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Friday, 24 March 2017

राॅयल एनफील्ड बुलेट से खेत की जुताई

गुजरात के अमरेली में मोटा देवलियां गांव के 44 वर्षीय मन सुखजगानी के अनूठे बुलेट हल याट्रैक्टर के बारे में जानकर लोग दांतो तले उंगलियां दबाने को मजबूर हो जाते है। रॉयल एन फील्ड मोटर साइकिल में मनसुख भाई नेकुछ ऐसा किया कि यह आधुनिकहल में तब्दील हो गई। इस मशीन को वे बुलेट संती कहते हैं। इन्होंने यह नाम अपनी पत्नी के नाम पर रखा है।नेशनल इनोवेशन फाउंडेशनने 2000 में इनके आविष्कार को पुरस्कृत किया। बुलेट संती (संतीयानी हल) भारत ही नहीं विदेशों में भी कई जगह प्रदर्शित, प्रशंसित और पुरस्कृत हो चुका है। 2000 में पुणे में इंडियन साइंस कांग्रेस, दिल्ली में स्वदेशी विज्ञान मेला और दक्षिणअफ्रीका में लघु, मध्यम इंटर प्राइज विभाग और कॉमनवेल्थ साइंस काउंसिल, लंदन की संयुक्त प्रदर्शनीमें इसका प्रदर्शन किया गया।


किसानों के लिए यह उपकरण वरदान है। इस बहु उपयोगी उपकरण से जमीन की लेवलिंग, जुताई, बुआई आदि सारे कृषि संबंधी काम आसानी से कि एजा सकते हैं। मनसुख जगानी ने1994 में बुलेट संती का आविष्कार किया। भयंकर सूखे की वजह से उनका परिवार आर्थिक रूप से दिवा लिया हो चुका था। मजबूरी वश उन्हें अपने दोनों बैल बेचने पडे़। वैसे भी बैलों को पालना और उनके चारे की व्यवस्था करना उनके बस की बात नहीं रही थी। पानी की कमी और चारे की बढ़ती की मतों ने बैलों का पालन-पोषण काफी महंगा कर दिया था। ऐसे में थ्रीव्हीलर छक ड़ासे प्रेरणा लेते हुए उन्होंने अपने एक दोस्त की रॉयल एनफील्ड बुलेट ली और उसे एक हल के साथ जोड़ दिया।

तकनीक से लगाव :
वैसे मनसुख सिर्फ 5वीं कक्षा तक पढ़े हैं लेकिन तकनीक और मशीनी चीजों से उन्हें बेहद प्यार है।वे कहते हैं, ष्बुलेट संती की मदद से खर्च में कम से कम 40 फीसदी की कटौती की जा सकती है। बैलों को आपको साल भर चारा खिलाना पड़ता है, वे खेत जोतें या न जोतें, लेकिन बुलेट संती अपना चारा (ईंधन ) तभी मांगती है जब आप उसे इस्तेमाल करते हैं। आज ज्यादातरकिसानों के पास अपनी मोटर बाइक है। लगभग हर किसान अपनी बाइक को संती में तब्दील कराना चाहताहै। मनसुख के पास इतनी संख्या में लोग आने लगे हैं कि बीते 18-20सालों से ये गांव में अपनी वर्कशाप चला रहे हैं, जहां वे डीजल इंजनों एवं खेती के उपकरणों की मरम्मत करने के अलावा संती बनाने और बेचने का काम भी कर रहे हैं।

आविष्कार बना प्रेरणा :
उनका आविष्कार इस क्षेत्र मेंअनेकों के लिए प्रेरणा बन गया है।आज इस क्षेत्र में ऐसी कम से कम 500 वर्कशॉप खुल गई हैं जो बुलेट संती बनाती है। मनसुख बडे़ गर्व से बताते हैं कि वह अब तक ऐसी 500 बुलेट संती बना चुके हैं। संती की मदद से एक एकड़ जमीन मात्र दो लीटर डीजल से आधे घंटे के अंदरजोती जा सकती है। इतना फायदाआपको किसी दूसरे उपकरण से नहीं मिलेगा। आठ घंटे में बैल मात्र2.5 एकड जमीन पर जुताई, बुआई कर सकते हैं। जबकि इससे इतनीदेर में 15 एकड़ जमीन पर काम होसकता है।

नानी की खेती में मदद के लिए सवा लाख रूपए की मशीन को बना दिया 1200 रूपये में

व्यक्ति के पास रचना त्मकसोच हो तो असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के सिंगार भाट गांव की 71 वर्षीय निवासी अगास बाई में अब तक भी खेती करने की चाह है, लेकि नगरीबी के कारण वह मशरूम की खेती कर पाने में सक्षम नहीं थी। तब उनकी इस चाह को पूरा करने में धीरज (अगास बाई का नाती) ने इनका साथ दिया। धीरज ने बताया कि मशरूम की खेती के लिए 71साल की नानी को सवा लाख रुपएका उपकरण चाहिए था।

लेकिन घर की हालत खराब थी जिस कारण वह मशरूम का उत्पादन नहीं कर पातीथी।एनआईटी पास मैकेनिकल इंजीनियर धीरज साहू ने जब नानी(अगास बाई) की परेशानी देखी तोमहंगे उपकरण की सस्ती तकनीक वाला वर्जन बनाने की जिद्य ठानली। तब उनका यह जज़्बा काम आया। कुछ दिनों की कड़ी मेहनत से वैसा ही उपकरण ‘इना कुलेशन चैंबर’ मात्र 1200 रुपए में तैयार होगया। इसकी मदद से नानी नेम शरूम का उत्पादन शुरू किया।धीरज ने बताया कि अब नानी की आर्थिक स्थिति सुधरने लगी है। 

धीरज ने बताया कि उनके माता-पिता उसकी नानी के साथ कांकेर जिले के सिंगार भाट गांव मेंही रहते हैं। नानी ने मशरूम उगाने का प्रशिक्षण कृषि विज्ञान केंद्र से लिया। अगास बाई चाहती थीं कि वेम शरूम बीज उत्पादन से जुड़ें,लेकिन महंगी मशीन रोड़ा बन रही थी। जब नाती ने इना कुलेशन चैंबरबना दिया तो उनका यह सपना हकीकत बन गया। धीरज ने बताया की उनके द्वारा बनाई गई इस मशीन से नानी बहुत खुश हैं।धीरज ने बताया कि उनकी नानी के परिवार को किराए से 4500रूपए मिलते थे लेकिन उससे घरका गुज़ारा नहीं हो पाता था।मशरूम बीज उत्पादन में तीन हजार रुपए खर्च निकालने के बाद भी उन्हें दो महीनों में 17 हजार रुपए का शुद्ध मुनाफा हुआ है। अब तो धीरज के पिता घन श्याम साहू जी भी सिलाई का काम छोड़कर मशरूम बीज तैयार करने में जुट गए हैं। इस लिए यह कहना बिल्कुल उचित होगा‘‘गरीबी ने बना दिया वैज्ञानिक’’।धीरज ने 1.25 लाख रुपए की मशीनसिर्फ 1200 में बनाई है। 

धीरज के अनुसार बीज उत्पादन में लेमिन रफ्लो नामक उपकरण की जरूरत पड़ती है। यह बैक्टीरिया और फंगस खत्म करता है। पहले उन्हांने इस मशीन के काम करने के तरीके की जानकारी जुटाई। उन्होंने कांकेर के कृषि केंद्र में रखे इसी तरह के एक मॉडल का बहुत अच्छी तरह से अध्ययन किया। इसके बाद अपनी तकनीक इजाद की और बीज बनाने की नई मशीन तैयार हो गई। इस काम में उनकी कुशल सोच झलकती है। 

डॉ. एसके पाटिल, कुलपति,इंदिरा गांधी कृषि विवि, रायपुर नेकहा कि यह एक अच्छा आविष्कार है। विशेषज्ञों से छोटी-मोटी खामियां दूर करवा कर इस तकनीकको प्रोत्साहित करेंगे। इंडियन काउंसिल ऑफ एग्री कल्चरल रिसर्च(आईसीएआर) को भी सक्सेस स्टोरी भेजेंगे। उम्मीद है यह तकनीक किसानों के लिए मदद गार साबित होगी। यहां के कलेक्टर से मांग की गई है कि बच्चों के मध्यान्ह भोजन में एक दिन के मेन्यू में मशरूम को शामिल किया जाए। इससे मशरूम को बाजार मिल सकेगा। मशरूम अनुसंधान परियोजना के प्रमुख अन्वेषक डॉ. जी के अवधिया का भी  कहना है कि यह नई तकनीक काफी अच्छी है।

प्लास्टिक को तेल में बदलकर प्रियंका ने जगाई नई उम्मीद

अनगिनत बोतलें, बैग और प्लास्टिक के बने सामानों से दुनिया भर के कूडे़दान भरे रहते हैं। लेकिन अगर ऐसा हो कि इस कूडे़ दान कोर सायनिक तरीके से परिवर्तित कर दोबारा काम में आने वाली चीज़ें बनाई जा सके? यही लक्ष्य है पीकेक्लीन का। यह कंपनी प्लास्टिकजैसी पर्यावरण के लिए हानिकारक चीज़ से उर्जा हासिल करने के लिए स्वच्छ और उर्जा से भरपूर तेल मेंबदलने का काम करती है।इस कंपनी को साल 2009 मेंअपने उत्कृष्ट काम के लिए सम्मानित किया जा चुका है औरकंपनी को देश दुनिया में अलग-अलग मुकाम दिलाया है, इस कंपनी की सहसं स्थापक प्रियंका बकाया उद्यमी होने के साथ साथ वैज्ञानिक भी हैं। प्रियंका ने बताया किप्लास्टिक सबसे खतरनाक कचरा है, क्योंकि यह सदियों तक नष्ट नहीं होता।


इसके बाद भी हैरानी की बात यह है कि हम अरबों टन प्लास्टिक ज़मीन में दबाए जा रहे हैं। प्लास्टिक तेल से बनता है और इस वजह से उर्जा से भरपूर भी होता है। ऐसे आया प्लास्टिक से तेल बनाने का विचार प्रियंका जी ने बताया कि उनकेमन में प्लास्टिक से तेल बनाने का विचार तब आया जब वह मेल बर्न शहर में रहती थी। वह छोटी थी और पर्सी कीन नाम के उनके परिवार केएक दोस्त थे। जो कई तरह के शोध कर चुके थे। प्रियंका जी ने बताया कि श्री मान पर्सी कीन जी ने शादी नहीं की थी और उनके बच्चे नहीं थे और प्रियंका उन्हें अपने दादा जी केस मान मानती थी। वह बताती है कि उनका घर एक बड़ी प्रयोग शाला जैसा था।

उन्होंने बताया कि उन्होंने पर्सी को कई बार तेल से आग जला ते देखा था। पर्सी ने उन्हें बताया था कि यह तेल उन्होंने कचरे से बनाया है।बचपन में प्रियंका जी उनसे बहुत प्रभावित थी।95 साल की उम्र में पर्सी जी कासाल 2007 में निधन हो गया। उन्होंने कचरे से ईंधन बनाने का जो तरीकाखोजा था, उसकी न तो बडे़ पैमानेपर टेस्टिंग हुई और न ही उसका व्यवसायिक इस्तेमाल हुआ। लेकिन उन्होंने अपनी इस खोज के बारे मेंजो विस्तृत नोट्स बनाये थे, वे ही प्रियंका जी के काम आये। प्रियंका के मुताबिक जब पर्सी जी का निधन हुआ तब वह न्यू यॉर्क में एनर्जी एनालिस्ट के तौर पर काम कर रही थी। 

वह देखती थी कि कैसे कच्चे तेल की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं।साथ ही गैर पारंपरिक ऊर्जा देने वाली चीजें भी महंगी होती जा रही थीं। प्रियंका बकाया ने बताया कि जब उन्होंने ऐसा देखा तो उन्हंे पर्सीजी की याद आई। उन्होंने पर्यावरणको साफ रखने वाली कई ऊर्जा तकनीक की खोज की थी। जब उन्होंने इस और ध्यान दिया तो पाया कि प्लास्टिक से ईंधन बनाने का तरीका सबसे अच्छा है और इसे बड़े स्तर पर भी किया जा सकता है।इस तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए प्रियंका ने पीके क्लीन कंपनी बनाई। पीके यानी पर्सी की नके सम्मान में। वह उस दौरान मैसा च्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफटेक्नोलॉजी में ऊर्जा क्षेत्र में ग्रेजुएट विद्यार्थी के तौर पर पढ़ाई कर रहीथीं।

यह कंपनी फिल हाल यूटा की सॉल्ट लेक सिटी में स्थित है। पीके क्लीन ने साल 2010 में भारत में भी एक पायलट प्रोग्राम चलाया था। प्रियंका को उम्मीद है कि प्लास्टिकसे ईंधन बनाने का यह काम इस दशक के अंत तक उनकी कंपनी दुनिया भर में करने लगेगी। पीके क्लीन को अब तक कई सम्मान मिल चुके हैं। इनमें से एक है प्रतिष्ठित एमआईटी क्लीन एनर्जी सम्मान। यह सम्मान साल 2011 में गैर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत के लिए मिला था।प्रियंका ने बताया कि वह बिना टीम के सहयोग के पीके क्लीन को अंजाम तक नहीं पहुंचा पातीं। उनके पद चिह्नों पर चल रहे किसी भी व्यक्ति को वह रणनीतिक गठबंधन का परामर्श देती हैं।


वह कहती हैं कि एक नई तकनीक को बनाना और उसका व्यावसायी करण करना का फीलंबा और कठिन काम होता है। इस वजह से आपको ऐसे साथी चाहिए होते हैं, जो कड़ियों को जोड़ने में आपकी मदद कर सकें।पीके क्लीन में प्रियंका बका या प्रतिदिन रसायन, इंजीनियरिंग,कारोबार के क्षेत्र के अपने साथी विशेषज्ञों की मदद लेती हैं। उनके अनुसार यदि कोई ऐसी तकनी की को बनाना और इसका व्यावसायी करण करना चाहते हैं तो आपको ऐसे लोग चाहिये जिनके लक्ष्य और सपने आपके जैसे हों। ऐसी टीम बनाने के लिए समय लेकर ऐसे लोग साथ मेंलो जो इसे हकीकत में बदल सकें।रसायन विज्ञान का कमाल हमें प्लास्टिक को तेल में तब्दील करना आधुनिक जमाने कीजादूगरी लग सकती है।

लेकिन पीके क्लीन की पेटेंट की गई विधि की वैज्ञानिक प्रक्रिया के पीछे कोई जादू नहीं है। प्रियंका बताती हैं कि प्लास्टिक कार्बन के करोड़ों अणु ओंके पंक्तिबद्ध होने से बनता है। हमारी प्रक्रिया इन अणुओं की लंबी शृंखला को छोटा बना देती हैं, ठीक उस तेल की तरह से जिनसे यह प्लास्टिकबना है। जैसे कि उन्होंने बताया किउदाहरण के तौर पर डीजल 12 से20 कार्बन अणुओं की शृंखला से बनता है। हालांकि पीके क्लीन की प्रक्रिया के सटीक विवरण को गुप्त रखा गया है। उनका कहना है कि ऊष्मा और उत्प्रेरक - परिवर्तन के लिए अतिरिक्त रसायन- का मिश्रण इसमें मुख्य सामग्री है।

उनके अनुसार इस प्रक्रिया के अंत में आपको जो सामग्री मिलती है, उसमें 75 फीसदी स्वच्छ,प्रदूषण रहित तेल होता है। 20 फीसदी प्राकृतिक गैस होती है, जिसे हम ताप के लिए सिस्टम मेंरिसाइकिल कर देते हैं। पांच प्रतिशत सामग्री बच जाती है जो बोतलों परलगे लेबल जैसी चीजों की होती है। उच्च ऊर्जा का तेल बनाने के लिहा जसे यह बहुत ही ज्यादा प्राप्ति दर है।यदि आप इनके बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो आप इनकी वेबसाइट www.pkclean.com पर जाकर जान सकते हैं।

‘‘अब नहीं सड़ते प्याज, कमाते हैं लाभ’’ मध्यप्रदेश के रवि पटेल का शोध

किसान रवि पटेल मध्यप्रदेश के धार जिले के रहने वाले हैं। देशी तकनीक के ज़रिये रवि पटेल ने प्याज स्टोरेज का ऐसा कारगरजुगाड़ निकाला है कि हर साल प्याज बेचकर ठीक ठाक लाभ कमा रहे हैं। कोल्ड स्टोरेज की वजह सेरवि पटेल अपने प्याज खेत से निकालकर तुरंत नहीं बेचते। वह कुछ दिन अपने देशी जुगाड़ तकनीक के कोल्ड स्टोरेज में रखकर प्याज के अच्छे दाम मिलने का इंतज़ार करते हैं। 


प्याज को खेत से निकालते ही 2 से 3 रूपये किलो केभाव पर बेचने के बजाय बारिश का मौसम बीत जाने के बाद रवि पटेल 30 से 35 रूपये किलो में प्याज बेचकर लाभ कमा रहे हैं। अब तीसरे साल भी उन्होंने प्याज का इसी तरीके से स्टोरेज किया है।दर असल रवि पटेल जी ने प्याज के कोल्ड स्टोरेज तैयार करनेके लिए कोई भारी भर कम इंतज़ार नहीं किया है। थोड़ा सा दीमाग लगाकर उन्होंने उपयोगी बंदोबस्त किया है। ऐसे काम करती है रवि पटेल जी की टैक्नोलाॅजी:-

1. रवि जी बंद कमरे में लोहे की जाली को ज़मीन से 8 इंच ऊँचा बिछाते हैं। ऐसा करने के लिए कुछ कुछ दूरी परदो दो ईंटे रखते हैं। उसके ऊपर प्याज का स्टोरेज करते हैं।

2. लगभग 100 स्क्वेयर फीट की दूरीपर एक बिना पैंदे की कोठी रखते हैं। फिर ड्रम के ऊपरी हिस्से में एक्जाॅस्ट पंखे लगा देते हैं।
3. पंखे की हवा जाली के नीचले हिस्से से उठ कर ऊपर तक आती है। इससे पूरे प्याजों में ठंडक रहती है।

4. दोपहर में हवा गर्म होती है।इसलिए दिन की बजाय रात भरपंखे चलाते हैं।


5. पटेल जी ने इस तकनीक से1000 क्विंटल तक का भंडारणकिया है। 2000 क्विंटल प्याज जोखे तों में है उनका भी वह इसी तरह से भंडारण करने वाले है। उन्होंने बताया कि पिछले साल उन्होंने बारिश के बाद 200 क्विंटल प्याज35 रूपये किलो के भाव बेचे थे।
6. पटेल जी ने बताया कि इस तकनीक से 80 प्रतिशत तक सड़न नियंत्रित होती है। पहले जहां 10प्याज खराब होते थे, तो अब 2 प्याज खराब होते हैं।

7. वजह यह है कि किसी प्याज में सड़न लगती थी, तो आसपास के प्याज भी खराब हो जाते थे। लेकिन अब कोई प्याज सड़ता है तो पंखे की सड़न से वहीं सूख जाता है।पटेल जी कहते हैं कि प्याज की फसल अमूमन मार्च-अप्रैल मेंनिकलती है। इस समय आवक अधिक होने से प्याज की मंडी का भाव 2 से 3 रूपये किलो तक पहुँच जाता है। बारिश के बाद यही भाव30 से 35 रूपये प्रति किलो न्यूनतम होता है, लेकिन प्याज गर्मी से जल्दी खराब होने के कारण इसका स्टोरेज किसान के लिए चुनौती भरा होता है।पटेल जी ने बताया किकिसान जहां भंडारण करते है, वहांपंखे-कूलर की व्यवस्था करते हैंलेकिन ढेर में प्याज एक दूसरे की गर्मी से ही खराब हो जाते हैं इसलिए उन्होंने ऐसी तकनीक लगाई है किहर प्याज को ज़मीन से ठंडक मिलसके। कोई प्याज खराब भी हो तोढेर में मौजूद आस पास के प्याजखराब नहीं हों।

मोहम्मद रोज़ादीन ने किया काॅफी बनाने वाले प्रेशर कुकर का आविष्कार

बिहार के पूर्वी चम्पारण के मोहम्मद रोज़ादीन अपने प्रेशर कूकर और उसकी सीटी से जुड़ी हुई नली से निकलने वाले तेज़ भाप को जग में प्रवाहित कर झाग वाली काॅफी तैयार करते हैं और उस काॅफी को अपने ग्राहकों को पेश कर वह पैसा कमा रहे हैं। परंपरागत रूप से प्रेशर कूकर केवल भोजन बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।


हालांकि 46 वर्षीय रोज़ादीन ने एक साधारण प्रेशर कूकर को एक एसप्रेसो काॅफी मशीनमें तब्दील कर दिया है। अब यह मोडिफाइड कूकर का प्रयोग केवल पानी उबालने और भाप उत्पन्न करने के लिए ही किया जाता है। कूकर में लगाई गई काॅपर की पाइप में एक रेगुलेटर लगाया गया हैजिससे उच्च दाब से भाप उत्पन्न होती है और जल्दी ही स्वादिष्ट काॅफी तैयार हो जातीहै।

मोहम्मद रोज़ादीन अल्यास जी का जन्म सन् 1963 में मोतीहारी के चम्पारण मेंहुआ। चम्पारण का भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि महात्मा गांधीजी ने यहां सन् 1917 में सत्यग्रह का आंदोलन शुरू किया था। रोज़ादीन जी नेबताया कि वह जब भी किसी विवाह समारोह में जाते थे तो उनका सारा ध्यान काॅफीस्टाल पर ही होता था।उनका कहना है कि आमतौर पर लोग काॅफी की जगहचाय पीते हैं, जिसका एक कारण यह भी है कि सड़क किनारे वाली चाय के ठेलों पर काॅफी तैयार करने वाली मशीन उपलब्ध नहीं होती क्योंकि काॅफी बनाने वाली मशीन बहुत महंगी होती है और उसका इस्तेमाल करने के लिए बिजली की आवश्यकता भी होती है। 


जो सड़क किनारे चाय वाले ठेलों के पास उपलब्ध नहीं होती। तब उन्हें यह विचार आया कि यदि वह सस्ते दामोंपर काॅफी बनाने वाली मशीन विकसित कर लें तो यह चाय केठेले लगाने वालों की आय को बढ़ाने में सहायक होगी। उन्हेंयह विचार सन् 1993 में आया और तब उन्होंने अपनी इस काॅफी बनाने वाली मशीन के लिए निवेश करने का सोचा।उन्होंने कुछ समय काॅफी बनानेकी प्रतिक्रिया को समझने मेंलगाया ताकि उनकी मशीन मेंकम से कम त्रुटि हो सके। रोज़ादीन जी की आय उस समय इतनी नहीं थी कि वह कुछ रूपये अपने नवप्रवर्तन केलिए भी निवेश कर सकें। लेकिन फिर भी वह आगे बढ़े और अपने एक दोस्त से तकरीबन 2000 रूपये उधारलिये और बाद में धीरे धीरे करके उसके पैसे लौटा दिये। फिरकहीं जाकर उन्होंने एक पुरानेकुकर और काॅपर की ट्यूब केप्रयोग से एक प्रोटोटाइप तैयारकिया।रोज़ादीन ने इस काॅफीबनाने वाली मशीन के लिए काॅपर की पाइप को कूकर केढक्कन से जोड़ दिया, जिससे काॅपर में बनी भाप एक त्रितहोकर काॅपर की पाइप केज़रिये काॅफी वाले जग में चली जाती है और झाग वाली काॅफी बनकर तैयार हो जाती है।

उन्होंने बताया कि कूकर मेंउन्होंने काॅपर की पाइप वेल्डिंग करवा कर फीट करवाई थी। काॅफी कूकर तैयार करने केलिए उसकी कीमत कूकर के आकार पर आधारित होती है। एक नया 10 लीटर वाले कूकर को काॅफी कूकर में तब्दील करने की लागत 2000 रूपये आती है जबकि एक पुराने कूकर को तैयार करने में केवल750 रूपये की लागत ही आतीहै। उन्होंने बताया कि यदि कोई अपना कूकर लेकर आते हैं तो वह उसे 250 रूपये में तब्दील कर देते हैं। उनका कहना है कि किसी भी प्रकारके कूकर को काॅफी मेकर में बदला जा सकता है। उन्होंनेयह भी बताया कि एन आईएफ ने उनके नाम से काॅफीकूकर को पेटेंट करवाया है। 

रोज़ादीन जी अब तक 1500 से भी ज्यादा काॅफी कूकर मोतीहारी और अन्यस्थल जैसे ढाका, वाघा बाॅर्डर,रक्सौल, समस्तीपुर जैसी कई जगहों पर बेच चुके हंै। वह अपने इस नवप्रर्वतन को आगे बढ़ाने की सोच रहे हैं।उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में वह यह काॅफी कूकर मांग पर ही बनाते हैं लेकिनआगे वह ऐसे कुछ काॅफी कूकर पहले से ही बनाकर रखना चाहते हैं ताकि दूर से आने वाला ग्राहक भी इसे खरीद सके। इसके लिए वह अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने में जुटे हुए हैं। उन्होंनेअपने इस काॅफी कूकर का नाम ‘‘जेपी उस्ताद काॅफी कूकर" रखा है |

महज़ एक रूपये में वडोदरा के लोगों को किराये पर मिल रहे हैं आरथोपैडिक उपकरण

फाल्गुनी दोशी गुजरात के वडोदरा में रहती हैं। इन्होंने टेक्सटाइल डिज़ाइनिंग में होमसांइस की है। मुंबई की रहने वाली फाल्गुनी जी का विवाह 27 वर्ष की उम्र में एक व्यवसायिक परिवार मेंहुआ। फाल्गुनी जी के मन में हमेशा से ही समाज के लिए कुछ करने की इच्छा तो थी पर शादी के बाद उन्हें अपनी इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में इतना समय नहीं मिल पाता था कि वह अपनी इस इच्छा को पूरा कर सकें। उनका समाज के लिए कुछ करने का सपना तब ही पूरा हुआ जब उनके बच्चे बड़े हुए और उन्हें अपने लिए कुछ समय मिल सका।


उनके मन में समाज को लेकर कुछ करने के हौसले ने उन्हें आज ऐसे मुकाम पर पहुँचाया है जहां उन्होंने अपने सपने को न सिर्फ पूरा किया बल्कि समाज के लिए खुशी का कारण भी बनीं।उनकी यह कुछ करने की कहानी तब शुरू हुई जब आज से 16 वर्ष पहले वह एक बार अपनी सहेली के घर वडोदरा में गई। अपनी सहेली से कुछ देर बात करने के बाद फाल्गुनी जी ने कमरे के एक कोने में व्हीलचेयर, वाकर और कुछ छड़ी पड़ी हुई देखी। उन पर धूलकी बहुत मोटी परत चढ़ी हुई थी। उन पर चढ़ी हुई धूल से यह पता लग रहा था कि यह सब वस्तुएं उनकी स्वर्गीय दादी द्वारा इस्तेमाल की जाती थी लेकिन उनके गुज़र जाने के बाद ये सब वस्तुएं ऐसी ही पड़ी हुई हैं। 

फाल्गुनी जी ने बताया कि उनकी सहेली को यह नहीं पता था कि अब इन सब वस्तुओं का क्या किया जाये। तब फाल्गुनी जी ने उन्हें सुझाव दिया कि क्यों न इन वस्तुओं को किसी ज़रूरतमंद को दे दिया जाये। तब फाल्गुनी जी और उनकी सहेली ने अपनी जान पहचान वालों को बताया कि यदि किसी ज़रूरतमंद को व्हीलचेयर जैसे आॅरथोपैडिक उपकरणों की ज़रूरत हो तो वह यहां से ले सकता है।पहले तो उन्होंने यह उपकरण फ्री में देना शुरू किया। लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने यह महसूस किया कि उनके पास उपकरण कम हैं और ज़रूरतमंद ज्यादा हैं तब उन्होंने कुछ और ऐसे उपकरण खरीदने का फैसला किया। जिससे लोगों को मदद मिल सके। 

परंतु कुछ ही महीनों बाद उन्होंने यह महसूस किया कि लोगों को फ्री में मिलने वाली चीज़ों का वह ठीक से इस्तेमाल नहीं करते और किराये पर दी गई चीज़ें जब वापस आती तो वह अच्छी स्थिति में नहीं होती थी। तब उन्होंने यह तय किया कि किराये पर फ्री में उपकरण दिये जाने से अच्छा है कि हम उन लोगों से किराये के रूप में कुछ रूपये लें जिससे वह भी किराये पर लिये गये उपकरणों को संभाल कर इस्तेमाल करेंगे और उनके द्वारा दिये गए किराये के भुगतान से हम भी उपकरणों में हुई टूट फूट तथा नए उपकरणों को खरीदने में लगा पायेंगे। तब फाल्गुनी और उनकी सहेली ने लोगों से उपकरणों को किराये पर देने के बदले 1 रूपया एक दिन का लेना शुरू कर दिया। 


फिर उन्होंने अपने इस काम का स्तर बढ़ाने के लिए आॅरथोपैडिक अस्पताल के बाहर अपनी इस सेवा के विज्ञापन को लगवाया ताकि लोग उनके काम के बारे में लोगों को पता चल सके। उन्होंने बताया कि उनकी सहेली की कुछ निजी समस्याएं होने के कारण वह आगे यह सेवा जारी रखने में असमर्थ थी। तब फाल्गुनी जी ने अकेले ही इस सेवा को जारी रखने का फैसला किया और सारे उपकरण अपनी सहेली के घर से अपने बंगले में रखवा लिये।फाल्गुनी जी ने बताया कि आज उनके पास दर्जनों ऐसे उपकरण हैं जैसे टाॅयलेट चेयर से लेकर छड़ी, वाॅकर, व्हीलचेयर आदि। 

यह सब उपकरण 100 से ज्यादा संख्या में उनके पास उपलब्ध हैं जिन्हें वह नियमित रूपसे जरूरतमंद लोगों को इस्तेमाल करने के लिए देती हैं। फाल्गुनी जी ने बताया कि इस काम से उन्हें बहुत संतुष्टि मिलती है। फाल्गुनी जी ने बताया कि एक बार जब उनके भाई ने उनकी बीमार मां के लिए किराये पर अस्पताल में बेड लिया। तब तकरीबन साल से डेढ़ साल तक उस बेड को इस्तेमाल किया और उसके बाद वे गुज़र गई।

उनका भाई उनकी इस सेवा से बहुत खुश हुआ और फाल्गुनी को दान के रूप में 25,000 रूपये दिये जिससे वह ये उपकरण खरीदने में निवेश कर सकती हैं। यह काम वह किसीलाभ के लिए नहीं करती बल्कि यह उनके अनुसार यह केवल लोगों के फायदे के लिए है। उन्होंने बतायाकि इन उपकरणों का औसतन जीवनकाल 2 वर्ष है और उसके बाद वह नए उपकरणों का निवेश करती रहती हैं |

रेलवे स्टेशनों में चार चांद लगा रहा है एक इलैक्ट्राॅनिक इंजीनियंर

पेशे से इलेक्ट्राॅनिक इंजीनियर ने मुंबई के एक रेलवे स्टेशन को गोद लिया। जिसके बाद उन्होंने उसका ऐसा कायाकल्प किया कि आज रेलवे ने दूसरे कई स्टेशनों को चमकाने की जिम्मेदारी उन्हें दे दी है। ‘डाई हाई इंडियन’संगठन के संस्थापक गौरांग दमानी कभी अमेरिका में नौकरी करते थे लेकिन अपनी मिट्टी की खुशबू औरदेश के लिए कुछ करने का जज़्बा उनको वतन वापस खींच लाया।आज उनके पास 1400 से ज्यादा वालंटियर की टीम है जो मुंबई केअलग-अलग रेलवे स्टेशन को सजाने में जुटे हैं।


गौरांग दमानी ने साल 1993 में मुंबई यूनिवर्सिटी से बीई की पढ़ाईपूरी की इसके बाद वो एक प्रोग्रामर के रूप में काम करने के लिए अमेरिका चले गये। उन्होंने देखा कि वहां के लोगों को अपनी सभ्यता और संस्कृति पर बहुत गर्व है। इसीकारण आज उनका विश्व में प्रथमस्थान है। गौरांग का मानना था किभारतीय लोग चाहे भारत में रहें या विदेश में अपने देश को लेकर उनकीसोच नकारात्मक ही रहती है। 

जबकि वो मानते थे कि यदि हम भारतीय चाहे तो कई चीजों में विश्वमें प्रथम स्थान बना सकते हैं। इसी सोच के साथ उन्हांेने साल 2000 में‘डाई हाई इंडियन डॉट कॉम’ की स्थापना की। इसमें वो भारतीयों की सफलता की कहानियों को जगह देते थे। लेकिन इस वेबसाइट को चलाते हुए उन्होंने सोचा किअमेरिका मे रहकर वो अपने देश केलिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे इसलिए 8 साल वहां गुजारने के बादवो मुंबई लौट आए।यहां आकर उन्हांेने अपनी वेबसाइट के काम को जारी रखा। इस दौरान उन्हांेने देखा कि सरकारी विभागों में काम कराने के लिए लोगों को बहुत चक्कर लगाने पड़ते हैं। वो चाहे बीएमसी हो या पुलिस विभाग हर जगह काम कराने के लिए लोगों को पैसा देना पड़ता था। 

तब गौरांग ने सोचा कि अगर किसी काम को कराने के लिए लोगों के पास पूरी जानकारी और पेपर होंगे तोभ्रष्टाचार अपने आप कम होजायेगा। इसके लिए उन्होने खुद ही जानकारियां जुटाई और उनको अपनी वेबसाइट में डाला। ताकि लोगों को पता चल सके कि किसकाम को करवाने के लिए क्या क्या पेपर चाहिए। गौरांग मुबंई के किंग्ससर्कल रेलवे स्टेशन के पास रहते हैं। इसलिए उनका इस स्टेशन मेंबहुत आना जाना रहता था। वहां की गंदगी को देखकर उन्होंने कई बारबीएमसी और सीएसटी में इसकीलिखित शिकायत की। 

इससे परेशान होकर सीएसटी के एक ऑफिसर ने अगस्त 2014 में उन्हें बुलाकर कहा कि आपको अगरसफाई की इतनी चिन्ता है तो आप खुद क्यों नहीं सफाई कर देते। इसपर गौरांग ने कहा कि अगर रेलवे इसकी इजाजत दे तो वो इसे साफ कर देगें। जिसके बाद उसी साल दिसम्बर में रेलवे ने उनको स्टेशन की सफाई की इजाजत दे दी।गौरांग ने स्टेशन को साफ करने के लिए सबसे पहले युवाओं को वालंटियर के तौर पर अपने साथ जोड़ा। इसके बाद उन्हांेने इनकेअलग अलग समूह बनाकर उनकोअलग अलग काम दिये। 

वालंटियर के तौर पर इन्होंने सिर्फ युवाओं को ही नहीं जोड़ा बल्कि अपनी सोसायटी के लोगों की भी मदद ली।इसके बाद गौरांग और उनकी टीम ने पूरे स्टेशन को साफ कर दिया। इस दौरान इन्हांेने देखा कि स्टेशन पर कूड़ेदान नहीं होने के कारण लोग कचरा इधर उधर फेंक देते थे।इतना ही नहीं स्टेशन में जरूरत के मुताबिक लाइट की भी व्यवस्था नहीं थी। इस वजह से चोरी के अलावा वहां पर मर्डर भी होते थे। इसके लिए उन्होंने स्टेशन में कूड़ेदान की व्यवस्था की और बीएमसी, रेलवे और दूसरी संस्थाओं की मदद से 30 स्ट्रीट लाइट लगवाई। इससे जहांएक ओर स्टेशन और उसकेआसपास अपराध कम हुए वहींदूसरी ओर वो इलाका भी काफी हद तक साफ रहने लगा। स्टेशन की दीवारों को लोगपेशाब और थूक कर गंदा कर देतेथे। तब गौरांग ने ना सिर्फ उसदीवार को साफ करवाया बल्कि स्कूली बच्चों की मदद से वहां परसुन्दर चित्रकारी करवाई जिससे किलोग वहां पर न थूकें। 

इस तरह एक महीने में ही गौरांग और उनकी टीम ने किंग्स सर्कल रेलवे स्टेशन कोएकदम साफ सुथरा कर दिया। स्टेशन के सौन्द्रर्यकरण के लिए उन्होंने वहां पर फूलों के गमले और खाली जगह पर पौधे लगाये औरउनकी देखभाल के लिए एक आदमी को भी रखा ताकि वो उन पौधों को नियमित तौर पर पानी दे सके। इसके अलावा उन्होंने एक सफाई कर्मचारी को भी रखा। यह काम उन्होंने 700 वालंटियर के साथ मिलकर किया।किंग्स सर्कल रेलवे स्टेशन की साफ सफाई देख रेलवे ने उनको दूसरे स्टेशनों पर भी इसी तरह के काम करने की अनुमति दे दी।जिसके बाद उन्होंने सायन के रेलवेस्टेशन को साफ करने का बीड़ा उठाया। 

इस स्टेशन को साफ करने के लिए भी उन्होने किंग्स सर्कल रेलवे स्टेशन के तरीके को ही अपनाया। गौरांग का कहना है कि सायन रेलवे स्टेशन की सफाई उनके लिए ज्यादा चुनौतीपूर्ण थी,क्योंकि सायन स्टेशन एशिया केसबसे बड़े स्लम धारावी के पास स्थित है। यहां पर उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी स्टेशन की दीवार, जिसे लोगों ने काफी गंदा किया हुआ था। इसके लिए गौरांग और उनकी टीम ने स्कूली बच्चों की मदद ली। इन बच्चों की मदद सेस्टेशन और उसके आसपास जागरूकता और हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। साथ ही रेलवे पुलिस से अनुरोध किया कि जो लोग दीवारों को गंदा करेंगे उन पर जुर्माना लगाया जायेगा। इस दौरान स्कूली बच्चों ने 6 हजार से ज्यादालोगों से हस्ताक्षर कराये। बावजूद इसके गौरांग का मानना है किउनको इस काम में उतनी सफलता नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिएथी, अभी भी वो इस स्टेशन को चमकाने के काम में जुटे हुए हैं।सायन रेलवे स्टेशन की सुंदरता को बनाये रखने के लिए गौरांग और उनकी टीम को कॉलेज के छात्रों और दूसरी संस्थाओं की काफी मदद मिल रही है। साथ ही इनके इस काम को देखते हुए कॉरपोरेट जगतभी इनकी मदद करने के लिये आगे आया है। सायन में टाइटन,टीसीएस और महिंद्रा लाइफस्पेसेस के कर्मचारियों ने वालंटियर के तौरपर यहां की साफ सफाई में हिस्सा लिया। 

वहीं महिंद्रा लाइफस्पेसेस नेतो इनको सफाई के इस काम के लिए फंडिग भी दी है। इसके अलावा कुछ और लोग भी हैं जो इनकी आर्थिक और दूसरे तरीके से मदद करते हैं।गौरांग इस साल फरवरी से माहिम रेलवे स्टेशन में भी सफाई अभियान चला रहे हैं, इसके अलावाउन्हांेने रे रोड में भी सफाई का काम शुरू किया है। रे रोड पर उन्हांेने ज्यादातर पिलरों को अलग अलग पेंटिग से सजाया है। जो कि अलग भारतीय कलाओं पर आधारित है।

अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में गौरांग का कहना है फिलहाल उनका काम रे रोड और माहिम रेलवे स्टेशन पर चल रहा है और किसी भी स्टेशन को साफ करने के लिए उनको कम से कम 6 महीने का समय लगता है। इसके बाद ही वोआगे किसी और स्टेशन की सफाई के बारे में सोचेंगे।

आई आई टी खड़गपुर के आयुष और शुभमय ने बनाई अनूठी स्मार्ट साईकिल - आई बाइक

जो लोग विकलांग होने के कारण स्टीयरिंग या पेडल नहीं चला सकते, उनके लिए साइकिल स्टेशन बनाने और वाातावरण के मसलों को सुलझाने के लिए आई आई टीखड्गपुर के छात्रों ने बिना ड्राइवर की बाइक बनाई है। आई आई टीखड्गपुर के मैकेनिकल इंजीनियरिंग में चैथे वर्ष के छात्र आयुष ने बताया कि उन्होंने कुछ भिन्न क्षमता वाले लोगों को देखा जो साइकिल तो चला सकते थे पर उन्हें पार्किंग स्पेस से अपनी बाइक निकालने में काफी दिक्कत आती थी,  क्योंकि ऐसी पार्किंग उनके मुताबिक नहीं बनी होती।  इस समस्या को सुलझाने के लिए हमने एक बाइक बनाई जो वायरलेस पद्धति से नियंत्रित होती है। इस बाइक को इसकी दोहरी गति तकनीक के कारण अपनी मर्ज़ीके हिसाब से भी चलाया जा सकता है इसमें आई बाइक के लिए निर्मित एक एंड्रायड एप्प है। यह साइकिल जी पीएस का इस्तेमाल करती है और उसके हिसाब से एसएम्एस में आये दिशा निर्देश के हिसाब से चलती है। रास्ते में आने वाली रूकावटों के समाधान हेतु इस बाइक में लेजर और सोनर तकनीक उपलब्ध है।

इसकी साफ्टवेयर बनावट सस्ती और अनूठी है, जिससे ये साइकिल के लिए बने सस्तों को चिन्हित करके उन पर चल सकती है और सभी रूकावटों को बिना किसी मुश्किल के पार कर सकती है। ऐसे रास्ते उन देशों में उपलब्ध  हैं,  जहाँ साइकिल सेंटर हैं, यह साइकिल वायरलेस मोबाइल नेटवर्क के सम्पर्क में रहती है, जिसके कारण इसका वायरलेस कंट्रोल उपलब्ध है और इसे लाइव ट्रैक भी किया जा सकता है।जैसे अगर किसी ऐसे व्यक्ति को ये बाइक इस्तेमाल करनी है जिसके हाथ कटे हुए हैं तो उसे बस इतना करना होगा कि उसे एंड्रायड एप्प जिसमें एक विकल्प है -‘‘ काॅल द बाइक टू माई लोकेशन’’ सेइस बाइक को एक एसएम्एस भेजना होगा। जीपीएस लोकेशन एक ऐसेसर्वर पर सुरक्षित होगी जिसके सेंसरबाइक पर लगे होंगे।

लोकेशन मिलते ही ये बाइक अपने आप गंतव्य स्थान की ओर चल पढे़गी। आयुष और शुभमय नामक छात्रों ने बताया कि इस प्रोजैक्ट पर एक साल तक काम करने के बाद इस बाइक में पार्किंग के अलावा भी कई सुविधाएं दी जा सकती है,  जो विकलांगों के लिये सहायक होगी। आयुष ने बताया कि उन्हें लगा कि यह उन साइकिल स्टेशनों में  भी उपयोगी होगी जो कि दुनिया भर के कई विकसित शहरों में चलते हैं और जिनके लिए भारत में योजना बनाई जा रही है।


इस तरह की व्यवस्था में आप एक स्टेशन से एक साइकिल लेते हैं, उसे चलाते हैं और फिर दूसरे स्टेशन पर छोड़ देते हैं। हर बार साइकिल को छोड़ने के लिए सरकार को काफी पैसे खर्च करने होंगें। लेकिन अगर साइकिल आॅटोमेटिक है,  तो घर पहुँचने के बाद उपयोग कर्ता द्वारा इसे स्टेशन केलिए वापस भेजा जा सकता है। इस तरह से बाइक को पूरी तरह से साझाप्रणाली में बदल सकते हैं।आई बाइक पर शोध कर रहीटीम में आई आई टी खड़गपुर के विभिन्न विभगों के 13 स्नातक छात्र शामिल हैं। आयुष और शुभमय नेअक्टूबर 2014 में इस परियोजना को शुरू किया था तब से इसने विभिन्न छात्र प्रतियोगिताओं में कई पुरस्कार जीते हैं।

के पीआईटी टेक्नोलाॅजीज़ द्वारा आयोजित संपन्न राष्ट्रव्यापीन वाचार चुनौती में, आई बाइक को प्रथम पुरस्कार मिला और 5 लाख की पुरस्कार राशि के साथ सम्मानित किया गया। प्रतियोगिता का विषयथा ‘‘उर्जा और परिवहन के लिए स्मार्ट समाधान’’ और आई बाइक ने 1700 अन्य विचारों के बीच में ये पुरस्कार जीता। टीम वर्तमान में उत्पाद डिजाइन के लिए एक पेटेंटहासिल करने में लगी है।

आयुष का कहना है कि इसमें सबसे अच्छी  बात यह है कि यह केवल बाहरी संशोधनों के साथ एक सामान्य साइकिल है। सभी संशोधन प्रतिवर्ती  हैं और यह केवल एक स्विच द्वारा एक सामान्य बाइक के रूप में कार्य कर सकती है। इसलिए कोई भी काॅल करने के बाद इसका इस्तेमाल अपनी ज़रूरत के हिसाब से कर सकता है। ऐसा कोई भी डिज़ाइन दुनिया में अब तक मौजूद नहीं है।

इस बाइक का स्टीयरिंग एक अलग तरीके के गियर से चलता है जिसमें एक लैक के द्वारा मानव चलित और आॅटोमैटिक मोड दोनों उपलब्ध हैं। संतुलन बनाये रखने के लिए इसमें विशेष प्रकार के टेनर पहिये लगे हैं, जिन्हें स्विच की सहायता से समेटा भी जा सकता है। आई बाइक के साथ ये टीम कईशहरों की आखरी पड़ाव तक यातायात साधन की समस्या भी सुलझा देगी। यह साइकिल मुख्य रूप से विकलांगों के लिए है।
यह उन लोगों के लिए भी उपयोगी है जो लोकल मैट्रो,  ट्रेन और बसों से उतरने के बाद यातायात के सस्ते साधन ढूँढ़ने के लिए संघर्ष करते हैं। यह टीम पेटेंट हासिल करने के बाद कंपनियों के साथ मिलकर पूरे देश में इस साइकिल का केन्द्र स्थापित करना चाहती है।

किसान राजा मोटर कंट्रोलर किसानों के लिए एक अद्भुत आविष्कार

मोबाइल प्रौद्योगिकी संचार, बैंकिंग, डिजिटल मनोरंजन और प्रकाशन ने विविध क्षेत्रों में क्रांति लादी है। विनफीनेट टेक्नोलॉजीज कंपनी ने एक जीएसएम सक्षम डिवाइस विकसित की है जो किसान को दूर से उनके मोबाइल या फिक्स्डलाइन फोन कनेक्शन के साथ अपने सिंचाई पंप पर नियंत्रण करने की अनुमति देता है। किसान राजा, नामक दूर स्थ मोटर स्टार्टर को किसी भी मोटर पंप के साथ लगाया जा सकता है और स्थानीय भाषाओं में आईवीआरएस के माध्यम से सक्रिय किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यह बिजली की विफलता, विघटनकारी पानी की आपूर्ति,  चोरीया खराबी के मामले में किसान को एसएमएस अलर्ट भेजता है।विजय भास्कर एक किसानका बेटा है,  इसलिए उनको एक भारतीय किसान के हर दिन सामने आने वाली चुनौतियों को समझने में ज्यादा समय नहीं लगा। 


उनका कहना है कि सिंचाई का आसान काम भी जोखिम से भरा है। गाँव में आमतौर पर रात में बिजली की आपूर्ति की जाती है और खेतों की दूरी भी सामान्यतः  अधिक होती हैं । चोट काडर,  सांप के काटने का डर और जानवरों के हमले के जोखिम में भी किसानों को रात के समय मोटर चालू करने जाना पड़ता है। ऐसे में अस्थिर बिजली की सप्लाई और पानी की कमी मोटर को खराब करने में सबसे ज्यादा जिम्मेदार होती है। विजय भास्कर जी ने बताया कि इंटेल और सिस्को के लिए उत्पाद डेवलपर के रूप में काम करने के बाद उन्हें विशाल और सस्ती कृषि प्रोद्योगिकी की जरूरत का पूरी तरह से अनुमान हो गया था।

विनफीनेट टेक्नोलॉजीज मूलरूप से ग्रामीण युवाओं को नरमकौशल और प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण देने के लिए आईआईटी मद्रास के पूर्व छात्रों के एक समूह द्वारा स्थापित किया गया था। अगस्त 2010, में इसके बोर्ड पर आने के बाद, विजय जी ने कृषि क्षेत्र के लिए स्मार्ट तकनीकी समाधान खोजने के लिए कंपनी का ध्यान केन्द्रित किया ।उनका कहना है कि जल और बिजली आज के दो सबसे दुर्लभ संसाधनों में से हैं। लगभग भारत में उत्पादित बिजली का एक तिहाई कृषि क्षेत्र के लिए है,  और देश में सिंचाई के लिए ताजा पानी का प्रयोग 50 प्रतिशत तक होता है। ऐसे में हमारे सिंचाई पंप केवल 20-30 फीसदी क्षमता पर चलते हैं और बाकी पानी बर्बाद होता है।


तब विजय भास्कर और उनकी टीम ने दो साल पहले किसान राजा का एक प्रोटोटाइप विकसित किया और एक पायलट अध्ययन का शुभारंभ किया। बाजार में उपलब्ध अन्य आत्म स्टार्टर या टाइमर कि टभी हैं, परन्तु  5,000 रूपये (सिम औरएक रिचार्जेबल बैटरी सहित)  की कीमत वाले किसान राजा की खास बात यह है कि इसका मुख्य उद्देशय किसान को समय समय पर जानकारी देते रहना है। उनका कहना है कि इस तरह के उप करणों के लिए संभावित बाजार भी काफी बड़ा है। भारत में लगभग 35 लाख कृषि पंप उपयोग हो रहे हैं। उन्होंने बताया कि अगर 20 प्रतिशत किसान भी किसान राजा या मिलते जुलते किट का उपयोग करते हैं तो ये आंकड़ा, सात लाख यूनिट के बराबर है। विनफीनेट कंपनी में लगभग 450 डीलरों का एक रोस्टर बनाया गया है, एक समर्पित बिक्री टीम के साथ वित्त वर्ष 2017 में 1,000 करोड़ रुपये की एक महत्वाकांक्षी राजस्व का लक्ष्य रखा गया है। महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में किसान राजा के साकारात्मक लॉन्च ने भी बिक्री को प्रोत्साहित किया गया है। उनका कहना है कि उन्हें हर राज्य में कम से कम 100 डीलरों की आवश्यकता है। इस वित्त वर्ष के अंततक वह 12,000-15,000 इकाइयों के बीच बेचने के का लक्ष्य कर रहे हैं और अगले साल ट्रिपल संख्या करने का लक्ष्य है।

विजय भास्कर जी ने बताया कि कंपनी धन जुटाने के लिए निवेशकों,  बैंकों और क्रेडिट कंपनियों के साथ बात चल रही है। वह एकवितरण और बिक्री के बाद सेवानेटवर्क बनाने के लिए प्रति राज्य में 1.5 करोड़ के आसपास की जरूरत है। अब तक उन्होंने अपने उत्पाद का विज्ञापन करने के लिए कृषि मेलों और गांव के मेलों में प्रदर्शनों पर जोर दिया हैं। उन्होंने कहा कि खपत को बढ़ाना चाहिए एवं उत्पादन लागत नीचे जाना चाहिए। विनफीनेट भी दो और उत्पादों को विकसित कर रहे हैं, एक सेंसर आधारित सिंचाई प्रणाली वदूसरा पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने का यंत्र हैं,  दोनों उत्पादों के हीअगले एक साल तक बाजार में आनेका अनुमान है।

दिल्ली के मनु चोपड़ा ने विकसित की एन्अी मोलस्टेशन डिवाईस


हालात कभी कभी इंसान को कुछ नया करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। दिल्ली के रहने वाले मनु चोपड़ा जब ग्यार वींक्लास में थे तो उन्होने छेड़छाड़ रोकने वाली एक डिवाइस को तैयार किया। आज मनु अमेरिका के स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय मेंकंम्प्यूटर साइंस के तीसरे वर्ष के छात्र हैं। लेकिन उनका कहना है कि वो पढ़ाई खत्म करने के बाद इस डिवाइस को बड़े पैमाने पर लोगों के इस्तेमाल लायक बनाना चाहते हैं। इसके लिए वो आने वाले वक्त में किसी उत्पादक की तलाश भी करेंगे।

मनु बताते हैं कि जब वह 15 साल के थे तो एक शामउन की मां उसकी बहन को इस बात के लिए डांट रही थी कि वोरात 10 बजे के बाद घर से बाहर ना रहा करे। इसके बाद जब उनकी मां का गुस्सा थोड़ा शांत हुआ तो उन्होंने अपनी मां से पूछा कि जब वह रात में बाहर घूमता हैं तो उसकी बहन को ये आजादीक्यूं नहीं है ? जिसके जवाब में उसकी मां ने उसे कहा कि रात के वक्त यहां की गलियां लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है। मनु ने एक बार फिर अपनी मां से सवाल किया कि ‘’तो क्या इसका मतलब उसकी बहन कभी भी रात को बाहर घूमने नहीं जा सकती। 

इस बार मां ने कोई जवाब नहीं दिया और वो मुस्कुराते हुए वहां से चली गईं।’’ मनु भी जानते थे कि उनकी मां के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था।इस घटना के बाद मनु अपने कमरे में गये और वहां रखे एक सफेद बोर्ड के आगे खड़े हो गये और उसमें बड़े बड़े अक्षरों से लिखा ‘एंटी मोलेस्टेशन डिवाइस’। मनु का कहना है कि वो उन अनगिनत लड़कियों का भविष्य बदलना चाहते थे जो युवा थीं और उन पर इस तरह बंदिशें थीं। इस तरह वो ना सिर्फ लड़कियों की सुरक्षा कर सकते थे बल्कि उन बदमाशों को जिंदगी भर का सबक भी सिखा सकते थे जो छेड़खानी करते हैं।

एंटी मोलेस्टेशन डिवाइस
ऐसे काम करती है एंटीमोलेस्टेशन डिवाइस 


मनु की डिजाइन की गई
एंटी मोलेस्टेशन डिवाइस घड़ी के आकार की है। जब भी किसी की तंत्रिका गति (Nerve Speed) सामान्य से अधिक हो जाती है तोये डिवाइस 8 मिलीएम्पियर काकरंट छोड़ती है। इससे छेड़छाड़ करने वाला व्यक्ति थोड़े वक्त केलिए लकवाग्रस्त हो जाता है।इसके साथ ही इसमें लगा कैमराछेड़छाड़ करने वाले की लगातारतस्वीरें खींचना शुरू कर देताहै। मनु का कहना है कि इसडिवाइस में लगा कैमरा बिनारूके 100 तस्वीरें खींच सकता है। इतना ही नहीं इस कैमरे से खींची हुई तस्वीरें अपने आपपास के पुलिस स्टेशन में पहुंच जाती हैं। इसके अलावा येडिवाइस खतरे के वक्त पहले सेफीड चार फोन नंबर पर मदद के लिए संदेश भी भेजती है। 

भविष्य की योजना
अब मनु की योजना इसडिवाइस को एक स्मार्टवॉच में बदलने की है ताकि ये घड़ी के तौर पर लोगों की जरूरतों को पूरा कर सके। इसके साथ ही मनु की योजना इस डिवाइस में आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा को जोड़ने की है ताकि इसका उपयोग आरोपी के खिलाफ सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके।

उनकी योजना ऐसे उत्पादक को ढूंढने की है जो इसका बड़े पैमाने पर निर्माणकर सके। एक बार ऐसा होने के बाद मनु को उम्मीद है कि भारत में इस डिवाइस की कीमत दो सौ रुपये से लेकर तीन सौ रुपये तक रहेगी।ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इस तकनीक का फायदा उठा सकें और सुरक्षित रहें। फिलहाल उनकी बहन इस डिवाइस का बखूबी इस्ते मालकर सुरक्षित महसूस कर रही हैं। उम्मीद है कि जल्द ही उनके जैसी दूसरी लड़कियों की मदद के लिए ये डिवाइस बाजार में मौजूद होगी।