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Friday 24 March 2017

जलकुंभी से रोजगार सृजन की तकनीक हुई विकसित |

पंचकुला के डॉ. मनील ग्रोवर का शोध :
जलकुंभी एक बीजपत्री(monocotyledon)  बड़े आकार केनीले फूलों वाला जलीय पौधा है।जल की सतह पर तैरने वाले इसपौधे की प्रत्येक पत्ती का वृन्त फूलाहुआ एवं स्पंजी होता है। इसमें पर्वसन्धियों (internodes) से झुण्डमें रेशेदार जड़े लगी रहती हैं। इनकातना खोखला और छिद्रदार होता है।इसके फूलों को मंजरी कहते हैं। यहदुनिया का सबसे तेज़ बढ़ने वालेपौधों में से एक है। यह अपनी संख्याको दो सप्ताह में ही दोगुना करने कीक्षमता रखता हैं और बहुत अधिकसंख्या में बीज उत्पन्न करता है।जलकुंभी के बीजों में अंकुरण कीक्षमता 30 वर्षों तक होती है। इसकेसाथ ही जलकुंभी पानी की ऊपरीसतह पर कब्जा करने के चलतेसूरज की किरणें पानी तक नहींपहुँच पाती, जिससे पानी दूषित होताहै और आक्सीजन की मात्रा कम होजाती है। इसके कारण अन्य जलीयवनस्पतियों का विकास भी नहीं हो पाता और पारिस्थितिकी संतुलन(Ecological Balance)पर विपरीत प्रभाव पड़ते हैं। 


जलकुंभी की इस समस्या से निजात पाने के लिए सरकार अन्य कई लोगों ने अनेकों  प्रयास किये हैं। पर्यावरण का संरक्षण करने के लिए पंजाब में संत बलबीर सिंह सींचेवाल जी ने भी तालाबों, नदियों नहरों को पुनर्जीवित करने के लिए अनेक प्रयास किये हैं। संत सिंचेवाल जी के इस महान कार्य की प्रशंसा करने वालों की कोई कमी नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. .पी.जे. अब्दुल कलामने भी उन्हें फरवरी 2006 में राष्ट्रपतिभवन में बुलाकर सम्मानित किया था। पंचकूला सैक्टर 10 में रहने वाले दंत चिकित्सक डॉ. मनील ग्रोवर ने स्थानीय कारीगरों द्वारागांववासियों को ऐसे हस्तशिल्पतैयार करने का प्रशिक्षण दिलवाया है जिससे तलाबों नदियों को जलकुंभी नामक पौधे से मुक्त भी किया जा सकता है उस जलकुंभी को घरेलू सामान बनाने के लिए प्रयोग भी किया जा सकता है।

परिचय
डॉ. मनील ग्रोवर जी का जन्म पंजाब के संगरूर जिले में 27अप्रैल, 1974 में हुआ। उनके पिता स्वर्गीय श्री धर्म सिंह ग्रोवर जो एकबाल विशेषज्ञ थे तथा माता श्री मति जीवन आशा ग्रोवर आयुर्वेदिक डाक्टर हैं। डॉ. मीनल ग्रोवर वइनकी धर्म पत्नी की समाज के विकास के लिए कुछ अलग करने की चाह रही है। इनके दोनों बच्चे मानस एवं मानित स्थानीय स्कूल से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।

उन्होंने सन् 2003 में अपने पिता जी के नाम पर ही एस डी एसजी फाउण्डेशन के नाम से एक गैर सरकारी संस्था की स्थापना पंजाबके जिला मोहाली की तहसी लडेराबस्सी में की, जिसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक विकास करना है। एसडीएसजी फाउण्डेशन समाज के सभीसमुदायिक, गैर सरकारी संगठनों,सरकारी और निजी संस्थानोंबहुपक्षीय द्विपक्षीय एजेन्सियों के साथ आपसी सहयोग और शिक्षा के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करना है। इनकी इस फाउंडेशन का मुख्य केन्द्र शिक्षा,स्वास्थय, पर्यावरण और वन,स्वास्थय आजीविका और महिला एवं बाल विकास आदि हैं।

डॉ. मनील ग्रोवर जी ने बताया कि सन् 2007-08 के करीब जब वे वन विभाग और पंजाब राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के साथ एक प्रोजैक्ट कर रहे थे। वेजानते थे कि मनील ग्रोवर जी एक अभिनव संस्था चलाते हैं और पर्यावरण समाज के विकास संबंधित कार्य करते हैं। तब वन विभाग ने उन्हें जल कुंभी का सफाया करने का हल निकालने का प्रस्ताव दिया तो डॉ. मनील ग्रोवर जी ने उसे स्वीकार किया और डेराबस्सी केपास शैदपुरा गांव के लोगों के साथ मिलकर जलकुंभी की बूटी को ढ़ूँढा और वन विभाग की मदद सेजल कुंभी को तालाबों से निकाल कर,सूखाकर उसके हस्तशिल्प तैयार करवाये।

तब उनकी गैर सरकारी संस्था एसडीएस जी ने पंजाब वन विभाग की मदद से एक अभिनव तरीका खोजा जिससे जल कुंभी की समस्या से निजात पाया जा सकताहै। वैटलैंड्स के इकोलॉजिकल बैलेंस को गड़बडाने वाली वाटर हायसिंथ  यानि जलकुंभी को खत्म करने के साथ-साथ उन्होंने इस जलकुंभी का सदुपयोग भी किया। तब उन्होंने शैदुपुरा के बाशिंदों को समझाया कि किस प्रकार वे इस जलकुंभी सेघरेलू सामान तैयार कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि उनके इस समूह में 30 से ज्यादा लोग शामिल थे जिनमें कुछ कारीगर भी थे जो गांववालों को जलकुंभी से बनने वाली वस्तुओं को तैयार करने की ट्रेनिंग देते थे।

जलकुंभी से घरेलू सामान बनाने की प्रक्रिया :
सबसे पहले तो जलकुंभी को नदियों, तालाबों आदि जगह से मशीन दांती द्वारा काटा जाता है और परिवहन के ज़रिए इसे संसाधन केन्द्र तक पहुंचाया जाता है। फिर जलकुंभी के पौधों की कटाई व छटाई की जाती है। फिर जलकुंभी के वृन्तों को धूप में सूखाने के बाद उसके सूखे हुए वृन्तों के भाग को बंडलों में बांध कर कार्य स्थल पर भेजा जाता है। तब कारीगर जलकुंभी के वृन्त और खादी के धागे के प्रयोग से ताना-बाना वालीप्रक्रिया का इस्तेमाल करके हस्तशिल्प जैसे पायदान, बैग,फाइल फोल्डर पर्स, आदि वस्तुएंबनाते हैं। इस प्रकार एसडीएसजी फांउडेशन के पदाधिकारी डॉ. मीनल ग्रोवर ने जलकुंभी के विपरीत प्रभावोंको ध्यान में रखते हुए शैदुपुरा गांवके बाशिंदों को इससे निजात पाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया और साथ ही जलकुंभी से घरेलू उपयोगकी चीज़े बनाने की पहल भी की। डॉ. ग्रोवर के मुताबिक फाउंडेशन कीतरफ से गांववासियों को समझाया गया कि जलकुंभी से सफाई और कमाई दोनों की जा सकती है। 


आगे की राह :
डॉ. मनील अपने अनुभव वतकनीक को ऐसे व्यक्तियों एवं संस्थाओं के साथ साझा कर सकतेहैं जो जलकुंभी आधारित संसाधनसयंत्र लगाने के इच्छुक हों। डॉमीनलएवं एस डी एस जी फांऊडेशन जलकुंभी को संसाधितकरके बनाये गये सामान कीआनलाईन मार्केटिंग एवं सप्लाई हेतुमार्गदर्शन भी कर सकते हैं। इच्छुकव्यक्ति एवं संस्थान डॉ. मीनल ग्रोवरसे निम्नलिखित पते पर सम्पर्क करसकते हैं।पता : रु 162 सैक्टर 10 पंचकूला,हरियाणा, भारत, मोबाइल नंबर :9815969444 , 9872809444

‘‘उत्तराखण्ड ने दिया विचार सृजन करो राष्ट्रीय जैव विविधता पुरस्कार‘‘

राष्ट्रीय जैव विविधता बोर्ड के अनुमान के अनुसार भारत में विश्व के 8 प्रतिशत पौधों और जानवरों की प्रजातियाँ दर्ज की जा चुकी हैं तथा भारत में 45,000 पौधों और 91,000 जानवरों की प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत की समृद्ध विरासत को संरक्षित करने के लिये देश भर में लोगों, समुदायों और सरकारों द्वारा उत्कृष्ट और अभिनव भूमिकायें निभाई गई हैं। इतना ही नहीं अब उत्तराखंड के जैव विविधता बोर्ड के चेयरमैन राकेश शाह द्वारा सुझाव देने पर केन्द्र सरकार अगले वर्ष से जैव विविधता के संरक्षण में सहायता करने वालों को विशेष पुरस्कार से सम्मानित करेगी। यह जैव विविधता का तीसरा आवॉर्ड होगा। जैव विविधता का प्रथम आवॉर्ड सन् 2012 में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा घोषित किया गया तथा दूसरा जैव विविधता पुरस्कार मई 2014 में घोषित किया गया। भारत के तीसरे जैव विविधता पुरस्कार 2016 के आवेदन पत्र की घोषणा पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा की गई है। 

पुरस्कार का प्रारूप उत्तराखंड के जैव विविधता बोर्ड के चेयरमैन राकेश शाह द्वारा तय किया गया तथा उन्होंने जैव विविधता पुरस्कार 2016 को चार श्रेणियों में विभाजित किया है। पुरस्कार के लिए नामांकन की अंतिम तिथि 24 अक्टूबर 2015 तय की गई तथा आवेदन पत्र जमा करने की अंतिम तिथि 29 नवंबर 2015 है। पुरस्कार की प्रत्येक श्रेणी के लिए 10 श्रेष्ठ संरक्षणकर्ता का चयन कमेटी द्वारा किया जायेगा। फिर आगे प्रत्येक श्रेणी में से सर्वोत्तम 3 आवेदकों का चयन अंको के आधार पर किया जायेगा और अंत में तकनीकी कमेटी द्वारा फाइनल पुरस्कार के लिए प्रत्येक श्रेणी का विजेता और रनर अप चुना जाएगा। प्रत्येक श्रेणी में प्रथम आने वाले को 1 लाख रूपये और रनर अप को 50,000 रूपये राशि का इनाम दिया जायेगा। जैव विविधता ऑवार्ड 2016 की चार श्रेणियाँ जैव विविधता अधिनियम 2002, से बनाई गई हैं :

1. संकटग्रस्त प्रजाति का संरक्षण : 
व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा किये गये संरक्षण प्रयास जैसे कम जोखिम वाले जंगली और पालतू प्रजातियों के लिए प्रबंधन का कार्य करना, जिसके परिणामस्वरूप उनके खतरे का स्तर कम हुआ है तथा उनकी संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। तो वे प्रथम श्रेणी का पुरस्कार पाने के लिए योग्य है। प्रथम श्रेणी के अंतर्गत सरकारी व गैर-सरकारी व्यक्ति, संस्था या संगठन द्वारा पिछले पांच वर्षों से संकटग्रस्त पौधों और जानवरों की प्रजातियों को संरक्षित करने का काम अगर किया जाता है तथा प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ के लाल पंक्ति में आने वाली प्रजातियां तथा जैविक विविधता अधिनियम 2002 के अंतर्गत सैक्शन 38 के तहत आने वाली प्रजातियां व इसमें पौधों और जानवरों की घरेलू प्रजातियां भी शामिल होंगी जो भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण और भारतीय प्राणी सर्वेक्षण द्वारा स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर संकटग्रस्त प्रमाणित की गई है। 

जैविक संसाधनों के सतत/धारणीय उपयोग : 
किसी व्यक्ति, संगठन या संस्था द्वारा किये गये ऐसे प्रयास जिनका परिणाम जैविक संसाधनों की स्थिरता हो और उनके सर्वोत्तम प्रथाओं के लिए सतत उपयोग, कमज़ोर वर्गों के समुदायों के सश्क्तिकरण को एकीकृत करने में सहायक हो। पुरस्कार की दूसरी श्रेणी के लिए भी कोई भी सरकारी, गैर-सरकारी संस्था, संगठन या व्यक्ति यदि पिछले पांच वर्षों से जैविक संसाधनों का सतत उपयोग कर रहा है तो वह आवार्ड के चयन के लिए योग्य है। 

3. उपयोग और लाभ बंटवारे के लिए सफल तंत्र : 
किसी व्यक्ति, संगठन या संस्था द्वारा किये गये ऐसे प्रयास जिनसे कोई तंत्र/मॉडल विकसित हो जिनका परिणाम मौद्रिक व गैर-मौद्रिक रूप से जैव संसाधनों और पारंपरिक ज्ञान से जुड़ी प्रथाओं के उपयोग से उत्पन्न होता है और उससे सभी को समान लाभ प्रदान हो, तो वह तीसरी श्रेणी का पुरस्कार पाने के लिए योग्य है। 

4. जैव विविधता प्रबंधन समितियां : 
ऐसे प्रयास जो संरक्षण और टिकाऊ उपयोग के लिए सर्वोत्तम प्रथाओं की स्थापना करें जिनके द्वारा जैविक संसाधन के रूप में पारंपरिक ज्ञान एकीकृत हो सके, जागरूकता पैदा हो सके और लाभ का बंटवारा भी सुनिश्चित हो सके, ऐसे प्रयास करने वालों को चौथी श्रेणी में रखा गया है। पुरस्कार की चौथी श्रेणी के लिए केवल जैविक प्रबंधन समितियां ही शामिल है। जैव विविधता अधिनियम 2002 और नियम 2004 के अंतर्गत समितियों द्वारा जिम्मेदारियां निभाई जायें तो वे चौथी श्रेणी में शामिल किये जा सकते हैं। उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड के चेयरमैन राकेश जी कहना है कि मानव की भलाई जैव विविधता पर निर्भर करती है क्योंकि भारत में संरक्षण की एक लंबी और गहरी जड़ें लोकाचार है। अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क करें Uttarakhand Biodiversity Board 108/Phase-II, Vasant Vihar, Dehra Dun, Uttarakhand, India-248001, Phone: 0135-2769886, website link - http://sbb.uk.gov.in/

सेमल की रूई के तकिये से सिर दर्द का इलाज

श्री अवतार सिंह, चन्दन चैकी, जिला लखीमपुर खीरी, उत्तरप्रदेश ने बताया कि सेमल(सालमालिया मालबारिका) के भिन्ड़े की रूई से तकिया बनाकर वे सदैव तैयार रखते हैं । जब किसी को सिर में दर्द की शिकायत होती है तो यह तकिया सिर के नीचे लगा कर लेटने को कहा जाता है । 


श्री अवतार सिंह जी के अनुसार यह तकनीक उन्होंने अपने बुर्जुगों से सीखी थी। कई बार ये इस तकनीक का सफल प्रदर्शन कर चुके हैं । इस तकिये की विशेषता यह है कि जब तकिया की रूई पिचक जाये तो तकिये को धूप में रखने से रूई दोबारा फैल जाती है और तकिया फिर से पहले जैसा हो जाता है । इस तकिये का प्रयोग अवतार सिंह पिछले 40 वर्षा  से कर रहे हैं । 


सेमल के पेड़ पर जनवरी के महीने में गहरे लाल रंग का फूल आता है जिसकी बहुत स्वादिष्ट सब्जी बनती है और फूल के गोभ में से सफेद रंग का रेशा निकलता है जो कपास के जैसा होता है। अवतार सिंह सर्दियों के महीने में सेमल की रूई इक्कठी करके हर वर्ष कुछ तकिये बनाते हैं

वेंकटरमण का अनूठा प्रयोग

 आर्थिक असमानता के दौर से गुज़र रहे हमारे समाज में आज सरकार के अलावा कुछ और लोग भी हैं जो अपने स्तर पर कुछ बदलने का अभिनव प्रयास कर रहे हैं । तमिलनाडू से 500 किलोमीटर दूर इरोड में सरकारी अस्पताल के पास मेस चलाने वाले वेंकटरमण हर रोज़ 70 लोगों को 1 रूपये में भोजन कराते हैं । उनका यह मेस सन् 1995 से चल रहा है । 

सन् 2007 में एक दिन की बात है जब सरकारी अस्पताल से एक बज़ुर्ग महिला अपने बीमार पति के लिए 10 रूपये की इडली खरीदने आई, लेकिन इडलियां खत्म हो चुकी थी तब वेंकटरमण ने उन्हें सुझाव दिया कि वह 10 रूपये में तीन डोसा ले जाये, परन्तु बुज़ुर्ग महिला ने कहा कि यह खरीदना उसके लिए महंगा है और 10 रूपये के डोसों में उसके पति का पेट भी नहीं भर पायेगा तथा उसके पास केवल 10 ही रूपये हैं । तब वेंकट जी ने उस महिला को 10 रूपये में ही तीन डोसों की बजाय 6 डोसे दे दिये । इस छोटी सी घटना से उनके कोमल हृदय में गरीब मरीजों के लिए संवेदना उत्पन्न हुई और उन्होंने इस विषय में सोचना शुरू किया । 

अपनी पत्नी से विचार विर्मशः करके अपनी मेस पर गरीब लोगों को एक रूपया की दर से भोजन उपलब्ध कराने का कार्य प्रारंभ किया। अपनी इस योजना में सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों  को भी शामिल कर लिया। शुरूआत में दस मरीजों को प्रति दिन एक रूपये की दर से भोजन कराने का लक्ष्य रखा गया। वेंकटरमण अपनी इस योजना के कारण शुरू में घाटे को लेकर आशंकित थे लेकिन जल्द ही उन्हें यह अहसास हो गया कि  इस योजना के कारण उनकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई है और उनके मुनाफे पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। समय बीतने के साथ उनका व्यापार और अधिक बढ़ गया और आज लगभग 70 गरीब मरीज उनकी मेस पर रोज़ाना एक रूपये में भोजन करते हैं । 

डॉलर के मुकाबले रूपया घटे या बढ़े इससे वेंकटरमण की योजना पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वेंकटरमण परिवार ने आने वाले दिनों में अपनी इस योजना में 100 गरीब मरीजों को शामिल करने का लक्ष्य रखा है । उन्होंने बताया कि वह ज्यादा अमीर आदमी तो नहीं है लेकिन वे कुछ गरीब लोगों को कम राशि में भर पेट खाना खिलाने में सक्षम ज़रूर हैं तथा अन्य लोग जो पूरे पैसे देकर खाना खरीद सकते हैं उनसे वह भोजन का पूरा भुगतान लेते हैं । जिससे वे अपनी मेस को आर्थिक घाटे से सुरक्षित रख सकें। वह गरीबों से भोजन का एक रूपया केवल इस लिए लेते हैं ताकि उन्हें यह महसूस न हो कि वे फ्री में भोजन खा रहे हैं और उनका स्वाभिमान और उत्साह भी बना रहे । अब उन्होंने मेस के अलावा सुबह-शाम टिफिन सर्विस भी शुरू कर दी है जिससे उनका व्यापार तरक्की कर रहा है । उनकी दो बेटियां हैं, बड़ी बेटी की शादी हो चुकी है तथा छोटी बेटी इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही है । 

हरियाणा के करनाल जिले के गांव ब्रास के 62 वर्षीय, किसान सुरजीत सिंह ने विकसित की धान की नई किस्म "सुरजीत बासमती – 1"

भारतवर्ष में सदियों से बोई जाने वाली बासमती धान की प्रमुख किस्म है , जो सुगन्धित , लम्बे एवं मुलायम चावलों के कारण विश्व में सबसे अधिक पसंद की जाती है | सांस्कृतिक विनिमय के कारण बासमती केवल भारत और पाकिस्तान की भोजन-शैली में ही महत्व नहीं रखती बल्कि अब यह पार्शियाई , अरब और मध्य – पूर्वी देशों में भी बड़े पैमाने पर पसंद की जाती है | भारत और पाकिस्तान बासमती चावल की इस किस्म के एकमात्र उत्पादक व निर्यातक है |

भारत में हरियाणा , पंजाब , मध्यप्रदेश , राजस्थान , हिमाचल , जम्मू – कश्मीर , उत्तरप्रदेश , बिहार , व उत्तराखंड मुख्य रूप से बासमती चावल के उत्पादक क्षेत्र हैं | वैसे तो भारत में बासमती की अनेक किस्में पाई जाती हैं लेकिन बासमती – 370, बासमती –385 और बासमती रणबीर सिंह पुरा (R.S.Pura) भारत की परंपरागत किस्में हैं |

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, दिल्ली , के वैज्ञानिकों ने अनुवांशिक रूप से बासमती किस्म में बदलाव किये जिसमें संकरित और बौने पौधे उगते हैं , लेकिन विशेष रूप से इस किस्म के गुण पारम्परिक हैं | बासमती की इस किस्म को पूसा बासमती –1 कहा जाता है | इस किस्म की तुलना में पारंपरिक किस्म का उत्पादन कम है | इसलिए यह किस्म किसानों की लोकप्रियता को हासिल किये हुए है |

इतनी प्रसिद्ध होने के बावजूद भी पूसा बासमती -1 किस्म रोग अवरोधी नहीं है | कृषि वैज्ञानिकों ने समय – समय पर बासमती किस्मों को रोग रहित करने के लिए संशोधन किये हैं , लेकिन फिर भी अभी तक बासमती की कोई किस्म ऐसी नहीं है जो रोग मुक्त हो | 

इसी प्रकार की काफी किस्में हमें देखने को मिल सकती हैं जिन्हें किसी वैज्ञानिक या किसी कृषि अनुसंधान संस्थान ने तैयार किया है | लेकिन क्या आप सोच सकते हैं कि एक किसान भी कोई नयी किस्म की उत्त्पत्ति कर सकता है ? जी हाँ यह बिल्कुल संभव है ! क्योंकि एक किसान सुरजीत सिंह ने बासमती की एक ऐसी किस्म विकसित की है जो रोग रहित है |


हरियाणा के करनाल जिले के गांव ब्रास में रहने वाले 62 वर्षीय, किसान सुरजीत सिंह ने धान की पूसा – 1460 किस्म से एक नई किस्म विकसित की है , जिसका नाम उन्होंने सुरजीत बासमती – 1 रखा है | यह किस्म अधिक उपज देने वाली, खारी भूमि पर भी उगने वाली व लम्बे आकार के सुगन्धित व मुलायम दानों वाली किस्म है |

सुरजीत सिंह के जिले में उनको उच्च गुणवत्ता वाली खुशबूदार बासमती बोये जाने के लिए जाना जाता है | पिछले 40 सालों से वे 18 एकड़ की खेती कर रहें हैं , जिसमें उनकी पत्नी प्रकाश कौर व उनके दोनों बेटे परमिंदर सिंह और गुरलाल सिंह भी उनका सहयोग देते हैं | उनका परिवार खेती के लिए आधुनिक उपकरणों का प्रयोग करता है |

यही नहीं सरकारी सब्सिडी की सहायता से उन्होंने ‘बायो गैस प्लांट’ लगाया है जो रोजाना उनके रसोई घर की जरूरत को पूरा करता है | इनकी रुचि केवल खेती-बाड़ी में ही नहीं है बल्कि इन्होने कई सालों तक मछलीपालन भी किया है , लेकिन पिछले 2 – 3 सालों से ये मछलीपालन नहीं करते | इससे यह पता लगता है की सुरजीत सिंह एक अभिनव किसान है | 

सुरजीत बासमती – 1 किस्म की उत्पत्ति :-

सुरजीत सिंह अपने खेतों में गेहूं , सरसों , धान , मटर , मिर्च , आलू , व टमाटर की खेती करते हैं | सन् 2008, में उन्होंने 25 एकड़ में पूसा – 1460 बासमती को अपने खेतों में लगाया था | लेकिन सभी पौधे शीथब्लाईट रोग से प्रभावित होने के कारण उनकी फसल नष्ट हो गयी | केवल एक ही पौधा ऐसा था जो इस रोग से प्रभावित नहीं था, तब उन्होंने इस एक पौधे की मदद से एक नर्सरी तैयार की और इस नर्सरी से तैयार फसल की कटाई करते समय 225 पौधों का चयन उनकी लम्बाई , कल्लों की संख्या व बकानी रोग रहित होने के आधार पर किया |

अगले 2 वर्षों तक उन्होंने इसी प्रकार पौधों का चयन किया और धीरे – धीरे बकाने रोग के लक्षण कम होते गए | यह अक्सर देखा गया है की बकाने रोग बासमती चावल का मुख्य रोग है जिससे किसान हमेशा परेशान होता है क्योंकि यह रोग होने पर फसल पूरी तरह से नष्ट हो जाती है | 

फिर उन्होंने यह किस्म आगे 10 किसानों को बांटी और उन सबने भी इस किस्म को बहुत सराहा और यह भी कहा कि यह किस्म खारी और कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी उपज देती है | 

सुरजीत बासमती – 1, नमक सहिष्णु व अधिक उपज देने वाली किस्म है जो पूसा – 1460 से विकसित हुई है | यह किस्म 125 – 135 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है | इसकी अधिकतम उपज 55 – 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है | इसके दानों का आकार लम्बा होता है तथा मुख्य रूप से यह किस्म फूट रॉट (Foot-Rot) और शीथब्लाईट(Sheath Blight) रोग अवरोधी है | इस किस्म को उगने के लिए किसी विशेष प्रकार की भूमि की जरूरत भी नहीं है | 

सुरजीत बासमती – 1 को बोने के लिए कुछ बातें ध्यान में रखें , जैसे कि पहले तो इस किस्म के बीजों को 24 घंटे तक पानी में भिगोकर रखें | फिर बीजों को छत पर फैला दें ताकि वे थोड़े सूख जायें और फिर उन्हें एक बोरी में भरकर ढक कर रख दें | लेकिन समय – समय पर बोरी के ऊपर पानी का छिडकाव करते रहे | जैसे ही उन बीजों में फुटाव होता है तो उन बीजों को नर्सरी में लगा दें | नर्सरी की बुवाई के समय अनुकूलतम तापमान 35 – 40 डिग्री होना चाहिए | यह किस्म अक्टूबर – नवम्बर में पाक कर तैयार हो जाती है | इसी गुणवत्ता के कारण यह किस्म बहुत लोकप्रिय है |

सुरजीत बासमती – 1 की उपलब्धि :-

सन् 2010 में केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान(CSSRI), करनाल , ने सुरजीत बासमती – 1 को परखने के लिए इस किस्म का परीक्षण कल्लर और लवणीय भूमि पर किया जो सफल रहा | सुरजीत सिंह को सन् 2010 और 2013 में दो बार ‘प्रगतिशील किसान अवार्ड’ से दिल्ली में नवाज़ा गया | इसके अलावा सन् 2014 में सुरजीत सिंह को ‘सर्टिफिकेट ऑफ़ ऑनर’ से हरियाणा कृषि विश्व विद्यालय, हिसार द्वारा और के.वी.के. ,भिवानी, हरियाणा , द्वारा भी सम्मानित किया गया | 

सुरजीत बासमती – 1 किस्म को सन् 2010 में पंजीकृत करने के लिए PPV & FR authority, Delhi में आवेदन कर दिया गया है |







Thursday 23 March 2017

पानी की बेकार बोतलों से सजा केरल का अलुवा रेलवे स्टेशन

रेलगाडि़यों में यात्री बोतल बंद पानी का मजा लेने के बाद अक्सर खाली बोतले स्टेशन पर या ट्रेन में ही फेंक देते हैं । केरल राज्य के कोची जिले के अलुवा स्टेशन पर स्वास्थय निरीक्षक के पद पर कार्यरत श्री अरूण कुमार के दिमाग में इस समस्या से निपटने का अनूठा विचार आया। इन्होंने इन खाली बोतलों में खाद और मिट्टी भरवा कर छोटे-छोटे फूलों के पौधे उगा दिये और बोतलों को पटरियों के बीच में लगी बैरीकेड़ पर लटकाना शुरू कर दिया । अलुवा स्टेशन के स्टेशन मास्टर श्री सी बाला कृष्णा ने बताया कि स्वास्थय निरीक्षक अरूण कुमार ने 20 कर्मचारियों की एक टीम बनाई है जो एक जुट होकर सभी कार्यों को अंजाम देती है ।

इस छोटे से प्रयोग ने न सिर्फ रेलवे स्टेशन की खूबसूरती को चार चांद लगाए हैं बल्कि कई अन्य समस्याओं का भी समाधान कर दिया है । अलुवा शहर के इस रेलवे स्टेशन पर प्लास्टिक की बोतलें पटरियों के बीच बने बैरिकेड पर लगाई गई है जिनमें रंग-बिरंगे फूल खिल रहे हैं । वैसे तो सार्वजनिक स्थान पर गिरी हुई प्लास्टिक बोतलें किसी को भी अच्छी नहीं लगती किन्तु अब इनका प्रयोग गमलों के रूप में किया गया तो इन बोतलों की बदौलत चारों ओर खूबसूरती फैल गई। 


रेलवे ट्रैक के बीच फूलों से महकते इन गमलों के लग जाने से लोगों द्वारा एक प्लेटफार्म से दूसरे प्लेटफार्म पर जाने के लिए पटरियों के प्रयोग पर लगाम लग गई है । लोग अब इसके लिए फुटओवर ब्रिज का प्रयोग करने लगे हैं क्योंकि अब टेªक के बीच इतनी जगह ही नहीं बची है कि यहां से लोग निकल पाएं । एक तरह से यह अच्छा भी है क्योंकि प्लेटफार्म बदलने के लिए लोगों द्वारा पटरियों का प्रयोग होता है जो दुर्घटनाओं की एक प्रमुख वजह है । इस स्टेशन को स्वच्छ और सुंदर बनाने के लिए यहां के कर्मचारी भी बहुत मेहनत करते हैं जिससे स्टेशन का दृश्य इतना खूबसूरत हो गया है कि मन को मोह लेता है ।

मिट्टी के घड़ों से बचाया जा सकता है फसलों को दीमक के प्रकोप से

आज भी हमारे देश में कृषि का काफी क्षेत्र असिंचित है और एसी कृषि भूमि है जहाँ नाम मात्र को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध है फल स्वरूप कीफसलें उगाने के लिए किसानों को वर्षा के पानी पर ही निर्भर रहना पड़ता है। आप देख ही रहे है कि वर्षा कम होने तथा समय पर न होने की वजह से हर वर्ष देश के किसी न किसी किस्से में अकाल की स्थिति बनी रहती है। कहते हैं ‘‘टोटे में आटा गीला’’ यही कहावत हमारी खेती विशेषकर असिंचित
व अर्द्धसिंचित खेती में पूरी तरह लागू होती है, कहने का अभिप्राय यह है कि एक ओर हमारे अनेक किसान असिंचित व अर्द्धसिंचित खेती में सूखे जैसी प्राकृतिक मार को झेलते हैं वहीं अपनी फसलों को कई प्रकार के कीड़ों आदि से होने वाली बर्बादी को रोकने के लिए महंगे रसायनिक कीटनाशकों का प्रयोग फसलों पर करते हैं जबकि फसल उत्पादन आशनुरूप होगा इसकी कोई गारण्टी नहीं होती।



फसलों के हानिकारक कीटों में दीमक नामक कीट एक ऐसा प्रमुख कीट है जो खेत में नमी कम होते ही निश्चित रूप से फसलों को जड़ों के पास से काट कर नष्ट कर देता है और अपनी संख्या में भी तेज़ी से विस्तार करता है। खुश्की में अधिक सक्रिय रहने के गुण के कारण ही इस दीमक कीट का प्रकोप असिंचित व अर्द्धसिंचित फसलों में प्राय निश्चित माना जाता है। किसान फसल उगाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं लेकिन कई प्रकार के कीट फसलों को नष्ट कर जाते हैं। परंपरागत विधि अपनाकर कीटनाशकों के बिना ही इनका नियंत्रण किया जा सकता है। इससे कीटनाशकों पर होने वाला खर्च बचेगा। खेत की मिट्टी से ज्यादा पैदावार पाने के लिए किसानों को कड़ी
मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन मिट्टी में पनपने वाले कीड़े-मकोड़े जैसे दीमक आदि फसलों को चट कर जाते हैं। इन कीटों से फसलों को सुरक्षित रखने के लिये भी कीटनाशकों पर किसानों को काफी पैसे खर्च करने पड़ते हैं। परंतु अब तो किसान वैज्ञानिक विधि अपनाने की बजाय परंपरागत तकनीक से खेतों में बढ़ रही दीमक पर काबू पा रहे हैं। कुछ परंपरागत तकनीकों को अपनाकर अपनी फसल को दीमक बचाने व फसल को कमजोर होने से बचाने के में सफल भी हुए हैं।

दीमक का फसलों पर असर:-

दीमक पोलीफेगस कीट होता है। यह सभी फसलों को बर्बाद करता है। भारत में फसलों कों तकरीबन 45 प्रतिशत से ज्यादा नुकसान दीमक से होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार दीमक कई प्रकार की होती है। दीमक भूमि के अंदर अंकुरित पौधों को चट कर जाती है। कीट ज़मीन में सुरंग बनाकर पौधों की जड़ों को खाते हैं। इस कीट का वयस्क मोटा होता है। जो धूसर भूरे रंग का होता हैं। इस कीट की सुंडियाँ मिट्टी की बनी दरारों अथवा गिरी हुई पत्तियों के नीचे छिपी होती है। रात के समय दीमक मिट्टी से बाहर निकलकर पौधों की पत्तियों या मुलायम तनों को काटकर गिरा देती हैं। आलू के अलावा टमाटर, मिर्च, बैंगन, पत्ता गोभी, राई, मूली, गेहूँ आदि फसलों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है।

दीमक से बचाव की परंपरागत तकनीक:-

किसान परंपरागत तकनीक से खेतों में बढ़ रही दीमक पर काबू पा रहे हैं। ऐसे ही एक सफल किसान है बल्लूपुरा राजगढ़ के घनश्याम जोगी। तकरीबन एक साल पहले इन्होंने एक परंपरागत तकनीक अपनाई और अपनी फसल को दीमक से बचा लिया। घनश्याम जोगी जी ने बताया कि उन्हें यह विधि अपनाने से अच्छा परिणाम मिला है और अब उनकी जागरूकता से गाँव के काफी किसान इस विधि से दीमक को नष्ट कर रहें है। यदि कपड़ा भी खेत में डाल दें तो चार घंटे में ही दीमक उस कपड़े में को नष्ट कर देता है। किसानों का यह भी कहना है कि लगातार कीटनाशकों के प्रयोग से खेत की मिट्टी खराब होती है। वहीं ये कीैटनाश्क मानवस्वास्थय के लिए भी घातक हैं। जोगी जी ने बताया कि इसीलिए उन्होंने कीटनाशकों का प्रयोग बिल्कुल बंद कर दिया है और परंपरागत तकनीक को अपना लिया है।

मटकों द्वारा बचा सकते हैं फसलों को दीमक से:-


घनश्याम जी ने बताया कि उन्होंने पांच मटके लिए और उनमें छोटे-छोटे छेद किए। उपले के टुकड़े और मक्के के भुट्टों से दाने निकालने के बाद उन गिंडियों को उन मटकों में डालें। फिर उन घड़ों को खेत के चारों ओर रख  दें और पांचवें मटके को खेत के बीच में रखें। इन घड़ों को इस प्रकार मिट्टी में दबाएं जिससे घड़े का मुंह ज़मीन से कुछ बाहर निकला हो। घड़े पर कपड़ा बांध कर उसमें पानी भी डालें। पंद्रह से बीस दिन बाद मटको को खोल कर देखने पर सभी दीमक मटकों में जमा हो जाते हैं। इन मटकों को निकालकर कचरे में आग लगाकर, जलाकर नष्ट कर दें। यह प्रयास 5 बार करने से दीमक खेत से खत्म हो जायेगा। किसान जोगी बताते हैं किसानों को इस परंपरागत तकनीक की जानकारी माता श्री गौमती देवी जनसेवा विधि के मुख्य कार्यक्रम समन्वयक वेदप्रकाश शर्मा ने मुहैया करवाई थी।

खौलते तेल में हाथ डालकर निकालता है पकौड़ी, देखने के लिए जुटती है भीड़

भारत सच में अजब-गजब देश है। इस देश में इधर-उधर अजूबी चीजें देखने को मिलती हैं। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में ऐसे ही एक गजब के हलवाई हैं, जिनका नाम राम बाबू है। राम बाबू में ऐसी खासियत है कि वे खौलते तेल से बिना किसी हिचक के पकौड़े निकाल लेते हैं। 60 साल के राम बाबू को ऐसा करते हुए सालों बीत चुके हैं। उन्हें ऐसा करते हुए देखने के लिए रोज कई लोग उनकी दुकान पर आते हैं। राम बाबू भी सभी के सामने 200 डिग्री सेल्सियस पर उबल रहे तेल से पकौड़े छानकर उन्हें खिलाते हैं। राम बाबू कहते हैं, ‘लोग दूर-दूर से मुझे बिना अपने हाथ जलाए हुए पकौड़े छानते हुए देखने के लिए यहां आते हैं। मैं पिछले 40 साल से भी ज्यादा समय से ऐसा कर रहा हूं और आज तक कभी मेरा हाथ नहीं जला व कभी मेरे हाथ पर फफोले नहीं बने। ’राम बाबू ने 20 साल की उम्र में जब सड़क किनारे आलू और बैंगन के पकौड़े तलकर बेचना शुरू किया था, तब उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि एक दिन उन्हें इतनी सफलता हाथ लगेगी। लेकिन जैसे-जैसे उनके पकौड़ों की मांग बढ़ती गई उन्होंने समय बचाने की सोची और छलनी का इस्तेमाल बंद कर गर्मागर्म तेल से अपने हाथ से ही पकौड़े छानना शुरू कर दिया।


राम बाबू याद करते हुए बताते हैं कि छलनी का इस्तेमाल करने में काफी समय खराब होता है। एक दिन स्टॉल पर काफी ज्यादा भीड़ थी और मेरे पास कोई मदद करने के लिए नहीं था। जल्दबाजी में उन्होंने गर्म कढ़ाई से पकौड़े निकालने के लिए अपना हाथ डाल दिया। इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते उनका हाथ खौलते तेल में था। तब उन्होंने तुरंत अपना हाथ बाहर निकाला और ढक लिया। उन्हें लगा हाथ में फफोले पड़ गए होंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

राम बाबू जी ने बताया कि उसी दिन से उन्होंने छलनी इस्तेमाल नहीं करने का निर्णय लिया और वह आज तक कभी नहीं जले। बल्कि उन्हें ऐसा लगता है, जैसे वह पानी में हाथ डाल रहे हों। राम बाबू प्रतिदिन 100 किलो से भी ज्यादा पकौड़े बेचते हैं और करीब 2000 रुपये की कमाई कर लेते हैं। वो बताते हैं ‘लोग मुझे ऐसा करते देखने के लिए लालायित रहते हैं। वे मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं कोई जादू करता हूं, तो मैं मुस्कुराते हुए जवाब देता हूं... ये भगवान का जादू है।’


इतने सालों में राम बाबू के ग्राहकों की एक मंडली बन गई है। लोग उनके फैन हैं और शहर भर से उन्हें देखने व उनके हाथ के पकौड़े खाने के लिए पहुंचते हैं। अमित सिंह नाम के एक व्यक्ति राम बाबू के नियमित ग्राहक हैं और वह कहते हैं, ‘मैं जब भी उन्हें गर्मागरम तेल से पकौड़े निकालते हुए देखता हूं तो आश्चर्य चकित रह जाता हूं। किसी को यकीन न हो तो उन्हें राम बाबू को ऐसा करते हुए देखना चाहिए।’ ग्राहक अमित का कहना है कि मैं तो उस खौलते तेल को छूने के बारे में सोच भी नहीं सकता। लेकिन वे आश्चर्यजनक तौर पर ऐसा करते हैं, जैसे ठंडे पानी में पकौड़े तल रहे हों। और हां उनके पकौड़े स्वादिष्ट भी होते हैं। ग्राहक तो ग्राहक राम बाबू की इस विलक्षण प्रतिभा से डॉक्टर भी हैरान हैं। राम बाबू कहते हैं, जैसे-जैसे वे मशहूर हुए तो कुछ डॉक्टरों ने भी उनसे संपर्क किया और वे उन पर रिसर्च करना चाहते हैं। कुछ लोग उनकी त्वचा के सैंपल भी लेकर गए हैं। लेकिन कुछ भी असाधारण नहीं मिला। रामबाबू जी ने कहा कि मैं नहीं जानता कि मैं ऐसा क्यों हूं। लेकिन जब तक मुझे कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा और मेरी इस क्षमता से मेरी कमाई हो रही है तो मैं खुशी-खुशी हाथ से पकौड़े
छानता रहूंगा।

हाइपोथर्मिया जैसी भयंकर बीमारी से लड़ने के लिए मददगार

साबित हुआ स्टैनफोर्ड स्नातक रतुल नारायण का ब्रेसलेट कम कीमत वाला नोवेल ब्रेसलेट जो शिशु या नवजात शिशु की जान बचाने में मददगार है। ये यंत्र शिशुओं को हाइपोथर्मिया जैसे रोगों से लड़ने की शक्ति देता है। हापोथर्मिया एक ऐसी भयंकर बीमारी है जो दुनिया में नवजात शिशुओं की बढ़ती हुई मृत्यु का एक बड़ा कारण है।इस यन्त्र के कारण माता पिताको तुरंत ही बच्चों के शरीर केगिरते हुए तापमान के बारे में पता चल जाता है। जो माता पिता चिकित्सा सम्बन्धी सहायता ढून्ढ रहे है, उनके लिए ब्रेसलेट का लगातार बीप होना नवजात की जान बचा सकता है। इस ब्रेसलेट रूपी यंत्र को भारत में रतुल नारायण ने ‘बेम्पू’ नाम दिया है। बेम्पू नवजात बच्चों को जन्म के पहले महीने में वजन बढाने और उनके शरीर के तापमान को सामान्य रखने में मदद करता है। इससे बच्चो के बेहतर शारीरिक और मानसिकविकास में सहयोग मिलता है। जब तापमान गिरता है (यहाँ तक 0.5 डिग्री तक भी) तोशिशु के शरीर की वसा जलनेलगती है, जो शिशु के वजनको बढ़ने से रोकता है। 

ये वसा कम होने की प्रकिया बच्चे के शरीर में अम्लके उत्पादन न होने के कारणहोती है, जो बच्चे की श्वसन प्रकिया में रुकावट उत्पन्न करती है। अगर बच्चा सांस नहीं ले पा रहा है तो उसकेशरीर में ऑक्सीजन की आपूर्ति(हाइपोक्सिया) बन्द हो जातीहै, जिस कारण उनके शरीर में अंग क्षति हो सकती है।अल्पव्यस्क शिशु (जिनमंे सबसेज्यादा हाइपोथर्मिया का खतरा होता है) को सर्दी होने पर हमेशा अंग और विकास सबंधी समस्याएं होती हैं (नवजात शिशु को जब सर्दी होती है तो उन्हें संक्रमण हो जाता है) और ये समस्याएँ जीवन भर उनकेसाथ बनी रहती हैं। 


बेम्पू की कहानी 

बेम्पू की खोज सन् 2013 में रतुल नारायण ने की। वोस्टेनफोर्ड से बायोकेमिकलएंजीनिएरिंग में स्नातक और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में  परास्नातक है, रतुल नेजॉनसन एंड जॉनसन के साथ कॉर्डिओ वस्क्युलर स्पेस में छः साल काम किया और उसकेबाद नवजात शिशुओं केस्वास्थ्य के क्षेत्र में एम्ब्रॉन्सइन्नोवेशन के साथ एक साल काम किया। रतुल जानते थेकि नवजात स्वास्थ्य ऐसी जगहहै, जहाँ वे खुद को समर्पित कर सकते हैं। 31 वर्षीय रतुल ने बताया कि एम्ब्रेन्स में काम करते हुए उनके पास खुद को कुछ बनकर दिखाने का मौका था। वह ऐसा कुछ बनाना चाहते थे, जिसका बहुत व्यापक प्रभाव हो, वे लोगों के जीवन और स्वास्थ्य में बहुत व्यापकप्रभाव डालने का प्रयास कर रहे थे। उनका कहना है कि अगर आप किसी शिशु के जीवन में कोई बदलाव ला सकते है तो अगले 60-80साल ये उसके जीवन को प्रभावित करेगा।सन 2013 में, भारत में निओनाताल हेल्थकेअर में भूमि अनुसन्धान खोज में असमानता को जानने के लिए रतुल ने पूरे भारत का भ्रमण किया। उन्होंनेबड़े अस्पतालों के बालचिकित्सा केन्द्रों , सरकारी अस्पतालो और ग्रामीण चिकित्सालयों का दौरा किया। रतुल ने बताया कि वह वहाँ डॉक्टरों और मरीजों आदि कीजीवन शैली को समझने केलिए गये थे। वे वहाँ चकित्सा सम्बन्धी असमानताओं को लिखने के लिए एक नोटबुक लेकर गये और उन्हांेने देखा कि एक शिशु क्यों बीमार हो जाताहै? क्यों शिशु की अस्पताल मेंही मृत्यु हो जाती है? 

रतुल बताया कि भारत में जन्में 27 मिलियन में से 8 मिलियन शिशु कम वजन वालेहोते हैं (2.5 किग्रा से कम)जबकि अमेरिका में यह संख्या 12में से 1 है। अमेरिका में,अस्पतालों में कम वजन वाले शिशु को इनक्यूबेटर में तब तक रखा जाता है, जब तक उसका वजन सामान्य नहीं हो जाता। जबकि भारत में, 1.2 किलोग्राम वजन वाले शिशु को भी डिस्चार्जकर देते हैं, जो कई कारणों से काफी घातक है, इनमें दो मुख्य कारण हाइपोथर्मिया और संक्रमण प्रमुख हैं। उन्होंने बताया कि हमारे पास इनक्यूबेटर का कोई विकल्प नहीं है, लेकिन थर्मलमॉनिटरिंग के द्वारा हम इन शिशुओ को थर्मल सुरक्षा देसकते हैं। उपयोग रतुल ने बताया कि बेम्पूब्रेसलेट लेने से पहले डॉक्टर की सलाह लेनी जरूरी है। ये भारतके 11 राज्यों के 150 केंद्रों में उपलब्ध है। क्लाउड नाइन(गुड़गांव), सूर्या हॉस्पिटल (पुणे),मीनाक्षी हॉस्पिटल (बैंगलुर) कुछ ऐसे केंद्र हैं, जो अलग-अलग लक्ष्य समूहों में काम करते हैंऔर सक्रिय रूप से ब्रेसलेटप्रयोग करने का सुझाव देते हैं।बेम्पू ब्रेसलेट एक डिस्पोजेबल यन्त्र है, जो शिशु केजन्म के पहले 4 हफ्ते तक कामकरता है और इस दौरान इसेचार्ज करने की जरूरत नहींहोती। इस तरह के यन्त्र आसानी से वापस किये जा सकते हैं,चार्ज किये जा सकते हैं और दूसरे शिशुओ के लिए उपयोगभी किये जा सकते है। रतुल मानते हैं और स्पष्ट करते हैं किक्यों ये मॉडल प्राइमरी टारगेट ग्रुप पर अच्छी तरह काम नहींकरता है। इनमें से अधिकतर महिलायें अलग-अलग ग्रामीण क्षेत्रों से अपने शहर अपने बच्चेको जन्म देने के लिए आती हैं और वापस दूसरे शहर, कस्बे यागांव लौट जाती हैं। इस मॉडलको किराए पर देने की सुविधा अभी भारत में नहीं है। अस्पतालांे में ऐसा कोई संग्रहण केंद्र नहीं है जहाँ इसे जमा किया जा सके,जारी किया जा सके, जिसकी वापसी की सुविधा हो, यन्त्र काब्यौरा हो, साफ कर सके, रिचार्ज कर सके और फिर से दे सके।रतुल ने बताया कि भविष्य में उन्हें अपनी परियोजना कोअमली जामा पहनाने के लिए आशा और आंगनबाड़ी कर्मियों केसाथ मिलकर काम करना होगा।उन्होंने बताया कि उनकी टीम अक्सर पूछती है कि ये यन्त्रब्लूटूथ के द्वारा किसी स्मार्टफोनसे क्यों नही जुड़ सकता या एसएमएस क्यों नहीं भेज सकता,जिससे कि माता-पिता को सावधान किया जा सके। 

इस बारे में रतुल ने बताया कि हम अपने टारगेट ग्रुप (कम आमदनीवाले परिवार) पर काफी बारीकीसे काम कर रहे हैं और उनकी समस्याओं को समझते हैं। उन्होंने बताया कि जब माँ रात में सोरही होती है और उसके बच्चे केशरीर का तापमान अचानक गिरजाता है, स्मार्टफोन या ब्लूटूथ कनेक्शन इस समस्या को हल नहीं कर पायेगा। साथ ही साथ,हो सकता है कि ये कम आमदनीवाले परिवार स्मार्टफोन न चला पाये, रतुल ने बताया कि वो बेम्पूको बिलकुल आसान रखना चाहते है, वो इसमें ज्यादा जानकारी डालकर माता-पिता को उलझन में नहीं डालना चाहते। रतुल ने कहा कि उन्हांेने जांच की कि ब्रेसलेट पर तापमान दिखना चाहिए, लेकिन ऐसा लगता है कि ये माँ के लिए उलझन भरा होगा। माँ अपने बच्चे की बीमारी की वजह सेपहले से ही काफी परेशान होतीहै। 

तब उन्होंने ये फैसला कियाकि वे इसे बिलकुल आसान रखेंगे उन्होंने बताया कि नीली रोशनी ये बताएगी के बच्चा ठीक है, लाल रोशनी ये बताएगी के तापमान गिर रहा है, लगातार बीप होना ये बतायेगा के बच्चे को सहायता की जरूरत है। मान्यता और अनुदान मई 2014 में, रतुल को सामाजिक उद्यमिता में ग्रीनफेलोशिप की गूँज उठाने के लिए चुना गया। जुलाई 2014 में, बेम्पू को विल्लग्रो में चुना गया। नवम्बर 2014 में, बेम्पू ने गेट्स फाउंडेशन और ग्रैंड चैलेंजेजकनाडा में धनराशि जीती और वो अपने पहले कर्मचारी को लाने में सक्षम हुआ। जुलाई 2015 मेंउसैडस में जीवन रक्षा के लिए हुई एक जन्म प्रतियोगिता में बेम्पू 17वां पुरस्कार विजेता (750 प्रतिभागियों में से) चुना गया।

नोरवियन सरकार और कोरियनसरकार से भी उन्हें आर्थिक सहायता प्राप्त हुई। अंत में उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य एक राजकीय मुद्दा है। बेम्पू को हर जरूरत मंद बच्चे तक पहुँचाने के लिए हर राज्य सरकार के साथउन्हें अलग-अलग काम करना होगा।