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Tuesday 28 March 2017

नेगेटिव से फोटो तैयार करने की सरल तकनीक

दशकों पुराने क्लिक-3 कैमरा वाले नेगेटिव के फोटो बनाना आज के समय में असंभव-सा प्रतीत होता है । लेकिन लगन और चाह के आगे कुछ भी असंभव नहीं हैं । जिसे अपनी किशोरावस्था से ही कैमरे का शौक रखने वाले बी.एस. पाबला जी ने साबित कर दिखाया है । बी.एस. पाबला जी ने अपना पहला क्लिक-3 कैमरा सन् 1976 में खरीदा। बी.एस.पाबला जी का जन्म स्थान दल्लीराजहरा है और ये छत्तीसगढ़ के भिलाई क्षेत्र में रहते हैं और महारत्न कंपनी सेल (Steel Authority of India Limited) में 1981 से सेवारत हैं । पाबला जी के पिता का नाम श्री केहर सिंह और माता जी का नाम हरभजन कौर है । इनकी एक बेटी है जिसका नाम रंजीत कौर है । 

पाबला जी को अपनी किशोरावस्था से ही कैमरे का बहुत शौक है, इसलिए जब एक दिन इन्हें 35- 40 साल पुराने आग्फा कंपनी के क्लिक-3 कैमरा के नेगेटिव मिले तो इनके मन में चाह उठी कि काश ये इन नेगेटिव की फोटो फ्रेम बनवा लेते और इन्होंने महज़ 10 मिनट में इसका हल निकाल लिया। यह सारे नेगेटिव आग्फा कंपनी के क्लिक-3 कैमरा के थे । यह एक साधारण से लैंस वाला ऐसा कैमरा था जिसमें अधिक से अधिक 12 चित्र लिए जा सकते थे और नेगेटिव का आकार 6X6 सेंटीमीटर का होता था। एक फोटो लेने के बाद रोल को उंगलियों से घुमाकर ऐसी जगह लाया जाता था जहां कोरे स्थान पर दूसरी फोटो आ सके । अगर आप रोल घुमाना भूल गए तो एक के ऊपर एक दूसरी फोटो छप जाती थी । इस कैमरे में फ्लैश नहीं था व अलग से लगाया भी जाये तो बड़ी सी बैटरी बल्ब होता था जो अपनी चकाचैंध राशनी बिखेरने के साथ ही फ्यूज़ हो जाता था और अगली फ्लैश के लिए नया बल्ब लगाना पड़ता था । 

कैमरा और डेवलपिंगउस समय में भी उन्होंने नेगेटिव के फोटो बनाने के लिए फोटो बनाने की तकनीक बताने वाली एक छोटी सी किताब खरीदी जिसकी सहायता से उन्होंने नेगेटिव से फोटो भी तैयार की । उस फोटो बनाने की तकनीक बताने वाली किताब से उन्होंने नेगेटिव से फोटो बनाने के लिए कमरे में लाल बल्ब लगाकर डार्क रूम बनाया और डेवलपर, हाइपो व 100 पेपर वाला डिब्बा खरीदा । फिर टेबल लैंप के नीचे ड्राइंग शीट का फ्रेम काट कर रखा। नेगेटिव और फोटो पेपर साथ-साथ रखकर कुछ सेकेंड की रोशनी दी । फिर जब उन्होंने फोटो पेपर को डेवलपर वाली ट्रे में होले-होले थप-थपाया तो धीरे-धीरे तस्वीर उभरने लगी। हाइपो से बाहर निकाल कर ठीक से सुखाने के बाद खिंची तस्वीर सामने आई । उस समय में भी उन्होंने स्वयं इस प्रकार नेगेटिव से फोटो तैयार की थी ।

कैमरा एक्सरे

लेकिन अब वे उन दशकों पुराने नेगेटिवों की तस्वीरें उस विधि द्वारा नहीं तैयार कर सकते थे क्योंकि अब वह सब चीज़ें बाज़ार में उपलब्ध नहीं होती। फिर वे उन नेगेटिवों को फोटो में तबदील करने के बारे में सोचने लगे। सोचते-सोचते उनकी ललक इतनी बढ़ गई कि उन्होंने इंटरनेट छाना लेकिन जो उपाय दिखे वह बहुत ही तिकड़मी थे। फिर उन्होंने यह समस्या फेसबुक पर डॉ. अनिल कूमार को बताई और डॉ. अनिल कूमार ने उन्हें बताया कि सफेद कागज़ पर नेगेटिव रखकर स्कैनर पर स्कैन करें और फिर फोटोशॉप जैसे सोफ्ट्वेयर में डाल कर नेगेटिव का पॉजिटिव बना लीजिए। 

कैमरा नेगटिव

ये तकनीक पाबला जी को कुछ जचा नहीं, क्योंकि ऐसी असफल कोशिश वे पहले भी कर चुके थे। फिर पाबला जी को ख्याल आया कि डाक्टरों के कमरे में एक्सरे में देखे जाने वाले डिब्बे जैसी किसी चीज़ से कुछ हो सकता है। फिर झट से उन्होंने एक नेगेटिव निकाला और कमप्यूटर मॉनिटर के सामने स्क्रीन में फंसा दिया। सफेद रोशनी चाहिए थी तहो ब्राउज़र की खाली टेब खोल ली। लेकिन नीचे का टास्क बार रोड़े अटका रहा था तो उसे ऑटो हाईड कर नीचे जाने दिया। फिर पाबला जी ने अपना डिजिटल कैमरा उठाया और उस सफेद रोशनी के सामने फंसे नेगेटिव की फोटो इस प्रकार ली कि सामने फंसे नेगेटिव की फोटो तो आये किन्तु उसके आस-पास की फोटो न आये । 

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उन्हें एक-दो बार कोशिश करने पर मनचाहा परिणाम मिल गया । फिर उन्होंने कैमरे के मेमोरी कार्ड से इमेज कमप्यूटर में डाली और फिर माइक्रोसोफ्ट ऑफिस से काट-छांट कर सही आकार दे दिया । अब इस नेगेटिव जैसी दिखती फोटो को उन्होंने विंडोज़ में उपलब्ध पेंट में खोला, इसके बाद ctrl के साथ a दबाकर या मेन्यू बार में select>select all कर फोटो में ही किसी स्थान पर सावधानी से माउस का राइट क्लिक करके सामने आए बाक्स के निचले हिस्से में दिए इनवर्ट कलर पर क्लिक किया। अब उनके सामने अच्छी खासी तस्वीर आ चुकी थी और अब उसे सिर्फ सेव ही करना था। अब यह फोटो फ्रेम में लगाने लायक थी। तो है ना ये नेगेटिव से फोटो बनाने का नायाब तरीका ।

कैमरा यादों में

हैदराबाद के रेलवे पैंशनर गंगाधर तिलक कटनम का अनूठा प्रयास

हमारे भारत देश में सड़कों की हालत बहुत बुरी है । इस खतरनाक समस्या का हल करने का हमारे ही जैसे एक नागरिक ने बीड़ा उठाया है। उनका नाम गंगाधर तिलक कटनम है । यह एक रिटायर रेलवे कर्मचारी है। वे 67 वर्ष के हैं और इतने बुज़ुर्ग होते हुए भी वे रोज़ सुबह अपनी कार लेकर सड़कों पर घूमते हैं और जहां उन्हें कोई भी गढ्ढा दिखाई देता है, वे उसकी मुरम्मत स्वयं करते हैं । किसी के लिए भी इतने साल नौकरी करने के बाद काम करना कठिन होता है । हर व्यक्ति अपने रिटायरमेंट का समय अपने परिवार और दोस्तों के साथ आराम से और खुशीपूर्वक बिताना चाहता है । 

लेकिन गंगाधर तिलक सेवा निवृत्त होने के बावजूद अपना समय दूसरों की भलाई में लगाना चाहते हैं। लेकिन क्या हम गंगाधर तिलक कटनम जी को एक नियमित आदमी कह सकते हैं ? नहीं क्योंकि वह एक ऐसे इंसान है जो अपने मिशन पर काम कर रहे हैं । उनके लिए सड़कों के गढ्ढे भरना एक मिशन है। इसलिए वह हर दिन अपनी कार लेकर सड़कों पर घूमते हैं और जहां भी गढ्ढा दिखाई देता है उसे भरने में पूरी कोशिश करते हैं । 

उनकी कार की पिछली सीट पर वे कुछ तारकोल मिश्रित बजरी के बोरे रखते हैं, शुरूआत में वे बजरी सड़कों से इक्कठा करते थे लेकिन बाद में उन्होंने ठेकेदारों से खरीदना शुरू कर दिया। उनकी यह यात्रा 5 बजरी के बोरों से शुरू हुई थी और अब गंगाधर जी अपनी कार में 8 से 10 बोरों को रखते हैं उनके इस तरह के समर्पण ने हैदराबाद की सड़कों को यात्रियों के लिए सुरक्षित बना दिया है । उन्होंने बताया कि एक दिन वह कार चला रहे थे और अचानक से उनकी कार गढ्ढे में फंसने के कारण गढ्ढे में भरे गंदे पानी के छींटे गली में खेल रहे बच्चों पर गिर गए । तब उस समय उन्हें बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई । 

फिर तब ही उन्होंने 5000 रूपये खर्च कर जरूरत अनुसार पदार्थ खरीदा और उस गढ्ढे को भर दिया। तब के बाद से उन्होंने कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा और अब तक वे 1,125 गढ्ढों को भर चुके हैं। दो या ढाई साल तक उन्होंने अकेले ही अपने खर्चे पर गढ्ढों को भरा, लेकिन अब कुछ नागरिक और सॉफ्टवेयर इंजीनीयर भी उनके साथ आ गए हैं और उन्होंने इच्छिक श्रमिक सहयोग को ‘श्रमदान’ का नाम दिया है । उन्होंने बताया कि जब वह रिटायरमेंट के बाद एक इंफोटेक कंपनी में काम करते थे तो वह अपने इस मिशन को समय नहीं दे पाते थे, तब उन्होंने यह फैसला किया कि वे ये नौकरी छोड़ देंगे और अपना पूरा समय अपने इस मिशन को देंगे ।

दसवीं पास किसान ने सिखाई इजराइल को पानी बचाने की तरकीब

मेहनत और अच्छी सोच से सिर्फ इंसान को ही नहीं बदला जा सकता बल्कि सूखे और बंजर इलाके को हरा भरा किया जा सकता है। तभी तो जो किसान सिर्फ 10वीं पास था वो आज सैकड़ों किसानों के लिए मिसाल बन गया है, जिस गांव में उस किसान ने जन्म लिया वो कभी चोरी और मारपीट के लिये बदनाम था, लेकिन आज वो दूसरे गांव के लिए आदर्श गांव बन गया है। राजस्थान के जयपुर जिले के लापोरिया गांव में रहने वाले लक्ष्मण सिंह की कोशिशों के कारण ही जयपुर और टोंक जिले के कई गांव में सालों से सूखा नहीं पड़ा और आज यहां के सैकड़ों किसान खेती के मामले में आत्मनिर्भर बन रहे हैं। ये लक्ष्मण सिंह की ही मेहनत है कि उनके काम को देखने के लिए देश से ही नहीं विदेश से भी लोग यहां आते हैं।


लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि “मैंने बचपन में देखा था कि राजस्थान में किसी साल भयंकर बाढ़ आती है और दूसरे ही साल सूखा पड़ जाता है। दोनों ही हालात में किसान की फसल बर्बाद हो जाती है। इस वजह से मेरे गांव के किसान दूसरे राज्यों में जाकर मजदूरी करते थे। साथ ही सूखे की वजह से मेरे गांव में अपराध भी बहुत बढ़ गये थे। एक बार मैं किसी काम से पास के गांव में गया था तो वहां के लोगों ने मुझसे कहा कि तुम उस गांव के हो जहां के लोग चोरी करते हैं और मारपीट करते हैं। ये सुनकर मुझे बुरा लगा और तभी मैंने फैसला लिया कि मैं अपने गांव पर लगे इस दाग को हटाऊंगा।” इस घटना के बाद लक्ष्मण सिंह इस समस्या का हल खोजने में लग गये और पढ़ाई छोड़ कर वे वापस गांव लौट आये। लक्ष्मण सिंह ने सबसे पहले पानी और मिट्टी के लिए काम करना शुरू किया और कोशिश करने लगे कि गांव में ही स्कूल खुले ताकि बच्चों को पढ़ने के लिए दूर न जाना पड़े।


लक्ष्मण सिंह बताते है कि साल 1977 में शुरू हुई उनकी ये मुहिम धीरे धीरे दूसरे गांवों तक भी पहुंचनी शुरू हुई और साल 1985 तक ये 58 गांवों तक फैल गयी। ये सभी 58 गांव राजस्थान के जयपुर और टोंक जिले के हैं। साल 1986 में उन्होने अपने संगठन ‘ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोरिया’ की नींव रखी। उस समय उनकी उम्र 25 साल की थी।


लक्ष्मण सिंह ने सबसे पहले अपने गांव में ‘चौका सिस्टम’ को पुनर्जीवित किया। चौका सिस्टम में बारिश के पानी को कई तरीके से रोक कर उसे धीरे-धीरे जमीन के अन्दर पहुंचाया जाता है। इसके लिए उन्होने 10-20 किसानों के साथ उनके खेतों पर तालाब बनायें, सड़कों के किनारे गड्ढे खोदकर पानी को रोका और कई जगहों पर बड़े तालाब, और दूसरे तरीकों से इस प्रकार पानी को रोका ताकि किसान उस रूके हुए पानी से अपने खेतों में लघु सिंचाई कर सकें। इसका नतीजा ये हुआ कि जिन जगहों पर पानी बहुत नीचे चला गया था। वहां पर पानी के स्तर ऊपर आ गया था। ऐसे में किसानों और मवेशियों के लिए साल भर पानी मिलना शुरू हो गया।


लक्ष्मण सिंह ने इसके लिए गांव के लोगों को इकट्ठा कर उनमें काम का बंटवारा किया। उन्होने पेपर में योजना बनाकर हर किसान को काम की जिम्मेदारी सौंपी। इसमें उन्होंने बाढ़ के पानी को रोकने के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण पर भी काम किया। इसके उन्होंने गोचरों में, सड़कों के किनारे, घरों में और ग्राम चोंकों में नीम, शीशम, आम और वट, पीपल, बबूल आदि के पेड़ लगाये। इससे गांव में हरियाली आई और खेतों में सिंचाई के कारण फसल भी अच्छी होने लगी। प्रकृति को बचाने की मुहिम में उन्होंने लोगों से कहा कि वे किसी भी जानवर को ना मारें यहां तक की चूहों को भी नहीं। उनका कहना था कि प्रकृति ने खुद ही सन्तुलन बनाया हुआ है। इसके लिए गांव के बाहर एक जगह बनाई गई, जहां पेड़-पौधे और घास लगाई गई जिससे यहां पर दूसरे जीव भी रहने लगे। लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि राजस्थान में भले ही सूखा पड़े लेकिन इन गांवों का पानी नहीं सूखता है। आज भी यहां हरियाली और पशुओं के लिए चारा दोनों ही हर मौसम में मिलते हैं।


आज लक्ष्मण सिंह के इस काम से प्रेरणा लेकर दूसरे गांव के लोग भी उनसे इस काम को सीखने के लिए आते हैं और वे खुद भी उन गांवों में इस काम को सीखाने के लिए जाते हैं। वे बताते हैं कि ये काम सिर्फ बैठकों के जरिये नहीं होता है इसमें जब हर तबके के आदमी की भागीदारी होगी तभी ये काम सफल होगा। लक्ष्मण सिंह ने अपने इस काम का विस्तार करने के लिए 40 संगठन बनायें इसमें उन्होंने गांव के हर व्यक्ति को काम की जिम्मेदारी सौपीं। हर साल दिवाली के 11वें दिन वो एक यात्रा का आयोजन करते हैं, ये यात्रा पिछले 28 सालों से लगातार चल रही है। इस यात्रा के जरिये लोगों को प्रकृति, पेड़ पौधों, मिट्टी, कुंए तालाब आदि की जरूरत के बारे में बताया जाता है और इनकी पूजा की जाती है। इस यात्रा के जरिये लोगों को संदेश दिया जाता है कि अगर वो प्रकृति की रक्षा करेंगे तभी प्रकृति भी उनको खुशहाली देगी।


आज लक्ष्मण सिंह के काम की चर्चा ना सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी खूब होती है तभी तो जिस ‘चौका सिस्टम’ को स्थानीय लोग भूल गये थे उसे लक्ष्मण सिंह ने ना सिर्फ पुनर्जीवित किया बल्कि आज इसे सीखने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं। लक्ष्मण सिंह बड़े फक्र से बताते हैं कि “बूंद बूंद बारिश के पानी को धरती के अंदर पहुंचाने का तरीके, यानी ‘चौका सिस्टम’ को मैंने ही इज़राइल को सीखाया है। इसको सीखाने के लिए मैं खुद इज़राइल गया था। इतना ही नहीं ‘चौका सिस्टम’ की सफलता को देखते हुए यूनीसेफ और राजस्थान सरकार ने मिलकर इस पर एक किताब भी लिखी है।“


अपने इस काम के लिए होने वाली फंडिग के बारे में लक्ष्मण सिंह का कहना है कि “मैंने शुरूआत में लोगों को श्रमदान के जरिये जोड़ा और इस काम को करने के लिए बाहर से कोई इंजीनियर नहीं बुलवाये यहां के लोगों ने खुद ही योजना बना कर काम किया। बाद में जैसे-जैसे हमारा काम बढ़ता गया वैसे-वैसे राजस्थान सरकार, यूनीसेफ, और कई फंड एंजेसियों के साथ सीआरएस ने हमें उर्वरकों के लिए मदद दी।“ लक्ष्मण सिंह का दावा है कि उन्होने कभी भी सौ प्रतिशत मदद नहीं ली। उन्होने 50 प्रतिशत मदद और 50 प्रतिशत श्रमदान से ही अपने इस संगठन को चलाया है। उनका मानना है कि जब तक कोई भी व्यक्ति इस मिट्टी को अपना नहीं समझेगा तब तक कोई कितनी भी योजनाएं क्यों न बना लें कोई भी अपने गांव, राज्य और देश का विकास नहीं कर सकता।

सड़कों से गुमशुदा बच्चों को ढूंढ कर उन्हें घर पहुंचाता है दिल्ली का यह ऑटो ड्राइवर

पेशे से ऑटो चालक अनिल कुमार की ज़िंदगी सुबह 8 बजे से शुरू होती है. वे अपने ऑटो रिक्शा को निकालते हैं और यात्रियों, सवारियों के लिए राजधानी की सड़कों पर चारों ओर घुमते हैं. वे पीसीआर स्टाफ, यातायात पुलिस और अन्य बीट अधिकारियों सभी से अच्छी तरह से परिचित हैं. वे उन सभी को रास्ते में एक विश्वास भरी मुस्कान देते हैं और दुआ-सलाम करते हैं और अपने दैनिक मार्ग दक्षिण-पूर्व दिल्ली की ओर निकल जाते हैं.

यात्रियों और सवारियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के अलावा संगम विहार निवासी 40 वर्षीय अनिल कुमार ने एक और जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले रखी है. जैसे-जैसे उनकी ऑटो दिल्ली की सड़कों पर आगे की ओर बढ़ती जाती है, उनकी नज़रें भूले-भटके और असहाय बच्चों की तलाश करती रहती है. जब भी उनकी नज़र किसी असहाय बच्चे पर पड़ती है और वे उसे भटकते हुए पाते हैं, तो ऑटो रोक कर वे उस बच्चे से पूछताछ करते हैं, अगर वह अपना रास्ता भूल गया है, तो उस बच्चे को अनिल उसके घर तक पहुंचाते हैं.


खास बात ये है कि कुमार पुलिस के संपर्क में रहते हैं. जब भी कोई बच्चा किसी क्षेत्र में गुम हो जाता है, तो उसकी जानकारी कुमार को हो जाती है. और कहीं न कहीं सड़कों पर कुमार उस बच्चे के मिलने की उम्मीद में घूमते रहते हैं.

सड़कों पर असहाय बच्चों को तलाशने के बारे में अनिल कुमार कहते हैं-'इसकी शुरुआत कब और कैसे हो गई, मुझे पता ही नहीं चला. लेकिन अब इस काम को मैंने जिम्मेदारी के रूप में ले लिया है. कुछ दिनों पहले नेहरु प्लेस में एक 8 साल के बच्चे को मैंने सड़क पर घूमते देखा. वह खोया हुआ दिख रहा था और बहुत रो रहा था. मैंने उस बच्चे से पूछा कि तुम यहां कैसे आये. उसने मुझसे कहा कि उसने एक बस ली थी, और उसका घर यहां से काफ़ी दूर है. मैंने उस बस के बारे में पता लगाया, और तब जाकर मुझे पता चला कि वह बच्चा द्वारका से भटक कर यहां आ गया है.'

कुमार ने कहा -'मैंने उस बच्चे से पूछा कि क्या उसे अपने माता-पिता का फ़ोन नम्बर याद है. तब उस बच्चे ने मुझे एक नंबर दिया. नसीब अच्छा था कि जब मैंने उस नंबर पर फोन मिलाया, तो फोन पर उस बच्चे की मां थी. उन्होंने कहा कि वे द्वारका में रहती हैं. मैंने उस बच्चे को उसके घर तक छोड़ा और उसकी मां काफ़ी खुश थीं. उस वक़्त मुझे काफ़ी संतुष्टि मिली.'


उसी दिन के बाद से अनिल ने सड़कों पर अकेले घूमने वाले बच्चों को तलाशना शुरू कर दिया. एक अन्य मामले में 13 मई को जब वे एक सवारी को कालका जी मंदिर छोड़ने गये थे, तब उन्होंने एक चार साल के बच्चे को देशबंधु कॉलेज के पास सड़क के किनारे बैठा पाया. उन्होंने बच्चे से बात करने की कोशिश की लेकिन उसने कुमार से बात करने से मना कर दिया.

उनके अनुसार, 'वह बच्चा काफ़ी रो रहा था. मुझे पता था कि वह अपना रास्ता भूल गया है. मैंने उसके लिए एक Soft Drink खरीदी और फिर उससे उसके मम्मी-पापा के बारे में पूछना शुरू कर दिया. लगातार तीन घंटे तक मैं उस बच्चे को B, C और E ब्लॉक में डोर-टू-डोर ले गया, पर उस बच्चे के मां-बाप का कोई पता नहीं चल पाया. जब मैं उस बच्चे के अभिभावक को नहीं ढूंढ सका, तब जाकर मैंने उस बच्चे को स्थानिय पुलिस के हवाले कर दिया.'


'मैं और बीट कांस्टेबल फिर से उस बच्चे को उस क्षेत्र के चारों ओर लेकर गये. अंत में एक आदमी ने उस बच्चे को पहचाना और उस बच्चे के घर का पता बताया. उस बच्चे के दादा उसका इंतज़ार कर रहे थे और उसे देखकर काफ़ी खुश हुए.'

इन घटनाओं के बाद कुमार पुलिस से उन बच्चों की डिटेल साझा करने को कहते रहते हैं, जो बच्चे गुम हो जाते हैं. इसलिए वे सड़कों पर वैसे बच्चों की तलाश करते रहते हैं, ताकि वे उन बच्चों को उनके परिवार से मिला सकें.

वे कहते हैं 'इन दिनों कई तरह की घटनाओं में बच्चों के शामिल होने की बात से मैं डर जाता हूं. शहर को सुरक्षित बनाने में हर नागरिक की भागीदारी महत्वपूर्ण है. मैं कोई असाधारण काम नहीं कर रहा हूं. मैं सिर्फ़ अपना कर्तव्य निभा रहा हूं. जिस तरह से मेरे दो बटे हैं-एक 6 साल और दूसरा 11 साल का, ये भूले हुए बच्चे मेरे बच्चों की तरह ही हैं और उन्हें उनके घर पहुंचाना मेरी जिम्मेदारी है.'

दिल्ली, दक्षिण-पूर्व के डीसीपी एम.एस. रंधावा कहते हैं कि 'अगर हर नागरिक कुमार की तरह ही सक्रिय, मददगार के रूप में शामिल हो जाए, तो निश्चित रूप से अपराधों को रोका जा सकता है. कुमार के इन्हीं कामों की बदौलत मैंने उनका नाम एक विशेष पुरस्कार के लिए नामित किया है.'

63 बार ‘ना’ के बाद भी नहीं हारे, ‘‘कौशिक’’ और ‘‘नवीन’’, 64वीं बार में हुए सफल

कौशिक मुद्दा और नवीन जैन ने वर्ष 2014 में आरवीसीई बैंगलोर से इलेक्ट्राॅनिक्स और संचार के क्षेत्र में स्नातक किया और इंजीनियर बनने में कामयाब रहे। पढ़ाई के अंतिम वर्ष में ही इन दोनों को कैंपस प्लेसमेंट के जरिये अच्छी-खासी नौकरी मिल चुकी थी। कौशिक केपीएजी का हिस्सा बनने में कामयाब रहे थे जो उनके जैसे अधिकतर युवाओं के लिये एक सपने सरीखा था। लेकिन इससे एक वर्ष पूर्व ही यह जोड़ी अपने छठे सेमेस्टर के दौरान कुछ छोटी-मोटी परियोजनाओं पर काम करना प्रारंभ चुकी थी और ये दोनों अपना पूरा समय और ऊर्जा इन परियोजनाओं को समर्पित कर रहे थे। अपने स्टार्टअप को स्थापित करने की जद्दोजहद के बीच कौशिक एक ईमेल के माध्यम से बताते हैं, ‘‘काॅलेज के दिनों में नवीन और मैं छोटे रोबोट और हवरक्राफ्ट का निर्माण किया करते थे।’’ इन मशीनों पर काम करने के दौरान इन्हें महसूस हुआ कि इन्हें अपने रोबोट को और अधिक बेहतर बनाने के लिये उनके कट भागों को और अधिक सटीकता प्रदान करने की आवश्यकता है। इस काम के लिये इन्हें एक सीएनसी (कंप्यूटर संख्यात्मक नियंत्रक) राउटर की आवश्यकता थी लेकिन उस समय बाजार में उपलब्ध सबसे सस्ती मशीन भी इनकी पहुंच से दूर थी क्योंकि कीमत भी करीब 6 से सात लाख रुपये थी और यह रकम इनके लिये बहुत अधिक थी। उस समय को याद करते हुए कौशिक बताते हैं, ‘‘चूंकि हम उस मशीन को खरीद पाने में खुद को असमर्थ पाते थे इसलिये हमने अपनी स्वयं की मशीन का निर्माण करने का फैसला किया और हमें उसके बाद से पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी है। जिसकी शुरुआत हमारी अपनी समस्या के समाधान के रूप में हुई थी अब वह हमारे उपभोक्ताओं की समस्या का भी समाधान पेश करने वाला बनता जा रहा था।’’

इस प्रकार एथरियल मशीन्स (Ethereal Machines) की शुरुआत हुई। हालांकि अभी इनका आगे का रास्ता आसान नहीं था और वह बाधाओं से भरा हुआ था।

सबसे पहले तो इन्हें अपने सपनों को साकार करने के लिये अपनी नौकरी को अलविदा कहना पड़ा। इसके अलावा दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि इन्हें अपने उपभोक्ताओं को यह मानने के लिये राजी करना पड़ा कि काॅलेज के कुछ नये स्नातक ऐसी मशीनों का निर्माण कर सकते हैं जो उनकी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हों।


आखिरकार इन्होंने आगे बढ़ने का फैसला लिया और अपने एक दोस्त को उसका गैराज इन्हें देने के लिये मनाने के बाद उसमें एथरियल मशीन्स् का पहला कार्यलय खोला। एक प्रोटोटाइप का निर्माण करने और उसकी हाईपोथीसिस की पुष्टि करने के बाद इन्होंने आॅर्डर लेने के लिये बाजार का रुख किया और एक चीज जो इनके पक्ष में थी वह यह थी कि ये बाजार में सबसे कम कीमत वाले सीएनसी राउटर का निर्माण कर रहे थे। इस जोड़ी का दावा है कि संपूर्ण भारतवर्ष में उत्पादकों को अपनी मशीनों को अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं के हिसाब से अनुकूलित करने का प्रयास करने के दौरान काफी दिक्कतों और परेशनियों का सामना करना पड़ता है। एथरियल उनकी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के अलावा उन्हें तकनीकी सहायता प्रदान करने मेें भी मदद करता है। इनकी मशीनों की सहायता से लकड़ी, संगमरमर, ग्रेनाइट, प्लास्टिक इत्यादि पर किसी भी प्रकार के 2डी या 3डी डिजाइन को खोदा या तराशा या फिर नक्काशी किया जा सकता है।
बाजार में उतरते ही इनका सामना जीवन की बहुत बड़ी सच्चाई से हुआ और अस्वीकृति जैसे इनके इंतजार में ही खड़ी थी। कौशिक बताते हैं, ‘‘अपना पहला आॅर्डर पाने से पहले मुझे 63 बार अस्वीकृति का सामना करना पड़ा।’’ यहां तक कि जब एक उपभोक्ता को इस बात का भान हुआ कि वे अभी तक काॅलेज के अंतिम सेमेस्टर में ही हैं तो उसने तो इन्हें अपने कार्यालय के बाहर ही फिंकवा दिया था। कौशिक कहते हैं, ‘‘एक उपभोक्ता ने तो हमें सिर्फ इसलिये अस्वीकार कर दिया था क्योंकि उसने भी इस क्षेत्र में कुछ करने का प्रयास किया था और वह बहुत बुरी तरह से विफल हुआ था।’’ संघर्ष के उस दौर में नवीन और कौशिक ने स्थापित होने के लिये बहुत कुछ किया और वे उस 280 वर्ग फुट के गैराज में खुद ही झाड़ू लगाते और किसी उपभोक्ता के आते ही खुद ही सेल्स प्रतिनिधि भी बन जाते। आखिरकार 64वीं बैठक के दौरान वे एक आॅर्डर पाने में कामयाब रहे। 


हालांकि बीते कुछ महीनों के दौरान एथरियल मशीन्स के उपभोक्ताओं की सूची में कोई बड़ा नाम तो नहीं जुड़ा है लेकिन इनका व्यापार काफी अच्छा रहा है। कौशिक कहते हैं, ‘‘हमें इस बात का गर्व है कि हम अपनी मशीनों के माध्यम से व्यक्तियों को उद्यमी बनने में सहायता करते हैं। हमारी मशीन खरीदने के बाद उपभोक्ता संगमरमर और लकड़ी पर नक्काशी करने के अलावा सटीक अंकन और काटने के साथ-साथ इंटीरियर डिजाइनरों के लिये आपूर्ती करने के अलावा कई अन्य कामों को सफलतापूर्वक अंजाम रहे हैं।’’

इनकी मशीनों की कीमत 2 लाख रुपये से लेकर 4 लाख रुपये की बीच आती है और इन्होंने अबतक मार्केटिंग पर एक भी पैसा खर्च नहीं किया है। कौशिक बताते हैं, ‘‘एक ऐसे समय में जब आईटी और सेवाओं के क्षेत्र से संबंधित स्टार्टअप शासन कर रहे हैं ऐसे में मेकेनिकल इंजीनियरिंग से संबंधित एक स्टार्टअप को स्थापित करना बहुत मुश्किल काम रहा है।’’ इनका व्यापार मुख्यतः इस जोड़ी के उस गहन तकनीकी ज्ञान पर निर्भर है जो इन्होंने वर्षों के दौरान अपने अनुभव से अर्जित किया है। विदेशों से मशीनों को आयात करने वाले लोग भारत में तकनीकी समर्थन तलाशने के दौरान बहुत चुनौतियों का सामना करते हैं और यही वह प्रमुख बिंदु है जहां ये दूसरों से कहीं आगे खड़ा होने में सफल होते हैं। 

अगर हम एक विस्तृत दृष्टिकोण से देखें तो बाजार में चीन की बनी हुई मशीनों की बहुतायत है और उपभोक्ताओं को इन मशीनों का संचालन सीखने के दौरान और किसी परेशानी के सामने आने पर काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। कौशिक कहते हैं, ‘‘हमारी मशीनें हमारे द्वारा तैयार किये गए एक विशेष डिजाइन और तकनीक पर आधारित हैं जिसके चलते वे उपभोक्ताओं के लिये अधिक अनुकूल साबित होती हैं। इसके अलावा हमारे उपभोक्ताओं को इन मशीनों का संचालन इत्यादि सीखने में भी अधिक कठिनाई नहीं होती है क्योंकि हमारे इंजीनियर उनके साथ घंटो बैठते हैं और उन्हें प्रशिक्षण देने के लिये तत्पर रहते हैं।’’

बैंगलोर में स्थित इस कंपनी में अब 6 इंजीनियरों की टीम काम कर रही है। यह कंपनी उपभोकताओं से प्राप्त होने वाले सुझावों और शिकायतों के आधार पर सुधार करने के प्रयास कर रही है। फिलहाल भारत के 4 राज्यों में एथरियल की मशीनें काम कर रही हैं और इनका इनका इरादा समय के साथ आगे बढ़ने का है। अंत में कौशिक बताते हैं, ‘‘मैं देश के प्रत्येक राज्य में कम से कम एक मशीन लगाना चाहता हूँ। इसके अलावा हमारे पास खाड़ी देशों और श्रीलंका और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों से भी उपभोक्ता संपर्क कर रहे हैं क्योंकि उन्हें चीनी मशीनों पर भरोसा नहीं है। हमें उम्मीद है कि निकट भविष्य में हमारे द्वारा तैयार की गई मशीनें इन देशों के बाजारों में भी देखने को मिलेंगी।’’

कृषि के क्षेत्र में नयी सूचना-क्रांति की शुरुआत करने वाले सुभाष मनोहर ने कभी सड़कों पर बेची थी घड़ियाँ

सुभाष मनोहर लोढ़े अक्सर अपने गाँव आया-जाया करते हैं। अपनी ऐसी ही यात्रा के दौरान एक दिन उन्होंने अपने गाँव में ऐसा कुछ देखा, जो उन्हें बहुत ही अजीब लगा। सुभाष ने देखा कि एक चरवाहा स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर रहा है। उन्हें ये बात समझ में नहीं आयी कि कैसे एक कम पढ़ा-लिखा चरवाहा स्मार्ट फोन ख़रीद सकता है और अगर ख़रीद भी लेता है, तो वो इसका इस्तेमाल कैसे कर पाता है। इन्हीं सवालों का जवाब जानने के लिए सुभाष ने अपने भाई से बातचीत की। सुभाष को जो जानकारी मिली, उससे वेऔर भी आश्चर्यचकित हो गये। सुभाष को पता लगा कि वो चरवाहा स्मार्ट फोन के ज़रिये मटका जुआ खेलता है। स्मार्ट फोन ख़रीदने से पहले इस चरवाहे को जुए में अपना दाँव लगाने के लिए दूर जाना पड़ता था। वो अपनी मोटर साइकिल पर मटका जुआ के मैनेजर के पास जाकर अपना दाँव लगता था, लेकिन मोबाइल फोन खरीद लेने के बाद उसे दूर मोटर साइकिल पर मैनेजर के पास जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी। वो स्मार्ट फोन में व्हाट्सएप्प के ज़रिये अपना दाँव लगा देता था और उसे नतीजा भी मोबाइल फोन पर ही मिल जाता था। सुभाष को अहसास हो गया कि गाँव में भी अब मोबाइल फोन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होने लगा है, लेकिन उन्हें अफ़सोस था कि चरवाहा टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल ग़लत और ग़ैर-कानूनी काम के लिए कर रहा है। अपनी इसी तहकीकात के दौरान सुभाष को एक और बड़ी दिलचस्प बात का पता चला। जब चरवाहा मटका जुआ खेलने लगा था और मोटर साइकिल पर जाकर दूर कहीं दाँव लगाता था, तो गाँव के किसानों को बहुत नुकसान होता था, लेकिन जब चरवाहे ने मोटर साइकिल पर जाना बंद कर दिया और वो मोबाइल फोन पर ही जुआ खेलने लगा, तो गांववालों का नुकसान कम हुआ। ये बात चौंकाने वाली थी, लेकिन सच थी। होता यूँ था कि गाँव के किसान अपने जानवर चरवाहे के हवाले कर देते थे, ताकि वो उन्हें कहीं अच्छी जगह ले जाकर घाँस चरा दे। जानवरों को चरवाहे के हवाले करके किसान अपने खेतों में काम करने चले जाते थे। खेत में काम पूरा करने के बाद किसान चरवाहे से अपने जानवर वापस ले लेते थे। एक मायने में चरवाहा किसानों का बड़ा मददगार था, लेकिन जब से चरवाहे को जुए की लत लगी, किसानों की परेशानियां भी बढ़ गयीं। मटके में अपना दाँव लगाने की चरवाहे को इतनी जल्दी होती कि किसानों के जानवरों को समय से पहले ही छोड़कर वो मोटर साइकिल पर जुए के अड्डे पर चला जाता था। अपने जानवरों को संभालने के लिए किसानों को खेत का काम बीच में छोड़कर आना पड़ता था। चरवाहे की जुए की लत ने किसानों को बहुत बड़ी परेशानी में डाल दिया था, लेकिन जब से चरवाहे ने स्मार्ट फोन ख़रीदा किसानों की परेशानी दूर हो गयी। चरवाहा अब दाँव लगाने अड्डे पर नहीं जा रहा था और किसानों के जानवरों की देखभाल करते हुए ही मोबाइल फोन पर एप्प के ज़रिये जुआ खेलने लगा था। सुभाष को चरवाहे के बारे में जो जानकारियां मिलीं, उससे उनके मन में नए-नए विचार आने लगे। उन्होंने सोचा कि जब गाँव का एक चरवाहा मोबाइल स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर सकता है तो दूसरे गाँववाले क्यों नहीं कर सकते? चरवाहा तो स्मार्ट फोन का इस्तेमाल ग़लत काम के लिए कर रहा है, लेकिन दूसरे गाँववाले अच्छे कामों के लिए स्मार्ट फोन का इस्तेमाल क्यों नहीं कर सकते? स्मार्ट फोन के ज़रिये क्या किसानों तक वो जानकारियाँ नहीं पहुंचायी जा सकती हैं, जिनसे उन्हें फ़ायदा होता हो?





इन्हीं प्रश्नों का जवाब ढूँढ़ते समय सुभाष मनोहर लोढ़े के मन में एक क्रांतिकारी विचार आया। उन्होंने स्मार्ट फोन जैसे आधुनिक, लेकिन आसानी से उपलब्ध इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के ज़रिये किसानों तक वो जानकारियाँ उपलब्ध करवाने की सोची, जिससे उन्हें खेती-बाड़ी में फ़ायदा हो सके। और कुछ दिनों बाद अपने विचारों को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने काम भी करना शुरू कर दिया। 
सुभाष ने मौसम, मिट्टी की गुणवत्ता, बींज, खाद , रसायन, बाज़ार में अलग-अलग उत्पादों का भाव जैसी बातों की जानकारी सूचना प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मदद से किसानों तक पहुँचाने की दिशा में काम शुरू कर दिया।

किसानों की मदद का इरादा इतना पक्का था कि सुभाष मनोहर लोढ़े ने लाखों की नौकरी छोड़ दी। मार्च, 2015 में नौकरी छोड़ने के बाद सुभाष ने देश के किसानों के विकास और कल्याण के लिए एग्रोबुक नाम से स्टार्टअप की शुरुआत की। Agrowbook.com के ज़रिये सुभाष ने पहली बार देश में आईटी टेक्नोलॉजी और स्मार्ट फोन के ज़रिये खेती-बाड़ी, बागवानी, पशु-पालन और मछली-पालन में लाभकारी सिद्ध होने वाली जानकारियाँ देने का सिलसिला शुरू किया। Agrowbook.com के ज़रिये ही सुभाष किसानों को ये जानकारी भी दे रहे हैं कि कैसे खेतों में उपज बढ़ायी जा सकती हैं। देश और दुनिया में कृषि के क्षेत्र में हो रहे अलग-अलग शोध और अनुसंधान के परिणाम भी अब किसान जान पा रहे हैं। agrowbook.com को राष्ट्रीय ग्रामीण अनुसंधान प्रबंधन अकादमी से भी मदद मिल रही है। इसी मदद से उन्हें देश में कृषि के क्षेत्र में हो रहे अगल-अलग अनुसंधानों के नतीजों का पता चल रहा है। इस स्टार्टअप का राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान से भी करार हुआ है। इस करार के तहत agrowbook.com रूरल टेक्नोलॉजी पार्क की जानकारियां देश-भर में प्रसारित कर रहा है।

सुभाष की कोशिश है कि आईटी टेक्नोलॉजी और आधुनिक और आसानी से उपलब्ध इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के ज़रिये देश के किसानों को भी जोड़ा जाय, ताकि वे आपस में ज्ञान-विज्ञान, अपने अनुभवों, कामयाब प्रयोगों की जानकारियाँ आपस में साझा कर लाभ उठाएं। Agrowbook.com एक ऐसा माध्यम भी बना है, जिसके ज़रिये किसान बिजली, पानी, खाद जैसे चीज़ों के सही समय पर सही इस्तेमाल की जानकारी भी पा सकते हैं। किसानों को संकट से उभरने के उपाय बताने का काम भी सुभाष अपने इस स्टार्टअप के माध्यम से कर रहे हैं। Agrowbook.com में सुभाष के ऐसे कई सारे वीडियो भी डाले हैं, जिन्हें देखकर किसान बहुत कुछ सीख सकते हैं। Agrowbook का एप्प भी लांच किया जा चुका है। 


सुभाष मनोहर लोढ़े कहते हैं, "ये तो बस एक शुरुआत है। अभी बहुत काम करना बाकी है। ज्यादा से ज्यादा किसानों तक इसे पहुँचाने की ज़रुरत है। और भी जानकारियाँ जुटनी है।"

महत्वपूर्ण बात ये भी है कि सुभाष ने Agrowbook.com की गतिविधियों का विस्तार करते हुए ज्यादा से ज्यादा किसानों को विकास के नए मार्ग दिखाने के लिए बड़ी योजना भी बना ली है। इस योजना के तहत सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं, शोध और अनुसंधान केंद्रों, किसान संगठनों से गठजोड़ और समझौतों का भी प्रस्ताव है। किसानों के विकास के लिए इतनी बड़ी और अपने किस्म की पहली योजना बनाने वाले सुभाष मनोहर लोढ़े भी किसान-परिवार से ही हैं। बचपन से ही वे खेती-बाड़ी से जुड़े रहे और उन्होंने शुरू से ही किसानों की समस्याओं को अच्छी तरह से जाना और समझा है। सुभाष ने भी अपने जीवन में कई मुसीबतें झेली है। परेशानियों और चुनौतियों का सामना किया है। ग़रीबी, गाँव के पिछड़ेपन, सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं के थपेड़े खाये हैं। उनकी कहानी भी संघर्षों से भरी हुई है।

विपरीत परिस्थियों से लड़ने, उससे उबरने वाली प्रेरणादायक सुभाष की कहानी की शुरुआत महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के वणी से शुरू होती है। 7 दिसंबर, 1979 को सुभाष मनोहर लोढ़े का जन्म हुआ। पिता किसान थे और अपनी सात एकड़ ज़मीन में खेती-बाड़ी करते हुए घर-परिवार चलाते थे, लेकिन जिस इलाके में खेत थे, वहां बारिश सामान्य से कम होती थी। अक्सर सूखा रहता। यवतमाल जिला देश-भर में किसानों की आत्महत्याओं की वजह से भी हमेशा चर्चा में रहा है। इस जिले में मौसम बहुत की कम बार किसानों पर मेहरबान रहा है। किसान लगातार मौसम की मार झेलते ही रहे हैं। सूखा-ग्रस्त रहने वाले इलाके में पैदा हुए सुभाष के पिता शुरू से ही चाहते थे कि उनका बेटा पढ़े-लिखे और बड़ी डिग्रीयाँ लेकर नौकरी करे। पिता ने सुभाष का दाखिला जिला परिषद स्कूल में करवाया। यहाँ उन्होंने पांचवीं तक पढ़ाई की। सारी पढ़ाई मराठी मीडियम से ही हुई। इसके बाद सुभाष ने नवोदय विद्यालय की प्रवेश परीक्षा लिखी। चूँकि बचपन से ही दिमाग तेज़ था वे प्रवेश परीक्षा में पास हो गए और उन्हें नवोदय विद्यालय में दाखिला मिल गया। सुभाष ने छठीं से आठवीं तक की पढ़ाई यवतमाल टाउन के इसी विद्यालय से की। इसके बाद उन्हें स्कूल के एक कार्यक्रम/योजना के तहत जम्मू-कश्मीर में जाकर पढ़ने का मौका मिला। सुभाष ने दो साल तक जम्मू-कश्मीर के एक नवोदय विद्यालय में पढ़ाई की। यहाँ से दसवीं पास करने के बाद ये वापिस अपने यहाँ यानी वणी आ गये। वणी के लोकमान्य तिलक महाविद्यालय से उन्होंने दसवीं और बारहवीं की पढ़ाई पूरी की।


ख़ास बात ये रही कि स्कूली पढ़ाई के दौरान जब कभी मौक़ा मिलता, सुभाष अपने पिता के साथ खेत जाते और वहाँ काम करते। छोटी उम्र से ही सुभाष ने खेतों में जाना और खेती-बाड़ी का काम करना शुरू कर दिया था। जैसे-जैसे वे बड़े होते गये, उन्होंने खेती-बाड़ी के बड़े काम भी शुरू कर दिए। किशोरावस्था में ही सुभाष खेती-बाड़ी का सारा काम सीख गए थे। जुताई-बुआई के सारे काम से लेकर भैंस का दूध निकालना और फिर उसे ले जाकर बेचने, बैलों और दूसरे जानवरों का चारा खिलाना जैसे सभी काम करना सुभाष करते थे। पढ़ाई-लिखाई के बीच खेती-बाड़ी बदस्तूर जारी रही। खेतों से न कभी नाता छूटा न कभी मुहब्बत कम हुई।

बारहवीं की पढ़ाई के बाद सुभाष को उनकी काबिलियत और प्रवेश परीक्षा में रैंक की बदौलत शेगाँव इंजीनियरिंग कॉलेज में सीट मिल गयी। 1998 से 2002 तक सुभाष ने इस कॉलेज से पढ़ाई की। उन्होंने यहाँ से बीटेक (इलेक्ट्रिकल्स - पॉवर) की डिग्री हासिल ही।

बीटेक की डिग्री मिलते ही सुभाष और उनके घरवालों में उम्मीद जगी कि अब उन्हें अच्छी तनख्वा पर अच्छी जगह नौकरी मिलेगी। नौकरी की वजह से घर-परिवार की परेशानियाँ दूर होंगी। ग़रीबी से नाता टूटेगा लेकिन, सुभाष को तुरंत नौकरी नहीं मिली। नौकरी के लिए कई दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े। बीटेक की डिग्री होने बावजूद उन्हें नौकरी नहीं मिली। घर-परिवार से दबाव तो नहीं था, लेकिन सुभाष जानते थे कि परिवारवाले उनसे कमाई की आस लगाए हुए हैं। ये स्वाभाविक भी था। काफी खर्च कर, बड़ी उम्मीदों के साथ माता-पिता ने सुभाष को पढ़ाया था। नौकरी न मिलने से सुभाष भी बहुत परेशान हुए। उन्हें बेचैनी होने लगी। नौकरी की तलाश में वे नागपुर गए। जब वहाँ भी नौकरी नहीं मिली तो इतने हताश हुए कि कमाई के लिए सड़कों पर घड़ियाँ बेचने लगे।

परेशानियों से भरे उन दिनों के बारे में जानकारी देते हुए सुभाष मनोहर लोढ़े ने कहा,
" मैं नौकरी की तलाश में नागपुर गया था। वहां मैं अपने भाई के एक दोस्त के यहाँ रहा था। नौकरी के लिए बहुत जगह घूमा-फिरा, लेकिन नौकरी नहीं मिली। मुझे समझ में नहीं आ रहा था मैं क्या करूँ। खाली था और अलग-अलग विचार मन में आ रहे थे। ऐसी हालत मैं मैंने कुछ दिन के लिए सड़कों पर गैजेट भी बेचे, लेकिन जल्द ही मुझे लगा कि मैं इस काम के लिए नहीं बना हूँ।"

बिना नौकरी के वे दिन कितने दुःख और दर्द भरे थे इस बात का अहसास दिलाने के मकसद से सुभाष ने हमें ये भी बताया," सिर्फ दो समोसे खा कर मैंने दिन बिताए थे नागपुर में। उन सात-आठ महीनों को मैं नहीं भूल सकता।" 


2003 में सुभाष को नौकरी मिली। मुंबई के ऐरोली इलाके में श्रीराम पॉलिटेक्निक कॉलेज में उन्हें लेक्चरर का काम मिला। यहाँ एक साल पढ़ाने के बाद उन्हें ठाणे के केसी कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग में प्लेसमेंट ऑफिसर की नौकरी मिली। यहाँ पर काम करते हुए उन्होंने कई छात्रों को नौकरियों पर लगवाया था। कॉलेज के छात्रों को इनफ़ोसिस, टीसीएस जैसे बड़ी कंपनी में नौकरियाँ दिलवाई थी सुभाष ने। ये नौकरियाँ दिलवाते समय सुभाष को इस बात का अहसास हुआ कि वे छात्रों को नौकरी दिलवा रहे हैं फिर भी उनकी तनख्वा उन छात्रों से बहुत कम है, जो पहली बार नौकरी करने जा रहे हैं। उन्हें ये भी लगा कि सॉफ्टवेयर की कंपनियाँ ज्यादा तनख्वा देती हैं और वहाँ रोज़गार के अवसर भी ज्यादा हैं। इसी वजह से सुभाष ने सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग भी सीखना शुरू किया। सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी की जानकारी हासिल करने की वजह से ही उन्हें यूनिसिस नाम की कंपनी में नौकरी मिल गयी। सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग सीखने का फैसला सुभाष के बहुत काम आया। वो सही समय पर लिया गया फैसला था। आगे चलकर सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए काम करते हुए ही उन्होंने तरक्की की। करीब चार साल तक यूनिसिस में काम करने के बाद उन्होंने कंपनी बदली। नौ महीनों तक उन्होंने हेक्सावेर टेक्नोलॉजीज में काम किया। फरवरी, 2011 में उन्होंने हारस्को कॉर्पोरेशन ज्वाइन किया।


नौकरी करते हुई सुभाष ने अपने ग्रामीण इलाके के पढ़े-लिखे नौजवानों की मदद के लिए एक ग्रामीण बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग कंपनी यानी रूरल बीपीओ खोला। ये बीपीओ मुंबई के एक रिसोर्ट में बिज़नेस को बढ़ावा देने के लिए मैत्रेया ग्रुप की मदद से खोला गया था। नौकरी के इन्हीं दिनों में जब सुभाष को एक बार गाँव जाना हुआ तो उन्हें चरवाहे के समार्ट फोन पर मटका जुआ खेलने की जानकारी मिली। और फिर अपने गाँव से ही नए-नए विचार लेकर वे शहर आये। लाखों रुपये वाली नौकरी छोड़ी और Agrowbook.com शुरू किया। Agrowbook.com की वजह से कृषि और उससे अनुबद्ध क्षेत्रों में एक नयी सकारात्मक क्रांति की शुरुआत हुई है।

‘‘एक गाँव’’ संस्था ने बदली 10,000 किसानों की जिंदगी, किसानों की आय में 70 प्रतिशत की ऐतिहासिक वृद्धि

दिल्ली की संस्था 'एक गाँव' टेक्नोलॉजीज़ के फाउंडर विजय प्रताप सिंह आदित्य के अनुसार “ सभी मोबाइल आधारित सेवाओं में सबसे बड़ी खामी ये है कि वो सिंगल टूल में एक यूज़र को वो जानकारी नहीं दे पाती जो उसे चाहिए। इसमें कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे एक यूज़र कुछ नया सीखकर खेती में कुछ बेहतर कर अपने क्षेत्र में महारत हासिल कर सके।

'एक गाँव' टेक्नोलॉजीज़ कृषकों की इस समस्या का निदान दो चरणों में करता है। पहला किसान एक गाँव को ज्वाइन करते हैं, जिसमें उन्हें मोबाइल फोन के द्वारा कृषि और उत्पादन क्षमता को पहले की अपेक्षा बेहतर बनाने की जानकारी दी जाती है। दूसरे संस्था ने एक गाँव डॉट कॉम की शुरुआत की है ये एक ऐसा प्लेट फॉर्म है जो सीधे किसान को ग्राहकों से जोड़ता है और उन्हें सेहतमंद, प्राकृतिक और आर्गेनिक खाना प्रदान कराता है।


सिर्फ़ 150 रुपए में पाएं अनुकूलित कृषि सलाहकार सेवाएँ

'एक गाँव' का डिलीवरी मॉडल “मुझे जब चाहिए” की तर्ज पर तैयार किया गया है। ये किसानों को असली मदद फ़सल बोने के दिनों में पहुँचाता है। इसका लक्ष्य खेती को सहज और जटिलताओं से परे बनाना है। यहाँ किसानों को 150 रुपए में एक बेहतरीन सेवा दी जाती है, जिसके अंतर्गत उन्हें ऐप द्वारा अनुकूल कृषि सलाहकार सेवाएँ प्रदान करी जाती हैं। इस सेवा में किसान को उसकी मिट्टी, जलवायु,फ़सल की बीमारियों, बाज़ार भाव आदि सभी चीज़ों के बारे में बताया जाता है। इस ऐप की ख़ास बात ये भी है कि यहाँ ये जानकारी भी मौजूद है कि उनकी फ़सल को लोकल अथॉरिटी द्वारा कितना पानी मुहैया कराया जायगा। ये सभी जानकारियाँ किसानों को एसएमएस के रूप में उनकी स्थानीय भाषा में दी जाती है । साथ ही इसमें कस्टमर हेल्पलाइन भी है, जिसमें जाकर वो अपनी समस्या का निवारण कर सकते हैं। इतना होने के बावजूद भी आज 'एक गाँव' में सुधर की गुंजाईश है और संस्था द्वारा यही प्रयास किये जा रहे हैं कि एक यूज़र को ऐप इस्तेमाल करते वक़्त कम से कम परेशानियों का सामना करना पड़े।

वर्तमान में 'एक गाँव' तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के 465 गावों में तकरीबन 20,000 किसानों के साथ काम कर रहा है। गत वर्ष खेती की समस्या को लेकर उन्होने एक सर्वे कराया था और उस सर्वे पर काम करते हुए आज जो परिणाम प्राप्त हुए हैं वो कमाल के हैं।

विजय कहते हैं कि हमने अपने सर्वे में 10,000 किसानों को शामिल किया जिसमें प्रति औसत उत्पादन वृद्धि प्रति एकड़ 24.91 क्विंटल दर्ज करी गयी जो पहले प्रति एकड़ 12.05 क्विंटल थी।

बाज़ार में क्या विपत्तियां है ?

उरद की दाल के बारे में बात करते हुए विजय कहते हैं कि आज मेट्रो में ये 100 रुपए से 125 रुपए प्रति किलो की दर से बेची जा रही है। कुछ सालों पहले इसकी कीमत 65 – 80 रुपए प्रति किलो थी। इसके मुकाबले चावल की कीमतें जस की तस है और पिछले तीन सालों में चावल की कीमतों में 1 रुपए का भी इज़ाफा नहीं हुआ है। साथ ही सरकार का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी इसमें कुछ विशेष परिवर्तन नहीं ला सका है। अतः इन हालातों में एक किसान का समृद्ध होना एक टेड़ी खीर है।

बासमती चावल का एक उदाहरण देते हुए वे बताते हैं कि “ 2 साल पहले 900 किसानों ने 5,000 मेट्रिक टन बासमती चावल इस उम्मीद के साथ बोया था था कि उन्हें बेहतर दाम मिलेंगे मगर जब वो बेचने चले तो उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। इन किसानों की सबसे बड़े ख़रीदार स्वयं भारत सरकार थी जिन्होंने इनसे 14 रुपए प्रति किलो की दर से ये चावल ख़रीदा। आपको बताते चलें कि आज यही चावल बाज़ार में 100 रुपए प्रति किलो की दर से बिक रहा है।

कैब एग्रीगेटर्स के रूप में तुलना करते हुए विजय कहते हैं कि “ उबेर, ओला या अन्य टैक्सी मॉडल ने आज एक अनोखा काम किया है। जो ड्राइवर कभी 15,000 रुपए कमा रहे थे आज उनकी आय चौगुनी है साथ ही ग्राहक भी संतुष्ट है जो उचित दामों में यात्रा कर रहा है। विजय कहते हैं कि कुछ ऐसा ही मॉडल कृषि के क्षेत्र में भी लागू करना चाहिए।


कैसे हुआ 'एक गाँव' का बाज़ार में प्रवेश

पिछले वर्ष विजय ने किसानों को उनका सामान मुनासिब दामों में बेचने के लिए एक गाँव ब्रांड के अंतर्गत एक ऑनलाइन प्लेट फॉर्म की शुरुआत करी। आपको बता दें कि सिर्फ साल भर में इसने 5,000 ग्राहकों का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित किया जिन्होंने इस प्लेट फॉर्म को हाथों हाथ लिया। साथ ही आज इस प्लेटफॉर्म में 50 प्रतिशत वो लोग हैं जो दोबारा इनसे जुड़े। इस प्लेट फॉर्म में 50 से ज्यादा प्रोडक्ट बेचे जाते हैं। विजय के इस प्लेटफ़ॉर्म से जिसमें बाइल आधारित सलाहकार ससेवाएँ भी शामिल हैं, से किसानों को भारी मुनाफ़ा हुआ है और उनकी मासिक आय में 8,500 रुपए की बढ़त देखने को मिली है जो इनकी कुल आय का 67 प्रतिशत है।

अगले कुछ वर्षों में 'एक गाँव' रिटेल मार्किट में अपनी पैठ जमाने की दिशा में काम कर रहा है और ये उन साझीदारों से लगातार संपर्क में है जो थोक में माल लेते हैं। इसके अलावा आने वाले 5 सालों में एक गाँव अपने साथ 15 मिलियन किसानों को जोड़ना चाहता है जिससे ये 100 करोड़ का रेविन्यू पाने के लक्ष्य को प्राप्त कर लें।

सूखे से त्रस्त 14000 किसानों के जीवन में परिवर्तन की ज्योति जगाने वाले बिप्लब केतन पॉल

आज जहाँ सारे देश में किसान विपरीत परिस्थितियों के कारण आत्महत्याएँ करने लगें हैं। पानी की कमी खराब फ़सलों और बैंकों के बढ़ते ऋण के कारण परेशान हैं, एक उद्यमी ने उनके लिए वरदान सिद्ध होने वाली तकनीक पेश की है। उत्तर गुजरात के निवासी बिप्लब केतन पॉल की भुंग्रु तकनीक के चर्चे आज देश भर में हैं। आइए जानते हैं बिप्लब केतन ने 14000 किसानों के जीवन में किस तरह परिवर्तन की ज्योति जगाई है। 

बात 2012 की है, जब लम्बे समय से जल प्रबंध की दिशा में काम करने वाले उत्तर गुजरात निवासी बिप्लब केतन पॉल की झोली में नौवाँ अनिल शाह ग्राम विकास पारितोषिक आया। डीएनए में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार भुंग्रू नाम की एक तकनीक के इस्तेमाल से इस क्षेत्र में लवणता को दुरुस्त कर पानी की कमी को दूर किया गया है। ये तकनीक सूखे की स्थिति में उन हिस्सों में एक बफ़र की तरह काम करती है, जहाँ जल का स्तर अपेक्षाकृत मानकों से नीचे है। ये एक ऐसी तकनीक का इस्तेमाल ही है, जिसके चलते आज प्रदेश का किसान उन हिस्सों से सालाना 3 फ़सलें निकाल रहा है, जहाँ किसी समय जल स्तर में भारी गिरावट देखने को मिली थी। आज आलम ये है कि इस तकनीक के इस्तेमाल से प्रदेश के किसानों को बड़ा मुनाफ़ा देखने को मिला है। इससे उनके बीच ख़ुशी की नयी लहर आई।


अब यदि बात इस बेहतरीन तकनीक के श्रेय की हो तो ये अनोखा काम किया है, अहमदाबाद के एक उद्यमी बिप्लब ने। बिप्लब एक कुशल उद्यमी होने के अलावा समाज सेवी भी हैं। बिप्लब की इस मुहीम की अगुवाही महिलाएँ करती हैं और अब तक इनके प्रयास ने 14,000 किसानों की 40,000 एकड़ से ज्यादा की बंजर जमीन को हरा भरा और उपजाऊ किया है। द वीकेंड लीडर में प्रकाशित एक रिपोर्ट की मानें तो 46 साल के बिप्लब के अनुसार “जल शक्तिशाली है, जिसपर नियंत्रण नहीं किया जा सकता” इसके बावजूद इस मिथक को तोड़ते हुए बिप्लब ने अपनी भुंग्रू तकनीक द्वारा जल संरक्षण की दिशा में काम किया और उसे कामयाबी के साथ जन – जन में पहुँचाया। इस तकनीक के अंतर्गत जमीन के अंदर मौजूद पानी को साफ़ करने के लिए पाइपों का इस्तेमाल किया जाता है। ज्ञात हो कि ऐसा करके केवल पाइपों में ही 40 मिलियन लीटर पानी संरक्षित किया जाता है।

इस तकनीक की खास बात यह है कि एक अकेला भुंग्रू साल में केवल 10 दिन पानी का संरक्षण कर पाता है। इसको 7 महीनों तक सुगमता के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है, जिससे पांच परिवार 25 साल तक साल में दो बार फ़सल तैयार कर सकते हैं। इसके अलावा ये तकनीक वर्षा जल में मौजूद नमक को भी कम करती है, जिसके चलते जहाँ एक तरफ़ इसका इस्तेमाल कृषि में किया जा सकता है तो वहीँ इसे पीने और खाना बनाने के लिए भी इस्तेमाल में लाया जा सकता है।

बताया जाता है कि वर्ष 2002 में 7 लाख रुपए प्रति यूनिट के हिसाब से खर्च करके गुजरात के पाटन जिले में इस तकनीक की पहली यूनिट को डाला गया था। वर्तमान में भुंग्रू यूनिट 17 अलग – अलग डिज़ाइन में उपलब्ध हैं और इनकी कीमत इनकी भिन्न विशेषताओं के अनुसार 4 लाख से 22 लाख रुपए के बीच है। इस यूनिट को इंस्टाल करने में 3 दिन का समय लगता है, जहाँ हर एक यूनिट से 15 एकड़ जमीन के लिए भरपूर पानी की व्यवस्था करी जा सकती है। साथ ही इससे ज़मीन की उत्पादन क्षमता को दो बार के लिए भी तैयार किया जा सकता है।

अंत में आपको बताते चलें कि जल संरक्षण की दिशा में काम करते हुए और जल की दशा को सुधारते हुए बिप्लब को 2012 में अशोक ग्लोबलाइज़र अवार्ड मिल चुका है। साथ ही इन्हें अपने प्रयासों के लिए वर्ल्ड बैंक, कॉमनवेल्थ, एशियाई डेवलपमेंट बैंक, यूएन द्वारा कई पुरस्कारों और अनुदानों से नवाज़ा जा चुका है।

उल्लेखनीय है कि बिप्लब केतन पॉल ने 2004 में विश्व बैंक के आईवीएलपी(इंटरनेशनल विजिटर लीडरशिप प्रोग्राम) का हिस्सा बने। उन्होंने गांधी जी के सिद्धांत अंत्योदय से सर्वोदय के सिद्धांत को अपनाते हुए समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े किसान की मदद के लिए अपने आपको समर्पित किया और वर्षाजल संरक्षण के एक बड़े अभियान पर निकल पड़े।

माँ की जान को जोखिम में पड़ने से बचाने के लिए किये संकल्प ने अय्यप्पा को बनाया 'जल-क्रांति का नायक'

कर्नाटक के एक सूखा पीड़ित गाँव में किसान के घर पैदा हुए अय्यप्पा मसगि ने बचपन में एक डरावना मंज़र देखा था। कई किलोमीटर पैदल चलकर जिस कुदरती कुएँ से माँ पानी निकालती थीं, वह मिट्टी के तोदों से भरा हुआ था, मिट्टी खिसकी कि इंसान उसमें दबकर खत्म। छोटा से बालक ने अपनी माँ को उस जोखिम में देखकर तय किया कि एक दिन वह माँ के साथ-साथ गाँव के सभी लोगों को उस जोखिम से बाहर निकालेगा और पानी की समस्या का ऐसा हल तलाश करेगा कि लोग मिट्टी के नीचे दबकर अपनी जान न गँवा बैठें। एक ऐसा अधनंगा बच्चा जिसे पहनने को केवल शर्ट मौजूद है, स्कूल में किताबें खरीदने के लिए रुपये नहीं हैं, पढ़ने के लिए अगर मिट्टी के दिये का भी इस्तेमाल करें तो पिता को फिज़ूलखर्ची लगती है, जिसे पढ़ने के दौरान रिश्तेदारों से मिले पुराने कपड़े पहन कर गुज़ारा करना पड़ता है, जिसे कॉलेज की फीस अदा करने के लिए माँ के गहने बेचने पड़ते हैं, यही बालक न केवल अपने स्कूल, अपने कॉलेज और अपनी कंपनी में नंबर वन बन जाता है, बल्कि नौकरी छोड़ने के बाद अपनी पत्नी और बेटी से पागल और नालायक जैसी अपशब्द और गालियाँ सुनकर भी विचलित नहीं होता और एक दिन अपने गाँव ही नहीं, बल्कि पूरे देश में सूखे और तूफान के बीच पानी को बचाने और उसके इस्तेमाल के तरीके तलाशने का ‘जलदूत’ बन जाता है। पुत्र के प्रति लापरवाह और कंजूस पिता, लेकिन चिंता करने वाली माँ के पुत्र अय्यप्पा मसगि आज कर्नाटक, तमिलनाडू, आंध्र-प्रदेश एवं तेलंगाना सहित विभिन्न राज्यों में ‘जलक्रांति के नायक’ बन गये हैं। उनकी संस्था सैकड़ों गाँवों में सूखे की समस्या से निपटने के लिए किसानों की मदद कर रही है। हौसला, हिम्मत, मेहनत, त्याग और बलिदान की प्रेरणादायी घटनाओं से भरपूर अय्यप्पा मसगि की कहानी बेहद अनोखी है। इस कहानी में सूखे की वजह से किसानों को होने वाली पीड़ा है, गरीबी की मार से ज़ख़्मी लोगों की कराह है, शहरों से दूर रहने की वजह से तरक्की के साधन-संसाधन न मिल पाने की बेबसी है। इस कहानी में संघर्ष है, सूखे और बाढ़ जैसी प्रकृति की मार से उभरने की चुनौती है। गरीबी के थपेड़े खाते हुए भी निरंतर आगे बढ़ने की कोशिश है। ये कहानी है बचपन में बूँद-बूँद पानी को तरसने वाले एक बच्चे के पानी की किल्लत दूर करने वाला एक मसीहा बनने की। ये कहानी है सूखा ग्रस्त इलाके के एक किसान के बेटे की, जिसने बंजर भूमि को भी उपजाऊ बनाने की काबिलियत हासिल की। एक मामूली किसान के बेटे से जल-क्रांति के नायक बने अय्यप्पा मसगि की कहानी नागरला गाँव से शुरू होती है।

अय्यप्पा मसगि का जन्म 1 जून, 1957 को कर्नाटक के गदग जिले के नागरला गाँव में हुआ। पिता महादेवरप्पा गरीब किसान थे। माँ पार्वतम्मा गृहिणी थीं। छह भाई-बहनों में अय्यप्पा सबसे बड़े थे। अय्यप्पा के चार छोटे भाई और एक छोटी बहन हैं। वैसे तो महादेवरप्पा और पार्वतम्मा को कुल 12 संतानें हुईं लेकिन 6 संतानों की शिशु-अवस्था या फिर बाल्यावस्था में ही मौत हो गयी। जो संतानें जीवित रहीं उनमें अय्यप्पा सबसे बड़े थे।

लिंगायत जाति के अय्यप्पा का परिवार संयुक्त-परिवार था। अय्यप्पा के पिता महादेवरप्पा के छह भाई थे और सभी मिलजुल कर रहते थे। परिवार के पास 80 एकड़ ज़मीन थी और इसी ज़मीन में खेती-बाड़ी से संयुक्त-परिवार का गुज़र-बसर होता था। लेकिन, सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि गाँव में अक्सर सूखा पड़ता और फसल नहीं हो पाती। सूखे की मार परिवार ने कई बार झेली थी। वैसे भी गदग जिला ही सूखे की वजह से जाना जाने लगा था। गदग जिले में सूखा आम बात हो गयी थी।



अय्यप्पा के माता-पिता दोनों अशिक्षित थे। माँ अय्यप्पा को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहती थीं। लेकिन,पिता चाहते थे कि अय्यप्पा खेती-बाड़ी में उनका साथ दें। अय्यप्पा कहते हैं, “मेरे पिता बहुत ही कंजूस इंसान थे। रुपये-पैसे उनको बहुत प्यारे थे। वे मेरी पढ़ाई-लिखाई पर खर्च करने को तैयार ही नहीं थे। वे खुदगरज़ इंसान थे। उन्हें दूसरों की फ़िक्र नहीं थी, वे बस अपने बारे में ही सोचते थे। माँ मेरी चाहती थी कि मैं खूब पढ़ाई-लिखाई करूँ। माँ की जिद की वजह से ही मैं स्कूल जा पाया था।”

पिता कितने बड़े कंजूस थे इस बात को बताने और समझाने के लिए अय्यप्पा मसगी ने एक घटना सुनायी। उन्होंने कहा, “हमारा मकान बहुत छोटा था। मिट्टी का बना हुआ मकान था। घर में बिजली नहीं थी। एक रात मैं कंदील की रोशनी में पढ़ाई कर रहा था। इतने में मेरे पिता आ गए और उन्होंने जैसे ही देखा कि मैं कंदील की रोशनी में पढ़ रहा हूँ वे आग-बबूला हो गए। उन्होंने गुस्से में सबसे पहले कंदील को बुझाया और फिर जोर से मुझे एक चांटा मारा। मुझे समझ में नहीं आया कि मेरे पिता ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया था। जब माँ ने पूछा कि मुझे किस बात की सजा मिली है तब पिता ने बताया कि कंदील की रोशनी में पढ़ाई कर मैं किरोसीन बर्बाद कर रहा हूँ। मेरे पिता की नज़र में किरोसीन जलाकर पढ़ाई करना फ़िज़ूल खर्च था। वे बिलकुल नहीं चाहते थे कि मैं स्कूल जाऊं और पढ़ाई-लिखाई करूँ। उनका मानना था कि किसान का बेटा पढ़-लिखकर भी किसान ही बनेगा और जब किसान के बेटे को किसान ही बनना है तब स्कूल जाकर पढ़ने-लिखने की क्या ज़रुरत है।”

लेकिन, अय्यप्पा मसगी की माँ के ख्यालात दूसरे थे। उन्हें लगता था कि अगर उनका बेटा पढ़-लिख जाएगा तो उसे नौकरी मिलेगी। नौकरी करने से हर महीने निर्धारित समय पर तनख्वाह मिल जायेगी और गदग जिले के किसानों की तरह मौसम पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। पार्वतम्मा अपने लड़के अय्यप्पा को पढ़ा-लिखा कर बड़ा अफसर बनाने का सपना देखती थीं।

अय्यप्पा भी अपनी माँ से बहुत प्रभावित थे। माँ घर-परिवार चलाने के लिए दिन-रात मेहनत करती थीं। सूखा-ग्रस्त इलाका होने की वजह से गाँव में पानी की इतनी किल्लत थी कि माँ को चार-पांच किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पड़ता। घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पानी बहुत ज़रूरी था। और, पानी के लिए गांववालों के बीच बहुत मारामारी भी होती थी। पानी जुटाने के लिए माँ हर दिन तड़के तीन बजे उठतीं और चार-पांच किलोमीटर दूर पैदल चलकर कुएं के पास जातीं। अक्सर अय्यप्पा भी माँ के साथ पैदल चार-पांच किलोमीटर दूर जाकर घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पानी लाते थे।


अय्यप्पा कहते हैं, “माँ जहाँ से पानी लाती थीं वे कुदरती कुएं थे।चारों तरफ मिट्टी ही मिट्टी होती और माँ को इस मिट्टी में नीचे उतर कर पानी बटोरना होता। इसमें जान को बहुत खतरा था। कई बार ऐसा हुआ था कि अचानक मिट्टी तेज़ी से फिसल जाती थी और इंसान उसी मिट्टी के नीचे दबकर मर जाते थे। माँ और मैं बहुत खुशनसीब थे कि हम जब भी पानी भरने गए तब मिट्टी नहीं फिसली।” इस तरह की घटनाओं की वजह से अय्यप्पा बचपन में ही पानी की अहमियत तो अच्छी तरह से समझ गए थे। पानी जुटाने के लिए माँ की दिन-रात की कोशिशों को देखकर अय्यप्पा ने बचपन में ही संकल्प ले लिया था कि वे बड़े होकर ऐसा कुछ काम करेंगे जिससे लोगों को उनकी माँ की तरह पानी के लिए मुसीबतें न उठानी पड़ें।

माँ की बदौलत ही अय्यप्पा स्कूल जाते थे और उन पर ये जुनून सवार हो गया था कि उन्हें अफसर बनकर अपनी माँ का सपना पूरा करना है। साथ ही उस संकल्प को भी पूरा करना है जहाँ लोगों को पानी के लिए तरसना न पड़े।

अय्यप्पा का दाखिला गाँव के ही सरकारी स्कूल में करवाया गया। उन दिनों ये स्कूल एक मस्जिद में चलता था और अय्यप्पा वहीं जाकर पढ़ते थे। गरीबी का आलम ये था कि अय्यप्पा सिर्फ शर्ट पहनकर ही स्कूल जाते थे। चौथी क्लास तक उन्होंने कभी चड्डी पहनी ही नहीं। अय्यप्पा मुस्कुराते हुए कहते हैं, “सभी बच्चे मेरे जैसे ही थे। आधे नंगे ही स्कूल आते थे सभी। घर में हम सभी ऐसे ही आधे नंगे घूमते-फिरते और खेलते-कूदते थे। उस समय कोई शर्म नहीं थी। हालत इतनी खराब थी कि एक ही शर्ट महीनों तक पहनते थे।”

बचपन की यादें अय्यप्पा के ज़हन में अब भी ताज़ा हैं। उन्हें वे दिन भी याद हैं जब वे मिट्टी में खेलते थे। बदन उनका सारा मिट्टी से सना हुआ होता था। लेकिन, एक मामले में अय्यप्पा गाँव के दूसरे बच्चों के बहुत अलग थे। शुरू से ही अय्यप्पा पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज़ थे। हर कोई टीचर जो भी पढ़ाता अय्यप्पा उसे अच्छे से समझ जाते और सारे पाठ को अपने ज़हन में कैद कर लेते। हर परीक्षा में वे अव्वाल रहते। यही वजह भी थी कि सारे टीचर उन्हें बहुत चाहते भी थे।

अय्यप्पा ने चौथी क्लास तक उसी मस्जिद वाली स्कूल में पढ़ाई की। वे जब पांचवीं में आये तब सरकारी स्कूल का भवन तैयार था। लेकिन, अब उनके सामने बड़ी मुसीबतें थीं। पढ़ाई-लिखाई का खर्च बढ़ गया था। पिता अब भी मदद करने को तैयार नहीं थे। माँ कोशिश तो बहुत कर रही थीं, लेकिन उनके लिए भी किताबें, कलम-दवात के लिए रुपये जुटाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में अय्यप्पा के मन में एक ख्याल आया। उन्होंने अपने टीचरों से मदद मांगने की सोची। टीचर जान चुके थे कि अय्यप्पा बहुत ही मेहनती, आज्ञाकारी और होशियार लड़का है और वो अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से आगे चलकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। इसी वजह से जब अय्यप्पा ने अपने शिक्षकों से मदद माँगी तो उन्होंने झट-से हाँ कर दी। लेकिन, अय्यप्पा स्वाभिमानी थे और उन्होंने इस मदद के बदले अपने शिक्षकों की भी मदद की। अय्यप्पा अपने शिक्षकों के घर जाते और वहां पर वे साफ़-सफाई का काम करते। अय्यप्पा अपने टीचरों के घर-परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कुएं से पानी भी लाते थे। अपने टीचरों के घर में जो काम उन्हें सौंपा जाता वे उसे मन लगाकर पूरा करते थे। टीचर भी अय्यप्पा की सेवा से बहुत खुश थे।

कई बार तो ऐसा भी हुआ कि टीचरों ने अय्यप्पा को अपने घर ही में रख लिया। कई दिनों बाद अय्यप्पा अपने घर जाते थे। माँ भी इस बात पर बहुत खुश थीं कि टीचर सारे अय्यप्पा को बहुत प्यार करते थे और वे उन पर मेहरबान भी थे। अय्यप्पा बताते हैं, “प्राइमरी स्कूल के दिनों में चार मास्टरों ने बहुत मदद की थी। गणप्पा मास्टर, टी.हेच.वाल्मीकि सर, एम.डी.गोगेरी मास्टर और वी.एम.मडीवालार मास्टर ने मुझे बहुत प्यार दिया। मैं कई दिनों तक इन्हीं लोगों के घर पर रहा था। उनका एहसान मैं ज़िंदगी-भर नहीं भूल सकता हूँ।”

हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान भी शिक्षकों ने अय्यप्पा की खूब मदद ही। एस.एल.हंचनाड, आर.एम.दिवाकर और सी.वी.वंकलकुंती शुरुआत में ही जान गए थे कि उनका शिष्य अपने नाम से साथ-साथ उनका नाम भी रोशन करेगा। लेकिन, शिक्षक इस बात को लेकर हैरान थे कि होनहार और तेज़ होने के बावजूद पिता अय्यप्पा की मदद क्यों नहीं कर रहे हैं। एक दिन हंचनाड मास्टर अय्यप्पा के पिता से मिले और उन्होंने कहा- “आपका लड़का बहुत मेहनती है¸, क्लास में हमेशा सबसे आगे रहता है। आगे चलकर ये बहुत बड़ा आदमी बन सकता है, आप इसकी मदद कीजिये और इसकी ओर ध्यान दीजिये।” इस अनुरोध के जवाब में जो बात अय्यप्पा के पिता ने कही उसे सुनकर हंचनाड मास्टर के होश उड़ गए। अय्यप्पा के पिता ने हंचनाड मास्टर से कहा, “आप अपना काम देखिये। मुझे अपना काम करने दीजिये। अय्यप्पा क्या बनेगा मुझे नहीं पता, लेकिन जब बनेगा तब देखेंगे। मैंने तो उसे पढ़ने के लिए नहीं कहा। वो पढ़ रहा सो वो जाने। मुझे आप क्यों परेशान कर रहे हैं? आप मेरे पास अगली बार आईयेगा भी मत।” 


अय्यप्पा अपने पिता की मानसिकता को पहले से जानते थे और इसी वजह से उनकी इन बातों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। अय्यप्पा ने अपने टीचरों की मदद से पढ़ाई-लिखाई जारी रखी। अय्यप्पा ने अपने शिक्षकों को कभी भी निराश नहीं किया। दसवीं की परीक्षा में शानदार प्रदर्शन कर अय्यप्पा ने अपने शिक्षकों का नाम खूब रोशन किया। अय्यप्पा ने वो काम कर दिखाया था जिसे इन शिक्षकों के किसी भी छात्र ने पहले नहीं किया था। अय्यप्पा ने डिस्टिंगक्शन में दसवीं की परीक्षा पास की। उस ज़माने में जहाँ दसवीं की परीक्षा पास करना ही बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जानी थी वहीं अय्यप्पा ने डिस्टिंगक्शन में दसवीं की परीक्षा पास कर न सिर्फ अपने स्कूल, अपने गाँव बल्कि सारे तालुक का नाम रोशन किया था। अपने प्रिय शिष्य की उपलब्धि पर सारे शिक्षक भी फूले नहीं समा रहे थे। गांववाले इतना खुश हुए थे कि सभी ने मिलकर एक भारी जुलूस भी निकाला। अय्यप्पा को गांववाले एक के बाद एक अपने कंधे पर बिठाकर उन्हें सारा गाँव घुमा रहे थे। जब पिता ने ये जुलूस देखा तब उन्होंने गांववालों से पूछा – “मेरे बेटे को लेकर तुम सब ये जुलूस क्यों निकाल रहे हो? मेरे बेटे के गले में फूलों की ये मालाएं क्यों पहनाई गयी हैं?” गांववाले भी जानते थे कि पिता को अय्यप्पा की पढ़ाई-लिखाई से कोई लेना-देना नहीं है। अय्यप्पा कहते हैं, “मेरे पिता कभी भी शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझ पाए। उन्हें लगता कि गाँव के लोगों को गाँव में ही रहना है और उन्हें वही काम करने हैं जो उनके पुरखे करते आये हैं। पिता को ये भी मालूम था कि उनका लड़का दसवीं की परीक्षा में पास हो गया है। डिस्टिंगक्शन क्या होता है ये तो उन्हें मालूम ही नहीं था। वे बस अपने में मस्त रहते थे। सारा गाँव खुश था, सभी जश्न मना रहे थे, पिता मेरे इन सब से बेपरवाह थे।”

अय्यप्पा से हमारी बेहद ख़ास मुलाकार बेंगलुरु में उनके घर पर हुई थी। इस मुलाक़ात के दौरान दो और घटनाओं का ज़िक्र कर वे बहुत भावुक हो गए थे। ये घटनाएं ऐसी थीं जहाँ उन्हें अपने मास्टर से मार पड़ी थी।

मास्टर के हाथों पिटाई की पहली घटना बताते हुए अय्यप्पा ने कहा, “मैं क्लास में सबसे तेज़ था। गणित में भी मैं सबसे आगे था। जब कोई लड़का टीचर के सवाल का गलत जवाब देता तब टीचर मुझे उनकी पिटाई करने को कहते। क्लास का एक नियम बन गया था- जो विद्यार्थी गलत जवाब देते थे उनकी पिटाई सही जवाब देने वाले विद्यार्थियों से कराई जाती। कई बार ऐसा होता कि मैं अकेला ही सही जवाब देने वाला विद्यार्थी होता और मुझे ही क्लास के बाकी सारे विद्यार्थियों को पीटना पड़ता। गणपति मास्टर मुझसे कहते दूसरे विद्यार्थियों की नाम पकड़ो और गालों पर जमकर तमाचे जड़ो। मैं ऐसा ही करता। और गाँववाले भी मुझे ये कहकर उकसाते थे – “अय्यप्पा, पीट, और जमकर पीट” । इन बातों से मुझमें ऐसा जोश आता कि मैं वाकई सहपाठियों की जमकर पिटाई कर देता, कसकर उनकी नाक पकड़ता और गालों पर जोर से चांटे मारता। इस पिटाई की वजह से कुछ विद्यार्थी मेरे दुश्मन हो गए। एक दिन जब मैं स्कूल से छुट्टी के बाद घर लौट रहा था था तब कुछ विद्यार्थियों ने मुझे पकड़ लिया और बदले की भावना से मुझे पीटने लगे। मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने पलटवार किया। वहां पर मुझे लोहे की एक सीख दिखाई दी और मैंने उसे उठा लिया। मैंने लोहे की सीख लेकर एक विद्यार्थी पर हमला कर दिया। हमला इतना ज़ोरदार था कि उसका मूंह फट गया। चेहरे के एक तरह का हिस्सा बिलकुल बिगड़ गया। इस हमले के बाद सारे विद्यार्थी वहां से भाग गए। मैं भी बहुत डर गया था। मेरी समझ में भी कुछ नहीं आ रहा था। तैश में मैंने अपने एक सहपाठी को खून-खून कर दिया था। मैं इतना घबरा गया था कि मैं मंदिर गया और वहीं छुप गया। लेकिन, टीचरों ने मुझे ढूँढ निकाला और मेरी जमकर धुनाई की। ये पहली बार ऐसा हुआ था जब मैंने किसी टीचर से मार खाई थी।”

अय्यप्पा ये कहते हुए बहुत खुश होते हैं कि “मैंने कभी पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में अपने शिक्षकों से मार नहीं खाई। मेरी पिटाई इस वजह से हुई क्योंकि मैंने कुछ बदमाशी की, या फिर मेरे टीचर किसी गलतफहमी का शिकार हुए। मैंने अपने स्कूल के दिनों में सिर्फ दो बार ही मास्टर से मार खाई थी।”

मास्टर के हाथों पिटाई की दूसरी घटना के बारे में बताते हुए अय्यपा ने कहा, “ये घटना उस समय की है जब मैं सातवीं क्लास में था। बसवलिंगय्या नाम के मास्टर हमें पढ़ा रहे थे। उन्होंने मुझसे मेरी पेन ली थी। मैं दूसरी बेंच में बैठता था और चूँकि मास्टर का हाथ मुझ तक नहीं पहुँचता था , उन्होंने पेन पहली बेंच पर मेरे सामने बैठे एक विद्यार्थी को थमा दी। वो विद्यार्थी मुझसे शरारत करने लगा। वो विधार्थी मेरी पेन मेरे सामने करता और जैसे ही मैं उसे लेने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाता वो पेन पीछे खींच लेता। कुछ देर तक ये सिलसिला चला। बसवलिंगय्या मास्टर जब ब्लैक बोर्ड पर लिख रहे थे तब ये सिलसिला चल रहा था, इसी वजह से वे नहीं देख पाए थे। सहपाठी की शरारत से जब मैं तंग आ गया तब मैंने जोर से उस पर झपटा मारा और पेन खींच ली। ये चीज़ बसवलिंगय्या मास्टर ने देख ली और उन्हें लगा कि मैंने बेवजह ही अपने सहपाठी पर झपटा मारकर उसे ज़ख़्मी किया है। इस बात के लिए मुझे चांटा मारा गया।”


सूडी के गुरु महंतेश्वर हाई स्कूल से डिस्टिंगक्शन में दसवीं पास करने के बाद अय्यप्पा प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स में साइंस पढ़ना चाहते थे। लेकिन, कॉलेज की फीस इतनी ज्यादा थी कि माँ उसका बोझ उठाने में असमर्थ थीं। गरीबी और हालात की मजबूरी में अय्यप्पा को साइंस के बजाय कॉमर्स लेना पड़ा। अय्यप्पा बताते हैं, “चूँकि मुझे डिस्टिंगक्शन मिला था कॉमर्स में मुझे मेरिट लिस्ट में जगह मिल गयी थी। फीस भी नहीं भरनी पड़ी और मुझे हॉस्टल में रहने के लिए भी मुफ्त में ही जगह मिल गयी। खाना-पीना, किताबें सब मुफ्त में ही मिला। अगर मैं साइंस लेता तो मुझे 450 रुपये अदा करने पड़ते। हमारे लिए उस समय ये बहुत बड़ी रकम थी। इतने रुपये जुटाना मेरी माँ के बस की बात नहीं थी।”

अय्यप्पा का दाखिला नवलगुंडा के शंकर आर्ट्स एंड साइंस कॉलेज में हुआ। इस कॉलेज में भी अय्यप्पा ने मन लगाकर पढ़ाई ली। हमेशा की तरह ही इस बार भी उनकी मेहनत रंग लाई और वे फर्स्ट क्लास में पास हुए।

पीयूसी पूरा करने के बाद अय्यप्पा दुविधा में पड़ गए। उन्हें ये समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें आगे क्या करना है। चूँकि उन्होंने कईयों से सुना था कि इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट यानी आईटीआई का कोर्स करने से नौकरी आसानी से मिल जाती है उन्होंने कॉमर्स में आगे की पढ़ाई करने के बजाय आईटीआई में दाखिला लिया। अय्यप्पा ने कहा, “ उस समय न मुझे एमबीए के बारे में पता था न एमसीए के बारे में। मैंने आईएएस और आईपीएस के बारे में भी कभी नहीं सुना था। गाँव के माहौल में पढ़ने-लिखने की वजह से मुझे कई चीज़ों के बारे में नहीं पता था। सही तरह से गाइड करने वाला भी कोई नहीं था। टीचर जितनी मदद कर सकते थे उन्होंने की। उस समय मुझे लगा कि आईटीआई करने से नौकरी जल्द ही मिल जायेगी मैंने ज्वाइन कर लिया।” 


उन दिनों इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों की बहुत मांग थी। बिजलीकरण का दौर था और राज्य सरकारें हर शहर और हर गाँव में बिजली पहुंचाने की कोशिश में जुटी थीं। इसी वजह से अय्यप्पा ने भी आईटीआई में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के लिए अपनी अर्जी दी। आईटीआई की प्रवेश परीक्षा में अय्यप्पा को 100 में से 98 नंबर मिले। लेकिन, एक प्रशासनिक गलती की वजह से अय्यप्पा को फिटर कोर्स यानी मेस्त्री वाले कोर्स में डाला गया। फिटर कोर्स में उन दिनों उन लोगों को भी दाखिला दिया जाता था जो कि दसवीं भी पास नहीं हैं। अय्यप्पा को 100 में से 98 नंबर पाने के बावजूद फिटर कोर्स में डाला गया जबकि वे इलेक्ट्रिकल कोर्स के हकदार थे।

अय्यप्पा ने बताया, “मुझे लगा कि भगवान मेरी परीक्षा ले रहे हैं। मैं फिटर कोर्स नहीं करना चाहता था। मेरे साफ़ नाइंसाफी हुई थी । मेरी हालत देखकर वी.जी. हीरेमठ नाम के एक लेक्चरर ने मेरी मदद करने की कोशिश की। उन्होंने आईटीआई के प्रिंसिपल से बात की और मेरी सिफारिश भी। लेकिन, इस सिफारिश का प्रिंसिपल पर कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने नियमों का हवाला देकर मुझे फिटर कोर्स में डाल दिया। गलती मेरी नहीं थी, गलती आईटीआई प्रशासन की थी। उन्होंने मुझे बुलाये बगैर ही रिकॉर्ड में ये लिख दिया था कि अय्यप्पा मसगि इंटरव्यू के लिए गैर-हाज़िर थे।”

अब चूँकि अय्यप्पा के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था उन्होंने फिटर कोर्स में दाखिले के लिए हाँ कर दी। लेकिन, अब उनके पास एक बड़ी चुनौती थी। फिटर कोर्स के लिए उन्हें फीस जमा करनी थी। फीस जमा करने के लिए अय्यप्पा को अपनी माँ के गहने बेचने पड़े। उस दिन के बारे में बताते हुए अय्यप्पा बहुत ही भावुक हो गए। उनकी आँखों से आंसुओं की धार निकल पड़ी। किसी तरह से अपने आप को संभालकर उन्होंने कहा, “ मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। मैंने सोने और चांदी के गहने बेच दिए। गहने बेचकर मुझे अस्सी रुपये मिले थे और इन्हीं रुपयों से मैंने आईटीआई में दाखिले की फीस भरी।”

उस दिन की यादें अभी भी अय्यप्पा को बहुत सताती हैं। अपनी माँ के त्याग की याद के तौर पर अय्यप्पा मसगी ने एक प्रण लिया था। उन्होंने फैसला लिया था कि वे जीवन-भर में कभी भी सोने या चांदी की कोई भी वस्तु अपने शरीर पर धारण नहीं करेंगे। अय्यप्पा अपने इस प्रण को अपनी मृत्यु तक निभाने के लिए संकल्पबद्ध हैं। वे कहते हैं, “माँ ने त्याग नहीं किये होते तो मैं कुछ भी न होता। मैं भी गाँव में खेती-बाड़ी ही कर रहा होता। माँ ने मेरी पढ़ाई-लिखाई के लिए बहुत त्याग किये। मैं जब कभी सोना या चांदी का कोई जेवर देखता हूँ तो मुझे माँ का त्याग ही याद आता है।” 


आईटीआई में दाखिले के बाद पहले दिन से ही अय्यप्पा ने अपने काम और अनुशासन से शिक्षकों का दिल जीतना शुरू कर दिया। नोट बुक्स देखकर तिमप्पा मास्टर इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने अय्यप्पा से पूछ लिया कि – “तुम तो बहुत इंटेलीजेंट हो, फिर फिटर का काम क्यों सीख रहे हो? इस सवाल के जवाब में अय्यप्पा ने उनके साथ हुई नाइंसाफी और प्रशासनिक गलती के बारे में बताया। इसके बाद तिमप्पा मास्टर आईटीआई के प्रिंसिपल के पास गए और अय्यप्पा को इंसाफ दिलाने की गुहार लगाई। प्रिंसिपल को इंसाफ करने के लिए बाध्य होना पड़ा, लेकिन वे अय्यप्पा का दाखिला इलेक्ट्रिकल्स में नहीं करवा पाए और अय्यप्पा को मैकेनिकल विभाग में जगह दी गयी जोकि फिटर से अच्छी थी। मैकेनिकल विभाग में दाखिले के बाद अय्यप्पा ने पढ़ाई-लिखाई में जी जान लगा दिया। आईटीआई के दिनों में हीरेमट मास्टर ने अय्यप्पा की खूब मदद की थी।

लेकिन, आईटीआई में भी अय्यप्पा को गरीबी की मार झेलनी पड़ी थी। उन दिनों रिकार्ड बुक और दूसरी ज़रूरी किताबें खरीदने के लिए भी उनके पास 40 रूपए तक नहीं थे। कॉलेज के 180 विद्यार्थियों में से अय्यप्पा को छोड़ सभी ने किताबें और रिकार्ड बुक्स खरीब ली थीं। जब ये बात तिमप्पा मास्टर को पता चली तो उन्होंने इसकी जानकारी हीरेमट मास्टर को दी। हीरेमट मास्टर को लगा कि अय्यप्पा ने उनके पिता के भेजे हुए रुपये खर्च कर दिए हैं और इसी वजह से उनके पास किताबें खरीदने को रुपये नहीं हैं। लेकिन, या बात सच नहीं थी। पिता ने अय्यप्पा को रुपये दिए ही नहीं थे। गलतफहमी का शिकार हीरेमट मास्टर ने अय्यप्पा को अपने पास बुलाया तो कसकर गाल पर चांटा जड़ दिया और पूछा कि पिता के भिजवाये रुपयों को कहाँ खर्च कर दिया। सवाल के जवाब में जब अय्यप्पा ने सच्चाई बताई तो हीरेमट मास्टर को बहुत पछतावा हुआ और वो रो बैठे। इसके बाद हीरेमट मास्टर ने अय्यप्पा को किताबें खरीदने के लिए अपनी जेब से रुपये दिए । अय्यप्पा कहते हैं, “किसी टीचर के हाथों ये मेरी तीसरी मार थी। बस मैंने तीन बार भी अपने टीचरों से मार खाई थी। हीरेमट मास्टर ने आगे भी मेरा बहुत ख्याल रखा था।”

वे अय्यप्पा की आर्थिक रूप से भी मदद करते थे। एक बार हीरेमट मास्टर के लड़के को भी गलतफहमी हो गयी थी। हुआ यूँ था कि अय्यप्पा को उनके कुछ अमीर रिश्तेदार अपने पुराने कपड़े पहनने के लिए दे देते थे। कहने को वे पुराने थे लेकिन नए सरीके दिखते थे और ये कपड़े ‘लेटेस्ट फैशन’ वाले भी थे। इन्हीं कपड़ों को देखकर एक दिन हीरेमट मास्टर के लड़के ने अपने पिता से पूछा – देखिये अय्यप्पा ‘लेटेस्ट फैशन’ वाले कपड़े पहनता है, वो अमीर है। आप उसको गरीब समझने की गलती कर रहे हैं। आप उसकी मदद करना बंद कर दीजिये। हीरेमट मास्टर हकीकत जानते थे और इसी वजह से उन्होंने अय्यप्पा की मदद करना बंद नहीं किया। अय्यप्पा ने बताया, “मेरे चाचा और बुवा अच्छा कमाने लगे थे। वे लोग इस्तेमाल किये हुए कुछ कपड़े मुझे दे देते थे और मैं वही पहनता भी था। मुझे उन दिनों अपने चाचा से दो ‘बटन वाले शर्ट’ भी मिले थे। यही ‘दो बटन वाले शर्ट’ उन दिनों में काफी लोकप्रिय थे और अमीर लोग ही इस तरह की शर्ट पहनते थे। जब मेरे मास्टर के लड़के ने देखा कि मैं भी ‘दो बटन वाली शर्ट’ पहन रहा हूँ तो उसे भी लगा कि मैं अमीर हूँ।” 


इन सब छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच अय्यप्पा ने आईटीआई को कोर्स पूरा कर लिया। आईटीआई की परीक्षाओं में भी अय्यप्पा ने शानदार प्रदर्शन कर अपने कॉलेज और टीचरों का नाम रोशन किया। इस बार भी वे डिस्टिंक्शन में पास हुए। चूँकि अय्यप्पा को आईटीआई की परीक्षाओं में शानदार नंबर मिले थे उन्हें ‘भारत अर्थ मूवर्स’ नाम की सरकारी संस्था में प्रशिक्षुता के लिए चुना गया। अय्यप्पा कहते हैं, “वो दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। वो मेरी पहली नौकरी थी। बेंगलुरु में मुझे नौकरी मिली थी। पिता ने मुझे सौ रुपये दिए थे बेंगलुरु जाने के लिए। अपने गाँव से जब मैं बेंगलुरु पहुंचा था तब मेरी जेब खाली थी। मेरा पेट भी खाली था। सारे रुपये रास्ते में ही ख़त्म हो गए थे। मेरे पास सिर्फ कपड़ों से भरा एक बकसा था। मैं भूखे पेट ही कंपनी गया और काम पर लग गया।”

‘भारत अर्थ मूवर्स’ में अय्यप्पा को प्रशिक्षु होने के नाते 150 रुपये महीना वजीफे के तौर पर दिए जाने लगे। इन डेढ़ सौ रुपयों में से अय्यप्पा सिर्फ 60 रुपये अपनी ज़रूरतों के लिए खर्च करते और बाकी 90 रुपये की बचत करते। बतौर प्रशिक्षु अय्यप्पा का काम इतना बढ़िया था कि जल्द ही ‘भारत अर्थ मूवर्स’ में उनकी नौकरी पक्की कर दी गयी। उनकी तनख्वाह महीने आठ सौ रुपये तय की गयी। जून, 1980 में अय्यप्पा को अपनी ज़िंदगी की पहली पगार मिली। उस दिन की यादें हमारे साथ साझा करते हुए अय्यप्पा ने बताया, “मैंने पहली बार आठ सौ रुपये अपने हाथ में लिए थे। नोट गिनते समय मेरे हाथ कांपने लगे थे। मैं बहुत खुश था। मुझे पहली बार लगा कि मैं अपने घर-परिवार की गरीबी दूर कर पाऊंगा।”

‘भारत अर्थ मूवर्स’ में भी अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर अय्यप्पा ने खूब नाम कमाया। ‘भारत अर्थ मूवर्स’ में नौकरी करने के दौरान उन्हें चेन्नई में होने जा रहे राज्य स्तरीय कौशल प्रतियोगिता के बारे में पता चला। अय्यप्पा ने भी इस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और उनका कौशल देखकर एल एंड टी कंपनी के अधिकारी इतना प्रभावित हुए कि उन्हें एक हज़ार एक सौ रुपये की मासिक तनख्वाह पर नौकरी देने की पेशकश की। चूँकि एल एंड टी कंपनी बहुत ही मशहूर और बड़ी कंपनी थी अय्यप्पा ने नौकरी की पेशकश को स्वीकार कर लिया। एल एंड टी कंपनी में भी अय्यप्पा ने अपने कौशल, अपनी ईमानदारी और मेहनत से खूब नाम कमाया और साल दर साल तरक्की की।

इसी दौरान अय्यप्पा की शादी शारदा देवी से की गयी। शारदा देवी के पिता कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम में काम करते थे और उनके पास अच्छी नौकरी के साथ-साथ अच्छी-खासी धन-दौलत भी थी। शादी से जुडी बातें बताते हुए अय्यप्पा के कहा, “मेरे ससुर ने मेरे बारे में जिस किसी से पूछताछ की थी उन सभी ने मेरे बारे में अच्छी रिपोर्ट दी । सभी ने मेरे बारे में कहा था कि मैं एक दिन बड़ा आदमी बनूंगा। मेरे ससुर को भी मेरा चाल-चलन और चरित्र बहुत पसंद आया और वे अपनी बेटी की शादी मुझसे करवाने के लिए राजी हो गए।” अय्यप्पा हमें ये बात बताने से भी नहीं हिचकिचाए कि उन्हें 1983 में शादी के समय दस हज़ार रुपये दहेज़ के तौर पर दिए गए थे। 


एल एंड टी कंपनी में काम करने के दौरान ही अय्यप्पा ने मैसूर एजुकेशनल इंस्टिट्यूट पॉलिटेक्निक से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा का कोर्स भी पूरा कर लिया। ये कोर्स भी अय्यप्पा ने डिस्टिंक्शन में पास किया। एल एंड टी कंपनी में काम करते हुए ही उन्हें बेंगलुरु विश्वविद्यालय से स्टटिस्टिकल क्वालिटी कंट्रोल में पोस्ट ग्रेजुएशन करने का मौका मिला। ये मौका अय्यप्पा के दूसरे सहकर्मियों को भी मिला था, लेकिन अय्यप्पा ही परीक्षा पास कर पाए थे। अय्यप्पा बताते हैं, “उन दिनों मेरा काम आठ घंटे का होता था और मैं अपने दफ्तर का काम चार घंटे में ही पूरा कर लेता था। बाकी के चार घंटे मैं टॉयलेट में जाकर बैठ जाता और वहीं पढ़ाई करता।”

टॉयलेट में बैठकर पढ़ाई करने का नतीजा भी अच्छा ही निकला। इस पढ़ाई की वजह से वे पोस्ट ग्रेजुएट भी बन गए। कंपनी में उनकी तरक्की हुई और वे कर्मचारी कैडर से मैनेजमेंट कैडर में आ गए। मैनेजमेंट कैडर में रहते हुए अय्यप्पा ने कंपनी के लिए लाखों रुपयों की बचत की। अय्यप्पा ने रद्दी सामग्री का दुबारा इस्तेमाल कर एक साल में दो करोड़ रूपये की बचत की थी। इसके लिए उनकी भूरि- भूरि प्रशंसा भी की गयी। इस तरह की प्रशंसा उन्हें कई बार मिली थी और वे इससे खुश भी होते।

लेकिन, उनकी दिलचस्पी तारीफों के कसीदे सुनने में नहीं थी। वे अपने एक मिशन को कामयाब बनाना चाहते थे। वो एक ऐसा मिशन था जोकि बचपन से उनके मन-मस्तिष्क को परेशान करता रहा था। माँ की तकलीफों को देखकर उन्होंने जो संकल्प लिया था वे उसे पूरा करना चाहते थे। अय्यप्पा ने जब एल एंड टी कंपनी में काम करते हुए अच्छी-खासी दौलत कमा ली और अपने घर-परिवार की गरीबी भी दूर कर ली तब उन्होंने फैसला लिया कि वे अब अपने मिशन पर काम करना शुरू कर देंगे। 


ये मिशन था- गाँवों और शहरों में पानी की किल्लत को दूर करना। मिशन आसान नहीं था, एक अकेला आदमी ऐसा करने की सोच भी नहीं सकता था। लेकिन, अय्यप्पा ने प्रण लिया कि वे इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए अपना जी जान लगा देंगे। वे बचपन से ही पानी की किल्लत से होने वाली समस्याओं और परेशानियों का अनुभव करते आ रहे थे। उन्होंने अपनी माँ को अपनी ज़िंदगी जोखिम में डालकर कई किलोमीटर दूर नंगे पाँव जाकर पानी लाते हुए देखा था। सूखे से पीड़ित किसानों की दुर्दशा देखी थी। सूखे की वजह से नुकसान झेलने वाले कई किसानों की खुदकुशी के बारे में सुना था। पानी के लिए होती मारा-मारी को अपनी आँखों से देखा था। इसी वजह से उन्होंने संकल्प ले लिया कि वे पानी की किल्लत को दूर करने के उपाय ढूँढेंगे और किसानों और दूसरे लोगों की मदद करेंगे।

अपने लक्ष्य को पाने के लिए अय्यप्पा ने एल एंड टी कंपनी से इस्तीफ़ा दे दिया और पानी की किल्लत दूर करने के उपाय खोजने शुरू किये। जब पत्नी को इस बात का पता चला कि अय्यप्पा ने नौकरी छोड़ दी है और पानी की समस्या दूर करने के उपाय ढूँढने निकले हैं तब उन्हें बहुत गुस्सा आया। पत्नी ने अय्यप्पा को खूब खरी-खोटी सुनायी। कई अपशब्द कहे। पत्नी ने अय्यप्पा को ‘नायालक’ और ‘पागल’ भी करार दिया। अय्यप्पा की बड़ी बेटी ने भी अपनी माँ का ही साथ दिया। पत्नी और बड़ी बेटी के अपशब्दों और निरुत्साह करने वाली बातों से अय्यप्पा को बहुत दुःख हुआ । लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी के अपशब्दों को चुनौती की तरह स्वीकार किया और ठान ली कि वे ये साबित करेंगे कि वे नालायक और पागल नहीं हैं। और इसके बाद अय्यप्पा अपने मिशन को कामयाब करने की कोशिश में जी-जान लगाकर जुट गए।

अय्यप्पा ने सबसे पहले अपने गाँव के करीब वीरापुरा में 6 एकड़ ज़मीन खरीदी और अपने प्रयोग शुरू किये। ये छह एकड़ ज़मीन उन्होंने 1.68 लाख रुपये में खरीदी थी। उन्होंने ये ज़मीन इस वजह से खरीदी थी क्योंकि इलाके में अक्सर सूखा पड़ता था और पानी की किल्लत रहती थी। सूखाग्रस्त इलाके से ही अय्यप्पा अपने प्रयोग शुरू करना चाहते थे। उन्होंने इस छह एकड़ ज़मीन में नारियल, केले, सुपारी, कॉफ़ी आदि के पेड़ लगाये। लेकिन, ज़मीन खरीदने के बाद लगातार तीन साल सूखा पड़ा। सूखा भी मामूली सूखा नहीं था। सारे कुएं, तालाब, नदी-नाले - सभी सूख गए थे। सारे बोर-वेल भी सूख गए। पानी था ही नहीं इसी वजह से फसल भी नहीं हो पायी थी। कई पेड़-पौधे भी सूखकर गिर गए। सूखे के दौरान अय्यप्पा ने अपनी ज़मीन पर एक झील बनाई ताकि जब भी बारिश आये तो ये झील पानी से भर जाए और उसी पानी से साल-भर खेतों और बाग़ में पानी का इस्तेमाल किया जा सके। 


तीन साल के सूखे के बाद यानी चौथे साल 2004 में बारिश हुई। लेकिन, बारिश इतनी ज्यादा हुई कि बाढ़ आ गयी। जो खेत सूखे थे और बूँद-बूँद पानी को तरस रहे थे वहीं बस पानी ही पानी था। पानी इतना ज्यादा था कि वो सब कुछ बर्बाद कर रहा था। कई मकान बाढ़ में बह गए थे, कईयों की जान चली गयी थी। वो बहुत भयानक स्थिति थी। अय्यप्पा ने उन दिनों को अपने जीवन के सबसे भयावह दिन बताते हुए कहा, “मेरी भी जान पर बन आयी थी। पानी इतना ज्यादा था कि हर तरफ पानी ही पानी दिखाई दे रहा था। गाँव में एक समय ऐसा था जब लोग बूँद-बूँद पानी को तरस रहे थे और वहीं वो दिन ऐसा था जहाँ लोग पानी से नफरत कर रहे थे। मेरा घर भी पानी में डूब गया था और मुझे अपनी जान बचाने के लिए पेड़ पर चढ़ना पड़ा था। पेड़ पर ही मैंने रात भी गुजारी थी। जब पानी का स्तर कम हो गया तब जाकर मैं नीचे उतरा था।” 


तीन साल के सूखे के बाद बाढ़ के अनुभव ने अय्यप्पा के दिमाग में नए विचारों और प्रयोगों को जन्म दिया। इस अनुभव से उन्हें आभास हुआ कि जब पानी है तब बहुत ज्यादा है और जब नहीं है तब कुछ भी नहीं है। उन्हें अहसास हुआ कि बारिश के मौसम में जो पानी बरसा वो बेकार चला गया। इस ज्ञानार्जन के बाद अय्यप्पा के मन में एक योजना सूझी। उन्होंने मानव निर्मित कुओं और तालाबों के ज़रिये बारिश के पानी को बचाकर रखने की योजना बनाई। उन्होंने अपनी छह एकड़ ज़मीन पर ऐसी जगह तालाब और कुएं बनवाये जहाँ बारिश का पानी आकर ठहर जाता था। अय्यप्पा की ये योजना कारगर साबित हुई और उनकी ज़मीन पर फसल, फलों के पेड़ों, बागवानी, कॉफ़ी,नारियल, केले, रबर आदि के पेड़ों के लिए भी साल-भर पानी उपलब्ध रहने लगा। अय्यप्पा ने अपने प्रयोग से ये साबित कर दिखाया था कि पानी की बचत से ही पानी की किल्लत को दूर किया जा सकता है। बारिश के पानी को बचाकर ही सूखे जैसे हालात में भी फसल उगाही की जा सकती है।

अपने कामयाब प्रयोग से उत्साहित अय्यप्पा ने जन संरक्षण के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए नया आन्दोलन शुरू करने का बड़ा फैसला लिया। अपने फैसले को अमलीजामा पहनाने के लिए उन्होंने साल 2005 में ‘वाटर लिटरेसी फाउंडेशन’ के नाम से एक गैर-सरकारी संस्था की स्थापना की और ‘जल साक्षरता आन्दोलन’ शुरू किया। इस आन्दोलन के तहत अय्यप्पा गाँव-गाँव और शहर-शहर जाकर लोगों में पानी की बचत और उसके सदुपयोग से होने वाले फायदे के बारे में बताने लगे। अय्यप्पा ने इस आन्दोलन के तहत लोगों को बारिश के पानी को बचाने की अलग-अलग तरकीबें भी बताईं-सिखाईं। अय्यप्पा की बताई तरकीबों को अमल में लाकर कई लोगों ने फायदा उठाना शुरू किया। अपने जल साक्षरता आन्दोलन की वजह से अय्यप्पा कुछ ही दिनों में काफी लोकप्रिय हो गए। दूर-दूर तक उनकी ख्याति पहुँची और दूर-दूर से लोग उन्हें अपने यहाँ बुलवाकर पानी की बचत के तौर-तरीके सीखने लगे। 


अय्यप्पा ज्यादातर मामलों में एक ख़ास और बेहद कारगर तकनीक/मॉडल का इस्तेमाल करते हैं। इस मॉडल के तहत अय्यप्पा जमीन में गड्ढे खोदते हैं और फिर उसमें रेत, मिट्‌टी, छोटे-बड़े कंकड़, पत्थर आदि डालते हैं। ऐसा करने से एक ऐसी संरचना बनती है जहाँ बारिश होने पर पानी आकर जमा होने लगता है। इस संरचना के भू-जल का स्तर भी बढ़ता है। यही तकनीक अब कई राज्यों में सरकारी संस्थाओं, आम लोगों, किसानों द्वारा भी इस्तेमाल में लाई जा रही है।

अय्यप्पा को एक बहुत बड़ी कामयाबी उस समय मिली जब उन्होंने बेंगलुरु से कुछ ही किलोमीटर दूर अर्देशनहल्ली गाँव में सारे सूखे बोर-वेल को पुनर्जीवित कर दिया। हुआ यूँ था कि अर्देशनहल्ली गाँव में सारे कुओं का पानी दूषित हो गया था। अर्देशनहल्ली गाँव के आसपास दवाईयां बनाने वाली कई फक्ट्रियाँ थीं और इन फक्ट्रियों से निकलने वाले रसायनों से गाँव के सारे कुएं और तालाब दूषित हो गए थे। पानी इतना दूषित हो गया था कि उसे पीने पर कई तरह की बीमारियाँ होने का खतरा था। अय्यप्पा को जब इस गाँव के बारे में पता चला उन्होंने इसे एक नयी चुनौती के तौर पर स्वीकार किया। सबसे पहले उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर दवाईयों की फक्ट्रियों के खिलाफ आन्दोलन किया और जल-वायु – दोनों को प्रदूषित कर रहीं फक्ट्रियों को बंद करवाया। इसके बाद अपनी ईजाद की हुई तकनीकों से पानी की बचत करवाई और बारिश के पानी से सारे कुओं को पुनर्जीवित किया। इस काम की चारों तरफ सराहना हुई। ‘जल-पुरुष’ के नाम से मशहूर राजेंद्र सिंह को जब इस कामयाब आन्दोलन और प्रयोग के बारे में पता चला तो वे भी अध्ययन करने अर्देशनहल्ली गाँव आये थे।

अय्यप्पा के काम और उनके जल साक्षरता आन्दोलन से प्रभावित होकर विश्वविख्यात ‘अशोका फाउंडेशन’ भी उनकी मदद को आगे आया। ‘अशोका फाउंडेशन’ ने अय्यप्पा को अपनी फ़ेलोशिप से नवाज़ा और तीन साल तक तीस हज़ार रुपये महीना आर्थिक सहायता राशि के तौर पर देने का एलान किया। ‘अशोका फाउंडेशन’ की फ़ेलोशिप मिलने के बाद अय्यप्पा की लोकप्रियता और भी बढ़ गयी। उनके काम का बड़ी तेज़ी के विस्तार होने लगा। अलग-अलग राज्यों की सरकारें उन्हें अपना यहाँ बुलवाकर उनसे जल-संरक्षण के तौर-तरीके और तकनीकें सीखने लगीं। कई सारे लोग और संस्थाओं ने भी अय्यप्पा की सेवाएं लेना शुरू किया। 


अय्यप्पा ने वर्षा-जल संचयन, कम पानी के इस्तेमाल से खेती-बाड़ी की नयी, कारगर और बेहद फायदेमद तकनीकों से अब तक लाखों किसानों और दूसरे लोगों को फायदा पहुंचाया है। जल-संरक्षण के लिए समर्पित अय्यप्पा को उनकी समाज-सेवा और जन-आन्दोलन के लिए कई अवार्डों और पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। वे प्रतिष्टित जमनालाल बजाज राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किये जा चुके हैं। उनके चाहने वाले और उनकी तरकीबों से फायदा पाने वाले लोग उन्हें अब ‘पानी का डाक्टर’ कहकर बुलाते हैं। जिस तरह के काम कर अय्यप्पा ने पानी की बचत को लेकर जागरूकता अभियान चलाया है उसकी व्यापकता, विस्तार और कामयाबी को ध्यान में रखकर कुछ लोग उन्हें ‘जल-गांधी’ कहते हैं और उनकी तुलना महात्मा गांधी से करते हैं। कई लोग अब उन्हें 'आधुनिक भगीरथ' के नाम से भी जानते-पहचानते हैं ।

अय्यप्पा के आन्दोलन से जुड़े आंकड़ों पर नज़र डाली जाय तब भी उनके काम की महत्ता का पता चलता है। वे जून, 2016 तक 7000 करोड़ लीटर बारिश के पानी का संचयन करवा चुके हैं। उन्होंने 500 से ज्यादा झीलें बनवाई हैं। 200 से ज्यादा शहरी अपार्टमेंट में वर्षा-जल संचयन परियोजना को लागू करवाया है। हज़ारों कुओं को पुनर्जीवित किया है। पचास से ज्यादा शैक्षणिक संस्थाओं और सत्तर से ज्यादा उद्योगों-कारखानों में बारिश के जल को संरक्षित करने के लिए भी सफलतापूर्वक परियोजना लागू की हैं।

अय्यप्पा नियमित रूप से अलग-अलग गाँवों और शहरों का दौरा कर लोगों में जल-संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने का काम बिना रुके करते रहते हैं। अय्यप्पा की वजह से कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, गोवा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पंजाब और राजस्थान राज्यों में लाखों किसान और दूसरे लोगों ने पानी की बचत कर अपने जीवन को तरक्कीनुमा, खुशहाल और सुखी बनाया है।


साल 2008 में अय्यप्पा ने ‘रेन वाटर कॉन्सेप्ट्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से एक कंपनी खोली। अय्यप्पा अपनी की कंपनी के ज़रिये अलग-अलग लोगों और संस्थाओं से फीस लेकर उन्हें पानी के बचत और सदुपयोग के तौर-तरीके बता रहे हैं।

अय्यप्पा की ख़ास बात ये है कि अगर मामला पानी का हो तो वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। उनके लिए न दिन मायने रखता है न रात। वे काम के लिए फौरी राजी हो जाते हैं। वे कहते हैं, “मेरा मिशन अभी पूरा नहीं हुआ है। मैं भारत को वो देश बनाना चाहता हूँ जहाँ पीने और सिंचाई के लिए पानी की किल्लत कभी न हो। मैं भारत में ऐसी स्थिति पैदा करना चाहता हूँ जहाँ आवश्यकता से अधिक पानी हो। भारत में कोई भी पानी को न तरसे।”

अय्यप्पा लोगों को सचेत करने से भी नहीं चूकते हैं। वे चेतावनी देते हुए कहते हैं, “अगर हम लोगों ने अभी से बारिश के पानी की बचत नहीं की और पानी का सही इस्तेमाल नहीं किया तो आने वाले दिनों में सारा देश बूँद-बूँद पानी को तरसेगा। पानी की बचत ही समय की मांग है।”


अय्यप्पा ये भी कहते हैं कि उनके जैसे कुछ कार्यकर्ताओं और आन्दोलनकारियों से पानी की बचत नहीं होगी। पानी की बचत सही मायने में तभी होगी जब देश का हर एक नागरिक पानी की बचत करेगा, पानी का संरक्षण करेगा। पानी का संरक्षण सिर्फ सरकारों या फिर कुछ संस्थाओं की ज़िम्मेदारी नहीं है बल्कि देश के हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है।

बड़ी बात ये भी है कि अय्यप्पा ने अपने मिशन के तहत बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने की कामयाब कोशिश भी है। उन्होंने आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में ये कामयाब प्रयोग किया है। अय्यप्पा ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर सूखाग्रस्त अनंतपुर जिले में अस्सी एकड़ ज़मीन खरीदी। ये ज़मीन ऐसी जगह खरीदी गयी जहाँ बारिश बहुत कम होती है और सारी ज़मीन पर पत्थरों के ढेर थे। लोग इसे बंजर भूमि करार देकर वहां से चले गए थे। आंध्रप्रदेश का अनंतपुर वो जिला है जहाँ राज्य के किसी भी जिले की तुलना में सबसे कम बारिश होती है। ऐसी जगह अय्यप्पा ने अपना प्रयोग शुरू किया। उन्होंने इस अस्सी एकड़ भूमि में कई सारे तालाब बनवाए। कई नए कुएं खुदवाए। पुराने सूखे कुओं को पुनर्जीवित किया। जब कभी बारिश हुई उसका सारा पानी बेकार जाने से बचाया। ये प्रयोग कामयाब भी हुआ। अय्यप्पा ने अपनी मेहनत से बंजर ज़मीन को उपजाऊ बना दिया। जहाँ एक पौधा भी जीवित नहीं रहता था वहां उन्होंने सब्जियां उगायीं। फलों के पेड़ लगाये। धान की भी खेती की और कर भी रहे हैं। अय्यप्पा का कहना है कि बंजर भूमि को उपजाऊ बनाना तभी संभव हुआ जब बारिश के पानी का संरक्षण किया गया। बारिश के पानी के सही संरक्षण से भू-जल का स्तर भी बढ़ा। 


अय्यप्पा बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के इस कामयाब प्रयोग/ मॉडल को अब देश के अलग-अलग बंजर इलाकों में लागू करने की योजना बना रहे हैं। कई जगह उन्होंने ये काम शुरू भी कर दिया है।

दिलचस्प बात ये भी है कि एक समय अय्यप्पा को नालायक और पागल कहने वाली उनकी पत्नी अब अपने पति की कामयाबियों पर बहुत फक्र महसूस करती हैं। अय्यप्पा की तीनों बेटियाँ – सुजाता, सुनीता और निवेदिता अब जल जागरूकता अभियान में अपने पिता की मदद करती हैं। बेटा नवीनचंद्रा सिविल इंजीनियर हैं।

अय्यप्पा के ‘कंजूस’ और ‘खुदगर्ज़’ पिता महादेवप्पा सौ साल से भी ज्यादा जिए और उनकी मृत्यु जनवरी, 2016 में हुई।

अय्यप्पा के हाथों लोहे की सीख से ज़ख़्मी हुए सहपाठी बागली वीरभद्र इन दिनों गाँव में किराना की दूकान चला रहे हैं। 

एक बड़ी बात ये भी है कि अय्यप्पा मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और जन-आंदोलनकारी अन्ना हजारे और जल-आंदोलनों के जाने-पहचाने जाने वाले ‘जल-पुरुष’ डॉ. राजेंद्र सिंह से भी मिले और अपने आंदोलन को कामयाब बनाने के लिए उनसे सुझाव और मार्ग-दर्शन लिया। अय्यप्पा विदेश जाकर अलग-अलग देशों में पानी के बचत की योजनाओं और परियोजनाओं का अध्ययन भी करना चाहते हैं।

अय्यप्पा एक और बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। अपने जल-संरक्षण आन्दोलन के तहत वे गाँव-गाँव, शहर-शहर जाकर ‘जल योद्धा’ तैयार कर रहे हैं। अपने आस-पड़ोस के लोगों को जल-संरक्षण के महत्त्व को समझाना और साथ ही लोगों को जल-संरक्षण के आसान और कारगर तौर-तरीके अपनाने के लिए प्रेरित करना ही इन जल योद्धाओं की ज़िम्मेदारी है।