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Wednesday 12 April 2017

17 साल की लड़की ज़रूरतमंदों को दिखा रही है ‘‘दुनिया’’

पुराने चश्मों को इकट्ठा कर पहुंचाती हैं गरीबों तककई एनजीओ के सहयोग से करती हैं यह नेक कामअबतक 1500 से अधिक लोगों की कर चुकी है मददअभियान को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली स्वीकार्यता

दृष्टि को ‘देखने की क्षमता और अवस्था’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है लेकिन इस शब्द के मूल अर्थ का मतलब सिर्फ इतना ही नहीं है। दूसरों की सहायता करने का मतलब सिर्फ जरूरतमंदों को खाना-पीना देने या कपड़े देने या उनके लिये शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना ही नहीं है। अगर आपके अंदर दूसरों की सहायता करने की दूरदृष्टि है तो आप राहों में आने वाली तमाम परेशानियों को पार करके समाज के लिये कुछ कर सकते हैं। 17 वर्ष की आरुषि गुप्ता इस बात का एक जीता-जागता उदाहरण हैं।



आरुषि दिल्ली के बाराखम्बा रोड स्थित माॅडर्न स्कूल में इंटर की पढ़ाई कर रही हैं। वर्ष 2009 में आरुषि ने आँखों की समस्याओं से जूझ रहे लोगों की मदद करने की ठानी और अपने स्तर पर इस दिशा में एक ‘‘स्पेक्टेक्यूलर अभियान’’ की शुरुआत की। इस अभियान के तहत आरुषि ने लोगों के ऐसे चश्मों को इकट्ठा करना शुरू किया जिन्हें लोग पुराना हो जाने पर इस्तेमाल नहीं करते और फेंक देते हैं। आरुषि ऐसे चश्मों को जमाकर हेल्प ऐज इंडिया, जनसेवा फाउंडेशन और गूंज जैसे एनजीओ तक पहुंचा देती जहां से इन्हें जरूरतमंदो तक पहुंचाया जाता।

आरुषि बताती हैं कि इस तरह का विचार सबसे पहले उनके मन में 10 साल की उम्र में आया था। तब उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उनका पुराना चश्मा किसी गरीब के काम आ सकता है ओर उसे किसी जरूरतमंद को दिया जा सकता है। थोड़ा बड़ा होने पर उन्होंने इस बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया तो उन्हें समझ आया कि यह मुद्दा उनकी सोच से कहीं बड़ा है। प्रारंभ में उनकी कम उम्र उनके आड़े आई लेकिन धुन की पक्की आरुषि ने भी हार नहीं मानी और समय के साथ दूसरों की सहायता करने का उनका सपना सच होता गया।

वर्तमान समय में हमारे देश में करीब 15 करोड़ ऐसे लोग हैं जिन्हें दृष्टिदोष की दिक्कत के चलते चश्मे की आवश्यकता है लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वे उसे खरीद नहीं पाते हैं। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत आरुषि अड़ोस-पड़ोस, चश्मों की दुकानों, विभिन्न संस्थानों और अपने परिचितों के यहां से पुराने चश्मे इकट्ठे करके विभिन्न एनजीओ तक पहुंचाती हैं। इसके अलावा वे विभिन्न सामाजिक संस्थानों की मदद से विभिन्न इलाकों में आँखों के मुफ्त कैंप लगवाने के अलावा मोतियाबिंद के आॅपरेशन करवाने के कैंप का आयोजन भी करवाती हैं।

अबतक के सफर में उनके माता-पिता ने उनका पूरा सहयोग दिया है और अपने स्तर पर उनकी हर संभव मदद की है। यहां तक कि उनके स्कूल ने भी अबतक उनके इस नेक काम में हर संभव सहायता की है। चहुंओर मिली मदद के बावजूद आरुषि का सफर इतना आसान भी नहीं रहा है। दूसरों को अपने इस विचार के बारे में समझाना उनके लिये सबसे बड़ी चुनौती रहा। आरुषि बताती हैं कि प्रारंभ में कई बार लोगों से कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर उन्हें बहुत निराशा होती थी।

आरुषि सार्वजनिक स्थानों पर ड्राॅपबाॅक्स रख देती हैं जिनमें लोग अपने पुराने चश्मे डाल सकते हैं। अपने इस अभियान को अधिक से लोगों तक पहुंचाने के लिये आरुषि रोजाना कई लोगों से मिलती हैं और उन्हें अपने इस काम के बारे में जैसे भी संभव हो समझाने का प्रयास करती हैं। इसके अलावा वे और भी कई तरह के प्रयास कर अधिक से अधिक लोगों को अपने पुराने चश्में दान करने के लिये प्रेरित करती हैं।

आरुषि द्वारा अब किये किये गए प्रयास व्यर्थ नहीं गए हैं और तकरीबन 1500 से अधिक लोग उनके इस अभियान से लाभान्वित हो चुके हैं। आरुषि कहती हैं कि ‘‘दान करने की कोई कीमत नहीं है लेकिन इससे आप कई लोगों का आभार कमा सकते हैं।’’

आखिरकार आरुषि के इस प्रयास को उस समय स्वीकार्यता और सम्मान मिला जब उन्हें इस अभियान के लिये चैथे सालाना ‘‘पैरामेरिका स्प्रिट आॅफ कम्यूनिटी अवार्डस’’ के फाइनलिस्ट के रूप में चुना गया। आरुषि कहती हैं कि इस अभियान को लोगों से मिलती प्रशंसा और सराहना से उन्हें लगातार आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती हैै।

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