ उठाता हूं और सबके बारे में बात करता हूं।"

यात्रा को दौरान राकेश को कई तरह के नकारात्मक तत्वों का भी सामना करना पड़ा। कई लोंगों ने राकेश को हतोउत्साहित करने की कोशिश की। कई दफा लोग राकेश की पूरी बात सुने बिना ही उठकर चल दिये, लेकिन राकेश ने इन सबसे घबराकर हार नहीं मानी। राकेश कहते हैं, मैं जितने लोगों से मिला, मेरे सोचने समझने का दायरा उतना ही विस्तृत होता गया और फिर मुझे समझ आया कि असल में शुरूआत होती कहां से है। शरूआत घर से होती है। हमारा समाज बचपन से लड़का और लड़की के खान-पान, पहनावों, उठने-बैठने, खेल-कूद में फरक करना शुरू कर देता है। इसलिए हर बिमारी की जड़ वो घर है, जहां से या तो एक इंसान निकलता है या फिर एक जानवर। जैसी परवरिश होगी, पैदावार भी वैसी ही होगी ना।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में राकेश को वीसी प्राचीन प्रतीक चिह्न प्रदान करते हुए

राकेश के कामों के लिए उन्हें कई स्कूल कॉलेजों में सम्मानित भी किया जा चुका है। विद्यार्थियों के सामने आईआईएम जैसे बड़े संस्थान में राकेश अपनी बात रखने में सफल हुए हैं और वहां भी उन्होंने पाया कि पढ़े-लिखे अच्छे घरों से आने वाले विद्यार्थियों के घरों या उनके आसपास जेंडर से जुड़ी तमाम तरह की समस्याएं हैं। राकेश जहां भी जाते हैं, लोग अपना दिल खोल कर रख देते हैं और अपने मन के सारे हाल बयां कर देते हैं। राकेश की यह यात्रा अभी 2018 तक चलनी है, जिसका समापन बिहार में होगा। राकेश की की एक किताब बम संकर टन गनेस, हिन्दयुग्म प्रकाशन से आ चुकी है, जिसे पाठकों का भरपूर प्यार और अपनापन मिला

Saturday 25 March 2017

वनवासियों के बहुमूल्य ज्ञान को सहेज रहे हैं सुनील

हाल ही में WWF(वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फ़ंड) और जूलोजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन के शोधकर्ताओं ने अपनी शोध मे कहा है की 2020 तक हमारी दुनिया से दो तिहाई वन्य जीवों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।


पहाड़ों से लेकर जंगलों तक, नदियों से लेकर समुद्र तक, हाथी,गैंडे, गिद्द, ह्वेल आदि हजारों प्रजातियाँ आज खतरे में है। इस शोध के अनुसार इतने वृहद स्तर वन्य जीवों के लुप्त होने की वजह से प्रकृति का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ जाएगा और इसका अंत मानवता के अंत के साथ होगा। मानवों के प्रभुत्व वाले इस ग्रह पर हम मानवों को समझना होगा की हमारी दुनिया अब इस ग्रह पर पहले के समान छोटी नहीं रही हैं। हम मानवों की दुनिया अब इतनी बड़ी हो गयी है की अब यह ग्रह हमारे लिए छोटा हो गया है। जितना ही यह ग्रह हमारे लिए छोटा होता जा रहा है, हम उतने ही ज्यादा स्वार्थी होते जा रहे है। हमारे लिए अपनी एक अलग ही दुनिया है। इस दुनिया मे इन वन्य जीवों की कोई जगह नहीं है। अगर है भी तो हमारे स्वार्थ, हमारे मनोरंजन, हमारे लाभ के लिए है।


हालांकि मानव समाज शुरू से ऐसा नहीं था। हमारे पूर्वजों ने प्रकृति मे पाये जाने वाले प्रत्येक जीव के सहसतीत्व को सम्मान पूर्वक स्वीकारते हुए उनके साथ जीवन जीया था। वो जानते थे कि उनकी सीमाएँ क्या है और वन्य जीवों की सीमाएँ क्या है। दोनों एक दूसरे की दुनिया मे दखलंदाज़ी किए बिना प्रेमपूर्वक अपना जीवन जीते आए थे। परंतु आज मानव अपने स्वार्थ से इस ग्रह पर अपने बढ़ते हुए प्रभुत्व के कारण अपनी सीमाए लांघ रहा है। जिसकी वजह से उसके भीतर वन्य जीवों के लिए प्रेम, सम्मान और उनके सहसतीत्व का भाव समाप्त होता जा रहा है।


इसी प्रेम, सम्मान और सहसतीत्व के भाव को फिर जगाने की एक अनूठी पहल हमारे अगले परिंदे भगवान सेनापति ने असम मे अपनी कला के माध्यम से शुरू की है। भगवान सेनापति पेशे से एक हस्त शिल्पकार है जो बाम्बू, लकड़ी आदि प्रकृतिक वस्तुओं से कलाकृतियों का निर्माण करते है और उन्हे विभिन्न मेलों और प्रदर्शनियों के माध्यम से बेचते है। वो कहते है की “मैं अपनी कलाकृतियों की प्रेरणा प्रकृति से ही लेता आया हूँ। मेरा जीवन जंगलों के आस-पास, इस प्रकृति के बीच, विभिन्न पशु-पक्षियों को देखते हुए बिता है। परंतु पिछले कुछ वर्षों से मैं अनुभव कर रहा था कि हमारे आस-पास इन पशु-पक्षियों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई है। साथ मानवों और वन्य पशुओं के बीच संघर्ष भी बहुत आम हो गयी है। अक्सर हाथी और गेण्डे हमारे खेतों मे आकर हमारी फसलों को बर्बाद कर देते है। ये घटनाए जो सालों मे कभी कभार होती थी आज वो आम बात हो गयी है।”

जब उन्होने इस बात कि गहराई मे जाने कि कोशिश की तब उन्होने देखा कि हम मानवों ने अपने स्वार्थ की वजह से इनके घरों पर, इनके भोजन के साधनों पर अपना कब्जा कर लिया है। इनके जंगल दिन-ब-दिन छोटे होते जा रहे है। हम मानवों कि बस्तियाँ बढ़ती जा रही है। इस वजह से ये भोजन कि तलाश मे खेतों और गाँवों के भीतर तक आ जाते है। इसके नतीजे स्वरूप हम इन्हे अपना दुश्मन समझने लगे है। इस वजह से हमारे और इनके बीच जो प्रेम और सहसतीत्व का एक सम्मानजनक वो खत्म होने लगा है। हम इन्हे मारने लगे है। उन्हे लगा इसके लिए किसी को तो कुछ करना चाहिए। तब उन्होने एक अनूठी पहल शुरू की।

असम अपने बीहू महोत्सव के लिए पूरे विश्व प्रसिद्ध है। बीहू के दौरान ही विभिन्न कलाकार बाम्बू और चावल के भूसे से विशाल कलाकृतियों का बनाकर प्रदर्शित करते है, जिसे बेलाघर के नाम से जाना जाता है। उन्होने अपनी कला को बेलाघर से जोड़कर मानव और वन्य-पशुओं के बीच के सहसतीत्व का प्रदर्शन करना शुरू किया। वे इसे पिछले दो साल से कर रहे है। वे हर साल बीहू महोत्सव से एक महीने पहले अपनी कलाकृति को बना कर उसके साथ असम मे यात्रा करते है और लोगों को इस विषय मे जागरूक करते है। अपनी इसी मुहिम और प्रयास कि वजह से उन्हे पिछले वर्ष असम सरकार ने सम्मानित भी किया था। इस साल वे 30 फीट के गेण्डे और एक लड़की कि कलाकृति के माध्यम से अपने इस संदेश को लोगों के बीच लेके जाने वाले है।


वे कहते है कि “यह मुहिम मेरे अकेले कि नहीं है। मैं तो बस एक कलाकार हूँ, जो इन कलाकृतियों का निर्माण करता है। इस काम मे मुझे अपने गाँव के लोगों का पूरा सहयोग मिलता। इन कलाकृतियों के निर्माण का पूरा खर्चा गाँव मिलकर उठाता है। गाँव के हर घर से 50-100 रुपये का योगदान दिया जाता है। यहाँ तक बच्चे भी अपनी इस मुहिम मे बढ़-छड़कर भाग लेते है। यहीं बात हर गाँव को समझनी जरूरी है। मैं शहरों कि बात इसलिए नहीं करता हूँ क्योंकि इन वन्य-जीवों के साथ उनका कोई सीधा संपर्क नहीं है। उनके साथ संघर्ष हम लोगों को करना पड़ता है। शहर के ज़्यादातर लोगों के लिए यह जानवर सिर्फ मनोरंजन का साधन है। जिन्हें यह कभी चिड़ियाघर या इन जंगलों मे पैसे देकर देखने के लिए जाते है और अपना मनोरंजन करते है। उन्हें यहाँ इनके साथ नहीं रहना पड़ता है। वो हमारी प्रकृति से बहुत दूर हो चुके है हालांकि शांति कि तलाश मे वे भी अंत मे प्रकृति की ही शरण मे आते है। पर हम गाँव वालों का इनसे सीधा संपर्क है, और अगर हम इनका सम्मान नहीं करेंगे, इनसे प्रेम नहीं करेंगे तो संघर्ष स्वाभाविक है। चूंकि हम मनुष्य के पास कई साधन आज मौजूद है, इस वजह से हम इनसे ज्यादा ताकतवर हो गए है हमारे लिए इन्हे मारना आसान हो गया है पर यह खत्म हो गए तो शहरों को स्वार्थ के लिए इन जंगलों को खत्म करने का एक और बहाना मिल जाएगा और इसका अंत हमारे विनाश से होगा।”

एशियाइ गेण्डे और हाथी की घटती संख्या को बचाने के लिए शुरू किया कागज बनाना

महेश चंद्र बोरा और निशा बोरा कागज बनाते है। परंतु इस कागज की खास बात यह है कि इसे बनाने के लिए वे गेण्डे और हाथी के गोबर का प्रयोग करते है। उनके इस उपक्रम का मकसद एक सींग वाले एशियाइ गेण्डे को बचाना है। पुरी दुनिया में जीतने भी एक सींग वाले गेण्डे बचे है उसमे से 80 प्रतिशत असम मे पाये जाते है, परंतु इनकी संख्या मे बेहद तेज़ी गिरावट आ रही है। एक तरफ काले बाज़ार मे इनके सींगों की ऊँची कीमत की वजह से इन्हे अवैध तरीकों से मारा जा रहा है वही दूसरी तरफ किसान अपनी खेती को इनसे बचाने के लिए इन्हें मार रहे है।


महेश चंद्र बोरा एक सेवानिवृत कोल माइनिंग इंजीनियर है। 2009 मे दिल्ली से गुवाहाटी लौटते वक़्त एक पत्रिका मे उन्होने एक लेख पड़ा था। जिसमे लिखा था की कैसे एक महिला राजस्थान मे हाथी के गोबर से कागज बनाती है। वही से उन्हे यह विचार आया की “ऐसा ही कुछ हम असम मे क्यो नहीं कर सकते है। राजस्थान मे, जहाँ हाथी प्रकृतिक रूप से नहीं पाये जाते, वहाँ अगर ऐसा हो सकता है तो असम मे तो हाथियों की कोई कमी नहीं है। और अगर हम इसमे गेण्डे के गोबर को भी प्रयोग करने लगे तो उन्हे बचाने मे भी मदद मिलेगी।”


इसी विचार के साथ महेश चंद्र बोरा राजस्थान गए, वहाँ कागज बनाना सीखा और असम आकार Elrhino की स्थापना की। आज उनका यह उपक्रम आस-पास के गाँवो से 15 लोगों को प्रत्यक्ष और 150 से ज्यादा लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार उपलब्ध करवा रहा है। महेश कहते है इसका बड़ा श्रेय मेरी बेटी निशा को जाता है। जब मै Elrhino को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहा था तब उसने मेरा साथ दिया और आज की तारीख मे एक तरह से देखा जाए तो वो ही इस बिज़नस को संभाल रही है।

“जब पापा ने Elrhino की शुरुआत की थी तब लगभग हमे सभी शुभचिंतकों ने इस विचार को सिरे से नकार दिया था। उनका यही कहना था कि यह काम सिर्फ वक़्त और पैसे कि बर्बादी है, पर पापा को इस पर पूरा विश्वास था।

उस वक़्त मैं मुंबई मे काम करती थी। जब भी मैं असम आती थी तो पापा कि लगन और उनके काम को देखकर बहुत प्रेरित होती थी। यह वो वक़्त था जब मैं भी अपनी ज़िंदगी कुछ अलग खोज रही थी, जो कुछ नया हो, रोचक हो और चुनौतीपूर्ण हो। तब मैंने पापा के साथ जुडने का फैसला कर लिया।” निशा बोरा

अपने सफल कॉर्पोरेट करियर को छोड़कर जब निशा ने Elrhino कि कमान संभाली तब उन्हे नहीं पता था कि यह एक दिन एक ब्रांड बन जाएगा। उनका ऐसा इरादा भी नहीं था। उनकी यही कोशिश थी कि बस बेहतर काम करते हुए कैसे लोगों को जमीनी स्तर पर लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जा सकें, जिससे गेणडों को बचाने कि उनकी यह मुहिम ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुँच सकें।

निशा कहती है की, “आज Elrhino एक ब्रांड बन गया है, पूरे विश्व मे हमारे काम को पहचान मिल रही है, ज्यादा से ज्यादा लोग हमारे काम से प्रेरित हो रहे है, हमसे जुड़ना चाहते है। यह सब इतना आसान नहीं था। हम इस सोच के साथ कागज बना रहे थे की लोग इसे खरीदेंगे और इससे हम ज्यादा से ज्यादा लोगों तक हमारी बात पहुँचा सकेंगे, पर जल्द ही हमे पता लग गया कि हमारे पास कोई खरीददार नहीं है। तब हमने एक नयी सीएच के साथ इस कागज से कई सारे प्रोडक्टस बनाने किए किए। हमने लैम्प शेड्स, पेन स्टैंडस, डाइरीस, ताश आदि कई प्रयोग किए और उन्हे विभिन्न ट्रेड फेयर्स, प्रदर्शनियों के मध्यम से लोगों के बीच मे लेके गए, वही दूसरी तरफ हमने सोशल मीडिया का प्रयोग करते हुए लोगों तक पहुँचने कि कोशिश की। हमारी दोनों कोशिशों के माध्यम से न सिर्फ लोगों तक हमारा काम पहुँचा बल्कि उन्होने हमारे काम को सराहा भी।”

Elrhino अपने कागज के लिए कच्चा माल राष्ट्रीय उद्यान से लेने कि जगह सीधे किसानों और गाँव वालों से लेता है। इसके माध्यम से वे उन्हें न सिर्फ उनके रोज़मर्रा के काम के साथ-साथ आय का अन्य विकल्प भी उपलब्ध करवा रहा है अपितु, उन्हें वन्य जीवों के संरक्षण कि इस मुहिम से सीधे रूप से जोड़ रहा है। उनकी इस कोशिश का नतीजा उन्हे अब दिखने भी लगा है। स्थानीय लोग भी अब उनके काम कि सराहना करने लगे है और उनसे जुड़कर काम करना चाहते है।

निशा और महेश बोरा कहते है कि Elrhino के आधारभूत मूल्यों कि वजह से हम किसी भी प्रकार के कागज़ निर्माता के साथ दौड़ मे नहीं है। हमारी प्राथमिकता स्थानीय लोगों को बेहतर रोजगार उपलब्ध करने कि है और हमारे क्रेताओं को जागरूक करने की है, वो जिस वस्तु पर अपना पैसा खर्च कर रहे है, वो पैसा किस काम के लिए प्रयोग मे लिए जा रहा है।

इसके अलावा अब हमारी यह कोशिश है कि कैसे आस-पास के सभी गाँवो को एक सूत्र मे पिरोया जा सके जिससे वे गेण्डे के संरक्षण, उनके हक लिए आवाज़ उठाने के साथ-साथ कागज भी बना सके और उनके लिए आय के नए स्त्रौत तैयार हो सकें।

फार्मा मैनेजर का प्रकृति प्रेम : नौकरी छोड़ शुरू की जैविक खेती

बहुत मुश्किल होता है, एसी रूम से निकलकर चिलचिलाती धूप मेंं सीधे खेतों में आ जाना। लेकिन हौसले और इरादे यदि नितिन काजलाजैसे हों तो कुछ भी नामुमकिन नहीं। नितिन ने अपने सात साल के कैरियर को विराम देकर खेतों में उतरने का फैसला लिया। देश के किसानों के लिए कुछ करने का सोचा और साथ ही अपनी जनता को केमिकल फ्री खाना खिलाना चाहा। वह निकला तो अपने सफर पर अकेला था, लेकिन लोग मिलते गए कारवां बनता गया।
मॉडल किसान: नितिन काजला
नितिन काजला सिर्फ एक नाम ही नहीं, बल्कि उदाहरण है हमारी आज की उस युवा पीढ़ी के लिए, जिनके लिए पैसे कमाने का मतलब पार्टीज़ और शॉपिंग तक ही सिमट कर रह गया है। 

दो साल पहले नितिन एक बड़ी फार्मा कंपनी में कार्यरत थे, लेकिन वहां उनका मन नहीं लगा। एक दिन अचानक ही मिलावटी खाना खाते खाते उनके मन में खयाल आया कि क्यों न ऐसा अनाज पैदा किया जाये, जो केमिकल फ्री हो। क्यों न किसानी की जाये और इसी सपने के साथ नितिन ने अमेरिकन कंपनी का आई कार्ड निकाल गले में अंगोछा लपेट लिया और बढ़ चले खोतों की ओर किसान बनने। उनके जानने वाले उन्हें मॉडल किसान के नाम से भी पुकारते हैं। मॉडल किसान एक ऐसा किसान जो आज की आधुनिक लेकिन मिलावटी फार्मिंग के जमाने में केमिकल फ्री आनाज पैदा कर रहा है, साथ ही बाकि के किसानों को ऐसी आदर्श फार्मिंग करने की शिक्षा भी दे रहा है। नितिन कजला ने 2014 में फार्मा कंपनी की नौकरी छोड़ अॉर्गेनिक फार्मिंग को प्रोमोट करने का फैसला लिया। इस फैसले को मूर्तरूप देने के लिए सबसे पहले अपने गांव भटीपुरा(मेरठ,यू.पी.) में ही खुद की तीन एकड़ भूमि पर आर्गेनिक फार्मिंग शुरू कर दी। शुरुआती दिनों में पड़ोसियों ने, दोस्तों ने, जान-पहचान वालों ने, रिश्तेदारों ने काफी मज़ाक उड़ाया, कि बिना केमिकल फ़र्टिलाइज़र और पेस्टिसाइड के भी कहीं खेती होती है। साथ ही कुछ लोगों का यह भी कहना था, कि "अच्छी-खासी नौकरी छोड़ खेती आजकल कोई समझदार व्यक्ति नहीं करता। लोग जिस नौकरी के लिए मारे-मारे फिरते हैं, यह लड़का इसे पीठ दिखा कर खेतों की ओर जा रहा है।"
सफर का पहला कदम आसान नहीं था। नौकरी तो छोड़ दी थी, लेकिन अब शुरुआत कैसे हो? फार्मिंग से जुड़ी हर जानकारी इकट्ठा करने के लिए नितिन ने इंटरनेट का सहारा लिया और उसके बाद खुद ही अॉर्गेनिक फर्टिलाइज़र और पेस्टिसाइड बनाने लगे। 

कुछ समय बाद ही नितिन की मेहनत ने रंग लाना शुरु कर दिया। परिणाम सकारात्मक आने लगे और लोगों को विश्वास भी होने लगा। खेती करने के साथ-साथ नितिन ने सोशल मिडिया के माध्यम से अपने परीचितों में आर्गेनिक फूड्स की ख़ूबी बतानी शुरू की। जिसका परिणाम यह हुआ कि जितनी भी फसल होने लगी जानने वाले उसे हाथों हाथ खरीदने लगे।


फसल का पोषण पूरा करने के लिए सबसे पहले नितिन ने रासायनिक फर्टिलाइज़र का स्वस्थ्य विकल्प तैयार करते हैं। गोबर,गौमूत्र,थोड़ा गुड और थोड़ा बेसन मिलाकर मटकों में पोषक खाद बनाते हैं और फिर इसे बुवाई से पूर्व खेत में डाल देते हैं। खड़ी फसल पर भी इसी मिश्रण में पानी मिलाकर स्प्रे करते हैं। एक दूसरे को मदद करने वाली फसलें इंटरक्रोप लेते हैं। हरी खाद का प्रयोग करते हैं, साथ गोबर की खाद को जीवाणुओं (एजोटोबैक्टर,पीएसबी आदि) की मदद और पोषक बनाकर खेत में डालते हैं। इस प्रकार फसल का पूर्ण पोषण तैयार होता है।

मैंने फार्मा कंपनी में लंबे समय तक नौकरी की है और दवाओं के परिणाम तथा दुष्परिणाम से बहुत अच्छे से वाकिफ हूं। दुष्परिणाम के उसी डर ने मुझे ज़हरमुक्त प्राकृतिक खेती करने की प्रेरणा दी।

नितिन अपनी फसल की कीटों से रक्षा करने के लिए नीम, करंज, आख, धतूरा, बेशर्म आदि कड़वे पत्तों को पहले गोमूत्र में उबालते हैं और फिर उसके बाद इसमें तीखी मिर्च और लहसुन की चटनी बना कर मिला लेते हैं। इस मिश्रण को छानकर इसमें दस गुना पानी मिलाकर फसल पर छिड़काव करते हैं। ऐसा करने से नुक्सानदायक कीट फसल पर नहीं बैठते। फंगस वाले रोगों से बचने के लिए छाछ(बटरमिल्क) में तांबे का टुकड़ा डालकर कुछ दिन रखते हैं फिर इसका 10% का पानी में घोल बनाकर स्प्रे करते हैं जिससे फसल फंगस वाले रोगों से बची रहती है।


वैसे तो हम दूध और हल्दी दर्द निवारक के रूप में पीते आये हैं पर कमाल की बात यह है कि नितिन इसका प्रयोग अपने खेतों में करते हैं। वे बताते हैं कि 500 मिली दूध में 50 ग्राम हल्दी मिलाकर उसे 15 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर स्प्रे करने से वायरस जनित रोगों से फसल का बचाव होता है।

इसी प्रकार नितिन और भी कई तरह के घरेलू प्रयोग अपनी दिल अजीज़ फसलों को उगाने और बड़ा करने में लाते हैं, साथ ही यह नुस्खे वह उन किसानों से भी साझा करते हैं, जो बकायदा उनके पास ट्रेनिंग लेने आते हैं।

नितिन की मेहनत और लगन के चलते परिणाम कुछ समय बात ही अच्छे मिलने लगे थे। अब समय था नितिन के प्रयोगों को खेत-खेत पहुंचाने का। ऐसे में उन्हें एक आइडिया सूझा और उन्होंने अपने कुछ सोशल मीडिया के दोस्तों के साथ मिलकर अपनी एक ऐसी टीम बनाई जो किसानों को आर्गेनिक फार्मिंग के लिए प्रेरित करती है। डीजिटल मीडिया के समय में सोशल नेटवर्किग का भरपूर इस्तेमाल करते हुए नितिन ने फेसबुक पर एक पेज बनाया तथा व्हाट्ज़-एप पर अपने किसान भाईयों का ग्रुप बनाया और व्हाट्ज़-एप और फेसबुक के माध्यम से किसानों को फ्री ऑनलाइन ट्रेनिंग देनी शुरु कर दी। 


नितिन के बताये नुस्खे किसानों ने जब अपनी खेती में इस्तेमाल करने शुरु किए तो परिणाम सकारात्मक निकले और यहीं से उनकी मेहनत ने रंग लाना शुरु कर दिया। अब यह नाम घर-घर में न सही, लेकिन खेत-खेत में जाना जाने लगा।

फ्री अॉनलाईन ट्रेनिंग ने नितिन को किसानों की दुनिया में चर्चित चेहरा बना दिया। फेसबुक पेज और व्हाट्ज़ एप ग्रुप की लोकप्रियता बढ़ी तो नितिन की जिम्मेदारियां भी बढ़ गईं, जिसके चलते उन्हें अपनी टीम बढ़ानी पड़ी। अब नितिन के सपनों का आकार मिलने लगा था। काम और समय की उपयोगिता को ध्यान में रखकर नितिन ने साकेत नामक संस्था की नींव रखी। संस्था के सभी सदस्यों ने नितिन की काबिलियत को ध्यान में रखते हुए नितिन को संस्था का चेयरमैन नियुक्त किया। आज साकेत के फेसबुक ग्रुप में दो लाख के आस-पास लोग जुड़े हुए हैं और दस हज़ार से ज्यादा किसान हर दिन आपस में अॉर्गेनिक फार्मिंग पर चर्चा करते हैं, साथ ही अपने अनुभवों को एक दूसरे से साझा करते हैं। 

साकेत नामक इस संस्था से जुड़े किसानों को जहाँ एक तरफ किसानी के गुण सिखाये जाते हैं वहीं दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को जहरीले रसायनों से उगे भोजन के नुकसान और आर्गेनिक भोजन के फायदे बताने के कैम्पेन भी चल रहे हैं। पूरे भारत से जुड़े किसान साथियों के आग्रह पर साकेत टीम समय समय पर 200 से 500 किसानों की 2 दिन की नि:शुल्क वर्कशॉप भी करती है। इसमें आर्गेनिक फार्मिंग की थ्योरी और प्रैक्टिकल के माध्यम से ट्रेनिंग दी जाती है। अब तक यूपी, उत्तराखण्ड, हरियाणा, राजस्थान व मध्यप्रदेश में 1500 से ज्यादा किसान इन वर्कशॉप्स में ट्रेनिंग ले चुके हैं और अच्छे से आर्गेनिक फार्मिंग कर रहे हैं।

साकेत संस्था किसानों को इंटीग्रेटेड अॉर्गेनिक फार्मिंग नाम की ट्रेनिंग देती है। यह ट्रेनिंग दो प्रकार से दी जाती है, पहली और दूसरी बेसिक ट्रेनिंग ज्यादा से ज्यादा उन किसानो को दी जाती है जो अभी रसायनिक खेती कर रहे और आर्गेनिक की ओर जाना चाह रहे हैं।इस ट्रेनिंग में रसायनिक खाद और कीटनाशकों के नुक्सान, जैविक भोजन के फायदे बताये जाते हैं। किसानों को भूमि की संरचना से लेकर सभी प्रकार के पोषक खाद और कीटनाशक बनाने के साथ स्वयं का बीज बनाने तक की ट्रेनिंग दी जाती है। किसानों को कम से कम स्वयं के लिए सही एक एकड़ भूमि में आर्गेनिक फार्मिंग के लिए उत्साहित किया जाता है। एडवांस ट्रेनिंग उन किसानों को दी जाती है, जो आर्गेनिक फार्मिंग कर रहे हैं, साथ ही इस ट्रेनिंग में उन किसानों को भी शामिल किया जाता है जो आर्गेनिक फार्मिंग को अपना कैरियर बनाना चाहते हैं। इसमें किसानों को खेती में आ रही समस्याओं का निवारण, अपने उत्पाद की ग्रेडिंग, पैकिंग और मार्केटिंग के गुर सिखाये जाते हैं। साकेत किसान साथियों को आर्गेनिक फार्मिंग के सर्टिफिकेशन और मार्केटिंग में भी सहयोग करता है। इन्हीं सबके बीच साकेत संस्था ने सार्थक कदम उठाते हुए साकेत मार्गदर्शिका के नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित की है, जो पूरी तरह अॉर्गेनिक फार्मिंग पर आधारित है। 
नितिन अपनी टीम के साथ
साकेत का पूरा मॉडल किसान की बाजार पर निर्भरता को खत्म करता है।

वहीं दूसरी तरफ किसान का उत्पाद ग्राहक तक पहुंचाने पर कार्य चल रहा है। नितिन और उनकी टीम का अगला लक्ष्य एक ऐसा प्लेटफार्म विकसित करना है, जहाँ किसान और उपभोक्ता एक दूसरे से सहकारी मॉडल से सीधे सीधे जुड़ें और किसान को फसल का उचित मूल्य मिले साथ ही उपभोक्ता को भी उचित मूल्य में शुद्ध और पोषक भोजन मिले। आजकल नितिन एक ऐसे एप पर काम कर रहे हैं, जिसमें किसानों की समस्याओं के समाधान के साथ-साथ ज़हरमुक्त प्राकृतिक अन्न को बेचा जा सके। यह एप बहुत जल्द ही हमारे सामने होगा। 

नितिन अपनी सफलता का श्रेय अपनी टीम के सदस्य दशरथ नन्दन पाण्डेय, डॉ जितेंद्र सिंह ,अशोक कुमार समेत 20 से अधिक साथियों के समर्पित सहयोग को देते हैं

कम खर्च में ज्यादा तेल निकालने वाली मशीन


 श्री कल्पेश गज्जर स्वास्तिक इंटरप्राइजेज के प्रबंध निदेशक हैं। हालांकि वह केवल एसएससी ही पास हैं, उन्होंने अपने दम पर प्रयोग और विकास से सीखा है। गुजरात सरकार से उन्हें साराभाई सम्मान मिला। ज्ञान ने उनकी प्रौद्योगिकी को सुधारने के लिए टीईपीपी कार्यक्रम के तहत अनुदान दिया। स्वास्तिक तेल निकालने वाली मशीन परंपरागत तेल निकालने वाली मशीन की तुलना में तीन गुना तेज, बिजली की केवल 2/3 खपत करने वाली तथा आकार में आधी है। यह 30 एचपी के बिजली मोटर से चलती है और प्रतिदिन 18 से 28 एमटी तिलहन निचोड़ती है। परंपरागत रूप से इस मशीन को चलाने के लिए छह मजदूर की जगह केवल तीन मजदूरों की ही जरूरत होती है। तेल मिल मालिकों को यह कॉम्पैक्ट आकार में उच्चतम क्षमता प्रदान करती है। मोटर कोल्हू के लिए प्लेनेटरी गेयर व्यवस्था से ऊर्जा स्थानांतरित करता है जो औसत गति और उच्च टोर्क देता है जिससे दक्षता बढ़ती है और 200 प्रतिशत तक पारेषण क्षति कम हो जाती है। यह तेल निकालने वाली मशीन इस तरह डिजाइन की गई है कि सभी प्रकार के बीजों के लिए उपयोग हो सके, यहां तक कि कपास के बीज जो कि निचोडऩे के लिए सबसे कठिन बीज के रूप में जाने जाते हैं। भारतीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में उपलब्ध किसी दूसरे तेल निकालने वाली मशीन की तुलना में इस मशीन की ऊर्जा क्षमता कम से कम तीन गुना ज्यादा है व केवल एक तिहाई जगह घेरती है। इस मशीन के लिए आवश्यक रखरखाव व्यय भी किसी दूसरे तेल निकालने वाली मशीन की तुलना में काफी कम है। इसमें तीन एकीकृत कोल्हू हैं जो 18 एमटी/दिन कपास के बीज के लिए और 28 एमटी/दिन मूंगफली और दूसरे अन्य बीज के लिए है। मशीन के मुख्य भाग का अभिन्न हिस्सा 30 एचपी का मोटर है जो मशीन को शक्ति देता है। मोटर तीन स्तरीय प्लेनेटरी गेयर व्यवस्था के द्वारा तीन कोल्हू से जुड़ा होता है। प्लेनेटरी गेयर सिस्टम होने से मशीन के द्वारा उत्पन्न पावर के उपयोग की क्षमता बढ़ती है। यह परंपरागत हूपर के माध्यम से फीड प्राप्त करता है। हूपर से मिले बीज चैंबर में भाप से पकते हैं। मशीन में बीज को भाप से पकाने के लिए तीन समानांतर चैंबर हैं। सभी चैंबर एक अलग-अलग कोल्हू की ओर जाता है। चैंबर को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि बीज सभी कोणों से भाप से पकते हैं। दबाने वाली मशीन सभी भाप चैंबर का अनुसरण करती है और प्रत्येक चैंबर भाप चैंबर से एक दबाने वाली मशीन जुड़ी होती है। दबाने वाली मशीन बीजों को कोल्हू में धकेलती है ताकि कोई भी बीज वापस नहीं आए। दबाने वाली मशीन बीजों को कॉम्पैक्ट कर कोल्हू को अधिक आपूर्ति सुनिश्चित करती है। इसके बाद बीज स्क्रू प्रेस में निचोड़ा जाता है। स्क्रू प्रेस की डिजाइन इस तरह का है कि यह तेल को बाहर आने के लिए अधिकतम जगह देता है। मशीन की लंबाई 3055 मिमि व चौड़ाई 1045 मिमि है। मशीन के कार्यजीवन को बढ़ाने के लिए इसके निर्माण में मिश्र इस्पात का प्रयोग किया जाता है।


नवप्रवर्तक की तेल निकालने वाली मशीन स्क्रू प्रेस से जुड़े प्लेनेटरी गेयर व्यवस्था का प्रयोग कर किसी भी प्रकार के बीजों को निचोड़ सकती है। इसी क्षमता के पारंपरिक तेल निकालने की मशीन की तुलना में यह औसतन 40 प्रतिशत बिजली बचाती है। इसकी उत्पादन दक्षता उच्च होती है जो कॉम्पैक्ट डिजाइन में बने एक कुशल ऊर्जा संचरण तंत्र के द्वारा संभव हो पाता है। यह पारंपरिक मशीन की तुलना में एक तिहाई जगह घेरती है और इसका रखरखाव खर्च भी न्यूनतम है। इस खोज के द्वारा ऊर्जा संरक्षण से तेल मिलों में बिजली की जरूरतों में कमी होगी। उपयोगकर्ता की सिरे पर यदि एक किलोवाट प्रतिघंटे की बचत होती है तो उत्पादन क्षमता को 2-4 किलोवाट प्रति घंटे की राहत मिल सकती है। हम कल्पना कर सकते हैं कि इस प्रौद्योगिकी से 50 प्रतिशत की बचत बिजली की मांग और आपूर्ति के बीच के अंतर को कम करने की लागत को घटाया जा सकता है। 
 

पारंपरिक तेल निकालने वाली मशीन पुली और बेल्ट वाली प्रौद्योगिकी से 30 एचपी के बिजली मोटर से प्रतिदिन 6 से 10 एमटी तिलहन निचोड़ती है। इन मशीनों के लिए 9.2 मि X 3.8 मि. के औसत जगह और दो मजदूरों की इसको संभालने के लिए जरूरत होती है। इसके अलावा पुली और बेल्ट प्रौद्योगिकी से होनेवाले संचरण क्षय से अंतत: परिचालन लागत बढ़ता है। बेल्ट की वजह से होनेवाले कंपन को अवशोषित करने के लिए मशीनों को एक ठोस नींव रखने की जरूरत होती है। बेल्ट और काउंटर शाफ्ट की वजह से अधिक कंपन होने के कारण टूट-फूट की आशंका उच्च रहती है।  इसके अलावे इसमें टिकिया की मोटाई को समायोजित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। टिकिया में तेल के प्रतिशत को 6-7 प्रतिशत के बीच रखना कठिन है।
 
बीज के प्रकारमोटर एचपी प्रति 24 घंटे में निचोडऩे की क्षमता एमटी में24 घंटे में तेल उत्पादन
कपास और सोयाबीन के बीज50-60 18-2214 प्रतिशत
केस्टर40-50 30-3536 प्रतिशत
मूंगफली40-30 50-3542 प्रतिशत
सरसों40-50 30-3535 प्रतिशत
रेपसीड40-50 30-3537 प्रतिशत
तिल40-50 30-3550 प्रतिशत
नारियल गरी40-50 30-3562 प्रतिशत
लिन बीज40-50 30-3542 प्रतिशत
पाम कर्नेल50 28 60-3236 प्रतिशत
क्रशिंग चैंबरप्रत्येक क्रशिंग चैंबर का आकार 33 X 6।
क्लच यंत्र संरचनाजरूरत के अनुसार तीनों में से किसी चैंबर को शुरू और बंद करते हैं।
टिकिया मोटाई उपकरणजरूरत के अनुसार टिकिया की मोटाई को व्यवस्थित करने के लिए, मशीन को रोकने की जरूरत नहीं होती है।
वजनलगभग 6000 किग्रा - मोटर और कुकिंग केतली के साथ।
उपरोक्त विवरण की गणना केवल सूखे और अच्छी गुणवत्ता वाले तिलहन के लिए ही है। 
मशीन में प्रयुक्त मोटर की तुलना में थोड़ी अधिक शक्ति वाले डीजल इंजन से भी इसे चलाया जा सकता है।
तेल का उत्पादन गणना सभी बीज की अधिकतम पेराई के बाद की जाती है।
यह क्षमता एक बार की पेराई की है, कुछ बीज को दो बार की पेराई की जरूरत होती है। 

  • इसमें तीन एकीकृत कोल्हू होते हैं जिसकी कुल पेराई क्षमता कपास के बीज के लिए 18 एमटी प्रतिदिन और मूंगफली तथा अन्य बीजों के लिए 32 एमटी प्रतिदिन होती है।
  • 50 एचपी का मोटर जो मशीन को ऊर्जा प्रदान करता वह मशीन के मुख्य भाग का अभिन्न हिस्सा होता है।
  • प्लेनेटरी गेयर व्यवस्था के साथ यह मोटर तीन कोल्हुओं से जुड़ा होता है।
  • मशीन में बीजों को भाप से पकाने के लिए तीन समानांतर चैंबर होते हैं।
  • प्रेशिंग मशीन भाप वाले चैंबर से जुड़ा होता और एक प्रशिंग मशीन प्रत्येक चैंबर से जुड़ा होता है।
  • अंतत: एक स्क्रू प्रेश होता जहां बीज को निचोड़ा जाता है।
  • मिश्र इस्पात का प्रयोग मशीन के कार्यजीवन को बढ़ाने के लिए किया जाता है।
  • इस मशीन की अतिरिक्त तकनीकी विशिष्टताएं और उत्पादन क्षमता निम्न प्रकार है।
  • कम से कम 50 प्रतिशत बिजली और 70 प्रतिशत जगह बचाती है।
  • कपास के बीज को 18 एमटी/24 घंटे की दर से प्रोसेस करती है।
  • उत्तम पेराई उच्च गुणवत्ता की टिकिया को बिना उसके पोषक गुणों को नष्ट किए सुनिश्चित करती है।
  • भारी बीयरिंग और गर्म शाफ्ट के इस्पात का विशेष मिश्रधातु सुचारू संचालन को सुनिश्चित करती है।
  • टिकिया की मोटाई को मशीन की चालू अवस्था में भी समायोजित किया जा सकता है।
  • मशीन के संचालन के लिए कम संख्या में मजदूर की आवश्यकता होती है।
  • मशीन के परिचालन लागत को एक तिहाई तक कम कर देता है।
  • बेहतर रखरखाव और हैडलिंग प्रदान करता है।

अपनी खेती अपना खाद, अपना बीज अपना स्वाद - प्रकाश सिंह रघुवंशी

प्रकाश सिंह रघुवंशी (49) ने किसानों के लिए बेहतर बीजों का विकास करने के लिए हमेशा कठोर परिश्रम किया है. उन्होंने गेहूँ, धान, सरसों और तुअर की उच्च उपज वाली किस्मों का विकास किया है. प्रकाश अपनी माँ, पत्नी, छ: बच्चों और भाई के साथ वाराणसी के टांडिया गाँव में एक संयुक्त परिवार में रहते हैं. उनके दो अन्य भाई भी हैं जो कि किसान हैं जबकि साथ रहने वाले भाई की स्वयं की बीज की कंपनी है जिसके द्वारा विकसित बीज बेचे जाते हैं.

रघुवंशी के पास साढ़े तीन एकड़ भूमि है जिस पर वह गेहूँ, धान और तुअर की खेती करते हैं. उसके परिवार के सदस्य विशेष रूप से उनका बड़ा पुत्र रणजीत, खेती कार्य में उनकी सहायता करता है. उनके सभी बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं.

अनुसंधान के लिए प्रेरणा

कृषि में नई बातों के साथ स्वयं को अद्यतन रखने के लिए, रघुवंशी नियमित रूप से कृषि मेलों में भाग ले रहे हैं और वैज्ञानिकों एवं कृषि अधिकारियों से मिल रहते हैं.

नई किस्मों का विकास करने की उनकी प्रेरणा - डॉ. महातिम सिंह, पूर्व प्राध्यापक, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू.) और पूर्व उपकुलपति, जी.बी. पंत कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (GBPUAT) से आई. डॉ. सिंह ने उन्हें बेहतर किस्मों का विकास करने के लिए प्रेरित किया जिनका उपयोग अन्य किसानों द्वारा अपना जीवन बेहतर करने के लिए किया जा सके.

नवप्रवर्तन

रघुवंशी ने कई बेहतर उच्च उपज वाली गेहूँ, धान, सरसों और तुअर की किस्मों का विकास किया है जो बड़ी महामारियों और बीमारियों के लिए प्रतिरोधी हैं और उनमें अच्छी गंध और स्वाद वाले बीज होते हैं. इन किस्मों को पौधों की विशिष्ट चारित्रिक विशेषताओं पर आधारित सरल चयन का उपयोग करके विकसित किया गया है.

गेहूँ की बेहतर किस्में

तीन गेहूँ की किस्में - कुदरत 5, कुदरत 9, कुदरत 17 का विकास कल्याण सोना और RR21 किस्मों से किया गया है. कुदरत 9, कुदरत 5, कुदरत 17 के पौधे की ऊँचाई क्रमश: 85-90 सेमी., 95-100 सेमी. और 90-95 सेमी है जबकि बालियों की लंबाई 9 सेमी, 6 सेमी और 10 सेमी; 1000 बीजों का वजन 70-72 ग्राम, 58-60 ग्राम, 60-62 ग्राम है; और प्रति एकड़ उपज 20-25 क्विंटल है, 15-20 क्विंटल और 22-27 क्विंटल क्रमश: है.

सामान्यत: गेहूँ की किस्मों को बालीधानों की उच्च संख्या, लंबी बालियों और प्रति बाली बीजों की अधिक संख्या, कठोर तना और उच्च प्रोटीन मात्रा के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है.

धान की बेहतर किस्में

धान की तीन किस्में - कुदरत 1, कुदरत 2 और लाल बासमती का विकास HUVR-2-1 और पूसा बासमती किस्मों से किया गया है. कुदरत 1, कुदरत 2 और लाल बासमती किस्मों की स्थिति में परिपक्व होने के लिए दिनों की संख्या क्रमश:130-135 दिन, 115-120 दिन और 90-100 दिन है जबकि प्रत्येक की प्रति एकड़ उपज (क्रम में बताई गई) 25-30 क्विंटल, 20-22 क्विंटल और 15-17 क्विंटल है. धान की किस्मों में बालियों की उच्च संख्या और प्रति बाली बीजों की अधिक संख्या होती है.

तुअर की बेहतर किस्में

तीन तुअर की किस्में - कुदरत 3, चमत्कार, करिश्मा का विकास आशा और मालवीय 13 किस्मों से किया गया है. कुदरत 3 एक चिरस्थायी किस्म है जबकि अन्य दो वार्षिकी हैं. कुदरत 3, चमत्कार और करिश्मा की स्थिति में प्रति पौधा फलियों की संख्या क्रमश: 500-1000, 400-600 और 450-650 है जबकि उपज प्रति एकड़ 12-15 क्विंटल, 10-12 क्विंटल और 10-12 क्विंटल है. इन किस्मों में मोटे बीज, दृढ़ तने और प्रति पौधा फलियों की अधिक संख्या होती है.

सरसों की बेहतर किस्में

तीन सरसों की किस्में - कुदरत वंदना, कुदरत गीता, कुदरत सोनी का विकास सरल चयन का उपयोग करके उनके द्वारा किया गया है. किस्मों की औसत बीज उपज क्रमश: 1430.52 किग्रा /हेक्ट, 1405.24 किग्रा /हेक्ट और 742.23 किग्रा/हेक्ट; औसत तेल मात्रा 42.30 प्रतिशत, 39.00 प्रतिशत और 35.50 प्रतिशत के साथ है. कुदरत वंदना का विशेष गुण प्रति फली बीजों की अधिक संख्या और उच्च तेल मात्रा है जबकि कुदरत गीता और कुदरत सोनी के लिए उनकी विशेषता है गुच्छेदार फलियां और मोटे बीज. सरसों की किस्मों का आकलन एन.आर.सी.आर.एम्., भरतपुर में किया गया है.

प्रसार और प्रतिक्रिया

रघुवंशी एक नवप्रवर्तनकारी किसान हैं और उन्होंने उत्तर भारत में कई किसान मेलों और कृषि मेलों में भाग लिया है. उन्होंने उ.प्र. में वाराणसी, इलाहाबाद; मध्यप्रदेश में जबलपुर, नरसिंहपुर, खरगोन, इन्दौर, भोपाल; छत्तीसगढ़ में रायपुर, भिलाई, धमतरी; महाराष्ट्र में जलगाँव, यवतमाल, अमरावती और पुणे; तथा राजस्थान में कोटा, भरतपुर, डूँगरपुर, जयपुर और सीकर; एवं गुजरात में अहमदाबाद, गाँधीनगर, अमरेली, सबरकंथा; तथा बिहार, हरियाणा व पंजाब के कुछ भागों में अपने गेहूँ की किस्मों के बीच वितरित किए हैं जहाँ से रिपोर्ट और किसानों की प्रतिक्रियाएँ प्रशंसनीय रहीं हैं.

उनकी सरसों और तुअर की किस्मों के लिए यू.पी., राजस्थान, पंजाब, बिहार और हरियाणा से किसानों से प्रोत्साहनवर्धक प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है. उनकी नई फसल की किस्मों को एक किसान मेले में और वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान से प्रशंसा प्राप्त हुई है जिन्होंने उनकी गेहूँ की किस्मों का परीक्षण किया.

वह चौथी प्रतिस्पर्धा के लिए तकनीकों का आकलन करने हेतु रा.न.प्र की सूचना अनुसंधान सलाहकार समिति (RAC) का भाग रहे हैं. रघुवंशी ने 2006 में श्रृष्टि-रा.न.प्र. द्वारा आयोजित पारंपरिक भोज उत्सव ‘सात्विक’ में भाग लिया जहाँ उन्होंने उनकी किस्मों के लिए अच्छा प्रतिसाद प्राप्त किया. उन्होंने 2007 में मूलभूत नवप्रवर्तनों और पारंपरिक ज्ञान के लिए रा.न.प्र. के चौथे राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में सांत्वना पुरस्कार जीता था. रा.न.प्र. ने उनकी गेहूँ की किस्मों - कुदरत 7, कुदरत 11 और तुअर की किस्म कुदरत 3 के पीपीवीएफआर अधिनियम 2002 के अंतर्गत आवेदन फाइल किया है.

उन्हें नर्सरी विकास, खेती और उनकी बेहतर किस्मों के लिए निर्माण माध्यमों को बढ़ावा देने के लिए सूक्ष्म उपक्रम नवप्रर्वतन कोष (एमवीआईएफ) के तहत 1,90,000/- रु. की वित्तीय सहायता प्रदान की गई.

संपूर्ण कठोर कार्य जो वह विभिन्न फसलों की बेहतर किस्मों का विकास करने के लिए करते हैं वो एक एकल साधारण परिसर पर आधारित होते है. वह कामना करते हैं कि प्रत्येक किसान को फसलों की उच्च उपज वाली किस्मों के बेहतर गुणवत्ता बीजों पर पहुँच प्राप्त होना चाहिए ताकि यह किसान के साथ-साथ देश के लिए भी लाभदायक हो.