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Saturday, 25 March 2017

प्राकृतिक खेती से उगाया बैंगन का 25 फुट 8 इंच लम्बा पौधा और लिम्का बुक ऑवार्ड में कराया नाम दज

महाराष्ट्र के सावंतवाड़ी केएक युवा कृषक भगवान बोवलेकर ने 25 फुट ऊंचे वृक्ष से ४ क्विंटल बैंगन की फसल लीहै । इस प्रक्रिया में महाराष्ट्र के इस युवा कृषक ने बैंगन के एक वृक्ष से ५०० ग्राम वजन के ८५७ बैंगन पैदा कर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी अपना नाम दर्ज करा लिया है । उनका यह अजूबा देखने इस्तांबुल, अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन, कतर औरस्पेन के कृषि वैज्ञानिक भी पहुंचे थे । भगवान का उद्देश्य केवल रिकार्ड के लिए उत्पादन नहीं था बल्कि जैविक खेती का प्रचार करना भी था । इस वृक्ष में १७ विभिन्न वनस्पतियों के रस भी डाले थे ।


वह शीघ्र ही इसका पेटेंट भी करा रहे हैं । वैसे सन् २००८ में उनके द्वारा उगाए बैंगन की ऊंचाई ३५ फुट थी। उन्होंने इस संदर्भ में अखबारों में विज्ञापन छपवाए व कई लोगों को बताया लेकिन किसी ने भी उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया । लेकिन भगवान ने जिद नहीं छोड़ी । २ साल बाद उनके द्वारा लगाए गए बैंगन की ऊंचाई २८.५ फुट हीथी । तब उन्हें पता चला किविश्व का सबसे ऊँचा बैंगन वृक्ष २१.१ फुट ही दर्ज हुआ है ।हाल ही देवास जिले के नेमावर गांव में नर्मदा के किनारे मालपानी ट्रस्ट के दीपक सच देने ४०० नारियल लदा पेड़ भी प्राकृतिक खेती से खड़ा कियाथा । दो-दो एकड़ में फैले बरगद के पेड़ तो आपको कई जगह मिल जाएंगे । 

यह सब बताने का एकमात्र उद्देश्य केवल यही है कि हमारी मिट्टी और गाय के गोबर में इतनी ताकत है कि वे आपको मनचाहा अन्न पैदा कर के देसकते हैं । बगैर किसी भी रसायन के प्राकृतिक खेती से रिकार्ड उत्पादन लेने वाले लाखों किसान भी हमारे यहां मिल जाएंगे । उनके इन मौन उद्यमों को अंधेरे में रखकर तथा जनमानस में भारत की पिछड़ी खेती का भ्रम फैलाने वालों केखिलाफ संवेदनशील नागरिकों को अब सचेत हो जाना चाहिए। बरसों पहले तीसरी दुनिया की प्रगत खेती पर शोध करने वाले लंदन के स्कूल फॉर डेवलपमेंटल स्टडीज के तीन युवकों ने भारत के अलग-अलग प्रांतों में प्रगत खेती करने वाले उद्यमी किसानों पर फॉरर्म्स फर्स्ट नाम की किताब लिखी थी । सैंकड़ों उदाहरण देकर उन्होंने सिद्ध किया था कि भारत में किसान ही सबसे बड़े अनुसंधानकर्ता हैं । ये लोग विपदाओ से लड़कर नई-नई चीजें खेतों में इजाद कर लेते हैं। उदाहरण के लिए चावल की कुछ किस्में जो कृषि वैज्ञानिकों ने काल बाध्य कर दी थीं उन्हें किसानों ने फिर से उगाकर लोकप्रिय बना दिया था । 

उसी प्रकार पंजाब और हरियाणा के किसानों ने गेहूं की फसल केलिए बताए गए खरपतवारनाशक रसायनों के छिड़काव को महंगा और उबाऊ बताकर उस रसायन को रेती में मिलाकर दाने दान खरपतवारनाशक के नाम से प्रचारित किया और वह चल पड़ा ।

उदाहरण के भोजन का हर कौर बत्तीस बार चबाकर धीमा भोजन करो कहने वाली हमारी दादी मां का नुस्खा अब अमेरिका में प्रचलित हो चला है। पांच हजार से ज्यादा सीमांत कृषकों द्वारा चलाया जा रहा धीमा भोजन अभियान (स्लो फूड)अब १३० देशों मे फैल चुका है । धरती माँ की तरह वहां भी अबटैरा मैडरे अभियान प्राकृतिक खेती की सिफारिश कर रहा है। अमेरिका में पाश्च्युराइज्ड दूध की थैलियों की जगह कच्चा दूध(रॉ मिल्क) मांगा जाने लगा है । फर्क सिर्फ इतना ही है कि वहां इसके लिए डॉक्टर की पर्ची लगती है । आज अमेरिका व इंग्लैंड की थालियों में परोसे जाने वालाभोजन औसतन प्रतिदिन डेढ़ से दो हजार किलो मीटर यात्राकरके आता है । वहां किसानों की जेब में एक रूपए का केवल१९वां भाग ही जाता है । अब वहां भी स्थानीय खाद्यान्न और सब्जियों की मांग बढ़ रही है । अमेरिका के बड़े शहरों मेंछोटे-छोटे प्लॉट किराये पर लेकर वहां के जिम्मेदार नागरिक अपनी खुद की जैविक सब्जी उगाने को तत्पर हैं ।

शांति नायक ने ढ़ूढ़ा लोकसाहित्य में छिपा पर्यावरण संरक्षण का मंत्र

मानव द्वारा हजारों वर्षों से इस्तेमाल किए जा रहे, जंगली जैविक भोजन, प्राकृतिक संसाधनों से बने आश्रय और सांस्कृतिक गतिविधियों की संख्या आज विलुप्त हो चुकी हैं। इन संसाधनों के प्रयोग की विधियों को मानव ने अपनी परिस्तिथि को ध्यान मे रखते हुए विकसित किया था। अतीत में विकसित किए गए इस ज्ञान को मानव ने अपनी बहुमूल्य निधि के रूप में सहेज कर रखा हुआ था।


पिछले 150 सालों से चली आ रही औद्योगिक क्रांति के प्रभाव में यह ज्ञान लुप्त होता जा रहा है। हमारी शिक्षण व्यवस्था और पाठ्यपुस्तकों में इसकेलिए कोई जगह ही नहीं रखी गयी है। हमें यह सिखाया जाता है कि इसे प्रयोग करने वाले लोग पिछड़े, गरीब और वंचित हैं। जबसे यह ज्ञान हमारी जीवनशैली से लुप्त होना शुरू हुआ है, उसी दिन से हम पर्यावरण संबंधी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इसी वजह से हम प्रकृति से दूर होते चले जा रहे हैं। हालात यह है कि हमें पर्यावरण के संरक्षण की बात करनी पड़ रही है। पर शायद ही 150 वर्ष पहले किसी ने इस बारे में सोचा भी होगा। ऐसे में जरूरत है कि हम उस ज्ञान को पुनः हासिल कर उसका संरक्षण करें।

पीढी-दर-पीढी वर्षों से संरक्षित इस ज्ञान को लोकसाहित्य(Folklore) कहते हैं। लोकसाहित्य को हम आमतौर पर कहानियाँ समझ कर नज़रंदाज़कर देते हैं या उन्हे महज मनोरंजन का साधन समझ लेते हैं। हक़ीकत यह है कि मानव ने हजारों वर्षों के अपने जीने के तरीकों को इन लोककथाओं, लोकगीतों, कहावतों, पहेलियों, चित्रों, नृत्य, संगीत, परम्पराओं और विश्वास के माध्यम से सहेज कर रखा हुआ है। ये लोककथाएँ और लोकगीत मानव के जीवन मूल्यों को परिभाषित करती हैं। आज समूचा विश्व ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण प्रदूषण जैसी विनाशकरी समस्याओं से जूझ रहा है और इसके समाधान खोजने मे लगा हुआ है। इस दौर में विरासत मे मिले इस ज्ञान का संरक्षण करना प्रासंगिक हो गया है। जरूरत इस बात की है कि हम जीवनशैली में इसका प्रयोग करें और इसे शिक्षा में पुनः शामिल किया जाए।


कर्नाटक राज्य के इस ज्ञान को पिछले 50 वर्षों से सहेजने का कार्य कर रही है। कर्नाटक के एक छोटे से गाँव मे जन्मी शांति नायक को बचपन से ही गाँव के मंदिर मे होने वाले उत्सवों मे गाये जाने वाले लोकगीत आकर्षित करते थे। वे अपनी दादी और नानी से लोककथाएं और लोक गीत सुना करती थीं। उन्हे फसल की कटाई के समय खेतों में जाकर औरतों को काम करते हुएगाते सुनना बहुत अच्छा लगता था। वो बचपन से ही उन गीतों को याद करके गुनगुनाने लगीं । जैसे-जैसे वे बड़ी होती गयीं, उनकी लोककथाओं और लोकगीतों में रुचि और बढ़ती गयी। हालांकि उन्होने कभी सोचा नहीं था कि वे इसके संरक्षण के लिए काम करेंगी। कॉलेज के समय उनके एक प्रोफेसर लोकसाहित्य(Folklore) में बेहद रुचि रखते थे और उसका डॉक्यूमेंटेशन किया करते थे। प्रोफेसर साहब ने शांति जी कि रूचि को जानते हुए उन्हे कर्नाटक के एक लोक नाटक यक्षगाना के एक पात्र कोडुगी के बारे मे डॉक्यूमेंटशन का काम दिया था। आधिकारिक तौर पर लोकसाहित्य के संरक्षण में यह उनका पहला कदम था। फिर तो जब भी उन्हे अपनी पढ़ाई से समय मिलता, वे अपनी रुचि के तौर पर यह काम करने लगती। पर कभी भी उनके मन में यह विचार नहीं आया था कि उन्हे इस क्षेत्र में अपना कॉरियर बनाना है।

पढ़ाई खत्म होने के कुछ समय बाद ही उनकी शादी हो गयी और वे अपने पति के साथ होनावर मे रहने लगी। यहां वे स्कूल में पढ़ाती थीं। अपने पढ़ाने के तरीकों में भी वे लोकगीतों, लोककथाओं का इस्तेमाल करती थीं। इस वजह से बच्चे उनकी कक्षा मे बेहद रुचि से बैठते थे। बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते उन्होने बच्चों से ही कई लोककथाएँ, लोक खेल, पारंपरिक व्यंजन आदि के बारे में जाना।

शांति नायक कहती हैं कि “एक तरफ जहाँ मैं बच्चों को पढ़ा रही थी,वही दूसरी तरफ यही बच्चे मेरे गुरु थे, जिन्होने मुझे बहुत कुछ सिखाया।”

उसी दौरान उनके पति जिनकी रुचि भी लोकगीतों में थी, ने अपनी पीएचडी इसी विषय मे पूरी कर ली। अब दोनों के पास हजारों की संख्या में कागज इकठ्ठे थे, जिनमें ज्ञान का अपूर्व भंडार था। उन दोनों को लग रहा था कि इस ज्ञान को लोगों तक पहुँचाना बेहद जरूरी है, अन्यथा ये कागज, रद्दी के बराबर है। तब उन्होंने अपनी नौकरी छोड़कर अपने पति के साथ मिलकर जनपदा प्रकाशन नाम से एक संस्था शुरू की। इसके अंतर्गत अब तक वे दोनों सौ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन कर चुके हैं और लोगों तक इस बहुमूल्य ज्ञान को पहुंचाने का काम कर रहे हैं। यही नहीं जब वे यह काम कर रही थी तब उन्हे एहसास हुआ कि जिन महिलाओं से वे ये ज्ञान एकत्रित कर रही हैं, उन्हे अक्षर ज्ञान तक नहीं है; जिसकी वजह से, वे खुद इस ज्ञान को सहेज नहीं पा रही हैं। उन्होने एक राष्ट्रीय स्तर के साक्षरता कार्यक्रम के अंतर्गत उन्हे साक्षर करने कि ज़िम्मेदारी ली। इसी दौरान उन्हे उन महिलाओं के लिए एक को-ओपेरेटिव संस्था खोलने का विचार आया, जिससे वे उन महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना सकें। परिणामस्वरूप वे महिलाएँ आज न सिर्फ आत्मनिर्भर हैं, बल्कि उनमे अपनी संस्कृति को लेकर भी अभिमान बढ़ा है।

शांति नायक कहती हैं “मेरे पति की रुचि जहाँ लोकगीतों में है वहीं मेरी रुचि आदिम संस्कृति, उनके जीने के तरीके, उनके भोजन की विधियाँ, उनके खेल, उनकी जड़ी-बूटियों में है।”

वे आगे कहती हैं, आज इस आदिम संस्कृति, और ज्ञान का संरक्षण करना बेहद ज़रूरी है और उतना ही ज़रूरी है इस ज्ञान को लोगों तक पहुँचाना। क्योंकि आज हम वैश्विक स्तर पर जिन पर्यावरणीय समस्याओं से जूझ रहे है, उनका समाधान इन लोकसाहित्य(Folklores) मे छिपा है।” उनके अनुसार ये सिर्फ कहानियाँ या गीत नहीं हैं, यह जीने के तरीके हैं जो बताते हैं कि किस तरह हम प्रकृति के साथ मिलकर अपना जीवन जी सकते है।


वे आगे जोड़ती हैं कि ये लोकसाहित्य कहानियों से कहीं बढ़कर आध्यात्मिक अवधारणाओं और मूल्यों की बात करती हैं। इनका संरक्षण वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र पर आधुनिक विकास के स्तर पर चल रही विनाश की समस्याओं के समाधान के रूप में एक सेवा है।

शांति नायक कहती हैं “मैं और मेरे पति अपना काम कर रहे हैं, अब हमारी बेटी ने भी इसी काम को अपने जीवन का लक्ष्य चुना है और वो अपने तरीकों से इस काम को आगे बढ़ा रही है। क्योंकि यह कहानियाँ सिर्फ कहने के लिए नहीं है इन्हें हमें अपनी जीवनशैली मे अपनाना होगा, इनसे सीखना होगा और यह तभी संभव है, जब हम इन्हे अपनी शिक्षा मे शामिल करे और इसके लिए जरूरी है कि अधिक से अधिक युवा गाँवो की तरफ रुख करे।”
शांति नायक चाहती हैं कि हम अपनी सोच बदलें और अपना अहम छोड़कर यह समझे कि गाँव के लोग पिछड़े हुए और अज्ञानी नहीं है। बतौर शांति नायक हक़ीकत तो यह है कि इन्हीं लोगों के पास वो ज्ञान है जो इस विश्व को विनाश से बचा सकता है।

सुखी जीवन छोड कर एक दाम्पत्य ने अपनाई जैविक खेती

हरित क्रांति से पहले हमारे खाने मे जैविक और अजैविक जैसा कोई अंतर नहीं था। हरित क्रांति के वक़्त हमारे किसानों तक यह कहकर पेस्टिसाइड्स पहुंचाया गया की इससे फसल में कीड़े नहीं लगेंगे,खेतों में ज्यादा पैदावार होगी और आपकों ज्यादा पैसा मिलेगा। दूसरी तरफ आम शहरी जनता को यह कहकर भ्रमित किया गया कि अगर भारत को खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर बनना है तो हमें इन रसायनों का प्रयोग करना जरूरी है। आज इस बात को 50 से भी ज्यादा साल हो गए है फिर भी हमारी दाल अफ्रीका मे उग रही है, हमारे किसान जिनकी आत्महत्या कि खबरें शायद ही कभी उस वक़्त सुनने को मिलती थी,आज अखबार उनकी आत्महत्याओं कि खबरों से भरा पड़ा है। खाद्य उत्पादन मे आत्म निर्भर तो हम नहीं बन पाये पर इन 50 सालों मे रोज़ रात को भूखे पेट सोने वाले लोगों कि संख्या मे बेहिसाब वृद्धि हुई है,बिल्कुल वैसे ही जैसे कुछ ओद्योगिक घरानों कि संपत्ति मे बेहिसाब वृद्धि हो रहीं है। खैर आम लोगों को इससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि किसान आत्महत्या क्यो कर रहा है,अंबानी या अदानी इतने अमीर कैसे हो रहे है, दाल या दूसरे अनाज हमें क्यो आयात करने पड़ रहे है,दूसरे जीव-जंतुओं पर इन का क्या असर हो रहा है आदि। पर वही जब उन्हें यह पता चलेगा की इन पेस्टिसाइड्स का उनकी सेहत पर क्या फर्क पड़ रहा है तो वो इस बारे मे सोचने लगता है। इसीलिए 50 सालों मे पहली बार आम जनता इस विषय से खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर रही है और इस विषय पर उसकी भागीदारी समय के साथ-साथ बढ़ती जा रही है। 

चेन्नई के पार्थसार्थी और रेखा हमारे समाज के बनाए गए नियमों के अंतर्गत एक सुखी दाम्पत्य जीवन जी रहे थे। दोनों ही मल्टी नेशनल कंपनीस में अच्छे पदों पर कार्यरत थे। अच्छी पगार के साथ सारी भौतिक सुख-सुविधाएं उनके आस-पास मौजूद थी। 10-12 घंटे रोजाना काम करने के बाद अपनी मेहनत की कमाई को वो हर उस वस्तु को भोगने मे खर्च कर रहें थे,जो टेलिविजन के विज्ञापन उन्हे भोगने के लिए बोलते थे चाहें उन्हे उसकी आवश्यकता हो या न हो। उनकी इस यात्रा की शुरुआत तब हुई जब उनके परिवार के सदस्य कई प्रकार की बीमारियों से ग्रसित होने लगे थे। तब वे सोचने पर मजबूर हो गए की उनके पास वो सारी सुख-सुविधाएं है जिनका एक आम भारतीय परिवार सपना देखता है फिर ऐसा क्या है जिसकी वजह से उन्हे ये सारी तकलीफ़ें हो रहीं है। तब उन्होने इस विषय पर कई किताबें पढ़ी और शोध किया। अपने शोध मे उन्होने यह पाया की हमारे शरीर मे पायी जाने वाली आधी से ज्यादा बीमारियाँ हमारे खाने मे पाये जाने पेस्टिसाइड्स के कारण पनप रहीं हैं और बाकी हमारे जीने तरीकों मे जो बदलाव आया है उस वजह से। दोनों अपनी जीवनशैली को बदलने के लिए गंभीरता से सोच रहे थे व धीरे-धीरे कुछ कदम इस दिशा मे बढ़ा रहे थे पर उनके जीवन में अहम मोड़ उस वक़्त आया जब उन्होने वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन (डबल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट पढ़ी जिसके अनुसार चेन्नई मे पेस्टिसाइड्स की वजह से माँ के दूध मे ज़हर पाया गया है। तब उन्हे एहसाह हुआ की उन्होने अभी कुछ नहीं किया तो शायद बेहद देर हो जाएगी। पार्थसर्थी बताते है की “हमारे शोध मे हमने पाया की आम तौर पर हम इस बात से बिलकुल अंजान है की पेस्टिसाइड्स हमारे शरीर मे जहर घोल रहा है। एक छोटी सी सूची, मै आपसे सांझा करना चाहूँगा जो की हमने अपने एक शोध के दौरान पढ़ी थी। इस सूची को कनाडा की सरकार ने जारी किया है जिसमे बताया गया है पेस्टिसाइड्स की वजह से हमे किस तरह की बीमारिया हो रहीं है” :-


वो आगे कहते है की जब हमे इस बारे मे पता चला तो हम अपने लिए जैविक भोजन के विकल्प तलाश करने लगे। मेरा और रेखा के परिवार की पृष्ठभूमि कृषि है। हमारे खाने का ज़्यादातर सामान हमारे खेतों से ही आता है। तब हमने तय किया की हम जाकर हमारे परिवार को समझायेंगे और जैविक तरीकों से खेती करने के लिए प्रेरित करेंगे। जब हम गाँव गए और उनसे जैविक खेती के बारे मे बात की तो उन लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ की जैविक तरीकों से खेती हो सकती है। तब हमे एहसास हुआ की विकास के नाम पर हरित क्रांति का हमारे कृषक समाज पर क्या असर हुआ है, की वो अपने पारम्परिक ज्ञान तक को भूल गया है। हमारी बात समझना तो दूर की बात वे लोग उल्टा हमारा मज़ाक बनाने लग गए थे। लेकिन हमने भी हिम्मत नहीं हारी , हमारी कोशिश लगातार जारी थी। इसके फलस्वरूप हमारे परिवार ने हमे ज़मीन का छोटा टुकड़ा सौंपते हुए कहाँ कि तुम इस ज़मीन पर अपने तरीकों से खेती करके बताओं। हमे लगा की यह अपने आप को साबित करने का एक सुनहरा मौका है। हमने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए उस ज़मीन पर देशी तरीकों से खेती करना शुरू किया।


हमने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए उस ज़मीन पर देशी तरीकों से खेती करना शुरू किया। हमने एक फसल कि जगह पर मल्टी-क्रोपिंग तकनीक का उपयोग किया। इस दौरान ऐसे कई मौके आए जब आस-पास के गाँव से लोग आकर हमें समझने कि कोशिश करते थे कि हम जो कर रहें है वो सही नहीं है, इससे सिर्फ वक़्त और पैसा ही बर्बाद होगा। परंतु जब फसल हुई तब सब लोग आश्चर्यचकित रह गए। जब हमारे द्वारा उगाई सब्जियों को गाँव कि बूढ़ी औरतों ने चखा तो वे कहने लगी कि उन्होने ऐसा स्वाद पिछले 25-30 सालों बाद अनुभव किया है। उनका यह कहना ही हमारे लिए बहुत बढ़ी प्रेरणा थी, पर जब हमने उनसे पूछा कि क्या अब आप लोग जैविक खेती करोंगे तो उनका जवाब फिर भी नहीं था। क्योंकि आज कि तारीख मे किसान खाना खाने से ज्यादा बेचने के लिए उगाता है। उन्हे लगता था कि देशी तरीकों से उसकी फसल का उत्पादन कम हो जाएगा तब हमने इसे भी एक चुनौती कि तरह स्वीकार किया और कहाँ कि इस बार हम वो ही बीज उगाएँगे जो आप लोग उगाते है पर जैविक तरीकों से और इस बार जब फसल हुई तब पूरे गाँव को हमारे खेत के उत्पादन को देखकर बेहद आश्चर्य हुआ। यह उनके लिए किसी झटके से कम नहीं था कि, जहां पूरे गाँव के किसान एक एंकड़ मे 28 बोरी अनाज उगा रहे थे वही हमारे खेत से हमने एक एंकड़ से 36 बोरी अनाज उगाया था। तब से लेकर हम अब तक पूरे गाँव लगभग 100 एंकड़ ज़मीन को जैविक खेतों मे तब्दील करा चुके हैं।”

पार्थसार्थी और रेखा का सफर यही नहीं रुका। उनके सामने अब एक नयी समस्या थी कि कैसे इन किसानों कि उपज को उचित दाम और बाज़ार मिला सकें। तब वे हमारे पिछले परिंदे संगीता द्वारा शुरू किए ओरगनिक स्टोर (ReStore) मे कुछ दोस्तों के साथ इस विषय पर चर्चा कर रहे थे जो खुद भी चेन्नई के आस-पास इस तरह का काम कर रहे थे और इसी तरह कि समस्या से गुजर रहे थे। इसी विचार-विमर्श मे OFM (ओर्गेनिक फार्मर्स मार्केट) का आइडिया बाहर निकाल के आया। जहां इन लोगों ने आपस मे कुछ पैसा इकट्ठा करके किसानों से सीधे अनाज और सब्जियाँ खरीदना शुरू किया और इसे चेन्नई के कई इलाकों मे सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का काम शुरू किया। इसकी सफलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज चेन्नई मे OFM के 16 रीटेल स्टोर्स है और हर रोज़ कई युवा अपनी कोरपोरेट नौकरी छोड़कर खेती करने और OFM से जुडने कि इच्छा जाहीर कर रहे है।


इसकी सबसे बड़ी और खूबसूरती बात यह है कि यह पूरी तरह से एक सामुदायिक पहल का नतीजा है जहाँ आम जनता ने समस्याओं को समझते हुए उसके हल स्थानीय स्तर पर खुद खोजने शुरू किए। वे सरकार या किसी नेता और मसीहा पर निर्भर नहीं रहे। लोगों ने मिलकर इसे लोगों के लिए खड़ा किया है। ऐसे मोडल हमारी छद्म लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर एक कडा प्रहार है इससे प्रेरणा लेकर कई बड़े शहरों मे लोग इस तरह कि पहल करने कि कोशिश कर रहे है। उम्मीद है कि जल्द ही छोटे शहरों से भी लोग निकलकर बाहर आएंगे और किसानों के साथ जुड़कर ऐसे विकेंद्रित और स्थानीय स्तर पर इन समस्याओं का हल खोजेंगे।

तितलियों से फूलेगा-फलेगा हमारा संसार

तितलियाँ सदियों से मनुष्यों को आकर्षित करती आई है। उनके रंग-बिरंगे पंख हमे प्रकृति की खूबसूरती दर्शाते है। बच्चों को उनका पीछा करना अच्छा लगता है, कवि उनकी खूबसूरती से मोहित होकर कवितायें लिखते है। उनका प्रवास चक्र कई बुद्धिमान शोधकर्ताओं और वेज्ञानिकों के लिए अभी भी एक अबूझ पहेली है और विषम खोज का विषय है। प्रकृति प्रेमियों के लिए तितलियाँ जीवन का आधार है, जिनहोने धरती पर जीवन को बनाए रखने मे अपना अनमोल योगदान दिया है। वे इसके लिए कृतज्ञ है और शायद समय आ गया है कि हम भी इन रंग-बिरंगे खूबसूरत जीवों के प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाये और अपना कर्तव्य निभाए, जिससे इन्हे विलुप्त होने से बचाया जा सकें। सममिलन मेंगलुरु के समीप एक छोटे से कस्बे बेलुवई मे अपने इस कर्तव्य को निभाने का प्रयास कर रहे है।


सममिलन कहते है कि “क्या आप जानते है, पूरी धरती पर 18000 तरह कि तितलियाँ पायी जाती है, इनमे से भारत मे 1500 तरह कि तितलियाँ पायी जाती है और पश्चिमी घाट मे लगभग 340। ये तितलियाँ हमारे पारिस्थितिक तंत्र का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये प्राकृतिक भोजन तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है, परागीकरण मे सहायक है, और तितलियों कि संख्या सीधे तौर जैव विविधता कि पूरक है। जितनी ज्यादा तितलियाँ हमारे आस-पास होगी उतना ही अच्छा और मजबूत हमारा पारिस्थितिक तंत्र होगा।”


सममिलन का बचपन हरे-भरे जंगलों, नदी-नालों के समीप खेलते हुए बिता। वे बचपन से ही अपने घर के पास पायी जाने वाली जैव विविधता के प्रति आकर्षित रहे है। नदी पर जाकर मछलियाँ पकड़ना, पेड़-पौधों और उनपर आश्रित विभिन्न जीवों के साथ वक़्त बिताना उनके जीवन को समझना उनका शौक रहा है। पर तितलियों मे उनकी रुचि उनके कॉलेज के समय जन्मी, जब कॉलेज मे उनके एक प्राध्यापक ने उन्हे स्थानीय तितलियों पर शोध करने का कार्य दिया था। उसके बाद जब भी उनको समय मिलता वे अपने आस-पास के क्षेत्र मे तितलियों को खोजते हुए उनके बारे मे और ज्यादा जानकारी जुटाने लगे। पर जैसा की हर आम भारतीय युवा के साथ होता है, उनके पास भी कोई दिशा नहीं थी कि उन्हे भविष्य मे क्या करना है और उससे भी महत्वपूर्ण उन्हे बिलकुल पता नहीं था कि उन्हे क्यों करना है। इसी दिशाहीनता की वजह से उन्होने स्नातक के पश्चात होटल मैनेजमेंट मे उच्च स्नातक किया और बेंगलुरु मे नौकरी करने लगे। कुछ समय बाद उन्हे मेंगलुरु के ही एक कॉलेज मे होटल मैनेजमेंट के अध्यापक की नौकरी मिल गयी। जब वे मेंगलुरु लौट के आए तो उनका तितलियों के प्रति प्रेम पुनः जाग्रत हो गया और अपने खाली समय मे वे उनपर अधिक से अधिक शोध और पढ़ने लगे। उनके जीवन मे अहम मोड़ तब आया जब वे भारतीय तितलियों पर आइज़ेक खेमीकर द्वारा लिखी गयी एक किताब पढ़ रहे थे। उस किताब मे बताया गया था की कैसे हम अपने घर के आस-पास तितलियों को आकर्षित कर सकते है और उन्हे बचा सकते है। तब 2011 मे उन्होने अपनी ज़मीन पर कुछ-कुछ प्रयोग करना शुरू किया और बटरफ्लाइ पार्क की नींव रखी। अपने प्रयोगों की सफलता को देखकर उन्होने 2013 मे आधिकारिक तौर SS Butterfly पार्क को लोगों के लिए खोल दिया। वे बताते है कि “ इस पार्क का उद्देश्य यहाँ की स्थानीय तितलियों को एक सुरक्षित और प्राकृतिक माहौल प्रदान करना है जिससे उनकी संख्या मे ज्यादा से ज्यादा इजाफ़ा हो सके, उनपर शोध करना, लोगों को खासतौर पर युवाओं को तितलियों के प्रति जाग्रत करना और ज्यादा से ज्यादा युवाओं को तितलियों को बचाने की मुहिम मे शामिल करना है। अब हम तितलियों के जीवन पर एक डॉक्युमेंट्री बना रहे है, जिससे हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस बारे मे जाग्रत कर सकेंगे।”


सममिलन आगे कहते है कि “तितलियों के हमारे जीवन से चले जाने का सबसा बड़ा कारण हम ही है। हमने अपने निजी स्वार्थ के लिए जंगलों को काट दिया है, शहरों के अंधाधुंध विकास के लिए वहाँ से पेड़ो का नामो-निशान मिटा रहे है। हमने उनसे उनका घर छिन लिया है। यहीं नहीं गाँवो जहाँ थोड़ी बहुत हरियाली बची हुई है वहाँ पर हमने रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग कर के उनके घरों को जहरीला बना दिया है। कीटनाशकों की वजह से उनके अंडे उचित वातावरण होने के बावजूद पनप नहीं पाते है, और जो कभी गलती से पनप भी गए तो जहर की वजह से इल्लियाँ(caterpillar) तितलियाँ बनने से पहले ही मर जाती है और अब जेनेटिक मोड़ीफ़ाइड बीजों के खेतों तक पहुँचने की वजह से इनके लुप्त होने का खतरा और भी गहरा गया है। और खतरा सिर्फ इनके लुप्त होने का ही नहीं है, हमारे लुप्त होने का भी है क्योंकि इन बीजों के फूलों से परागीकरण संभव नहीं है और अगर परागीकरण नहीं होगा तो हमारी प्राकृतिक खाद्य व्यवस्था पूरी तरह नष्ट हो जाएगी और तब हमारे पास पछताने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा। 


उसपर से भी बड़े दुख की बात यह है की जब हम पर्यावरण या जीव-जंतुओं के संरक्षण की बात करते है तब हम सिर्फ बड़े जानवर जैसे- शेर, बाग, हाथी, गेंडे या पक्षियों की ही बात करते है। तितलियों, मधुमख्खियों, छोटे कीट-पतंगों के बारे मे कोई बात नहीं करता है, कोई इस दिशा मे नहीं सोचता है। हमे कभी भी स्कूल मे यह नहीं बताया गया है कि इन छोटे-छोटे जीवों का हमारे जीवन मे क्या महत्व है और जिस दिशा मे हम बढ़ रहे है मुझे नहीं लगता कि शायद ही कभी हमे इस बारे मे बताया जाएगा। इसलिए जरूरी है कि हम खुद पहल करे और अपने जीवन मे छोटे-छोटे बदलाव लाकर इस मुहिम मे शामिल हो और इन जीवों कि रक्षा करे। आज मेरी एक छोटी सी कोशिश कि वजह से इस पार्क मे करीब 135 तरह कि तितलियाँ और सेकड़ों तरह के अन्य कीट-पतंग देखे जा सकते है तो सोचिए जब हम सब मिलकर प्रयास करेगे तो क्या नतीजे होंगे। इन नतीजों को पाने के लिए बस जरूरत है तो बस सोचने की, सीखने की, समझने की, अच्छी शिक्षा की, और उसे अपने जीवन मे शामिल करने की। हम सब काबिल है अपने पर्यावरण की रक्षा करने मे बस जरूरत है तो कदम बढ़ाने की और हाथ से हाथ मिलने की। और अगर हमने यह अभी नहीं किया तो फिर कभी नहीं कर पाएंगे।”

मल्हार इंदुलकर ने नदियों के पानी को साफ रखने के लिए किया उदबिलाव का संरक्षण

मल्हार इंदुलकर को बचपन से नदी और नदी मे रहने वाले प्राणी अपनी ओर आकर्षित करते थे। उनका घर भी वशीस्टी नदी के किनारे पर ही था। जेसे ही वे स्कूल से लौटते थे, वे अपने दोस्तों के साथ नदी पर नहाने और मछ्ली पकड़ने के लिए चले जाते थे। पर उन्होने कभी सोचा नहीं था कि वो इसके लिए काम करेंगे। उन्होने भी आम बच्चों कि तरह अपनी स्कूली शिक्षा ली। दसवीं तक उन्हे पता नहीं था कि उन्हे क्या करना है । इसीलिए किसी के कहने पर उन्होने कॉमर्स मे अपनी बारहवीं पूरी करी। पर वे इस पढ़ाई से खुश नहीं थे। जो उनके सामने आ रहा था, और जो कोई कह रहा था वो वही करते जा रहे थे।



बारहवीं के बाद उन्हे उदयपुर स्थित स्वराज यूनिवरसिटी के बारे मे पता चला। जब उन्होने इसके बारे मे थोड़ी और जानकारी हासिल की तो उन्हें लगा कि इसके माध्यम से वे खुद अपने जीवन को एक दिशा दे सकते हैं और खोज सकते हैं कि उन्हें क्या करना है। क्योंकि यहाँ पर उन्हें ही तय करना था कि उन्हे क्या पढ़ना है और क्यों पढ़ना। यहाँ उन्हें उनके ऊपर एक्जाम का कोई दबाव नहीं था। यहाँ उन्हे गलतियाँ करने कि आज़ादी थी और उनसे सीखने का मौका मिला रहा था। तब उन्होने तय कर लिया कि वे इस प्रोग्राम मे शामिल होंगे और पारंपरिक शिक्षा से ब्रेक लेकर सोचेंगे कि उन्हे क्या करना है और किस विषय मे डिग्री लेनी है। इस ब्रेक के दौरान ही उन्हे समझ आया कि उन्हे प्रकृति के साथ मिलकर अपना जीवन जीना है और नदी तथा उन पर निर्भर प्राणियों के साथ काम करना है। इसके लिए उन्होने अपने घर के पास ही मछुआरो के साथ रहते हुए उनकी जीवन शैली को समझा। उन्होने जाना कि नदी को लेकर उन लोगों कि क्या सोच है। पिछले कुछ वक़्त मे नदी के अंदर क्या बदलाव आए है, और किस वजह से आए है। नदी के अंदर कौन-कौन से प्राणी रहते है, कहाँ रहते है। उन्हे कैसे पहचाना जाता है।

हमारी कौन सी आदतें उनके लिए फायदेमंद है और कौन सी आदतें उनके लिए नुकसान दायक है। यही सब सीखते हुए उन्हे पता चला कि पिछले 20 सालों के दौरान नदी से 90% मछलियों कि प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी है। उसका मुख्य कारण इंडस्ट्रीज द्वारा छोड़ा गया केमिकल युक्त गंदा पानी है। वो बताते है कि जब उन्होने एक बुजुर्ग से इस बारे मे पूछा तो उन्होने बताया कि 20 साल पहले जब पहली बार नदी मे गंदा पानी छोड़ा गया था तब अगले दिन हजारों मछलिया नदी मे मरी हुई पायी गयी थी। और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। वे आगे कहते है कि इसका असर सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है । मछलियों के कम होने कि वजह से कई और जलीय जीवों कि संख्या मे भी बहुत तेज़ी से कमी आई है इनमें से ही एक ओट्टर है जिसे यहाँ कि स्थानीय भाषा मे उंध बोला जाता है। इसके बारे मुझे पहली बार करीब ढाई साल पहले पता पड़ा था जब मुझे स्वराज यूनिवरसिटी के माध्यम से कावेरी नदी मे इनके संरक्षण के ऊपर काम करने का मौका मिला था। जब मैं यह काम कर रहा था तब मुझे पता चला कि नदी कि सेहत के लिए इनका संरक्षण करना बेहद आवश्यक है क्योंकि यह नदी कि सारी बीमार मछलियों को खा लेते है जिसकी वजह से वह बीमारी दूसरी मछलियों को नहीं लगती है और यह उन्हे बचा लेते है। जब मैं यह काम कर रहा था तब ही मुझे लगा कि यह काम मुझे अपने घर के पास वाशिष्टि नदी मे भी करना चाहिए। क्योंकि मेरे देखते-देखते ओट्टर कि संख्या में तेज़ से कमी आई है। जहा कभी ये रोज़ दिखा करते थे वहीँ आज ये महीने भर मुश्किल से एक बार दिखा करते है। इसकी वजह से मछलियों के मरने मे भी तेज़ी आई है। इसका असर सिर्फ नदी और मछलियों पर ही नहीं पड़ रहा है बल्कि मछुआरों पर भी इसका सीधा असर पड़ रहा है ।
मछलियों के लुप्त होने कि वजह से उनकी आय मे बेतहाशा कमी आई है जिसकी वजह से वे शहरों कि तरफ माइग्रेट हो रहे है और गंदी बस्तियों मे रहने को मजबूर हो रहे है। आज हालत यह है कि नदी के आस-पास के गांवों मे 90% प्रतिशत घर खाली पड़े है और जिन घरों मे लोग रह रहे है उनमे भी अधिकतर बुजुर्ग लोग ही रह रहे है। और इस वजह से नदी अपने अंत कि तरफ बढ़ रही है क्योंकि प्रकृति मे हर कोई एक दूसरे पर निर्भर है। एक भी प्राणी के लुप्त होने का असर सब पर पड़ता है। इसलिए ओट्टर पर काम करना मतलब पूरी नदी और इससे जुड़े हुए हर जीव पर काम करना है। और यही समय कि मांग भी है कि हम सब अपने आस-पास के पर्यावरण को समझे और उसके बारे मे सीखे। यह तभी संभव है जब कमरों से बाहर निकलकर प्रकृति कि गोद मे शरण ले और उसके साथ मिलकर जीयें। इसके लिए किसी डिग्री कि जरूरत नहीं है। जरूरत है तो बस इच्छा शक्ति की। 

अपने अंदर प्रेम का भाव जगाने की। आंखे खोलकर देखने की। खुद से और लोगों से सवाल करने की। पर विडम्बना यह है की जीवन के सबसे आवश्यक शिक्षा स्कूल-कॉलेज मे कभी दी ही नहीं जाती है। वहाँ तो बस हमे पैसे कमाने और उपभोग करने की मशीन बनाया जाता है। इसीलिए मैंने तय कर लिया है की मुझे सीखने और काम करने के लिए किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं है। जितना ज्यादा मे काम करूंगा, जितना ज्यादा मैं लोगों और प्रकृति के बीच रहूँगा उतना ही ज्यादा अनुभव प्राप्त करूंगा और उतना ही ज्यादा सीखता जाऊंगा।

Friday, 24 March 2017

दिल्ली के तीन किशोरों ने वायु प्रदूषण को नापने के लिए बनाया ड्रोनकुछ करने के लिए उम्र और तजुर्बे से ज्यादा जज्बे की जरूरत होती है। अगर आपके अंदर किसी काम को करने का जज्बा है तो आपकठिन से कठिन कार्य भी सफलतापूर्वक कर सकते हैं और दूसरों के लिए मिसाल बन सकते हैं।ऐसी ही एक मिसाल संचित मिश्रा, त्रियम्बके जोशी और प्रणव कालरा नेकायम की है। जिन्होंने छोटी-सी उम्र में ही एक ऐसा यंत्र बना डाला है जो पर्यावरण के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है। हालांकि यह यंत्र आमतौर पर सुरक्षा के लिए प्रयोग में लाया जाता है। लेकिन इन तीन दोस्तों का मानना है कि उनका यह ड्रोन नामक यंत्र पर्यावरण की दिशा में काफी उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

इस ड्रोन को बनाने कामुख्य उद्देश्य यही है कि लोग यह जान सकें कि जिस वातावरण में वेसांस ले रहे हैं उसमें कौन सी गैस कितनी मात्रा में मौजूद है। उनका मानना है कि इस उपकरण के प्रयोगसे समाज में पर्यावरण के प्रति लोग सजग व जागरूक होंगे और पर्यावरण का सही संतुलन बनाने की दिशा में सही व प्रभावशाली प्रयास हो सकेंगे।संचित और त्रियम्ब के दोनों मात्र सोलह साल के हैं और प्रणव मात्र पंद्रह साल का है। संचित ने बताया कि वे और त्रियम्ब के एकही स्कूल में पढ़ते थे। जब वे नौवीं कक्षा में थे तो उसी दौरान वे प्रतियोगिता के लिए दूसरे स्कूल में गए।


वहीं उनकी मुलाकात प्रणवसे हुई और तीनों में अच्छी दोस्ती हो गई। तीनों को तकनी की विषयों में काफी रूचि थी। तीनों ही अपनी ज़िंदगी में अपनी पढ़ाई के साथ कुछ नया करना चाहते थे। इस दौरान संचित ड्रोन पर रिसर्च कर रहा था। तभी प्रणव के दिमाग में यह विचार आया कि क्यों न एक ऐसाड्रोन बनाया जाये जो कि पर्यावरण की दिशा में काम कर सके। फिर तीनों दोस्त इस ड्रोन को बनाने की तैयारी में जुट गये। पिछले साल फरवरी में उन्होंने इस काम को करना शुरू किया था और जुलाई2015 तक उनका यह ड्रोन बन कर तैयार हो गया।

लेकिन अभी भी ये तीनों इसे अपग्रेड करने की तैयारी में जुटे हुए हैं।त्रियम्बके ने बताया कि हमारा यह ड्रोन पर्यावरण की सही रीडिंग दे रहा है लेकिन अभी उसरीडिंग को पर्यावरण विशेषज्ञ ही समझ सकते हैं। वे इसे और अपग्रेडकर रहे हैं और इसका सरली करण करके इस प्रकार बना रहे हैं ताकि एक आम इंसान भी इसे समझ सके।साथ ही यह जान सके कि इस समय हमारे वातावरण में कितनी मात्रा में कौन सी गैस मौजूद है। तीनों दोस्तों का दावा है कि उनका यह ड्रोन पर्यावरण में मौजूद सभी गैसों की मात्रा की सटीक जानकारी दे रहा है। लेकिन अभी इनके इस उपकरण को किसी मान्यता प्राप्त संस्था सेमान्यता नहीं मिली है 

लेकिन तीनों अपने इस प्रयास को और अपग्रेड करने के बाद ही इसे संबंधित संस्थाके समक्ष वैद्यता के लिए प्रस्तुत करना चाहते हैं। संचित, त्रियम्बके और प्रणव का मानना है कि बेशक अभी ड्रोन पर बैन है लेकिन वे इसे और अपग्रेड करने के बाद सरकार के समक्ष प्रस्तुत करेंगे और बताएंगे कि उनका यह प्रोजेक्ट सरकार और एक आम इंसान के लिए भी किस प्रकार उपयोगी है। तीनों दोस्तों के लिए ड्रोनको तैयार करना आसान नहीं था, क्योंकि ये तीनों अभी छात्र है और इनके इस प्रोजेक्ट पर काफी खर्च भी आया। इसके अलावा प्रोडक्ट बनानेके लिए इन्हें अपने घर से लगभग दो घंटे का सफर तय करके दिल्ली के नेताजी सुभाष पैलेस, पीतम पुरा में मेकर्स स्पेस में जाना होता था।

यहां सभी मिलकर प्रोडक्ट की डिजाइनिंग से लेकर मेकिंग तक काम करते थे। वहां के बाकी लोगों ने भी इनकी इस काम में बहुत मदद की। प्रोडक्ट बनाते वक्त इस बात काभी खास ख्याल रखा गया कि यह पोर्टेबल और कॉम्पेक्ट हो ताकि एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी सेले जाया जा सके।संचित ने बताया कि अपने ख्वाबों को साकार करना इतनाआसान भी नहीं होता। हमारी तरह और भी कई बच्चे हैं जो कुछ करना चाहते हैं इसलिए सरकार को चाहिएकि वे अधिक से अधिक मेकर्स स्पेस बनाएं ताकि वे बच्चे जो कुछ हटकर सोचते हैं और अपने प्रयोग करना चाहते हैं उन्हें एक मंच मिल सके।

प्रदूषण कम करने की दिशा में अनुभव वाधवा का अनूठा उपक्रम ‘टायरलेसली’

इस दौर में आज बड़े क्या,बच्चे भी अपना नाम रोशन कर रहे हैं। अनुभव वाधवा ऐसे ही एक 16 साल के विद्यार्थी हैं। जिस उम्र में बच्चे अपने करियर के बारे में नहीं सोच पाते उस उम्र में अनुभव ने अपना स्टार्टअप शुरू कर दिया है। अनुभव गुड़गांव में रहते हैं और वह पाथवे वल्र्ड स्कूल अरावली, गुड़गांव में ग्यारवीं कक्षा के छात्र हैं। अनुभव ने अपने काम की शुरूआत 2012 में ‘टेकऐप्टो’ के साथ की और उसकेबाद दिसम्बर 2015 में उन्होंने ‘टायरलेसली’ की नींव रखी और जनवरी 2016 में उन्होंने इसे लाँच कर दिया। 

अनुभव ने टायरलेसली कंपनी शुरू करने के बारे में बताया कि जब एक दिन वह स्कूल से घर वापस आ रहे थे तो उन्होंने सड़क पर पुराने टायरों को बिखरे हुए देखा तो उन्हें बहुत बुरा लगा क्योंकि इससे वातावरण में सल्फरडाइ आक्साइड की मात्रा बढ़ती है,जिससे हवा प्रदूषित होती है। इस घटना के बाद जब वह घर लौटे तोसबसे पहले गूगल पर सर्च किया कि पुराने टायरों को कैसे नष्ट किया जासकता है। लेकिन उस समय वह निराश हो गए जब उन्होंने पाया कि हमारे देश में ऐसा कोई कारगर तरीका नहीं है जिससे टायरों को बिना जलाये नष्ट किया जा सके। तब उसी समय उन्होंने तय किया किइस के लिए कुछ करना बहुत ज़रूरीहै। 


टायरलेसली पुराने टायरों को इक्कठा करके उन्हें अनेक उत्पादों में परिवर्तित करती है। टायरलेसली के मुख्य दो उद्देशय हैं, एक मैटिरीयल रिकवरी औरदूसरा एनर्जी रिकवरी। टायरलेसली को अगर आप पुराने टायर देना चाहते हैं तो कोई भी इनकी वेबसाइट पर जाकर मैसेज छोड़ सकता है। जिसके बाद ये आपकी बताई गई जगह से पुराने टायरों को उठाने काकाम करते हैं। यह सेवा वो फिलहाल दिल्ली और आस पास के क्षेत्रों में दे रहे हैं। अनुभव ने बताया कि जल्द ही वह अपनी सेवा का विस्तार देश के 12 अन्य प्रमुख शहरों में करने वाले हैं। 

पुराने टायरों को इक्ðाकरने के लिए उन्होंने गुड़गांव में एकगोदाम किराय पर लिया है औरउनके पास एक वैन है जोअलग-अलग जगहों से टायरों को करने का काम करती है। अभीटायरलेसली के पास 5 लोगों कास्टाफ है। अनुभव का कहना है कि वो जब लोगों से पुराने टायर लेते हैंतो उसके बदले फिलहाल यह कोई भुगतान तो नहीं करते हैं। लेकिन टायर लाने और ले जाने का काम मुफ्त में करते हैं। खास बात ये है कि चाहे एक टायर हो या सौ टायर हों, ये हर जगह पर अपनी सेवा देते हैं।अब तक पुराने टायरों का इस्तेमाल चीनी उद्योग और इसी तरह के कई दूसरे उद्योगों में काफी इस्तेमाल होता है। जिससे वायु प्रदुषण होता है। टायरलेसली हवा को प्रदूषित किये बिना टायरों को डिसपोज़ कार उनसे तेल, ग्रीस और दूसरे उत्पाद बिना प्रदूषण कियेनिकालती है। 

कंपनी में प्रारंभिक निवेश अनुभव ने अपने पुराने वेंचर के निवेशकों से मिली राशि को लगाकर किया है। कंपनी की भविष्य में होनेवाली आय के बारे में बात करते हुए अनुभव बताते हैं कि वेबसाइट मेंआने वाले विज्ञापन उनकी आय का मुख्य स्त्रोत होंगे। ग्यारवीं कक्षा मेंपढ़ने वाले अनुभव ने यह भी बताया कि किस प्रकार वह पढ़ाई के साथ इस काम के लिए समय निकाल पातेहैं। 

उन्होंने बताया कि दैनिक कामों के लिए उन्होंने अपना समय निर्धारित किया हुआ है और जिस कारण वह पढ़ाई के साथ टायरलेसली के लिए भी काम कर पाते हैं। उनका कहना है कि वो दिन भर पढ़ाई करने के बाद ज्यादातर शाम के समय अपने इस काम पर ध्यान देते हैं। इस तरह ना तो पढ़ाई छूटती है और न ही उनके इस काम पर असर पड़ता है। उनके इस काम में सबसे ज्यादा मदद उनके माता-पिता करते हैं जो नियमित तौर पर अपने काम को लेकर उनका मनोबल बनाये रखते हैं। 

अनुभव के अनुसार उनकीकोशिश है कि वो फरवरी के अंततक कम से कम एक हज़ार बेकार टायर  करें और उनकी योजना अपने इस काम को देश भर में फैलाने की है। टायरलेसली के बारे में अधिक जानकारी पाने के लिए आप उनके फेसबुक पेज https://www.facebook.com/Tyrelessly/ या उनकी वेबसाइ www.tyrelessly.com  पर जा कर जान सकते हैं।

बांदा के होनहार वैज्ञानिक ने अनार और हल्दी से बनाई जैविक एलईडी लाइट

यूपी में बांदा के होनहार युवा वैज्ञानिक डॉ. विक्रम सिंह ने अनार और हल्दी से LED बनाई है।वैज्ञानिक डॉ. विक्रम सिंह का दावा है कि उनकी बनाई अनार और हल्दीकी LED बिजली की 20 फीसदी बचत करेगी। डॉ विक्रम की LED पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाएगी। दाम के मुकाबले में भी यह काफी सस्ती होगी। डॉ विक्रमके मुताबिक मौजूदा LED से यह 60फीसदी सस्ती होगी। बांदा जिले केमर का गांव में किसान शिव सिंह केघर पैदा हुए डॉ. विक्रम सिंह आईआईटी चेन्नई में वैज्ञानिक हैं।उन्होंने हल्दी और अनार केमिश्रण से व्हाइट लाइट एमिशन की खोज की है। डॉ. विक्रम का दावा है कि प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त यहपदार्थ सस्ता व प्रदूषण मुक्त है। हल्दी से कर्कुमिन और अनार से अन्थोस्थनी प्राकृतिक पिगमें ट्सलिया गया है। इसी के जरिए स्म्क्लाइट बनाई गई है। उन्होंने हल्दी और अनार के मिश्रण से व्हाइटलाइट एमिशन की खोज की है।


यह पदार्थ एलईडी बल्ब, डाइलेजर औरइंडीकेटर्स बनाने में इस्तेमाल हो सकेगा। इससे निकलने वाली रोशनी दूधिया होगी। देश में जो LED इस्तेमाल हो रही हैं, उनके मैटेरियल में लेंथनाइड काफी मात्रा में होते हैं।यह पर्यावरण के लिए नुकसान देह हैं। लेंथनाइड महंगा भी है, जबकि डॉ. विक्रम के नए शोध के मुताबिक अनार और हल्दी की स्म्क् काफी सस्ती और पर्यावरण के अनुकूल होगी।38 वर्षीय विक्रम सिंह ने बताया कि उनके पिता जी किसान थे, घर में पैसे की दिक्कत थी, जिसके चलते उनकी शुरूआत की पढ़ाई गांव के प्राथमिक सरकारी स्कूल में ही हुई।

10वीं और 12वीं उन्होंने बबेरू के राजलला इंटर काॅलेज से की।इसके बाद वह बांदा आ गये और झांसी विश्वविद्यालय से बीएससी उत्तीर्ण करने के उपरान्त वह कानपुर आ गये और आई आई टी की तैयारी करने लगे। तब उनका कानपुर आई आई टी में दाखिला हो गया। वह कई अन्य चीज़ों पर शोधकर रहे थे। तभी उनके मन में पर्यावरण को बचाने का विचार आया और वह बिजली के साथ पर्यावरण को बचाने की मुहिम में लग गए, जिसमें उन्हें कामयाबी भी मिल गई।डॉ. विक्रम की इसखोज/शोध को इंग्लैंड के शोधपत्रनेचर जरनल की ‘साइंटिफिक रिपोर्ट’ में प्रकाशित किया गया है।पिछले वर्ष सितंबर में जर्मन में आयोजित कांफ्रेंस में वैज्ञानिकों ने उनके शोध की प्रशंसा की। डॉ.विक्रम इस दिशा में अब भी काम कर रहे हैं। अगर डॉ विक्रम की इस खोज को देश में अपनाया गया तोय कीनन बिजली की काफी बचत होगी। साथ ही इससे पर्यावरण को हो रहे नुकसान से भी बचाया जा सकता है। डॉ विक्रम अपने इस शोधको फिलहाल पेटेंट कराने की सोच रहे हैं।

खुद थके तो बनाई पैरों से पन्ने पलटने वाली मशीन

नवप्रवर्तन की परिभाषा ही रचनात्मकता के साथ कुछ अलग कर गुज़रने का जुनून है। असम के रहने वाले स्वपनिल तालुकदार ने एक व्हीलचेयर बना कर अलग ढंगसे विकलांग लोगों की मदद की है।गुवाहाटी, असम के युवा और भावुक प्रवर्तक स्वपनिल तालुकदार नेशारीरिक रूप से अक्षम लोगों केलिए एक ऐसी मशीन विकसित की है जो किताबों और अखबारों के पन्नों को पलट सकती है। स्वपनिलने दिव्यांगों के लिए किताब के पन्ने पलटने वाली मशीन बनाई है, जिसे लेकर उनका चयन स्काॅलर इनरेज़ीडेंस प्रोग्राम के लिये किया गयाव उन्हें एक हफ्ते तक राष्ट्रपति भवन में रहने का मौका भी मिला।

19 वर्षीय बी.टेक फस्र्ट इय रके स्वपनिल तालुकदार बताते हैं कि कई बार स्कूल कोचिंग से पढ़कर घर लौटते तो इतना थक जाते कि पढ़ाई के दौरान उनका मन किताब के पन्ने पलटने का भी नहीं करता।एक दिन उनके दिमाग में सवाल आया कि जिनके हाथ नहीं होते वे पेज कैसे पलटते होंगे? विज्ञान में तरह तरह के प्रयोग करने के शौकीन स्वपनिल नेतय किया कि वे ऐसे लोगों की मदद के लिए एक मशीन बनाएंगे जिससे पेज पलटने के लिए हाथों की ज़रूरत ही पड़े और वह पैरों सेचल सके।



उन्होंने 2014 में ऐसी मशीन तैयार की। उनके इस आविष्कार के लिए उन्हें उसी वर्ष नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन कीइग्नाइट प्रतियोगिता में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने सम्मानित किया। फिलहाल इनोवेशन फाउंडेशन मैनुअली काम करने वाली इस मशीन को आॅटोमेटिक बनाकर बेहतर करने के प्रयास कर रहा है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले स्वपनिल बड़े होकर प्रोफेसर बनना चाहते हैं। वेडांस और ड्राॅइंग के भी शौकीन है।

स्वपनिल की माँ निर्मलीता लुक दार ने बताया कि वह नहीं जानती थीं कि उनका बेटा इतनी आगे तक जायेगा और इतना अच्छा काम करेगा। उनकी माँ को उन परगर्व है। उनकी माँ ने कहा कि वेस भी माता-पिता से यह अनुरोध करना चाहती हैं कि वे अपने बच्चों को हर एक अच्छे काम में उनका सहयोग दें। माता-पिता को बच्चों का पूरा सहयोग देना चाहिए और उनके काम के प्रति जुनून को बढ़ावा देना चाहिए, फिर चाहे वह काम किसी क्षेत्र से संबंधित हो जैसे खेल,संगीत या नृत्य।

दिव्यांक विमल किशोर ने बनाई 90 हज़ार रूपये में अनोखी कार लैलो

हुनर किसी का मोहताज नहीं होता और इलाहाबाद के मालक राज इलाके के निवासी विमल किशोर ने यह बात सचसाबित कर दी है। एक पैर से विकलांग विमल ने एक अनोखी दो सीटर कार बनाई है। विमल छोटी सी काॅफी की दुकान चलाते हैं। उन्होंने एक स्कूटी पर डिज़ाइन कर इसे छोटी कार की शक्ल दी हैं इसमें दो लोगों के बैठने की सुविधा है। विमल ने बताया कि विकलांग और बुजुर्गों को ध्यान में रख कर इस कार को बनाया गया है जिसका नाम ‘लैलो’ है। इस कार में म्यूजिक सिस्टम और हूटर भी लगा है, जो बैटरी से संचालित होता है और इसकी बैटरी सोलर सिस्टम से चार्ज होती है। यह कार सेल्फ स्टार्ट है। यह कार तीन महीने में बनकर तैयार हुई है।

विकलांगों की सहायता करना है मकसद :
विमल किशोर बताते हैं कि इस छोटी सी कार को बनाने का मकसद दिव्यांग लोगों की मदद करना है। कार चलाने में एक्सीलरेटर ब्रेक आदि में दिक्कत होने के मद्देनज़र उन्हें यह विचार आया कि क्यों न ऐसी कार बनाई जाये जिसे दिव्यांग और बुर्ज़ुर्ग आसानी से चला सकें और वह कार को कहीं भी आसानी से पार्क कर सकें। विमल किशोर जब अपनी इस छोटी सी कार को लेकर सड़कों पर निकलते हैं, तो देखने वालों की भीड़ लग जाती है। हर कोई बस इसे देखता ही रहता है और इस छोटी सी कार की तस्वीर लेनेको बेताब रहता है। इतना ही नहीं जब लोगों को इस कार के बारे में जानकारी होती है तो वे इनके जज़्बे को सलाम भी करते हैं।