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Wednesday 12 April 2017

गजब आविष्कार : धरती से 'जहर' पीकर 'अमृत' देगा 'नीलकंठ'

हरियाणा के कैथल जिले के सातवींं पास किसान लक्ष्मण सिंह ने 'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनाने का फॉर्मूला खोज लिया है। खास बात यह है कि बिना बिजली के इस यंत्र पर लागत भी ज्यादा नहीं आती।

कैथल (सुधीर तंवर)। प्रतिभा को किसी स्कूल और कॉलेज की जरूरत नहीं। वैसे भी ज्यादातर अविष्कार अनपढ़ों और कॉलेज ड्रॉपर्स के नाम दर्ज हैं। ठीक ऐसेे ही हरियाणा के कैथल जिलेे में रहने वाले एक किसान ने भी एक नया 'अविष्कार' किया है। जो काम आज तक बड़ी-ब़ड़ी कंपनियों में करोड़ों की तनख्वाह लेने वाले इंजीनियर नहीं कर पाए इस सातवीं पास किसान ने वो काम महज तीस हजार रुपये में कर दिया।


'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनानेे का फॉर्मूला निकाला

सौंगल के किसान लक्ष्मण सिंह ने 'जहरीले' पानी को 'मीठा' बनानेे का रास्ता खोज लिया है। दरअसल, रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से भूजल 'जहरीला' होता जा रहा है। इसी 'जहरीले' पानी को हम पीते हैं, जिसका दुष्प्रभाव शरीर पर पड़ता है। इसी को मीठा बनाने के लिए लक्ष्मण ने महादेव नीलकंठ वाटर प्यूरीफायर बनाया है।


सिरमिक पाउडर और कोयले से शुद्ध होगा पानी


लक्ष्मण सिंह ने अपने इस यंत्र में पांच तरह के फिल्टर लगाए हैं। इसमें टंकी से पाइप के जरिए पानी आता है। पांचों फिल्टर पीवीसी पाइप के जरिए आपस में जुड़े होंगे। इन्हीं पांचों फिल्टरों से गुजर कर पानी शुद्ध होगा। पहले चार फिल्टरों में मौजूद ईंट-पत्थर और सिरमिक का पाउडर व लकड़ी का कोयला पानी को शुद्ध करेंंंगे। जबकि पांचवां फिल्टर पानी को पूरी तरह शुद्ध कर इसमें ऑक्सीजन भर देगा।


बिना बिजली 15 साल तक मिलेगा स्वच्छ पानी


यह वाटर प्यूरीफायर 15 साल तक स्वच्छ पानी मुहैया कराएगा। खास बात यह कि न तो इसके लिए बिजली की जरूरत होगी और न मेंटीनेंस की।


बचा हुआ पानी भी खेती के लिए फायदेमंद


प्यूरीफायर में पानी के शुद्धीकरण के बाद बचे हुए पानी को खेती में प्रयोग किया जा सकता है। दावा है कि इसमें मौजूद फ्लोराइड साल्ट, टीडीएस, जंक और ऑक्सीजन की उपस्थिति उर्वरक का काम कर जमीन की उत्पादन क्षमता को कई गुणा बढ़ा देगी। लक्ष्मण सिंह ने कहा कि उनके खेत में खड़ा 25 फीट ऊंचा गन्ना हो या भुट्टों व गेहूं की बालियों से लदे मक्की और गेहूं के पौधे या फिर कचरियों व लौकी से लदी बेल, इस दावे को पुख्ता करती हैं।


तीस हजार आती है लागत


एक इंच पाइप वाला महादेव नीलकंठ प्यूरीफायर करीब 30 हजार रुपये में तैयार हो जाता है। दावा है कि यह एक घंटे में करीब पांच हजार लीटर पानी को शुद्ध कर देता है। इसी तरह दो, तीन, चार, पांच इंच पाइप वाले यंत्र का खर्च और पानी को शुद्धिकरण करने की क्षमता उसी अनुपात में बढ़ती जाती है।


कई कंपनियों ने दिए लुभावने ऑफर


लक्ष्मण सिंह से उनके प्यूरीफायर की तकनीक साझा करने के लिए कई नामी गिरामी कंपनियों ने मोटी धनराशि की पेशकश की, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। लक्ष्मण ने इस प्यूरीफायर का बाकायदा पेटेंट करा लिया है। वहीं, विशेषज्ञों ने भी इस पर मुहर लगाते हुए इसे किफायती बताया है।


समाजसेवा के साथ-साथ रोजगार देने का सपना


लक्ष्मण सिंह ने अपने इस अविष्कार के जरिए समाजसेवा के साथ-साथ युवाओं को रोजगार देने की भी योजना बनाई है। लक्ष्मण सिंह इस प्यूरीफायर का व्यापक स्तर पर उत्पादन और प्रचार करने की योजना पर काम कर रहे हैं। इसके लिए पहले वो छोटे स्तर से शुरूआत करेंगे। इसके बाद पूरे राज्य में नेटवर्क बनाया जाएगा और फिर दूसरे प्रदेशों के युवाओं को इस मुहिम से जोड़ा जाएगा। लक्ष्मण सिंह ने कहा कि देश भर में इसका प्रसार कर देने के बाद जापान जैसे दूसरे देशों के साथ इस तकनीक को साझा किया जाएगा।


फिलहाल ब्लॉक और ग्राम स्तर से करेंगे शुरुआत


लक्ष्मण सिंह ने अभी एमटेक पास पांच युवाओं की टीम बनाई है। जो कि 15 जून से विभिन्न जिलों के पांच-पांच युवाओं को पंचायती जमीन पर प्यूरीफायर बनाने का प्रशिक्षण देगी। इसके बाद ये टीमें ब्लॉक और ग्राम स्तर पर बीटेक/एमटेक युवाओं को प्रशिक्षण देंगी। जो प्यूरीफायर का निर्माण कर इसकी बिक्री करेंगी। इसे बनाने वाले युवकों को कच्चा माल लक्ष्मण सिंह ही उपलब्ध करवाएंगे

रामगढ़ की 12 वर्षीय काव्या विग्नेश करेंगी डेनमार्क में यूरोपीय रोबोटिक्स चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व

काव्या विग्नेश और उसके दोस्त डेनमार्क में रोबोटिक्स प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले सबसे कम उम्र की टीम में शामिल हैं। मधुमक्खियों को बचाने के अनूठे समाधान के साथ वे इस प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

"दिल्ली पब्लिक स्कूल, नई दिल्ली की क्लास 7 में पढ़ने वाली काव्या विग्नेश को आर्ट्स, डांसिंग और सिंगिग साथ-साथ रोबोटिक्स भी पसंद है। अच्छी एजुकेशन सिर्फ रोबोटिक्स के बारे में जानना ही नहीं, बल्कि वो सब कुछ करना होता है जो आपका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है और जिसके बारे में और अधिक जानने के लिए आप उत्सुक रहते हैं।"
12 साल की काव्या विग्नेश

काव्या और उसकी टीम फर्स्ट लेगो लीग का हिस्सा होगी। ये एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता है, जिसमें 60 देशों के 9 से 16 वर्ष के बीच के लगभग 200,000 बच्चे भाग लेंगे।

काव्या विग्नेश जब नौ साल की थी उन दिनों गर्मियों की छुट्टी के दौरान उसकी माँ ने उसे रोबोलैब के रोबोटिक्स क्लासेस के लिए एनरॉल करवाया और तभी से काव्या ने मुड़ कर कभी पीछे नहीं देखा। वो अपने शौक और जुनून के साथ आगे बढ़ने लगी। काव्या अब 12 साल की है और उसकी टीम सुपरकिलफ्रागिलिस्टिक्सएक्सपीआईडियोगुसीज (Supercalifragilisticexpialidocious) फर्स्ट लेगो लीग (FLL) में शामिल होने वाली भारत की सबसे कम उम्र की टीम है। यूरोपीय ओपन चैंपियनशिप (ईओसी) की ये प्रतियोगिता इस साल के मई माह में डेनमार्क में आयोजित होने जा रही है।

हालांकि टीम के नाम सुपरकिलिफ्रैजिलिस्टीक्सस्पिअडोगुसीज़ (Supercalifragilisticexpialidocious) का उच्चारण थोड़ा मुश्किल है, लेकिन काव्या के लिए यह ज्यादा कठिन नहीं है। काव्या कहती है, "ये नाम मजाक के रूप में सुझाया गया था, लेकिन हमें यह जंच गया और फिर निरंतरता बनाये रखने के लिए हमने इसे ही आगे बढ़ाया, जिसका अर्थ है- बहुत बढ़िया या अद्भुत।

डेनमार्क में प्रतिस्पर्धा के लिए, टीम को अपने प्रोटोटाइप, यात्रा और अन्य खर्चों के लिए धन की आवश्यकता है। अन्य माता-पिता के विपरीत काव्या के माता-पिता क्राउड फंडिंग के माध्यम से धन जुटाने का समर्थन करते हैं, जिसके लिए काव्या ने भी अपनी टीम के साथ मिलकर धन जुटाने का काम शुरू कर दिया है।


क्या है फर्स्ट लेगो लीग


काव्या और उसकी टीम फर्स्ट लेगो लीग का हिस्सा होगी। ये एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता है, जिसमें 60 देशों के 9 से 16 वर्ष के बीच के लगभग 200,000 बच्चे भाग लेंगे। इसके लिए प्रत्येक देश में राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। राष्ट्रीय प्रतियोगिता के विजेता को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए चुना जाता है, जहां दुनिया भर की टीमें एक-दूसरे के खिलाफ अपना कौशल दिखती हैं। काव्या और उनकी टीम ने टॉप 8 में अफनी जगह बनाई है और सूची में सबसे काम उम्र की टीम है। काव्या की ये टीम अब डेनमार्क में होने वाली एफएलएल-ईओसी प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करेगी। इस टीम में में 6 स्टूडेंट्स और 2 टीचर शामिल हैं और ये सभी सभी उस रोबोक्लब से जुड़े हुए हैं, जिससे काव्या नौ साल की उम्र से जुड़ी हुई है।
फर्स्ट लेगो लीग प्रतियोगिता इस तरह की टीमों को, ध्यान केंद्रित करने और अनुसंधान के लिए एक वैज्ञानिक और वास्तविक चुनौती देता है। प्रतियोगिता के रोबोटिक्स भाग में कार्यों को पूरा करने के लिए लेगो माइंडस्टॉर्म रोबोट की डिजाइनिंग और प्रोग्रामिंग शामिल है। छात्र उनको दी गई विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए काम करते हैं और फिर अपने ज्ञान को सभी के साथ साझा करने, विचारों की तुलना करने और अपने रोबोट को प्रदर्शित करने के लिए क्षेत्रीय टूर्नामेंट में मिलते हैं।

काव्या और उनकी टीम जिस परियोजना पर काम कर रहे हैं, उसे बी सेवर बॉट कहा जाता है, जो मधुमक्खियों को या मनुष्यों को नुकसान पहुंचाये बिना उन्हें सुरक्षित और सावधानीपूर्वक हटा देता है।

काव्या कहती हैं, "जब भी लोग अपने घरों में मधुमक्खी देखते हैं, तो वे कीट नियंत्रण वालों को बुलाते हैं और मधु मक्खियों के छत्तों को जला देते हैं। इससे लगभग 20,000 - 80,000 मधुमक्खियां मर जाती है। इसलिए हमने इस समस्या का एक ऐसा समाधान खोजने के बारे में सोचा जो मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचाये बिना ही उन्हें सुरक्षित रूप से वहां से स्थानांतरित कर सके। क्योंकि दुनिया की 85 प्रतिशत से अधिक फसलों का परागण मधुमक्खियों द्वारा ही किया जाता है। भोजन का हर तीसरा टुकड़ा मधुमक्खी द्वारा परागण की गयी फसल या जानवरों (जो कि मधु मक्खियों द्वारा किये गए परागण किये गए हों) पर निर्भर करता है।"

टीम 'सुपरक्लिफ़्रॉगइलिस्टिकएक्सपिअलइडोसियस'

अनुसंधान के एक भाग के रूप में इस युवा दल ने उत्तर प्रदेश के एक मधुमक्खी पालन व प्रशिक्षण केंद्र का दौरा किया। मधुमक्खियों के बारे में बहुत कुछ सीखा और अपने बी सेवर बॉट का निर्माण किया। बी सेवर बॉट किसी भी मनुष्य या मधुमक्खी को नुकसान पहुंचाये बिना, घरों या ऊँची इमारतों से मधुमक्खियों को हटा देता है।

प्रोटोटाइप जिस पर वे काम कर रहे हैं और जिस को मई में प्रतियोगिता के लिए तैयार होने की आवश्यकता है, वो एक क्वाडकोप्टर है। ये 3 डी कैमरे वाला एक उड़ने वाला ड्रोन है, जो हाइव (छत्ते) को स्कैन करता है और उसके आस-पास के क्षेत्र का 3 डी माप तैयार करता है, उसके बाद इस माप को एक सीएडी-सीएएम सॉफ्टवेयर में डाला जाता है जो उस एन्क्लोज़र के आकार को डिज़ाइन करता है, जिसमें कि हाइव और मधुमक्खियों को पूरी तरह से कवर किया जा सके। काव्या के अनुसार इस डिजाइन को एक लकड़ी आधारित 3 डी प्रिंटर में डाला जाता है, जो एक बायोडिग्रेडेबल, सांस लेने योग्य और पुन: प्रयोज्य बाड़े को प्रिंट कर देता है। क्वाडकॉप्टर एक बार फिर से हाइव (छत्ते) के पास जाता है और इसकी दो बाहें छत्ते को पूरी तरह से ढँक लेती है, जबकि एक तीसरी बांह एक तीखी ब्लेड का इस्तेमाल करती है ताकि दीवार के पास से हाइव को काट कर एन्क्लोज़र को बंद किया जा सके और फिर इसे निकटतम मधुमक्खी फार्म में ले जाने के लिए एक वाहन में रख दिया जाता है।

Lightning McQueen कहे जाने वाली इस लाल रंग के रोबोट का निर्माण Lego Mindstorms EV3 के साथ किया जायेगा। काव्या कहती है, “हम बड़े मोटर्स ईवी3 रंग सेंसर का प्रयोग कर रहे हैं जो कि लाइन फॉलोइंग के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसके साथ ही हम सटीक मोड़ लेने के लिए gyro sensor और बहु-कार्य करने के लिए न्यूमेटिक्स का इस्तेमाल कर रहे है। न्यूमेटिक्स, हाइड्रोलिक्स की तरह ही होते हैं, जो अपने भीतर हवा को स्टोर करते हैं और फिर इसे विभिन्न कार्यों के लिए उपयोग करते हैं। हमारे रोबोट में गियर, ढलान वाली सतह और लीवर जैसे सरल तंत्र शामिल हैं। हमने ऐसा कार्यों के दौरान मोटर्स के इस्तेमाल को कम करने के लिए किया था।"

आगे काव्या कहती है, कि "हमारे इस तंत्र में भोजन संग्रह मिशन है। हमने एक पारस्परिक तंत्र का उपयोग किया है, जिसमें रोबोट ऊपर उठता है और एक एनक्लोजर जानवरों को फंसा लेता है। फिर, रोबोट दीवार की सीध में आकर रेफ्रिजरेटर तक पहुंचता है और फिर पारस्परिक तंत्र सक्रिय होकर उसी बाड़े (एनक्लोजर) में भोजन इकट्ठा करता है।”

काव्या अपनी स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ इस काम को भी बखूबी अंजाम दे रही है। शुरूआती दिनों में टीम सप्ताह में दो-चार घंटे का सप्ताहांत सत्र करती थी, लेकिन जैसे-जैसे प्रतियोगिता करीब आती जा रही है वे औसतन पांच दिन और 18-24 घंटे प्रति सप्ताह अभ्यास कर रहे हैं।

काव्या विग्नेश की इस बेहतरीन कोशिश ने सरकार का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। केंद्र सरकार में नागर विमानन राज्य मंत्री जयन्त सिन्हा ने ट्वीट करके काव्या और उनकी टीम का उत्साह वर्धन भी किया है। अपने ट्वीट में उन्होंने कहा है, रामगढ़ की 12 साल की काव्या विग्नेश पर हमें गर्व है, जो डेनमार्क में यूरोपीय रोबोटिक्स चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही है।

केंद्र सरकार में नागर विमानन राज्य मंत्री जयंत सिन्हा का ट्वीट
एक बड़ी जीत की ओर बढ़ते हुए 12 वर्षीय काव्या विग्नेश प्रोटोटाइप के डेनमार्क में अपना कौशल दिखाने के बाद भारत में मधुमक्खियों के ऊपर काम करने वाले सरकारी अधिकारियों से मिलना चाहती है और उनके साथ सहयोग कर के उन्हें 'बी सेवर बॉट' का इस्तेमाल करने के लिए कहना चाहती है। उसे ये उम्मीद है कि वो और उसकी टीम इस प्रतियोगिता को जीत लेंगे। 

काव्या और काव्या की टीम देश के हर अभिभावक से ये कहना चाहती है, कि 'अपने बच्चों के बारे में चिंता नहीं करें। उन्हें वो करने दें, जो वे करना चाहते हैं और फिर उन्हें सफल होते हुए देख कर संतुष्ट हों।

अनपढ़ किसान का अनोखा अविष्कार, तैयार किया चलता-फिरता बाजार

कर्ज और गरीबी ने झकझोरा तो आवश्यकता ने ‘अविष्कार’ को जन्म दिया। किसान बलबीर ने अपनेे ट्रैक्टर-ट्रॉली को ही मल्टीटास्किंग व्हीकल बना दिया। अब यहां जूस से लेकर आइसक्रीम तक और चाय की चुस्की से लेकर बाइक वाशिंग तक की सुविधा है।


दो लाख में तैयार हुआ चलता-फिरता बाजार :

कैथल जिले के पिलनी गांव के किसान बलबीर को गरीबी और कर्ज ने इस कदर झकझोर डाला कि परिवार में दो वक्त की रोटी भी मुश्किल हो गई। सिर पर 17 लाख रुपये का कर्ज था और पास में थी सिर्फ आधा एकड़ जमीन। इससे न खेती हो पाती थी और न ही कर्ज उतर पा रहा था। आखिर में कर्ज चुकाने के लिए जमीन भी बेचनी पड़ी। इसके बाद जानकारों से थोड़े-बहुत पैसे उधार लिये और अपनी ट्रैक्टर-ट्रॉली को चलते फिरते बाजार का रूप दे दिया। उसने इसे अपने हिसाब से डिजाइन कराया है। इसे तैयार करने में सवा दो लाख रुपये खर्च हुए हैं। वह आशान्वित है कि इससे परिवार की गुजर-बसर अच्छे से हो जाएगी।

ये सब है ‘बाजार’ में :
बलबीर की ट्रॉली में गन्ने का रस निकालने की मशीन, जूस कॉर्नर, आइसक्रीम पार्लर, चाय की दुकान और गाडियां धोने के लिए वाशिंग स्टेशन की सुविधा है। वह जूस और आइसक्रीम लेने वालों के वाहन भी निश्शुल्क धो देता है। ट्रॉली में ही उसने एक केबिन भी बनाया है। उसका कहना है कि अगर कहीं उसे रात को देर हो जाती है तो अंदर ही गैस चूल्हे पर खाना पका लेता है और खाकर सो जाता है। इस कमरे में उसने कूलर लगाया हुआ है।

बिजली भी अपनी :
बलबीर ने इस पूरे सिस्टम को ट्रैक्टर से जोड़ रखा है। बीच में जनरेटर रखा है, जो बिजली बनाता रहता है। गन्ने का रस निकालने की मशीन पर ही मोटर रखी है। इसी मशीन से वाहन धोने वाले पाइप में पानी का प्रेशर बनता है। बैटरी और इन्वर्टर रखा हुआ है। ट्रैक्टर के चलने से इन्वर्टर भी चार्ज होता रहता है। बलबीर ङ्क्षसह ने इसे ‘गुरु ब्रह्मानंद जूस भंडार’ नाम दिया है।

खुद तैयार करवाया डिजाइन :
बलबीर ने बताया कि ट्रॉली का यह डिजाइन उसने खुद मिस्त्री से तैयार कराया है। हालांकि शुरू में मिस्त्री ने हाथ खड़े कर दिए थे। मगर बाद में जैसे-जैसे वह बताता गया मिस्त्री वेल्डिंग करता गया। बलबीर का कहना है कि वह अनपढ़ जरूर है, लेकिन दिमाग तो है।

700 रुपये तक की हो जाती है बचत :
बलबीर के मुताबिक प्रतिदिन वह एक हजार से 1200 रुपये तक कमा लेता है। लागत निकालकर करीब 700 रुपये प्रतिदिन बचत हो जाती है। वह दिन में करीब 80 किलोमीटर का सफर तय करता है। बलबीर के परिवार में पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है। उसकी बड़ी लड़की ज्योति बीए में, उससे छोटी बेटी शिवानी दसवीं में और सबसे छोटा बेटा ललित चैथी कक्षा में पढ़ता है

‘‘प्रकृति में दिखता है जीवन’’ - बकुल गोगोइ |

आज से करीब दो दशक पहले असम के तेजपुर जिले के एक छोटे से गाँव के रहने वाला एक युवा अपने आस-पास लगातार कटते हुए पेड़ों और घटते हुए जंगलों को देखकर बेहद दुखी रहने लगा था। वह यह सब देखकर इतना विचलित रहने लगा था की उसे सपनों मे भी पेड़-पौधे, जंगल, नदियाँ रोते-तड़पते हुए दिखाई देते थे। एक दिन इसी तरह के सपने की वजह से जब वे आधी रात में नींद से जाग गए तब उन्होने उस दिन निश्चय कर लिया की आज से उनका पूरा जीवन प्रकृति की सेवा मे समर्पित होगा। 


बकुल गोगोई को पेड़ लगाने का जुनून है। वे बताते है कि बीस साल पहले जब उन्होने पेड़ लगाने कि यह मुहिम शुरू की थी, तब वे गुवाहाटी मे पढ़ाई कर रहे थे। उस वक्त उनके पास इतने भी पैसे नहीं होते थे कि वो  किसी नर्सरी से एक पौधा खरीद कर कहीं रौंप सके। उस वक्त वे अपने खाने के पैसों मे से बचत करके पौधे खरीदते थे और उन्हे शहर मे जहां भी खाली जगह दिखती थी वहाँ जाकर लगा देते थे। पर वो जानते थे कि ऐसा लंबे समय तक नहीं चल सकता है। जल्द ही उनकी पढ़ाई खत्म हो जाएगी और घर से मिलने वाला जो थोड़ा बहुत पैसा है वो भी मिलना बंद हो जाएगा। तब वो सोचने लगे की कैसे वो इस काम को आगे कर सकते है। उसी समय उन्होने अपनी खुद की नर्सरी शुरू कर दी। वो कहते है कि “पौधे लगाने के लिए हमे पैसों की जरूरत नहीं होती।

पौधा खुद अपने बीज तैयार करता है, हमे तो बस थोड़ी सी उसकी सहायता करनी होती है, की वो बीज सही जगह पहुँच जाए और उसके वयस्क होने तक उसका ख्याल रखा जाए। फिर तो वो अपने आप मे इतना सक्षम हो जाता है की खुद कहीं सारे पौधों को जन्म दे सकता है, उनका खयाल रख सकता है। मैं भी तो यहीं कर रहा हूँ। इस प्रकृति से हमें इतना कुछ मिला है, इसने हम सब को माँ कि तरह पाला है। आज जब हमारी जब तकलीफ में ये साथ है, तो हमारा यह फर्ज बनता है कि हम उसकी सेवा करे।”

अपनी इसी मुहिम में लोगों को शामिल करने के लिए इन्होने कई अनोखे तरीके ईजाद किए है। इनके आस-पास के इलाकों में जब भी किसी घर में कोई शुभ कार्य हो रहा होता है तो, यह वहाँ कुछ पौधे लेकर पहुँच जाते है और लोगों से अपील करते है इस शुभ कार्य कि शुरुआत पौधे लगा कर कि जाए। चाहे वो किसी का जन्मदिन, हो शादी हो या किसी भी तरह का कोई और शुभ कार्य, वो कहते है कि जब लोग इन अवसरों पर पौधरोपन करते है तो वह पौधा लोगों के लिए एक जीवित प्रलेख बन जाता है, जिससे उन लोगों कि यादें जुड़ जाती है। वही दूसरी तरफ जब किसी कि मृत्यु हो जाती है तो अंतिम यात्रा मे भी वे लोगों से कहते है कि मरने वाले व्यक्ति को सदा के लिए अमर बनाने के लिए उनकी याद मे परिवार को कम से कम एक पौधा लगवाते है। उनके इन्हीं प्रयासों कि वजह से स्थानीय लोगों ने उन्हे पेड़ वाले बाबा का उपनाम दे दिया है वही दूसरी तरफ समाज के बुजुर्ग लोग उन्हे वृक्ष-मानव कहकर बुलाने लगे है।

अब तक अपने हाथों से दस लाख से भी ज्यादा पौधों को रौपने के बाद अब वे अपनी इस मुहिम को वृहद स्टार पर ले जाना चाहते है। इसके लिए वे असम सरकार से दो चीजों को लागू करवाने का प्रयास कर रहे है कि स्कूल मे दाखिला लेते वक्त हर बच्चे से कम से कम दो पौधे लगवाए जाए और उनकी शिक्षा पूरी होने तक उन पौधों कि जिम्मेदारी उन बच्चों को ही सौंप दी जाए। वे कहते है कि कच्ची उम्र मे जन बच्चों को पेड़-पौधो, प्रकृति से जोड़ा जाएगा तो वे आगे चलकर अपने आप ही प्रकृति के प्रति जागरूक और संवेदनशील हो जाएगा। वहीं दूसरी तरफ उनकी कोशिश है कि असम में होने वाले बीहू महोत्सव के दिन को आधिकारिक रूप से पौधारोपण दिवस घोषित कर दिया जाए और असम का हर परिवार कम से कम एक पौधा उस दिन जरूर लगाए। वो बताते है कि बीहू महोत्सव का आधार मानव के प्रकृति के साथ रिश्ते को हर्षोल्लास से माना रहा है, परंतु आज हम इस रिश्ते को ही भूल गए है। उत्सव के नाम पर हम आज  कई सारी ऐसे कार्य कर रहे है जो सीधे तौर पर प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहे है। ऐसे मे यह जरूरी है कि हम फिर से कैसे इस मरती हुई संस्कृति को जीवित कर सकें, मानव संस्कृति को फिर से प्रकृति के साथ जोड़ सकें। अन्यथा इस संस्कृति कि मृत्यु के साथ मानव कि मृत्यु निश्चित है।

बिहार के इंजीनियरिंग स्टूडेंट का कमाल, अब आर्टिफिशियल हैंड से ड्राइव कीजिए कार

किसी दुर्घटना या हादसे में अपना हाथ गंवाने वाले लोग अब आर्टिफिशियल हैंड (कृत्रिम हाथ) के जरिए कार चला सकेंगे। सिर्फ कार ही क्यों, वे कृत्रिम हाथ के जरिए लगभग वे सभी काम कर सकेंगे, जो साधारण हाथ से किए जा सकते हैं। बीआइटी (बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी, पटना) के छात्र ने इसका मॉडल विकसित किया है। यह अत्याधुनिक कृत्रिम हाथ नसों के मूवमेंट के अनुसार काम करेगा।

आशुतोष की मेहनत का फल
बीआइटी के इलेक्ट्रिकल व इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग के फाइनल ईयर के छात्र आशुतोष प्रकाश ने शिक्षक व साथियों के सहयोग से इस कृत्रिम हाथ को तैयार किया है। उसने बताया कि अभी इसे बनाने में 15 हजार रुपये खर्च आया है।
इसके माध्यम से दुर्घटना में हाथ कटने वाला पीडि़त चाय-पानी का गिलास उठाने के साथ मोबाइल का भी उपयोग कर सकेगा। वह कार भी ड्राइव करे सकेगा। इसे आकर्षक, कारगर व सस्ता बनाने के लिए निदेशक ने और फंड देने की घोषणा की है।


नसों की हलचल पर करेगा काम
भारत में अभी दिमाग के इशारों पर काम करने वाला कृत्रिम हाथ नहीं बना है। जयपुर में बनने वाले कृत्रिम हाथ-पैर स्थाई अंग के रूप में तैयार होते हैं। ये सभी दैनिक कार्यों को अंजाम देने में सफल नहीं हैं। लेकिन, बीआइटी में तैयार कृत्रिम हाथ दिमाग के इशारों पर नसों की हलचल पर काम करता है।

ऐसे करता है काम
माइक्रोकंट्रोलर, मोटर, एम्प्लीफायर सर्किट, इएमजी सेंटर आदि को एसेंबल कर इसे थ्री डी तकनीक से बनाया गया है। सॉफ्ट प्लास्टिक का उपयोग करने के कारण यह बारीक चीज को पकडऩे में सक्षम है। इस डिवाइस को कलाई के ऊपर लगा दिया जाता है। यह डिवाइस दिमाग से दिए गए कमांड को नसों के माध्यम से इनकोड करता है और नसों की हलचल के अनुसार काम करता है।

आर्मी को ध्यान में रख बनाया
दरभंगा के कटहलबाड़ी डेनवी रोड निवासी आशुतोष प्रकाश ने बताया कि वह आर्मी में रहकर देश की सेवा करना चाहता था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के दौरान आर्मी वालों के लिए यह यंत्र बनाने की प्रेरणा मिली।

कहा निदेशक, बीआइटी, पटना, ने-
'आशुतोष का कृत्रिम हाथ काफी उपयोगी है। इसे बेहतर बनाने के लिए आर्थिक मदद दी जाएगी।

आविष्कार: आवाज पर चलती यह ह्वील चेयर, जानिए इसकी खासियतें

बीआइटी में पढने वाले बिहार के छात्र ने एक ऐसा व्हीलचेयर बनाया है जो इस पर बैठे व्यक्ति की आवाज सुनकर चलेगा। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसे निर्देश नहीं दे सकेगा। ‘ह्वील चेयर! मेरी आवाज सुन रहे हो न! बाएं चलो, ...और चेयर आवाज सुनते ही उस दिशा में बढ़ जाएगा। दिव्यांगों के लिए यह खास उपकरण बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (बीआइटी) के इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियिंरग के फाइनल इयर छात्र आशुतोष प्रकाश ने बनाया है। इसकी खासियत ही है कि यह सिर्फ इसका उपयोग करने वाले की ही आवाज सुनेगा। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसे निर्देश नहीं दे सकेगा। इसे बनाने में 20 हजार रुपये का खर्च आया है।

ऐसे मिली निर्माण की प्रेरणा :
आशुतोष ने बताया कि वह बीटेक में दूसरे वर्ष से ही इसे बनाने में जुट गया था। वह इंटर्नशिप के लिए डॉ. अतुल ठाकुर के पास गया था। वहां एक दिव्यांग को चलने में हो रही कठिनाई को देखकर उसी समय ठान लिया कि एक ऐसा ह्वील चेयर बनाएगा, जो आवाज सुनकर चले। दरभंगा निवासी आशुतोष ने इसे अपने दादाजी के लिए भी बनाया है। उसने कहा, जब दादाजी की उम्र अधिक होगी तो वे अपने हिसाब से इसका उपयोग कर सकेंगे। आशुतोष के पिता प्रमोद कुमार मिश्रा दरभंगा केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक हैं। मां रेणु मिश्रा गृहिणी हैं। निर्माण का श्रेय आशुतोष ने दादा, मां एवं पिता को दिया है। आशुतोष ने बताया कि इसका उपयोग आम लोग कर सकें, इसलिए उसने इसका पेटेंट नहीं कराया है।

ऐसे करता है काम...
यह संबंधित व्यक्ति की आवाज को याद कर लेता है। फिर उसी के निर्देश पर काम करता है। कोई आवाज बदलकर इसे निर्देश देना चाहे तो नहीं मानेगा। इसमें लगा सेंसर गड्ढा या दीवार को एक मीटर पहले ही पहचान कर रुक जाता है।

यह है तकनीक
- यह आवाज को प्रोसेस करता है।
- फिर प्रोग्राम के अनुसार माइक्रोकंट्रोलर को निर्देश देता है।
- माइक्रोकंट्रोलर उस हिसाब से मोटर को कंट्रोल करते हुए परिचालन करता है।

17 साल की लड़की ज़रूरतमंदों को दिखा रही है ‘‘दुनिया’’

पुराने चश्मों को इकट्ठा कर पहुंचाती हैं गरीबों तककई एनजीओ के सहयोग से करती हैं यह नेक कामअबतक 1500 से अधिक लोगों की कर चुकी है मददअभियान को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली स्वीकार्यता

दृष्टि को ‘देखने की क्षमता और अवस्था’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है लेकिन इस शब्द के मूल अर्थ का मतलब सिर्फ इतना ही नहीं है। दूसरों की सहायता करने का मतलब सिर्फ जरूरतमंदों को खाना-पीना देने या कपड़े देने या उनके लिये शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना ही नहीं है। अगर आपके अंदर दूसरों की सहायता करने की दूरदृष्टि है तो आप राहों में आने वाली तमाम परेशानियों को पार करके समाज के लिये कुछ कर सकते हैं। 17 वर्ष की आरुषि गुप्ता इस बात का एक जीता-जागता उदाहरण हैं।



आरुषि दिल्ली के बाराखम्बा रोड स्थित माॅडर्न स्कूल में इंटर की पढ़ाई कर रही हैं। वर्ष 2009 में आरुषि ने आँखों की समस्याओं से जूझ रहे लोगों की मदद करने की ठानी और अपने स्तर पर इस दिशा में एक ‘‘स्पेक्टेक्यूलर अभियान’’ की शुरुआत की। इस अभियान के तहत आरुषि ने लोगों के ऐसे चश्मों को इकट्ठा करना शुरू किया जिन्हें लोग पुराना हो जाने पर इस्तेमाल नहीं करते और फेंक देते हैं। आरुषि ऐसे चश्मों को जमाकर हेल्प ऐज इंडिया, जनसेवा फाउंडेशन और गूंज जैसे एनजीओ तक पहुंचा देती जहां से इन्हें जरूरतमंदो तक पहुंचाया जाता।

आरुषि बताती हैं कि इस तरह का विचार सबसे पहले उनके मन में 10 साल की उम्र में आया था। तब उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उनका पुराना चश्मा किसी गरीब के काम आ सकता है ओर उसे किसी जरूरतमंद को दिया जा सकता है। थोड़ा बड़ा होने पर उन्होंने इस बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया तो उन्हें समझ आया कि यह मुद्दा उनकी सोच से कहीं बड़ा है। प्रारंभ में उनकी कम उम्र उनके आड़े आई लेकिन धुन की पक्की आरुषि ने भी हार नहीं मानी और समय के साथ दूसरों की सहायता करने का उनका सपना सच होता गया।

वर्तमान समय में हमारे देश में करीब 15 करोड़ ऐसे लोग हैं जिन्हें दृष्टिदोष की दिक्कत के चलते चश्मे की आवश्यकता है लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वे उसे खरीद नहीं पाते हैं। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत आरुषि अड़ोस-पड़ोस, चश्मों की दुकानों, विभिन्न संस्थानों और अपने परिचितों के यहां से पुराने चश्मे इकट्ठे करके विभिन्न एनजीओ तक पहुंचाती हैं। इसके अलावा वे विभिन्न सामाजिक संस्थानों की मदद से विभिन्न इलाकों में आँखों के मुफ्त कैंप लगवाने के अलावा मोतियाबिंद के आॅपरेशन करवाने के कैंप का आयोजन भी करवाती हैं।

अबतक के सफर में उनके माता-पिता ने उनका पूरा सहयोग दिया है और अपने स्तर पर उनकी हर संभव मदद की है। यहां तक कि उनके स्कूल ने भी अबतक उनके इस नेक काम में हर संभव सहायता की है। चहुंओर मिली मदद के बावजूद आरुषि का सफर इतना आसान भी नहीं रहा है। दूसरों को अपने इस विचार के बारे में समझाना उनके लिये सबसे बड़ी चुनौती रहा। आरुषि बताती हैं कि प्रारंभ में कई बार लोगों से कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर उन्हें बहुत निराशा होती थी।

आरुषि सार्वजनिक स्थानों पर ड्राॅपबाॅक्स रख देती हैं जिनमें लोग अपने पुराने चश्मे डाल सकते हैं। अपने इस अभियान को अधिक से लोगों तक पहुंचाने के लिये आरुषि रोजाना कई लोगों से मिलती हैं और उन्हें अपने इस काम के बारे में जैसे भी संभव हो समझाने का प्रयास करती हैं। इसके अलावा वे और भी कई तरह के प्रयास कर अधिक से अधिक लोगों को अपने पुराने चश्में दान करने के लिये प्रेरित करती हैं।

आरुषि द्वारा अब किये किये गए प्रयास व्यर्थ नहीं गए हैं और तकरीबन 1500 से अधिक लोग उनके इस अभियान से लाभान्वित हो चुके हैं। आरुषि कहती हैं कि ‘‘दान करने की कोई कीमत नहीं है लेकिन इससे आप कई लोगों का आभार कमा सकते हैं।’’

आखिरकार आरुषि के इस प्रयास को उस समय स्वीकार्यता और सम्मान मिला जब उन्हें इस अभियान के लिये चैथे सालाना ‘‘पैरामेरिका स्प्रिट आॅफ कम्यूनिटी अवार्डस’’ के फाइनलिस्ट के रूप में चुना गया। आरुषि कहती हैं कि इस अभियान को लोगों से मिलती प्रशंसा और सराहना से उन्हें लगातार आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती हैै।

Tuesday 28 March 2017

नेगेटिव से फोटो तैयार करने की सरल तकनीक

दशकों पुराने क्लिक-3 कैमरा वाले नेगेटिव के फोटो बनाना आज के समय में असंभव-सा प्रतीत होता है । लेकिन लगन और चाह के आगे कुछ भी असंभव नहीं हैं । जिसे अपनी किशोरावस्था से ही कैमरे का शौक रखने वाले बी.एस. पाबला जी ने साबित कर दिखाया है । बी.एस. पाबला जी ने अपना पहला क्लिक-3 कैमरा सन् 1976 में खरीदा। बी.एस.पाबला जी का जन्म स्थान दल्लीराजहरा है और ये छत्तीसगढ़ के भिलाई क्षेत्र में रहते हैं और महारत्न कंपनी सेल (Steel Authority of India Limited) में 1981 से सेवारत हैं । पाबला जी के पिता का नाम श्री केहर सिंह और माता जी का नाम हरभजन कौर है । इनकी एक बेटी है जिसका नाम रंजीत कौर है । 

पाबला जी को अपनी किशोरावस्था से ही कैमरे का बहुत शौक है, इसलिए जब एक दिन इन्हें 35- 40 साल पुराने आग्फा कंपनी के क्लिक-3 कैमरा के नेगेटिव मिले तो इनके मन में चाह उठी कि काश ये इन नेगेटिव की फोटो फ्रेम बनवा लेते और इन्होंने महज़ 10 मिनट में इसका हल निकाल लिया। यह सारे नेगेटिव आग्फा कंपनी के क्लिक-3 कैमरा के थे । यह एक साधारण से लैंस वाला ऐसा कैमरा था जिसमें अधिक से अधिक 12 चित्र लिए जा सकते थे और नेगेटिव का आकार 6X6 सेंटीमीटर का होता था। एक फोटो लेने के बाद रोल को उंगलियों से घुमाकर ऐसी जगह लाया जाता था जहां कोरे स्थान पर दूसरी फोटो आ सके । अगर आप रोल घुमाना भूल गए तो एक के ऊपर एक दूसरी फोटो छप जाती थी । इस कैमरे में फ्लैश नहीं था व अलग से लगाया भी जाये तो बड़ी सी बैटरी बल्ब होता था जो अपनी चकाचैंध राशनी बिखेरने के साथ ही फ्यूज़ हो जाता था और अगली फ्लैश के लिए नया बल्ब लगाना पड़ता था । 

कैमरा और डेवलपिंगउस समय में भी उन्होंने नेगेटिव के फोटो बनाने के लिए फोटो बनाने की तकनीक बताने वाली एक छोटी सी किताब खरीदी जिसकी सहायता से उन्होंने नेगेटिव से फोटो भी तैयार की । उस फोटो बनाने की तकनीक बताने वाली किताब से उन्होंने नेगेटिव से फोटो बनाने के लिए कमरे में लाल बल्ब लगाकर डार्क रूम बनाया और डेवलपर, हाइपो व 100 पेपर वाला डिब्बा खरीदा । फिर टेबल लैंप के नीचे ड्राइंग शीट का फ्रेम काट कर रखा। नेगेटिव और फोटो पेपर साथ-साथ रखकर कुछ सेकेंड की रोशनी दी । फिर जब उन्होंने फोटो पेपर को डेवलपर वाली ट्रे में होले-होले थप-थपाया तो धीरे-धीरे तस्वीर उभरने लगी। हाइपो से बाहर निकाल कर ठीक से सुखाने के बाद खिंची तस्वीर सामने आई । उस समय में भी उन्होंने स्वयं इस प्रकार नेगेटिव से फोटो तैयार की थी ।

कैमरा एक्सरे

लेकिन अब वे उन दशकों पुराने नेगेटिवों की तस्वीरें उस विधि द्वारा नहीं तैयार कर सकते थे क्योंकि अब वह सब चीज़ें बाज़ार में उपलब्ध नहीं होती। फिर वे उन नेगेटिवों को फोटो में तबदील करने के बारे में सोचने लगे। सोचते-सोचते उनकी ललक इतनी बढ़ गई कि उन्होंने इंटरनेट छाना लेकिन जो उपाय दिखे वह बहुत ही तिकड़मी थे। फिर उन्होंने यह समस्या फेसबुक पर डॉ. अनिल कूमार को बताई और डॉ. अनिल कूमार ने उन्हें बताया कि सफेद कागज़ पर नेगेटिव रखकर स्कैनर पर स्कैन करें और फिर फोटोशॉप जैसे सोफ्ट्वेयर में डाल कर नेगेटिव का पॉजिटिव बना लीजिए। 

कैमरा नेगटिव

ये तकनीक पाबला जी को कुछ जचा नहीं, क्योंकि ऐसी असफल कोशिश वे पहले भी कर चुके थे। फिर पाबला जी को ख्याल आया कि डाक्टरों के कमरे में एक्सरे में देखे जाने वाले डिब्बे जैसी किसी चीज़ से कुछ हो सकता है। फिर झट से उन्होंने एक नेगेटिव निकाला और कमप्यूटर मॉनिटर के सामने स्क्रीन में फंसा दिया। सफेद रोशनी चाहिए थी तहो ब्राउज़र की खाली टेब खोल ली। लेकिन नीचे का टास्क बार रोड़े अटका रहा था तो उसे ऑटो हाईड कर नीचे जाने दिया। फिर पाबला जी ने अपना डिजिटल कैमरा उठाया और उस सफेद रोशनी के सामने फंसे नेगेटिव की फोटो इस प्रकार ली कि सामने फंसे नेगेटिव की फोटो तो आये किन्तु उसके आस-पास की फोटो न आये । 

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उन्हें एक-दो बार कोशिश करने पर मनचाहा परिणाम मिल गया । फिर उन्होंने कैमरे के मेमोरी कार्ड से इमेज कमप्यूटर में डाली और फिर माइक्रोसोफ्ट ऑफिस से काट-छांट कर सही आकार दे दिया । अब इस नेगेटिव जैसी दिखती फोटो को उन्होंने विंडोज़ में उपलब्ध पेंट में खोला, इसके बाद ctrl के साथ a दबाकर या मेन्यू बार में select>select all कर फोटो में ही किसी स्थान पर सावधानी से माउस का राइट क्लिक करके सामने आए बाक्स के निचले हिस्से में दिए इनवर्ट कलर पर क्लिक किया। अब उनके सामने अच्छी खासी तस्वीर आ चुकी थी और अब उसे सिर्फ सेव ही करना था। अब यह फोटो फ्रेम में लगाने लायक थी। तो है ना ये नेगेटिव से फोटो बनाने का नायाब तरीका ।

कैमरा यादों में

हैदराबाद के रेलवे पैंशनर गंगाधर तिलक कटनम का अनूठा प्रयास

हमारे भारत देश में सड़कों की हालत बहुत बुरी है । इस खतरनाक समस्या का हल करने का हमारे ही जैसे एक नागरिक ने बीड़ा उठाया है। उनका नाम गंगाधर तिलक कटनम है । यह एक रिटायर रेलवे कर्मचारी है। वे 67 वर्ष के हैं और इतने बुज़ुर्ग होते हुए भी वे रोज़ सुबह अपनी कार लेकर सड़कों पर घूमते हैं और जहां उन्हें कोई भी गढ्ढा दिखाई देता है, वे उसकी मुरम्मत स्वयं करते हैं । किसी के लिए भी इतने साल नौकरी करने के बाद काम करना कठिन होता है । हर व्यक्ति अपने रिटायरमेंट का समय अपने परिवार और दोस्तों के साथ आराम से और खुशीपूर्वक बिताना चाहता है । 

लेकिन गंगाधर तिलक सेवा निवृत्त होने के बावजूद अपना समय दूसरों की भलाई में लगाना चाहते हैं। लेकिन क्या हम गंगाधर तिलक कटनम जी को एक नियमित आदमी कह सकते हैं ? नहीं क्योंकि वह एक ऐसे इंसान है जो अपने मिशन पर काम कर रहे हैं । उनके लिए सड़कों के गढ्ढे भरना एक मिशन है। इसलिए वह हर दिन अपनी कार लेकर सड़कों पर घूमते हैं और जहां भी गढ्ढा दिखाई देता है उसे भरने में पूरी कोशिश करते हैं । 

उनकी कार की पिछली सीट पर वे कुछ तारकोल मिश्रित बजरी के बोरे रखते हैं, शुरूआत में वे बजरी सड़कों से इक्कठा करते थे लेकिन बाद में उन्होंने ठेकेदारों से खरीदना शुरू कर दिया। उनकी यह यात्रा 5 बजरी के बोरों से शुरू हुई थी और अब गंगाधर जी अपनी कार में 8 से 10 बोरों को रखते हैं उनके इस तरह के समर्पण ने हैदराबाद की सड़कों को यात्रियों के लिए सुरक्षित बना दिया है । उन्होंने बताया कि एक दिन वह कार चला रहे थे और अचानक से उनकी कार गढ्ढे में फंसने के कारण गढ्ढे में भरे गंदे पानी के छींटे गली में खेल रहे बच्चों पर गिर गए । तब उस समय उन्हें बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई । 

फिर तब ही उन्होंने 5000 रूपये खर्च कर जरूरत अनुसार पदार्थ खरीदा और उस गढ्ढे को भर दिया। तब के बाद से उन्होंने कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा और अब तक वे 1,125 गढ्ढों को भर चुके हैं। दो या ढाई साल तक उन्होंने अकेले ही अपने खर्चे पर गढ्ढों को भरा, लेकिन अब कुछ नागरिक और सॉफ्टवेयर इंजीनीयर भी उनके साथ आ गए हैं और उन्होंने इच्छिक श्रमिक सहयोग को ‘श्रमदान’ का नाम दिया है । उन्होंने बताया कि जब वह रिटायरमेंट के बाद एक इंफोटेक कंपनी में काम करते थे तो वह अपने इस मिशन को समय नहीं दे पाते थे, तब उन्होंने यह फैसला किया कि वे ये नौकरी छोड़ देंगे और अपना पूरा समय अपने इस मिशन को देंगे ।

दसवीं पास किसान ने सिखाई इजराइल को पानी बचाने की तरकीब

मेहनत और अच्छी सोच से सिर्फ इंसान को ही नहीं बदला जा सकता बल्कि सूखे और बंजर इलाके को हरा भरा किया जा सकता है। तभी तो जो किसान सिर्फ 10वीं पास था वो आज सैकड़ों किसानों के लिए मिसाल बन गया है, जिस गांव में उस किसान ने जन्म लिया वो कभी चोरी और मारपीट के लिये बदनाम था, लेकिन आज वो दूसरे गांव के लिए आदर्श गांव बन गया है। राजस्थान के जयपुर जिले के लापोरिया गांव में रहने वाले लक्ष्मण सिंह की कोशिशों के कारण ही जयपुर और टोंक जिले के कई गांव में सालों से सूखा नहीं पड़ा और आज यहां के सैकड़ों किसान खेती के मामले में आत्मनिर्भर बन रहे हैं। ये लक्ष्मण सिंह की ही मेहनत है कि उनके काम को देखने के लिए देश से ही नहीं विदेश से भी लोग यहां आते हैं।


लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि “मैंने बचपन में देखा था कि राजस्थान में किसी साल भयंकर बाढ़ आती है और दूसरे ही साल सूखा पड़ जाता है। दोनों ही हालात में किसान की फसल बर्बाद हो जाती है। इस वजह से मेरे गांव के किसान दूसरे राज्यों में जाकर मजदूरी करते थे। साथ ही सूखे की वजह से मेरे गांव में अपराध भी बहुत बढ़ गये थे। एक बार मैं किसी काम से पास के गांव में गया था तो वहां के लोगों ने मुझसे कहा कि तुम उस गांव के हो जहां के लोग चोरी करते हैं और मारपीट करते हैं। ये सुनकर मुझे बुरा लगा और तभी मैंने फैसला लिया कि मैं अपने गांव पर लगे इस दाग को हटाऊंगा।” इस घटना के बाद लक्ष्मण सिंह इस समस्या का हल खोजने में लग गये और पढ़ाई छोड़ कर वे वापस गांव लौट आये। लक्ष्मण सिंह ने सबसे पहले पानी और मिट्टी के लिए काम करना शुरू किया और कोशिश करने लगे कि गांव में ही स्कूल खुले ताकि बच्चों को पढ़ने के लिए दूर न जाना पड़े।


लक्ष्मण सिंह बताते है कि साल 1977 में शुरू हुई उनकी ये मुहिम धीरे धीरे दूसरे गांवों तक भी पहुंचनी शुरू हुई और साल 1985 तक ये 58 गांवों तक फैल गयी। ये सभी 58 गांव राजस्थान के जयपुर और टोंक जिले के हैं। साल 1986 में उन्होने अपने संगठन ‘ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोरिया’ की नींव रखी। उस समय उनकी उम्र 25 साल की थी।


लक्ष्मण सिंह ने सबसे पहले अपने गांव में ‘चौका सिस्टम’ को पुनर्जीवित किया। चौका सिस्टम में बारिश के पानी को कई तरीके से रोक कर उसे धीरे-धीरे जमीन के अन्दर पहुंचाया जाता है। इसके लिए उन्होने 10-20 किसानों के साथ उनके खेतों पर तालाब बनायें, सड़कों के किनारे गड्ढे खोदकर पानी को रोका और कई जगहों पर बड़े तालाब, और दूसरे तरीकों से इस प्रकार पानी को रोका ताकि किसान उस रूके हुए पानी से अपने खेतों में लघु सिंचाई कर सकें। इसका नतीजा ये हुआ कि जिन जगहों पर पानी बहुत नीचे चला गया था। वहां पर पानी के स्तर ऊपर आ गया था। ऐसे में किसानों और मवेशियों के लिए साल भर पानी मिलना शुरू हो गया।


लक्ष्मण सिंह ने इसके लिए गांव के लोगों को इकट्ठा कर उनमें काम का बंटवारा किया। उन्होने पेपर में योजना बनाकर हर किसान को काम की जिम्मेदारी सौंपी। इसमें उन्होंने बाढ़ के पानी को रोकने के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण पर भी काम किया। इसके उन्होंने गोचरों में, सड़कों के किनारे, घरों में और ग्राम चोंकों में नीम, शीशम, आम और वट, पीपल, बबूल आदि के पेड़ लगाये। इससे गांव में हरियाली आई और खेतों में सिंचाई के कारण फसल भी अच्छी होने लगी। प्रकृति को बचाने की मुहिम में उन्होंने लोगों से कहा कि वे किसी भी जानवर को ना मारें यहां तक की चूहों को भी नहीं। उनका कहना था कि प्रकृति ने खुद ही सन्तुलन बनाया हुआ है। इसके लिए गांव के बाहर एक जगह बनाई गई, जहां पेड़-पौधे और घास लगाई गई जिससे यहां पर दूसरे जीव भी रहने लगे। लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि राजस्थान में भले ही सूखा पड़े लेकिन इन गांवों का पानी नहीं सूखता है। आज भी यहां हरियाली और पशुओं के लिए चारा दोनों ही हर मौसम में मिलते हैं।


आज लक्ष्मण सिंह के इस काम से प्रेरणा लेकर दूसरे गांव के लोग भी उनसे इस काम को सीखने के लिए आते हैं और वे खुद भी उन गांवों में इस काम को सीखाने के लिए जाते हैं। वे बताते हैं कि ये काम सिर्फ बैठकों के जरिये नहीं होता है इसमें जब हर तबके के आदमी की भागीदारी होगी तभी ये काम सफल होगा। लक्ष्मण सिंह ने अपने इस काम का विस्तार करने के लिए 40 संगठन बनायें इसमें उन्होंने गांव के हर व्यक्ति को काम की जिम्मेदारी सौपीं। हर साल दिवाली के 11वें दिन वो एक यात्रा का आयोजन करते हैं, ये यात्रा पिछले 28 सालों से लगातार चल रही है। इस यात्रा के जरिये लोगों को प्रकृति, पेड़ पौधों, मिट्टी, कुंए तालाब आदि की जरूरत के बारे में बताया जाता है और इनकी पूजा की जाती है। इस यात्रा के जरिये लोगों को संदेश दिया जाता है कि अगर वो प्रकृति की रक्षा करेंगे तभी प्रकृति भी उनको खुशहाली देगी।


आज लक्ष्मण सिंह के काम की चर्चा ना सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी खूब होती है तभी तो जिस ‘चौका सिस्टम’ को स्थानीय लोग भूल गये थे उसे लक्ष्मण सिंह ने ना सिर्फ पुनर्जीवित किया बल्कि आज इसे सीखने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं। लक्ष्मण सिंह बड़े फक्र से बताते हैं कि “बूंद बूंद बारिश के पानी को धरती के अंदर पहुंचाने का तरीके, यानी ‘चौका सिस्टम’ को मैंने ही इज़राइल को सीखाया है। इसको सीखाने के लिए मैं खुद इज़राइल गया था। इतना ही नहीं ‘चौका सिस्टम’ की सफलता को देखते हुए यूनीसेफ और राजस्थान सरकार ने मिलकर इस पर एक किताब भी लिखी है।“


अपने इस काम के लिए होने वाली फंडिग के बारे में लक्ष्मण सिंह का कहना है कि “मैंने शुरूआत में लोगों को श्रमदान के जरिये जोड़ा और इस काम को करने के लिए बाहर से कोई इंजीनियर नहीं बुलवाये यहां के लोगों ने खुद ही योजना बना कर काम किया। बाद में जैसे-जैसे हमारा काम बढ़ता गया वैसे-वैसे राजस्थान सरकार, यूनीसेफ, और कई फंड एंजेसियों के साथ सीआरएस ने हमें उर्वरकों के लिए मदद दी।“ लक्ष्मण सिंह का दावा है कि उन्होने कभी भी सौ प्रतिशत मदद नहीं ली। उन्होने 50 प्रतिशत मदद और 50 प्रतिशत श्रमदान से ही अपने इस संगठन को चलाया है। उनका मानना है कि जब तक कोई भी व्यक्ति इस मिट्टी को अपना नहीं समझेगा तब तक कोई कितनी भी योजनाएं क्यों न बना लें कोई भी अपने गांव, राज्य और देश का विकास नहीं कर सकता।